Saturday, September 30, 2023

क्या आप होटल के साबुन - शैम्पू घर ले आते है ?

मै फेसबुक पर एक ट्रेवल ग्रुप का सदस्य हूँ। हाल में वहां एक पोस्ट आई - "क्या आप होटल के कॉम्प्लिमेंटरी साबुन , शैम्पू ले आते हैं ?" सब ने अलग अलग प्रतिक्रिया दी जैसे किसी ने लिखा "कुछ भी मुफ्त नहीं होता पैसा दिया है तो इसे ले आने का हक़ है हमें "। किसीने इसे असभ्य व्यवहार बताया। इस पोस्ट ने मुझे होटल में रुकने के मेरे पुराने से पुरातन अनुभव याद दिला दिया।



होटल - धर्मशाला का मेरा पहला अनुभव !
मेरा पहलाा होटल का अनुभव देवघर में पंडा जी के धर्मशाला में रुकने का हैं । मेरी सबसे पुरानी याद शायद पांच वर्ष के उम्र की है जब मेरी छोटी बहन का मुंडन यहाँ हुआ था। मेरे पंडा जी गिद्धौर महाराज (इसी राजवंश ने १५९६ में देवघर मंदिर का पुनः निर्माण करवाया था) के भी पंडा थे और उनका निवास था तीन तल्लों की कच्ची बाड़ी (मकान पक्का ही था, पता नहीं उसे कच्ची बाड़ी क्यों कहते थे) जो कि उनका निवास भी था और एक बहुत बड़ा धर्मशाला भी । बहुत सारे कमरे थे वहां एक बहुत बड़ा बगीचा था। हम लोग कच्चा रसद (चावल , दाल, आलू, हल्दी नमक) ले कर ही जाते क्योंकि अपना खाना खुद ही बनाना पड़ता था। लकड़ी वाले चूल्हे या तो खुद ईंटों को जोड़ कर बना लेते या पहले आये यात्रियों के छोड़े गए चूल्हे को नीप पोत कर उपयोग में लाते। लकड़ी बाजार में मिल ही जाता नहीं तो बगीचे में गिरी लकड़ी पत्ते भी काम में ले आते। रसोईया भी साथ होते । अब ऐसी जगह जिसका शायद कोई किराया भी नहीं देना पड़ता था कोई कम्प्लीमेंटरी साबुन तेल का प्रश्न ही नहीं उठता था।

मेरी प्रारंभिक ऑफिसियल टूर के होटल और मुंबई ट्रिप
कॉलेज ट्रिप (१९६६-६९) में सस्ते होटल में ही रुकते जहाँ कॉमन बाथरूम यदि हो वही बहुत बड़ा Luxury था। नौकरी के प्रांरभिक दिनों में हमारा DA होता था रु ४० जब कंपनी गेस्ट हाउस में रुकते थे और रु ५४ यदि होटल में रुकना पड़े यानि होटल के किराये के लिए सिर्फ रु १४ मिलते था। आपको आश्चर्य होता ७०'s में कही कही इस रेट में या रु २० तक होटल में रूम मिल भी जाते थे पर ज्यादा जगहों पर जहा हमें जाना पड़ता कंपनी का GH होते ही थे । लेकिन उसी दौर में मुझे मुंबई (तब बम्बई) जाना पड़ा। मुझे पता नहीं था कि मुंबई के लिए स्पेशल approval लेने पर रु १२५ तक का रूम ले सकते थे। लेकिन मुझे यह नियम तब पता नहीं था। मुंबई में मैंने पहले दादर स्टेशन के पास एक लॉज में रूम ले लिया जहाँ रु १५ में रूम मिल गया। बेड और बिछावन साफ़ नहीं थे और खटमल भी था। बगल के रूम में कोई लगातार खांस रहा था और मुझे एक हिंदी फिल्म कि याद आ रही थी। कॉमन बाथ रूम दो ही थे और अक्सर खाली नहीं मिलते थे। मै एक दिन में ही परेशान हो गया और अगले दिन परेल स्टेशन से थोड़ा पहले एक दूसरे लॉज में शिफ्ट कर गया।

यहाँ का किराया था रु २८ (यानि पॉकेट से देने पड़ते )। रूम - बिछावन और आस पास तो सफाई थी पर इसका कॉमन टॉयलेट में एक बड़ी नाली पर कई cubicle बने थे और फ्लश आटोमेटिक था और वह मुझे पसंद नहीं था क्योंकि सारी गन्दगी आपके सामने से गुज़र जाती । अगले दिन फिर हम निकल पड़े होटल खोजने और परेल स्टेशन से वर्ली के तरफ जाने वाले रोड पर एक चाल के अंदर बने एक लॉज (Sri Niwas Lodge ) में शिफ्ट कर गए। मालिक दक्षिण भारत से थे। यहाँ रूम के अंदर ही एक बाथरूम (सिर्फ बाथरूम टॉयलेट नहीं ) था और मुंह धोने और नहाने के लिए बाहर नहीं जाना पड़ता जबकि कॉमन टॉयलेट चाल के हर कोने में था। साफ़ सफ़ेद चादर बिछावन पर बिछे थे और कमरा हवादार था। मन प्रसन्न हो गया पर किराया थे रु ४० यानि मेरा पूरा DA लग जाता लेकिन मेरे पास कोई चारा नहीं था। एक फायदा यह था कि Siemens का वर्ली ऑफिस यहाँ से पैदल ही जा सकते थे और टैक्सी का पैसा बच जाता। मेरे लिए वर्ली से कलवा के लिए सीमेंस की गाड़ी मिल जाती लेकिन लौटने के समय मैं हमेशा दादर के मार्किट के पास वाले होटल अरोमा के पास ही उतरता - मैं Siemens का ग्राहक था और उन्हें यह कैसे बताता की मैं एक सस्ते लॉज में रुका हूँ । SRINIWAS LODGE पहला होटल था जहाँ एक छोटी लक्स साबुन कि टिक्की कोपलेमेंटरी था। ऐसे कम्पनी GH में टिक्की साबुन मिलता था। अब जहाँ चाहे जितने दिन रुके सिर्फ एक साबुन कि टिकिया मिलती हो वहां से क्या घर ले जाना। अगले कुछ वर्षो तक GH या होटल से सिर्फ साबुन घर ले जा सकते थे ।

कुछ सालों बाद तो सारे Toiletry - प्रसाधन होटल रूम में रखे मिलते लगे। जहाँ तक मेरी बात है होटल से मैं अब सभी शैम्पू , साबुन,पेस्ट,रेजर,ब्रश ले आता हूँ। पांच तारा होटलों में तो विदेशी toiletry , बबल बाथ लिक्विड और स्किन लोशन भी मिल जाते है। उठाये गए सभी सामान अगले ट्रिप में या फिर घर में काम आ जाते है । छोटे साइज कि बोतल , पेस्ट वैगेरह यात्रा में ले जाने के लिए सही होते है। लेकिन शुरू शुरू में मैं इसे घर लाने में असहज हो जाता था। फिर कुछ टॉइलेट्री छोड़ कर बाकि ले आता था। अब तो होटल रूम चाय कॉफ़ी के पाउच इलेक्ट्रिक केतली भी रूम में रखे होते थे। और अब चाय कॉफ़ी और चीनी के पाउच भी घर ले आने लगा।

पांच तारा होटल और मैं
अब कुछ और अनुभव। पहली बार पांच तारा होटल पेंटा होटल में १९८३ में जेनेवा में रुका था । रूम में फ्रिज पहली बार देखा रूम में व्हिस्की, ब्रांडी, बियर सभी थे । मैं तुरंत समझ गया यह अलकोहल मुफ्त नहीं होगा और पीने कि इच्छा को मैंने दबा दिया। और सही ही किया। बाद में एक रेट चार्ट दिख गया सभी ड्रिंक का PER ML रेट लिखा था। पता चला चेक आउट के समय चेक करते है कि कुछ पी तो नहीं। पर देशी दिमाग कि खुराफात यदि थोड़ा पी कर थोड़ा पानी डाल देने से पता नहीं चलेगा और मैंने व्हिस्की थोड़ी चख ही ली बिना कुछ पैसे दिए ।यदि पता भी लगा होगा तो उन्होंने कुछ कहा नहीं हम लोग एयर इंडिया के गेस्ट जो थे। जानता हूं कई लोग मुझे इस काम के लिए कोसने वाले हैं कि मेरे जैसे लोगों के कारण भारत बदनाम है। उन सबों से मैं क्षमा मांगता हूं।

1983 के आस पास हमारा DA इतना बढ़ गया कि दो जन मिल कर चेन्नई के पांच तारा होटल वेलकम ग्रुप चोला में रुक सकते थे और 1984 में हम दो लोग एक बार इस होटल में रुक भी गए। यहाँ भी कमरे में फ्रिज था और उसमे कोल्ड ड्रिंक और बियर भरे थे और सोडा की बोतले भी थी। स्नैक्स भी साइड में रखे थे। क्योंकि इस होटल का खाना महंगा था हम एक नज़दीक में रेस्टुरेंट में ही खाना खा लेते । मुझे जेनेवा के होटल का अनुभव था इस लिए मैंने एक भी ड्रिंक स्नैक्स नहीं लिए पर मेरा मित्र मना करने पड़ भी सारे कोक , मिक्सचर यहाँ तक कि सोडा भी पी खा लिया। होटल वाले रोज़ फ्रिज में ख़त्म हुए ड्रिंक कि जगह नयी बोतले और नए स्नैक्स भी डाल देते । दो दिन बाद जब चेक आउट किये तो कोक को रु ७० के रेट से और मिक्सचर को रु ५० और काजू के रु २०० चार्ज कर लिया होटल वाले ने। बताता चालू तब कोक सिर्फ रु ५ का आता था और कोई मिक्सचर के पैकेट तो अब भी रु १० के आते है।
फिर आता हूँ २०१० में रिटायर होने के बाद कि बात । मैंने एक प्राइवेट कंपनी ज्वाइन कर ली। यहाँ कोई DA का रेट नहीं था। सभी खर्च के रसीद दो और पैसे लो । अब ऐसे में यदि पांच या चार तारा होटल में रुकना पड़ा तो वैसे सारी चीज़े जिसके पैसे देने पड़े जैसे काजू , मिक्सचर, ड्रिंक (एक होटल में ड्रिंक के छोटे सैंपल बोतल थे) मैं जरूर घर ले आता आखिर पैसे तो कंपनी वाले को ही देने थे। और कुछ अच्छे स्नैक्स और ड्रिंक मुफ्त में घर आ जाते ।
मेरे हाल के पतरातू और उत्तराखंड के ट्रिप में जब होटल, होम स्टे में रुकने पड़ा - साबुन छोड़ कुछ नहीं था लाने - होम स्टे में गर्म पानी भी बाल्टी में ला कर देते -- wifi फ्री था यही गनीमत थी ।

और जो काम की चीज़ होटल में मिल जाती है वह है जूता साफ़ करने के फोम, लांड्री बैग, बाथरूम स्लिपर्स, बाथिंग कैप , स्विमिंग का चश्मा। मेरे समझ से टॉवल - चादर जैसी चीज़ो के सिवा सभी आप ला सकते है। छोड़े गए प्रसाधन, कास्मेटिक इत्यादि तो होटल वाले फेंक ही देते है । लेकिंन कृपया फैन, टेलीफोन सेट, केतली , टेबल लैंप वैगेरह न लाये । आप पूछेंगे यह सब भी कोई लाता है तो नीचे दिए समाचार पढ़ ले - गेस्ट ये भी ले जाने का सोच लेते है।

MIRROR - 25 Aug 20223

guests strip room of everything they can carry - from towels to TV remote

Two hotel guests emptied their room of everything they could carry - before grinning into CCTV cameras on their way out the door with hundreds of pounds of stolen swag.
The couple arrived at the hotel without any luggage, the shocked owner recalled, but after check-in they went back to their car to grab empty holdalls to contain all their loot. The pair made off with the room’s kettle, tea caddy, lamps and the fan from the room, as well as two bath towels and two hand towels and even a power extension block with USB ports went into their bags.
They even took the remote for the room’s TV. The total value of their spree is estimated by owners to be around £200. “The only thing they didn't take were the shampoo and soaps from the bathroom," said stunned hotel landlady Natalie Newton, 43.
,
और मैंने एक लेख पढ़ा internet पर 22 Hacks if you stay in a hotel and one of the hack was:

Leave no toiletries
behind The hotel’s towels and bathrobes may not be yours for the taking, but those tiny soaps and bottles of shampoo, conditioner, hand cream, and lotion certainly are! Don’t hesitate to take as many as you can – you already paid for them, even if they don’t show up on your bill.

Friday, September 15, 2023

मेरे सफर के साथी- कैमरा


मेरा दूसरा कैमरा - आग्फा क्लिक - III , अमेजन पर फिल्म रोल के दाम


सफर के साथी ? आपके दिमाग में तुरंत आएगा उन लोगों के नाम या चेहरा जिनके साथ आपने अविस्मरणीय या भूल जाने योग्य यात्राएं की है। बचपन में माता-पिता के साथ, छात्र जीवन में अपने खास सहपाठी मित्र या मितवा के साथ। जवानी में सहकर्मी, प्रेमिका या अन्य प्रिय जन के साथ या बुढ़ापे में जीवन संगिनी के साथ। लेकिन मैं सफर के साथी व्यक्तियों की बात कर ही नहीं रहा। तो फिर? बाइकर से पूछिए वो अपने बाइक को सफर का साथी बतायेगा। ऐसे सफरियो का बाइक या पसंदीदा कार के बिना सफर संभव ही नहीं। उनके लिए सफर के साथी है बाइक या कार। पहले ट्रेन से सफर करने वालों का साथी होता था पानी की सुराही, बेडिंग, टीन का बक्सा। अब भी सभी के साथ पानी की बोतल तो होती ही है बेडिंग की जरुरत नहीं रही AC में रेलवे बेडिंग दे ही देती है , स्लीपर में भी सीट पर गद्दे लगा दिए है बस एक फुलाने वाला तकिया सफर का साथी हो जाता है । इतने सारे चीज़ों के बीच जो सबसे आवश्यक सफर का साथी है वह है कैमेरा। कल्पना कीजिये आप एक सुन्दर सी जगह घूमने गए हो और उस जगह की सुंदरता क़ैद करने के लिए आपके पास कोई कैमरा नहीं। इस ब्लॉग में मैं इसी सफर के साथी पर मेरे अनुभव साझा करूँगा ।



मेरा पहला कैमरा ( फोटो विकिपीडिया से साभार )-पापा आग्फा गेवेर्ट कैमरा के साथ


अपना पहला कैमरा मैंने कैसे खो दिया
मैं कोई फोटो उत्साही (Photo enthusiast) व्यक्ति नहीं हूँ न ही मेरे परिवार जन मुझे अच्छा फोटोग्राफर मानते है, पर कॉलेज ट्रिप पर मैं उन गिने चुने छात्रों में था जिसके पास कैमरा था, मेरे पिता का Aim and shoot आग्फा गेवेर्ट बॉक्स कैमेरा। पर इस कैमरा और मेरा साथ कुछ ही दिनों का था। 3rd ईयर (१९६७) के कॉलेज ट्रिप पर हमारा यात्रा पथ ( itinerary ) था पटना - दुर्गापुर - कलकत्ता - पूरी - जमशेदपुर - पटना। कलकत्ते में बहुत घूमे - दक्षिणेश्वर - म्यूजियम - विक्टोरिया मेमोरियल - ज़ू घुमते थक गए थे और दमदम यानि आज के Netaji Subhash Chandra Bose International Airport जाते जाते हम बस में झपक गए और जब दमदम में हड़बड़ा कर उठे कैमरा बस में ही छूट गया। जब एक बोर्ड पर नज़र पड़ी जिसपर तीन भाषाओं में लिखा था "Photography strictly prohibited" तब कैमरा की याद आई लेकिन तबतक बहुत देर हो चुकी थी।
यह कैमरा एक aim and shoot कैमरा था । फिक्स्ड फोकस , अपर्चर कण्ट्रोल के रूप में बस सूर्य और बादल का सेटिंग थ। इसमें १२० साइज का रील लगती थी और उस पर यह 8x6 cm की ८ फोटो लेता था।
सबसे उपर मैंने फिल्म रोल के ताजा दाम दे रहा हूं, शायद अब फिल्म कैमरा अब अपने रेंज से बाहर हो गया है।

मेरा दूसरा कैमरा
आग्फा क्लिक ३ मेरा दूसरा कैमरा था जिसे सेकंड हैंड में मैंने ऊटी में ख़रीदा था। यह भी एक AIM and SHOOT कैमरा था । इसका स्पेसिफिकेशन निम्न लिखित है।
फिल्म: 120 रोल, चित्र का आकार 6x6 सेमी x 12 फोटो
फोकसिंग: निश्चित फोकस, 4 मी से infinity तक।
शटर स्पीड लगभग 1/30 से और "B"
लेंस: एक्रोमैट 72.5 मिमी एफ/8.8; एफ/11 तक नीचे
एपर्चर सेटिंग्स: लेंस-शटर बैरल पर बादल और धूप सेटिंग आइकन
बेस प्लेट पर tripod माउंटिंग पेंच
फ़्लैश unit के लिए कनेक्शन पिन
बेंड बैक कवर एक फिल्म प्रेशर प्लेट के रूप में भूमिका निभाता है और एक स्थिर और अच्छी तीक्ष्णता प्रदान करता है,
बॉडी: प्लास्टिक
आग्फा क्लीक III के पहले एक दोस्त ने १९६८ में नेपाल से एक ९ या १२ रूपये वाला एक Chinese बॉक्स कैमरा ला दिया था। यह १२० के रील पर 4.5x 4.5 cm साइज के १६ फोट खींचता था। इस कैमेरे से भी अच्छी फोटो खींचे थे मैंने । अभी तक कलर फोटो नहीं खींचा था। मैंने ब्रश और फोटो कलर स्ट्रिप के मदद से BW फोटो कलर करने लगा और कुछ फोटो गजब के कलर किये भी।

रॉलीफ्लेक्स कैमरा - फोटोग्राफर की पसंद

इस काल में स्टूडियो वालों के पास डबल लेंस रिफ्लेक्स कैमरा होता था - रोलीफ्लेक्स का। इसमें दो लेंस होते थे एक लेंस से फोटो खींचते थे और दूसरे लेंस से व्यू फाइंडर में फोटो दिखती थी और तीक्ष्ण फोटो फोकस करने में काम आता था।

मेरा पहला सेमि आटोमेटिक कैमरा याशिका - इलेक्ट्रो ३५, TRIPOD स्टैंड यशिका इलेक्ट्रो ३५ के लिए ख़रीदा , अब मोबाइल के लिए काम आता है
मेरे अन्य फिल्म कैमरे
मैंने अपना पहला सेमि आटोमेटिक कैमरा जर्मनी में ख़रीदा १९८३ में - यशिका इलेक्ट्रो ३५ । ऐसे तब तक एसएलआर (सिंगल लेंस रिफ्लेक्स ) कैमरा आ गया था। SLR कैमरा में व्यू फाइंडर और फोटो फिल्म एक ही लेंस से एक्टिवटे होता था यानि ज्यादा शार्प फोटो। पेंटाक्स का करीब २५०-३०० मार्क्स में। मेरे बहुत सारे दोस्तों ने खरीदा भी। पर मेरे बजट में यह कैमरा नहीं था। इसलिए जहां मेरे मित्र ने कैनन का आटोमेटिक कैमरा ख़रीदा मैंने एक सेमि आटोमेटिक कैमरा ख़रीदा। इस कैमरा का अपर्चर रेंज 1.7 से 22 तक हैं । बताता चलूं 1.7 सबसे बड़ा (कम रोशनी के लिए) और 22 सबसे छोटा(अधिक रोशनी के लिए) एपर्चर है इस कैमरे में। मैंने सबसे बड़े १.२ अपर्चर वाले कैमरे देखे है। फिल्म का ASA सेट (हम अक्सर १०० ASA की या फिर high speed 400 ASA की फिल्म खरीदते) कर सकते है कैमरा स्पीड ऑटोमेटिकली सेट हो जाता है। व्यू फाइंडर में दो इमेज दिखता है जिसे एडजस्ट कर एक दूसरे पर मिला लेते है फोकस करने के लिए। कैमरा और उसका फ़्लैश ट्रिपॉड स्टैंड अभी भी पास है पर अब फिल्म कैमरा कौन व्यवहार में लाये । अमेज़न पर फिल्म के दाम का स्क्रीन शॉट दे रहा हूँ । १९९३ में अमेरिका में मिनोल्टा और १९९६ में दक्षिण अफ्रीका में चिनोन कैमरा भी खरीदा था। बिटिया जब भारतीयम में जा रही थी तो उसके लिए एक यशिका कैमरा चेन्नई के बर्मा बाजार से ख़रीदा। ओरिजिनल दिख रहा था। मैं उसे लेकर पास ही एक नार्मल कैमरा शॉप में गया तो पता चला यदि कैमरा पर याशिका खुदा हो तो ओर्जिनल और नाम पेंट किया हो तो डुप्लीकेट। मेरा डुप्लीकेट निकला पर उसने यह भी बताया की लेंस ओरिजिनल है। इस केमरे से खींचे फोटो बहुत अच्छे थे। इन सब कैमरों में ३५ mm फिल्म लगती थी और स्टैण्डर्ड फिल्म पर ३५ फोटो खींच जाते थे। पर हम कोशिश करते थे की एक - दो और फोटो खींच जाय।





मेरा पहला डिजिटल कैमरा

२००५ में जब मैंने एक सैमसंग कैमरा फ़ोन ख़रीदा तो वह मेरा पहला डिजिटल कैमरा था। मेरा दूसरा कैमरा था नोकिआ ६६०० जो उस वक़्त का बहुत लोकप्रिय और महंगा फ़ोन था। यह फ़ोन VGA फोटो खींचता था तब फ़ोन में सेल्फी नहीं होता था । जब २००७ में मैं अकेले लंदन गया तब मेरे पास यही मोबाइल था यानि NOKIA 6600 मैंने बड़ी मुश्किल से फ़ोन उल्टा करके एक दो अपनी फोटो ली थी। २००५ में ही मैंने अपना पहला 4 MP डिजिटल कैमरा लिया - Olympus। फ़िलहाल दो तीन साल से इसका शटर ख़राब हो गया है पर मैंने दूसरे कैमरा ख़रीदे इस बीच ।





सोनी और कैनन कैमरा वर्तमान समय में हमारा डिजिटल कैमरा

हमारा अगला डिजिटल कैमरा 10 MP सोनी कैमरा था और मेरी पत्नी इसे व्यवहार में लाती। फिर एक कैनन का 18 MP कैमरा उनके लिए जन्म दिन के लिए ख़रीदा। मैंने कभी DSLR कैमरा खरीदने के बारे में नहीं सोचा पर अब तो मोबाइल फ़ोन ही 50 MP फोटो खींचते है। एकदम शार्प। डिजिटल फोटो - वीडियो को कंप्यूटर / मेमोरी कार्ड पर या एक्सटर्नल डिस्क पर सेव कर रखना आसान है और वक़्त पर मिल भी जाते है। मैंने फिर भी उन सभी 'फिल्म फोटो' को एल्बमों में सहेज कर रखा है लेकिन शेयर करने के पहले उन्हें स्कैन करना पड़ता है। कुछ के निगेटिव भी है।

फ्लिप वीडियो रिकॉर्डर

घुमक्कड़ी में दो बार मैं FLIP VIDEO RECORDER भी साथ ले गए थे, और एक बार टैब पर दो तीन गजेट एक साथ संभालना और साथ में कैमरा फोन भी मुश्किल है और अब सिर्फ मोबाइल से काम चला लेता हूं। बस अभी कैमरे के बारे में इतना ही।

Friday, September 8, 2023

पतरातू - झील

पतरातू थर्मल पावर प्लांट के लिए प्रसिद्ध है अब तो जिंदल का इस्पात कारखाना भी है यहां । शहर क़स्बाई है और छोटा सा मार्किट एरिया है। थर्मल पावर प्केलांट का मध्यम साइज की कॉलोनी भी है। हम कॉलोनी एरिया भी गए और एक पुराने मंदिर में दर्शन भी किये। नलकार्नी नदी पर बना हुआ पतरातू डैम सर मोक्षगुंडम विश्वसरैय्या का बनवाया हुआ है और इससे बने लेक में ही बोटिंग होती है। बच्चों के लिए पार्क और लेक के पास JTDC का सरोवर विहार लेक रिसोर्ट है। लेक के एरिया में जाने के लिए टिकट लगता है । पर यदि आप रिसोर्ट के गेस्ट है तो एंट्री फ्री है - रिसोर्ट साइड गेट से ।



हमारा पतरातू विजिट

ऐसे तो हम पहले भी पतरातू दो बार जा चुके थे। एक बार ओवरलोडेड बस से (तब रातू रोड बस स्टैंड से ) और एक बार खुद की गाड़ी चला के। तब रोड सिंगल और सकरा था और बस जब हर यु बेंड लेती जान हलक में आ जाती। अपनी गाड़ी में डर तो नहीं लगा पर ध्यान लगातार रोड पर रखना पड़ता था और ऐसे में वैली की खूबसूरती देखने का फ़िक्र किसको होता ? अब जब ४ लेन हाई वे है तो इस वैली की बला की खूबसूरती देखते ही बनती है। कोरोना के कारण हम दो साल कहीं जा ही नहीं पाए थे। फिर हमारा बेटा अपनी पत्नी और बच्चों के साथ २०२१ में रांची आये । अभी भी मास्क , सेनिटाइज़र प्रयोग में थे। कोरोना के कारण कहीं भीड़ भाड़ में जाना खतरे से खाली न था। कोरोना के कारण रेस्टोरेंट , सिनेमा हॉल सभी बंद ही थे । बच्चे भी घर में बैठे बैठे बोर हो गए थे । ऐसे में पतरातू वैली और लेक जाने का फैसला लिया गया। मास्क पहन कर और सांइटिज़ेर के बोतल वैगेरह ले कर हम पतरातू घूमने निकल पड़े। सरकारी बोटिंग बंद थी । लौटते वक़्त एक प्राइवेट बोट वाले से बात की और लेक में बोटिंग भी की। अलबत्ता हम समझ गए थे कि वह ठग रहा था। रिसोर्ट चालू न था। लेक के पास एक प्राइवेट होटल में खाना खा कर हम रांची के पहाड़ी मंदिर होते हुए घर लौट आये।



अगले साल यानि २०२२ तक कोरोना का खतरा ख़त्म हो गया था । लोग बाग तो घूमने भी निकल पड़े थे । हम भी इटखोरी जो करीब १५० कि०मि० दूर है घूम आये थे तभी हमारे एक भूतपूर्व सहकर्मी अपने परिवार और एक पोती के साथ आ पहुंचे। उनके इसरार पर अचानक हमलोग का प्रोग्राम फिर से पतरातू घूम आने का बन गया। मैं मना न कर सका और हम छह लोग एक SUV को ले कर पतरातू चल पड़े। छोटी लड़की ने नाश्ते में कुछ बदपरहेज़ी कर दी इस लिए उसे लगातार वोमिट होने लगा। दवा देने से भी रुक नहीं रहा था। एक वही थी जिसे बोटिंग में इंटरेस्ट था इसलिए कोई बोटिंग भी नहीं हुई। हम बच्चो के पार्क एरिया में बैठ गए। एक दम जुहू चौपाटी के जैसे मेला लेक के किनारे लगा था। पाव भाजी , भेल पूरी, वड़ा पाव, चाट, फुचका, डोसा , चाऊमीन के अलावा आइस क्रीम भी बिक रहा था। हम लोगों ने आइस क्रीम खाई पर अफसोस बच्ची को आईस क्रीम भी नहीं दिया गया। लेक के किनारे किनारे चलते हम पहुंच गए JTDC के सरोवर विहार लेक रिसोर्ट में। हम यही से खाना खा कर लौट आये। वहां भी खाते ही बच्ची को उलटी हो गयी। रास्ते में उसे नींद आ गयी और हमे गाड़ी बार बार नहीं रोकना पड़ा। उस रात में बच्चे को अस्पताल ले जाना पड़ा।


अभी पतरातू जल्दी जल्दी दूसरी बार घूम कर आये बस एक महीना ही हुआ था की हमारे ससुराल का एक ग्रुप आ पंहुचा , साले सालियों को कैसे टाला जा सकता था, न हीं टालना चाहता था, और जून के महीने में हमारा एक और ट्रिप पतरातू के बन गया। रास्ते में view point पर नारियल पानी पी कर आइस्क्रीम खा कर हम पतरातु लेक पहुंच गए। इस बार भी किसी कारणवश फिर बोटिंग नहीं हुई। कुछ लोग स्पीड बोड देख कर किसी पुरानी याद के कारण कुछ अन्य कारणो से। सरकारी बोट क्लब में बुकिंग नहीं हो रही थी और सिर्फ प्राइवेट वाले ही थे। हमलोगों ने JDTC के सरोवर विहार लेक रिसोर्ट में रात बिताया । पिछली बार की गई दोस्ती / जान पहचान काम आई और सभी छह जनों के लिए छह बेड वाली डॉरमिटरी मिल गई। हम तीन रूम मांग रहे थे जो अवेलेबल नहीं थे । अच्छा हो हुआ अलग अलग रुकने में वह मज़ा कहा आता जो डॉरमिटरी में हंसी मज़ाक करते आया। लेक के पास एक पेडस्टल बनाया है और हमने वही पर डिनर लिया - बड़ा कूल था यह अनुभव।


अगले दिन हम नाश्ता कर नज़दीक का एक झरना - पालनि फॉल देखने गए, रास्ता पूछते पूछते जाना पड़ा। गांव के सकरे रास्ते पर बड़ी गाड़ी ले जाना मुश्किल था फिर भी हम गए पर झरना सूखा था, लोगों ने बताया बारिश होने पर बहुत अच्छा दिखता है । ऊपर एक बांध बनाया हुआ है जिससे पानी कम आता है। अगला पड़ाव था पतरातू डैम। एक फाटक थोड़ा खुला था और उससे पानी आ रहा था अच्छा लग रहा था । हर बार हम एक वैली व्यू पॉइंट पर रुक कर फोटोग्राफी कर चुके थे , इस बार भी की । एक साल के भीतर हम तीसरी बार हम पतरातू में एक रात बिता कर लौट कर आये।