मै किसी दूसरे विषय पर ब्लॉग लिख रहा था पर आज मेरे दैनिकी प्रातः भ्रमण में कुछ देखा और एक लघु ब्लॉग लिखने पर मैं मज़बूर हो गया हूँ । रोज सुबह हम लोग घर के पास वाले SAIL कॉलोनी में टहलने जाते है । घने पेड़ , चिड़ियों के चहचहाट, एक छोटा सा पार्क और एक मंदिर हमें आकर्षित करते है । कॉलोनी के अंदर एक प्रसिद्द स्कूल है जिसके करीब ५० बस चलते है और सुबह सीनियर और जूनियर बच्चो के लिए दो बार जाती है बस । सिर्फ इन बसों का शोर और आना जाना थोड़ी मुश्किल पैदा करता है पर इतना तो चलता है । असल तकलीफ WRONG SIDE से स्कूटर, मोटर साइकिल , ऑटो रिक्शा और कभी कभी कार चलने वालों से होती है । यु टर्न के लिए १०० मीटर जाना पड़ता है और वह भी इन्हे नागबार गुजरता है ।
दूसरी बात जो हमें रोज़ देखने को मिलता है वह है हमारे निवास गली के नुक्कड़ पर इकठ्ठा कूड़ा जो हमारी गली के दुकानदार रात में बाहर निकल कर फेंक देते है और जबतक कारपोरेशन की कूड़ा गाड़ी नहीं आती यु ही बिखरे रहते है । COVID महामारी के दौरान सभी दुकानदार कचड़े के दो डब्बे - हरे और नीले सामने रख देते थे और गन्दगी कम दिखती थी । जब कोई जबरदस्ती नहीं होती तब हम क्यों अपना नागरिक कर्तव्व्य भूल जाते है । खैर आप पूछोगे यह तो रोज की बात है आज क्या स्पेशल था ? आपका जवाब ऊपर वाले फोटो में है ।
आपने गौर किया होगा की बहुत से कागज के पन्ने रास्तें में पड़े है । यह सब हर प्रकार के ट्यूटोरियल संस्थान के लीफलेट्स है जो स्कूल के गेट पर बिखरे पड़े है । शायद कल स्कूल में प्रवेश, परीक्षा का परिणाम या कोई अन्य परीक्षा हुई होगी और सभी ट्यूटोरियल संस्थान टूट पड़े होंगे छात्रों या अभिभावकों को लीफलेट बाँटने । ये संसथान मोहल्ले को लड़को से पर्चे बांटने का काम करा लेते है पर यह लड़के किसी भी प्रश्न का उत्तर देने में सक्षम नहीं होते । हम सभी जानते है कि कागज़ बनाने में लकड़ी या बांस का प्रयोग होता है । और गूगल करने से पता चलता है की १ टन पेपर के लिए हमें २५ बृक्ष काटने होंगे ? यानि हम यदि यूँ ही पेपर फेंकते रहे तो जंगल कटते रहेंगे । पेपर अक्सर recycle हो जाते है पर इस तरह रोड पर बिखरे कागज़ तो कचरे में ही जायेंगे । पिछली बार जब मैंने ट्रैन पकड़ी तो देखा की रिजर्वेशन चार्ट पेपर में नहीं - इलेक्ट्रॉनिक बोर्ड्स में लागि थी। यहाँ तक की टिकट चेक करने वाले भी टैब्स देखकर टिकट चेक कर रहे थे । हम भी टिकट मोबाइल में ही दिखा रहे थे । जब इतनी मेहनत कागज़ बचाने या पर्यावरण बचाने की हो रही हो तो इन अध्ययन या शिक्षा संस्थानों से अक्लमंदी की उम्मीद तो है । इन्हे अपने प्रचार में पेपर, टीवी / रेडियो एड्स, सोशल मीडिया इत्यादि का ज्यादा उपयोग करना चाहिए । लीफलेट्स बाटना एक पुराना दकियानूसी तरीक़ा है और उनसे जो इंजीनियर, डॉक्टर, वकील या सरकारी अफसर बनाते है या दावा करते है सामाजिक जिम्मेदारी की अपेक्षा की ही जा सकती है ।
ऊपर दिए चित्र देख कर क्या कुछ याद आता है ? लेटर बॉक्स का यह फोटो SAIL कॉलोनी का है । कभी यह संपर्क साधने का मुख्य स्तम्भ हुआ करता था । एक जमाना था जब लोगों को इंतज़ार होता माता पिता द्वारा भेजा पोस्ट कार्ड हो या लम्बे प्रेम पत्र को संभाले लिफाफे । इस लाल डब्बे के महत्व को कौन नकार सकता है । मोबाइल आने से इसका महत्व कम होने लगा जब लोग SMS द्वारा जरूरी छोटे मैसेज भेजने लगे । STD - PCO से टेलीफोन करना आसान हो ही चुका था । मोबाइल से दूर दराज़ फ़ोन करना महंगा था । यहा तक इनकमिंग फ़ोन का भी पैसा लगता था । पर तब ईमेल और इंटरनेट आ गया और फिर चिट्ठी लिखना बंद ही हो गया । सिर्फ आधिकारिक या कानूनी पत्र ही डाक से भेजे जाने लगे । बड़े डाक घरों में तीन रंग के लेटर बॉक्स हुआ करते थे । हरे डब्बे लोकल चिट्ठियों के लिए , ब्लू मेट्रो शहरों के लिए और लाल डब्बे पुरे देश के लिए । बस आज का सबह नामा इतना ही ।
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