Thursday, August 26, 2021

मेरी स्वाद यात्रा - जगह जगह का खाना भाग-१

मैं बिहार में जन्मा और विद्या अर्जन पश्चात झाखंड में अपना तक़रीबन पूरा जीवन बिताया। बिहार और झारखण्ड में ऐसे तो पूर्वी भारत में बनने वाले सभी व्यंजन खाये पकाये जाते है पर कुछ विशेष भी है यहाँ जैसे : दोनों राज्यों में :
ठेकुआ , पिडुकिया ,पुआ, मखाना से बने व्यंजन , सत्तू पराठा , लिट्टी चोखा , दही - चूड़ा , मीट चूड़ा , मोटी मकई रोटी और ओल का भरता या चना के साग (कच्चे सरसो तेल के साथ थोड़ा खट्टा किया हुआ ) , बूट कलेजी , पिट्ठा, तिलकुट, अनरसा, खाजा, बारा मिठाई और झारखण्ड में
धुस्का - मीट, बांस की सब्जी , रुगडा , खुखरी ( कुकरमुत्ते ), कोईनर साग , डुबकी , उड़द दाल , कुर्थी दाल ,खपड़ा रोटी, अनरसा , मीठा पीठा , कुदुरूम की चटनी इत्यादि

बचपन - ननिहाल और घर का खाना

भारत में हर प्रान्त में अलग अलग प्रकार का खाना मिलता हैं और उसे आप या तो एन्जॉय करते हैं या फिर मजबूरी में उसके TASTE को पसंद करने की आदत डालनी पड़ती हैं । हमने बचपन में कई तरह के बिहारी खाने खाये और कुछ जैसा खाया अब मिलता भी नहीं हैं । लिट्टी चोखा को बिहार का MASCOT खाना माना जाता हैं पर मैं इससे सहमत नहीं हूँ । मैंने बचपन में रोटी चावल, पुलाओ वैगेरह की सिवा जो खाया और बहुत एन्जॉय किया वो था मक्की या मकई की मोटी मोटी रोटी और ओल का खट्टा भर्ता । बेगूसराय जहाँ मेरा बचपन बीता वहां हमारे बबा जी मामू (देखे मेरा ब्लॉग जो मैंने उन पर लिखा था ) मकई के आटे को मल मल कर गूंधते और फिर मोटी रोटी बनाते । कई बार मैंने मक्की की रोटियां खाई, पंजाबी ढाबे में भी, पर वैसा स्वाद और मिठास कभी नहीं मिला । दूसरा जो मुझे पसंद था और जिसको पकाने में ज्यादा तकनीक नहीं था वो था नेनुआ (spring gourd ) या झींगा ( ridge gourd ) की सब्जी जिसमे मूली डाला रहता था या फिर पीसी हुई तीसी (Flaxseed) । ऐसे चना दाल और बड़ी डाल कर तो अब भी घर में बनता है। बिहार के व्यंजनों में ठेकुआ बहुत लोक प्रिय हैं ।

छठ के अवसर पर यह अवश्य बनाया जाता है और जब मैं कॉलेज के दिनों में घर से बॉक्स भर ठेकुआ प्रसाद लेकर हॉस्टल जाता था तब घंटे भर में ही मेरे मित्र सारा चट कर जाते । ऐसे पिडुकिया भी बिहार में अवसरों पर, खास कर होली में जब माल पुआ भी बनता है, यु पी वाले इसे गुझिया कहते हैं । चाहे जिस नाम से पुकारे, कहीं के लोग इसे अपना कहे, मुझे बहुत पसंद हैं । बेगूसराय में मछली बहुत बार बनता और जो मछली ज़्यदातर पकाया जाता वो था रोहू और कभी कभी बुआरी मछली । मछली मेरे फुआ के यहां बहुत मजेदार बनता । तब भंसा में पीढ़े पर बैठ कर सबसे साथ खाते, कितना मज़ा आता । चूल्हे में बचे आग में शकरकंद (SWEET POTATO ) या आलू को हमारे बड़े भाई बहन खुद पका लेते और हम आनंद लेते । बेफिक्री वाला था मेरा बचपन ।

एक खाना जिसका स्वाद नैसर्गिक था वह था माँ के हाथ का बना गरम गरम घी भात और आलू का सादा (बिना प्याज़ के) भरता दो बूंद सरसों तेल के साथ क्योंकि जमुई में प्याज़ खाना वर्जित था । परीक्षा के दिनों में हमें (दीदी और मुझे) १० बजे तक स्कूल पहुंचना होता था और इन दिनों टिफिन की छुट्टी (Lunch break) नहीं होती थी। हमारा रसोईया जो दूर गॉव से आते थे तबतक नहीं आ पाते और कोयला का चूल्हा वही जलाते थे। माँ जल्दी में लकड़ी के चुल्हे पर भात पकाती और उसी में भरता के लिए आलू डाल देती और हम उस स्वादिष्ट खाने को हाथ जलने की परवाह किये बिना गरमा गरम खा लेते । यह हमारा Brunch होता। कभी कभी बिना ज्यादा भुने या बिना मसाले के खाने बहुत स्वादिष्ट बन जाते हैं - कद्दू की सादी सब्जी ऐसा ही एक डिश हैं । दादू अपने बोरसी के आग पर कभी कभी कुछ भोग पकती और खास कर उनका पकाया खिचड़ी का स्वाद मैं नहीं भूल सकता।
बचपन की स्वाद यात्रा अधूरी रह जाएगी यदि स्कूल के दिनों में बगल की कचहरी में ठेला लगा कर गुपचुप बेचने वाले का जिक्र न किया जाय। बिहार में पानी पूरी या गोल गप्पे को गुपचुप कहते हैं और बंगाल और झारखंड में उसीको फुचका कहते हैं । एक बार मैंने २ एकन्नियां (पुरानीं भारतीय करेंसी सिस्टम में १६ एकन्नियां का एक रुपये होता था ) जमीन पर गिरा पाया था और उसमे से १ एकन्नी का मैंने ६ गुपचुप खाये (अब शायद इसके कम से कम १० रूपये देने पड़े) और इसके स्वाद का कायल हो गया । उसी तरह बंगाली मिठाई वाले की रसगुल्ला और सरदारी मिठाई वाले की जलेबी बहुत लज़ीज़ होती थी । आस पास के क्षेत्र में मलयपुर का स्पंज रसगुल्ला (जिसे आप दबाकर छोटी गोली के साइज का कर सकते थे और छोड़ने पर फिर फूल जाता ) और पकरीवड़ावां का खास्ता बारा या बालुशाही प्रसिद्द था और मुझे भी पसंद था जमुई आने वाले लोग अक्सर ये मिठाईया ले कर आते ।
जमुई की स्वाद यात्रा में यदि तिलकुट की बात न करू तो ज्यादती होगी । तिल से बनने वाला ये मिठाई यो तो गया का प्रसिद्द है पर जमुई के जगदीश हलवाई की बनाई तिलकुट खा ले तो गया का तिलकुट भी भूल जाए । ये हमारे यहाँ रोज खोमचा ले कर पहुंचते और तिलकुट का मौसम न हो तो छेना की मिठाई जैसे छेना मुरकी (छोटा छोटा छेने की मिठाई) ले कर आते । एक थोड़े उमरगर हलवाई जिनका नाम झरी था मिठाई लेकर रात को आठ से नौ बजे के बीच रोज ठेले पर छेने और खोए की मिठाई जैसे रसगुल्ला, गुलाब जामुन,चमचम, पेड़ा और मैदे बेसन की मिठाई जैसे लड्डू, बालूशाही ले कर आते । हम बच्चे दोनों राह देखते रहते । जगदीश जी तो हमारे यहाँ कई शादियों में मिठाई बनाने भी आये ।


जमुई में हमारा घर


हॉस्टल - का खाना, पटना

घर का खाने का अनुभव तो मैंने लिखा पर जब पहली बार जब हॉस्टल में रहने का मौका मिला तो मैं हॉस्टल के खाने के स्वाद पर लट्टू हो गया । सबसे ज्यादा जो पसंद आया वो था छनुआ आलू का भुंजिया यानि deep fry किए महिन कटे आलू Indian फ्रेंच फ्राई । महीने में एक या दो दिन फीस्ट होता और एक्स्ट्रा पैसे देने पड़ते क्योंकि तले भुने खाने, मीट, खीर, पूरी वैगेरह बनते । रोटियां छोटी छोटी पूरी जितनी बनती और मैं १० -१५ रोटियां खा जाता । गोल्डन का आइस क्रीम पटना की खासियत थी और मुझे स्कूल के समय से पसंद था । मुझे अब तक दाम भी याद हैं १५ पैसे में दूध वाला आइस क्रीम बार, २० में ऑरेंज बार, और क्रीम वाली बार २५ पैसे में । जैसे जैसे समय बीता हॉस्टल के रूटीन खाने से ऊबने लगे और कभी कभी सोडा फाउंटेन (तब पटना का प्रसिद्द रेस्टोरेंट था) जा कर कुछ खा लेते । पहली बार मसाला डोसा इसी जगह खाया । सोडा फाउंटेन में पहली बार होटल मैं बैठ कर आइस क्रीम खाई थी । तब सोडा फाउंटेन में बाहर लॉन में ही टेबल कुर्सी लगे होते और अंदर बैठ कर गर्मी खाने के बजाय हम बाहर ही बैठना पसंद करते क्योंकि हम शाम को ही सिनेमा जाने क्रम में ही यहाँ जाते । मसाला डोसा बहुत ही अच्छा लगा और बाहर जब भी खाने का मौका मिलता मसला डोसा फर्स्ट चॉइस होता । तब पता नहीं था मैं अपने नौकरी के कई साल दक्षिण भारत में बिताने वाला था ।
पटना के हॉस्टल जीवन की बात चाली है तो मछुआ टोली के महंगू के मीट और रोटी / परांठे की याद तो आती ही है । 4th year में मुझे गिटार सीखने का शौक हुआ और मैं मछुआटोली में एक टीचर के यहाँ सीखने जाने लगा । सप्ताह में २ बार । और वहां से लौटते वक्त अक्सर मीट - पराठे खा कर आता । कॉलेज के तरफ मुड़ने वाली सड़क के कोने पर एक चाय नाश्ते की दुकान थी । समोसा की चाट बना कर देते और उनके छोटी सी दुकान में आमने सामने रखी २ बेंचों पर हम सट सट कर बैठते ताकि काफी लोग एक साथ चाट और जलेबी का लुत्फ़ उठा सके । इतने दिनों बाद उस चाट की याद आ रही है तो स्वादिष्ट तो होगा ही ।

दक्षिण भारत में खाने के कई अनुभव है और उसमें से कुछ हम शेयर करना चाहेंगे । पहली बार हमे १९६९ में दक्षिण जाने का मौका कॉलेज ट्रिप में मिला । हम तबतक सिर्फ इडली, वादा और मसाला डोसा से ही परिचित थे वो भी होटल में बैठ कर । वाल्टेयर (अब का विशाखापत्तनम) पहुंचते ही नास्ते में समोसा, कचोरी मिलना बंद हो गया और ईडली वड़ा मिलने लगा और खाने में भात के साथ दाल की जगह सांभर, रसम, चटनी मिलने लगा । हम मसाला डोसा जो हमे पसंद था से काम चलने लगे । नाश्ते में पूरी और मसाला (मसाला डोसा वाला आलू की फिलिंग) खाते या मैदे की रोटी या लच्छा पराठा । चेन्नई जो तब मद्रास पहुंचने तक हम इडली भी खाने लगे और अनियन उत्तपम भी । मद्रास सेंट्रल के सामने तब एक बुहारी होटल था और हम वही खाना खा लेते थे क्योंकि नार्थ इंडियन टाइप का खाना भी मिल जाता था । जब एर्नाकुलम पहुंचे तो एक होटल में पीढ़े पर बैठ कर सामने केले के पत्ते पर परसा हुआ राइस , सांबर, रसम तो संभालना मुश्किल हो रहा था कैसे तरल पदार्थ को बहने से रोके । पर पायसम और आम पसंद आया, लाल केला यहाँ पहली बार खाया एक से पेट भरने लायक बड़े थे । सबसे बड़ी बात जितना खाओ कोई एक्स्ट्रा नहीं । इस बात पर एक वाकया याद आ गया जब हम बंगलुरु तब बंगलौर पहुंचे तो होटल वाले ने पूरी का दाम बताया पर बोला सब्जी फ्री, जो हर बार एक छोटी कटोरी में ला देता। मेरे क्लासमेट उमेश शर्मा ने पूरी तो एक प्लेट मंगाई पर सब्जी के कटोरियों से उसका टेबल भर गया । आज की बात कहूँ तो अब तो मिनी इडली, फ्राइड और मसाला इडली भी मिलते है । रवा इडली का स्वाद बाद में मिला। सबसे स्वादिष्ट रव ईडली बैंगलुरू के रेसीडेंसी रोड में ही खाई थी। और वो रेस्टोरेंट टूर के समय नाश्ते की फेवरिट जगह थी। रवा डोसा और उपमा भी अच्छे लगने लगा । पर आंध्र में गोंगुरु की सब्जी चटनी कोई खास पसंद नहीं आई । सुलुरपेट (2003) में पत्नी जी ने एक डिश बनाना सीखा अड़ा जो बिना फरमेंट किये डोसा मिक्स से बनता है और स्वादिष्ट भी है । सालेम प्रवास (1980) के समय मेरे सीनियर स्व श्री डी डी सिन्हा साहेब आये थे और एक मजेदार घटना घाटी थी । एक बार हम दोनों शहर केे बीचों बीच स्थित वसंत विहार रेस्टुरेंट में गऐ। मैंने अपने तमिल ज्ञान को उपयोग में लाते हुए वेटर से पूछा तैयर बड़ा एरक् (दही बड़ा है?) । वेटर यह सोच कर की मुझे तमिल आती है अपने फ्लो में मेनू आइटम्स तमिल में बोलने लगा? मेरे पल्ले कुछ न पड़ा तो मैंने फिर पूछा तैयर बड़ा एरक् ? वह फिर तमिल में कुछ कह कर चला गया। शायद यह कह रहा होगा कि जो बताया बस वही है, श्री डीडी सिन्हा ने फिर कहाँ अब मेरा इशारों ( Sign Language) का कमाल देखो। उन्होंने ताली बजा कर वेटर को बुलाया। वे बोले 'मसाला दोसा' और दो ऊँगली दिखाई और वेटर दो दोसा ले आया। फिर कॉफी भी इसी तरह मंगाई गई।
सालेम में नॉन वेज खाने के लिए हम मिलिट्री होटल जाते जहाँ नॉन वेज बिरयानी मिल जाती थी, ऐसे नेशनल होटल में भी नॉन वेज के बहुत सारे डिश मिल जाते थे ।


फाइव रोड जंक्शन सालेम

पंजाब की एक हाथ वाली लस्सी का ग्लास ! 1968 के कॉलेज ट्रिप में अम्बाला के बाद एक गांव जैसी जगह पर ट्रेन रूक गई। सिग्नल नहीं थी। रेल ट्रैक के बगल में एक ढ़ाबा था जहाँ लोग गरम दूध और लस्सी पी रहे थे। जब बहुत देर ट्रेन न चली तो मै और कुछ और दोस्त, जो दरवाजे पर पैर लटका कर हवा खाते हुए सफर कर रहे थे, उतर पड़े और दूध और दही ले कर पीने लगे। दाम मात्र एक कप चाय के बराबर। पर इतने लम्बे ग्लास से पीने और पैसे देने लौटाने में इतनी देर लगी कि ट्रेन चल पड़ी। हमे 100 मिटर रेस लगा कर ट्रेन पकड़नी पड़ी थी। इतना बड़ा गिलास पहली बार देखा ! काके दा ढाबा दिल्ली के अनुभव मैं एक ब्लॉग में लिख चूका हूँ और यहाँ लिंक देता हूँ । ऐसे सबसे स्वादिष्ट और गाढ़ा लस्सी मैंने कानपूर में ही पिया या यू कहो खाया चम्मच से ।

अगले भाग में विदेशो के खाने के बारे में लिखूंगा ।

Monday, August 23, 2021

बिहार और नेपाल के लोक गीत/ विवाह गीत

बिहार और नेपाल के लोक गीत/ विवाह गीत

मैने सबसे पहले जो विवाह देखा वह था मेरी छोटी बुआ की शादी। दादा जी के मृत्यु और परिवार और मेरे पिता के struggle के बाद घर में खुशी का पहला मौका। मै 4-5 साल का रहा हूंगा। घर में हर विधि विधान के समय कोई न कोई गीत गाया जाता और दादू (मेरी दादी) का सक्रिय योगदान रहता। मै एक गीत "कच्ची कलियाँ कच्चा सूत, कच्चा है हरा.. क पूत " पूरे घर में घूम घूम कर गाता चलता था जो एक गाली गीत था । बड़े लोग एक बच्चे के मुंह से ऐसा गीत सुन कर enjoy कर रहे थे और मुझे बार बार वही गीत सुनाने को कहते। मै बड़ा होता गया और बेबी दीदी का विवाह 5 साल बाद हुआ और छोटे बाबु (मेरे सबसे छोटे चाचा जी) की शादी और गौना उसके बाद। रिश्ते के कई लोग जिनसे मैं फिर कभी मिला भी नहीं आये थे और औरतों का समय गीत गाने, सब्जी वैगेरह काटने और हंसी ठिठोली में बीतता । कुछ सालों बाद जब शादियों में गीत गाना होता तो मेरी फुफेरी बहनों को खोजा जाता खास कर झुमझुम (रश्मि), भारती और वंदना को। उनके पास एक कॉपी थी जिसमें गीतों के बोल लिखे होतो थे जिसमे हर साल कुछ नये गीत जुड़ जाते। बाद में फिल्मी गीतों के ट्यून पर भी गीत आ गए। मेरे जेहन मे कई विवाह गीत बैठते चले गए "पुरबा पछिमा से आएलै सुनर दुल्हा" हो या "स्वागत में गाली सुनाओ, सुनाओ मेरी संखियाँ" या "रसगुल्ला घुमाय के मार दिया रे" हो या " हाथों में पहने पैजामा दस्ताना समझ के" हो । मैंने गीतों के यू ट्यूब लिंक दे दिया हैं तांकि आप गीतों को सुन कर भी आनंद उठा सके । मुझे हमेशा ये लोक गीत पसंद थे, अब भी है। शादी के बाद मेरे पंसद के List में नेपाली लोक संगीत भी जुड़ गए और पहले मैं कुमार बस्नेत, मीरा राणा, अरूणा लामा और नारायण गोपाल के रिकॉर्ड हर बार के काठमांडू trip में खरीद लेता था, तब रिकॉर्ड प्लेयर का जमाना था । अब मै you tube पर उनके गए गीत और चीज गुरूंग के द्वारा गए दोहरी गीत सुनता रहता हूँ। दोहरी एक extempore गीत मुकाबला है और बहुत ही मजेदार होता है। इस ब्लॉग की विषयवस्तु मेरी इसी पंसद का नतीजा है। परिवार के बारे में बहुत अच्छे मैसेज भी होते हैं इन गीतों में । पद्मा भूषण शारदा सिन्हा द्वारा गए यह भोजपुरी लोक गीत इसका प्रमाण हैं

कोयल बिन बागिया न सोभे राजा

कोयल  बिन  बागिया  न  सोभे  राजा 
भाई  भतीजा  बिन , नैहरो  न  सोभे
देवर  बिन  अंगना  न  सोभे  राजा 
सासु  ससुर  बिन , ससुरा  न  सोभे 
सैया बिन , सेजिया  न  सोभे  राजा 
लाल  सिंदूर  बिन , मागियों  न  सोभे
बालक  बिन, गोदिया  न  सोभे  राजा 
मिथिला के राम विवाह आधारित लोक गीत

सबसे पहले सीता के जन्म और उनके वंश के बारे में कुछ जान लेना उचित होगा ।
वाल्मीकीय रामायण तथा पुराणों में मिथिला नाम का संबंध राजा निमि के पुत्र मिथि से जोड़ा गया है। इन ग्रंथों में एक कथा सर्वत्र प्राप्त है कि निमि के मृत शरीर के मंथन से मिथि का जन्म हुआ था। मिथि के वंशज मैथिल कहलाये । कहते हैं अग्नि भी सदानीरा गण्डकी नदी को सूखा नहीं पाए और सरस्वती नदी के पास से आये मिथि के वंशज इसी नदी के पूर्व में बस गए । तब यह क्षेत्र दलदली था और उपजाऊ नहीं था क्योकि अग्नि का प्रवेश नहीं हुआ था पर इन ब्राह्मणों ने यज्ञ कर अग्नि से धरती को तपा कर उपजाऊ बना दिया । स्वतः जन्म के कारण इस वंश में जन्मे हर कोई जनक कहलाये और बिना देह (यानि बिना पिता के) के जन्मे ये लोग विदेह कहलाये । सीता के पिता जनक का वास्तविक नाम 'सिरध्वज' था। राजा जनक के अनुज 'कुशध्वज' थे। एक और वृतांत के अनुसार नदियों से भरा यह क्षेत्र नदी के तीरों से पोषित होने के कारण तिरहुत कहलाया ।


जानकी स्थान स्थित भव्य मंदिर,सीतामढ़ी

जैसी कथा है एक बार अकाल की स्थिति में पंडितों ने कहा की राजा जनक यदि स्वयं हल चलाये तो स्थिति बदल जायेगीं । अब के सीतामढ़ी के पुनौरा गॉव में जनक द्वारा हल चलाते वक़्त एक बच्ची जनक जी को मिली और हल का फाल यानि सीत में मिलने के कारण उन्हें सीता नाम दिया गया । जनकपुर जो नेपाल में हैं मिथिला की राजधानी हुआ करती थी । इस रिश्ते से मिथिलावासी राम जी, चारो भाईयो को मिथिला का दामाद मानते हैं । और इस नाते राम विवाह की मैथिली गीतों में राम जी और अयोध्यावासियों के लिए गाये गीतों में बारात के स्वागत, परिछन और विदाई यहाँ तक कि गालियों वाले गीत भी है । यही तो हमारे धर्म कि विशेषता है हम प्राणियों, पर्वत नदियों से तो कोई न कोई रिश्ता तो जोड़ लेते ही हैं यहाँ तक कि भगवान से भी। कई सालो पहले ये अनुभूति मुझे प्रत्यक्ष रूप में हुई। अवसर था मेरे बहन बहनोई जो मधुबनी में रहते है के घर में आयोजित रामार्चा पूजा। तब मै काठमांडू में था और मैने जनकपुर हो कर मधुबनी जाने का प्रोग्राम बनाया। तब पता न था कि यह यात्रा यादगार होने वाली है। और मैं इस पर ब्लॉग लिखने वाला हूँ (लिंक दे रहा हूँ )। राम कथा की सारे प्रसंगों पर गीत भजन और कथा होती है और इस रामार्चा पूजा में विवाह प्रसंग भी था।

अतिशयोक्ति न होगी यदि कहा जाय अपने आराध्य से अपनापन का हद तो राम और सीता के विवाह के बारे में गाए जाने वाले गीतों में उभर कर आती हैं और दूल्हे के रूप के वर्णन से लेकर शादी में गए जाने वाली गाली तक । पहुना को मिथिला में कुछ दिन और रुकने से लेकर विदाई तक के गीत हैं मैथिली में । यहाँ तक कि गीतों में कहाँ जाता है "हम सब तो आपकी साली सरहज है  और हमारे मज़ाक का बुरा न मानियेगा, ये तो हमारा अधिकार है, रिवाज़ है, हमारा प्यार है " क्यों न हो सीता तो मिथिला की ही बेटी थी। कुछ बानगी पेश हैं ।

बारात को सजाने पर गीत

राम लछुआन चलला बिहायन

 राम लछुआन चलला बिहायन
दशरथ साजु बरियातू हे 
सब बरियातिया जनकपुर पहुचल
चेरिया कलश लेने ठाढ़ हे 
राम लछुआन चलला बिहायन 
दशरथ साजु बरियातू हे 
सब बरतिया के लाले लाले धोतिया 
सिरहुँ में लाले लाले पाग हे 
राम लछुआन चलला बिहायन 
दशरथ साजु बरियातू हे 
देबाउ गे चेरिया कान दुनू सोनमा 
गले में गिरमल हार हे
राम लछुआन चलला बिहायन 
दशरथ साजु बरियातू हे 
एक वचन मोर मानि ले गे चेरिया
कही दिहैं सीता के स्वरुप गे 
राम लछुआन चलला बिहायन 
दशरथ साजु बरियातू हे 
बारात पहुंचने पर

बारात पहुंचने पर मिथिला में लोग भव्य बारात देख कर चकित हैं ।

कओने नगरिया सौ एलै सुन्दर दुलहा

कओने नगरिया सौ एलै सुन्दर दुलहा 
कहाँ सौ एलै हे  पचरंगिया बजनमा  
अवध नगर सँ एलै सुन्दर दुलहा 
ओत्तते  एलै हे पचरंगिया बजनमा 
कओने नगरिया सौ एलै सुन्दर दुलहा
कहाँ सौ एलै हे  पचरंगिया बजनमा

बारात में आने पर दूल्हे को देख सास परिछन करती हैं और अपनी आँखे जुड़ाने लगती हैं और नगर वाले भी दूल्हे की तारीफ की पुल बांधने लगते हैं । दो गीत देखिये :
1) पुरबा पच्छिमवा से ऐले सुन्दर दूल्हा,
जुड़ावे लगलन हो सासु अपनी नयनवा ।

2) आजु मिथिला नगरिया निहाल संखियाँ
चारो दूल्हा में बड़का कमाल संखियाँ

विवाह हो चुका हैं । बारात मड़वे पर कच्ची (बिहार में भात खिलने को कच्ची कहते है । यह इस बात का प्रतीक होता है कि अब हम सम्बन्धी हो गए ) । अब मिथिला वासी गलियां देते हैं । अब तो लोग विवाह में गाते हैं " अरे बन्ने तू क्या जाने तेरा परिवार छोटा हैं, तेरी दादी बेचे आलू तेरे दादा ..फलनवां हैं " । पर मिथिलावासी हमेशा थोड़ा मीठा बोलते हैं चाहे गाली ही क्यों न हो और वे गाते हैं
"राम जी से पूछे जनकपुर की नारी, बता द बबुआ लोगवा कहे देत गारी

राम जी से पूछे जनकपुर की नारी, 
बता द बबुआ लोगवा कहे देत गारी
तोहरा से पुछु मैं ओ धनुर्धारी, 
एक भाय गोर काहे एक भाय कारी ।
आगे और भी गलियां देती हैं  । और सभी विधि विधान संपन्न हो जाता   हैं ।

कई दिनों या महीनो तक बारात जनकपुर में रुकी रही । मिथिला वासी अपने आथित्य के लिए प्रसिद्द हैं और हर बार जब भी दशरथ जी जाने की बात करते हैं उन्हें रुकने के लिए निहोरा करते हैं और वे रुक जाते हैं । फिर वशिष्ठ जी और सतानंद जी ने जनक जी को समझा बुझा कर राजी किया और विदाई का मार्मिक क्षण आ गया । सभी सखिया, माता, अन्य नर नारी अश्रुपूरित आंखों से सीता जी को विदा कर रहे हैं । राजा जनक भी अपने आंसू छिपा नहीं पा रहे । कई विदाई गीत हैं मैं एक गीत का लिंक दे रहा हूँ ।

बड़ा रे जतन से सिया दिया पोसलों,
 सेहो सिया राम लिए जाय।

सीता अयोध्या चली गयी । फिर जब राम और सीता जनकपुर कुछ दिनों के लिए आये और एक बार फिर पहुना (दामाद, अतिथि) को वापस जाने का क्षण आ गया और साली सरहज सभी मिल कर उन्हें कुछ दिन और रुकने का निहोरा कर रही है और उन्हें कई प्रलोभन दे रही हैं । पहली बात तो ये कहती हैं कि जो सुख ससुराल में वो और कही नहीं । यदि रुके तो रोज़ इत्र से नहलाएंगे और करिया से गोर बना देंगे । रोज नए नए पकवान और लीजिये न का निहोरा करके खिलाएंगे । सालियों के गाली से भूख और स्वाद भी बढ जायेगा । कमला विमला और दूधमती नदियों में नौका विहार करवाएंगे और पवन देव को निवेदन करेंगे कि वो धीरे धीरे बहे । और फिर भी आप रुकना न चाहे तो हमें ही अपने साथ ले चलिए । ऐसा निवेदन कौन ठुकड़ा सकता ? यही गीत यू ट्यूब पर देखिये सुनिए।

ऐ पहुना एहि माथिले में रहु न
 
ऐ पहुना  एहि माथिले में रहु न 
जउने सुखवा ससुरारी में ताउने सुखवा कहूना  
रोज सवेरे उबटन मल के इतर से नहवाईब  
एक महीना के भीतर करिया से गोर बनाइब 
झूठ कहत न बानी मौका एगो देहु न 
निज नविन मनभावन व्यंजन परसब कंचन थारी 
स्वाद भूख बढ़ जाइ सुन साली सरहोज के गारी 
बार बार हम करब चिरोरा औरो कुछ ही लेहु न 
कमला विमला दूधमती में झिंझरी रोज खेलायब
सावन में कजरी गा गा के झूला रोज झुलायब 
पवनदेव से करब निहोरा हौले हौले बहु न 
हमर निहोरा रघुनन्दन सों माने या न माने 
पर ससुरारी के नाते परताप को आपन जाने 
या मिथिले में रही जइयो या संग अपने रख लेहु न 
ऐ पहुना ऐ ही मिथिले में रहु न 
बस आज इतना ही । अगले ब्लॉग में भी कुछ नया होगा पढ़ना न भूले ।

Saturday, August 21, 2021

काठमांडू -मधुबनी रेल छत पर #यात्रा

काठमांडू

शायद 1995 का साल था और मै अपने ससुराल काठमांडु गया हुआ था। मेरे बहनोई संतोष जी पहले ही रामार्चा पूजा के लिए मधुबनी आने का न्योता भेज चुके थे । यह निश्चित किया गया की मैं काठमांडू से जनकपर धाम होते हुए मधुबनी जाएंगे । मुझे नेपाल में तब चलने वाले एकमात्र ट्रैन में सफर करने का लोभ भी था ।उस यादगार सफर की बातें मेरे इस ब्लॉग का विषयवस्तु हैं ।

चंद्रगिरी, नेपाल काठमांडू

काठमांडू से जनकपुर जाने के दो तरीके है हवाई जहाज से या बाई रोड । आश्चर्य होगा कि दूसरा रास्ता कम समय लेने वाला था क्योंकि बसें रात में चलती थी और जहाज दोपहर में उड़ता । जहाज के उड़ने से पहले बस जनकपुर पहुंच जाती थी । तब बस कलंकी से चलती थी और पथलैया हो कर ही जनकपुर जाती थी ।मैंने भी एक बस में सीट रिज़र्व कर लिया और रात में सोते जागते सुबह जनकपुर पंहुचा । 

जनकपुरधाम से जयनगर की ट्रेन यात्रा

मैंने सोचा था जनकपुर पहुंचने पर मुख्य मंदिर के दर्शन करने के बाद आगे जाऊंगा । तब जनकपुर (नेपाल) से जयनगर (भारत) तक सबसे कम गेज वाली रेल लाइन थी और उसी ट्रेन से जाना सबसे सुविधाजनक था । मैंने एक रिक्शा मंदिर के लिए कर लिया पर रास्ते में रिक्शा वाले ने बताया कि ट्रेन एक घंटे के भीतर ही खुलने वाली हैं । मैं ट्रेन छोड़ना नहीं चाहता था इसलिए मंदिर कभी और जायेंगे का विचार कर रिक्शा वाले को जनकपुर रेलवे स्टेशन ही चलने को कहा । ज्यादा दूर नहीं था स्टेशन और जल्दी ही पहुंच गया । ट्रेन पलटफोर्म पर लगने ही वाली थी इसलिए मैंने एक टिकट खरीद लिया और ट्रेन के रुकने कि प्रतीक्षा करने लगा । लेकिन ट्रेन लगने पर सिर्फ ४ पैसेंजर बोगी दिखी । एक लगेज का डिब्बा और दो मालगाड़ी डिब्बा लगा था ट्रेन में । भीड़ का धक्कम धुक्का देख कर अगली ट्रेन से जाने का मैंने विचार किया पर पता चला अगली ट्रेन शाम को हैं । अबतक सारे पैसेंजर डब्बे भर गए थे । मेरे पास एक २४ इंच वाला VIP सूटकेस और एक झोला जिसमें कुछ खाने का सामान और एक पानी कि बोतल थी । अब मैं किसी तरह भी ट्रेन में सवार होने के लिए तैयार था । रेलवे स्टाफ लोगों तो लगेज वाले डब्बे मैं बैठा रहे थे नीचे बैठ कर या सामान पर बैठना था । मैं पेशोपेश में था और जब तक मैंने उस डब्बे में बैठने का मन बनाया वह डब्बा भी भर गया था ।

Janakpur-Jaynagar NG train

मै निराश हो चुका था। सोचने लगा था कि शायद शाम के ट्रेन से ही जा सकूंगा। लोग ट्रेन के छत पर भी बैठे थे और पर न तो मै सामान सहित चढ़ सकता था और न ही पहले का ऐसा कोई अनुभव था। बस की छत पर भी कभी नहीं चढ़ा था। तभी मैने देखा रेलवे वालों ने बोगियों पर सीढ़ी लगा दिया । मैने तब आंव न देखा तांव और तुरंत सीढ़ी की लाईन में लग गया । सामान एक हाथ में लटका कर मै छत पर चढ़ गया। पर सफर तो अभी शुरू ही हुआ था । आगे आगे देखिए फिर क्या हुआ।

हो....झुक जाऔ भैय्या !

ट्रेन खरामा खरामा चलने लगी हर २-३ किलोमीटर पर स्टेशन आ जाता पर कुछ बिल्डिंग नहीं दिखता । पर लोग मानो खेत से ही चढ़ते और खेत में ही उतरते । चारो तरफ हरियाली देख मैं मंत्रमुग्ध था । ताज़ी हवा थी और मैं सोचने लगा कि बोगी के अंदर बैठने से ज्यादा आराम दायक जगह पर मैं बैठा हूँ । तभी अचानक लोग चिल्लाये झुक जाइए । पहले मैं मैथिली में बोले इस बात को ठीक से समझ नहीं पाया, तब मेरे पास बैठे पैसेंजर ने मेरा सर पकड़ झुका दिया । मैं गुस्से में कुछ बोलता उसके पहले मैंने सर के उपर से पेड़ के झुके हुए डाल को गुजरते हुए देखा । मैं धीरे धीरे इस तरह झुकने का अभ्यस्त हो रहा था और मेरा ध्यान सामने से आने वाले झुके पेड़ कि डालियों पर ही टिक गया । कुछ देर बाद ऐसे पेड़ आने बंद हो गए और मैं फिर आस पास से दृश्य देखने में मस्त हो गया। थोड़ी देर में अचानक लोग बड़ी जोर से चिल्लाये, तब मैं पानी पी रहा था। इस बार डाल इतना ज्यादा झुका हुआ था कि एकदम सो जाना पड़ा। मेरे हाथ में पानी कि बोतल था और काफी पानी इस तरह अचानक झुकने पर गिर गया। बड़ी मुश्किल से सूटकेस हटा कर सोने लायक जगह इतने कम समय में बना पाया थे मैं । करीब घंटे भर बाद हम जयनगर पहुंचे ।

जयनगर पहुंचने पर

जब ट्रेन जयनगर पहुंची मैं सोच रहा था कि रेल वाले यहाँ भी सीढी लगाएंगे । पर सभी लोग जल्दी जल्दी उतर गए और मैं ऊपर करीब करीब अकेला ही रह गया । मेरे समझ में आ गया था यहां रेल वाले क्यों आएंगे भला ? वहां तो ज्यादा से ज्यादा पैसेंजर लेने के लिए ये सब कर रहे थे । खैर मैं दो बोगियों के बीच वाले जगह के करीब था और पकड़ पकड़ कर उतर सकता था पर सामान का क्या करूँ? एक पैसेंजर जो मेरे पीछे था मेरी दिक्कत समझ गया और बोला आप उतर जाओं मैं सामान देता हूँ । उस पर विश्वास करने के अलावा कोई चारा न था और इस तरह मैं उतर पाया । मैं सोच रहा था कहीं तो इमीग्रेशन और कस्टम का काम करते होंगे । तभी हमें इंडिया और नेपाल के ऑफिसर्स दिख गए जो छोटी लाइन के इस प्लेटफार्म और NE Railway के जयनगर के प्लेटफार्म के बीच बने एक ब्रिज पर इमीग्रेशन और कस्टम का काम कर रहे थे।
जयनगर से मधुबनी कि यात्रा मैंने बस से की और ये यात्रा किसी घटना के बिना समाप्त हो गयी । इस तरह ट्रेन की छत पर की गयी मेरी ये एकलौती यात्रा पूर्ण हुई ।

Wednesday, August 18, 2021

सुबह की दैनिक पदयात्रा-2

कुछ दिन पहले मैंने मॉर्निंग वाक पर एक ब्लॉग लिखा था । उसमें मैंने अपने कुछ विचार रखे थे जिसमें कुछ शिकायत कुछ नेगेटिव बातें थी । मैंने फिर सोचा की क्या सभी कुछ बुरा ही हैं की कुछ अच्छी चीज़े भी दिखती हैं सुबह सुबह तो कई बातें और दृश्य मेरे सामने आ गए जो बहुत सुन्दर और अच्छे हैं । आज फिर लिखूंगा इन सब बातों के बारे में ।

सबसे पहले जब मैं निकालता हूँ तो हमारे मोहल्ले की गली खाली खाली मिलती हैं । पर हमारे कॉलोनी के शिव मंदिर में कुछ लोग मत्था टेकते मिल जाते हैं या मंदिर में भक्ति भाव से सफाई कर रही एक भक्त । मैं भी झुक कर प्रणाम करता हूँ और बाबा का आशीर्वाद लेने की कोशिश करता हूँ । मन में एक शांति और शुकून के अनुभव सुबह सुबह हो जाता हैं । कोरोना के पहले वेव के समय पुत्र के यहाँ ग्रेटर नॉएडा में था और इसी काल में हमारे सोसाइटी के मंदिर का उद्घाटन हुआ ।

बहुत भव्य सुन्दर राधा कृष्ण मंदिर, जिसमे सभी देवी देवताओं की सुन्दर सजी प्रतिमाएं स्थापित हैं । वहां सुबह मास्क पहन कर ही टहल आता था और इस मंदिर के एक दर्शन अवश्य कर लेता था । यदि मेरी पोती तनु साथ होती तो खींच कर ले जाती । यहाँ रांची में मंदिर से आगे बढ़ते ही सबसे पहले दुकान खोलने वाले बर्मन दादा मिलते हैं और नज़र मिलने पर गुड मॉर्निंग अवश्य करते हैं ।

आगे जा कर मै अक्सर बायें मुड़ता हूँ और मिठाई दुकान से आगे बढ़ते ही वो मिलता है। फटेहाल एक बड़ा सा बोरा कंधे पर ऊठाए यह कूड़े में क्या ढ़ूढ़ रह है ? अक्सर ऐसे लोगों को देख कर हम नज़र अंदाज कर देंतें है।

नहीं यह कोई भिखारी नही, न हीं यह कूड़े से बचा-खुचा खाना खोज रहा है पर कई कुुत्ते इसे competetor समझ भूंक भी रहे होते है जिसके वह बचे जूठे खाने का सामान फेंक कर शांत कर देता है और वही कुत्ते पूंछ हिला कर आभार प्रकट करने लगते है। पर ये क्या कर रहा है? मेरा जवाब है यह हम पर उपकार कर रहा है। प्लास्टिक waste, बोतले इकठ्ठा कर उसके recycling process का ये आदमी एक अहम हिस्सा है। कॉरपोरेशन ने हरे नीले डब्बे (waste bins) हर जगह लगा रखा है तांकि recycle होने वाला कचरा अलग हो सके। पर सच्चाई यह है कि ऐसा होता नहीं है। समाज के सबसे नीचे तबके का ये शख्श हमारे वातावरण को बचाने में बहुत बड़ा योगदान कर हम पर उपकार ही तो कर रहा है। एसी जगहों पर जाकर फेकीं बोतले यह उंठा लाता है जहाँ हमारे बच्चे महंगे बॉल चले जाने पर भी न जाय। अभी जब बहुत ज्यादा वर्षा हो रही है ये आदमी नालियों को clogg करने वाले प्लास्टिक बोतलों को निकाल रहा है। इन्हे मेरा सलाम !
इसी तरह कभी कभी दो आदिवासी महिलाये ढाकेश्वरी रेस्टोरेंट के चूल्हे के राख से जलने लायक कोयला ढूंढ निकलते मिल जाते हैं । मैंने पाया हैं हमारे आदिवासी भाई बहन लोग कुछ भी बर्बाद नहीं होने देते । बिजली वाले ओवरहेड लाइन से सटे बृक्षों की काट छांट कर कटी डाली पत्ते को यु ही छोड़ कर चले गए तो ये हो लोग कुछ हद तक उसका इस्तेमाल कर लेते है और रोड की सफाई हो जाती वह अलग ।

सुबह सुबह कोयला सायकल पर लाने वाले बहुत सारे मिलते है। कहते है ये चोरी का कोयला ला कर शहरों में बेचते है। ज्यादातर बंद पड़े खदानों से जान जोखिम में डाल कर लाया होता है यह कोयला। आखिर क्या मजबूरी है जो ये लोग ऐसा काम करते है और सोचिये २०-२२ बोरे यानि करीब ८००-९०० किलो तक कोयला लेकर चलते हैं । इसके लिए सायकल को थोड़ा मॉडिफाई कर लेते हैं । कोयला सायकल पर लेकर 40-70 किलोमीटर चढाई वाले रास्ते में लेकर आना और वापस जाना । रास्ते में पुलिस वाले से निपटना भी । आमदनी का कोई अच्छा जरिया हो तो कौन ऐसा काम करेगा । एक दिन मैंने बड़ा अच्छा नज़ारा देखा । अक्सर सायकल वाले हमारे मोड़ पर उतर कर सायकल चलाते है क्योंकि आगे चढ़ाई है । पर उस दिन करीब ५-६ सायकल वाले एक दूसरे साइकिल को रस्सी से बांध कर एक मोटर सायकल वाले के पीछे के रोड से बांध रखा था और वह एक ट्रेन की तरह चले जा रहे थे । कैसे स्टार्ट करते होंगे ये मैं अबतक सोच रहा हूँ ।

२०१६-२०१७ में सुबह जब टहलने निकालता था तब एक गली से घूम कर डिबडीह फ्लाईओवर के नीचे नीचे ही टहल लेता था । २०१५ में मेरे दिल में धड़की की एक बीमारी हो गयी थे premature ventricular contraction । सीधे शब्दों में दिल की धड़कन synchronized नहीं थी । तब दिल्ली में इलाज करवाया थे पर चढाई चढ़ने में दिक्कत लगती और मैं नीचे नीचे ही टहल लेता था । मैंने देखा रोड पर तीन जगहों पर चॉक या ईट के टुकड़े से एक ही शब्द बड़े बड़े अक्षरों से कोई लिख डालता था । फिर एक दिन मैंने उसे लिखते हुए देखा । मैंने सोचा क्यों न इससे बात करूं । उसका नाम अब याद नहीं पर वो एक आदिवासी युवक था । लिखना पढ़ना सीख चूका था । कितना तक पढ़ा था तो नहीं पूछा पर वो जरूर अलग था । थोड़ा पागल सा । मैंने पूछा भाई यह रोज़ रोज़ क्यों लिखते हो ? उसका उत्तर कुछ अचंभित करने वाला था । "सर यह बिरसा राजपथ है । रोज़ मुख्यमंत्री और राज्यपाल इधर से गुजरते हैं कभी तो पढ़ेंगे और कुछ करेंगे । उस दिन कुछ उसने "PASS " लिखा था । पर RICE , MEAL वैगेरह वह पहले लिख चुका था । सोच कर देखे तो ये आदमी अपनी या अपनों की कुछ परेशानियाँ सरकार तक पहुंचना चाह रहा था । जैसा स्पष्ट था इसका यह प्रयास सफल होता नहीं दिख रहा था । इसबार कोरोना के बाद मैं दिल्ली से वापस आया तो कहीं कुछ लिखा कई दिनों तक नहीं दिखा । मैंने सोचा शायद थक कर लिखना छोड़ दिया होगा । पर ३-४ दिन पहले यानी १३ अगस्त २०२१ को मैंने फिर सड़क पर लिखा पाया " डॉलर " । मैं अब तक सोच रहा हूँ उसने डॉलर क्यों लिखा इस बार ?

एक पुरानी बात भी मुझे याद आ गई जो Morning Walk के समय घटी थी 2016-2017 में । जाड़े का समय था। तब फ्लाई ओवर के पास एक Covered बस स्टॉप हुआ करता था। एक दिन एक पागल वहाँ सोया दिखा । फटे हाल सिर्फ एक टी शर्ट और एक फटा चिटा पैंट में। जाड़े में ठिठुरता वह कचरे में कुछ ढूंढ कर खा रहा था। शायद इसे घर वाले कांके के पागलखाने में छोड़ कर चले गए हो और पागलखाने वालों ने इसे भटकने को छोड़ दिया हो। ऐसे उसके पास जा कर कुछ पूछने की हिम्मत तो नहीं थी पर कुछ मदद करने की इच्छा प्रबल हो रही थी। खैर अगले दिन morning walk में मै कुुछ खाने की चीजें बिस्कुट, ब्रेड लेकर चला पर उसको नजदीक जा कर देने की हिम्मत नहीं हुई और मैने पैकेट को फुटपाथ पर रख कर उसको इशारा कर आगे बढ़ गया। जब मै वापस लौटा तो यह देख कर संतोष हुआ वह बिस्कुट खा रहा था। अगले दिन खाने के चीजों के साथ एक पुराना शर्ट और पैजामा भी रख लिया ठंढ बहुत थी, और कपड़े की सख्त जरूरत थी उसे। मैने फुटपाथ पर रख दिया। वापसी में देखा उसने किसी तरह शर्ट तो पहन लिया पर पजामें का नाड़ा बांधना उसे नही आ रहा था। मै इसमें कोई मदद नहीं कर सकता था उसके पास कौन जाय ? खैर उसे खाना देने का सिलसिला कुछ दिन और चला पर एक दिन वह वहाँ नहीं था। मैने आसपास देखा कहीं नहीं था वह। मैने सोचा कल शायद लौट आए। उस दिन का छोड़ा खाना तो कुत्ते ले गए पर वो अगले कई दिन नहीं दिखा। फिर एक दिन बस स्टॉप तोड़ दिया गया। किसी VVIP के आने के पहले होने वाले Beautification के लिए । और वो असहाय फिर कभी नहीं दिखा। क्या ऐसे Destitutes के लिए कोई योजना है समाज या सरकार के पास ?

अगला दृश्य जो रोज मेरा ध्यान आकर्षित करता है वो है प्लास्टिक से बने रोजमर्रा की वस्तुए, खिलौने, बॉल वैगेरह सायकल से लेकर आते लोगों का समुह। मै रोज सोचता किस मेले में बेचने ले जाते होगे यह सब रोज। एक दिन जब मै पुल के सबसे ऊंची जगह पर था तब एक सायकल वाले ने थक कर सायकल रोकी । मै अपने उत्सुकता को रोक न पाया और पूंछ बैठा "भैया अभी तो कोई मेला लगा हुआ नही है तो कहाँ बेचोगे यह सब। " उसने बताया वह घर घर घूम कर बेचता है ये सामान। तकरीबन सभी सामान के दाम एक ही थे छोटा हो तब भी 20 और बहुत बड़ा हो तब भी बीस। बचपन में एक ठेला वाला आता था और हर एक माल 6 आना में बेचता था। बिल्कुल डॉलर स्टोर के तर्ज पर।

कुछ दिनो पहले एक ऐसा सायकल वाला हमारे कॉलनी में भी आया । तब पता चला हर एक माल 20 रू के आलावा भी कुछ बड़े सामान भी बेचते है ये लोग। हमने भी एक जोड़ी प्लास्टिक का मोढ़ा 300 रू में खरीदा ।

एक और चीज और दिखती है वह है निरंतरता का प्रतीक ट्रेन। दो ट्रैक गुजरता है डिबडिह flyover के पास और नीचे से राँची राऊरकेला लाईन और लोहरदगा राँचीं लाईन। कोरोना के कारण अभी ट्रेन की संखया कम है पर कुछ बढ़िया ट्रेनें अब चलने लगी है। कभी कभी मैं ट्रेन की whistle सुनने पर उसकी प्रतिक्षा करता हूं और माल गाड़ी हुई तो उसके डब्बे गिनने लगता हूँ।

आज यहीं रुकता हूँ। अपने अनुभव आगे भी अवश्य साझा करूंगा।

Sunday, August 15, 2021

मिथिला क्षेत्र में पार्वती -शिव विवाह गीत

मिथिला क्षेत्र

बोलचाल और सांस्कृतिक रूप में मैं बिहार को ३-४ भागों में देखता हूँ जो बिहार की अपनी परंपरा के बंधन से जुड़ा हैं और कई बातें पूरे बिहार में एक जैसी ही होती हैं । यह हैं मगही क्षेत्र, भोजपुरी क्षेत्र, अंगिका क्षेत्र और मिथिला या तिरहुत का क्षेत्र । आज मैं मिथिला के बारे में कुछ लिखना चाहता हूँ ।मिथिला क्षेत्र का महत्त्व भागवान राम के ससुराल के कारण तो है ही विद्यापति का शिव प्रेम के कारण शिव के ऊपर रचित कई रचनाएं भी बहुत प्रसिद्द हैं मिथिला क्षेत्र की मिथिला या मधुबनी पेंटिंग का ही एक रूप पूरे बिहार में विवाह के अवसर में कोहबर के रूप में बनाया जाता हैं ।

शिव विवाह के गीत
बड़ी दीदी के विवाह का एक दृश्य

शिव विवाह की चर्चा होते ही मुझे एक पुरानी बाद याद आती है । मेरी बड़ी बहन अंजु दी की शादी थी। बारात दरवाजे पर लगी । और जीजा जी गाड़ी से बाहर वरमाला के लिए निकले। सिर्फ धोती पहने । लंबा कद, श्याम वर्ण, देह मे जनेऊ, आखों में काजल, हाथ मे एक छूरी (नजर बट्टू)। एकदम शिव रूप में, बस शिव के हाथ मे त्रिशूल डमरू भी था । शिव विवाह का लोकगीत "माई जोगिया ठाढ़ अंगनवा में" को चरितार्थ कर रहे थे। तब हेमंत कुमार का वह गीत भी बहुत लोक प्रिय था। "शिव जी बिहाने चले बिभूति लगाय के" । मानों इसी दृश्य के लिए लिखा गया हो। माँ ने तब कुछ नहीं कहा पर मेरी बड़ी मौसेरी बहन स्व शांति दीदी थोड़ी मुखर थी और बोल पड़ी "मौसा को कोई और लड़का नहीं मिला ?" मानों विद्यापति के गीत "गे माई हम नहीं आज रहब एही आंगन जो बुढ़ होईतो जमाई" को शांति दी स्वर दे रहीं हो। दूसरे दिन जब जीजा जी सूट लगा कर खीर खाने आए तब जा कर शांति दी को चैन आया जैसे राम विवाह का गीत चरितार्थ हो रहा हो " कओने नगरिया सऽ एलै सुन्दर दुलहा" । सच ही है सत्यम् शिव् सुंदरम् !

हमारे पूज्य देवों में तीन प्रमुख जोड़ियां हैं शिव-पार्वती की, सीता और राम की और राधा और कृष्ण की । इनमे शिव पार्वती की जोड़ी सबसे सुखी जोड़ी हैं क्योंकि सीता और राम ने वन में १४ साल बिताये फिर हुआ सीता हरण, राम रावण युद्ध, अग्नि परीक्षा और फिर सीता निष्काषन और अंत में सीता का धरती में पवेश । कष्टों से भरा ही था उनका जीवन । राधा कृष्णा एक प्रेमी जोड़ी थे और उन्हें भी अलग होना पड़ा । कृष्ण ने रुक्मणि के साथ विवाह रचाया और द्वारका जा बसे।
सती और शिव के कथा तो सबको मालूम हैं। ।प्रजापति पुत्री सती का शिव के साथ विवाह से प्रसन्न नहीं थे और पिता द्वारा शिव के अपमान के पश्चात सती यज्ञ की अग्नि में प्रवेश कर गयीं । इस पश्चात शिव दुःख और क्रोध से भर गए और उनका तीसरा नेत्र खुल गया। उन्होंने सती की देह उठाई और ब्रह्मांड में घूमने लगे। प्रलय के कोप से ब्रमांड की रक्षा करने के लिए भगवान विष्णु ने सुदर्शन चक्र से देवी की देह को कई भागों में विक्त कर दिया। और जहाँ जहाँ उनके देह के अंग गिरे वहां वहां शक्तिपीठ स्थापित हो गया । शिव की पहला विवाह तो यू खत्म हो गया पर सती ने पर्वत राज के यहाँ पार्वती के रूप में पुनःजन्म लिया और तपस्या कर शिव से विवाह किया। पर विवाह ऐसे ही नहीं हो गया । पार्वती की माता शिव के वाह्य रूप के कारण यह विवाह नहीं चाहती थी । जरा कल्पना कीजिए वर नंग धिरंग सिर्फ मृग छाला पहने, जटा जूट के साथ भष्म लपेटे आभूषण की जगह गले में सर्पों की माला, त्रिशूल डमरू लिए बैल की सवारी किए चला आ रह है, और बारात में शिवगण भूत बैताल की तरह नाचते शोर मचाते चले आ रहे हो तो कौन सी माता बेहोश न हो जाय इस पर मैथिली में कई गीत है ।


हम नहि आजु रहब अहि आँगन
जं बुढ होइत जमाय, गे माई
एक त बैरी  बिध बिधाता
दोसर धिया केर बाप
तेसरे बैरी भेल नारद बाभन
जे बुढ अनल जमाय। गे माइ


पहिलुक बाजन डमरू तोड़ब
दोसर तोड़ब रुण्डमाल। गे माइ।
बड़द हाँकि बरिआत बैलायब
धियालय जायब पराय गे माइ।


धोती लोटा पोथी पतरा
सेहो सब लेबनि छिनाय। गे माइ।
जँ किछु बजताह नारद बाभन
दाढ़ी धय लय घिसियाब, गे माइ।

भनइ विद्यापति सुनु हे मनाइनि
दृढ करू अपन गेआन। गे माइ।
सुभ सुभ कय सिव गौरी बियाहु
गौरी हर एक समान, गे माइ।
 

मैथिली ठाकुर (एक प्रतिभावान उभरती गायिका) द्वारा गया इस नचारी का यू ट्यूब वीडियो का लिंक दे रहा हूँ

पार्वती की माता मैना देवी फक्कड़, भष्म लगाए, बाघम्बर और त्रिशूल धारी बूढ़े को अपनी बेटी के दूल्हे के रूप में देख मानो शॉक में है और इसका सारा दोष भाग्य, पार्वती के पिता और नारद जी को देती हैं और क्रोध में आकर क्या क्या करेंगी इस गीत में विद्यापति ने उसी तरह के भाव डाला है जैसे पार्वती मिथिला की ही बेटी हो । और अंत मैं मैनादेवी को समझते हैं ही की गौरी हर तो एक सामान है और शुभ शुभ विवाह होने दो । उन्हे क्या पता यह फक्कड़ जोगी सबसे बड़ा दानी है।

एक और गीत में विद्यापति माता की निराशा इस शब्दों में व्यक्त करते है :

"गे माई  चंद्रमुखी सन गौरी हमर छथि 
सूर्य सन करितो जमाई गे माई"
मैथिली ठाकुर द्वारा गाए इस गीत का यू ट्यूब विडिओ

विवाह हो जाता हैं फिर शिव को मानाने की बारी आती हैं उन्हें कैसे मनाया जाय। न उन्हें शाल चहिये न दुशाला, मृग छाला कहा से लाय ? ऐसी बहुत सी दिक्कतें होती हैं । इस पर गीत देखिये :

का लेके शिव के मनाई हो शिव मानत नाही,
पुरी कचौड़ी से शिव के मनहू ना भावे
भांग धतूरा कहा पाइब हो शिव मानत नाही
का लेके शिव के मनाई हो शिव मानत नाही

शाला दुशाला शिव मन हू ना भावे
मृगा के छाल कहा पाइब हो शिव मानत नाही
का लेके शिव के मनाई हो शिव मानत नाही

हाथी और घोड़। शिव मनहू ना भावे
बसहा बैल कहा पाइब हो शिव मानत नाही
का लेके शिव के मनाई हो शिव मानत नाही

कोठा अटारी शिव के मनहू ना भावे
टुटली मडइया कहा पाइब हो शिव मानत नाही
का लेके शिव के मनाई हो शिव मानत नाही

सोना और चांदी शिव के मनहू ना भावे
सर्प के माला कहा पाइब हो शिव मानत नाही
का लेके शिव के मनाई हो शिव मानत नाही

मैथिली ठाकुर द्वारा गाए इस गीत का यू ट्यूब विडिओ


पार्वती के बिदाई के समय भी माता मैनादेवी की मन अशांत ही था क्योंकि उन्हें चिंता थी की नाज़ों से पली उनकी बेटी गौरी टूटे मड़ैया में कैसे रहेंगी, पति के लिए भांग धतूरा कैसे पीसेंगी

 छोटी मोटी टुटल मड़ैया में गौरी रानी कोना के रहथि हे 
छोटी मोती टुटल मड़ैया में गौरी रानी कोना के रहथि हे 
  कोना के रहथि कते दुःख सहती कोना के रहथि कते दुःख सहती

मैथिली ठाकुर द्वारा गाए इस गीत का यू ट्यूब विडिओ


उगना

एक कहानी जो प्रचलित हैं वो हैं उगना के बारे में । शिव भक्त विद्यापति ने एक बार शिव जी से पूछा क्या आप मेरे मित्र के रुप में या किसी अन्य वेश में नहीं रह सकते?
"पुत्र ! मैं तुम्हारा सेवक उगना बनकर तुम्हारे साथ रहूँगा। तुमसे केवल एक निवेदन है कि तुम इस रहस्य को अपने तक रखोगे। और तो और किसी भी परिस्थिति में अपनी पत्नी सुशीला से भी इस रहस्य को उजागर नहीं करोगे।"
इस पर महाकवि ने गर्दन हिलाकर अपनी स्वीकृति दे दी। भगवान महादेव पुन: उगना के वेश में आ गए। हालांकि इस घटना के बाद महाकवि प्रयास करते कि उगना से कम से कम काम करवाया जाय । लेकिन उनकी पत्नी तो इस सच से बिल्कुल अन्जान थी।
एक दिन सुशीला ने उगना को कोई कार्य करने के लिए कहा। पर करना कुछ और था पर कर उसने कुछ और दिया। इस पर सुशीला अपना क्रोध नहीं बर्दाश्त कर पाई। आवेग में आकर जमीन में पड़े झाड़ू उठाकर तरातर उगना पर बेतहाशा प्रहार करने लगी। उगना झाड़ू खाता रहा। इसी बीच महाकवि वहाँ पहुँच गए। उन्होंने सुशीला को मना किया। परन्तु सुशीला ने मारना बन्द नहीं किया। अब कवि के सब्र का बांध टूट गया। एकाएक भावातिरेक में चिल्लाते हुए बोले- "अरी, ना समझ नारी! उगना सामान्य चाकर नहीं बल्कि भगवान शंकर स्वयं है।"
कवि का इतना कहना था कि उगना अन्तध्र्यान हो गया। जब तक विद्यापति को अपनी गलती का अहसास हुआ उगना विलीन हो चुके थे । कवि घोर पश्चाताप में खो गये। उगना, उगना, उगना रट लगाने लगे। महाकवि ने एक अविस्मरणीय गीत का उगना के लिए निर्माण किया। गीत नीचे दिया जा रहा है:

उगना रे मोर कतय गेलाह। 
कतए गेलाह शिब किदहुँ भेलाह।।
भांग नहिं बटुआ रुसि बैसलाह।
जो हरि आनि देल विहँसि उठलाह।
जे मोरा कहता उगना उदेस।
नन्दन वन में झटल महेस।
गौरि मोन हरखित मेटल कलेस।
विद्यापति भन उगनासे काज।
नहि हितकर मोरा त्रिभुवन राज।

राम सिया के विवाह के बारे में अगले ब्लॉग में लिखूंगा

Friday, August 13, 2021

सुबह की दैनिक पदयात्रा

मेरी सुबह की ''पदयात्रा'' कभी ३-४ किलोमीटर की होती थी पर अब २ किलोमीटर ही करता हूँ । कोरोना काल में मैं दिल्ली में था तब काफी दिनों यह सिलसिला बंद था पर अब रांची आने पर सुबह निकलता हूँ मास्क पहन लेता हूँ और वाकिंग शू (दूसरे लोग रनिंग शू कहते हैं ) भी पहनता हूँ । कुछ दिनों डबल मास्क लगा कर गया था तो साँस लेने में तकलीफ होती थी इसलिए अब सिर्फ सर्जिकल मास्क पहनता हूँ ।

रोज़ रोज़ उसी समय निकलने वाले लोगों को पहचानने लगा हूँ । कुछ दौड़ते है कोई कोई किसी बंद दुकान के सामने बरामदे में तरह तरह से व्यायाम करते मिलते हैं । कौन सा आसान या व्यायाम करते है यह कभी कभी अनुसन्धान का विषय हो जाता हैं । शायद बाबा रामदेव भी न बता पाएं । एक पैर से थोड़ा लाचार एक व्यक्ति भी रोज़ मिल जाते है और मुझे ओवरटेक भी कर लेते हैं । टीनएजर बच्चों के दो तीन ग्रुप मिलते है जो शायद नजदीक के एक मैदान में खेल कर या व्यायाम कर या सिर्फ दौड़ कर आते हैं पसीने से लथ पथ । एक बात जो कॉमन हैं वह है की एक्का दुक्का को छोड़ सभी बिना मास्क के होते हैं और मुझे यह शक होने लगता हैं कही ये लोग मुझे ही पागल या बुद्धू तो नहीं समझ रहे हैं ।

Morning walk picturesMorning Walk Pictures

मेरे घर से करीब ६०० मीटर पर एक फ्लाईओवर हैं । मैं इसके किनारे बने फुटपाथ पर ही रोज टहलने जाता हूँ । बाएं तरफ घूमा हुआ इस फ्लाईओवर का बायां फुटपाथ छोटा हैं पर थोड़ा स्टीप लगता हैं जबकि दाए तरफ लम्बा पर काम स्टीप लगता हैं । दोनों तरफ टहलने का अनुभव अलग अलग हैं । बाएं तरफ कम लोग टहलते हैं क्योंकि मेन रोड छोड़ कर थोड़ा कच्चे रास्ते पर चलने पर मिलने वाली सीढ़ी चढ़ कर ही फुटपाथ पर आ सकते हैं । पर यह फुटपाथ कुत्ता चराने वालों के बीच काफी लोकप्रिय हैं, जबकि यह फ्लाई ओवर का पैदल पथ है न इसमे कोई पेड़ है न ही पोल। रास्ते में क्या क्या पड़ा मिलेगा आप सोच सकते हैं । स्ट्रीट वाले कुत्ते भी इसी तरफ ज्यादा आते हैं और कभी कभी कोई कामचोर नौकर अपने मालिक के भेड़िये जैसे कुत्ते को लाकर बीच रास्ते में 'पार्क' कर देता हैं और उसके लाख कहने पर कि "कुछ नहीं करेगा" मेरी हिम्मत नहीं होती उसे पार कर जाने की । फिर भी कभी कभी इस तरफ भी टहलने जाता हूँ । एक सहतूत और एक अमरूद का पेड़ रास्ते में झुके मिलते है और यदि काफी सवेरे निकले तो कुछ फल बचे मिल जाते है ।

दाएं तरफ जाने के लिए हमें आते जाते दोनो बार मेन रोड क्रॉस करना होता हैं फिर भी जाता हूँ । इस तरफ का वॉकवे तरुणों (टीनएजर्स ) में ज्यादा लोक प्रिय हैं और सुबह का फोटो खींचने के दृश्य अच्छे मिलते हैं । आने जाने वाले ट्रैन भी कभी कभी दिख जाते हैं । कुछ लोग जो मिलते हैं उनके बारे में दो शब्द । यह सभी टहलने के बहाने घर से निकलते हैं और टहलते दौड़ते भी हैं । पर यह उन्हें मिलने जुलने का मौका भी देता हैं । आज कल स्कूल कॉलेज में बिना GF या BF के शायद ही कोई मिले और जब तक स्कूल नहीं खुले थे तब कई ऐसे युगल इस फुटपाथ पर दिख जाते थे । एक ग्रुप में एक लड़का और एक लड़की बातें कर रहे होते और एक सहेली थोड़ी दूर खड़ी रहती थी और एक ग्रुप बैलेंस्ड था दो लड़के दो लड़किया धीरे धीरे बात करते ये लोग पास जाने पर किसी टॉपिक पर अचानक जोर से बोलने लगते, शायद सोचते होंगे बुड्ढे को क्या पता चलेगा । एक १३-१४ साल के लड़की जो एथलिट लगती हैं दौड़ कर हमारे घर के मोड़ तक आती फिर वाक यानि टहलने लगती । कान में ईयर फोन लगा रहता और उसकी बात शुरू होती । क्योंकि वह धीरे धीरे ही टहलती करीब करीब मेरा टहलने का समय बराबर होता और वह करीब आधे घंटे बाते करते दिख जाती और मेरे लौटने के बाद भी करती रहती । शायद कुछ वही बाते होगी जो घर पर नही हो सकती होगी। कई लोग eardrops लगाए रहते है और बाते करते रहते है। क्युकि ये अकेले रहते है और न मोबाईल दिखता है न ईयर फोन तब लगता है कांके पागलखाने से भागे लोग तो नही ?

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पानी सब धो डालता हैं । गंगा जल में तो पाप तक धुल जाते है और आज मुझे वॉकवे करीब करीब साफ़ दिखा .. नहीं नहीं ये म्युनिसिपल कार्पोरेशन का काम नहीं था इंद्रदेव ने रास्ता धो डाला था । ऐसे रोज़ दाएं तरफ का कचरा अलग होता । साधारण कचड़ा जैसा सभी जगह मिल जाता - केले का छिलका, जूस बिस्कुट नमकीन का पैकेट, तम्बाकू का पाउच और सिगरेट के पैकेट । पर कुछ कचरे जो अलग हैं और दाए तरफ मिल जाते हैं वो है दारू की बोतले, व्यव्हार में लाये गए कंडोम और सिरिंज जो शायद किसी ड्रग लेने वाले ने फेका हो । एक दिन मिला तब मैंने सोचा किसीने गलती से फेंक दिया होगा पर दो- तीन दिन दिखने पर मेरा शक पक्का होने लगा । माचिस के सारी की सारी तीलियाँ जली फेंकी हुई देख कर मैं सोच रहा था क्या हैं यह । फिर एक दिन मैंने देखा एक दुबला लम्बा लड़का रोड से रेलिंग फांद कर वॉकवे में आया और जब मैं दूर चला कागज पर कुछ रख कर जला कर सूघने लगा और कुछ खाया । मैं लौट कर उस जगह आया तो वहाँ अजीब सी गंध थी । मैं SURE हो गया माचिस का क्या रहस्य था । कभी कभी कफ सिरप की शीशियां भी मिलती हैं जो भी बच्चे नशे के लिए व्यव्हार में लाते हैं ।
क्या कोई तरीक़ा हैं इन बच्चों को इस फंदे से बचाने का और वापस लाने का ?

Thursday, August 5, 2021

बोकारो की कुछ यादें भाग एक

बोकारो में पहला दिन

BCE(now NIT) से इंजीनियरिंग करने के बाद और उसी कॉलेज में लेक्चरॉर की अल्प अवधि की नौकरी करने के बाद 1971 नवंबर में मै बोकारो आ गया । बोकारो में अपने गॉव के रघुबीर चाचा के यहाँ कुछ महीने रहने का प्रबंध था। ADM बिल्डिंग में नौकरी ज्वाइन करना था। वहाँ पता चला मुझे टेस्टिंग कमीशनिंग डिपार्टमेन्ट में जाना हैं जो प्लांट के अंदर है। रघुबीर चाचा ने बताया टेम्पो (ऑटो रिक्शा) से माराफारी (तब बोकारो स्टील सिटी स्टेशन का नाम यही था) की तरफ़ जाना है जहाँ स्टील गेट नामक गेट मिलेगा और टेस्टिंग कमीशनिंग डिपार्टमेन्ट गेट के करीब ही हैं और गेट से पैदल ही जाना हैं। मैं साफ़ सुथरे कपडे पहन कर निकल चला। क्या पता था इतने साफ़ कपडे पहन कर प्लांट जाने का यह आखिरी दिन था। खैर छपरा मोड़ से (तब सेक्टर IIIE / सेक्टर IIID का लोकप्रिय मोड़ और मार्किट) टेम्पो पकड़ा और नया मोड़ आ गया। वहाँ टेम्पो वाले माराफरी-माराफरी चिल्ला रहे थे और मैं एक टेम्पो के थाइलैंड (ड्राइवर के बगल में लटक कर बैठने का स्थान) में बैठ गया। तब बिहार में टैक्सी, ऑटो, बस में ठूसठूस कर पैसेंजर लेते थे और मैं इसका आदी भी था। मैं CEZ (Constrction Equipment Zone) गेट पर ही उतरने को उद्यत हुआ तो ड्राइवर ने बैठे रहने का इशारा किया स्टील गेट अभी देर हैं। नया रंगरूट हैं जान कर उसके चेहरे पर आई मुस्कान मुझसे छिप न सकी।


मेरा डिपार्टमेंट टेस्टिंग और कमीशनिंग

मैं स्टील गेट पर पास दिखा कर अंदर चला गया। डिपार्टमेंट नज़दीक ही था। क्या पता था BCE (NITP) के बाद ये मेरा दूसरा एल्मा मैटर होने वाला था। थ्योरी तो अब तक खूब सीखी थी अब वक़्त था उसे अमल में लाने का। मै SP Prothia साहब जो Dy CE थे के ऑफिस मे गया। कुछ फॉर्म भरने के बाद प्रोथिया साहब के आने का इंतज़ार करने लगा । उनसे मिला तो ऊन्होंने Zonal Engineer (Sri AB Sah) के जोन में मेरी पोस्टिंग कर दी और उनसे मिलने को कहा। पर वो वहां नहीं थे । पता चला वो अब अगले दिन ही इस ऑफिस में आने वाले थे। मै वापस कॉलोनी चला गया। अगले दिन उनसे मिला और उन्होंने DE मजूमदार साहब से सिन्टर प्लान्ट में मिलने को कहा या यूं कहूं मुझे अपने जीप में बिठा वहा छोड़ आए। साहा साहब खुद मेन 132 के०वी० सबस्टेशन में बैठते थे। मै दूसरे ZE का नाम भूल गया हूँ, शायद SRI KB Gupta था।

सिंटर प्लांट १९७१-७४

सिन्टर प्लान्ट से कई खट्टी मिठ्ठी यांदे जुड़ी है। प्लान्ट का निर्माण हो ही रहा था हमारा काम बिजली के मशीनों को और पैनलों को जांचना, कुछ गड़बड़ी मिलने पर उसे ठीक करना करवाना था। हमारा कार्यालय कक्ष 3 MW Exhauster machine के पास बने ऊँचे चबूतरे पर था। एक छोटा सा बड़े बड़े स्टेप वाली सीढ़ी चढ़ कर जाना पड़ता था। जल्द ही हमारे ग्रुप बन गए और एक ग्रुप लीडर के साथ हमें कर दिया गया। एक एक टूल बैग, मल्टीमीटर और जरूरी समान आॉलाट कर दिए गए। हर ग्रुप को एक Electrician और Helper दे दिया गया जिनके जिम्मे यह टूल बैग होता था। भारी टूल जैसे करेन्ट ट्रान्सफॉरमर, टांग टेस्टर या CRO (Oscilloscope) जब जरूरत पड़े ऑफिस से ले जाना होता था। मुझे अपने पहले ग्रुप लीडर का नाम याद नहीं है।

मेरा पहला दिन मुझे हतप्रभ करने वाला था। सबसे पहले सिन्टर मैशीन-1 के 30 मीटर ऊँचाई पर बने कन्ट्रॉल रूम न० 13 (शायद यहीं नंबर था) में ऊँची ऊँची सीढ़िया चढ़ते चढ़ते मै थक गया (क्या इतनी सीढ़ियो रोज चढ़नी होगी?) और फिर वहाँ लगे complex बिजली के पैनेल ! (क्या मैं ऐसे पैनल commission कर पाऊंगा?)। बाद में जाना कि ये open type मोटर कंट्रोल पैनल, सिंटर मशीन का Magnetic amplifier panel और Disc feeder के थाईरिस्टर पैनल थे और तीन ग्रुप काम कर रहे थे। तीन महीने में जब नए अभियन्ताओं ने join किया मेरे साथ दो लोगों को जोड़ कर नया ग्रुप बना और मै बना अपने बैच का पहला ग्रुप लीडर।
मेरे ग्रुप में जहां धीर गम्भीर RP Sah थे वही हमेशा हसँने हसाँने वाला प्रिथपाल सिंह। कोल हैन्डलिंग और स्क्रीनिंग प्लांट हमें दिया गया। स्क्रीनिंग प्लांट का एक घटना याद आ रही है । प्लांट के एक तरफ कंट्रोल रूम और दूसरी तरफ यूनिट टाइप सब स्टेशन था । कंट्रोल पैनल में पावर देने से पहले सब स्टेशन में ब्रेकर को on करवाना था । केबल चेक कर मैं sub station में ब्रेकर on करवाने चला गया और अपने एक सहयोगी को मल्टीमीटर से वोल्टेज नापने के लिए कह गया । जब लौटा तो कंट्रोल रूम धुएं से भरा था और मल्टीमीटर जला पड़ा था । कही मल्टीमीटर करंट mode में तो सेट नहीं था जिससे शार्ट हो जाता ? मल्टीमीटर जांचने पर वह तो ठीक ही १००० वोल्टस ac के रेंज में सेट था । फिर देखा सिम्पसन मल्टीमीटर में करंट का अलग पिन था और हमारे सहयोगी जो नए नए थे मल्टीमीटर के तार उसीमे लगा रखा था । खैर कुछ झूठ बोलना पड़ा नहीं तो मल्टीमीटर जलाने का आरोप मुझ पर लगता ।

जो वाकया हमे सबसे ज्यादा याद है वो है शायद झा जी या नाम शायद ठाकुर जी था के साथ घटी एक घटना जब वो मल्टीमीटर के साथ करीब 3 मीटर के ब्लोअर प्लेटफॉर्म से गिर पड़े। हम सब साथी दौड़े उनकी सहायता करने पर हमारे बॉस की प्रतिक्रिया अचंभित कर गया "खुद तो,गिरा ही कम्पनी का मल्टीमीटर भी गिरा कर तोड़ दिया।" हाँ भई गिरने का मज़ा लेना था तो पहले मल्टीमीटर को कहीं safely रख कर गिरते!

झा जी की एक और बात जो याद रह गई वो है जब ब्लास्ट फरनेश के कमिशनिंग का समय आया तो हमें रविवार यूँ कहिए प्रत्येक रविवार को साईट जाना पड़ता था। सुबह 8 बजे के पहले जीप दरवाजे पर लग जाती और कोई बहाना नहीं चलता। कई ऐसे रविवार गुजरने के बाद जब मजुमदार साहब ने उन्हें आने वाले रविवार को भी  बुलाया तो झा जी नें झुंझला कर मना कर दिया "सब कपड़ा गंदा हो गया क्या पहन कर आएं ? कल धोना है इसलिऐ नहीं आ सकते।" मजुमदार साहब भी उनकी इस बात पर हंसे बिना न रह सके और उस रविवार झा जी को छुट्टी मिल गई। कुछ समय बाद मै रघुवीर चाचा के घर से थाना मोर के पास एक किराए के क्वार्टर में शिफ्ट हो गए थे। हम लोग तब या तो कुवांरे थे या पत्नी गांव में थी। किराए के घरों को तब 4 जन शेयर करते और मेस सरवेन्ट रखते जो बजार से रोज की सब्जी राशन लाता, साफ सफाई करता और खाना बनाता था। मेस सरवेन्ट ज्यादातर पुरूलिया जिले से आते थे और अच्छा खाना बना लेते थे। दोपहर का टिफिन भर कर टिफिन पहुंचाने वाले के हाथ यह खाना हम तक पहुंचता। ऑफिस में दोपहर का खाना खाने बाद कुछ देर सोने का समय मिलता और हम अपने कन्ट्रोल रूम में ही सो लेते। हमारे मित्र साधु को क्रशर प्लांट मिला था और उस कन्ट्रोल रूम में DBR पैनल के पीछे बहुत जगह थी छिप कर दोपहर में सोने के लिए और हमारा इलेक्ट्रिशियन और हेल्पर कर्टन के गत्तो को छिपा कर रखते और हम उसी को बिछा कर वहाँ सो लेते। साधु को काम में भी गाहे वेगाहे मदद कर देता था और वही सिलसिला मेकॉन आने पर भी चला।

उसे एक बड़े SQ CAGE मोटर जो Raw Material Plant से सिंटर प्लांट के बीच के बड़े कनवेयर मे लगा चलाना था पर बार बार ट्रिप हो रहा था। एक रविवार को उसे चलाने की कार्यक्रम बनाया गया और मै मदद करने जाने वाला था। यह 250 कि०वाट का मोटर था। तब पता नहीं था कि 415 वोल्ट का यह सबसे बड़ा मोटर है, अब तो 200 कि०वाट तक का ही साधारणत: प्रयोग में लाते है। भटक गया मैं। मोटर कंट्रोल मे स्टार डेल्टा स्टार्टर लगा था और चलाने पर ट्रिप कर रहा था कारण heavy starting current था और स्कीम देख कर एक टाईमर का टाईम बढ़ा देने से काम बन गया। अगले दिन मोटर को गियर बॉक्स से कपल कर चलाना निश्चित कर हम घर चले गए। अगले दिन फिर मोटर ट्रिप होने लगा। साधु मुझे बुला कर ले गया। करीब 3 बार कोशिश की पर हर बार ट्रिप कर रहा था। मोटर से पावर ऑन हुआ और घू घू की आवाजे आती पर मोटर नहीं घूमता। हमें समझ आने लगा था कि single phasing हो रहा है। रसियन एक्सपर्ट में इलेक्ट्रिकल का कोई नहीं था और मैकेनिकल वाला अधीर हो कर रसियन में गालियॉ दे रहा था (उतना रसियन आता था हम लोंगों को)।हम एक बार सभी तार केबल टाइट करवाने लगे तभी दिखा एक पिग टेल जो तांबें का भारी कनेक्शन होता है काट कर चोरी कर लिया गया था। रात में या हमारे जाने के बाद। एक फेज का ही पावर पहुंचने से ब्रेकर ट्रिप हो रहा था। खैर इसको ठीक करने का काम दूसरे डिपार्टमेन्ट का था और एक दिन और निकल गया। कन्ट्रोल रूम लॉक कर दिया गया और अगले दिन ये सिन्टर प्लान्ट और RMP के बीच का सबसे लम्बा कनवेयर कमिशन हो गया। साधु मेरे कॉलेज के सिनियर बिस्टू दा  के साथ सिन्टर प्लान्ट के कूलिंग एरिया के कमिशनींग मे भी शामिल था।
१९७२ में दो-तीन घटनाये हुई । सिंटरप्लांट कमीशन करने में तेजी आ गयी और साइट पर आने के लिए जीप के बजाय दो रशियन ट्रक में सीट लगा कर दोनों जोनल इंजीनियर के अंडर दे दिए गए । ट्रक पेट्रोल पर चलता और ड्राइवर पेट्रोल चोरी करने लगे थे । इसके लिए वह हम इंजीनियर से किलोमीटर बढ़ा कर लिखने का आग्रह करते या जोड़ जबरदस्ती लिखवा भी लेते । हमारे एक सीनियर थे NP SINHA । दुबले पतले पर गट्स वाले । उन्होंने ड्राइवर सिंह को एक बार मना कर दिया तो उन्हें हाथ पकड़ कर ट्रक से उतारने वाला था फिर लोगों के समझाने बुझाने पर कहने लगा "आगे से मेरे ट्रक में नहीं चढ़ना" ।

बाद में पता चला यह ड्राइवर क्रिमिनल प्रवृति का थे उसने तो कुछ भाड़े में चलने वाली पेट्रोल से चलने वाली पुरानी गाड़िया खरीद रखी थी और वह चोरी के पेट्रोल पर चलती थी । बहुत दिनों बाद जब मैं रांची आ गया तो एक बार बोकारो टूर पर गया था और चास के होटल में रुका था । वहां जिस ऑटो पर हम बैठे उसका ड्राइवर हमारा बोकारो स्टील का ड्राइवर सिंह ही था । बहुत दुबला हो गया और attitude पूरा बदला हुआ था । उसने मुझे पहचान लिया और अपनी कहानी सुना डाली की कैसे उसके किसी रिश्तेदार ने धोखा दे कर उसे जेल भेजवा दिया और पुलिस / कोर्ट के खर्च के लिए सभी गाड़ियां बिक गयी । उसकी सारी अकड़ निकल गयी थे और वह एक मृदुभाषी आदमी बन गया था ।
एक और घटना मेरे साथ हुई जब मैंने एक हेल्पर की जिसे जमीन के बदले नौकरी मिली थी उपस्थिति लेट आने पर काट दी थी । पैसे वाला था। तब मेरे या दोस्तों के पास कोई २ व्हीलर नहीं था और वो जावा मोटर साइकिल पर आता था महुदा से । वो हेल्पर जब केबल टनल में मेरे साथ अकेला था तब डराने के लिए उसने लम्बा छुरा निकल लिया । मैंने जब ध्यान नहीं दिया तब उसने उससे केबल काटने का ड्रामा करने लगा ।
बात पर बात निकली है तो एक वाकया और याद आ गया । सिंटरप्लांट में बहुत सारे ११ या ६.६ के व्ही के मोटर लगे थे । उसमे एक SYNCHRONOUS मोटर मेरा ग्रुप कमिशन कर रहा था । मोटर को कई बार Synchronize किया गया और हर बार Synchronize नहीं होता पर बड़ा मोटर था उसे रुकने में ३० मिनट लग जाते । ऐसा करते करते सुबह के ४ बज गए तब जा कर सफलता मिली । गाड़ी तबतक रुकी रही और पूरा 25 लोगों का ग्रुप रुका रहा और मन ही मन हमारे ग्रुप वालों के शायद गलियां देता रहा। क्वार्टर जा कर २-३ घंटे ही सोये पर रोज की तरह सुबह ८ बजे जीप घर के सामने साईट तक ले जाने के लिए आ गयी । काम की urgency के चलते तब मै जीप से जाता और ट्रक से लौटता था। ट्रक cum बस पकड़ने adm बिल्डिंग तक पैदल जाना पड़ता और Sri AB Sah (ZE ) साहब का instruction याद है 8 O'clock means 7:60 ! दस मिनट से ज्यादा लेट हुए तो पैदल जाओ या लिफ्ट लेकर जाओ ।


श्री राज किशोर ओझा श्री पुलिन साधु और मैं श्री सुधांशु भूषण मुखर्जी

फरवरी १९७२ में कोक ओवर की एक बैटरी, सिंटर बैंड १ और ब्लास्ट फर्नेस -१ कमिशन हो गए । पावर प्लांट के एक जनरेटर शायद ५५ MW और १३२/११ kv MSDS भी कमिसन हो गए । इंदिरा गाँधी आई थी उद्घाटन करने । अब ऑक्सीजन प्लांट और स्टील मेल्टिंग शॉप में लोग चाहिए था । लोगों को वहां भेजा जाने लगा । जो बॉस के गुड बुक्स में थे उन्हें स्लैबिंग मिल भेजा गया जिनका कोई सोर्स न था उन्हें रिपेयर शॉप । एक छोटा ग्रुप सिंटरप्लांट में रह गया बचे हुए मशीनों, कन्वेयर और щ с у कमिसन करने थे । exhauster रूम से हमारा ऑफिस कोक ओवन के करीब वाले कन्वेयर हाउस में शिफ्ट हो गया मुझे कोक ओवन के मशीन और कुछ गैस वाल्वस कमिसन करने का काम मिला । बन्दर सीढ़ी से चढ़ना और मिनिएचर लिमिट स्विच को एडजस्ट करना था । शायद इंस्ट्रूमेंटेशन डिपार्टमेंट का काम था । पर मशीन का काम मजेदार था। साधु को रॉ मटेरियल साइड का काम मिला । कोक ओवन का एक वकया याद है शायद कोक ऑवन बैट्री 3 का उद्धाटन था, मैने देखा चिमनी के नीचे जूट वाली बोरियाँ जमा की जा रही है। जब मिनिस्टर साहब मे podium पर बटन दबाया एक सायरन बजा तब उन बोरों में आग लगा दिया गया और धुआँ देख लोग खुशी से ताली बजाने लगे। दो घंटे बाद ही ओवन का असली धुआँ चिमनी से बाहर आया।
हमलोगों को शेयर में "F Road " में क्वार्टर मिल गया । मेरे पहले रूम mate थे श्री राज किशोर ओझा जो बाद में नीलांचल स्टील में गए बहुत सी किताबे लिखी और नाम कमाया । मेरे बगल के क्वार्टर में मेरे मित्र पुलिन साधु, सुधांशु मुख़र्जी, रॉय जी थे । इसी जगह साधु और सुधांशु से मेरी बॉन्डिंग पक्की हो गयी जो अभी तक बरक़रार हैं । फिर १९७३ में मेरी शादी हो गयी ।

मेरे विवाह के बाद

मेरी शादी जून १९७३ में होने वाली थी और मैं शायद दो वीक की छुट्टी ले कर घर चला गया । बारात में चलने के लिए बोकारो के मित्रों को बुलाया तो था पर शायद दो ही आये थे । अजित सिन्हा आया था । उसने मेरे कान में कहा स्कूटर मांग लो क्योंकि साइट तक जाने के लिए गाड़ियां बंद होने वाली हैं। मैंने ऐसा कुछ नहीं किया लेकिन शादी के बाद आया तो सच में कंपनी की साइट ले जाने वाली गाड़ियां बंद हो गयी थी । कुछ दिनों तक स्टील गेट तक ऑटो से और वहां से पैदल सिंटर प्लांट जाता रहा । फिर बिहार स्टेट ट्रांसपोर्ट की प्लांट बसें चलने लगी और मैंने उसका ही पास बनवा लिया ।
मेरी शादी के कुछ ही दिनों बाद कुछ बदलाव आया । मेरे रूम मेट ओझा जी को में IIIE में क्वार्टर मिल गया । और मुझे पूरा रूम मिल गया दूसरे रूम में मेरा क्लासमेट सारंगधर और सिंटरप्लाट में मेरे ग्रुप के ऍम पी सिंह रह रहे थे । शादी के बाद मैं कुछ दिनों के लिए पत्नी को लेकर बोकारो आया । सारंगधर और MP Singh अपने परिचितों के क्वार्टर में कुछ दिनों shift कर पूरा क्वाटर मेरे हवाले कर दिया । हमारे साथ घर पर हमारे रसोई बनाने वाले दुबे जी भी आये सहायता करने के लिए । मेस सर्वेंट इन बदलाव के लिए तैयार नहीं था । अब अपने मन के अनुसार न बाजार से सामान ला सकता था न ही अपने अनुसार खाना बना सकता था । वह अगले ही दिन काम छोड़ चला गया । कोयला का चूल्हा जलाना पत्नी जी को तब नहीं आता था क्योंकि उनके मायके काठमांडू में लकड़ी पर ही खाना बनता था । यह काम दुबे जी कर देते थे । पत्नी ने बाद में बताया मेस सर्वेंट लोग टिफ़िन भेजने के बाद मिल ज़ुल कर पार्टी करते थे । जहाँ मालिक लोग सादी रोटी या पराठा भुजीयां खाना खा कर साइट चले जाते थे मेस सर्वेंट लोग पूरी, हलवा वैगेरह बना कर खाते वो भी घी में बना हुआ । एक बात जो अभी भी पहेली बनी हुई है वह है सभी के मेस के नाश्ते में सिर्फ 3 परांठे होना। पता नहीं ये नियम किसने बनाया था।

इस वाकये के कुछ महीनो बाद क्वार्टर मिला IID सेक्टर में दो कमरे के क्वार्टर में दो लोग । शायद JP Bhagat नाम था मेरे क्वार्टर मेट का । कुछ घटनाये यहाँ भी हुई कैसे मैंने अपने पहले बच्चे का जन्म की पार्टी इसी 2D क्वार्टर में दी और कैसे उस पार्टी का बचा पुलाव हमारे मेस सर्वेंट ने अगले दिन पैसे लेकर बांट दिया और फिर हमारी बोकारो के अंतिम क्वार्टर IB -1440 की कुछ यादों के साथ अगला भाग ।

क्रमशः

Tuesday, August 3, 2021

अब तक किये ७ ज्योतिर्लिंगो की #यात्रा दर्शन वृतांत


हिन्दू धर्म में पुराणों के अनुसार शिवजी जहाँ-जहाँ स्वयं प्रगट हुए उन बारह स्थानों पर स्थित शिवलिंगों को ज्योतिर्लिंगों के रूप में पूजा जाता है। यह हैं :
१) गुजरात के काठियावाड़ में श्रीसोमनाथ, २) आंध्र में नल्लमलाई में स्थित श्रीशैलम में श्रीमल्लिकार्जुन ३) मध्य प्रदेश के उज्जैन में श्रीमहाकाल, ४) मध्य प्रदेश में ही नर्मदा के तट पर ॐकारेश्वर, ५) झारखण्ड के देवघर चिताभूमि  में वैद्यनाथ, ६) महाराष्ट्र में पुणे के पास डाकिनी नामक स्थान में श्रीभीमशंकर, ७) तमिलनाडु के सेतुबंध पर श्री रामेश्वर, ८) गुजरात के द्वारका में श्रीनागेश्वर, ९) उत्तर प्रदेश के वाराणसी (काशी) में श्री विश्वनाथ, १०) गोदावरी के तट पर श्री त्र्यम्बकेश्वर, ११) उत्तराखंड के केदारखंड में श्रीकेदारनाथ और १२) महाराष्ट्र में एल्लोरा की श्रीघृष्णेश्वर।


गुजरात के काठियावाड़ में श्रीसोमनाथ मध्य प्रदेश के उज्जैन में श्रीमहाकाल,
मध्य प्रदेश में ही नर्मदा के तट पर ॐकारेश्वर उत्तराखंड के केदारखंड में श्रीकेदारनाथ
महाराष्ट्र में पुणे के पास डाकिनी नामक स्थान में श्रीभीमशंकर उत्तर प्रदेश के वाराणसी (काशी) में श्री विश्वनाथ
गोदावरी के तट पर श्री त्र्यम्बकेश्वर झारखण्ड के देवघर में वैद्यनाथ
तमिलनाडु के सेतुबंध पर श्री रामेश्वर आंध्र में नल्लमलाई में स्थित श्रीशैलम में श्रीमल्लिकार्जुन
गुजरात के द्वारका में श्रीनागेश्वर महाराष्ट्र में एल्लोरा की श्रीघृष्णेश्वर

हिंदुओं में मान्यता है कि जो मनुष्य प्रतिदिन प्रात:काल और संध्या के समय इन बारह ज्योतिर्लिंगों का नाम लेता है, उसके सात जन्मों का किया हुआ पाप इन लिंगों के स्मरण मात्र से मिट जाता है। मेरा असीम सौभाग्य हैं कि मैं इसमें ७ स्थानों पर गया और दर्शन किये। जिस ५ ज्योतिर्लिंगों के देखने की कामना अभी तक शेष हैं वह हैं महाराष्ट्र में भीमा शंकर, गुजरात में सोमनाथ और नागेश्वरनाथ, मध्य प्रदेश में ओंकारेश्वर और उत्तरा खंड में केदारनाथ। जिन 7 ज्योतिर्लिंगो के दर्शन का अवसर मिला है उनके बारे में दो शब्द !


1. बैद्यनाथ धाम, देवघर सबसे पहले मैं देवघर,झारखण्ड स्थित बैद्यनाथ धाम की बात करूंगा मेरे Home Town जमुई से मात्र 100 KM पर स्थित है यह देव स्थान। हम बचपन से जाते रहे है। हमारे परिवार के सारे शुभ कार्य मुन्डन वैगेरह यही होते रहे है। जाने का सबसे सुलभ तरीका है रेल से जाना। पटना हो कर हावड़ा से दिल्ली रेल रथ पर स्थित जसीडिह ज० से देवघर 8 KM की दूरी पर है और जसिडीह से लोकल ट्रेन या औटो से देवघर जाया जा सकता है। हम कई बार ट्रेन, कार या बस से देवघर जा चुके है पर कांवर ले कर सुल्तानगंज से जल ले कर पैदल - नंगे पांव बाबा दर्शन को जाना रोचक और रोमांचक दोनो था । मैंने पांच बार प्रयास किया है। मै एक ग्रुप के साथ 4 बार 100-105 KM कि०मी० यह यात्रा पूरी कर चुका हूँ सावन के महिने में प्ररम्भ में या अंत में। पहली बार मै अकेले ही निकल पड़ा था लेकिन पक्की सड़क और धूप को avoid करना चाहिए यह ज्ञान न होने के कारण और गैर जरूरी जोश के कारण 20 कि०मी० की यात्रा के बाद ही पांव में आए फफोलो ने मेरी हिम्मत तोड़ दी और साथ साथ चलने वाले कांवरियों के लाख हिम्मत दिलाने पर भी आगे नहीं जा सका और रास्ते में पड़ने वाले एक शिवालय में ही बाबा को जल अर्पण कर लौट आया। बिन गुरू होत न ज्ञान रे मनवां। कावंर यात्रा में मेरे गुरू बने मेरे छोटे बहनोई सन्नू जी और उनके छोटे भाई। उन्हें परिवार सहित कांवर में जाने का 14-15 साल का अनुभव था और मैने बहुत कुछ कांवर के बारे में उनसे हीं सीखा। जब मैं बच्चा था तो उमरगर बबा जी मामू को कांवर पर हर वर्ष जाते देखता था। गांव से ही कांवर ले कर चलते सिमरिया घाट पर ही जल भर कर वे नंगे पांव चल पड़ते थे यानि 50 सांठ मील की अतिरिक्त यात्रा। पहले सरकार के तरफ से कुछ प्रंबध नहीं होता और यात्री भी कम होते थे अतः राशन साथ ही ले चलना पड़ता होगा। जगह जगह रूक कर खाना पकाना खाना नहाना। कंकड़ पत्थर पर चलना खास कर सुईयां पहाड़ पर, या लुट जाने का खतरा झेलते यात्रा करनी पड़ती थी। अब सावन में रोड के किनारे मिट्टी डाला जाता है और, जगह जगह खाने पीने की दुकानें भी सज जाती है। कई संगठनों द्वारा सहायता शिविर, प्रथम उपचार केन्द्र, मुफ्त चाय, नाश्ता, पैर सेकने को गरम पानी और मेले सा माहौल से ये यात्रा काफी सुगम हो गई है। जगह जगह धर्मशालाएं है। लेकिन अब भी यदि अषाढ़, सावन, भादों को छोड़ दिया जाय तो अन्य दिनों में ये यात्रा बहुत सुगम नहीं हैं। मैने गजियाबाद के प्रवास के दौरान कावड़ यात्रियों को देखा है,जो ज्यादा लम्बी यत्राएं करते हैं पर जो बात देवघर कांवर यात्रा को कठिन बनाती है वह है नंगे पांव चलने का हठयोग। मै इस यात्रा का रूट नीचे दे रहा हूँ।


कांवर यात्रा का रूट



बाबा बैद्यनाथ मंदिर

2.रामेश्वरम ज्योतिर्लिंग दूसरा ज्योतिर्लिंग जहाँ मै गया वह था रामेेश्वरम (1969 और 2009) रामेश्वरम हिंदुओं का एक पवित्र तीर्थ है। यह तमिलनाडु के रामनाथपुरम जिले में स्थित है। यह तीर्थ हिन्दुओं के चार धामों में से एक है। और शिवलिंग बारह द्वादश ज्योतिर्लिंगों में से एक है।रामेश्वरम चेन्नई से लगभग सवा चार सौ मील दक्षिण-पूर्व में है। यह शंख के आकार द्वीप है। यहां भगवान राम ने लंका पर चढ़ाई करने से पूर्व पत्थरों के सेतु का निर्माण करवाया था, जिसपर चढ़कर वानर सेना लंका पहुंची व वहां विजय पाई। आज भी इस ३० मील (४८ कि.मी) लंबे आदि-सेतु के अवशेष सागर में दिखाई देते हैं। यहां के मंदिर का गलियारा विश्व का सबसे लंबा गलियारा है। यह माना जाता हैं की रावण वध के बाद राम सीता, लक्ष्मण, हनुमान और पूरी वानर सेना इसी मार्ग से लौटे और ब्रह्म हत्या के पाप से बचने इसी तट पर शिव की पूजा की । शिव लिंग लाने हनुमान को कैलाश भेजा गया लेकिन देर होती देख सीता जी द्वारा बालू से निर्मित शिवलिंग की पूजा की गयी बाद में हनुमान जी के द्वारा लाये शिवलिंग को भी मंदिर में स्थापित किया गया । श्री राम ने २२ तीर्थों का जल ला कर यहाँ कुंडो में भर दिया और आज भी शिव दर्शन के पहले इन कुंडो में लोग नहाते हैं । २००९ के यात्रा में हम लोग भी इन कुंडो में नहाने के बाद ही मुख्य मंदिर में गए ।

रामेश्वरम मंदिरहजार खम्भोंवाला गलियारा
गन्दमादन/रामझरोखा लक्ष्मण तीर्थ


रामेश्‍वरम, चेन्‍नई से सड़क मार्ग द्वारा अच्‍छी तरह से जुड़ा हुआ है। चेन्‍नई से रामेश्‍वरम तक के लिए नियमित रूप से बसें चलती है। पर्यटक, वाल्‍वो से भी रामेश्‍वरम तक जा सकते है। चेन्‍नई से रामेश्‍वरम तक का वाल्‍वो से किराया 500 रूपए और राज्‍य सरकार की बसों का किराया 100 से 150 रूपए होता है। चैन्नै ईग्मोर से ट्रेन से भी रामेश्वरम जा सकते है। सबसे नजदीकी एयरपोर्ट मदुराई है। हम मदुराई से ही टैक्सी ले कर रामेश्वरम गए थे। यहाँ कई होटल है और रुकने की व्यवस्था है। मुख्य मंदिर के आलावा भी कई दर्शणीय स्थान है। हम लक्ष्मण तीर्थ, अग्नितीर्थ और राम झरोखा देखने गए थे ।


3.काशी विश्वनाथ

मैं और मेरे ३ दोस्त १९७८ में दिल्ली गए थे एक इंटरव्यू देने । मैंने और मेरा मित्र सुधांशु मुख़र्जी ने निर्णय लिया की लौटते समय मुग़ल सराय में उतर कर काशी विश्वनाथ का दर्शन पूजन कर लेंगे । क्या पता था कि मैं तीसरे ज्योतिर्लिंग का दर्शन करने वाला हूँ । बहुत सारी यादें तो नहीं बची पर विश्वनाथ मंदिर के अलावा भारत माता मंदिर और बी एच यू के विश्वनाथ मंदिर भी गए थे ।

काशी विश्वनाथ मंदिर

भारत माता मंदिर

काशी विश्वनाथ मंदिर बारह ज्योतिर्लिंगों में से एक है। यह मंदिर पिछले कई हज़ार वर्षों से वाराणसी में स्थित है। काशी विश्‍वनाथ मंदिर का हिंदू धर्म में एक विशिष्‍ट स्‍थान है। ऐसा माना जाता है कि एक बार इस मंदिर के दर्शन करने और पवित्र गंगा में स्‍नान कर लेने से मोक्ष की प्राप्ति होती है। इस मंदिर में दर्शन करने के लिए आदि शंकराचार्य, सन्त एकनाथ रामकृष्ण परमहंस, स्‍वामी विवेकानंद, महर्षि दयानंद, गोस्‍वामी तुलसीदास आदि का आगमन हुआ हैं।


4.महाकालेश्वर, उज्जैन

चौथा ज्योतिर्लिंग जिसका दर्शन मैंने किया वो हैं महाकालेश्वर मंदिर उज्जैन। उज्जैन मै दो बार गया या शायद ३ बार पहली बार 1994 में बिटिया के साथ गया था जो तब इंदौर में पढ़ती थी और दूसरी बार 1997 में पत्नी के साथ। उस बार जब हम इंदौर से उज्जैन जा रहे थे और बस स्टैंड मैं बस का इंतज़ार कर रहे थे । बहुत लेट होता जा रहा था और लगने लगा था की बस आज नहीं जाएँगी तभी एक कार आ कर रुकी । किसी की प्राइवेट कार थी और उन्हें एयरपोर्ट ड्राप कर वापस लौट रही थी । ड्राइवर ने बस के भाड़े में ही ले चलने की पेशकश की । हम सोच में पड़ गए क्या यह SAFE हैं । फिर महाकाल की इच्छा समझ कार में चढ़ गए । ड्राइवर ने हमें उज्जैन में उस सिद्ध (डबराल बाबा) के यहाँ ले गया जहाँ हमे जाना था । वे एक केमिस्ट्री के प्रोफेसर थे और विक्रांत भैरव के भक्त और सिद्ध पुरुष हैं ऐसा प्रसिद्ध था । बिना कुछ पैसा वैगेरह लिए लोगों की सहायता करते थे । हमें सिर्फ फूल ले कर जाना था । बाबा ने हमारे प्रश्नों का उत्तर दिया और हमारी समस्या का उपाय बताया । वहां से हम महाकाल गए । फिर रूद्र सागर किनारे शक्ति पीठ (हरसिद्धि मंदिर) गए जहाँ माँ की केहुनी गिरी हैं ऐसी मान्यता है । काल भैरव मदिर गए और शराब का प्रसाद भी चढ़ाया जो पता नहीं कहाँ गायब हो गया । भर्तहरी गुफा घूमने गए सब शांत था पर एक गुफा में एक ब एक दिखा एक साधु नंग धरंग सिर्फ लंगोट में भस्म लगाए मानव खोपड़ी सामने रखे बैठे थे । हम डर से गए । जब हम सामान्य हुए उन्होंने हमे भस्म दिया जो शायद चिता से लिया गया होगा अतः उसे हमने कहीं छोड़ दिया । एक बंद सी गुफा भी दिखी जिसके अंदर जाने नहीं दिया गया और कहा गया इस गुफा से सतयुग में वापस जाया जा सकता हैं और कोई वापस नहीं आया अब तक । पता नहीं क्या सच क्या झूठ । जहाँ तक मुझे याद है मैं एक बार इसके बाद भी अकेले ही उज्जैन गया था महाकाल के दर्शन भी किये थे। तब डबराल बाबा से मुलाक़ात नहीं हुई क्योंकि वे अपने विक्रांत भैरव मंदिर कुछ विशेष पूजा करवा रहे थे । मैं भी वही चला गया और बहुत मात्रा में दिए गए प्रसाद को खाया पर डबराल बाबा से मिल नहीं पाया ।
डबराल बाबा के बारे में कुछ बता दू । डबराल बाबा के नाम से मशहूर गोविंद प्रसाद कुकरेती एक भारतीय योगी और विक्रांत भैरव और महावतार बाबाजी के शिष्य थे। उन्हें बाबा और श्री डबराल बाबा के नाम से भी जाना जाता था। डबराल बाबा मध्य प्रदेश राज्य के उज्जैन के रहने वाले थे। हाल में पता चला कि २०१६ में उन्होंने महा समाधि ली थी ।

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महाकाल मंदिरहरसिद्धि शक्तिपीठ मंदिर
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काल भैरव मंदिर भृतहरि गुफा

5.त्रयम्बकेश्वर
त्रयम्बकेश्वर पाँचवाँ ज्योतिर्लिंग है जिनका दर्शन मैंने 4 बार किया हैं। हर बार सबसे पहले हम नासिक गए और वहीँ से त्र्यंबकेश्वर गये। पिछली बार २०१२ में गए थे। त्र्यंबकेश्वर गोदावरी नदी के स्रोत के पास स्थित 12 ज्योर्तिलिंगों में से एक है। हैरानी की बात है कि यहाँ यह शक्तिशाली नदी एक छोटे से नाले की तरह दिखती है। चूंकि रविवार का दिन था, इसलिए अप्रत्याशित भीड़ थी। हमें दर्शन से पहले 3 घंटे के लिए क्यू में खड़ा होना था - २०१२ का अनुभव मेरे पहले के अनुभवों के एकदम विपरीत था १९९७ में कोई क्यू न था और ना ही क्यु लगाने कि कोई व्यवस्था , जबकि २००७ में बिना baricade का क्यू था और २०११ मे छोटे क्यू में खड़ा होना पड़ा था। यहां स्थित ज्योतिर्लिंग कि असाधारण विशेषता इसके तीन मुख हैं जो भगवान ब्रह्मा, भगवान विष्णु और भगवान रुद्र को धारण करते हैं। मंदिर 3 भागों में है, नंदी मंडप, उपासना मंडप और गर्भ गृह। पास स्थित एक कुंड को गोदावरी का उद्गम माना जाता है।

यहां के निकटवर्ती ब्रह्म गिरि नामक पर्वत से गोदावरी नदी का उद्गम है। पुण्य सलिला गोदावरी के पास है यह त्रयम्बकेश्वर मंदिर । गौतम ऋषि तथा गोदावरी के प्रार्थनानुसार भगवान शिव इस स्थान में वास करने की कृपा की और त्र्यम्बकेश्वर नाम से विख्यात हुए। मंदिर के अंदर एक छोटे से गढ्ढे में तीन छोटे-छोटे लिंग है, ब्रह्मा, विष्णु और शिव- इन तीनों देवों के प्रतीक माने जाते हैं। शिवपुराण के अनुसार ब्रह्मगिरि पर्वत के ऊपर जाने के लिये चौड़ी-चौड़ी सात सौ सीढ़ियाँ बनी हुई हैं। इन सीढ़ियों पर चढ़ने के बाद 'रामकुण्ड' और ''लक्ष्मण कुंड'' मिलता हैं और शिखर के ऊपर पहुँचने पर गोमुख से निकलती हुई भगवती गोदावरी के दर्शन होते हैं।

कुशवरत कुण्ड- गोदावरी उदगम स्थल त्र्यंबकेश्वर मन्दिर

6. मल्लिकार्जुन ज्योतिर्लिंग श्री सैलम, आँध्रप्रदेश

छठा ज्योतिर्लिंग जिनका मैंने दर्शन किया वो हैं आंध्र प्रदेश में स्थित मल्लिकार्जुन जो श्री शैल शिखर पर स्थापित हैं । हम यहाँ २००३ में सुलुरपेट से नेल्लोर मारकापुर होते हुए कार से गए थे ।

सुलुरपेटा से श्रीसैलम - कवाली - मारकपुर हो कर


हम सुलुरपेट से सुबह निकले नई जगह जाने का उत्साह में हमने नहीं सोचा था कि हमारी यात्रा कितनी लम्बी होगी । ग्रुप में 4 सदस्य थे मैं सपत्नीक और मेरे कलीग राजेश गुप्ता सपत्नीक । अम्बेसडर कार थी तीन जने पीछे बैठे और एक जन आगे कि सीट पर । हमने विंडो सीट और फ्रंट सीट पर बारी बारी से बैठ कर पूरा रास्ता तय किया। ताकि सभी लोग रास्ते का आनद ले सकें । हम दोपहर बाद कवाली पहुंचे । सभी घरों के आगे लाल मिर्च सूखते देख कर समझ आ गया कि यहाँ लाल मिर्च कि खेती बहुत होती होगी । करीब सात बजे शाम तक हम मरकापुर पहुंचे । रात यही रुकने का निर्णय लिया गया। क्योंकि आगे कोई रुकने लायक जगह नहीं मिलने वाली थी । अचछा ठहरने लायक होटल खोजने में थोड़ा टाइम लग गया । एक खबसूरत भव्य मंदिर दिख रहा था । सुबह इसी मंदिर यानि चिन्ना केशव मंदिर के दर्शन कर हम आगे बढ़ गए । पूरा रास्ता जंगलों से भरा था और प्रकाशम् जिला नक्सल प्रभावित क्षेत्र था अतः हमें श्री सैलम पहुंचने की जल्दी थी ।

श्री सैलम में APTDC के पुन्नामी गेस्ट हाउस में रुक गए । सुबह मल्लिकार्जुन और भ्रमराम्बा देवी के दर्शन पूजन किये । बहुत भीड़ तो नहीं थी फिर भी करीब २ घंटे लग ही गए । मंदिर के बाहर कुछ लोग हमें मिले जो गरीबों को खाना नास्ता खिलाते थे आपके तरफ से पैसे लेकर । पता लगा वे सारी बातें नहीं बतातें और यह एक ठगी जैसा लगा हमे । छोटी सी जगह है श्री सैलम । फिर भी कुछ लोकल चीज़ों को खरीदारी कि और पाताल गंगा देखने चल पड़े । पाताल गंगा यानि कृष्णा नदी जो श्री सैलम से बहुत नीचे बहती है। ऊँची ऊँची ८००-९०० सीढ़ियां उतर चढ़ कर हम गए । नीचे हमने बोटिंग कि । बोट पर ही नास्ता भी किया और hydel पावर हाउस तक घूम कर वापस आ गए । यहाँ श्री सैलम डैम है जो हैदराबाद को श्री सैलम से जोड़ता है और हैदराबाद से कार या बस से यहाँ आना ज्यादा आसान हैं ।


7.घृष्णेश्वर ज्योतिर्लिंग

सातवां ज्योतिर्लिंग जहाँ मैं गया वह हैं घृष्णेश्वर (2003,2011 और 2012) । 2003 में मै नवी मुंबई से बस से आया था। यह एल्लोरा के बहुत करीब हैं मैं यहाँ तीन बार गया और अंतिम बार २०१२ में शिरडी होते हुए आया था। पिछली बार 2011 में आया था में तो पता चला सिर्फ धोती पहन कर अंदर जाना है इसलिऐ बाहर से प्रणाम कर चला आया था 2012 में जाना कि धोती के लिए वे strict नहीं है सिर्फ शर्ट उतार कर bare chested अंदर जाने की अनुमति थी, पैंट बदल कर धोती की कोई बाध्यता नहीं थी। मैंने शायद रु 250/-का टिकट लेकर अभिषेक किया और बहुत अच्छे से किया । थोड़ी भीड़ थी लेकिन पांडा जी ने बहुत अच्छी तरह बैचेस में करवाया। हम औरंगाबाद में रुके थे और एल्लोरा, अजंता, दौलताबाद और बीबी का मकबरा भी देखने गये जिस पर मेरा अलग ब्लाग है लिंक दे रहा हूँ।

अजंता की गुफाओ पर मेरा ब्लॉग देखे
एलोरा की गुफाओ पर मेरा ब्लॉग देखे
घृष्णेश्वर ज्योतिर्लिंगघृष्णेश्वर ज्योतिर्लिंग