Thursday, September 10, 2020

बचपन में घर से मैं भी भागा था

 सुना था जिन्दगी में हर कोई एक न एक बार घर से जरूर भागता है। यह उसके आत्मनिर्भर होने की प्रक्रिया ही है। न न मै कभी भाग कर मुम्बई, कोलकाता वैगेरह नहीं गया बस दो तीन बार कुछ छोटी मोटी दूरी तय की है। पहले पहल मैं प्राइमरी स्कूल जमुई से भाग जाया करता था और बाजार के आस पास समय काट कर घर लौट जाता। मेरे पास गाँधी टोपी नहीं थी और टोपी नहीं होने से कक्षा में पूरे period खड़ा कर देते थे। मैने घर में टोपी की बात नहीं की क्योंकि दो दो बार टोपियाँ सिलवाई गयी थी और मै दोनो बार स्कूल में भूल आया था। इस बार किसीको बताने से बेहतर मैने हलीम मियाँ, जो हमारे पारिवारिक दर्जी थे, के पीछे पड़ना श्रेयस्कर समझा। एक दिन मैं उनके दुकान में बैठ गया और तब तक घर नहीं गया जब तक उन्होंने किसी और के पैजामे के कपड़े से मेरी टोपी सिल कर नहीं दे दी। तब मैं छ साल का रहा हूँगा। स्कूल से इस तरह भाग जाना तो किसीके नज़र नहीं आया पर तकरीबन एक  साल बाद मैं एक बार फिर घर से भगा था । तब एक प्रदर्शनी 'नूमर '  नाम के गांव में लगी थी जिसे हम भाई बहन कुछ दिनों पहले माँ पापा के साथ देख आए थे । 

Kali Mandir at Jamui StationPatneshar Pahar
यह गांव हमारे घर से नौ मील दूर है। खादी और ग्राम उद्योग की प्रदर्शनी और मेला था। मेले के बाद गावं का नाम ही बदल कर खादीग्राम हो गया है। मेरा बाल मन प्रदर्शनी-मेला घूम कर भरा न था। किस बच्चे का मन कठघोरवा (Merry Go round) और तारा मांची (हिंडोला) पर चढ़ने से भरता है भला ? बहुत सारे दूसरे आकर्षण भी थे मेले में । जब दुबारा मेला घूमने की मेरी इच्छा पूरी होती न दिखी तो मैंने अकेले जाने का फैसला कर लिया। शायद उस दिन रविवार था। मैं नश्ता कर के पैदल ही निकल पड़ा। न ही कुछ पैसा वैगरह लिया न ही किसीकी को बताया। रास्ता सीधा था और मुझे याद भी था। पहली बार तो टमटम (एक तरह का एक्का) से गए थे। पर इस बार यह संभव न था। बालपन के ज़िद या मासुमियत में मै पैदल ही चल पड़ा। रविवार था रास्ता भी खाली था। कचहरी चौक जहाँ हमेशा भीड़ लगी रहती भी सुनसान था। मै चलता गया। पापा काफी लोक प्रिय डॉक्टर थे। इस कारण बहुत सारे लोग मुझे भी पहचानते थे। लोगों ने शायद सोचा होगा लड़का रविवार की सुबह खेलने जा रहा है । किसी ने ध्यान नहीं दिया ना ही टोका पर कुछ लोगों ने पहचाना था और नोटिस भी किया ही होगा। खैर मैं चल पड़ा। तीन मील ( 5 km)  से ज्यादा की दूरी बिना कहीं रुके पूरी कर ली।

Government High School, Jamui Estd 1894
कचहरी चौक, जमुई High School - Old Science block and well
मै चलता चला गया और खैरमा गांव पार कर किउल नदी पर बने पूल पर आ गया । तभी एक टमटम मेरे पास आ कर रुका। टमटम वाला मुझे पहचानता था । पापा के दवाई का पार्सल वहीं मल्लेपूर से हमारे घर तक पहुंचाता था। मैंने उससे कहा मुझे खादीग्राम मेला देखने जाना हैं आप ले जाओगे ? उसने कहा " मेलवा तो कै दिन होलो खतम होय गेलो है, अब जाय के कि करभो" यानि प्रदर्शनी मेला तो कब का खतम हो गया है अब जा कर क्या करोगे ? उसने मुझे साथ वापस चलने को कहा। चूंकि अब मेरे आगे जाने का प्रयोजन ही नहीं रहा और उसके साथ न आता तो पैदल ही वापस आना पड़ता यह सब सोच कर मैं टमटम पर चढ़ गया  और वापस घर आ गया। गाड़ीवान घर तक छोड़ गया और सारी बातें मेरे पिता को बता भी दी ।
मैं करीब दो घंटे से गायब था लोग यह सोच रहे थे कि कहीं खेलने गया होगा । पर जब ट्यूशन पढ़ाने वाले मास्टर जी आये तब लोगों ने खोजना शुरु किया। पड़ोस के मेरे सारे दोस्तों के यहाँ, अंजू दीदी (बड़ी दीदी) और लिल्ली दीदी के सहेलियों के घर में, सभी जगह खोजा जा चुका था मै। पिटना तय था। पापा को गुस्सा तो बहुत आ रहा था स्टेथेस्कोप का पाइप हंटर के तरह प्रयोग के लिए निकाला जा चुका था। बचने के लिए मैं पलंग के नीचे घुस गया। तब तक दो चार थप्पड़ लग चुका था। माँ ने बड़ी मुश्किल से बचा लिया। बस थप्पड़ की ही मार पड़ी। 
मास्टर साहेब का ज़िक्र आने से एक बात याद आ रही है। मैं जन्म से लेफ्ट Hander हूँ । शायद खानदानी असर है। मेरे छोटे चाचा (छोटा बाबू) और मेरी पोती भी लेफ्ट Hander है। मुझे पता नहीं होता था कि दाहिना हाथ कौन है और बायां हाथ कौन है। अभी भी दाँए हाथ के एक तिल देख कर पता लगता हूँ किधर दाँया है और  बाँया किधर है । बचपन में लोग चिढ़ाते बाँये हाथ से क्यों खा रहे हो तब मैं दूसरे हाथ से खाने लगता। लोग फिर चिढ़ाते यही तो हैं बाँया हाथ। तब चिढ़कर मैं दोनों हाथों से खाने लगता। मुझे बाएं हाथ से लिखता देख मास्टर जी का पारा चढ़ जाता। एक दिन उन्होंने एक जोरदार चपत लगा कर पूछा तुम्हारा दाँया हाथ कौन है मैंने शायद गलत बताया। एक चपत और लगी। उन्होंने मुझे दक्षिण के तरफ मुंह करके खड़ा कर दिया और पूछा पश्चिम किधर है। मुझे दिशा ज्ञान था क्योंकि घर के कमरों का नाम थे दखिनवारी घर, पछियारी घर, पुरबारी घर इत्यादि। मैंने बता दिया पश्चिम किधर हैं एक चपत लगा कर बताया गया दक्षिण के तरफ खड़े होने पर जो हाथ पश्चिम की तरफ हैं वो ही दाया हाथ हैं। इसी हाथ से ही लिखा करो इसी हाथ से  खाया करो। एक जन्मजात लेफ्ट Hander को उन्होंने जबरन राइट Hander बना डाला।आज भी मैं खाने लिखने के अलावा अन्य काम बाएँ हाथ से ही करता हूँ। लोगों को दिक् लगता हैं । उन्हें लगता हैं कि कुछ उल्टा कर रहा हूँ। अक्सर सारे उपकरण कैची पीलर वैगेरह दाये हाथ की लिए ही बने होते हैं। काश कोई हमलोगों के लिए भी आंदोलन करता।

भागने की दूसरी घटना मुंगेर की है। लेकिन मेरा मानना है मैं नहीं भागा या खोया पर मेरी मंझली फुआ ही खो गयी। हम लोग परिवार सहित एक शादी में मुंगेर लल्लू पोखर पापा के चचेरे भाई उमेश चाचा के यहाँ गए थे उनकी बेटी प्रेमा दीदी की शादी थी। मेरी स्वर्गीय मंझली फुआ भी साथ थी। कोई रिश्तेदार किसी स्कूल के हॉस्टल में वार्डन थे। उनके यहाँ जाने के लिए फुआ तैयार हुई तो मुझे भी साथ ले लिया। कोई और साथ जाने के लिए फ्री नहीं तो छोटा मोटा मर्द ही सही। मैं आठ नौ साल का। हम एक रिक्शा से गए थे। मुंगेर का मेरा यह पहला सफ़र था।
लाल दरबाज़ा, मुंगेरनीलम सिनेमा, मुंगेर
मै पूरे रास्ते देखता गया कि कौन कौन सी दुकान रास्ते में पड़ी और कहाँ क्या है। मुझे रास्ते में नीलम सिनेमा भी दिखा जहाँ से बाएं मुड़े थे। आखिर हम उनके यहाँ पहुचे जहाँ जाना था। मैने स्कूल के गेट से हॉस्टल वार्डन के घर का रास्ता भी देखता आया था। घर में सिर्फ दो अधेड़ औरते थी। बच्चे स्कूल गए होंगे। हमें कुछ मिठाई वैगेरह दे कर तीनो औरते बातों में लग गई। थोड़ी देर आंगन में बैठा थक कर मै क्वार्टर के गार्डन और आस पास घूमने देखने में थोड़ी देर व्यस्त रहा। जब सब देख दाख कर लौटा तो घर में कोई न था। फुआ लोग किसी कमरे में बातों में लग गई थी पर मुझे लगा फुआ लौट गयी, मै साथ आया हूँ भूल गई होंगी। नहीं नहीं मै किंचित नहीं घबराया थोड़ी देर इंतज़ार किया कोई आवाज़ भी नहीं आ रही थी। मै उठा और वापस चल पड़ा। रास्ता मुझे याद ही था। घर पहुंचने पर भीड़ भाड़ में मै मगन हो गया। बाहर जहाँ मिठाई बन रही थी वहाँ की गतिविधियाँ देखने लगा। अनिल भैया (अनिल भूषण प्रसाद, अवकाश प्राप्त IAS) मुझे बुला कर ले गए और मै बाकी बच्चों के साथ खेलने में व्यस्त हो गया। मुझे फुआ की याद तब तक नहीं आयी जब तक रोते बिलखते वो खुद न आ गयी। मुझे वापस आया देख उन्हें कैसा लगा होगा मैने तब सोचा भी न था, आप ही बताएं उन्हें गुस्सा आया होगा या प्यार। आप यह भी बताए मै खोया था या फुआ खोयी थी।
चौथी बार मै जानबूझ कर योजना बना कर घर से गायब हुआ था। 10-11 साल का था। वाकया जमुई का ही है। गर्मी के दिन थे और मॉर्निगं स्कूल चल रहा था। मै तब शास्त्रीय संगीत सीख रहा था। स्कूल के बाद करीब दो बजे से जमुई हाई स्कूल में ही क्लास चलता था। शिक्षक थे बजरंगी बाबू जो स्कूल में ही क्लर्क थे और किरानी बाबू यानि बैजनाथ चाचा जिनका घर हमारे मोहल्ले में ही था। बैजनाथ चाचा के पिता स्व रामजश पान्डे जी UP के बनारस के आसपास से किसी गांव से आ कर जमुई में ही बस गए थे। मोहल्ले में उस परिवार के पास तीन घर थे। एक में किरानी बाबू का परिवार रहता था। हमारे घर के बाद उनके घर में ही सार्वजनिक उपयोग के लिए कुआँ था। शहर में कई लोगों के यहाँ कुआँ घर के बाहर बने थे ताकि दूसरे भी पानी भर सके। मेरे सहपाठी अवनी सिन्हा (मन्टू) के यहाँ भी कुआँ घर के बाहर ही था। किरानी बाबू के घर के साथ लगे क्वार्टर नुमा घर में कमला दी (अंजु दी की सहेली) रहती थी और सामने वाले घर में PWD का आफिस था। अब सामने वाले घर में किरानी बाबू का छोटा बेटा रहता है। बैजनाथ चाचा स्कूल में हेड क्लर्क थे। तबला बहुत ही अच्छा बजाते थे। बजरंगी बाबू सुरीले गायक थे। शास्त्रिय संगीत का भी अच्छा ज्ञान था। शहर में संगीत के प्रोग्राम का अक्सर आयोजन होता और शायद ही कोई आयोजन बिना दोनों की सहभागिता के पूरा होता। मेरे छोटे संगीत सफर में ये दोनों ही मेरे गाइड और गुरू थे। मुझे याद नहीं मैंने संगीत की इस गैर जरूरी कक्षा में क्यों प्रवेश लिया था। पर अब सोचता हूँ तब दो कारण समझ में आता है एक तो यह नि:शुल्क था, दूजे किरानी बाबू ने पापा को यही परामर्श दिया होगा।

हमारा घरमहादेव सिमरिया
मुझे शुरू में-सा रे गा मा गाने में वही परेशानी हुई जो सुनील दत्त साहेब को पड़ोसन में किशोर कुमार से सरगम सीखने में हुई थी। पर शीघ्र ही मैं सुर में गाने लगा था। तबला तो बजाना सीख नहीं रहा था पर ताल के बारे में तो जानना ही पड़ता है। तीन ताल, एक ताल, झपताल, दादरा कहरवा सब कुछ सीखा था। ताली और खाली पर ताली देनी पड़ती थी। खैर! शहर में एक सर्कस आया हुआ था। रोज़ टमटम पर प्रचार कर रहे थे।
बहुत पहले जमुई में जैमिनी सर्कस आया था पंच मंदिर में टेंट लगा था। पूरे परिवार के साथ देखने गए थे फिर सर्कस आया है जान कर सकुचाते हुए एक दो बार घर पर बात चलायी पर लोगों ने बच्चे को इग्नोर कर दिया। मैंने फिर एक प्लान बनाया । टिकट कुल छह आठ आने का ही थे। मैंने माँ से कुछ बहाने बना कर मांगा। जब दो चवन्निया इकठ्ठा हो गयी तब एक दिन दोपहर संगीत कक्षा जाना है बता कर घर से निकल पड़ा।

पंच मंदिर दुर्गा पूजा मेलानेतुला मंदिर, कुमार, जमुई

सर्कस गिरीश टाकीज़ से आगे भछियार-नीमा मार्ग पर लगा था। प्रशिद्ध पथ्थर काली मंदिर से थोड़ा पहले। पैदल पैदल चल कर मैं वह शो के समय (३ बजे) से काफी पहले २- २:१५ तक पहुंच गया। टुटपुँजिया सर्कस था। मरियल सा बाघ भी था जिसे पिंजरे में बाहर ही रखा हुआ था। टिकट खरीदने गया तो पता चला शो के १५ मिनट पहले टिकट कटना शुरू होगा। प्रतीक्षा करने के सिवा कोई चारा ना था। प्लान था की ५ बजे सर्कस ख़तम हो जायेगा तो ६ बजे के पहले घर पहुँच जाऊंगा और किसीको कुछ पता भी नहीं चलेगा। खैर किसी किसी तरह टिकट खिड़की खुलने का समय हो गया। कुल ६-७ ही लोग टिकट खरीदने की प्रतीक्षा कर रहे थे। टिकट खिड़की वाले ने तब कहा ३ बजे का शो कैंसिल हो गया है। ६ बजे का टिकट लेना है तो ले लो। मैंने फिर एक क्रन्तिकारी निर्णय लिया। कुछ भी हो जाये सर्कस देख कर ही जाऊंगा। सबसे ऊँचे क्लास का टिकट था सात आने। ऐसे चवन्नी वाला क्लास भी था। सबसे आगे बैठना है यह सोच कर ७ आने का टिकट खरीद कर प्रतीक्षा करने लगा। प्रतिक्षा करने के वे  अब तक की सबसे लम्बे तीन घंटे थे। करीब 5:30 पर गेट खुला और हम अंदर गए। अब तक काफ़ी लोग आ गए थे। सबसे आगे वाले लाईन में कॉरिडोर के बगल वाले सीट पर मैं बैठ गया। कुछ फ़िल्मी गानाा बजाया जा रहा था। टनटन-पहली घंटी बजी। आशा जगी। जोकर लोग इधर उधर जा-जा कर चीजों को ठीक जगह पर रख कर तैय्यारी करने लगे। दूसरी घंटी भी बजी। राम-राम कर तीसरी घंटी भी बजी। मेरे कान पर कुछ लगा। मैंने सोचा कीड़ा होगा। झटक कर हटाने लगा। फिर लगा कोई मेरे कान पकड़ रहा है। मैं पीछे मुड़ कर कुछ कहने वाला ही था कि छोटा बाबू दिख गए। वे ही मेरा कान पकड़ रहे थे। आगे आप ख़ुद सोचो क्या हुआ होगा। बस मैने मार नहीं खाई। पर किसी ने सर्कस दिखाने की दरियादिली भी नहीं दिखाई। याद नहीं शायद अगली बार सर्कस मैने अपने बच्चो के साथ बोकारो में देखी थी।