Wednesday, May 24, 2023

बैठे ठाले -३

कुछ दिन पहले वट सावित्री व्रत था। मेरी पत्नी नज़दीक के पेट्रोल पम्प वाले बरगद के पेड़ की पूजा करने जाया करती थी । अब पत्नीजी नज़दीक वाले वट बृक्ष तक नहीं जा सकती । ऐसे भी वहां बने चबूतरे जिस पर पूजा की जाती रही है उसे पास के पेट्रोल पंप वाले ने घेर दिया है । ऐसे में हमने एक डाली ला कर गमले में डाल कर पूजा करने का निश्चय किया । ऐसा हम पिछले कुछ वर्षों से करते आ रहे है । पुत्र के यहाँ था तब उसके पास एक बोन्साई था बरगद का और उसकी ही पूजा की गई । बोन्साई की देख रेख करनी पड़ती है , पानी भी देनी पड़ती है क्योंकि गमले की मिट्टी सूख जाती है । क्योंकि हमें बार बार रांची से बाहर जाना पड़ता है हम बोन्साई की देख रेख नहीं कर सकते । पिछली बार कामवाली के बेटे से टहनी मंगा ली थी पर इस बार वह नहीं था । बरगद और पीपल जहां तहाँ दीवालों पर भी उग जाती है और हमने उसकी टहनी लाने का सोचा । आश्चर्य है की सिर्फ चिड़ियों के बीट से ही पौधे उगते है । बीज लगा कर देखा था पर पौधे नहीं निकले । हम लोग एक हफ्ते पहले से अपने प्रातः भ्रमण में दीवालों पर उग आने वाले बरगद को ढूढ़ने लगे । पेड़ों पर टहनी बहुत ऊँचे होते है और उन्हें तोड़ना हमारे बस की बात नहीं थी । हमें रोड में बने पुल के किनारे वाले गार्ड वाल में एक बरगद का पौधा दिख गया और हमने सोचा एक दिन पहले तोड़ लेंगे । उसी दिन बड़े बरगद की एक नीची टहनी दिखी और उसके कुछ पत्तों के साथ मैंने तोड़ लिया । गमले में लगा कर पानी डाल दिया । पर धुप इतनी तेज थी ही अगले दिन सारे पत्ते सुख गए या मुरझा से गए । अब कुछ पत्ते तो ऐसे चाहिए जिस पर सुहागिने पति का नाम लिखती है और बालों में खोंस लेती है । पत्नी ने तो कुछ कहाँ नहीं पर मैं रोड के पूल वाले छोटे बरगद के पत्ते तोड़ने निकल पड़े , लेकिन किसीने टहनी आज ही तोड़ दी थी । मैं फिर भी दो ताजा पत्ते ले आया ।

मैं बरगद की टहनी तोड़ लाया तो फेस बुक के एक पोस्ट पर नज़र पड़ी । लिखा था "हमारे धर्म में यह सब त्यौहार पेड़ो को बचाने के लिए है । टहनी और पत्ते तोड़ हम पेड़ो को नुकसान पंहुचा रहे है " । मुझे अपने बचपन में माँ द्वारा किये गए वट सावित्री व्रत की याद हो आये । घर में रोट (एक तरह का ठेकुआ) प्रसाद बनता । घर से २-३ फर्लॉंग दूर के वट बृक्ष तक माँ , घर की और सुहागिने और हम बच्चे पूजन सामग्री के साथ जाते । एक नौकर भी साथ होता जो सभी के लिए पेड़ से पत्ते तोड़ता और अक्सर पत्तों के साथ टहनी भी तोड़ लाते । सभी व्रतियों को ५-७ पत्तों की जरूरत होती । हाथ वाले पंखे से पेड़ तो हवा की जाती । पंडित जी कथा कहते और हम प्रसाद कब मिलेगा की चिंता करते । यानि पत्ता/ टहनी तोड़ने की परम्परा पुरानी ही है । लेकिन दीवालों पर उग आये पेड़ो की टहनी तोड़ी जा सकती हैं, इसबार ही समझ आया । आज न कल ऐसे पेड़ - पौधों को तो उजड़ना ही है ।

सब तैयारी कर पत्नी पूजा करने लगी और मैं भी सुबह सुबह नहा कर तैयार ही गया । मुझे व्रत कथा सुनाना जो पड़ता है। नज़दीक वाले पेड़ के पास तो एक पंडित जी आ जाते थे और बैच में पूजा करवा देते और कथा सुना देते । पास के मंदिर में जा कर भी कथा सुना जा सकता है ।आज कल सभी कथा मोबाइल पर ही उपलब्ध है । और मैंने वही से कथा पढ़ कर सुना डाली । कथा सुनाने के बाद मुझे दक्षिणा में फल, मिठाई मिली । फिर पत्नी जी ने हमारा चरण स्पर्श किया । ये सब समता के सिद्धांत के विरुद्ध लगता है पर परम्परा है इसलिए मैंने इस बार मना नहीं किया और "सदा सौभाग्यवती" वाला आशीर्वाद भी दे डाला । मैं परेशान था की मैं कितना स्वार्थी या असंवेदनशील हूँ अपने को ही दीर्घायु होने का आशीर्वाद दे दिया । मैं इस पर सोचता रहा फिर इस निष्कर्ष पर पंहुचा की वास्तव में जो बाद में अकेला रह जाय वही सच मुच अभागा है। सौभाग्यशाली तो वही है जो अकेला न रह जाय ।


इसी दिन एक मजेदार बात हो गयी । एक छोटी सी बिल्ली (Kitten ) ने हम लोग को adapt कर लिया है । म्याऊं म्याऊं कर हमारे पैरों में लिपटती रहती है । हम कभी दूध, कभी बिस्कुट और कभी ब्रेड खिला देते । उसे कभी पसंद नहीं आता तो बिस्कुट ब्रेड में चीज़ लगा कर देने लगा । आखिर कर हमने अमेज़न से कैट फ़ूड मंगवा लिए । कैट फ़ूड की खुसबू उसे ३० फ़ीट दूर से ही मिल जाती है और मुझे उसे टेरेस / बालकनी में बंद कर ही कैट फ़ूड निकलना पड़ता है । घर में मछली बने तो ये एक दम पीछे पड़ जाती है । पर एक दिन एक चूहा घर में घुस गया और हमने चूहे दानी लगाई रात में एक छोटा वाला चूहा फंस भी गयी । बिल्ली टेरेस पर थी और चूहेदानी बालकनी में । पर मेरी छोटी बिल्ली अजीब रास्ते से उछल पुछल कर चूहेदानी के पास पहुँच गयी । चुहिया तो डर के मारे मानो मर ही गयी । चूहे दानी का कोना तलाश कर शांत पड़ी थी । चूहे के पूंछ को तो बिल्ली ने चबा डाला था । मैंने बिल्ली को टेरेस में बंद किया और एक झोले में चूहे दानी डाल चूहे को थोड़ी दूर ले जा कर छोड़ आया । इस नन्ही मुन्ही बिल्ली को किसने बताया की उसका प्राकृतिक आहार क्या है ?

हमारा रोज का प्रातः भ्रमण के कार्यक्रम में एक छोटे पार्क में जाना भी शामिल है । जहां दो झूले और दो स्लाइड्स है । बगल में एक प्रसिद्द स्कूल है । मैंने नोटिस किया कि एक बच्ची रोज स्कूल टाइम से पहले पार्क आ जाती है और झूला झूलती है और घड़ी देखते रहती है । मैंने एक दिन उससे पूछ ही लिया रोज जल्दी झूला झूलने के लिए आती हो ? किस क्लॉस में पढ़ती हो । उसने कहा ७ वीं में । अब मेरी पोती भी ७ वीं में ही है । एक कनेक्शन बनाने लगा । उसका नाम है परी । हम रोज मिलते है और परी मिलने पर पैर छू कर प्रणाम कर लेती । यदि हम लोग जल्दी आ कर मंदिर के तरफ निकल गए और नहीं मिल पाए तो परी इंतज़ार करती हमलोग के लौटने का और हम दिख गए तो झूला छोड़ कर पार्क के गेट तक दौड़े आती और मिल लेती है । आज‌ कल समय mismatch के कारण तीन‌ चार दिन परी दिखी नहीं तो मैं miss कर रहा हूं। शायद इसलिए FB, Instagram Whattsapp बना है। हमें पहले भी एक छोटी नतिनी - चंडीगढ़ शताब्दी ट्रैन में (२००९) और एक छोटा सा पोता मनोकामना मंदिर नेपाल (२०१५) में मिल चुका है और यह पोता तो हमे जाने ही नहीं दे रहा ।उसकी माँ ने बताया बच्चे के दादा जी भी मेरे जैसे टकले है । उन दोनों का मासूम भोला चेहरा अभी भी मन में बसा है। ये कनेक्शन क्या कहलाता है ?

Sunday, May 14, 2023

हरिहरनाथ मंदिर दर्शन और कथा (#यात्रा )

हरिहरनाथ मन्दिर, गन्डक गन्गा सन्गम गज ग्राह मुर्ति चौराहा , सोनपुर


हमारा हरिहरनाथ मंदिर का रुट

हरिहरनाथ मंदिर यात्रा और दर्शन
पिछले ब्लॉग में मैंने वैशाली यात्रा के बारे में लिखा था और कहा था की हमने अपनी यात्रा सोनपुर के हरिहर नाथ मंदिर से प्रारम्भ की थी । मैं आज का ब्लॉग उसी मंदिर और हरिहर क्षेत्र के बारे में लिखूंगा । जैसा मैंने पिछले ब्लॉग में लिखा था मैं हाजीपर में था एक पारिवारिक कार्यक्रम में । हमारे पास एक दिन था और हमने वैशाली घूम लेने का फैसला लिया । एक और फैसला लिया गया की हम सुबह सिर्फ चाय पी कर चलेंगे .. सबसे पहले प्रसिद्द हरिहरनाथ मंदिर , वह पूजा करेंगे नाश्ता करेंगे और फिर निकल चलेंगे वैशाली के भग्नावशेष देखने ।
हम लोग चौरसिया चौक के पास कन्हेरी घाट रोड की तरफ से मुड़ गए और गूगल मैप के सहारे चल पड़े । रास्ते में एक संकरा पुल पड़ा जो गंडक नदी के उपर था । इतना संकरा की दो गाड़िया मुश्किल से ही निकले । दोनों तरफ साइकिल और मोटर साइकिल के लिए भी पुल बने थे पर सभी साइकिल वाले बीच से ही चलते । हम लोग गाड़ी के अंदर ये बाते कर ही रहे थे की एक मोटर साइकिल वाले ने इशारा किया की हमे दूसरी नए पुल से से क्यों नहीं गए । हम पर तुम , तुम पर खुदा वाली कहावत चरितार्थ हो रही थी । जैसे ही पुल पार हुआ वो चौक आ गया जहाँ गज ग्राह की खूबसरत सी प्रतिमा लगी थी । हमने गाड़ी रुकवाई और एक दो फोटो खींच लिए । वहां से हरिहरनाथ मंदिर नज़दीक ही था । हम लोग गंडक के किनारे किनारे बढ़े ही जा रहे की पता चला मंदिर था गेट और रास्ता पीछे ही रह गया । हमे थोड़ा पीछे जाना पड़ा । छोटा सा बाजार था । मिठाईयों की दुकान , पूजा से सामानों की दूकान , खिलोने वैगेरह की दूकान थी , एक मिनी देवघर।
हम लोग एक दूकान पर रुक कर पूजा की डलिया, फूल, नारियल, सिंदूर, धुप बत्ती ले रहे थे और दुकानदार जोर दे रहा था माता की चुनरी भी ले ले । तभी एक पंडा जी पधारे और हमने बासुकीनाथ के अनुभव के अनुसार पंडा को हाँ कर दिए । पंडा जी ने कुछ मंत्र पढ़े और साल भर के कुछ पूजा के नाम से कुछ ११००/- की मांग के खैर हमने कुछ मोल भाव कर उसे दान दक्षिणा दिया और मंदिर को और चल दिए, सोचा था दक्षिणा पहले ही ले लिए अंदर की पूजा भी करा ही देंगे , पर पंडा जी साथ नहीं आये । यानि अंदर दूसरे पंडा जी होंगे । खैर , जब आ ही गए थे तो जो भी बाधा हो पूजा तो करनी ही थी । मुझे वे पुजारी एकदम पसंद नहीं जो जजमान को लूट ही लेना चाहते है । बासुकीनाथ में मिले पंडा जी याद आ गए , जिनके व्यव्हार से खुश हो कर के मांगे दक्षिणा से कुछ ज्यादा ही दे दिया और उनसे मोबाइल नम्बर का आदान प्रदान भी कर लिया ।
जैसे ही मंदिर के अंदर गया एक पंडा ने बताया की चुनरी एक ग्रिल में बांधना जरूरी है । अब उस पंडा जी ने बताया की वो एक पाव घी का दिया रोज जलाएंगे हमारे तरफ से उसके लिए ५००१ रूपये देने होंगे । खैर मैंने उन्हें ५०० रूपये दिए । और गर्भ गृह में चले गए । यहाँ विष्णु की काले पत्थर की प्रतिमा और शिव लिंग दोनों ही स्थापित थे । पंडा जी द्वारा सालाना पूजा की बातें यहाँ भी हुईं पर हम कुछ दे दिला कर मंदिर से बाहर आ गए । बाहर एक और मंदिर से एक पंडा जी बुलाने लगे सिंदूर वैगेरह चढाने । हमने कुछ फोटोग्राफी की और मंदिर के बाहर आ गया ।
हम वहां से चल पड़े वैशाली की और । रास्ते में एक नाश्ते के दूकान के पास गाड़ी पार्क करने की जगह मिल गाई और हमने वहां गाढ़ी लस्सी और छोले भठूरे नाश्ता करके आगे बढ़ गया । भठूरे के साथ छोले देने में दुकानदार कंजूसी कर रहा था । नाश्ते के बाद हम आगे बढ़ गए और वैशाली पर ब्लॉग मै पहले ही लिख चुका हूँ ।


हरि और हर सरजू जी में जल क्रीड़ा करने गए और सरजू -शारदा-घाघरा- गंगा होते हुए गंडक (नारायणी) - गंगा संगम तक पहुंचे। लाल तीर को देखे

हरिहर नाथ का इतिहास
हरिहर क्षेत्र के महत्व को लेकर ग्रंथों में भगवान विष्णु व भगवान शिव के जल क्रीड़ा का वर्णन किया गया है। इस ग्रंथ के अनुसार महर्षि गौतम के आश्रम में वाणासुर अपने कुल गुरु शुक्राचार्य, भक्त शिरोमणि प्रह्लाद एवं दैत्य राज वृषपर्वा के साथ पहुंचे और सामान्य अतिथि के रूप में रहने लगे।
वृषपर्वा भगवान शंकर के पुजारी थे। एक दिन प्रात: काल में वृषपर्वा भगवान शंकर की पूजा कर रहे थे। इसी बीच गौतम मुनि के प्रिय शिष्य शंकरात्मा वृषपर्वा और भगवान शंकर की मूर्ति के बीच खड़े हो गये। और इससे वृषपर्वा क्रोधित हो गये। और उन्होंने तलवार से वार कर शंकरात्मा का सिर धर से अलग कर दिया। जब महर्षि गौतम को इसकी सूचना मिली वे अपने आपको संभाल नहीं सके और योग बल से अपना शरीर त्याग दिये। अतिथियों ने भी इस घटना को एक कलंक समझा। इस घटना से दुखित शुक्राचार्य ने भी अपना शरीर त्याग दिया। देखते-देखते महर्षि गौतम के आश्रम में शिव भक्तों के शव की ढे़र लग गयी। गौतम पत्नी अहिल्या विलाप कर भगवान शिव को पुकारने लगी। अहिल्या की पुकार पर भगवान शिव आश्रम में पहुंच गये। भगवान शंकर ने अपनी कृपा से महर्षि गौतम व अन्य सभी लोगों को जीवित कर दिया। सभी लोग भगवान शिव की अराधना करने लगे। इसी बीच आश्रम में मौजूद भक्त प्रह्लाद भगवान विष्णु की अराधना किये। भक्त की अराधना सुन भगवान विष्णु भी आश्रम में पहुंच गये। भगवान विष्णु और शिव को आश्रम में देख अहिल्या ने उन्हे अतिथ्य को स्वीकार कर प्रसाद ग्रहण करने की बात कही। यह कहकर अहिल्या प्रभु के लिए भोजन बनाने चलीं गयीं। भोजन में विलम्ब देख भगवान शिव व भगवान विष्णु सरयू नदी में स्नान करने गये सरयू नदी में जल क्रीड़ा करते हुए भगवान शिव और भगवान विष्णु नारायणी नदी(गंडक) में पहुंच गये। प्रभु की इस लीला के मनोहर दृश्य को देख ब्रह्मा भी वहां पहुंच गये और देखते-देखते अन्य देवता भी नारायणी नदी के तट पर पहुंचे। जल क्रीड़ा के दौरान ही भगवान शिव ने कहा कि भगवान विष्णु मुझे पार्वती से भी प्रिय हैं। यह सुनकर माता पार्वती क्रोधित होकर वहां पहुंची। बाद में भगवान शिव ने अपनी बातों से माता के क्रोध को शांत किया। ग्रंथ के अनुसार यही कारण है कि नारायणी नदी के तट पर भगवान विष्णु व शिव के साथ-साथ माता पार्वती भी स्थापित है जिनकी पूजा अर्चना वहां की जाती है। इसी कारण सोनपुर का पूरा इलाका हरिहर क्षेत्र माना जाता है। चूंकि यहां भगवान विष्णु व शिव ने जलक्रीड़ा किया इसलिए यह क्षेत्र हरिहर क्षेत्र के नाम से प्रसिद्ध है।
इसीलिए यह इलाका शैव व वैष्णव संप्रदाय के लोगों के लिए काफी महत्वपूर्ण है। इसी हरिहर क्षेत्र में कार्तिक पूर्णिमा से एक माह का मेला लगता है। पहले तो यह पशु मेला के रूप में विश्वविख्यात था। लेकिन अब इसे और आकर्षक बनाया गया है।



अशोक धाम

जब लक्खीसराय के पास बड़ा सा शिवलिंग मिला और खोजने वाले के नाम पर इस धाम का नाम रक्खा गया अशोक धाम । उस समय ये बातें अख़बार में आ रही थी की यही जगह असली हरिहर क्षेत्र है । ऐसा इसलिए कि यहाँ एक नदी बहती है जिसका नाम है हरोहर जो यहीं गंगा जी में मिल जाती है । मेरा एक ब्लॉग अशोक धाम पर है । क्लिक करे और पढ़े ।
गज ग्राह की कहानी तो आपको पता ही होगा । जब गज की पुकार पर हरि दौड़े आये ग्राह यानि मगरमच्छ से गज की जान बचाई । पुराणों के अनुसार, श्री विष्णु के दो भक्त जय और विजय शापित होकर हाथी ( गज ) व मगरमच्छ ( ग्राह ) के रूप में धरती पर उत्पन्न हुए थे। पौराणिक कथाओं के अनुसार, गंडक नदी में एक दिन कोनहारा के तट पर जब गज पानी पीने आया तो ग्राह ने उसे पकड़ लिया। फिर गज ग्राह से छुटकारा पाने के लिए कई वर्षों तक लड़ता रहा। तब गज ने बड़े ही मार्मिक भाव से हरि यानी विष्णु को याद किया। जिन्होंने प्रकट हो कर मगरमच्छ से गज को बचाया ।

Thursday, May 11, 2023

वैशाली गणराज्य ( #यात्रा )

मैं हाल में एक पारिवारिक समारोह में भाग लेने हाजीपुर - (पटना के पास एक शहर जो वैशाली जिले का सदर मुकाम भी है) गया था। समारोह के बाद अगले दिन रात में मेरी ट्रेन पटना से थी । यानि मेरे पास एक दिन था वैशाली को explore करने के लिए । हमारा ठिकाना गाँधी सेतु जो पटना को उत्तर बिहार से जोड़ता है के पास था । हमने रात बिताने के लिए होटल खोज अभियान शरू किया और नज़दीक के चौरसिया चौक के पास स्थित होटल फन पॉइंट में दो कमरे ले लिए । यह होटल Covid के दौरान बंद ही था और सारे कमरे खाली ही पड़े थे । हमने दो सबसे बेहतर कमरे छांट लिए । हमारी रात अच्छी गुजारी । साफ़ सुथरे रूम और उजली साफ चादर । बस मज़ा आ गया ।

हमने अपनी यात्रा के लिए एक गाड़ी होटल से बुक करनी चाही पर बात नहीं बनी । हमें तो शाम तक पटना भी पहुंचना था इसलिए हमने पटना से ही गाड़ी मंगवा ली। दो बच्चे भी थे और थी उनकी अनगिनत जिज्ञासा । सब की राय हुईं की सबसे पहले हरिहर नाथ मंदिर जा कर पूजा कर ली जाये । हम सबसे पहले सोनपुर के प्रसिद्ध हरिहर नाथ मंदिर गए । इस क्षेत्र और मंदिर पर एक अलग ब्लॉग लिखने का इरादा है मेरा । पर मंदिर में काफी समय लग गया और इस कारण हमारी यात्रा बवंडर यात्रा (Whirlwind trip ) में तब्दील हो गयी । उसपर मेरे साथ जाने वाले मेरे छोटे भाई की एक ऑनलाइन मीटिंग का प्रोग्राम आ गया और हमारा घूमने का समय और भी कम हो गया । आगे वैशाली या वैशालीगढ़ की यात्रा विवरण लिख रहा हूँ ।

पहले कुछ इतिहास । आचार्य चतुरसेन के उपन्यास ने वैशाली को नगरवधु से जोड़ दिया और प्रसिद्ध भी कर दिया। हाल में एक राजनितिज्ञ ने इस बात का बेजा इस्तेमाल भी कर डाला। आम्रपाली को इतिहास की सबसे खूबसूरत महिला कहा जाता है. आम्रपाली की खूबसूरती की तुलना किसी भी चीज से नहीं की जा सकती है। लेकिन आम्रपाली की खूबसूरती ही उसके और वैशाली के दुर्भाग्य का कारण बना ।

वियतनामी मंदिर - वैशाली बुद्ध / महावीर काल के राज्य (dharmwire.com से आभार सहित )विश्व शांति स्तूप वैशाली

वज्जि संघ और वैशाली
नाम में क्या रक्खा है पर ऐसा माना जाता है कि वैशाली के प्राचीन शहर का नाम राजा विशाल से मिला है। प्रारंभ में, इसका नाम था विशालपुरी जो बाद में बदलकर विशाली या वैशाली हो गया।वज्जिका संघ सात आठ जनजातीय राज्यों का एक संघ था जो लिच्छवियो के नेतृत्व में दुनिया से सबसे पहले प्रजातंत्र था ।संघ की राजधानी थी वैशाली । इस प्रकार, लिच्छविका, मल्लका, वैदेह, और नायिका, शाक्य आदि जनजाति वज्जिका संघ के भीतर, क्षत्रिय जनजाति थे, और उनके राजा थे सेतक ...वैशाली शहर के आसपास केंद्रित लिच्छवियों के नेतृत्व में यह गणतंत्र दुनिया का पहला प्रजातंत्र या गणतंत्र था । संघ के अन्य सदस्य मिथिला क्षेत्र में वैदेह थे, कुण्डपुर के नायिका , और वज्जी जनजाति थे, जो लिच्छविकों के आश्रित थे । कुलीन पुरुषो से मत के आधार पर राजा चुना जाता । यानि राजा का बेटा ही राजा बने ऐसी कोई बाध्यता नहीं थी । मल्लका, जो दो अलग-अलग गणराज्यों में संगठित थे भी वज्जिका संघ का हिस्सा थे, हालांकि वे लिच्छवियों की निर्भर नहीं थे और इसलिए संघ के भीतर अपनी स्वतंत्रता और संप्रभु अधिकारों को बनाए रखते थे , जैन सूत्रों के अनुसार मल्लकों जो वज्जि संघ का हिस्सा थी पर वे स्वतंत्र रूप में कुशीनारा और पावा कासी-कोशल के गणतंत्र राज्य के हिस्सा भी थे । लच्छवियो और मल्लों का शासन कभी न कभी नेपाल और काठमांडू उपत्यका में भी रहा है । 6वीं शताब्दी ईसा पूर्व के दौरान गंगा घाटी में तीन प्रमुख शक्तियों का उदय हुआ, अर्थात् राजा बिम्बिसार के अधीन मगध साम्राज्य (हरयंका वंश), सेतक के अधीन वज्जिका संघ और प्रसेनजीत के अधीन कोशल साम्राज्य। ये सभी राजा गौतम बुद्ध और भगवान महावीर के समकालीन थे ।

आम्रपाली की कहानी
कहानी यह है की वैशाली नगर के एक गरीब दंपति को आम के पेड़ के नीचे एक नवजात बच्ची मिली। नवजात बच्ची को इस तरह से देखकर उस दंपति ने उसे उठा लिया और आम के पेड़ के नीचे पड़े होने के कारण उसका नाम रखा आम्रपाली। घर में धन अत्यधिक कमी थे फिर भी उसके माता-पिता ने उसके लालन में कोई कमी नहीं कीआम्रपाली जब तक 11-12 साल की हुई तब तक उसके रूप की चर्चा शुरू हो गई थी। आम्रपाली को देखते ही लोग उसकी खूबसूरती के दीवाने हो जाते थे। ये वो दौर था जब लोग उसकी एक झलक पाने के लिए दीवाने हो जाते थे। आम्रपाली की उम्र जैसे-जैसे बढ़ने लगी वैसे-वैसे उसके चाहने वाले बढ़ने लगे। सभीको उसका साथ चाहिए था सेठ, साहुकार, दरबारी, राजे, महाराजे सभी को। मता पिता के परेशानी का कारण बना आम्रपाली का रूप। उसका हाथ किसी एक के हाथ में देने का मतलब था औरों को नाराज़ करना, यानी गृह युद्ध। बात इतनी बढ़ी कि सभी बातों में दक्ष आम्रपाली बन गई नगर वधु। आम्रपाली ना अब शादी कर सकती थी और ना ही किसी एक व्यक्ति के साथ जिंदगी बिता सकती थी। उसे वो इंसान चुनने की इजाजत थी जिसके साथ वो संबंध बनाए, लेकिन वो किसी एक की नहीं हो सकती थी। आम्रपाली को ७ साल तक नगरवधू की पदवी रखनी थी । उसे रहने को महल और सभी अन्य सुख सुविधा दी गई । आम्रपाली एक आम नागरिक से प्यार भी करती थी जिसे राजा से मरवा डाला ।

आम्रपाली के बिम्बिसार और अजातशत्रु से सम्बन्ध
आम्रपाली की जिंदगी में प्यार दोबारा आया मगध के वयोवृद्ध राजा बिंबिसार के रूप में। बिंबिसार ने वैशाली राज्य पर हमला कर दिया और रूप बदलकर आम्रपाली के महल में शरण ले ली। बिंबिसार को आम्रपाली ने जगह दी तब उसे नहीं पता था कि वैशाली का राज्य खतरे में है। तब तक दोनों प्यार में पड़ गए थे और आम्रपाली को सच्चाई का पता चलते ही उसने बिंबिसार को युद्ध रोकने को कहा।
बिंबिसार भी आम्रपाली से प्यार कर बैठे थे कि उन्होंने युद्ध रोक दिया । आम्रपाली इसके बाद बिंबिसार के बेटे विमल कोंडाना की माँ भी बनी । कुछ समय बाद बिंबिसार को उसके बेटे अजातशत्रु के द्वारा मौत के घाट उतार दिया गया। बिंबिसार के मरने के बाद अजातशत्रु ने वैशाली पर फिर से आक्रमण कर दिया। जब अजातशत्रु वैशाली पहुंचा तो उसकी मुलाकात आम्रपाली से हुई। उसे देखते ही अजातशत्रु उसके प्यार में पड़ गया। आम्रपाली को भी वो पसंद आया पर उसे ये नहीं पता था कि ये बिंबिसार का बेटा है या बिंबिसार को मारने में इसका हाथ है। आम्रपाली को अजातशत्रु पसंद आ गया, लेकिन वैशाली के लोगों को ये बात पसंद नहीं आई और इस कारण उन्हें कारावास में डाल दिया गया । अजातशत्रु को यह नागबार गुजारी और उसने पूरे वैशाली में आग लगा दी। आम्रपाली को जब पता चला तो वो बहुत नाराज़ हो गईं। इसके बाद अजातशत्रु से उन्होंने नाता तोड़ लिया। अजातशत्रु ने वज्जि संघ को तहस नहस कर डाला और पूरा वज्जि संघ मगध साम्राज्य के अधीन आ गया ।

आम्रपाली का संघम शरणम् गच्छामि
इसके बाद आम्रपाली एक बौद्ध भिक्षु के तरफ आकर्षित ही । लेकिन बौद्ध भिक्षु के धार्मिक ज्ञान के आगे आम्रपाली नतमस्तक हो गईं और खुद बौद्ध भिक्षुणी बनने का फैसला लिया। एक महिला का बौद्ध विहार में प्रवेश का प्रारम्भ में विरोध हुआ । आम्रपाली पहली महिला बौद्ध भिक्षुणी थीं जिनके बाद अन्य महिलाओं ने भिक्षुणी बनने का फैसला लिया और इस तरह आम्रपाली को आखिर में जाकर शांति प्राप्त हुई।

आनंद स्तूप - वैशाली अशोक स्तम्भ वैशाली

बुद्ध, सम्राट अशोक और वैशाली
भगवान बुद्ध ज्ञान प्राप्ति के कुछ वर्षों बाद वैशाली पहुंचे थे। ऐसा माना जाता है कि उनके आगमन पर भारी बारिश हुई जिसने सूखे और बीमारी के शहर को साफ कर दिया। भगवान बुद्ध ने अपने सबसे उत्साही शिष्य आनंद को रतन सुत्त सुनाया और उनसे सुरक्षा और समृद्धि के लिए शहर के चारों ओर उसी का जाप करने का अनुरोध किया। इसने निश्चित रूप से वैशाली के भाग्य को बदल दिया क्योंकि 84000 लोगों ने बाद में राजाओं और राजकुमारों के साथ बौद्ध धर्म ग्रहण किया। अगले कुछ वर्षों के दौरान गौतम बुद्ध इस स्थान पर बार-बार रुके, कुटगरसला विहार में, जिसके खंडहर ट्रेडमार्क अशोक स्तंभ के बगल में स्थित हैं, जिसमें सिंह शीर्ष पर है। भगवान बुद्ध ने अपना अंतिम उपदेश वैशाली में दिया, अपने शिष्यों को अपने आसन्न महापरिनिर्वाण और कुशीनगर (जहाँ बुद्ध ने प्राण त्यागा ) जाने की इच्छा के बारे में बताया।
मूल रूप से बुद्ध के अवशेष केवल शाक्य वंश को जाने वाली थी, जिससे बुद्ध संबंधित थे। हालांकि, छह अन्य कुलों और एक राजा ने बुद्ध की राख की मांग की। इस विवाद को सुलझाने के लिए द्रोण नाम के एक ब्राह्मण ने बुद्ध की राख को आठ भागों में बांट दिया। और भगवान बुद्ध के नश्वर अवशेषों के आठ भागों में से एक लिच्छवियों के भी प्राप्त हुआ जिसे वैशाली में स्थापित किया गया । जहां यह अवशेष स्थापित है वह एक स्तूप है जिसे आनंद स्तूप कहाँ जाता है । इस स्तूप के चारो तरफ बुद्ध के अन्य शिष्यों के स्तूप भी है । बुद्ध के महापरिनिर्वाण के तीन शताब्दियों बाद सम्राट अशोक ने बुद्ध के अवशेषों को कई हज़ार भागों में बाँट कर पूरी दुनिया में जगह जगह स्तूप बनवाये । सम्राट अशोक ने कोल्हुआ, वैशाली में सिंह स्तंभ का निर्माण करवाया था। यह लाल बलुआ पत्थर के अत्यधिक पॉलिश किए गए एकल टुकड़े से बना है, जो 18.3 मीटर ऊंचे घंटी के आकार के शीर्ष से घिरा है। खंभे के शीर्ष पर एक शेर की आकृति रखी गई है।

और अंत में हमारी यात्रा
जैसा ऊपर मैंने लिखा हमारे पास वैशाली में बिताने के लिए बहुत कम समय था । और हमारे लिस्ट में था विश्व शांति स्तूप , नेपाल और अन्य देशो के बनाये मंदिर, महावीर जन्म स्थान, अभिषेक पुष्कर (सरोवर), आनंद स्तूप, अशोक सिंह स्तंभ । धीरे धीरे हमें सिर्फ दो स्थानों को देखने में सिमट गए । विश्व शांति स्तूप , अशोक स्तंभ जिसके पास आनंद स्तूप और अन्य स्तूप भी स्थित थे । इन सब जगहों को ढूढ़ने और देखने फोटो खींचने में ही तीन बज गए । हमारे साथ हमारे छोटे भाई थे जो एक न्यायिक अधिकारी है और उसका एक महत्वपूर्ण ऑनलाइन मीटिंग ४:३० बजे शाम से था । पहले प्लान था की यह मीटिंग वह पटना पहुँच कर करेगा क्योंकि वहीं लैपटॉप मिलने की संभावना था । पर अशोक स्तंभ देखने के बाद हमने वापस लौटना ही उचित समझा । लेकिन मर्फी का नियम बुरी तरह पीछे पर गया, हमारी गाड़ी ख़राब हो गयी । एक पेट्रोल पम्प के सामने ही । ड्राइवर बार बार बोलता रहा की गाड़ी में डीजल काफी है पर हमलोग ने डीजल ले लेने के लिए जोर दिया । उसने फिर एक बोतल में डीजल ला कर गाड़ी में डाला और गाड़ी स्टार्ट हो गयी किसी तरफ सामने पेट्रोल पम्प तक गाड़ी जा सकी और हमने डीजल भरवा लिया । हमारे पास डेढ़ घंटे थे जो पटना पहुंचने के लिए काफी थे । पर हाय री किस्मत अभी १०-१२ किलोमीटर गए हे थे की एक एक्सीडेंट जिसमे एक आदमी के मौत भी हो गयी थे और लोगों ने रोड ब्लॉक कर दिया । किसी तरह गाड़ी पीछे घूमा कर हम एक गांव के रोड पर गाड़ी डाल दी । गूगल ने हमें एक रेल लाइन तक ले गयी । उसके बाद खेतों के बीच से रास्ता था जो एक रेलवे लेवल क्रासिंग तक लेजाता था । हम पीछे लौट कर दूसरे रास्ते से उसी क्रासिंग तक गए उसके बाद भी कई जगह सिंगल रास्ते पर सामने से आने वाली गाड़ी और कभी कभी बस और ट्रक भी, मुश्किल पैदा कर रही थी और समय बीतता जा रहा था । खैर करीब घंटे भर बाद हम मैं रोड पर आ ही गए और क्योंकि रोड जाम था हमारे लेन में गाड़िया नहीं थी । ड्राइवर अब तेजी से गाड़ी भगा रहा था । खैर ४:३० बजते बजते हम हाजीपुर में अपने छोटी बहन के घर पहुँच ही गए और मेरे भाई ने मोबाइल पर ही ऑनलाइन मीटिंग कर लेना ठीक समझा । हम उसके बाद पटना जंक्शन के लिए निकल दिए और ट्रैन से अगले दिन रांची पहुँच गया ।

Monday, May 8, 2023

आज का सुबह नामा -2

मै किसी दूसरे विषय पर ब्लॉग लिख रहा था पर आज मेरे दैनिकी प्रातः भ्रमण में कुछ देखा और एक लघु ब्लॉग लिखने पर मैं मज़बूर हो गया हूँ । रोज सुबह हम लोग घर के पास वाले SAIL कॉलोनी में टहलने जाते है । घने पेड़ , चिड़ियों के चहचहाट, एक छोटा सा पार्क और एक मंदिर हमें आकर्षित करते है । कॉलोनी के अंदर एक प्रसिद्द स्कूल है जिसके करीब ५० बस चलते है और सुबह सीनियर और जूनियर बच्चो के लिए दो बार जाती है बस । सिर्फ इन बसों का शोर और आना जाना थोड़ी मुश्किल पैदा करता है पर इतना तो चलता है । असल तकलीफ WRONG SIDE से स्कूटर, मोटर साइकिल , ऑटो रिक्शा और कभी कभी कार चलने वालों से होती है । यु टर्न के लिए १०० मीटर जाना पड़ता है और वह भी इन्हे नागबार गुजरता है ।



दूसरी बात जो हमें रोज़ देखने को मिलता है वह है हमारे निवास गली के नुक्कड़ पर इकठ्ठा कूड़ा जो हमारी गली के दुकानदार रात में बाहर निकल कर फेंक देते है और जबतक कारपोरेशन की कूड़ा गाड़ी नहीं आती यु ही बिखरे रहते है । COVID महामारी के दौरान सभी दुकानदार कचड़े के दो डब्बे - हरे और नीले सामने रख देते थे और गन्दगी कम दिखती थी । जब कोई जबरदस्ती नहीं होती तब हम क्यों अपना नागरिक कर्तव्व्य भूल जाते है । खैर आप पूछोगे यह तो रोज की बात है आज क्या स्पेशल था ? आपका जवाब ऊपर वाले फोटो में है ।
आपने गौर किया होगा की बहुत से कागज के पन्ने रास्तें में पड़े है । यह सब हर प्रकार के ट्यूटोरियल संस्थान के लीफलेट्स है जो स्कूल के गेट पर बिखरे पड़े है । शायद कल स्कूल में प्रवेश, परीक्षा का परिणाम या कोई अन्य परीक्षा हुई होगी और सभी ट्यूटोरियल संस्थान टूट पड़े होंगे छात्रों या अभिभावकों को लीफलेट बाँटने । ये संसथान मोहल्ले को लड़को से पर्चे बांटने का काम करा लेते है पर यह लड़के किसी भी प्रश्न का उत्तर देने में सक्षम नहीं होते । हम सभी जानते है कि कागज़ बनाने में लकड़ी या बांस का प्रयोग होता है । और गूगल करने से पता चलता है की १ टन पेपर के लिए हमें २५ बृक्ष काटने होंगे ? यानि हम यदि यूँ ही पेपर फेंकते रहे तो जंगल कटते रहेंगे । पेपर अक्सर recycle हो जाते है पर इस तरह रोड पर बिखरे कागज़ तो कचरे में ही जायेंगे । पिछली बार जब मैंने ट्रैन पकड़ी तो देखा की रिजर्वेशन चार्ट पेपर में नहीं - इलेक्ट्रॉनिक बोर्ड्स में लागि थी। यहाँ तक की टिकट चेक करने वाले भी टैब्स देखकर टिकट चेक कर रहे थे । हम भी टिकट मोबाइल में ही दिखा रहे थे । जब इतनी मेहनत कागज़ बचाने या पर्यावरण बचाने की हो रही हो तो इन अध्ययन या शिक्षा संस्थानों से अक्लमंदी की उम्मीद तो है । इन्हे अपने प्रचार में पेपर, टीवी / रेडियो एड्स, सोशल मीडिया इत्यादि का ज्यादा उपयोग करना चाहिए । लीफलेट्स बाटना एक पुराना दकियानूसी तरीक़ा है और उनसे जो इंजीनियर, डॉक्टर, वकील या सरकारी अफसर बनाते है या दावा करते है सामाजिक जिम्मेदारी की अपेक्षा की ही जा सकती है ।



ऊपर दिए चित्र देख कर क्या कुछ याद आता है ? लेटर बॉक्स का यह फोटो SAIL कॉलोनी का है । कभी यह संपर्क साधने का मुख्य स्तम्भ हुआ करता था । एक जमाना था जब लोगों को इंतज़ार होता माता पिता द्वारा भेजा पोस्ट कार्ड हो या लम्बे प्रेम पत्र को संभाले लिफाफे । इस लाल डब्बे के महत्व को कौन नकार सकता है । मोबाइल आने से इसका महत्व कम होने लगा जब लोग SMS द्वारा जरूरी छोटे मैसेज भेजने लगे । STD - PCO से टेलीफोन करना आसान हो ही चुका था । मोबाइल से दूर दराज़ फ़ोन करना महंगा था । यहा तक इनकमिंग फ़ोन का भी पैसा लगता था । पर तब ईमेल और इंटरनेट आ गया और फिर चिट्ठी लिखना बंद ही हो गया । सिर्फ आधिकारिक या कानूनी पत्र ही डाक से भेजे जाने लगे । बड़े डाक घरों में तीन रंग के लेटर बॉक्स हुआ करते थे । हरे डब्बे लोकल चिट्ठियों के लिए , ब्लू मेट्रो शहरों के लिए और लाल डब्बे पुरे देश के लिए । बस आज का सबह नामा इतना ही ।

Monday, May 1, 2023

चाय को चाय ही रहने दो - पार्ट-3

मेरे पुराना ब्लॉग "चाय को चाय ही रहने दो" पार्ट-१ "में मैंने बताया था कि ऐसा वक्त आ गया है कि हम फूलों के काढ़े, या आयुर्वेदिक काढ़े को भी चाय कहने लगे है , चाय के इतिहास के बारे में भी चर्चा की थी मैंने .
अपने पिछले ब्लॉग "चाय को चाय ही रहने दो पार्ट-२ " में मैंने चाय के स्वाद और अंदाज़ / स्वैग की बात की थी. अब इस बार ब्लॉग में चाय बेचने के तरीके के बारे में बात करेंगे , तरीके जो देश भर में प्रयोग में लाये जा रहे है ।

रात का समय आप ट्रेन में अपने बर्थ पर सो रहे हों तभी चाय, चाय गरम की आवाज डिब्बे में गूजंती है और कई मुसाफिर चाय पीने भी लगते है पर आप सोना चाहते है और चादर खींच कर सोने की कोशिश करते हैं। यह scene है 80's में स्लीपर क्लास डब्बे की ।तब कम ट्रेनों में ऐo सीo बोगी होती थी। और चाय वाले स्लीपर में ऐसे चढ़ते थे मानों यह उनका जन्म सिद्ध अधिकार हो। कभी कभी जगा भी देते थे "दादा धोनबाद एसे गेछे चा खाबेन ?" ! जिस जिस ने चाय पी होती है वह भी शिकायत कर रहा होता है, कि बस गरम पानी में चीनी डालकर पिला गया। ट्रेन में चाय वाले से रात गए fresh चाय की उम्मीद नहीं की जा सकती है। शाम में बने चाय को ही बीच बीच में पानी डाल गरम कर लेते है, जब एक दम पानी ही बचता है तब ही बेच बाच कर घर जाएगा। इन लोगों के कारण ही छुछुर चाय को कहते है ट्रेन वाली चाय। खैर दिन के समय चायवाले खटकते नहीं है। तरह तरह की चाय तरह तरह से च बेचते है ये । और तरह तरह से लोगों को लुभाते है । अपनी चाय बेचने के लिए कई तरीके इस्तेमाल में लाते है ये चाय वाले। कोई नमक वाली निम्बू चाय सुबह सुबह ले कर आता और जब आपने तुरंत ही नाश्ता किया हो तभी पता नहीं कहाँ से आ जाते है यह चाय गरम वाले कुल्हड़ या पेपर कप में दे जाते है "ट्रेन की चाय"। कोई दूध पानी चीनी का गरम घोल और चाय की डिप वाला पैकेट दे जाएगा पर काफी मांगने पर बना कर देगा।

सबसे ख़राब चाय

एक बार 70 's में पटना से हावड़ा के बीच शायद मधुपुर में जब एक चायवाले ने पुकार लगाई सबसे ख़राब चाय तब मैं चौंक गया। सुन रखा था "अपने दही को कोई खट्टा नहीं कहता " और ये बेवकूफ अपने चाय को सबसे ख़राब कह रहा हैं। लेकिन कई मुसाफिर इसी चायवाले का इंतज़ार कर रहे थे और उसने बहुत लोगों को चाय पिलाई। किसी ने कहा अच्छी चाय बेचता है ये और मैंने भी एक चाय पी और सच में चाय बहुत अच्छी थी। चाय बेचने के लिए ऐसे अपने सामान को ख़राब कहने का गजब असर होता है । इसे । कहते है Negative Reverse selling । जब आप अपने सामान को ख़राब कहते है तो लोग उत्सुक हो जाते हैं की आप अपने चाय को ख़राब क्यों कह रहा हैं और आप उसकी चाय पी लेते है और क्योंकि चाय अच्छी होती है आप अगली बार भी "खराब" चाय पी लेते है। अब तो "ख़राब चाय" या "सबसे खराब चाय" की कई चाय दुकान कई शहरों में (Ex बोकारो , रायपुर, इंदौर ) खुल गई है।


आईये कुछ समाचार पत्रों की कटिंग देखें
बोकारो. झारखंड के बोकारो जिले के चास के पास नेशनल हाईवे-23 पर तेलेडीह मोड़ के पास ‘बोकारो की सबसे खराब चाय’ मिलती है. फिर भी चाय के प्रेमी बड़े चाव से यहां चाय पीने आते हैं. दरअसल, यहां चाय बहुत अच्छी बनाई जाती है, लेकिन इस दुकान का नाम ‘बोकारो की सबसे खराब चाय’ है. यह दुकान अपने नाम की वजह से तेजी से चर्चा में आ रही है. हाईवे से गुजरने वाले लोग चाय की दुकान का नाम देखकर रूक जाते हैं और चाय का स्वाद लेने के बाद ही जाते हैं. - HINDI NEWS 18
रिपोर्ट : अभिलाष मिश्रा
इंदौर. आज तक आपने प्रोडक्ट बेचने के लिए दुकानदारों को अपना सामान अच्छा, बढ़िया, बेहतरीन कहते सुना होगा. लेकिन क्या आपने कभी सुना है कि दुकानदार अपने हर प्रोडक्ट को खराब बताए. जी हां, ऐसी ही एक दुकान इन दिनों इंदौर में बहुत मशहूर हुई है. वह दावा करती है कि उसके यहां खराब चाय, खराब कचौरी, खराब नमकीन के साथ-साथ सारे सामान खराब मिलेंगे. इस दुकान के कर्मचारी कैलाश भी कोई चीज सर्व करने के पहले अपने यहां के प्रोडक्ट की ‘तारीफ’ ऐसे ही करते हैं. बता दूं कि खराब चाय के नाम से मशहूर हुई यह दुकान राजमोहल्ला चौक में खालसा कॉलेज के पास है. HINDI NEWS 18 .



कानपुर और कलकत्ते की रामप्यारी चाय दुकान
रामप्यारी चाय

फिर एक बार धनबाद से गया होकर पटना जाने के क्रम में एक चायवाला अपनी चाय बेच रहा था "रामप्यारी चाय" यह तरीक़ा भी खराब चाय की तरह लोकप्रिय हो गया। अब तो बहुत सारी शहरों में रामप्यारी चाय की दुकान खुल गयी हैं। इस मार्केटिंग टेक्निक को कहते हैं WARM CALLING ! कई रामप्यारी चाय की भी कई दुकाने हिंदुस्तान के कई शहरों में खुल गई है। शायद यह नाम लोगों को अपनी प्यारी या घरवाली के हाथ की चाय की याद दिलाती है ।

आईए कुछ और चाय दुकानों की बात करे। कई चायवाले बहुत प्रसिद्द हो गए है जैसे चायोस , चाय ब्रेक , MBA चायवाला , टी पॉइंट वैगेरह पर ये चाय को स्टाइल के साथ मिक्स करते है और मॉल, मल्टीप्लेक्स या एयरपोर्ट पर ही मिलते है । चाय के साथ स्माल स्नैक्स और चाय के कई जाने अनजाने मेनू आइटम इनके USP हैं, पर आपको जेब ढ़ीली करनी पड़ेगी । पर मैं बात करना चाहता हूँ रोड / स्ट्रीट, गली मोहल्ले में मिलने वाले चाय की।

पूरे हिंदुस्तान में हर नुक्कड़ पर चाय के ठेले, टपरी या दूकान मिल ही जाती है । होटल रेस्ट्रॉन्ट में तो चाय काफी मिलती ही है। पर मैं वैसे जगहों की बात करेंगे जहाँ कुछ अभिनव प्रयोग किये गए नई नई रेसिपी या कुछ और तरीके से चाय पीने के अनुभव को स्पेशल बनाने के लिए। यूँ तो तरह तरह के चाय बहुत सी जहगों पर मिल ही जाती है, जो काफी लोकप्रिय है जैसे चालू चाय, मलाई मार के चाय, स्पेशल चाय, कटिंग चाय, अदरख इलायची या लेमन टी, डीप डीप चाय, मुंबई की ईरानी चाय। पर कुछ चाय वालों ने कुछ न कुछ अलग किया। नाम से चौकाने का तरीका तो मैंने ऊपर लिखा ही है अब कुछ और बताना चाहता हूँ। कुछ का अनुभव शायद औरों को भी हुआ हो।


धनबाद
१९७१-७८ के बीच मेरी पोस्टिंग बोकारो स्टील सिटी में थी । बहुत सी ट्रेने तब बोकारो के माराफारी स्टेशन हो कर नहीं चलती थी इसलिए हमें धनबाद होकर ही आना जाना पड़ता था। धनबाद स्टेशन के बाहार गेट के पास एक चाय की दुकान थी शायद गणेश चाय दुकान । उस दुकान के बाहर चका चक चमकते बहुत सारी केतली लटकी रहती। कोयले के चूल्हे के प्रयोग करने के बाबजूद केतली हमेशा साफ़ रखने ‌‌‌‌की परंपरा ही उसको औरों से अलग करता था । तब के समय में साफ़ सफाई का ध्यान अक्सर चाय वाले नहीं रखते थे। दूसरी बात जो याद रह गई, उसके यहाँ एक बड़े टोकने में दूध हमेशा उबलता रहता। चाय हमेशा फ्रेश बनता। जितना आर्डर मिला उससे से बस एक दो कप ज्यादा। दूध का सोंधापन उसकी चाय का USP था। यदि अपने कुल्हड में चाय ली तो सोंधापन और बढ़ जाता। लोग इस दुकान के चाय के अदी थे और स्टेशन आते जाते एक कप चाय पीना प्रायः सबकी आदत में सामिल था . लोग तो यहाँ तक कहते थे की शायद थोड़ी अफीम मिलता है लोगों को अपने चाय का आदी बनाने के लिए। ऐसे मैं ऐसा नहीं मनाता। ८० के दशक में एक कड़क DC की पोस्टिंग यहाँ हुई और उन्होंने स्टेशन के आस पास के सभी दुकान हटवा दिया क्योंकि ये सभी दुकानें सरकार की जमीन पर अतिक्रमण कर बनाये गये थे। अभी कई चाय के दुकान धनबाद में प्रसिद्ध है एक का नाम है राम चरित्र की दुकान है जहां तंदूरी चाय और चॉकलेट चाय मिलती है । एक है बेवफा तंदूरी चाय । एक ऐसी भी दुकान है जहां बिकती है काजू चाय। हमने पटना के मैरीन ड्राइव में एक फिल्मी चाय वाले को भी देखा ऋतिक के पोस्टर के साथ। पता चला इसने सुपर ३० फिल्म में एक रोल निभाया था। तंदूरी चाय के लिए मिट्टी के कई कुल्हड़ चूल्हे में गर्म करने डाल रखते है और लाल होने तक गर्म करते है। चाय बनाने के बाद उसमें लाल गर्म कुल्हड़ डाल देते है इससे चाय में एक सोंधा पन आ जाता है और ऐसे बनता है तंदूरी चाय



नागपुर - डॉली की चाय दुकान स्वैग स्टाइल के लिए बहुत फेमस है , मेरा अपना कुछ अनुभव तो नहीं पर यू ट्यूब वीडियो देखने से दुकानदार का स्वैग दिखता है - चाय सर्व करने , चेंज वापस करने का अंदाज़ अनोखा है . लखनऊ की मिलती है गुलाबी चाय जो एक कश्मीरी रेसिपी पर आधारित है . कश्मीर का नमकीन मक्खन चाय या कहवा भी एक प्रसद्धि तरीक़ा है चाय पीने का.
पूरे हिंदुस्तान के चाय कल्चर को एक ब्लॉग में नहीं समेटा जा सकता . कोलकाता की छोटी छोटे कुल्हड़ में मिलने वाले चाय से लेकर पहाड़ो में मिलने वाले बड़े कप वाली चाय - ताकि कप से भी अपना हाथ गरम रख सके उजली, पिली, गुलाबी, कथ्थई, लाल हर रंग में मिलती है चाय - अब तो नीली फूल की चाय भी . चीनी - गुड़ - नमक तो डालते ही है, अदरक, इलाइची, दाल चीनी, तेज पत्ता इत्यादि कई प्रकार के मसाले भी डालते है इसमें .
में अपने ब्लॉग को एक कहानी से खत्म करता हूँ . जब मैं दूसरी बार ससुराल गया तब मेरे सबसे छोटे साले स्व डॉ सुनील सिन्हा या गुड्डू (तब करीब १० साल ) ने बड़े प्यार से एक बार अपने जीजाजी के लिए चाय बना लाये . जितने मसाले उनको पता था सभी डाला गया करीब करीब शुद्ध दूध में बनी थी चाय और चीनी भी भरपूर. पर क्योंकि इसमें उनका भरपूर प्यार था मैंने पूरा पी लिया और तारीफ भी की । हम सबों को बहुत कम उम्र में छोड़ कर चले गए पर हमेशा याद आते है ।

फोटो के लिंक इंटरनेट - गूगल सर्च से आभार सहित प्रतुत किये गए