Friday, October 30, 2020

दुर्गा पूजा - तीन शहरों की।

क्रम-सूची
{जमुई की दुर्गा पूजा } {पटना की दुर्गा पूजा }{राँची की दुर्गा पूजा }

जमुई की दुर्गा पूजा
पंच मन्दिर, पुजा जमुई 2018महादेव सिमरिया


दशहरा पूरे भारत में किसी न किसी रूप में मनाया ही जाता है। कहीं डांडियाँ खेल कर कही दशहरा में रावण जला कर और कहीं ढ़ाक के थाप पर नाचते माँ की आरती उतार कर। मुझे चार पाँच जगहों के दशहरों की याद है। सबसे पहले मैं बचपन में मनाए दशहरे की बात करूंगा। तब दशहरे का उमंग और उल्लास कई दिन पहले से शुरु हो जाता था। खास कर हम बच्चों में। सबसे पहले वासुदेव जी के दुकान से कपड़े के थान साड़िया वैगेरह मंगाई जाती। वासुदेव जी के यहाँ से ही सारे कपड़े खरीदे जाते। कभी पूजा के लिए या किसी कारण वश कोई भी कपड़ा चाहिए जा कर कोई भी ले आता और वासुदेव जी हिसाब में लिख लेते। तब घर की महिलाऐं बाजार नहीं जाती थी और कपड़े के थान के थान और साड़ियों के बण्डल वासुदेव जी घर ही भेज देते ताकि कपड़े महिलाऐं पसन्द कर सके। हम सब भाई बहनों के कपड़े एक थान से ही सिले जाते जिसे हम सब दशहरे में एक स्कूल ड्रेस की तरह पहनते। सारे कपड़े पारिवारिक दर्जी हलीम मियाँ ही सिलते और घर ही आ जाते नाप और कपड़ा लेने, इसी से कपड़े के design /style भी एक जैसे ही होते। घर में काम करने वाले नौकर, रसोईए, दाई और कमपाउन्डर साहब के लिए भी कपड़े खरीदे जाते। कुछ सामान जैसे कपड़े स्टेशनरी (आने वाले दावात पूजा के लिए) वैगेरह 'जगाए' जाते, यानि एक बिछावन पर रात भर रख दिए जाते जो दिवाली और भाई दूज के समय ही उपयोग में लाए जाते।



रिबन फटाकालकड़ी के खिलौने


जमुई एक तब छोटा subdivisional शहर था। दुर्गा जी की प्रतिमा पूरे ईलाके में सिर्फ चार जगह ही,बनते थे जिसमें दो प्रतिमा जमुई शहर में और बाकी दो करीब 9 कि.मी. radius में पड़ने वाले रजवाड़े खैरा और परसन्डा (गिद्धौर) में बनते थे। गिद्धौर महराज चन्देलों के अंतिम राजा हुआ करते थे। मेरे दादा जी गिद्धौर महाराज के ही वकील थे और local court से ले कर privy council तक गिद्धौर राज को represent करते थे। जाहिर है इन पूजा मेलों में 20-30 km दूर के गाँवों से काफी भीड़ इकठ्ठा होती थी। छोटे बच्चे अपने पिता के कन्धों पर चढ़ कर मेला घूमते। जमुई में हम जब भी मोड़ पर स्थित पंजाबियों के परचून दुकान तक जाते, दस कदम आगे बनने वाले हटिया वाली दुर्गा जी के प्रतिमा की स्थिति जरूर देख आते। कभी सब्जी की हाट थी और यहाँ की दुर्गा पूजा को हटिया की पुजा कहते है, अभी भी।  हम बड़ी बेसब्री से षष्ठी का इंतजार करते जब प्रतिमा पूजा के लिए तैय्यार हो जाती थी । तरह तरह के खिलौना पंजाबी दुकान में मिलने भी लगते थे और बन्दर वाला खिलौना छोटा वाला फिटफिट आवाज़ वाला खिलौना सिटी वैगेरह ललचाते। कुछ पैसे मिलने से खरीद भी लेते। पूजा के लिए रेवड़ी, मिठाई, फूल माला वैगेरह के साथ झाप (रंगीन कागज से बने मंदिर की आकृति ) भी मिलने थे तब। झाप वैगेरह अब नहीं मिलते। असली मेला पचमंदिर में लगता था जहाँ बहुत भीड़ होती थी।



पंच मंदिर मेला 2018मलेपुर (जमुई स्टेशन) पंडाल


कई दुकानें लग जाती मिठाई और खिलौना हमें पसंद आता था। कठघोड़वा (Merry go round) और तारा माची (Small wheel) में घूमना भी अच्छा लगता था। दादू ( मेरी दादी ) के साथ मेला घूमने में बहुत अच्छा लगता था। जो भी मांगता वह खरीद देती या पापा या माँ से खरीदवा देती। नवरात्री में लगभग प्रति दिन सरदारी हलवाई या बंगाली दुकान से मिठाई   खरीदी जाती। वैसी मिठाईयॉ भी इनदिनों मिलती जो अन्य दिनों में नहीं बनती जैसे लवंगलता, खाजा,इमरती, लाल मोहन, बारा या बालुशाही, क्रीम चॉप, मुरब्बा वैगेरह। दशमी आते आते मिठाई खा खा कर हम अघा जाते ।


मिठाइयांकाली मंदिर जमुई स्टेशन 
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पटना की दुर्गा पूजा

दूसरा शहर जहाँ की दुर्गा पूजा मैंने देखी है वह है पटना का। जमुई में सिर्फ दो पन्डाल बनते यहाँ हर मोड़ पर छोटे पन्डाल और कहीं कहीं बड़े पन्डाल लगते थे। लंगरटोली, मछुआटोली, नाला रोड, राजेन्द्र नगर, हार्डिंग पार्क, गर्दनीबाग, कंकड़बाग, मारूफगंज वैगेरह के पंडाल प्रसिद्ध थे। पटना की पूजा बहुत अलग होती थी। सुन्दर पंडालो के अलावा मुख्य आकर्षण था नृत्य संगीत का कार्यक्रम जो जगह-जगह होता था । पटना शहर में 60-70 के दशक में दुर्गा पूजा के दौरान सांस्कृतिक मामलों को धार्मिक आस्था के साथ जोड़ने का प्रयास किया जाता था. जिन विभूतियों के कला काो हमने आनंद लिया उनके नाम है शहनाई वादक उस्ताद बिस्मिल्लाह खान, सितार वादक उस्ताद विलायत खान, वायलिन वादक वीजी जोग, नृत्यांगना सितारा देवी, और फिल्म उद्योग के महान गायकों का को भी सुना, जैसे कि तलत महमूद और मन्ना डे ।


उस्ताद बिस्मिल्लाह खान कथक क्वीन सितारा देवी 


कालेज के पांच सालो में से तीन साल की दुर्गा पूजा छुट्टी हमने पटना में बिताई थी। 4 दिनों के नृत्य संगीत का कार्यक्रम देखना एक जरूरी past time था । एक साल हमने शाम में मारुफगंज में इस्माइल आजाद की कव्वाली का (वो कव्वाली "हमें तो लूट लिया मिल के हुस्न वालों ने" अभी तक याद हैं ) लगंरटोली में वी जी जोग की वायलिन वादन का, नाला रोड में मन्ना डे के हिन्दी/ बंगला गानों का, हार्डिन्ग पार्क में सितारा देवी के नृत्य का और गर्दनीबाग में विसमिल्ला खां के शहनाई का, गोदई महराज के तबला वादन का आनन्द एक रात में ही उठाया। आर्यावर्त, Indian Nation, Search light, और प्रदीप (पटना से प्रकाशित अखबार) कहाँ कौन सी संगीत - विभूति अपनी कला की प्रदर्शन करेगें इसकी सूचना पहले ही दे देती थी। आप कब पहुचें तब किसका प्रोग्राम आने वाला है या निकल गया ये आपकी किस्मत। श्रोता गण भी पुर्ण शान्ति के साथ सुनते। प्राय: सभी पन्डाल खचाखच भरे होते और पीछे खड़े हो कर ही सुनना पड़ता। 4 बजे तक प्रोग्राम चलता। रात भर खड़े रह कर, जब हॉस्टल पहुँचते हम थक कर चूर हो जाते और सोचते आज आराम करेगें पर शाम तक फिर चक्कर लगाने को तैय्यार हो जाते। मेले में ठेलों पर बिकने वाले खाना पीना खाते जो उस समय काफी स्वादिष्ट लगता। अब सब बदल गया है। वो संगीतमय दुर्गापूजा कहीं खो सी गई है।


राँची की दुर्गा पूजा

नौकरी लगने पर बोकारो की पूजा देखने को मिला। यह सुन्दर प्रतिमा और भीड़ का पर्याय था। फिर राँची आ गया। राँची की पुजा कलात्मक पन्डाल प्रतिमा और मेले में खाने पीने के लिए प्रसिद्ध है। हमारी संस्था मेकन में कार्य करने वाले बंगाली सहकर्मी तो शायद घर में खाना ही नही बनाते थे और सभी मित्र सारे समय कॉलोनी के पूजा पन्डाल और मेले में ही दिख जाते। फुचका और बच्चों के लिए लगाए झूले बहुत लोकप्रिय थे. कुछ फुचके वाले ज्यादा ही लोकप्रिय थे और भीड़ लगी रहती. बकरी बजार या भारतीय युवा संघ का पंडाल में बहुत भीड़ हो जाती  थी . हर बार किसी न किसी प्रसिद्द ईमारत की  प्रतिकृति बनाते हैं और गजब का बनाते है. अन्य पंडाल जो आकर्षण का केंद्र होते वे है आर आर  स्पॉटिंग, स्टेशन रोड ( पंडाल के बाहर किसी थीम पर मूर्तियों से कोई scene बनाते),  राजस्थान मित्र मंडली, बिहार क्लब, सत्य अमरलोक, कोकर पूजा समिति इत्यादि। सन 2000 के आसपास  हम मित्र लोग एक दो कार में या एक कॉमन मेटाडोर में भीड़ से बचते हुये रात ४ बजे निकलते  बस स्टैंड, कांटा  टोली का पंडाल देखते हुए सर्कुलर रोड से कचहरी पहुंचते और बिहार क्लब की पूजा देखते हुए भुतहा तालाब होते अपर बाजार के पंडाल के पास कार पार्क करते और पैदल चलते हुए बकरी बाजार जाते। फिर राजस्थान मित्र मंडली के पंडाल देख कर लौट आते। हरमू बाईपास बनने के बाद हम लोग शाम में भी भाड़े की गाड़ी / ऑटो लेकर भी घूमें हैं। ऑटो वाले पहले छोटी गलियों से आर आर स्पॉटिंग के पीछे  ले जाते फिर और जगह ले जाते. रात में घूमने का यह कार्यक्रम एक दिन सप्तमी या अष्टमी को करते. बाकि दिन मेकन कॉलोनी का पुजा शाम के शाम देखने जाते. वहां आरती, ढाप, शंख वादन, और ॐ-ओमकार प्रतियोगता के समय जाते. कुछ स्नैक्स खाते, कोल्ड ड्रिंक पीते, फुचका खाते  और लौटते. कहाँ का पंडाल सबसे अच्छा बना इसको दशमी के बाद news paper वाले बताते.

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रांची स्टेशन पंडाल २०१४ रांची स्टेशन पंडाल २०१३ 

रांची में दशहरा में रावण दहन का भी चलन हैं.पहले तीन जगहों पर रावण दहन होता था , मेकन, HEC, और मोरहाबादी । अब मेकन में नहीं होता पर बाकि दो जगहों पर होता हैं और बहुत भीड़ होती हैं. देर से पहुंचने पर बच्चे तो बच्चे बड़े भी ठीक से देख नहीं पाते थे. कई और जगहों पर भी अब रावण दहन होता हैं जैसे अरगोड़ा मैदान, पिस्का-नगरी.

CM रघुवर दास रावण पर तीर चलते हुये 2018७० फीट का  रावण मोराबादी २०१८ 

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इसबार पूजा घूमने देखने को कोविड के चलते तरस गए। अगली बार कहाँ की पूजा देखूगां नही कह सकता। ऐसे एक बार षष्ठी के दिन दुर्गापूजा की राजधानी कलकत्ता पहुँचा था, एयर पोर्ट से लॉर्ड सिन्हा रोड गेस्ट हाउस तक जाने में अनगिनत रोड ब्लाक या घूम कर जाने के कारण कई विशाल पंडाल देखने का मौका मिला था। 2011 में पूजा के समय कलकत्ते में था और ट्रैंगुलर पार्क पंडाल तक गया भी था। निर्विवाद रूप से सबसे अच्छे पंडाल कलकत्ता का ही होता है। अब बस फिर मिलता हूँ मेरे अगले ब्लॉग के साथ।

Thursday, October 22, 2020

मेरी पहली नेपाल #यात्रा भाग-2

मेरे पहले नेपाल प्रवास में दो तरह की रोचक घटनांए हुई। पहली प्रकार की घटना मेरे छोटे और बहुत छोटे साले सालियों के साथ बिताया वक्त था। मेरा उनसे वास्तविक परिचय वहाँ पहुचने के दूसरे सुबह से ही प्रारम्भ हो गया। जब मेरे साले सालियों की फौज आ पहुंची। बड़े मामा स्व जस्टिस कृष्ण कुमार वर्मा की उस समय तीन संताने थी बबली, मिन्टू और गुड्डी। सबसे छोटी सुदीपा का जन्म काफी बाद  में हुआ । गुड्डी तब एक साल की थी। मामी ने उसे मेरे गोद में डालते हुए कहा था। "मेहमान (ज्वाई, या दामाद) ये है आपकी सबसे छोटी साली। यहां बर्णित कुछ घटनाए,मेरे बाद की नेपाल यात्रांओ की भी है। 
बुढ़ी माई के साथबुवा के साथ


मिन्टू जो अब एक संजीदा ईन्सान है सबसे छोटा था और हाथ पैर बहुत चलाता था। उसका खेल हाथ पैर चलाना धक्कम धुक्का करना ही था। हाथ भी कड़े कड़े थे,यह तब पता जब उसने खेल खेल में मुझे एक मुक्का जड़ दिया था। बबली का ससुराल तो अब मेरे ही शहर राँची में है और वह अपने पति संग मेरा Solid Support System है। उसके बचपन की मासुमियत में  एक बार मैने उसे रुला ही दिया था। हम लोग जब काठमाण्डु से पटना हो कर लौट रहा था तब बबली हमें वापस जाने से मना कर रही थी। पत्नी जी ने कहा सासू जी की सेवा के लिए जाना जरूरी है। उसने बालपन की जिद में कहा उसे भी सासू जी (मेरी माँ) की सेवा के लिए जाना है। मना करने पर जीजा जी मेरी बात नहीं मान रहे है कह कर रूठ गई और रोने भी लगी। उसे तत्काल शांत करने के लिए मैंने कह दिया ठीक है तुम भी हम लोग के साथ चलना Indian Airlines का एक पुराना Booklet टिकट भी दिखा कर बोला यह तुम्हारा टिकट है। जब हम लोग टैक्सी में बैठने लगे तब बबली मायूस हो गई शायद लोगों ने उसे समझा बुझा कर मना लिया था। छोटे मामा बिजय मामा के बारे में पत्नी जी ने कई बाते बताई थी। कैसे एक छोटी बिमारी (टेटनस) के बाद उनकी मृत्यु हो गई थी। मामी ने अपने आप को और नवीन को अकेले संभाला था। वो एक बैंक में कार्यरत थी। नवीन अब एक Witty लॉ प्रोफेशनल है तब एक शांत बच्चा था। बच्चे जो भी ग्रुप में करते वह उसमें भाग अवश्य लेता था। सबसे छोटी मौसी (सास), ईन्दु मौसी,और मौसा तब काठमाण्डु में ही रहते थे। मौसा तब भारतीय बीमा निगम के काठमाण्डु कार्यालय में कार्यरत थे। वे लोग एक किराये के मकान में गैरीधीरा चौक के पास रहते थे। सुबह ही मेरे तीनों मौसेरे साले सालियाँ (बबलू, रूपा मुन्ना) आ जाते। सबसे छोटी डिम्पी का जन्म बहुत बाद का है। इस तरह सुबह ही 6 छोटे साले सालियों से मै घिर जाता और तब तक उनके मनोरंजन का प्रयास करता या उनकी कहानियाँ या गप सुनता जब तक खाने का समय न हो जाता। पुनः शाम से रात तक बैठक जमती ।
मेरी पत्नी बहन भाईयों में सबसे बड़ी हैं। बिमल तो चेन्नई में मेडिकल पढ़ रहे थे, उनसे पिछली मुलाकात जमुई में ही हुई थी। उनसे छोटे किशोर ने कॉलेज जाना शुरु किया था, उससे कुछ बातें होती जिसमें मेरा भी कुछ interest होता था। एक पुराना रिकार्ड चेन्जर घर में था जिसके मरम्मत की बात हम लोग करते। उसे भरोसा था की जीजाजी तो इंजीनियर है अवश्य ठीक कर देंगे । पूरी तरह मरम्मत तो नहीं कर पाए पर रिकार्ड बजाने लायक हो गया था। नेपाली लोक संगीत के रिकार्ड में मेरी अभिरुचि इसी रिकॉर्ड changer में बजे रिकॉर्ड से जगी थी । कुमार बस्नेत, अरूणा लामा और नारायण गोपाल के नेपाली रिकॉर्ड हर बार मै बोकारो ले जाने लगा था। कई पुराने अंग्रेजी गानों का रिकार्ड भी हमने बाद में कबाड़ में से खोज निकाला था। बुवा (नाना जी) को फोटोग्राफी में काफी रुचि थी और फोटो की डेवलपिंग प्रिन्टिंग घर पर ही कर लेते थे। श्वेत श्याम फोटो को रंग कर रंगीन फोटो भी बना देते। फोटो रंगने की यह कला किशोर ने भी सीख ली थी । विशेष रंग वाले पेपर ब्रश किशोर के पास था और मैने उससे यह कला न सिर्फ सीखी अपितु रंगो की बुकलेट और ब्रश भी उससे ले लिया।
अनिल जो अब नेपाल उच्चतम न्यायलय में जज हैं उस समय स्कूल जाते थे। तब आसपास घूमने में वही मेरे साथी थे। लैनचौर में डेरी था। वहाँ चीज़ (Cheeze) लाने जाते थे जो मेरे नन्हें दोस्तों की फरमाइश होती थी। चीज़ और दुर्खा (Yak Cheese) की महक और स्वाद मुझे बिल्कुल पसंद न था पर खाना पड़ता था। न्यु रोड अक्सर पैदल और कभी कभी रिक्शा से चले जाते थे। एक बार पेयर फोटो खिचाने एक बार रंजना में फिल्म देखने और एक बार जुजु भाई टेलर मास्टर के यहाँ सूट का नाप देने न्यू रोड गए थे। बाबुजी के साथ उनका शुक्र पथ स्थित आफिस भी गए थेा। अनिल के साथ भी कई बार न्यू रोड गए थे शायद गुदपाक (मिल्क केक के जैसा नेपाली मिठाई) लाने। मुझे,याद है एक बार अनिल के कुछ साथी दूर से आते दिखे तो अनिल ने मुझे हिदायत दी जीजा जी आप सिर्फ अंग्रेजी में बोलिएगा। थोड़ी नेपाली हर ट्रिप में सीख रहा था। एक बार मैने अपनी नेपाली टेस्ट करने के लिए एक दुकान में जाने से पहले यह शर्त रखी की मै ही नेपाली में बोलूंगा। मैने दुकान वाले से कहा "दाई, डॉट पेन छ ?" यनि भइया डॉट पेन है ? दुकान दार नेवार था जिसका नेपाली उच्चारण समझने में कठिनाई होती है। उसने कहा "राटो माट्रे छ"। मैं तो फ्यूज हो गया और बात बिलकुल नहीं समझ सका और बिना ख़रीदे ही लौट गया। बाद में पता चला वह कह रहा था "रातो मात्रे छ"। यानी सिर्फ़ लाल है। सबको हँसने के लिए यह वाकिया काफ़ी था।  और यह एक मजा़क की बात हो गई।
अनिल से छोटा गुड्डू बाकि सभी बहन भाईयों से बड़ा था और उनका लीडर भी। इन बच्चो के लिए तब मै  एकलौता जीजाजी था । एक दोस्त या मनोरजंन का साधन।उन्हें मेरे साथ खेलना था और मुझे उनके लिए छोटे गिफ्ट जैसे पुष्टकारी (नेपाली होम मेड चॉकलेट), तितौरा (एक खट्टे स्वादवाला चीज़) दुर्खा (याक चीज़) या और कुछ लाना पड़ता था। मै भी अपने नन्हें दोस्तो के साथ समय बिताना पसंद करता था।
काठमांडू में हमारा रूममेरी पत्नी अपने दोस्तों के साथ

बिहार में तब कम उम्र में शादी हो जाती थी। मेरी शादी तो दो साल नौकरी करने के बाद हुई थी पर मेरे सहपाठियों मे कइयों की शादी कॉलेज के दिनों में ही हो गई थी और उनके बच्चे भी थे। साले सालियों के संग चुहल बाज़ी की कहानियाँ इन दोस्तों से सुन चुका था। मेरा अनुभव एक दम अलग था। मेरे साले सालियों में से कुछ एक से बड़े तो मेरे इन सहपाठियों के बच्चे थे।
कई मन्दिरों को देखने का सौभाग्य प्राप्त हुआ। पशुपति नाथ तो गए ही,शोभा भगवती, श्यम्भु (स्तूप) भी घूम आए। बालाज्यू 22 धारा उद्यान सभी लोग गए। बहुत सारी रोहू कतला मछलियाँ यहाँ छोटे छोटे कृत्रिम तलाबों में रखे गए थे। पत्नी जी ने एक कहानी तुरंत फुरंत सुना दी। कभी एक पहचान का एक माड़वाड़ी परिवार काठमाण्डू घूमने आया था। एक बुजुर्ग महिला ने अपनी बहू को मछली दिखाते हुए कहा था देखो कीड़े कैसे कुलबुला रहे है। अब चूंकि हम लोग मछलियाँ खाते है यह टिप्पणी लोगों को दुखी कर गई।
एक दिन मै गुड्डू के साथ टहलने निकला रास्ते में फुटपाथ पर ही लोग कुछ कुछ छोटे मोटे सामान जैसे भटमास, मूगंफली, विदेशी पेन वैगेरह बेच रहे थे। एक जगह 555, Marcopolo और दूसरे विदेशी सिगरेट बिक रहे थे। मैैने ट्राई करने के लिए एक 555 सिगरेट ले कर सुलगा ली। अब तो गुड्डू बाबू फायर हो गये। चलिए बाबुजी से पिटाई लगवाते है कि धमकी पूरे रास्ते देते आए। घर पहुंच कर हंगमा भी कर दिए कि जीजाजी चुरुट खा कर आए है। एक बार गुड्डू बाबू ने जीजा जी को चाय पिलाने का सोची और बड़े मनोयोग से चाय बनाई जिसमें चाय से ज्यादा ईलायची अदरख वैगेरह थे। चाय तीखी गले में लगने वाली बन गई फिर भी मैने उसका दिल नहीं तोड़ा और कहा अच्छी बनी है। पता चला नेपाली में यहाँ पर "चिया राम्रो छ" के बजाय "चिया मिठो छ" ज्यादा appropriate है। मिठो यानि स्वादिष्ट। राम्रै माने सुन्दर। कई ऐसी घटनाए, मजेदार बातें हुई। जैसा मुझे भिनाज्यू पुकारना। भिनाज्यू माने सेव का बीज वाला बेकार हिस्सा।
कई रिश्तेदार और जान पहचान वाले भी मिलने आए। कईयों के यहाँ मिलने भी गए। लक्ष्मी मामू (गाँव के रिश्ते से) से मिलना याद है। वे आँखों के डाक्टर थे। वे पैलेश के भी डाक्टर थे। उनके परिवार से बहुत ही नजदीक का रिश्ता था और अभी भी है। जितने भी लोग तराई से थे उन सबसे सिन्हा परिवार को प्राय: पहचान थी। एक और विशेष व्यक्ति से भी मिले लाला भैय्या से। अब ने नहीं है पर उनका परिवार सिन्हा परिवार से काफी करीब है। घर के हर प्रयोजन में बुजुर्ग भाभी का होना आवश्यक है। उनके सुपुत्र जयन्त और हेमन्त और परिवार से अन्य सदस्यो से अक्सर अब भी भेंट हो जाती है। लाला भैय्या का घर शायद कोई पुराना दरबार का एक हिस्सा था। उनके पिताजी कभी राणा के सलाहकार थे। रहन सहन राजसी था, उनके बात करने के लहजे और खातिर दारी से भी मै प्रभावित था।

पत्नी जी ने बताया की उनकी सहेलियाँ मिलने आएंगी, मै तो उत्सुक था अब किसी हम उम्र साली जी से मुलाकात होगी। सरिता इनकी सबसे करीब सहपाठी थी और प्रमिला पड़ोस में ही रहती थी। सरिता एक राणा राज परिवार से है और पत्नी जी की सहपाठी थी। खैर जब वे आई भाषा बीच में आ गई, मै नेपाली में सिफर, और व हिन्दी में नासमझ। इन सहेलियों से अब भी मिलता हूँ पर आपस में बातचीत Hi, bye में ही सिमट कर रह जाती है। रजंना में सिनेमा देखने हम दोनों के साथ सरिता भी गयीं थी। ससुराल वाले हमें हर जगह घुमा देना चाहते थे। इसी कड़ी में एक पिकनिक का प्रोग्राम बना। गोकर्ण एक रमणीय जगह थी। राज परिवार के आखेट की जगह। वहीं पिकनिक पर जाना था। हम दोनों, पूरे परिवार और सरिता के साथ पिकनिक जाने वाले थे।
लैंड रोवर हम दोनों
हम दोनों  और सरिता पिकनिक का ग्रुप फोटो


बुवा की एक लैंड रोवर गाड़ी थी। उसे गेराज से निकला गया। चेक करने के बाद पानी पेट्रोल डाला गया। स्टार्ट करने के लिए धक्के की ज़रूरत पड़ी। पर फिर पूरे रास्ते ठीक ही चली। गाड़ी इतनी बड़ी थी की पूरा परिवार ठीक ठाक आ गए। मुझे जमुई की पुरानी बात याद आ गयी। शायद 1967 की जब हम लोग अपने परिवार की पहली कार 1949 ऑस्टिन A-40 से बेगुसराय किसी शादी में जा रहे थे। बच्चे बड़े मिला कर 11-12 लोग आ गए थे उस छोटी गाड़ी में। गाड़ी शायद यह अत्याचार सह न सका। फिर जो हुआ वह किसी और कहानी का विषय है। पिकनिक स्पॉट करीब 10 की. मि. दूर था। मुझे पहले ही बता दिया गया था कि देखते रहिएगा। बहुत सारे हिरण दिखेंगे। सच में बहुत सारे थे। शाम को लौटते समय ज़्यादा नज़दीक आ रहे थे। आँखे भी तब हेडलाइट में चमक रही थी। अब इस जगह पर रिसोर्ट और गोल्फ कोर्स बन गया है।
जब तक खाना बन रहा था हम लोग इधर उधर घूम रहे थे। मनोरम जगह थी। खैर थोड़ी देर लगी पर खाना तैय्यार हो गया। भूख सभी को लग रही थी। बच्चे जाहिर भी कर रहे थे। पर मैं तो दामाद था कैसे कहता भूख लगी जल्दी करो। लोगों ने भोजन तैय्यार होने पर लोगों ने ढ़ेर सारा खिला भी डाला। याद नहीं पर शायद कोई गेम खेले। शाम की चाय बिस्कुट के बाद हम लौट आये। सरिता और हम, पत्नी जी को दुभाषिया बना कर थोड़ी बहुत बात कर पाए। मैने realize किया कि हम एक दूसरे की बातें समझ पा रहे थे पर दूसरे की भाषा के अल्प ज्ञान के complex के चलते बात करने में झिझक रहे थे ।
दो तीन फ़िल्में हमने काठमांडू में देखी है। रंजना में शायद हिन्दी फ़िल्म ही देखी थी। नेपाली फ़िल्म्स कम ही आते थे। माला सिन्हा (हिंदी फ़िल्म अभनेत्री) अभिनीत "माईती घर" और उदित नारायण झा (अब हिन्दी फ़िल्म के प्रसिद्ध गायक) अभिनीत "कुसुमे रुमाल" दो नेपाली फ़िल्म्स मैंने वहाँ देखी है। एक और सिनेमा हाल विश्वज्योति में फ़िल्म देखेने गए । पुराना हॉल था। कभी पत्नी जी इन्दु मौसी के साथ इस हॉल में फिल्म देखने गई थी जब सीलिंग फैन का पत्नी जी के बगल के खाली सीट पर गिर गया था। पूरे समय मेरा ध्यान पंखे पर ही लगा रहा ।

नेपाली गाना सुनने में एक त्यौहार सा फील होता है। पता चला नेपाल में मुख्य त्योहारों के साथ इंद्रा जात्रा, मछेन्द्र नाथ यात्रा वैगेरह होता है। दोहर गीतों में लड़को के ग्रुप और लड़कियों के ग्रुप के बीच छेड़ छाड़ चलती है। अब यु-टयुब पर देखने पर पता चला यह नृत्य बहुत ग्रेस के साथ होता है। पहाड़ की संस्कृति मुझे पहले से ही काफ़ी अच्छी लगती थी। शादी के बाद और अधिक अच्छी लगने लगी थी। तीज में काठमांडू लाल रंग से रंग जाता है। सभी औरते लाल साड़ी और हरे पोते (मोती की माला) में सजती हैं। दशैं (दाशहरा) में बड़ों से छोटें आशीर्वाद लेने आते है और बड़ें आशीष (टीका) के साथ पैसे भी देते है, सबसे मजेदार नेपाली प्रथा तिहार (दिवाली) में देखने को मिलता है। भैलो और देउसी जिसे नेपाल के अलावा दार्जिलिंग, सिक्किम, असम और भारत के कुछ हिस्सों में तिहार (दीवाली) के दौरान गाया जाता है। बच्चे और किशोर इन गीतों को गाते हैं और नृत्य करते हैं क्योंकि वे अपने समुदाय के विभिन्न घरों में जाते हैं, धन इकट्ठा करते हैं, मिठाइयाँ खाते हैं और समृद्धि के लिए आशीर्वाद देते हैं। भैलो को आमतौर पर लड़कियों गाती है, जबकि देउसी को लड़कों द्वारा गाया जाता है। गाय पूजा तो हिंदुस्तान में भी करते है पर यहाँ कौआ और कुकुर (कुत्ता) पूजा भी होती है।
अब बस करता हूँ । फिर मिलेंगे ! फेरी भेटाउला ।

Thursday, October 15, 2020

मेरी पहली नेपाल #यात्रा भाग- १

नारायण हिटी दरबार गोमा गणेश मन्दिर

MENUब्रह्मपुरी मेरा नन-ससुरल बीरगंज बॉर्डर रास्ते के दृश्यअमलेखगंजसीमभंज्याङ्ग और दमनकाठमांडू पहुंचने के बाद

भारत और नेपाल के बीच हमेशा से रोटी बेटी का नाता रहा है । खास कर तराई क्षेत्र में । सन 1973 की बात हैं। दरभंगा में संपन्न हुई हमारी शादी के बाद  पहली बार ससुराल जाने का अनुभव मेरे लिए कुछ अलग-सा था। अलग इसलिए क्योकि मेरी धर्मपत्नी काठमांडू से हैं। वही जन्मी पली पढ़ी। काठमांडू की मेरी पहली यात्रा उत्सुकता भरा था। मेरी पहली विदेश यात्रा। यूँ तो कई देश घूमा हूँ पर मैं कभी वह पहली नेपाल यात्रा भूल नहीं सकता। बस एक हिन्दी फ़िल्म का गाना याद आता हैं "जग घूमया थारे जैसा न कोई"। पहले भाग में मैं यात्रा का वर्णन करूंगा और दूसरे भाग में काठमांडू में प्रथम प्रवास के अन्य अनुभवों का। मैं, पत्नी और माँ बाबूजी (मेरे स्व सास ससुर जी) और मेरे तीन छोटे साले साहेब साथ चले दरभंगा से।यात्रा का पहला भाग तो कोई रोमांच भरा नहीं था ट्रैन से दरभंगा से रक्सौल जाने में क्या रोमांच? छोटी लाइन-मीटर गेज की ट्रैन भीड़ तो होती ही थी। राम-राम कह सफ़र कटा।

ब्रह्मपुरी मेरा नन-ससुरल

रास्ते में बरगैनिया स्टेशन आया तब मेरी पत्नी ने बताया "यही से ब्रह्मपुरी, गौर (नेपाल का एक जिला) जाते हैं जहाँ मेरा नानिहाल हैं"। मैंने तब सोचा मौका लगा तो जाऊँगा वहां । पर मेरे बच्चे तो हो आये मैं ही नहीं गया कभी ।  करीब सात घंटे में यह सफ़र कटा। बड़ी लाइन और तेज़ ट्रेन अब भी पांच घंटे लेती है। मैं, या सच कहूँ तो हम दोनों उत्साहित थे और बिलकुल नहीं थके थे। औरों का पता नहीं ।मेरी पत्नी शादी के पहले करीब छह महीने से दरभंगे में ही थी, और उन्हें भी घर जाने का उत्साह रहा होगा और वह भी पति के साथ ।



ब्रह्मपुरी का घर आज के दिन में 


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बीरगंज बॉर्डर

खैर अब एक नए देश में प्रवेश करने की उत्सुकता मुझ में थी जो लाख छुपाने की कोशिश के वाबजूद जाहिर हो रहीं थी। रात होने वाली थी। यह निश्चित किया गया कि रक्सौल में नहीं रूकेंगे बोर्डर पार कर सीधा बीरगंज जाएगें । सामान भी था और सुबह बीरगंज से निकलना भी था। खैर दो तांगों मे हम सभी आ गए। हमारे साले साहब किशोर और अनिल ने हमे बोर्डर पर चुप ही रहने का हिदायत दिया। सभी नेपाली में ही बात कर रहे हो तो चेक पोस्ट पर ज्यादा आसानी होती। हम चल पड़े एक छोटे मैत्री पुल के इस तरफ भारत और दूसरी ओर नेपाल। भारत के तरफ इमीग्रेशन और कस्टम के चेक पोस्ट पास पास ही थे। बाबूजी (मेरे श्वसुर जी) नेपाली कस्टम में कभी कार्यरत थे। जान पहजान भी होगी। तब नेपाल के बहुत से भूभाग के लिए भारत हो कर ही जाना पड़ता था। गौर से आ रहे है कहने भर से और आने वाले कई प्रश्नों से हम बच गए ऐसे भी सभी नेपाली मे बात कर ही रहे थे और मैं चुप था। तब आधार कार्ड पैन कार्ड, वोटर कार्ड वैगेरह होते नहीं थे। चूंकि नेपालियों और भारतियों को बोर्डर पर Visa की जरूरत नहीं थी चेक पोस्ट वाले आपकी नागरिगता जाँच करने के लिए कई प्रश्न पूछते थे। कहा से आ रहे है? कहाँ जाना है? क्यों जा रहे है? वैगेरह। नेपाल में कस्टम में थोड़ा सामान के बारे में पूछ ताछ हुई और नेपाल से ही सामान ईन्डिया ले जाया गया था के स्पष्टीकरण के बाद हम आगे बढ़े। नेपाली में लिखे बोर्ड को मै पढ़ता जा रहा था। एक जगह "सटही काउन्टर" लिखा था। मुझे बताया गया यहाँ करेंसी बदल कर नेपाली रुपया दिया जाता है। और साटना मतलब बदलना न कि चिपकाना। मै दौड़ कर 100 भारतीय रुपये के बदले १६५ नेपाली रू० ले आया


मै ईधर उधर देखता जा रहा था। साइन बोर्ड पढ़ता जा रहा था। दो तीन नेपाली शब्द तुरतं सीख लिए जैसे भंसार = कस्टम, साटना= Exchange करना, पसल= दुकान। एक जगह लिखा था "यहाँ कुखुरा को मांसु पाईन्छ"। कुखुरा= मुर्गी, आपने क्या सोचा ?  विदेशी समानों से भरे दुकानों को देखते हुए हम बीरगंज के आदर्श नगर बस स्टैन्ड आ पहुचें। काठमांडु के लिए तब सिर्फ त्रिभुवन राजमार्ग ही था। यह एक कठिन पहाड़ी रास्ता है। जबकी अब त्रिसुली नदी के किनारे किनारे सुगम रास्ता बन गया है पर दूरी के हिसाब से पुराना रास्ता काफी छोटा है। उस समय वीरगंज से काठमांडू के लिए सिर्फ तड़के ही बस चलती थी अंतिम बस सुबह दस बजे तक निकल जाती थी। अब तो रात में ही ज्यादातर बसें चलती है। खैर हम तांगे से सीधे बसस्टैंड तक गए। रास्ते में पड़ने वाले सारे प्रतिस्थानो और दुकानों पर राजा और रानी के चित्र अनिवार्य रूप में लगे थे। भारत में भी लोग देवी देवताओ के अलावे नेहरू गाँधी या अन्य राजनीतिज्ञ के चित्र लगते है पर कोई अनिवार्यता नहीं है। 


विंध्यवासिनी मंदिरबीरगंज


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रास्ते के दृश्य

आदर्शनगर बस स्टैंड को अब ओल्ड बस पार्क कहते है और सुना है वहां स्टेडियम बन गया है। बस स्टैंड पहुंचने पर टमटम वाले के साथ थोड़ी बहस इस बात को लेकर हुई कि किराया Indian currency में देना है या नेपाली में। बाद में पता चला यह हर बार की बात है। बस स्टैंड के चारो और लॉज और होटल्स थे। जल्द ही लॉज बुक कर लिया गया और बस का टिकट भी खरीद लिया गया। हम लोग फ्रेश हो कर बाबु जी के मित्र लाट अंकल से मिल आए और माई थान मन्दिर के दर्शन कर आए। अपनी नई नवेली दुल्हन को भीड़ भाड़ से बचा रहा था, मेरा यह प्रयत्न मम्मी जी की नजरों से छुपी नहीं रह सकी और उनकी मन्द मुस्कुराहट मुझसे छिप न सकी। नजदीक के एक रेस्टॉरेन्ट में डिनर ले कर सो गए। सुबह जल्दी जगना था। सुबह तड़के जल्दी तैय्यार हो गए क्योंकि सभी समान पुलिस यानि प्रहरी से चेक करा कर सील करवाना था बस में चढ़ाने के पहले। शायद आर्म्स या ड्रग के लिए चेक करते होगें। ऐसा करने से रास्ते में बार बार समान खोल कर चेक करवाने से बच जाते थे। सील न किया सामान हर स्टॉप पर खुलवा कर चेक करते थे। खैर कचौड़ी जलेबी का लज़ीज नाश्ता कर हम लोग अपनी सीट पर बैठ गए। पहाड़ी रास्ते के कारण छोटी 35 सीट वाली 2x2 बसें ही चलती थी। बस वाले पैैसेन्जर को समय की बहुत याद दिला रहे थे। देर करने पर बस छूटने की धमकी भी दे रहे थे। पर बस करीब एक घन्टे देर से खुली। शहर के अन्दर कई जगह रूक कर लोकल सवारी लेते बस आखिर कर बड़े रास्ते पर आ गई।



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अमलेखगंज

हम एक घंटे में अमलेखगंज पहुंच गए। पता चला पहले रेल गाड़ी यहाँ तक आती थी। गूगल करने पर पता चला की नेपाल सरकार रेलवे (NGR) नेपाल का पहला रेलवे था। 1927 में स्थापित और 1965 में बंद हुआ। 47 किमी लंबी ये रेलवे लाइन नैरो गेज थी और भारत में सीमा पार रक्सौल से अमलेखगंज तक था। चुरिया माई  मन्दिर के पास सभी बसें रुक रही थी। पूजा करके ही बसें आगे बढ़ती थी । हमारी बस भी रुकी। पुजा कर खलासी ने सबको प्रसाद बाटें। जब बस आगे बढ़ी तो चुरिया माई का महात्म्य पता चला। अब बस टूटते पहाड़ों (Land Sides prone) के ऋंखला से गुजर रही थी।   अगला स्टॉप हेटौंडा था। यह एक औद्योगिक शहर है। अब यहाँ लम्बे पर सहज रास्ते से यानि महेन्द्र राज मार्ग से नारायणघाट और होकर मुंग्लिंग होते हुए भी काठमांडू जाया जा सकते है। अगले स्टॉप भैसे ( एक जगह का नाम ) में एक छोटे पुल के पार बस रुकी दिन के खाने के लिए। इसके बाद चढ़ाई वाला रास्ता था, सो डर डर कर ताजी मछली भात खाये। अभी तक पुर्वी राप्ती नदी के किनारे किनारे चले जा रहे थे। रोड पर जगह जगह झरने की तरह स्वच्छ पानी गिर रहा था। नेपाली में इसे धारा कहते है। लोग इसी पानी में बर्तन कपडे धोने नहाने से लेकर पीने पकाने का पानी तक ले रहे थे। पानी ठंडा शीतल था और आँखों को बहुत अच्छा लग रहा था।


भैसे ब्रीज काठमाण्डु की पहली कार, कन्धों पर

ड्राईवर रास्ते में  रंग बिरंगी नेपाली पारम्परिक कपड़ो में बस पर चढ़ने वाली मज़दूर युवतियों में चुहल बाज़ी कर रहा था। पत्नी ने बताया कि पहाड़ो में युवक युवतियो के बीच लोक गीतों में सवाल जवाब की प्रतियोगिता चलती है और कोई बुरा नहीं मानता।


च्यायांगबा होइ च्यायांगबा - नेपाली लोक गीत- क्लिक करे !

हम लोग नये जोड़ो के बीच होने वाले बिन मतलब की बातों में लग गए ।रास्ते के बारे में पत्नी जी बताती जा रहीं थी। उन्होंनें बताया कि पहले तराई से काठमाण्डू घाटी लोग भीमफेदी होकर पैदल ही जाते थे। घाटी में पहली कार भी लोगों के कन्धे पर इसी रास्ते ले जाया गया था। 28 किमी का यह पैदल रास्ता लोग तकरीबन तीन दिनों मे पूरा करते थे। यह सोच कर मुझे घबराहट होने लगी कि यदि हमें भी पैदल जाना पड़ा तो कई बार 3000 फीट से 7000-8000 फीट चढ़ाई उतराई (रास्ते का चित्र देखें)   चढाई करते क्या मै सही सलामत पहुंच भी पाता?


भीमफेदीभीमफेदी होकर पैदल रास्ता

नेपाल का सबसे शानदार और रोमांच से भरा राजमार्ग, त्रिभुवन राजपथ है (आमतौर पर जिसे बायरोड या सिर्फ राजपथ (King's way) कहा जाता है, बीरगंज से काठमांडू घाटी की ओर जाता है । कई हेयरपिन मोड़ो की आश्चर्यजनक श्रृंखला के माध्यम से सीधे महाभारत रेंज होते हुए काठमांडू वैली पहुंचाता है यह रास्ता। यह राजमार्ग रोडोडेंड्रोन या गुराँस (नेपाल का राष्ट्रीय फूल, के जंगल से गुजरता है, काफल के बगीचों से भी गुजरता है । हिमालय के शानदार दृश्यों को अपने में समेटे, खासकर दामन से, यह रास्ता अब कम ही उपयोग में आता है और रास्ते में पड़ने वाले गाँवो को जोड़ने वाले रोड बन कर रह गया है। 1950 के दशक के मध्य में भारतीय इंजीनियरों द्वारा निर्मित, राजपथ काठमांडू को बाहरी दुनिया से जोड़ने वाला पहला राजमार्ग है। शायद भारत ने चीन के आक्रमण के जोखिम को कम करने के लिए नेपाल के माध्यम से किसी भी मार्ग को असुविधाजनक बनाना चाहता था। चूंकि तेज मुगलिंग / नारायणगढ़ मार्ग ज्यादा लोकप्रिय है, इसलिए इस सड़क से यात्रा एक एडवेंचर यात्रा के रूप में बदल गई है, जो इसे माउंटेन बाइकिंग या मोटर साइकिलिंग के लिए एकदम सही बनाता है।


भैसे के बाद चढ़ाइ शुरू हो गयी । कई हेयरपिन मोड़ आये। एक जगह गाड़ी आगे जाने के बजाय पीछे भी खिसकने लगी थी जब ड्राइवर ने गियर ब्रेक का सही सही उपयोग कर गाड़ी आगे चलाई।



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सीमभंज्याङ्ग और दमन

सीमभंज्याङ्ग या शिवभंज्यांगदमन से एवेरेस्ट का दृश्य

जल्द ही हम सीमभंज्याङ्ग या शिवभंज्यांग पहुँच गये। सीमभंज्याङ्ग २४८८ मी (८१६० फ़ीट) पर स्थित है और यहाँ  अच्छी ठण्ड लगने लगी। पता चला यहाँ स्नो फॉल भी होता है ।यहाँ से 10-12 कीoमिo बाद हम लोग दामन पहुँच गए जहाँ से एवेरेस्ट का सुन्दर दृश्य मिलता है। टूरिस्ट एवरेस्ट दर्शन के लिए ही यहाँ अब भी आते है। बादल से आकाश ढ़का था। हम तो कुछ देख नहीं पाए पर रुक कर चाय पिए और कुछ स्नैक्स भी खाए। पता चला नेपाली में पीना शब्द प्रयोग में नहीं है,  सभी चीज़े सिर्फ़ खाते है। चुरुट यानी सिगरेट भी खाते है। पानी भी खाते है और चाऊमीन भी खाते है। बिलकुल बंगालियों,की तरह। थोड़ी देर रूक कर बस चल पड़ी। अब उतराइ थी और हम पालूंग घाटी (5700 फ़ीट) पहुँच गए। थोड़ी चहल पहल थी यहाँ। कुछ सवारी भी यहाँ चढ़ी। पहाड़ो का प्रसिद्ध फल जिसे काफल (Bayberry) कहते है और एक चिड़िया जो "काफल पाक्यो" जैसा कुछ बोलता है इस घाटी की विशेषता है। खेत सीढ़ी दार थे। यहाँ से बस खुलने पर फिर चढ़ाई आ गयी और हम तक़रीबन एक घंटे में टीसटुंग देयुराली (६६६० फ़ीट) पहुँच गए। एक छोटा सा क़स्बा था। हर स्टॉप पर सिपाही (प्रहरी) लोग बस पर चढ़ते सील्ड सामान को खलासी की सहायता से चेक करते। हाथ के समान को भी चेक कर रहे थे।


काफल, Bayberry काफल पाक्यो, Cuculus micropterus

अब तक एक जैसे दृश्यों को देख देख कर मैं ऊब सा गया था, और उघंने लगा। थोड़ी देर में शायद झपकी आ गयी। नींद खुली तो तो हम नौबिसे (३१०० फ़ीट) पहुंच रहे थे। आधे से ज्यादा लोग सो या उंघ रहे थे। शाम हो गयी थी। इस घाटी में अँधेरा भी जल्दी ही होता होगा। हम रोड किनारे के झरना या धारा में हाथ मुंह धो कर एक खाने पीने के दुकान में बैठ गए। सभी जरूरत के सामान थे और लेडीज टॉयलेट्स भी था दुकान में। गरमा गरम चावल दाल सब्जी, मीट बना कर दुकानदार ने सभी को खिलाया। शायद दुकनदार से पुरानी पहचान होगी वह हम लोग की विशेष सेवा में लगा था। स्किन सहित मीट पहली बार खा कर करीब ३०-४० मिनट रुकने के बाद हम चल पड़े। पता चला की अब करीब ३० की मी की रास्ता और बचा है । अँधेरे में कई घुमावदार मोड़ आये। जब सामने से ट्रक आते तो वह रुक कर बस को पास दे देता। पहाड़ी रास्ते का यह नॉर्म हर जगह follow किया जाता है। चढ़ने वाली गाड़ी को पास देते है लोग। दूर से ही आने जाने वाली गाड़ियों की लाईट मोड़ पर घूमती दिख जाती है। करीब १२०० फीट की चढ़ाई और बची थी। करीब एक डेढ़ घंटे में हम थानकोट चेक पोस्ट पहुँच गए।




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काठमांडू पहुँचने के बाद

यहाँ सामानो के सील खोल दिए गए और फाइनल चेकिंग हुई।  बहुत सारी बसें चेकिंग के लिए रुकी थी। थोड़ा समय लग गया। असह्य हो चुकि प्रतीक्षा के बाद बस चल पड़ी। कालीमाटी में सामान (सब्जी) उतार कर बस शहर के रास्तो पर चल पड़ी। रास्ते में पड़ने वाले जगहों की जानकारी लगातार मिल रही थी। यह जी पी औ है, बाबुजी का ख़ाम (लिफाफ) बदलने वाला किस्सा भी हो गया जिसमे नेपाली साटना और हिंदी साटना का कन्फ़ुइजान हुआ था। बाबुजी लिफाफ साटने (चिपकाने) के लिए गोंद मांग रहे थे और पोस्ट आफिस वाला सोच रहा था कि पता लिखा लिफाफ लौटाने(नेपाली में साटना) आए है। रत्न पार्क बस अड्डे पर बस रुकी। हम लोग दो टैक्सी ले कर घर (गैरीधारा) के लिए चल पड़े। टैक्सी वाला टूरिस्ट समझ कर ज्यादा पैसा मांग रहा था। सभी को खाँटी नेपाली में बात करते देख सही भाड़े लेने को तैय्यार हो गया। जपानी टोयटा गाड़ी पहली बार देखा और वह भी टैक्सी में चलते हुए। रास्ते में नारायण हिटी दरबार (पुराना राजमहल) और नागपोखरी हो कर हम गैरीधारा पहुचे। नागपोखरी से राजमहल के किनारे किनारे अब एक रोड है, तब नहीं था। पता चला गहरे गढ्ढ़े मे धारा होने के कारण मुहल्ले का नाम गैरीधारा पड़ गया। तब धारा में पानी भी आता था। अब तो प्राय: सूख ही गया है।


हम लोग रात होने बाद घर पहुचें । पहली बार मुझे एक पारंपरिक नेपाली घर को नजदीक से देखने का मौका मिला। घर में दो भाग थे। एक भाग में नाना जी (बुवा) नानू, बड़े मामा, बड़ी मामी, छोटी मामी और मेरे ममेरे छोटे, छोटे साले-सालियाँ रहते थे। कई लोग मेरी शादी में नहीं आ पाए थे। अत: सभी से मिलने और प्रणाम पाती रात में ही करने गए। बड़ी और छोटी मामी बहुत सुन्दर और ग्रेसफुल लगी। बाद में जब मेरे बच्चे हुए तो छोटी मामी को गुड़िया नानी बुलाने लगे। मकान बड़ा सा और तीन तल्लों का था। सबसे नीचे का तल्ला (Ground floor) या झिरी स्टोरेज भूसा वैगरह रखने और गाय बांधने के लिए था। बाथ रूम और नल भी नीचे के तल्ले पर था। पहला, दूसरा तल्ला रहने के लिए था ।

शायद ठण्ड से बचने के लिए ग्राउंड फ्लोर पर बेड रूम नहीं रखते होंगे। सबसे ऊपर attick या नेपाली में ब्यूंगल में रसोई था। एक छोटा कमरा रसोई के सामने था जो मेरे साले साहब बिमल (अब डॉ बिमल) का था। प्रथम तल्ले पर बड़े कमरे में माँ, बाबूजी रहते थे। इसमें धुप अच्छी आती थी और छुट्टी के दिनो में बाबूजी इसी कमरे से ऑफिस का काम भी निपटा लेते थे। ऐसे बाबूजी और मामा जी का ऑफिस वर्मा सिन्हा लॉ कनसर्न नई सड़क के पास था। एक बारदली के पीछे हम लोग का कमरा था। माँ बाबुजी और ३ साले भाइयों के सिवा परिवार में दो और लोग थे। बूढी माई और भालू हमारा कुत्ता। जल्दी ही वह हमें पहचान गया। शायद लोगों का विशेष ध्यान मेरे ऊपर देख वह समझ गया था की मैं इस घर का विशेष सदस्य हूँ।लज़ीज  खाना खा कर हम थोड़ी देर गप्पे मार कर सो गए।


हमारा पारम्परिक नेपाली घर
हमारा पारम्परिक नेपाली घर
नया घर ८०'s में बना

ठण्ड इतनी थी रजाई ओढ़ कर सोये।  मच्छर दानी भी लगाया गया। ज़मीन पर गलीचा बिछा था और छत पर चांदनी लगी थी। बाद में पता लगा फर्श मिटटी की होती है और हर हफ्ते उसे गोबर मिटटी से नीपना पड़ता था. फिर गलीचा और दरी बिछाते है. ड्राइंग रूम में सोफे की जगह पर चारपाटी या ऊंचा गद्दा रखते थे और गलीचे पर झक झक उजाला चादर या जाजीम बिछाया जाता। सब कुछ राजसी लगता। अब तो सब बदल गया है कम ही पारम्परिक घर काठमांडू में होंगे। सारे घर पक्के सीमेंट के बनने लगे और आधुनिक फरनीचर से सजने लगे है।
काठमांडू में अपने बाल सखा और बाल सखियों, यानि मेरे छोटे साले और सालियों के संग बिताये वो दिन बहुत सारी यादगार और मजेदार घटनाओं से भरे पड़े है. मैं उसे दूसरे भाग में लिखने वाला हूँ ! तब तक के लिए bye...

Wednesday, October 7, 2020

बबा जी मामू

कभी कभी खून से गाढ़े रिश्ते भी होते है। हमने यह बाबा जी क रूप में चरितार्थ होते देखा है। हम सबों से मामा भांजा का रिश्ता उन्होंने क्या गजब निभाया। मै तो भीड़ भाड़ में उनके कंधे पर भी बैठा। पापा के साथ साला बहनोई वाली नोक झोंक भी देखी।
मेरे नाना बाबू पुरेन्दर प्रसाद बेगुसराय के प्रमुख वकीलों में थे और उनकी लम्बी चौड़ी जमिन्दारी भी थी। उनके नाम से एक बार-लाइब्रेरी अभी भी जीर्ण अवस्था में कचहरी में मौजूद है। सभी तरह का अनाज, खाने का तेल, आम के दिनों,में आम खेत से आ जाता। शायद ही खाने पीने का कोई सामान दुकान से खरीदना पड़ता। रोज ताजी सब्जियाँ या मछली तो खेत से आ नहीं सकती पीछे बारी में कुछ सब्जियां जैसे कद्दू, ननुआ, भिण्डी, मिर्ची, मूली, गोभी, बैगन, टमाटर उपजा लिया जाता। एक नींबु का पेड़ भी था कुएं के पास। मुझे कुदरूम की याद है जिसकी चटनी बना करती थी। एक पीले (कनैल) फूल का भी पेड़ था जिसका समोसे जैसा फल मैने खा लिया था। जबरदस्ती पानी पिला पिला कर उलटियां करवाई थी लोंगों ने क्योंकि यह जहरीला होता है। मछली सब्जी वाली रोज हमारे आंगन के चक्कर लगा जाती। गाय भी घर पर ही थी, घोड़ा, टमटम, घोड़ेवान भी बाहर के कम्पाऊन्ड में ही थे। हाँ घर पर आलु चॉप या दुकान में बने नमकीन और मिठाई हमारे बड़े मौसेरे भाई बहन जरूर नाना के किरायेदार दुकान वाले से छिप कर मंगा लेते थे। मुझे भी वह आलु चॉप बहुत पसंद था। बबाजी नाना के विश्वस्तों में से थे।
नाना को मैने वृद्ध ही देखा था । उनका व्यक्तित्व आकर्षक था। लम्बा, गोरा रौबदार। डिस्ट्रिक्ट बोर्ड के चेयरमैन रह चुके थे। डिस्ट्रिक्ट बोर्ड का ही अस्पताल भी था और अस्पताल की नर्स दीदी नाना को सुई लगाने घर ही आ जाती। नाना को सुगर की बीमारी थी। नाना की दो शादियाँ थी, या शायद तीन। पहली नानी के बारे में हाल में ही पता चला । मेरी मौसेरी बहन पुष्पा दीदी ने बताया की पहली नानी की कोई निशानी नाना के पास थी जिसे वो अकेले में कभी कभी निकाल कर देखते थे। मेरी अन्य दो नानियों में से बड़ी नानी से बड़ी मौसी जिन्हें हम सभी प्यार से मैय्या कहते थे, और भागलपुर वाली मझली मौसी थी। नानी की मृत्यु के बाद, नाना ने फिर शादी की और छोटी नानी से हुई मेरी माँ। मेरे कोई मामा न थे ।
माँ के छोटे मामा स्व मुनेश्वरबाबू माँ के छोटी मामी
बबाजी या धनुषधारी सिंह रामदिरी के गरीब भुमिहार ब्राह्मण थे। वे कब हमारे परिवार का हिस्सा बने मुझे मालूम नहीं। जबसे होश संभाला उन्हें देखा। यूं तो वे घर में खाना बनाते थे पर घर के किसी सदस्य से न तो उनका रुतबा कम था न हीं उनका स्नेह। हमारे वे ही मामा थे। मेरी माँ को वे किसा (कृष्णा) कहते और बाकी मौसियों को दीदी। कुछ गलत करने पर हमें उनकी डाँट भी सुननी पड़ती। भंसा में हल्ला गुल्ला करने पर उनकी झिड़की "कलमच बैठ" हमें अब भी याद है। नाना की सेवा में वे लगे रहते। खाना देना। दूध देना, दवा देना। उन्हें सभी याद रहता। खाना हम लोग भंसा में जमीन पर पीढ़े पर बैठ कर खाते। रोटियाँ मोटी मीठी मुलायम बनती। हम कुल 18 में से 15 मौसेरे भाई बहन उस समय थे। मेरे तीन और छोटे भाई बहनों का जन्म तब नहीं हुआ था। सबसे छोटी तब मुकुल थी जिसका पहला नाम अस्पाताल में जन्म लेने के कारण अस्पतलनिया पड़ गया था।इतने बड़े कुनबे का खाना बनाने के लिए बाबा जी ने कभी ना नुकुर नहीं की, इसके उलट उन्हें ज्यादा लोंगों का चहल पहल ज्यादा पसंद था। सब लोग बच्चो,सहित काम में हाथ बटा देते, मै तो आँटे की छोटी लोई ले कर साँप या गाय, कुत्ता बनाता रहता । सब्जी काटना, रोटी बेल देना मिल जुल कर हो जाता। बाबाजी हाथ पर ठोक कर  मकई की मोटी रोटी बहुत अच्छी बनाते। फिर वैसी रोटी मैने कभी नहीं खाई। ओल के खट्टे भरता के साथ वह अलौकिक लगता था । नेनुआ के सब्जी मूली से साथ बनता था जो मुझे बहुत पसंद था
एक वक्त वह भी आया जब हम सभी अपने ठौर ठिकाने पर चले गए, पटना, भागलपुर या जमुई। सबसे बड़ी मौसेरी बहन शान्ति दीदी वहीं स्कूल में टीचर थी। बड़े मौसा के गुजर जाने के बाद, अपने बलबूते पर पढ़ाई की नौकरी की भाई बहनो की भी जिम्मेवारी उठाई। दीदी ने जब ग्रेजुएशन किया तब उनका तबादला पटना हो गया। नाना बिल्कुल अकेले हो गए। सज्जन भैय्या कभी कभी नाना के पास आ जाते। यह वो वक्त था जब बाबा जी ने एक बेटे की भांति नाना कि सेवा की बबाजी अक्सर हम लोगों को ननिहाल से घर पहुचाते थे। उनका ममत्व हमेशा हम पर रहा। जब ही आते उनके हाथ की खिचड़ी खाने का लोभ हम संवरन नही कर पाते।
सिमरीया घाट बाबा धाम मंदिर
बाबा जी एक समर्पित शिव भक्त थे। देवघर स्थित बाबाधाम ( 12 ज्योतिर्लिंगों में एक), साल में कई बार जाते और सावन में सुल्तानगंज के बजाय सिमरिया से ही जल भर कांवर ले चल पड़ते। तब कांवर के रास्ते न दुकानों से सजते थे न हीं रास्ता के किनारे बालू वैगेरह डाले जाते। सुईयां पहाड़ सच में सुई का ही पहाड़ था। 8-10 दिन का रसद, ओढ़ने बिछाने के सामान, छाता, लाठी साथ में लिए तिरहुतिया कावंर ले कर 50-60 किमी की अतिरिक्त दूरी तय करते। जगह जगह रुक कर खाना पकाना, नहाना करते दुर्गम यात्रा करनी पड़ती थी । कुछ ही लोग यह कर पाते थे।अब तो कांवर यात्रा पिकनिक की तरह सुगम हो गई है। ईडली, दोसा, समोसा खाते गाना गाते भीड़ रेले की तरह लोग कांवर यात्रा कर लेते है। कांवर यात्रा में खान पान में साफ सफाई या गंदे पानी के उपयोग से बाबा जी क्रोनिक डिसेन्ट्री के मरीज हो गए। इस रोग ने ताजन्म उनका साथ न छोड़ा। फिर भी उन्होंने कांवर ले कर जाना नहीं छोड़ा। हर बार बाबाधाम से लौटते समय वहां काा पेड़ा चूड़ा हम लोगों को जमुई दे जाया करते। बबा जी जी ने अपनी कमाई से थोड़ा थोड़ा बचा कर अपने मृत्यु के कुछ महीने पहले एक शिव मन्दिर अपने गांव में बनवाया था। प्राण प्रतिष्ठा में सबको बुलाया था। अफसोस सिर्फ मै हीं जा पाया । काफी मशक्कत के बाद मै पहुंचा। थोड़ी बारिश में दलदल से भर जाने वाले गांव में जहाँ घुड़सवारी लोकप्रिय थी, मुझे रिक्शा से उतर कर पैदल ही जाना पड़ा ।
कावंर रामदीरी गांव
मन्दिर में बाहर का प्लास्टर लगना अभी भी बाकी था। बबाजी अपने जीवन काल में ही शिव मन्दिर का काम समाप्त कर लेना चाहते थे। मेरे स्वागत में बाबाजी के भतीजे लगे थे। खाना पीना आडंबर रहित था। बाबा जी ने शादी नहीं की थी। उनके गाँव जा कर लगा सारी जमीन हम नाकारो को देने के वजाय नाना काश कुछ जमीन अपने इस निर्धन बेटे को दे जाते। उनका बुढ़ापा तो आराम से कट जाता। ऐसे मै मानता हूँ ऐसा बाबा जी ने भी नहीं चाहा होगा। उन्होंने शायद ही कोई उम्मीद रक्खी होगी। उन्हे हमलोग एक परिवार दे पाए और वे इसमें ही खुश थे। बबाजी के देहांत की कोई खबर समय पर नहीं पहुंची। हमें बिना कुछ कष्ट दिए वो चले गए। काश उनके लिए हम लोग कुछ कर पाते। हम बबाजी के ममत्व के हमेशा ऋणी रहेंगे।