मैं पिछले नौ ब्लॉग में राम चरित मानस के भावुक क्षणों को मानस की चौपाइयों से संकलित करने की छोटी चेष्टा कर रहा हूँ । मैं पिछले ब्लॉगों का लिंक यहाँ दे रहा हूँ तांकि आपने यदि नहीं पढ़ा तो निरंतरता के लिए पढ़ सकते है। कृपया लिंक पर क्लिक करें।
- राम चरित मानस से कुछ भावुक क्षण भाग-१ (बाल लीला )
- राम चरित मानस से कुछ भावुक क्षण भाग-२ ( विवाह )
- मानस के कुछ भावुक क्षण - भाग-३ (वन गमन १)
- मानस के कुछ भावुक क्षण भाग - ४ (राम वन गमन २)
- मानस के कुछ भावुक क्षण-भाग-५ (राम वनगमन-३.१)
- मानस के कुछ भावुक क्षण - भाग- ६ (वन गमन ३-२)
- मानस के कुछ भावुक क्षण भाग-७
- मानस के कुछ भावुक क्षण भाग -८
- मानस के कुछ भावुक क्षण भाग ९
चित्रकूट में यहीं हुआ था राम भरत मिलाप (फोटो इंटरनेट से )
भरतजी का मन्दाकिनी स्नान, चित्रकूट में पहुँचना
लखन राम सियँ सुनि सुर बानी। अति सुखु लहेउ न जाइ बखानी॥
इहाँ भरतु सब सहित सहाए। मंदाकिनीं पुनीत नहाए॥
सरित समीप राखि सब लोगा। मागि मातु गुर सचिव नियोगा॥
चले भरतु जहँ सिय रघुराई। साथ निषादनाथु लघु भाई॥
मुझि मातु करतब सकुचाहीं। करत कुतरक कोटि मन माहीं॥
रामु लखनु सिय सुनि मम नाऊँ। उठि जनि अनत जाहिं तजि ठाऊँ॥
देववाणी सुनकर श्री राम, माता सीता और लक्ष्मण जी विभोर ही गए और सुख पाए। इसी बीच भरत जी सभी समाज के साथ चित्रकूट पहुँच कर मन्दाकिनी में स्नान करते है। फिर सभी को मन्दाकिनी तट पर रुकने कह कर और गुरु और माता की आज्ञा मांग कर उस स्थान के लिए प्रस्थान करते है जहाँ माता सीता और श्री रघुनाथ जी है।
मन्दाकिनी नदी - विकिपीडिया से सौजन्य से
भरत अपनी माता कैकयी के कृत्यों के विषय में सोच कर में पेशोपेश में है। कहीं माता का नाम सुन कर श्री राम , माता सीता और लक्ष्मण उठ कर कहीं और नहीं चले जाये। वे मुझे माता के मत से सम्मत मान कर जो भी करे थोड़ा होगा , पर शायद वे मेरी भक्ति और सम्बन्ध को देख मुझे मेरे सभी पापों और अवगुणों के लिए क्षमा कर देंगे । चाहे मलिन मन जानकर मुझे त्याग दें, चाहे अपना सेवक मानकर मेरा स्थान दे, मेरे लिए तो श्री रामचंद्रजी की चरण की पादुका में ही शरण हैं। श्री रामचंद्रजी तो अच्छे स्वामी हैं, दोष तो सब दास का ही है। उस समय भरत की दशा कैसी है? भरतजी का सोच और प्रेम देखकर उस समय निषाद देह की सुध-बुध भूल गया।
लगे होन मंगल सगुन सुनि गुनि कहत निषादु।
मिटिहि सोचु होइहि हरषु पुनि परिनाम बिषादु॥
सेवक बचन सत्य सब जाने। आश्रम निकट जाइ निअराने॥
भरत दीख बन सैल समाजू। मुदित छुधित जनु पाइ सुनाजू॥
ईति भीति जनु प्रजा दुखारी। त्रिबिध ताप पीड़ित ग्रह मारी॥
जाइ सुराज सुदेस सुखारी। होहिं भरत गति तेहि अनुहारी॥
मंगल सगुन होने लगा तो निषाद राज विचार करने लगे - पहले हर्ष होगा फिर अंत में दुःख होगा। गुह के वचन को सत्य जान भरत जी आश्रम के निकट जा पहुंचे। जैसे इति (प्रकितिक आपदा) से दुखी और तीनो तापों से पीड़ित प्रजा किसी उत्तम राज्य में जा कर सुखी हो जाये भरत की की अवस्था ठीक वैसी ही थी। राम जी के निकट होने के भाव मात्र से भरत अत्यंत सुख पा रहे है। श्री रामचंद्रजी के चरणों के आश्रित रहने से उनके चित्त में आनंद और उत्साह है ।
चित्रकूट के सौम्य प्राकृतिक वातावरण , मुनियों की कुटियों, पक्षियों और जीव जंतुओं को देख कर भरत जी अत्यंत सुख पा रहे है। पानी के झरने झर झर कर रहे हैं और मतवाले हाथी चिंघाड़ रहे हैं। मानो वहाँ अनेकों प्रकार के नगाड़े बज रहे हैं। चकवा, चकोर, पपीहा, तोता तथा कोयलों के समूह और सुंदर हंस प्रसन्न मन से कूज रहे है।
हरषहिं निरखि राम पद अंका। मानहुँ पारसु पायउ रंका॥
रज सिर धरि हियँ नयनन्हि लावहिं। रघुबर मिलन सरिस सुख पावहिं॥
खि भरत गति अकथ अतीवा। प्रेम मगन मृग खग जड़ जीवा॥
सखहि सनेह बिबस मग भूला। कहि सुपंथ सुर बरषहिं फूला॥
रामचन्द्रजी के चरणचिह्न देखकर दोनों भाई ऐसे हर्षित होते हैं, मानो दरिद्र को खजाना मिल गया हो। वहाँ की धूल को मस्तक पर रखकर हृदय में और नेत्रों में लगाते हैं और श्री रघुनाथजी के मिलने के समान सुख पाते हैं। भरत जी की यह दशा देख पशु , पंक्षी प्रेम मग्न हो गए। अति प्रेममय वातावरण में निषाद राज भी रास्ता - दिशा भूल जाते है। तब देवता गण फूल वर्षाकार रास्ता बताते है।
पंचमूःख़ी हनुमान धारा में स्थित मंदिर - चित्रकूट
करत प्रबेस मिटे दुख दावा। जनु जोगीं परमारथु पावा॥
देखे भरत लखन प्रभु आगे। पूँछे बचन कहत अनुरागे ॥
स जटा कटि मुनि पट बाँधें। तून कसें कर सरु धनु काँधें॥
बेदी पर मुनि साधु समाजू। सीय सहित राजत रघुराजू॥
लकल बसन जटिल तनु स्यामा। जनु मुनिबेष कीन्ह रति कामा॥
कर कमलनि धनु सायकु फेरत। जिय की जरनि हरत हँसि हेरत॥
आश्रम में प्रवेश करते ही भरतजी का सारा दुःख और तपन मिट गया, मानो योगी को परमार्थ की प्राप्ति हो गई हो। भरतजी ने देखा कि लक्ष्मणजी प्रभु के आगे खड़े हैं । सिर पर जटा है, कमर में वल्कल वस्त्र बाँधे हैं और उसी में तरकस कसे हैं। हाथ में बाण तथा कंधे पर धनुष है, वेदी पर मुनि तथा साधुओं का समुदाय बैठा है और सीताजी सहित श्री रघुनाथजी विराजमान हैं। श्री रामजी के वल्कल वस्त्र हैं, जटा धारण किए हैं, श्याम शरीर है। श्री रामजी अपने करकमलों से धनुष-बाण फेर रहे हैं और हँसकर देखते ही जी की जलन हर लेते हैं , जिसके ओर भी देखते हैं उसी को परम आनंद और शांति मिल जाती है। छोटे भाई शत्रुघ्न और सखा निषादराज समेत भरतजी का मन प्रेम में मग्न हो रहा है। हर्ष-शोक, सुख-दुःख आदि सब भूल गए। हे नाथ! रक्षा कीजिए ऐसा कहकर वे पृथ्वी पर दण्ड की तरह गिर पड़।
बचन सप्रेम लखन पहिचाने। करत प्रनामु भरत जियँ जाने॥
बंधु सनेह सरस एहि ओरा। उत साहिब सेवा बस जोरा॥
मिलि न जाइ नहिं गुदरत बनई। सुकबि लखन मन की गति भनई॥
रहे राखि सेवा पर भारू। चढ़ी चंग जनु खैंच खेलारू॥
कहत सप्रेम नाइ महि माथा। भरत प्रनाम करत रघुनाथा॥
उठे रामु सुनि पेम अधीरा। कहुँ पट कहुँ निषंग धनु तीरा॥
अत्यंत भावुक क्षण था। लक्ष्मण जी श्री राम के और मुख कर खड़े थे और भरत जी के और उनका पीठ था पर फिर भी भरत जी के मन के भाव उन तक पहुँच रहे है। उन्होंने जान लिया कुछ न कहते हुए भी भरत जी प्रणाम कर रहे है। सेवा में लगे लक्ष्मण जी को क्षण भर भी सेवा को छोड़ भरत जी से मिलते नहीं बनता है और न ही उपेक्षा करते ही बनता है। लक्ष्मणजी के चित्त की इस दुविधा का वर्णन कोई श्रेस्ठ कवि ही कर सकता है। वे सेवा को ही विशेष महत्वपूर्ण समझकर उसी में लगे रहे। फिर भी लक्ष्मणजी ने प्रेम सहित पृथ्वी पर मस्तक नवाकर कहा- हे रघुनाथजी भरतजी प्रणाम कर रहे हैं। यह सुनते ही श्री रघुनाथजी प्रेम में अधीर होकर उठे। कहीं वस्त्र गिरा, कहीं तरकस, कहीं धनुष और कहीं बाण ।
श्री राम से पादुका लेते भरत जी
बरबस लिए उठाइ उर लाए कृपानिधान।
भरत राम की मिलनि लखि बिसरे सबहि अपान॥
मिलनि प्रीति किमि जाइ बखानी। कबिकुल अगम करम मन बानी॥
परम प्रेम पूरन दोउ भाई। मन बुधि चित अहमिति बिसराई॥
कहहु सुपेम प्रगट को करई। केहि छाया कबि मति अनुसरई॥
कबिहि अरथ आखर बलु साँचा। अनुहरि ताल गतिहि नटु नाचा॥
कृपा निधान श्री रामचन्द्रजी ने उनको (भरत जी को) जबरदस्ती उठाकर हृदय से लगा लिया! भरतजी और श्री रामजी के मिलन की रीति को देखकर सभी अपनी सुध भूल गये । मिलन की प्रीति का बखान कैसे की जाए? वह तो कवि के लिए कर्म, मन, वाणी तीनों से अगम है। दोनों भाई भरतजी और श्री रामजी मन, बुद्धि, चित्त और अहंकार को भुलाकर परम प्रेम से पूर्ण हो रहे हैं। कहिए, उस श्रेष्ठ प्रेम को कौन प्रकट करे? कवि की बुद्धि किसकी छाया का अनुसरण करे? कवि को तो अक्षर और अर्थ का ही सच्चा बल है। नट ताल की गति के अनुसार ही नाचता है! श्री तुलसी दास भी इस अवसर पर भाव के अधिकता के कारण शब्दों के ढूढ़ते प्रतीत होते है। इस प्रसंग के वर्णन पर श्रोता , पाठक की आंखे भी अश्रुपूर्ण हो जाती है।
बस आज इतना भर ही। अगले ब्लॉग में राम भारत संवाद और भारत का चरण पादुका मांगना।
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