Sunday, May 16, 2021

बाबा धाम देवघर की कांवर #यात्रा

 बाबाधाम देवघर

देवघर पूर्वी भारत में, झारखंड के राज्य के उत्तरी भाग में स्थित एक देव नगरी हैं । यह एक प्रमुख रेल और सड़क जंक्शन और कृषि व्यापार केंद्र है। यह एक प्राचीन शहर है और भगवान शिव को समर्पित 22 मंदिरों के समूह के लिए प्रसिद्ध है। यहाँ स्थापित शिव लिंग बारह ज्योतिर्लिंग में से एक है । बौद्ध धर्म से जुड़े कई प्रचीन स्थान भी पास में हैं। 1596 में, गिद्धौर के राजा पूरन सिंह ने देवघर के वर्तमान मंदिर की पुनःनिर्मान करवाया था। यहाँ एक अस्पताल, तपेदिक क्लिनिक, और कोढ़ी आश्रय और कई कॉलेज (एक शिक्षक-प्रशिक्षण संस्थान सहित) हैं। मुस्लिम आक्रमणकारी बख्तियार खिलजी ने बिहार की विजय के बाद 1201 में देवघर को अपनी राजधानी बनाया था। यहाँ 1869 में एक नगरपालिका का गठन किया गया था, जो अब एक नगर निगम है 2011 में यहां की जनसँख्या निगम क्षेत्र में 203,123 थी । तीर्थयत्रियों के आने से साल में कई बार बाहर के लोगों से यहां क़ाफी चहल पहल हो जाती हैं और अस्थायी आबादी काफी बढ़ जाती है। सावन महीने में तो प्रमुख तिथियों पर एक लाख से अधिक तीर्थयात्री हर दिन यहाँ आते हैं ।

रावणेश्वर महादेव- महात्म्य

कुबेर के सौतेले भाई श्री लंका के राजा रावण ने एक बार महसूस किया कि उनकी सभी सांसारिक संपत्ति तब तक बेकार हैं जब तक कि उन्होंने कुछ ईश्वरीय चीजें हासिल नहीं कीं। उन्होंने भगवान शिव का "षोडशोपचार पूजन" शुरू किया। प्रसन्न हो कर भगवान शिव ने उन्हें कैलाश आने की अनुमति दे दी। बाद में उन्होंने कठिन तपस्या की और भगवान शिव को प्रसन्न किया। रावण ने शिव जी को लंका चलने का वरदान मांगा। भगवान ने उसे कामना ज्योतिर्लिंग को लंका ले जाने की अनुमति देने पर सहमति व्यक्त की। भगवान शिव ने केवल एक ही शर्त रखी कि लिंग उसी स्थान पर स्थापित हो जायेगा जहां वह उसे नीचे रखेगा। यह महसूस करते हुए कि रावण अजेय हो जाएगा यदि वह शिव लिंग को लंका ले जा सका, देवी पार्वती ने रावण को शिवलिंग को छूने से पहले स्नान करने और आचमन करने के लिए कहा। नहाने के क्रम में गंगा, जमुना आदि नदियों में रावण के पेट में प्रवेश कर गईं। इस बीच चरवाहे बैजू की वेष में भगवान विष्णु रास्ते में उसका इंतजार करने लगे। रावण को पेशाब करने की भयानक इच्छा हुई आखिर उनके अंदर तो नदियों का प्रवेश हो चूका था , लेकिन वह शिव लिंग को नीचे रखना नहीं चाहता था, क्योंकि शिव जी के शर्त के अनुसार लिंग उसी स्थान पर स्थापित हो जाएगा। बैजू को देखकर, रावण ने उसे लिंग उसे थोड़ी देर संभाले रखने के लिए कहा और पेशाब करने चला गया। उसने पेशाब करने के लिए बहुत लंबा समय लिया और बैजू ने धैर्य खोने के बाद शिव लिंग को नीचे रख दिया। भगवान शिव की शर्तों के अनुसार ज्योतिर्लिंग उसी स्थान पर स्थापित हो गया और इसीलिए इसके नाम - बैजनाथ धाम, बैद्यनाथ धाम या रावणेश्वर महादेव पड़ गया। यद्यपि रावण शिव लिंग को लंका नहीं ले जा सका, लेकिन उसने सभी महत्वपूर्ण नदियों के पवित्र जल से चंद्रकूप नामक एक कुएं को भर दिया। यह भी कहा जाता है कि रावण पहला कांवरिया था जिसने हरिद्वार से कांवर ला कर भगवान की पूजा की थी। रावण ने जहाँ मुत्र त्याग किया वहाँ एक तालाब बन गया था और क्योंकि यह वास्तव में गंगा का जल ही था इसे शिवगंगा नाम दिया गया।
मुख्य मंदिर में स्थित शक्ति पीठ को हृदय पीठ कहा जाता है। देवी सती के पौराणिक कथा के अनुसार, जब भगवान शिव उनके शव को दुख और शोक में ले कर जा रहे थे तब देवी का हृदय यहीं गिरा । यहां देवी की पूजा करने से आपके दिल की सभी इच्छाएं पूरी हो जाती हैं ऐसी मान्यता है। देवी सती का दाह संस्कार भी यहीं हुआ और इस जगह को इस कारण चिता भूमि भी कहते है।

कांवर यात्रा

इस यात्रा को बोल-बम यात्रा के नाम से भी जाना जाता है, इस यात्रा में कांवड़िए पैदल नंगे पांव यात्रा करते हैं, वे स्वयं के नाम का उपयोग भी नहीं करते हैं सभी भगवा रंग के एक जैसा वस्त्र पहनते है, ताकि आर्थिक या जातिगत अंतर यात्रियों में नहीं दिखे । हर एक एक दूसरे को बम के कह कर ही बुलाते । इससे आप अपनी सांसारिक पहचान को भूल जाते हैं। सभी उम्र, लिंग, और यहां तक कि विकलांग भी शिव के प्रति पूर्ण विश्वास के साथ इस कठिन यात्रा में चलते है, शिव को बाबा कह कर बुलाया जाता है और कांवड़ियों को बम। सभी कावड़िया गंगा जल सुल्तान गंज (बिहार राज्य-भारत) से भरते है जहां गंगा उत्तर दिशा की और बहती है । गंगाजी के बीच में एक द्वीप में स्थित शिवधाम अजगैबीनाथ में पूजा के साथ यात्रा शुरू होती है और बाबाधाम, देवघर या बैद्यनाथधाम पर समाप्त होता है। शिव कृपा से मैं चार बार सफलता पुर्वक इस यात्रा पर गया हूँ और चारों बार अपने बहनोई संतोष बम के साथ गया जो एक अनुभवी कांवड़िया है। एक बार मेरी पत्नी भी साथ गई थी। हाँ मेरा पहला प्रयास असफल रहा था, जब मै अकेले गया था और अनुभवहीनता के कारण दोपहर की धूप में गर्म सड़क पर ही निकल पड़ा था। दस कि०मि० चलने के बाद ही पैर में कष्टकर छाले निकल आए थे। जिससे मैने पानी निकालवा कर पट्टी तो करवा तो ली थी पर जब रोड को छोड़ कच्चे रास्ते पर चलने की बारी आई तो मैने जल को एक शिवालय में चढ़ा कर बस पकड़ना ही उचित समझा। यदि आप एक ग्रुप में हो तो ऐसी हालत में अन्य सदस्य आपकी हिम्मत बढ़ाते है और आप यात्रा पूरी कर पाते है। अपने तीसरी यात्रा में हमारे एक ग्रुप सदस्य जो थे तो अनुभवी पर औरों से काफी तेज चल रहे थे और पैरों में छाले पड़ गए, पर ग्रुप में थे और उन्होंनें भी यात्रा सफल रही। ग्रुप ने उनके साथ चलने के लिए गति कम जो कर दी और हिम्मत भी बढ़़ाई। मैं हर यात्रा में जाने से पहले १५ से २० दिनों नंगे पांव चलने की प्रैक्टिस कर लेता था । एक बात जो हमने सीखी वह था कभी अपने पर घमंड न करे सबसे पहले मैं पहुँचूगा ऐसी बातें मन में नहीं आने दे ।

डाक कांवड़

डाक बम को जल लेकर २४ घंटे में मंदिर पहुंचना होता है । सुल्तानगंज में टिकट देते है । उजला ड्रेस पहनते है । जल को एक पॉकेटनुमा पट्टी में डाल कर पेट पर बांध लेते है । रास्ते में किसी बात के लिए रुकना नहीं है । खाने के लिए भी नहीं । पानी पी सकते है वो भी चलते चलते । रास्ते में दुकान वाले पानी के गिलास के साथ किसी लड़के को डाक बम के साथ दौड़ा देते है जिससे डाक बम चलते चलते पानी पी लेते है ।

कैसे पहुंचे ?

 बिहार में स्थित सुल्तानगंज पूर्वी रेलवे के साहिबगंज लूप लाइन का एक स्टेशन है । यहाँ गंगा उत्तर दिशा में बहती है । उत्तर वहिनी गंगा का जल उत्तम माना गया है और देवघर के सबसे नजदीक इसी जगह में गंगा उत्तर वाहिनी हैं। बीच गंगा जी में एक छोटे द्वीप पर अजगैबीनाथ महदेव का मंदिर भी है। हम ट्रेन से गए थे किउल जंकशन से भागलपूर की ओर जाने वाली ट्रेन सुल्तानगंज हो कर हो जाती हैं और हम किउल गए और अपने ग्रुप के बम लोगों के साथ (जो मिथिला क्षेत्र के मधुबनी से आ रहे थे) सामिल हो गए । रोड से भी आप सुल्तानगंज जा सकते है मुंगेर, भागलपुर या लखीसराय हो कर । रास्ते का एक मानचित्र यहा दे रहा हूँ ।

कांवड़ यात्रा का रुट



सुल्तानगंज से कमराई ............................ 7.5 km
कमराई से मासूमगंज ……………………… 1.7 km
मासूमगंज .से असरगंज ……………………  4.2 km
असरगंज से तारापुर ………………………… 6.8 km
तारापुर से बिहमा …………………………… 2.2 km 
बिहमा से मानिआ (रामपुर हो कर) धर्मशाला ....6.8 km
मानिया धर्मशाला से कुमरसार नदी ...........….... 6 km
कुमरसार से मधुकरपुर………….………........... 5 km
मधुकरपुर से शिवलोक  ……….....………….. 1.5 km
शिवलोक से चंदननगर ................................. 2.4 km
चंदननगर से जिलेबीया मोर ...............................2 km
जिलेबीया मोर से सुइया ....……….….………... 9 km
सुइया से अबरखा धर्मशाला …......…….….…..6.7 km
अबरखा धर्मशाला से कटोरिया ….….………...7.4 km
कटोरिया से इनारावरण …….……………...... 9.5 km
इनारावरण से गोरयारी धर्मशाला.. ...................7.2 km
गोरयारी धर्मशाला से पटनिया धर्मशला…………. 5 km
पटनिया धर्मशाला से कलकतिया धर्मशाला…...… 3 km
कलकतिया धर्मशाला से भूतबंगला ………..…….5 km
भूतबंगलासे दर्शनिया .धर्मशाला…………………1 km
दर्शनिया धर्मशाला से बाबा बैद्यनाथ मंदिर …….... 1 km

यात्रा पर कब जाएँ

कांवड़ यात्रा में यूं तो पूरे साल लोग जाते हैं । मेरे बाबा जी मामू तो अक्टूबर में जाना पसंद करतें थे, पर वो सारा राशन साथ ले जाते और रास्तें में अपना खाना खुद बनाते । यात्रा पर जाने का सही समय हैं सावन का महीना । जहाँ और महीनों में रास्ता एक दम सूना रहता है एक्का दुक्का कांवरियें ही जाते हैं कोई दुकान भी नहीं सजती वहीं सावन में सबसे जयादा लोग जाते है । खाने पीने की दुकानें भी सज जाती, समाजिक संस्थाओं के तम्बू मुफ्त सहायत के लिए लग जाते है। सरकार की और से भी कई इंतजाम किये जाते हैं जैसे रास्तें पर बालू मिटटी डाल देना, उपचार केंद्र लगाना वैगेरह । पर सावन में भीड़ ज्यादा होने से मंदिर में जल चढ़ाने में काफी दिक्कत होती हैं । मैंने ज्यादा बार सावन शुरू होने के पहले या तुरंत बाद यात्रा की हैं । इससे रास्तें भी सूना नहीं रहती और कुछ कुछ दुकानें भी सज जाती हैं और मंदिर में भी भीड़ की दिक्कत नहीं होती है।

कैसा कांवड़ ख़रीदे

सुल्तान गंज पहुँचने के बाद सबसे पहला काम कांवड़ खरीदने का होता हैं । कावंडिए तरह तरह से कांवड़ सजाते है । लेकिन कांवड़ मोटी तोर पर दो तरह के होते हैं पहला बहँगी वाला कांवड़ जिसमे एक पतले बांस के फट्टे के दोनों ऒर रस्सी से बने बहँगी तराजू के तरह लटके होते जिस पर गंगा जल से भरे पात्र रख कर यात्रा की जाती हैं। इस तरह का कांवड़ सबसे ज्यादा लोकप्रिय हैं । ये हलके होते हैं और चलने पर लचकते जाते है । दूसरे तरह का कांवड़ को तिरहुतिया कांवड़ कहते है । उत्तर बिहार (तिरहुत क्षेत्र) के कांवरियों में यह ज्यादा लोकप्रिय हैं । इसमें एक पूरे गोल बांस के दोनों ओर बांस से बने बंद टोकरी लगे होते है जिसमें गंगा जल पात्र मिटटी से अच्छी तरह बंद कर रखे जाते हैं । मेरे साथी मिथिला क्षेत्र से थे और तिरहुतिया कांवड़ की खूबियों से वाकिफ थे । एक नज़र में यह कांवड़ भारी लगता है पर इसके फायदे इसे हलके बना देते हैं । बहँगी वाले कांवड़ के बांस पतले होते हैं और कंधे पर इसका बोझ एक ही जगह पड़ता हैं और कंधे छिलने लगते हैं जबकि   तिरहुतिया कांवड़ का बोझ मोटे बांस के कारण कंधे पर बोझ एक ही जगह के बजाय  बँट जाता है और कंधे  नहीं छिलते।


बहँगी वाला कांवड़तिरहुतिया कांवड़

अपने लाए सामान प्लास्टिक शीट कपडे वैगेरह तिरहुतिया कांवड़ में बांस के टोकरी के ऊपर बांध लिया जाता है  जबकि बहँगी कांवड़ के साथ सारे ऐसे सामान आपको अलग से ढोना पड़ता है और कहीं छूट जाने की सम्भावन भी बनी रहती हैं । एक और खूबी हैं की क्योंकि तिरहुतिया कांवड़ में बांस का स्टैंड टोकरियों के नीचे लगे होते हैं आप इसे जमीन पर भी रख सकते हैं और जगह जगह लगे कांवड़ स्टैंड पर रखने का बन्धन नहीं रहता। कहने की आवश्यकता नहीं है कि हमने तिरहुतिया कांवड़ ही ख़रीदा । इसमें बस एक ही कमी हैं कि इस कांवड़ को जोड़ने में दुकान वाले कुछ समय लगाते हैं ।

साथ में क्या ले जाये

आपको यथासंभव हल्की यात्रा करनी होगी और रास्ते में होने वाली किसी भी बारिश के लिए तैयार रहना होगा। भगवा रंग की पोशाक 2, 2-पतले तौलिये या गमछा । लगभग 2 मीटर लंबा प्लास्टिक शीट जिसे बिछा कर सोने या बारिश से बचने या सामानों को भींगने से बचाने के लिए उपयोग में लाते है,   और एक टॉर्च सबसे अच्छा रहेगा। कहना न होगा कि रास्ते के खर्च भी रखना होता है  । सावन के दौरान पूरा रास्ता खाने-पीने का सामान बेचने वाली दुकानों से खचाखच भरा रहता है । दिन में हल्का खाना और रात में पूरा खाना खाना बेहतर होता है। रात्रि विश्राम के लिए धर्मशालाएँ हैं या फिर दुकानदार रात्रि विश्राम के लिए कुछ पैसे ले कर एक चौकी या लकड़ी का बिस्तर उपलब्ध करा देते है।

कांवड़ के रास्ते के नियम

पवित्र गंगा जल उत्तर की ओर बहने वाली गंगा से जैसे सुल्तानगंज से ही भरें । आप रास्ते में खा सकते हैं लेकिन कांवड़ उठाने से पहले हाथ धो लें और गंगाजल (इस उद्देश्य के लिए एक छोटे बर्तन में अलग से रखा हुआ) को अपने शरीर पर छिड़कें। कांवड़ को एक कंधे से दूसरे कंधे पर आगे से नहीं बल्कि अपने पीछे घुमाएं। कांवड़ को जमीन पर नहीं रास्ते में जगह जगह बने कांवड़ स्टैंड पर रखें। तिरहुतिया कांवड़ नीचे साफ जगह पर रख सकते हैं । हमेशा कांवड़ से नीचे के स्तर पर बैठें। कांवड़ के पास धूम्रपान, पेशाब या शौच न करें। अगर लघु विश्राम के लिए  रुकने कि जगह पर आपको झपकी आ गयी हो या शौच गए हों या अपने भात (उबले चावल ) खाया हो तो कांवड़ को छूने से पहले नहा लें।रात में सोने के पहले कावड़ की आरती भी की जाती हैं  ।

उपयोगी सलाह

1. हल्का वजन ले कर चले, प्लास्टिक और टॉर्च ले जाएं।
2. छाया में चलें और सड़क के पक्के हिस्से से बचें।
3. एक निश्चित दूरी पर चलने की योजना इस तरह से बनाएं कि रात्रि विश्राम के लिए धर्मशालाओं पर ग्रुप के सारे सदस्य एक साथ पहुंचें
4.महत्वपूर्ण धर्मशालाएँ हैं - तारापुर, मनिया - (रामपुर), कुमारसर, दलसिंह-सराय, कावँरिया, इनारावरन, गोरीयारी, पटनिया, कलकतिया । दुकानों में भी चौकी का इंतजाम रहता है जहां रात बिताई जा सके ।
5. अपनी क्षमता के अनुसार चलें जैसे कि दिन में 20-30 किमी और अपने शरीर की क्षमता से अधिक न चलें। समूह में चलें और समूह के सदस्यों का ध्यान रखें और उन्हें अकेला न छोड़ें।
6. सामाजिक संगठन के टेंट और दी जाने वाली सेवाओं का उपयोग करें जैसे थके हुए पैरों के लिए गर्म पानी, मुफ्त चाय, नाश्ता, दवा आदि।रास्ते में ज्यादा पानी पिए और हल्का खाएं जैसे चूड़ा, दही।

देवघर / बाबाधाम में

कृपया अहंकार को अपने ऊपर हावी न होने दें। यह बाबा की कृपा है कि आप यात्रा कर सके ।शिवगंगा में स्नान कर मंदिर में प्रवेश करे । आप सीधा जल चढ़ाने मंदिर के अंदर जा सकते है या अपने पांडा द्वारा कराये पूजा के बाद । कई पांडा जी ठहरने जगह भी देते है । आपको भगवान शिव को "जल" चढ़ाने के लिए कतार में लगना होगा। भीड़ से बचने के लिए आप सोमवार या पूर्णिमा आदि के दिन बाबाधाम पहुँचने से बच सकते हैं। आप जल चढ़ाने के बाद देवघर में खोवा पेड़ा और अन्य सामान खरीद सकते हैं पर मैं बताऊ दावे से कह सकता हूँ कि आप सबसे पहले जूते / चप्पल ही खरीदेंगे !

देवघर / बाबाधाम में कहाँ रुके

ज्यादा तर लोग देवघर से कुछ ही दूरी पर स्थित बासुकीनाथ तक जल चढाने भी जाते है और कुछ लोग बंगाल में स्थित सिद्ध तारा पीठ तक भी जाते हैं । कभी कभी ट्रैन या बस को अगले दिन ही पकड़ना संभव होता हैं या देवघर में स्थित अन्य दर्शनीय स्थलों की घूमने का प्रोग्राम बन जाता हैं । ऐसी अवस्था में रात में रुकने की भी आवश्यकता होती हैं । देवघर शहर/ बस अड्डे और जसीडीह रेलवे स्टेशन के पास कई बजट होटल हैं । लक्ज़री होटल भी हैं यहाँ। धर्मशालाएं भी अनगिनत हैं । पहले इतने होटल नहीं थे तो लोग इन्हीं धर्मशालों में या पंडा जी के निवास या हवेली में रुक जाते थे । पहले की अपेक्षा पंडा जी भी अब अपने जजमानों के लिए आरामदेह रूम का प्रबंध रखते हैं जिसमे बाथरूम भी होता हैं । होटल के बारे में जानकारी ऑनलाइन मिल जाएगी पर क्यूंकि कब देवघर पहुंचेंगे या कब जल चढ़ेगा निश्चित नहीं होता होटल बुक कर आना संभव नहीं होता । देवघर से ट्रैन या रोड से घर लौटना संभव हैं । देवघर रेलवे स्टेशन दुमका और जसीडीह के बीच में स्थित हैं । जसीडीह पूर्व रेलवे का प्रमुख जक्शन हैं और हावड़ा - पटना लाइन में स्थित हैं ।

Monday, May 10, 2021

मेरी समधन मंजरी जी।

मंजरी जी से मेरी पहली मुलाकात बोकारो में हुईँ थी । उनके बेटे अनंत शील ( शैलू ) से हमारी बेटी श्वेता की शादी की बात चल रही थी और लड़का लड़की को देखने दिखने हम वहां गए थे । मुझे शैलू तो देखते ही पसंद आ गया उसका 100 $ smile जो था । उनलोगों को भी श्वेता तुरंत पसंद आ गयी और एक quick इंगेजमेंट का फंक्शन मेरे पुराने मित्र जैन साहेब के यहाँ कर हम लोगों इस रिश्ते पर मुहर लगा दी।  कोई लेन देन नहीं था। मंजरी जी एक आत्म विश्वास से भरी +ve विचारो वाली महिला थी और एक मुलाकात में ही हम उनके कायल हो गया । एक घटना जो याद है वह है कि शादी की तारीख तय होने के बाद मै अपने एक साढ़ू भाई के साथ बोकारो गए थे। जब चलने का समय हुआ तब मैने लिफाफा बंद रुपयों की एक गड्डी जेब से निकाल कर   टेबल पर रख दिया। पूछने पर मैने कहा कि बस और रास्ते के खर्च के लिए है। मंजरी जी ने गंभीर शब्दो में कहा यदि आपने इसे तुरंत नहीं उठाया तो शादी नहीं होगी। बात बिगड़ती देख मैने झट से पैसे उठाये और निकल लिए। पहले जहाँ भी गए मांग कुछ नहीं होने पर भी लड़के वाले का काफी कुछ Expectaions रहता। मंजरी जी के लिए मेरा आदर बहुत बढ़ गया।

बाद में तो उनकी कई खूबियां सामने आई और हम तो मानसिक रूप से उनके प्रशंसक बन गएं। बच्चों के लिए एक स्नेहमयी माँ और हमेशा उनका ही भला चाहने की भावना से भरी अभिभावक थी वे। शैलू और उसकी छोटी बहन मौली का भी अपनी माँ के लिए प्रेम और आदर भावना देखते ही बनता । फिर जब शैलू और श्वेता अमेरिका गए तो उनके दोनों बच्चों के जन्म के समय हम दोनों और मंजरी जी और शैलू के पापा नारायण साहेब को वहां साथ साथ रहने और समय बिताने , घूमने का मौका मिला ।धीरे धीरे मैं उनकी और खूबियों से रूबरू होता गाया । हिंदी की अध्यापिका थी , साहित्य में रुचि स्वाभाविक ही था । नृत्य हो या चित्रकला अच्छी पकड़ थी उनको ।

बाद में जब शैलू / श्वेता दिल्ली shift कर गये तो शैलू का उसके माँ पापा का बोकारो में अकेले रहना और माँ का स्कूल की नौकरी करते रहना ठीक नहीं लगा  और मंजरी जी को रिटायरमेंट के पहले नौकरी छोड़ने पर मना कर दिल्ली ले आया । क्यकिं मेरे पुत्र सोमिल का परिवार भी दिल्ली में था इसलिए हम लोग कई बार दिल्ली जाते कम से कम अपने चारो नाती पोते पोतियों के जन्म दिन पर जाना आवश्यक ही था । और लगातार मंजरी से मिलने का अवसर मिलता रहता । धीरे धीरे कब मन में समधन की जगह दोस्त की भावना घर में बैठ गयी पता भी न चला । वो बार बार यह याद दिला देतीं की मैं उनसे उम्र में छोटा हूँ और वो मुझे मेरी स्वर्गीय दीदी की याद दिला देतीं ।

कोरोना के समय वह मौली के पास UK में थी और Flights बन्द होने के पहले मंजरी जी को दिल्ली आना पड़ा । lockdown के कारण दिल्ली में ही सिर्फ 11 km दूर हो कर भी हम छः छः महीने बेटे के यहाँ से बेटी के यहाँ आ जा नहीं सके । जन्मदिन हो या anniversary सभी online मनाएं जाने लगे। पोते मंजरी जो को बहुत प्रिय थे । पोते भी दादी का बहुत ख्याल रखते । उनके जन्म दिन पर मंजरी जी उन्हें हर दो घंटे पर कुछ गिफ्ट करती । जन्मदिन हो या anniversary, इन अवसरों पर मंजरी जी आकर्षक कार्ड बनातीं जिसमे कुछ अच्छे शब्द और सुन्दर स्केच होती। मैंने ने सोचा था की उनके जन्म दिन पर मैं भी एक वैसा ही कार्ड बनाऊंगा पर पिछली बार बना नहीं हमसे सोचा था एक ब्लॉग ही लिख दूंगा ।हम लोग निश्चिन्त थे की हमलगों से दूर रह कर भी श्वेता एक माँ के स्नेह से वंचित नहीं थी । श्वेता भी एक एक बेटी की भांति ही उनका ख्याल रख रही थी । क्या पता था वे मदर्स डे के दिन ही वह दुनियां को छोड़ देगी।

क्या पता ९ मई 2021 को मंजरी जी इस दुनिया को छोड़ चली जाएगीं और मैं उनके लिए यह निवापांजलि (Obituary ) लिख रहा हूँगा । 7 और 8 मई को उनसे वीडियो कॉल पर बात की एकदम भली चंगी दिखी तो कई दिनों की चिंता ख़त्म हो गयी। बातों में सारा समय श्वेता की तारीफें करती रही । उस दिन खाना भी ठीक से खाया और खुद से उठ कर कपूर भी जला आई । क्या पता था यह बुझने के पहले दीये का धधकना हैं । मेरी बिटिया अपने माँ जैसी स्नेहमयी सास को इतनी जल्दी खो देगी, उसे भी गुमान न था। हवन के दिन सभी ऑन लाइन जुड़े। हमलोग शुरू से अंत तक ऑन लाईन ही रहे और परिवार की शुभकामना करते रहे। मंजरी जी आप जहाँ भी है ठीक रहे ठीक से रहे और बच्चों पर अपना आशीर्वाद बरसाते रहे । ईश्वर आपको चरणों में स्थान दे ।

Friday, May 7, 2021

कॉलेज के एजुकेशनल टूर्स - मेरी पहली घुमक्कड़ी पार्ट-1 -(#यात्रा)

पिता या घर के बड़ों के साथ की गयी मजेदार यात्राओं और तीर्थ यात्राओं को छोड़ से थो कॉलेज का ये ट्रिप था मेरी पहली घुमक्कड़ी।


 मैनें ईंजिंनियरिंग की पढ़ाई BCE, (Now NIT) पटना से की है। हमारा बैच था 1965-1970 ।  उस समय हमारे कॉलेज से फर्स्ट year को छोड़ हर साल कहीं न कहीं एजुकेशनल ट्रिप पर ले जाया जाता था । हमारा सेकंड  यिअर का ट्रिप  Dehri -on -Sone गए सर्वेयिंग कैंप के साथ  club किया  गया था  पुराना ब्लॉग देखे , बाद में हम बरौनी थर्मल पावर स्टेशन और HEC रांची भी गए थे। थर्ड यिअर यानि 1967 में हम दुर्गापुर, कलकत्ते, जमशेदपुर और पुरी घूमने गए थे। तब ज्यादातर लोगों के पास बॉक्स कैमरे होते थे। सिर्फ़ एक छात्र के पास फोल्डिंग वाला कैमरा था। पर वो बस फाइनल year में ही टूर पर गया था। आग्फा क्लिक 3 एक लोकप्रिय कैमरा था जिसमे 120 साईज की रील लगती थी जिस पर 12 फोटो खींचे जा सकते थे। मेरे एक क्लास मेट ने नेपाल से एक कैमरा जो सिर्फ 9 रुपये का था लाकर दिया था। ये कैमरा छोटे पर 16 फोटो एक रील पर खींचता था। हम श्वेत श्याम रील ही लगाते थे। रंगीन रील तब मिलता भी होगा तो हमें पता नहीं था। कुछ श्वेत श्याम फोटो को बाद में मैने फोटो ब्रश और कलर पेपर स्ट्रीप से अवश्य रंग डाले थे। टूर की सभी फोटो स्लाइड शो के रूप में प्रस्तुत हैं

थर्ड यियर में अपने पिताजी का आग्फा गेवर्ट कैमरा ले कर गया था। इस कैमरे में 120 नंबर का रील लोड होता था जिस पर इस कैमरे से सिर्फ 8 बड़े फोटो खींचें जा सकते थे। क्या पता था अपने पापा का यह कैमरा मैं कलकत्ते में खो दूंगा। हुआ ये कि जब कलकत्ते मे हम दमदम एअर पोर्ट (तब यही नाम था) घूमने गए और एक बोर्ड देख कर ठिठक गए "Photography prohibited". तब मैने अपना झेला टटोला पाया कि मै कैमरा तो बस में ही भूल आया जहां मैं बैठा बैठा झपक गया था। गाड़ियों के नंबर याद रखना तब मेरी आदत में शुमार था। और मैंने बस को ढ़ूढ़ निकाला। बस स्टॉप पर खड़ी ही थी पूछने पर कंडक्टर नें कहा कोई कैमरा नहीं छूटा है। उसकी आंखें और आव भाव कुछ और कह रहे थे। खैर कैमरे के साथ ही उस यात्रा में खींचे गए फोटो भी गुम हो गए।

फोर्थ यिअर 1968 की यात्रा मे मध्य और उत्तर भारत की यात्रा हमने की थी। भोपाल, जबलपुर, खजुराहो, पन्ना वेगैरह घूमते हुए हम आगरा पहुचें और फतहपुर सिकरी होते हुए दिल्ली गए। दिल्ली से चंडीगढ़, शिमला, कुफरी घूमते हुए हरिद्वार गए.. हरिद्वार से ऋषिकेश, लक्षमण झूला गए फिर देहरादून गए और वहां से मसूरी भी गए। हमारा लक्ष्य था ज्यादा से ज्यादा हिल स्टेशन घूम लेना, और एक प्रसिद्ध हिल स्टेशन नैनीताल गए बिना ट्रिप अधूरा रह जाता. हरिद्वार से हम काठगोदाम होते हुए नैनीताल भी घूम आये । पर लगातार हिल स्टेशन घूमते घूमते एक जैसे दृश्य परिवेश से हमारे क्लासमेट सब बोर हो गए थे और नैनीताल में रुकना ही नहीं चाह रहे थे. नैनी झील में नौका विहार तो किया और होटल में रुके भी पर आधे मन से. अगले दिन वापसी की ट्रेन पकड़ ली.  आस पास घूमने में किसीने कोई interest नहीं दिखाया।

हमने सारी यात्राएं अधिकतर ट्रेन से ही की थी. कहीं कहीं बस से भी गए. जैसे शिमला से कुफरी, देहरादून से मसूरी, काठगोदाम से नैनीताल, आगरा से फतेहपुर सिकरी वेगैरह.
ट्रेन यात्रा हम राउंड ट्रिप टिकट पर करते थे, जो थोड़ा सस्ता पड़ता था. नियम साफ था जबतक कोई टर्मिनल स्टेशन ना मिले किसी रूट पर दुबारा यात्रा ALLOWED नहीं था. इस तरह का यात्रा रूट बनाना कोई आसान काम नहीं था. रेलवे का ब्राडशा जो की पूरे भारत में चलने वाले ट्रेन की टाइम टेबल का संकलन होता था का उपयोग हम करना पड़ता था और मुझे इस काम में काफी मजा आता था। ब्रैडशा देखना काफी धैर्य का काम होता था। Trains at a glance और अब तो internet ने तो यह काम आसान कर दिया है। तब कोई स्लीपर क्लास नहीं होता था । सिर्फ 1st , 2nd और 3rd क्लास होते थे । 1st , 2nd क्लास उच्च्च श्रेणी माने जाते थे जैसे आज के 1AC, 2ndAC । तब का 3rd क्लास बाद में आज का जनरल 2nd क्लास हो गया। GT बोगी में ८० सीट्स होते थे और 4th ईयर तक हमने ऐसी बोगी में ही यात्रा की और गाड़ी आने पर धक्का-मुक्की कर बोगी मैं घुसते थे । रात होटेलों में  बिताते । फाइनल ईयर में पूरी बोगी बुक की गयी थी । मेरे ब्रांच में 60 लड़के थे और हम बोगी में ही सो लेते थे । कैंप काट का उपरी स्टील  का पल्ला हम साथ ले कर गए के और दो बर्थ के बीच में डाल देने से तीन छात्र उस पर सो लेते। साइड में आमने सामने के दो सीट खटिया की तरह रस्सियों से बिन  लेते। 80 seater बोगी में इस जुगाड़ से 600 लोगों की "बर्थ" बन जाती। मीटर गेज में साइड सीट नहीं होने पर हम adjust कर लेते। 
अब मैं यात्रा का कुछ डिटेल देता हूँ।

पटना से हम सब से पहले सतना पहुंचे, वहां से खजुराहो बस से गए. चन्देलों द्वारा बनाया मंदिरों को देखा. कंदरिया महादेव मंदिर के बाहरी दीवारों पर बने रति रत मुर्तियाँ अचंभित करने वाले थे। हमने इन मुर्तियों की कोई close up फोटो नहीं खींचा, तब घर में ऐसी Erotic फोटो नहीं ले जा सकते थे । हम ऐसे भी रील बचा बचा कर फोटो खींचते।

सतना से ट्रेन से हम जबलपुर पहुंचे. यहाँ मार्बल रॉक्स (भेराघाट) , धुआँधार फाल्स घूमना था हम लोग टैक्सी से सारी जगहे घूम आये. कुछ फोटो दे रहा हूँ. भेड़ाघाट में हमने बोटिंग की और सीधी खड़ी संगमर्मर के पहाड़ो मे मंत्रमुग्ध कर दिया। पानी साफ ट्रांसपेरेंट था। हम सिक्के फेंकते और कुछ पास खड़े बच्चे पानी में कूद जाते और सिक्को को अपने मुंह में दबाये लौट आते।


जबलपुर से हम भोपाल ट्रेन से गए। भोपाल में बड़ा तालाब और छोटा तालाब और ताज उल मस्ज़िद घूमने गए। अब सोचता हूँ साँची और भीम बेटका भी जाते तो अच्छा रहता ।

भोपाल से हमलोग आगरा गए और ताजमहल, आगरा फोर्ट घूमने गए। ताज महल की खूबसूरती देख कर हम स्तब्ध रह गए। हमारे उम्मीदों से कही ज्यादा सुन्दर । आगरा फोर्ट में हमने वह कमरा भी देखा जहाँ औरंगजेब ने शाहजहाँ को कैद कर रखा था । ताजमहल को यहाँ से देखा जा सकता था । शाहजहाँ ने अपने अंतिम दिन यही से ताजमहल को देखते देखते गुजरे थे । आगरा से हम फतह पुर सिकरी गए। यह जगह अकबर की बसायी राजधानी थी और यही है सलीम चिश्ती का मकबरा जो एक पवित्र जगह है। सलीम चिश्ती से अकबर ने एक बेटे की प्रार्थना की थी और सलीम (जहांगीर) का जन्म हुआ । उसका नाम भी सलीम चिश्ती के नाम पर रखा गया था । पानी के कमी के कारण अकबर को अपनी राजधानी आगरा shift करनी पड़ी थी ।

आगरा से हम लोग राजधानी दिल्ली पहुंचे । रुकने की जगह थी दिल्ली की काली बाड़ी । नजदीक ही बिरला मंदिर भी था । हम बहुत सारी जगह घूमें। DTC की बस में। पता चला की टिकट लेने की जिम्मेवारी पैसेंजर की हैँ। बिहार में कंडक्टर खोज खोज कर टिकट काटते । एक बार भीड़ में कडंक्टर को ढ़ूढ‌ टिकट नहीं ले पाए और जब उतरते समय टिकट चेक किया तब fine देना पड़ा । कंडक्टर थोड़ा rude भी था। कनाट प्लेस की एक खरीदारी याद हैं टाई की। हमारे रोज के ड्रेस में ब्लेजर और टाई सामिल था। बहरहाल कनाट प्लेस में टाई थे नौ रूपये में एक दर्जन । विश्वास करे दर्ज़न के भाव यही थे । एक लेने पर एक रुपया देना पड़ रहा था । सभी ने खरीदा । मैंने भी। हमारा एक मित्र था भारत भूषण लम्बा दुबला सा वह क्लास में सबसे आच्छा tie बंधता था । कुफरी के रंगीन फोटो में उसे देखा जा सकता है । कुतुब को अपने छोटे कैमरे में कैद करने की नाकाम कोशिश भी की। तब कुतुब में पहले तल्ले तक उपर चढ़ना allowed था और मै उपर से एक बढ़िया फोटो खींचने में कामयाब भी रहा।


हमारा अगला स्टॉप था चंडीगढ़ । पंजाब में जब एक जगह ट्रेन रुकी तो हम लस्सी पीने से अपने तो नहीं रोक पाए। हाथ भर लम्बे गिलास को तो हम देखते रह गए । चडीगढ़ के बारे में पढ़ रखा था । यह भारत के पहला पूरी तरह प्लान्ड शहर था । इसके आर्किटेक्ट थे Le Carbusier । चंडीगढ़ भारत का एक अद्भुत शहर है। यह शहर किसी भी राज्य का हिस्सा नहीं माना जाता। यह शहर भारत का केंद्र शासित प्रदेश है। इस शहर का नियंत्रण भारत सरकार के हाथों में है। इस शहर पर किसी भी राज्य का अधिकार नहीं। इस शहर की खास बात यह है की यह शहर पंजाब और हरियाणा दोनों राज्य की राजधानी है पर किसी भी राज्य का हिस्सा नहीं है । हम सुखना लेक रॉक गार्डन और रोज गार्डन देखने गाये । विधान सभा भवन देखा और एक फिल्म भी देखी ।

चंडीगढ से हमलोग कालका गए और छोटी लाईन के हिल रेलवे से हम लोग शिमला के लिए रवाना हो गए। ट्रेन बस 1 डब्बे की थी जिसे रेल मोटर कहते है । एक बड़े बस की तरह। 2014 में जब फिर से शिमला गए तो देखा ऐसी ट्रेन अब भी चलती है। रास्ते के दृश्यों का आनंद लेते लेते हम NAHAN आ पहुंचे । हम सभी जानते थे मोहन मैकिन्स की फैक्ट्री यहीं है । बरोग आया तो किसी लोकल ने उस इंजीनियर के बारे में बताया जिसने दोनों तरफ से टनल एक साथ खोदना शुरू तो कर दिया पर वह Misalign हो गया । शर्म से उसने आत्महत्या कर ली पर इस स्टेशन को अपना नाम दे गए । हम कुछ ही घंटे में शिमला पहुँच गए । प्रोफेसर साहेब पहले जा कर एक नजदीक का होटल बुक कर आए । हमारे ग्रुप के तीन दोस्तों का सामान holdall, metallic boxes (तब मोल्डेड सूटकेस मिलने शुरू नहीं हुआ था ) सिर्फ एक कुली ने अकेले उठा लिया और हम पैदल ही होटल पहुँच गए । शिमला में मॉल रोड होते हुए जाखू मंदिर तक पैदल ही हो आये । अगले दिन हम Kufri गए , काफी बर्फ पड़ी थी । हम ने वहां एक स्कीइंग क्लब में lunch बुक कर बर्फ में खेलने निकल पडे । जब लौटे तो क्लब के फायर प्लेस के पास बैठे। थोड़ी देर के बाद ब्लेजर के जेबों से पानी टपकने लगा । तब पता चला बर्फ पर स्की स्लोप में फिसलने के समय काफी बर्फ जेबों में भर गयी थी। २०१४ में जब फिर से कुफरी गया तब मैं इस क्लब को खोज रहा था पर कही नहीं दिखी ।


शिमला से हम हरिद्वार गए । चोटीवाला होटल में सभी ने छक कर खाया । बहुत स्वादिष्ट खाना था । सुना है अब शायद वैसा नहीं खिलाते । नाम को चरितार्थ करते हुए बाहर एक बच्चे को मुण्डन कर मोटी चोटी के साथ बैठा रखा था। हम ऋषिकेश और लक्मण झूला भी गए । हरिद्वार से हम देहरादून ( सहस्र धारा, फॉरेस्ट रिसर्च ) और फिर टैक्सी से मसूरी गये जहां पैदल ही घूमें। मसूरी के सबसे ऊँची चोटी ( peak ) लाल टिब्बा पर जाने की हिम्मत नंही हुईं । पर घुमावदार रास्ते का खूब आनंद उठाया सभी ने । शाम तक हम थक कर देहरादून लौट आए।


जैसे प्रारंभ में मैने लिखा है सबसे अंत में हम काठगोदाम हो कर नैनीताल गए । नैनी लेक में बोटिंग के सिवा और कुछ नहीं किया दूसरे दिन एक और लेक सिर्फ मै और एक क्लासमेट के साथ गए थे शायद भीमताल। वहां पहली बार एक पनचक्की देखीं जिसे यहाँ घराट कहते है । एक छोटा झरने से यह चल रहा था और अनाज पीसने के काम आता था । हमने काठगोदाम से वापसी का ट्रेन ली और बरेली गया होते हुए पटना आ गएं।


पूरा पढने के लिए धन्यवाद।