आप शायद सोच रहे होगें कि मै Mushroom के बारे में कुछ लिखने वाला हूँ पर नहीं एकदम नहीं...पर कुकुरमुत्ता को कुकुरमुत्ता क्यो कहते है यह तो आप जानते ही होगें ।
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हम दो महीने पहले रांची से दिल्ली एनसीआर गये थे और इसलिए बहुत दिनों बाद ही मैने फिर ब्लॉग लिखना शुरू किया हूँ । रांची में मैं रोज़ाना मॉर्निंग वाक पर जाता रहा हूँ और वहाँ (Gaur Saundaryam (ग्रेटर नॉएडा वेस्ट ) या इंदिरापुरम पर भी मेरा यह रूटीन जारी रहा । Gaur Saundaryam में काफी हरियाली है कई पार्क, खेल के कोर्ट / एरिया, स्विमिंग पूल और एक मंदिर है और सफाई का भी अच्छा इंतेज़ाम हैं । मेरा पुत्र यही रहता हैं मेरी पुत्री भी नज़दीक ही इंदिरापुरम में रहती हैं । खैर अब मैं आता हूँ आज के टॉपिक पर। एक सुबह मेरे साथ एक सज्जन लिफ्ट में मिले जो एक कुत्ते को "कुकुरमुत्ते" के लिए ले जा रहे थे यानि कुत्ते को सुबह की वाक पर ले जा रहे थे । पालतू कुत्तों की यह मजबूरी हैं की उन्हें दिन में सिर्फ एक ही बार, किसी किसी को 2 बार मौका मिलता हैं हल्का होने के लिए । और जरूरी नही की जगह उसके choice का ही हो। शायद ही पोल, खम्भे, कार टायर उन्हे मिले श्रद्धा सुमन चढ़ाने को। इस सोसाइटी में कुत्ते के मालिक को ही कुत्ते के पूप को उठाना पड़ता । यह एक अच्छा सिस्टम हैं जो मैंने काफी पहले 2007 में USA में देखा था । जबकि 1983 के जर्मन ट्रिप में कहीं कहीं dog shit दिख जाता था।
अब वापस लिफ्ट में चलते हैं । मैंने पाया की डॉगी कुछ अलग था और उसके ब्रीड को मैं पहचान नहीं पा रहा था । ऐसे बहुत कम ब्रीड को ही मै पहचानता भी हूँ इसलिए मैंने कुत्ते के मालिक को उसके ब्रीड के बारे में पूछ लिया उसका उत्तर बहुत ही चौकां देने वाला था। "मुझे भी नहीं मालूम" ज्यातादर डॉगी के foster parent को उसके ब्रीड पर घमंड सा होता है और गुगल से पढ़ कर भी पता कर लेते है। और इतने घने बालो वाले आकर्षक कुत्ते के बारे में मालिक को ही नहीं पता ? खैर कुत्ता पालने के 'पलटन' का नया रंगरूट होगा। ऐसा नहीं कि कुत्ता मुझे पसंद नहीं , लेकिन मुझे वे तभी तक पसंद है जब तक पट्टे में हो और मालिक के कन्ट्रोल में हो। छुट्टे कुत्ते से मै डरता हूँ (एक बार धोखे से एक कुत्ते नें कांट लिया था) और मोती हो, ड्यूक हो या व्हिस्की दोस्ती की पहल मै नहीं करता। यदि खुद पूंछ हिलाने लगे तो हिम्मत कर थप थपा सकता हूँ। भई माना यह आपके बेटे जैसा है पर मैं इससे कोई रिश्ता नहीं रखना चाहता। ऐसे सुना है इन street dogs को भी property rights होते है। क्योंकि ये territorial होते है। गाहे बे गाहे कोर्ट पुलिस भी हो जाती है इनके चलते (पूछता हूं बकरी की कोई right नहीं होती क्या ? उसके बच्चों को तो खुद तो खाते ही हो ईन कुत्तो को भी खिलाते हो) खैर इस सोसाईटी में कोशिश की जीती है कोई राह चलता डॉगी अंदर न आ जाय और अपने रिहायशी हक का दावा न कर बैठै। खैर वापस लिफ्ट की ओर चलते हैं। मैने उस सज्जन को लानत भेजी और आगे निकल लिया। लेकिन मेरा मन उस बेचारे बेजुबान पर ही अटका पड़ा था। इसके बाल क्यो नहीं ट्रिम करवाते है इस गर्मी में ? एक बार नजदीक के Pet care shop के पास कुछ काम से जाना पड़ा तो उन लोगों का एक leaflet सरसरी निगाह से देखने का मौका मिला। Dog grooming का दाम लिखा था 400-800 रूपया। शायद यह एक कारण हो। जहाँ कोविड काल में लोग अपने बाल घर पर काटने के आदी हो गए है वो कुत्ते का बाल तो खुशी खुशी खुद काट ही लेगे।
मै रोज लोगों को कुत्तों को सुबह शाम घुमाने ले जाते देखता हूँ। कुछ आलसी लोग इस काम के लिए अपने घर में काम करने वाली maid को भी लगा देते है। मै सोचता इनकी bonding कैसे बनेगी। कभी कभी किसी उम्र दराज व्यक्ति को भी कुत्ते को चराने sorry टहलाने ले जाते देखता हूँ। एक बार एक छोटा से कुत्ते को एक sr citizen औरत टहला रही थी..अरर कुत्ता ही उसे टहला रहा था क्योंकि कुत्ता ही उन्हें घिसियाते ले जा रहे थे जहाँ तहाँ और वे सिर्फ यह कहते उसे खींच रहीं थी "पगली कहाँ ले जा रही हमें इधर चल इधर। " बेचारी ! उस डॉगी की दादी कितनी लाचार थी। खैर मै अब राँची में हूँ। मेरे दो पड़ोसी के पास भी कुत्ते है, एक तो भेड़िया ही है, और दूसरा next door neighbour का लैब्राडोर है जो हमें देखते ही भूंकना शुरू कर देता है और कोई response नहींं मिलने पर थक कर चुप हो जाता है। शायद हमसे दोस्ती करना चाहता होगा। दूसरे दो कुत्तों को लेकर दो नौकर भी सुबह टहलाने निकलता है और कभी कभी हमारी टाईमिंग भी मिल जाती है। मुझे यदि दिख जाता है तब मै रोड के दूसरे तरफ चला जाता हूँ। मैने देखा है जिन लोगों ने उन कुत्तों से दोस्ती करने की कोशिश की वे उनके बदन पर सीधा चढ़ ही जाते है। डरता हूँ कहीं हमें भी नजदीक पा कर दोस्त ही नहीं समझने लगे।
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भालू
ऐसा नहीं है कि मुझे किसी कुत्ते से दोस्ती ही नहीं थी। मेरे ससुराल में एक कुत्ता था भालू, उसका नाम था भई। तब काठमांडू (मेरा ससुराल) के लिए बीरगंज से सुबह सवेरे बसें चलती थी। और शाम तक ही काठमांडू पहुंचती थी, पर 1975-76 में एक बार मै अकेले यात्रा कर रहा था और 11-12 बजे तक बीरगंज पहुचां फिर भी बोर्डर पर ही एक बस मिल गई और मैं रात के 11 बजे काठमांडू पहुंचा। तब रिक्शा भी चलता था पर कोई रिक्शा या टैक्सी नहीं मिला और मजबूरन मुझे पैदल ही घर तक जाना पड़ा। जैसा डर था गली में घुसते ही कसाई टोल के खतरनाक कुत्ते पीछे पड़ गए । मै डर रहा था पर बिना panic में आये घर के नजदीक तक पहुँच गया। तब ही भालू आ गया और महीनों बाद मिलने पर भी मुझें पहचान गया। फिर तो गली के सारे आवारा कुत्ते भाग गए क्योंकि ये वाला एरिया भालू का था । भालू के बारे में बहुत सी कहानियाँ है कभी उस पर ही ब्लॉग लिखूगां। अभी के लिए बस इतना ही।
mazedaar!
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