Wednesday, November 16, 2022

मेरे होस्टल जीवन के शुरुआती दिन

करीब तीन साल पहले मै पटना के महेन्द्रू मोहल्ले हो कर कुछ काम से जा रहा था और बड़ी ऊम्मीद से मै बायी तरफ देखता जा रहा था कि 55 साल बाद अपना पहला होस्टल BCE, PATNA का सिवमिल होस्टल देखने को मिलेगा। पर लॉ कॉलेज के होस्टल के पास एक आलीशान ईमारत दिखी पर मेरा होस्टल कहीं नहीं था। जल्दी में था इसलिए बाद में गुगल पर खोजा तब पता चला वह NIT पटना का ब्रह्मपुत्र होस्टल है जो पुराने CIVMIL होस्टल की जगह खड़ा है। हाल में मेरे कॉलेज मे सात साल सिनियर रहे एक सज्जन का ब्लॉग पढ़ रहा था तब पुराने होस्टल के बारे में किए उनके सजीव चित्रण नें मेरी यादों को हरा कर दिया। और मै अपने Version के साथ हाज़िर हूँ।

वर्ष 1965 में मैनें बिहार कॉलेज ऑफ ईन्जिनियरिंग, पटना में दाखिला लिया। कुल 15 साल का था और एक महिना पहले हीे साईंस कॉलेज में बी.एस.सी में प्रवेश लेने अकेले जाने में हिचक, डर रहा था और मौसेरे भाई ज्ञानु भैय्या को साथ चलने की जिद कर रहा था जिनके ना नुकुर करने पर मैय्या (बड़ी मौसी) से उन्हें डांट सुननी पड़ी थी। पर सिर्फ एक महिने बाद ईंजिनियरिंग कॉलेज मै अकेले आया था, काऊन्सिलिंग के बाद प्रवेश लिया और पता चला 1st year का होस्टल करीब 2 कि०मि० दूर पर था Civmil होस्टल या बैरेक होस्टल। अगले सप्ताह मै समान के साथ होस्टल आ गया। पहले इस 1886 में स्थापित संस्थान में CIVIL-MILITARY ENGINEERING की पढ़ाई अलग ब्रांच की तरह होता था। उनके लिए ही यह एक बैरेक बना जिसे ब्रांच के नाम पर CIVMIL HOSTEL कहा जाने लगा। होस्टल मिलिटरी के लोगो के rough tough जिंदगी के हिसाब से ही बना था। करीब 20 फीट ऊँची लम्बी अस्थायी Shed से दिखने वाली बिल्डिंग मे सात हाल थे। किसी में 24 और किसी में 12 बेड लगे थे बीच में पार्टिशन के साथ। मेरा रूम न० शायद 6 था। ईसमें 12 बेड थे बीच में तीन चौथाई चौड़ाई तक एक ईंटे की दिवाल का पार्टिशन था यानि दोनों तरफ 6 बेड। मेरा रूम पार्टनर थे केक सिन्हा, अंजनी ठाकुर और अन्य दोस्त। मेस कॉमन रूम और वार्डन के लिए अलग अलग बिल्डिंग थे। मजेदार चीजें थी नहाने का Open to sky स्थान था जिसे बिना छत या दरवाजे बाला Bathroom कहा जा सकता था । कई सारे नल लगे थे नल कभी कम नहीं पड़ते। यदि रात में नहाना चाहे तो अंधेरे में ही नहाना पड़ेगा। नहाना भी एक खेल ही होता हम दिवालों पर चढ़ कर दौड़़ते और चुहल कर कर नहाते। Toilet के बारे में बताऊंगा तब मानना पड़ेगा हमने एक साल एक सिपाही की जिंदगी ही जी थी। एक चौड़े नाले के उपर कई छोटे Cubicles बने थे जिसमे भारतीय Toilet सीट लगे थे। थोड़ी थोड़ी देर में पानी छोड़ा जाता जो मल मुत्र बहा ले जाता। पहले पहल घिन लगा बाद में बगल वाले Cubicles में बैठे मित्रों से बाते करतेे और सब भूल जाते।

उपर लिखे बातों के आलावा सभी कुछ मजेदार था। रूम काफी बड़े बड़े हवादार थे। गर्मी तो कभी महसूस नहीं होती रूम की ऊंचाई भी काफी थी। बेड से लगे किनारे एक बक्से सा बना था। जिसमें सामान रख कर लॉक कर सकते थे। एक टेबल कुर्सी तो थी ही। जगह बहुत थी सिंगल रूम हास्टल से ज्यादा। मेस का खाना बहुत पसंद आता था। खास कर आलू का छनुआ भुंजियाँ। कभी कभी फीस्ट होता जिसमें पूरी खीर या मंसाहारी खाना बनता था। नाश्ता में 4 रोटी सब्जी या कभी कभी तिकोना परांठा और भुंजिया। रोटी छोटे-छोटे बनते पूरी के साइज के और मैं 10 से कम कभी नहीं खाता पर नाश्ते में 4 रोटी फिक्स्ड था कभी-कभी एकाध ज़्यादा मांगने पर दे भी देते थे। एक बार मेरा मुरारी सिंह से रोटी खाने का कम्पेटेशन हो गया और हम हाफ सेंचुरी बना बैठे। मुरारी जो हमसे तीन गुना वज़नी था , जीत भी गया। कभी कभी यदि जल्दी तैय्यार हो गए तो रास्ते के उस पार लॉ कॉलेज कैंटीन चले जाते। यहां कूपन के लिए लाइन लगाना पड़ता। कचौड़ी सब्जी जलेबी का मजेदार नाश्ता मिलता था यहाँ।

दूसरीआनन्ददायक जगह थी कॉमन रूम जहाँ अखबार मैगजीन के सिवा दो तीन कैरम बोर्ड थे और रेडियो भी था। बुधवार को रेडियो सिलोन पर बिनाका गीतमाला सुनने के लिए कॉमन रूम खचाखच भर जाता। हर हफ्ते टॉप पर कौन गाना बजेगा इस पर हम लोग बाजी भी लगाते। हारने वाले को ज्यादातर फिल्म के टिकट का पैसा दे देने बाजी ही लगती। फिल्म देखने की आजादी हमे बहुत रास आई और प्रारंभिक दिनों में हर हफ्ते और कभी कभी हर दिन हम फिल्म देख आते। शाम का या रात का शो। रोज शाम पटना मार्केट बेमतलब घूमने जाना भी हमारे रूटीन में शामिल था। कॉलेज के मोड़ पर एक दुकान थी जिसमें टी-स्वक्यार, स्टेडलर का ड्राविंग बॉक्स, ड्राईंग सीट, ब्लैक इंक, 3B से लेकर 5-6 H पेंसिल और स्लाइड रूल हम खरीदते। पटना कॉलेज के सामने मेन रोड पर पुराने किताबो की दुकान थी। ये 40-50% में खरीदते और 60%-75% में बेचते। कई iconic ईंजिनियरिंग की किताबे जो काफी महंगी थी हम वहां से खरीद लाते।

हमारे हॉस्टल के बगल में लॉ कॉलेज का दोमंजिला हॉस्टल था। उधर हो कर ही गंगा का रानी घाट जा सकते थे। वहाँ कुछ ग्वाले यहाँ गाय के साथ आते कभी कभी बछड़ा या खाल में भूसा भरा बछड़ा ले कर आते और गाय को गाहको के सामने दूह कर शुद्ध दूध दे कर जाते। कोई कोई ग्राहक छात्र उपर अपने कमरों की खिड़कियों से झांकते रहते।कहते है एक बार एक ग्वाला एक बैल के पेट पर साइकल ट्युब लपेट कर दुध का घोल भर कर टाट से ढ़क कर लाता और उससे ही दूध निकाल कर दे देता। मेरे याद में मेरे होस्टल में कोई दूध के लिए ग्वाले को नहीं बुलाता था और मेस से ही दूध ले लेते। चाय पीना तब इतना पोपुलर नहीं था। घर वाले का दवाब पर बहुत से छात्र दूध लेते या घर से लाए शुद्ध घी को छोटी कटोरियों में निकाल कर मेस में ले कर आते। पर कई लोग आज इसका लाया तो कल उसका लाया घी में से कुछ बूंद दाल में डाल कर ही काम चला लेते। एक दो घटनाए घटी जो याद है।



Brahmputra Hostel NIT Patna

पहली घटना मेरे 1st टर्मिनल परीक्षा की है। हर साल तीन टर्मिनल परीक्षाए होती थी हर एक वैकेशन के बाद के पहले ही दिन। हर वैकेशन के बाद मै पहले बड़ी मौसी के यहाँ कदमकुआँ (पटना का एक मोहल्ला) रुकता फिर होस्टल आता। पहली गर्मी छुट्टी के बाद जब कदम कुआँ से सीधा कॉलेज गया और परीक्षा का सिटिंग चार्ट देख कर चौंक गया और पहला पेपर था ईंजिनियरिंग ड्राईंग। टी स्क्वायर और कम्पास चाहिए जो कदमकुआँ में था। परीक्षा शुरू होने में आधा घन्टा था मैं रिक्शा से कदमकुआँ जाकर टी स्क्वायर ले आया। थोड़ा लेट भी हो गया और परीक्षा खराब गई सो अलग। दुसरी घटना है जब मैने होस्टल में हलवा बनाने की कोशिश की। मुझे हलवा एक आसानी से बनने वाला पकवान लगता था। भूरा होने तक भूंजो पानी चीनी डालो बस हो गया। बत्ती वाला स्टोव था हमारे पास। आंटा, घी, चीनी ले आए। एक कड़ाही का इंतजाम किया और थोड़े घी में आंटा को भूंजा । जब भूरा हो गया तो चीनी पानी डाल दिया। थोड़ी देर में छोलनी चिपकने लगा तो थोड़ा घी और डाल दिया। गुठली पड़ गई तो थोड़ा पानी भी डाल दिया ये सिलसिला तब तक चलता रहा जब तक सभी घी खत्म न हो गया। एक लपसी जैसा बन कर तैय्यार हो गया। फिर कभी ऐसी हिमाकत नहीं की हमने।

बेसिक सुविधाओ वाले इस हास्टल में बिताया एक साल अनमोल था। काश मै कोई फोटो सिवमिल होस्टल का यहाँ डाल सकता। फिर भी वो एक साल हमें हमेशा याद रहेंगें।