2018 में शायद साईं ही हमारी घुमक्कड़ी पर मेहरबान थे कि कई यात्राओं का अवसर इस साल मिला। उन्हें पता था कि अगले दो साल कोरोना (Covid 2019) और अन्य व्यक्तिगत कारणों से हम कहीं घूम नहीं पाएगें। शिर्डी चलने का बुलावा हमारे घुमक्कड़ बहनोई कमलेश जी का आया तो हम आनन फानन में तैय्यार हो गए। प्रोग्राम दुर्गा पूजा के तुरंत बाद चलने का था। पूजा के समय शिर्डी में बहुत अधिक भीड़ होती है और पूजा के समय हम पैतृक शहर जमुई जहां जैन तीर्थांकर भगवान महावीर का जन्मस्थान भी है जाने वाले थे जिसका यात्रा विवरण का लिंक मैंने नीचे दे रखा है। जिस भी ट्रेन में जगह मिली मैंने उसी राँची से मनमाड का टिकट बुक कर लिया। उस दिन हटिया से पुणे की स्पेशल ट्रेन थी वास्तव में बहुप्रचारित हमसफर एक्प्रेस ट्रेन थी और मै ट्रेन में चढ़ने के बाद आचंभित हो गया। इस आशंका से कि किसी गलत ट्रेन में तो नहीं चढ़ गए, टीटी से कनफर्म भी कर आया। मैने ने हमसफर एक्सप्रेस से जाना है जाने बिना ही बुकिंग कर ली थी। अब समझ में आया टिकट का किराया ज्यादा क्यूं था और ट्रेन में इतनी सीटें खाली क्यो थी। राजधानी वाला टिकट मोडल के कारण देर से बुक करने पर भाड़ा बढ़ता जाता है। हमने सुविधाओं पर ध्यान दिया तो पाया कुछ promised सुविधाएं तो दी गई पर कई सुविधाएं नहीं दी गई या अधुरी थी। 3-3 घंटे के स्टाप वाले ट्रेन में पैंट्रीकार न रहना खल गया।
हम सफर एक्सप्रेस पर मेरा ब्लॉग
इसी साल की गई उदयपुर और उत्तर पूर्व की यात्रा के बारे में बाद में लिखूंगा।
मै शुरू करता हूं मनमाड से। यानि बताता हूं मनमाड पहुंचने के बाद का किस्सा। ट्रेन घन्टे भर से भी ज्यादा लेट थी। मुझे भुसावल से ही चिंता सताने लगी थी देर होने पर मनमाड से शिर्डी के लिए टैक्सी मिलेंगी या नहीं। मनमाड पहुंचते पहुंचते रात के 8-8:30 बज गए। मैनें मनमाड में कुली ले लिया ताकि जल्दी सही जगह पहुंच सके और पूछने पाछने में समय बर्बाद न हो। लेकिन मर्फी का नियम “What may go wrong will go wrong” लागू हो गया और सारी टैक्सियाँ और औटो हमारे पहुंचने तक भर गई। मै शेयर टैक्सी safety के कारण ही लेना चाहता था ताकि हम दोनो के आलावा भी और यात्री साथ रहे।शिर्डी में होटल बुक था, नहीं तो मै रात मनमाड के किसी होटल में रात गुजार लेता। एक बस का स्टॉफ शिर्डी शिर्डी चिल्ला रहा था। उसमे बैठ गया। करीब आधे घन्टा चिल्लाने पर इक्का दुक्का सवारी ही और मिली तो बस वाले ने “बस नहीं जाएगी” की सूचना दे दी। तब तक हमारा कुली जो जिसने टैक्सी या बस पकड़ावा देने का वादा किया था चला गया। अंत में एक झंखार दिखने वाली मारुती कार वाला रिजर्व करने पर चलने को तैय्यार हुआ। सिर्फ हमें ले जाएगा का वादा कर उसने दो सवारियां और बैठा ली उनमें एक महिला थी तो मै अश्वस्त हो गया कि यात्रा safe ही होगी। हाई वे में रात में छोटी गाड़ी से चलना कितना खतरनाक है तब पता चला। जब जब कोई ट्रक और बस सामने से आ रहीं हो तेज हेड लाइट के चलते चालक कुछ देखने में असमर्थ हो जाता। या जब ओवर टेक करने वाला गाड़ी छोटी गाड़ी को रोड से नीचे उतरने को मजबूर कर देते। शायद मेरा भाग्य ही खराब था कि आधे रास्ते में गाड़ी भी खराब हो गई । ड्राईवर किसी तरह कोपरगाँव से पहले एक पेट्रेल पंप तक गाड़ी ले आया और हम चाय वाय पीते पीते गाड़ी ठीक होने का ईंतजार करने लगे। पर न गाड़ी ठीक हुई न हीं धक्का वैगेरह देना ही काम आया। अब हमारे पास किसी और गाड़ी के लिए इतंजार करने के सिवा कोई चारा न था। करीब 15-20 मिनट के बाद एक औटो रुका और हमारे ड्राइवर ने हमें उसमें बैठा दिया। खैर ॐ साई राम जपते हम शिर्डी पहुंचे। पर टैक्सी वाले ने हमें MTDC होटल तक पहुंचाने से मना कर दिया। मेरे बहस करने पर होटल का रास्ता दिखा कर बोला “वो तो रहा आपका होटल”। होटल नजदीक था। और हम पैदल ही दो मिनट में पहुंच गए। आशा है आप ऐसी स्थिति में मनमाड में ही रुक कर सुबह ही शिर्डी जाएगें। या फिर कोपरगाँव स्टेशन जो शिर्डी के करीब है उतरेंगे। कौपरगाँव शिर्डी के काफी नजदीक है। हमारी ट्रेन का स्टापेज भी कोपरगांव था पर मैं आश्वस्त नहीं था कि यहां औटो वैगेरह मिलेंगा या नहीं। ।मेरी सलाह है आप कोपरगाव ही उतरिए।
शिर्डी में 3 दिन रूकने और मंदिर में साई चरित्र का पाठ कर हमारे लौटने का दिन आ गया। पिछली शिर्डी यात्रा के दैरान मेरा सप्तश्रृगीं जाने का प्रस्ताव हमे इसलिए ड्रॉप करना पड़ा था क्योंकि कुछ 510 सिढ़िंयाँ चढ़नी पड़ती। इस बार एक दिन Free था घूमने के लिए। और मैने पढ़ रखा था कि सप्तश्रृगीं में अब रोप वे लग गया है। बस मेरा प्रस्ताव इस बार मान लिया गया और एक टैक्सी ठीक कर हम सप्तश्रृंगी की यात्रा पर निकल पड़े।
सप्तश्रृगीं जाते समय हम जल्दी पहुँचना चाहते थे क्योंकि शाम तक लौट आना था, पर ड्राइवर को अपने घर /अपने गांव जाना था , वहां जाने के बाद कुछ समय रुक कर ही आगे चला। इस अकेले ड्राइवर ने सप्तश्रृंगी के लिए हां की थी इसलिए हम चुप थे। उसे पान मशाला की आदत थी और एक खास ब्रांड के पान मशाला खोजने खरीदने कई बार दुकानों में रूका और काफी समय भी लगाया । रास्ते में कई सुंदर दृश्य मिले हरे भरे जंगल पहाड़ हमारा मन मोह रहे थे। सतपुड़ा के पहाड़ो का एक अलग मोहक रूप यहाँ दिख रहा था। हम करीब 5 घन्टे में सप्तश्रृगीं पहुंच गए। किसी होटल के पार्किंग में गाड़ी पार्क कर हम रोप वे स्टेशन पैदल चले आए। रोप वे स्टेशन में जा कर पता चला यह फनीकुलर रोप वे है और भारत का पहला फनीकुलर। फनीकुलर रोप वे में कार तीरछे बने रेल पर चलता है और एक Winch में लिपटे रोप से उपर खींचा जाता है। साधरणत: दूसरे रोप वे हिंडोले हवा में लटकी रोप पर चलता है। सप्तश्रृगीं में माता की अठारह भुजी मुर्ति है। पहाड़ के सामने मूर्ति की नक्काशी की गई है । इतनी ऊंचाई पर खड़े होने की जगह न होते हुए भी कैसे यह अदभुत मुर्ति गढ़ी गई होगी यह शोध का विषय है। ऊपर का रोप स्टेशन , मदिर परिसर-क्यू लगाने की जगह तो हाल में बनी लगती है । यह पीठ महाराष्ट्र के साढ़े तीन शक्तिपीठों में से एक है। एक अर्ध पीठ। ऐसी मान्यता है कि यहाँ देवी सती की दाहिनी भुजा गिरी थी। भीड़ के कारण और लगातार “आगे बढ़ो” सुनते देवी की मूर्ति का एकदम नजदीक से फोटो नहीं खीच पाए। पर लाईन में खड़े खड़े एक ठीक ठाक फोटो खींचा मैनें । वह मैने इस ब्लॉग में डाला है वो फोटो।
रोप वे स्टेशन साफ सुथरा आधुनिक सुविधाओ से लैश विश्व स्तरीय स्टेशन है। अंदर एक अच्छा Food Court भी है। दर्शन से लौट कर दोपहर का खाना यहीं खाया हम लोगों नें । यहाँ एक फुड काउन्टर का नाम था “आओ जी, खाओ जी” । यह एक Unique नाम था और याद रह गया। लौटते समय मै और मेरी श्रीमती जी को मनमाड उतर जाना था क्योंकि तड़के सुबह ही हमारी ट्रेन थी। मनमाड के लिए एक मोड़ से रास्ता मुड़ता था। बाकी लोगों को मनमाड से शिर्डी वापस जाना था। हम रात रिटायरिंग रूम में बिताने वाले थे। रास्ते में जोरदार बारिश होने लगी। ड्राईवर को रास्ता भी ठीक से दिखाई नहीं दे रहा था। बारिश और तेज हवा के कारण गाड़ी संभल कर चलानी पड़ रही थी । हमने हवा के दबाब को कम करने खिड़की खोलने का प्रयास किया तो भींगने लगे। जाहिर था कि काफी देर होने वाली थी और सभी चिंतित थे। मेरी ट्रेन सुबह 4:30 पर था ।
हम लोग रात 9 बजे तक पहुंच गए तब तक केयर टेकर रिटायरिंग रूम बन्द कर चले गए थे। हमारे कुली ने हमें वेटिंग रूम में बैठा कर रिटायरिंग रूम के केयर टेकर को खोज लाया । हम थके थे और तड़के सुबह की ट्रेन थी अत: तुरतं सो जाना चाहते थे। रिटायरिंग रूम प्लेटफार्म पर ही था। हमने उसी प्लेटफार्म पर जो भी मिला खा लिया और सोने की कोशिश करने लगे पर हर 5-10 मिनट पर कोई न कोई ट्रेन का एनाउन्समेट, चाय वाले की “चाय चाय” की पुकार और गुजरते ट्रेन के शोर में सोना नामुमकिन सा था। उसपर यह आशंका की सुबह सोए न रह जाए और ट्रेन छूट जाए। उंघते उंघते ही रात गुजर गई। रेलवे वेब साइट हमारी ट्रेन को “सही समय पर है” दिखा रहा था । हमने सुबह सामान पहुचाने के लिए कुली को कहा था । किसी और को भेजने का वादा कर वो चला गया । पर सुबह न तो कोई कुली आया न हीं कोई और कुली मिला। सब गायब थे। हार कर हम दोनोें साढ़े तीन बजे एक एक सामान कर सामने वाले प्लेटफार्म पर खुद ही ले गए। सभी गाड़ियाँ लेट हो रही थी इस कारण काफी भीड़ थी। बैठने को बेंच खाली नहीं मिला। हम खड़े खड़े ही प्रतिक्षा करने लगे। अब हमारे ट्रन का पहला अनाउंसमेट हुआ पता चला आधे घन्टे लेट है। एक दो ट्रेन निकलने पर बेंच पर बैठने की जगह तो मिल गई पर ट्रेन लेट होते होते दो ढा़ई घन्टे लेट हो गई। पहले से पता होता तो थोड़ा और सो लेते। जब ट्रेन आयी तो धूप निकल आई थी। सबसे मुश्किल तब हुई जब हमारा बोगी एकदम पीछ वाला निकला और हमें दौड़ कर पकड़ना पड़ा हमारा लोअर बर्थ था और सुबह होने पर सभी यात्री उस पर बैठे थे । हम दोपहर के पहले बर्थ पर लेट भी नहीं पाए। इतने विलंब पर चलने पर भी ट्रेन हमारे गंतव्य स्टेशन पर समय पर ही पहुंच गई और हम एक अति प्रतिक्षित यात्रा की सुनहरी यादें समेंटे घर लौट आए। आप खुश रहे दूसरा यात्रा वृत्तांत फिर कभी।
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