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Thursday, May 19, 2022

कुकुर मुत्ता


आप शायद सोच रहे होगें कि मै Mushroom के बारे में कुछ लिखने वाला हूँ पर नहीं एकदम नहीं...पर कुकुरमुत्ता को कुकुरमुत्ता क्यो कहते है यह तो आप जानते ही होगें ।



हम दो महीने पहले रांची से दिल्ली एनसीआर गये थे और इसलिए बहुत दिनों बाद ही मैने फिर ब्लॉग लिखना शुरू किया हूँ । रांची में मैं रोज़ाना मॉर्निंग वाक पर जाता रहा हूँ और वहाँ (Gaur Saundaryam (ग्रेटर नॉएडा वेस्ट ) या इंदिरापुरम पर भी मेरा यह रूटीन जारी रहा । Gaur Saundaryam में काफी हरियाली है कई पार्क, खेल के कोर्ट / एरिया, स्विमिंग पूल और एक मंदिर है और सफाई का भी अच्छा इंतेज़ाम हैं । मेरा पुत्र यही रहता हैं मेरी पुत्री भी नज़दीक ही इंदिरापुरम में रहती हैं । खैर अब मैं आता हूँ आज के टॉपिक पर। एक सुबह मेरे साथ एक सज्जन लिफ्ट में मिले जो एक कुत्ते को "कुकुरमुत्ते" के लिए ले जा रहे थे यानि कुत्ते को सुबह की वाक पर ले जा रहे थे । पालतू कुत्तों की यह मजबूरी हैं की उन्हें दिन में सिर्फ एक ही बार, किसी किसी को 2 बार मौका मिलता हैं हल्का होने के लिए । और जरूरी नही की जगह उसके choice का ही हो। शायद ही पोल, खम्भे, कार टायर उन्हे मिले श्रद्धा सुमन चढ़ाने को। इस सोसाइटी में कुत्ते के मालिक को ही कुत्ते के पूप को उठाना पड़ता । यह एक अच्छा सिस्टम हैं जो मैंने काफी पहले 2007 में USA में देखा था । जबकि 1983 के जर्मन ट्रिप में कहीं कहीं dog shit दिख जाता था।
अब वापस लिफ्ट में चलते हैं । मैंने पाया की डॉगी कुछ अलग था और उसके ब्रीड को मैं पहचान नहीं पा रहा था । ऐसे बहुत कम ब्रीड को ही मै पहचानता भी हूँ इसलिए मैंने कुत्ते के मालिक को उसके ब्रीड के बारे में पूछ लिया उसका उत्तर बहुत ही चौकां देने वाला था। "मुझे भी नहीं मालूम" ज्यातादर डॉगी के foster parent को उसके ब्रीड पर घमंड सा होता है और गुगल से पढ़ कर भी पता कर लेते है। और इतने घने बालो वाले आकर्षक कुत्ते के बारे में मालिक को ही नहीं पता ? खैर कुत्ता पालने के 'पलटन' का नया रंगरूट होगा। ऐसा नहीं कि कुत्ता मुझे पसंद नहीं , लेकिन मुझे वे तभी तक पसंद है जब तक पट्टे में हो और मालिक के कन्ट्रोल में हो। छुट्टे कुत्ते से मै डरता हूँ (एक बार धोखे से एक कुत्ते नें कांट लिया था) और मोती हो, ड्यूक हो या व्हिस्की दोस्ती की पहल मै नहीं करता। यदि खुद पूंछ हिलाने लगे तो हिम्मत कर थप थपा सकता हूँ। भई माना यह आपके बेटे जैसा है पर मैं इससे कोई रिश्ता नहीं रखना चाहता। ऐसे सुना है इन street dogs को भी property rights होते है। क्योंकि ये territorial होते है। गाहे बे गाहे कोर्ट पुलिस भी हो जाती है इनके चलते (पूछता हूं बकरी की कोई right नहीं होती क्या ? उसके बच्चों को तो खुद तो खाते ही हो ईन कुत्तो को भी खिलाते हो) खैर इस सोसाईटी में कोशिश की जीती है कोई राह चलता डॉगी अंदर न आ जाय और अपने रिहायशी हक का दावा न कर बैठै। खैर वापस लिफ्ट की ओर चलते हैं। मैने उस सज्जन को लानत भेजी और आगे निकल लिया। लेकिन मेरा मन उस बेचारे बेजुबान पर ही अटका पड़ा था। इसके बाल क्यो नहीं ट्रिम करवाते है इस गर्मी में ? एक बार नजदीक के Pet care shop के पास कुछ काम से जाना पड़ा तो उन लोगों का एक leaflet सरसरी निगाह से देखने का मौका मिला। Dog grooming का दाम लिखा था 400-800 रूपया। शायद यह एक कारण हो। जहाँ कोविड काल में लोग अपने बाल घर पर काटने के आदी हो गए है वो कुत्ते का बाल तो खुशी खुशी खुद काट ही लेगे।
मै रोज लोगों को कुत्तों को सुबह शाम घुमाने ले जाते देखता हूँ। कुछ आलसी लोग इस काम के लिए अपने घर में काम करने वाली maid को भी लगा देते है। मै सोचता इनकी bonding कैसे बनेगी। कभी कभी किसी उम्र दराज व्यक्ति को भी कुत्ते को चराने sorry टहलाने ले जाते देखता हूँ। एक बार एक छोटा से कुत्ते को एक sr citizen औरत टहला रही थी..अरर कुत्ता ही उसे टहला रहा था क्योंकि कुत्ता ही उन्हें घिसियाते ले जा रहे थे जहाँ तहाँ और वे सिर्फ यह कहते उसे खींच रहीं थी "पगली कहाँ ले जा रही हमें इधर चल इधर। " बेचारी ! उस डॉगी की दादी कितनी लाचार थी। खैर मै अब राँची में हूँ। मेरे दो पड़ोसी के पास भी कुत्ते है, एक तो भेड़िया ही है, और दूसरा next door neighbour का लैब्राडोर है जो हमें देखते ही भूंकना शुरू कर देता है और कोई response नहींं मिलने पर थक कर चुप हो जाता है। शायद हमसे दोस्ती करना चाहता होगा। दूसरे दो कुत्तों को लेकर दो नौकर भी सुबह टहलाने निकलता है और कभी कभी हमारी टाईमिंग भी मिल जाती है। मुझे यदि दिख जाता है तब मै रोड के दूसरे तरफ चला जाता हूँ। मैने देखा है जिन लोगों ने उन कुत्तों से दोस्ती करने की कोशिश की वे उनके बदन पर सीधा चढ़ ही जाते है। डरता हूँ कहीं हमें भी नजदीक पा कर दोस्त ही नहीं समझने लगे।



भालू

ऐसा नहीं है कि मुझे किसी कुत्ते से दोस्ती ही नहीं थी। मेरे ससुराल में एक कुत्ता था भालू, उसका नाम था भई। तब काठमांडू (मेरा ससुराल) के लिए बीरगंज से सुबह सवेरे बसें चलती थी। और शाम तक ही काठमांडू पहुंचती थी, पर 1975-76 में एक बार मै अकेले यात्रा कर रहा था और 11-12 बजे तक बीरगंज पहुचां फिर भी बोर्डर पर ही एक बस मिल गई और मैं रात के 11 बजे काठमांडू पहुंचा। तब रिक्शा भी चलता था पर कोई रिक्शा या टैक्सी नहीं मिला और मजबूरन मुझे पैदल ही घर तक जाना पड़ा। जैसा डर था गली में घुसते ही कसाई टोल के खतरनाक कुत्ते पीछे पड़ गए । मै डर रहा था पर बिना panic में आये घर के नजदीक तक पहुँच गया। तब ही भालू आ गया और महीनों बाद मिलने पर भी मुझें पहचान गया। फिर तो गली के सारे आवारा कुत्ते भाग गए क्योंकि ये वाला एरिया भालू का था । भालू के बारे में बहुत सी कहानियाँ है कभी उस पर ही ब्लॉग लिखूगां। अभी के लिए बस इतना ही।

Wednesday, August 18, 2021

सुबह की दैनिक पदयात्रा-2

कुछ दिन पहले मैंने मॉर्निंग वाक पर एक ब्लॉग लिखा था । उसमें मैंने अपने कुछ विचार रखे थे जिसमें कुछ शिकायत कुछ नेगेटिव बातें थी । मैंने फिर सोचा की क्या सभी कुछ बुरा ही हैं की कुछ अच्छी चीज़े भी दिखती हैं सुबह सुबह तो कई बातें और दृश्य मेरे सामने आ गए जो बहुत सुन्दर और अच्छे हैं । आज फिर लिखूंगा इन सब बातों के बारे में ।

सबसे पहले जब मैं निकालता हूँ तो हमारे मोहल्ले की गली खाली खाली मिलती हैं । पर हमारे कॉलोनी के शिव मंदिर में कुछ लोग मत्था टेकते मिल जाते हैं या मंदिर में भक्ति भाव से सफाई कर रही एक भक्त । मैं भी झुक कर प्रणाम करता हूँ और बाबा का आशीर्वाद लेने की कोशिश करता हूँ । मन में एक शांति और शुकून के अनुभव सुबह सुबह हो जाता हैं । कोरोना के पहले वेव के समय पुत्र के यहाँ ग्रेटर नॉएडा में था और इसी काल में हमारे सोसाइटी के मंदिर का उद्घाटन हुआ ।

बहुत भव्य सुन्दर राधा कृष्ण मंदिर, जिसमे सभी देवी देवताओं की सुन्दर सजी प्रतिमाएं स्थापित हैं । वहां सुबह मास्क पहन कर ही टहल आता था और इस मंदिर के एक दर्शन अवश्य कर लेता था । यदि मेरी पोती तनु साथ होती तो खींच कर ले जाती । यहाँ रांची में मंदिर से आगे बढ़ते ही सबसे पहले दुकान खोलने वाले बर्मन दादा मिलते हैं और नज़र मिलने पर गुड मॉर्निंग अवश्य करते हैं ।

आगे जा कर मै अक्सर बायें मुड़ता हूँ और मिठाई दुकान से आगे बढ़ते ही वो मिलता है। फटेहाल एक बड़ा सा बोरा कंधे पर ऊठाए यह कूड़े में क्या ढ़ूढ़ रह है ? अक्सर ऐसे लोगों को देख कर हम नज़र अंदाज कर देंतें है।

नहीं यह कोई भिखारी नही, न हीं यह कूड़े से बचा-खुचा खाना खोज रहा है पर कई कुुत्ते इसे competetor समझ भूंक भी रहे होते है जिसके वह बचे जूठे खाने का सामान फेंक कर शांत कर देता है और वही कुत्ते पूंछ हिला कर आभार प्रकट करने लगते है। पर ये क्या कर रहा है? मेरा जवाब है यह हम पर उपकार कर रहा है। प्लास्टिक waste, बोतले इकठ्ठा कर उसके recycling process का ये आदमी एक अहम हिस्सा है। कॉरपोरेशन ने हरे नीले डब्बे (waste bins) हर जगह लगा रखा है तांकि recycle होने वाला कचरा अलग हो सके। पर सच्चाई यह है कि ऐसा होता नहीं है। समाज के सबसे नीचे तबके का ये शख्श हमारे वातावरण को बचाने में बहुत बड़ा योगदान कर हम पर उपकार ही तो कर रहा है। एसी जगहों पर जाकर फेकीं बोतले यह उंठा लाता है जहाँ हमारे बच्चे महंगे बॉल चले जाने पर भी न जाय। अभी जब बहुत ज्यादा वर्षा हो रही है ये आदमी नालियों को clogg करने वाले प्लास्टिक बोतलों को निकाल रहा है। इन्हे मेरा सलाम !
इसी तरह कभी कभी दो आदिवासी महिलाये ढाकेश्वरी रेस्टोरेंट के चूल्हे के राख से जलने लायक कोयला ढूंढ निकलते मिल जाते हैं । मैंने पाया हैं हमारे आदिवासी भाई बहन लोग कुछ भी बर्बाद नहीं होने देते । बिजली वाले ओवरहेड लाइन से सटे बृक्षों की काट छांट कर कटी डाली पत्ते को यु ही छोड़ कर चले गए तो ये हो लोग कुछ हद तक उसका इस्तेमाल कर लेते है और रोड की सफाई हो जाती वह अलग ।

सुबह सुबह कोयला सायकल पर लाने वाले बहुत सारे मिलते है। कहते है ये चोरी का कोयला ला कर शहरों में बेचते है। ज्यादातर बंद पड़े खदानों से जान जोखिम में डाल कर लाया होता है यह कोयला। आखिर क्या मजबूरी है जो ये लोग ऐसा काम करते है और सोचिये २०-२२ बोरे यानि करीब ८००-९०० किलो तक कोयला लेकर चलते हैं । इसके लिए सायकल को थोड़ा मॉडिफाई कर लेते हैं । कोयला सायकल पर लेकर 40-70 किलोमीटर चढाई वाले रास्ते में लेकर आना और वापस जाना । रास्ते में पुलिस वाले से निपटना भी । आमदनी का कोई अच्छा जरिया हो तो कौन ऐसा काम करेगा । एक दिन मैंने बड़ा अच्छा नज़ारा देखा । अक्सर सायकल वाले हमारे मोड़ पर उतर कर सायकल चलाते है क्योंकि आगे चढ़ाई है । पर उस दिन करीब ५-६ सायकल वाले एक दूसरे साइकिल को रस्सी से बांध कर एक मोटर सायकल वाले के पीछे के रोड से बांध रखा था और वह एक ट्रेन की तरह चले जा रहे थे । कैसे स्टार्ट करते होंगे ये मैं अबतक सोच रहा हूँ ।

२०१६-२०१७ में सुबह जब टहलने निकालता था तब एक गली से घूम कर डिबडीह फ्लाईओवर के नीचे नीचे ही टहल लेता था । २०१५ में मेरे दिल में धड़की की एक बीमारी हो गयी थे premature ventricular contraction । सीधे शब्दों में दिल की धड़कन synchronized नहीं थी । तब दिल्ली में इलाज करवाया थे पर चढाई चढ़ने में दिक्कत लगती और मैं नीचे नीचे ही टहल लेता था । मैंने देखा रोड पर तीन जगहों पर चॉक या ईट के टुकड़े से एक ही शब्द बड़े बड़े अक्षरों से कोई लिख डालता था । फिर एक दिन मैंने उसे लिखते हुए देखा । मैंने सोचा क्यों न इससे बात करूं । उसका नाम अब याद नहीं पर वो एक आदिवासी युवक था । लिखना पढ़ना सीख चूका था । कितना तक पढ़ा था तो नहीं पूछा पर वो जरूर अलग था । थोड़ा पागल सा । मैंने पूछा भाई यह रोज़ रोज़ क्यों लिखते हो ? उसका उत्तर कुछ अचंभित करने वाला था । "सर यह बिरसा राजपथ है । रोज़ मुख्यमंत्री और राज्यपाल इधर से गुजरते हैं कभी तो पढ़ेंगे और कुछ करेंगे । उस दिन कुछ उसने "PASS " लिखा था । पर RICE , MEAL वैगेरह वह पहले लिख चुका था । सोच कर देखे तो ये आदमी अपनी या अपनों की कुछ परेशानियाँ सरकार तक पहुंचना चाह रहा था । जैसा स्पष्ट था इसका यह प्रयास सफल होता नहीं दिख रहा था । इसबार कोरोना के बाद मैं दिल्ली से वापस आया तो कहीं कुछ लिखा कई दिनों तक नहीं दिखा । मैंने सोचा शायद थक कर लिखना छोड़ दिया होगा । पर ३-४ दिन पहले यानी १३ अगस्त २०२१ को मैंने फिर सड़क पर लिखा पाया " डॉलर " । मैं अब तक सोच रहा हूँ उसने डॉलर क्यों लिखा इस बार ?

एक पुरानी बात भी मुझे याद आ गई जो Morning Walk के समय घटी थी 2016-2017 में । जाड़े का समय था। तब फ्लाई ओवर के पास एक Covered बस स्टॉप हुआ करता था। एक दिन एक पागल वहाँ सोया दिखा । फटे हाल सिर्फ एक टी शर्ट और एक फटा चिटा पैंट में। जाड़े में ठिठुरता वह कचरे में कुछ ढूंढ कर खा रहा था। शायद इसे घर वाले कांके के पागलखाने में छोड़ कर चले गए हो और पागलखाने वालों ने इसे भटकने को छोड़ दिया हो। ऐसे उसके पास जा कर कुछ पूछने की हिम्मत तो नहीं थी पर कुछ मदद करने की इच्छा प्रबल हो रही थी। खैर अगले दिन morning walk में मै कुुछ खाने की चीजें बिस्कुट, ब्रेड लेकर चला पर उसको नजदीक जा कर देने की हिम्मत नहीं हुई और मैने पैकेट को फुटपाथ पर रख कर उसको इशारा कर आगे बढ़ गया। जब मै वापस लौटा तो यह देख कर संतोष हुआ वह बिस्कुट खा रहा था। अगले दिन खाने के चीजों के साथ एक पुराना शर्ट और पैजामा भी रख लिया ठंढ बहुत थी, और कपड़े की सख्त जरूरत थी उसे। मैने फुटपाथ पर रख दिया। वापसी में देखा उसने किसी तरह शर्ट तो पहन लिया पर पजामें का नाड़ा बांधना उसे नही आ रहा था। मै इसमें कोई मदद नहीं कर सकता था उसके पास कौन जाय ? खैर उसे खाना देने का सिलसिला कुछ दिन और चला पर एक दिन वह वहाँ नहीं था। मैने आसपास देखा कहीं नहीं था वह। मैने सोचा कल शायद लौट आए। उस दिन का छोड़ा खाना तो कुत्ते ले गए पर वो अगले कई दिन नहीं दिखा। फिर एक दिन बस स्टॉप तोड़ दिया गया। किसी VVIP के आने के पहले होने वाले Beautification के लिए । और वो असहाय फिर कभी नहीं दिखा। क्या ऐसे Destitutes के लिए कोई योजना है समाज या सरकार के पास ?

अगला दृश्य जो रोज मेरा ध्यान आकर्षित करता है वो है प्लास्टिक से बने रोजमर्रा की वस्तुए, खिलौने, बॉल वैगेरह सायकल से लेकर आते लोगों का समुह। मै रोज सोचता किस मेले में बेचने ले जाते होगे यह सब रोज। एक दिन जब मै पुल के सबसे ऊंची जगह पर था तब एक सायकल वाले ने थक कर सायकल रोकी । मै अपने उत्सुकता को रोक न पाया और पूंछ बैठा "भैया अभी तो कोई मेला लगा हुआ नही है तो कहाँ बेचोगे यह सब। " उसने बताया वह घर घर घूम कर बेचता है ये सामान। तकरीबन सभी सामान के दाम एक ही थे छोटा हो तब भी 20 और बहुत बड़ा हो तब भी बीस। बचपन में एक ठेला वाला आता था और हर एक माल 6 आना में बेचता था। बिल्कुल डॉलर स्टोर के तर्ज पर।

कुछ दिनो पहले एक ऐसा सायकल वाला हमारे कॉलनी में भी आया । तब पता चला हर एक माल 20 रू के आलावा भी कुछ बड़े सामान भी बेचते है ये लोग। हमने भी एक जोड़ी प्लास्टिक का मोढ़ा 300 रू में खरीदा ।

एक और चीज और दिखती है वह है निरंतरता का प्रतीक ट्रेन। दो ट्रैक गुजरता है डिबडिह flyover के पास और नीचे से राँची राऊरकेला लाईन और लोहरदगा राँचीं लाईन। कोरोना के कारण अभी ट्रेन की संखया कम है पर कुछ बढ़िया ट्रेनें अब चलने लगी है। कभी कभी मैं ट्रेन की whistle सुनने पर उसकी प्रतिक्षा करता हूं और माल गाड़ी हुई तो उसके डब्बे गिनने लगता हूँ।

आज यहीं रुकता हूँ। अपने अनुभव आगे भी अवश्य साझा करूंगा।

Friday, August 13, 2021

सुबह की दैनिक पदयात्रा

मेरी सुबह की ''पदयात्रा'' कभी ३-४ किलोमीटर की होती थी पर अब २ किलोमीटर ही करता हूँ । कोरोना काल में मैं दिल्ली में था तब काफी दिनों यह सिलसिला बंद था पर अब रांची आने पर सुबह निकलता हूँ मास्क पहन लेता हूँ और वाकिंग शू (दूसरे लोग रनिंग शू कहते हैं ) भी पहनता हूँ । कुछ दिनों डबल मास्क लगा कर गया था तो साँस लेने में तकलीफ होती थी इसलिए अब सिर्फ सर्जिकल मास्क पहनता हूँ ।

रोज़ रोज़ उसी समय निकलने वाले लोगों को पहचानने लगा हूँ । कुछ दौड़ते है कोई कोई किसी बंद दुकान के सामने बरामदे में तरह तरह से व्यायाम करते मिलते हैं । कौन सा आसान या व्यायाम करते है यह कभी कभी अनुसन्धान का विषय हो जाता हैं । शायद बाबा रामदेव भी न बता पाएं । एक पैर से थोड़ा लाचार एक व्यक्ति भी रोज़ मिल जाते है और मुझे ओवरटेक भी कर लेते हैं । टीनएजर बच्चों के दो तीन ग्रुप मिलते है जो शायद नजदीक के एक मैदान में खेल कर या व्यायाम कर या सिर्फ दौड़ कर आते हैं पसीने से लथ पथ । एक बात जो कॉमन हैं वह है की एक्का दुक्का को छोड़ सभी बिना मास्क के होते हैं और मुझे यह शक होने लगता हैं कही ये लोग मुझे ही पागल या बुद्धू तो नहीं समझ रहे हैं ।

Morning walk picturesMorning Walk Pictures

मेरे घर से करीब ६०० मीटर पर एक फ्लाईओवर हैं । मैं इसके किनारे बने फुटपाथ पर ही रोज टहलने जाता हूँ । बाएं तरफ घूमा हुआ इस फ्लाईओवर का बायां फुटपाथ छोटा हैं पर थोड़ा स्टीप लगता हैं जबकि दाए तरफ लम्बा पर काम स्टीप लगता हैं । दोनों तरफ टहलने का अनुभव अलग अलग हैं । बाएं तरफ कम लोग टहलते हैं क्योंकि मेन रोड छोड़ कर थोड़ा कच्चे रास्ते पर चलने पर मिलने वाली सीढ़ी चढ़ कर ही फुटपाथ पर आ सकते हैं । पर यह फुटपाथ कुत्ता चराने वालों के बीच काफी लोकप्रिय हैं, जबकि यह फ्लाई ओवर का पैदल पथ है न इसमे कोई पेड़ है न ही पोल। रास्ते में क्या क्या पड़ा मिलेगा आप सोच सकते हैं । स्ट्रीट वाले कुत्ते भी इसी तरफ ज्यादा आते हैं और कभी कभी कोई कामचोर नौकर अपने मालिक के भेड़िये जैसे कुत्ते को लाकर बीच रास्ते में 'पार्क' कर देता हैं और उसके लाख कहने पर कि "कुछ नहीं करेगा" मेरी हिम्मत नहीं होती उसे पार कर जाने की । फिर भी कभी कभी इस तरफ भी टहलने जाता हूँ । एक सहतूत और एक अमरूद का पेड़ रास्ते में झुके मिलते है और यदि काफी सवेरे निकले तो कुछ फल बचे मिल जाते है ।

दाएं तरफ जाने के लिए हमें आते जाते दोनो बार मेन रोड क्रॉस करना होता हैं फिर भी जाता हूँ । इस तरफ का वॉकवे तरुणों (टीनएजर्स ) में ज्यादा लोक प्रिय हैं और सुबह का फोटो खींचने के दृश्य अच्छे मिलते हैं । आने जाने वाले ट्रैन भी कभी कभी दिख जाते हैं । कुछ लोग जो मिलते हैं उनके बारे में दो शब्द । यह सभी टहलने के बहाने घर से निकलते हैं और टहलते दौड़ते भी हैं । पर यह उन्हें मिलने जुलने का मौका भी देता हैं । आज कल स्कूल कॉलेज में बिना GF या BF के शायद ही कोई मिले और जब तक स्कूल नहीं खुले थे तब कई ऐसे युगल इस फुटपाथ पर दिख जाते थे । एक ग्रुप में एक लड़का और एक लड़की बातें कर रहे होते और एक सहेली थोड़ी दूर खड़ी रहती थी और एक ग्रुप बैलेंस्ड था दो लड़के दो लड़किया धीरे धीरे बात करते ये लोग पास जाने पर किसी टॉपिक पर अचानक जोर से बोलने लगते, शायद सोचते होंगे बुड्ढे को क्या पता चलेगा । एक १३-१४ साल के लड़की जो एथलिट लगती हैं दौड़ कर हमारे घर के मोड़ तक आती फिर वाक यानि टहलने लगती । कान में ईयर फोन लगा रहता और उसकी बात शुरू होती । क्योंकि वह धीरे धीरे ही टहलती करीब करीब मेरा टहलने का समय बराबर होता और वह करीब आधे घंटे बाते करते दिख जाती और मेरे लौटने के बाद भी करती रहती । शायद कुछ वही बाते होगी जो घर पर नही हो सकती होगी। कई लोग eardrops लगाए रहते है और बाते करते रहते है। क्युकि ये अकेले रहते है और न मोबाईल दिखता है न ईयर फोन तब लगता है कांके पागलखाने से भागे लोग तो नही ?

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पानी सब धो डालता हैं । गंगा जल में तो पाप तक धुल जाते है और आज मुझे वॉकवे करीब करीब साफ़ दिखा .. नहीं नहीं ये म्युनिसिपल कार्पोरेशन का काम नहीं था इंद्रदेव ने रास्ता धो डाला था । ऐसे रोज़ दाएं तरफ का कचरा अलग होता । साधारण कचड़ा जैसा सभी जगह मिल जाता - केले का छिलका, जूस बिस्कुट नमकीन का पैकेट, तम्बाकू का पाउच और सिगरेट के पैकेट । पर कुछ कचरे जो अलग हैं और दाए तरफ मिल जाते हैं वो है दारू की बोतले, व्यव्हार में लाये गए कंडोम और सिरिंज जो शायद किसी ड्रग लेने वाले ने फेका हो । एक दिन मिला तब मैंने सोचा किसीने गलती से फेंक दिया होगा पर दो- तीन दिन दिखने पर मेरा शक पक्का होने लगा । माचिस के सारी की सारी तीलियाँ जली फेंकी हुई देख कर मैं सोच रहा था क्या हैं यह । फिर एक दिन मैंने देखा एक दुबला लम्बा लड़का रोड से रेलिंग फांद कर वॉकवे में आया और जब मैं दूर चला कागज पर कुछ रख कर जला कर सूघने लगा और कुछ खाया । मैं लौट कर उस जगह आया तो वहाँ अजीब सी गंध थी । मैं SURE हो गया माचिस का क्या रहस्य था । कभी कभी कफ सिरप की शीशियां भी मिलती हैं जो भी बच्चे नशे के लिए व्यव्हार में लाते हैं ।
क्या कोई तरीक़ा हैं इन बच्चों को इस फंदे से बचाने का और वापस लाने का ?