Thursday, November 26, 2020

थिरुअनंतपुरम, कन्याकुमारी, रामेश्वरम, मदुरै-२००९ ( #यात्रा)

यात्रा का पहला भाग यानि श्री लंका के ब्लॉग के लिए यहाँ क्लिक करें

श्री लंका से लौटने पर हम लोग पहले से तय प्रोग्राम के अनुसार थिरुअनंतपुरम, कन्याकुमारी, रामेश्वरम, मदुरै की यात्रा पर निकल पड़े। उसीका वर्णन नीचे दे रहा हूँ।

  • ३१ अक्टूबर २००९
  • चैन्नै में एक रात रुक कर ३१ अक्टूबर के दो बजे दिन में हम हवाई जहाज से त्रिवेन्द्रम के लिए रवाना हो गए और १६:२० तक वहाँ पहुंच भी गए । हमारा हवाई जहाज कई मिनटों तक चक्कर लगाता रहा। हम कोवालम बीच के उपर से कई बार गुजरे । यह बताना उचित होगा कि त्रिवेन्द्रम या थिरूअनन्तपुरम केरल की राजधानी होने साथ साथ कोवलम बीच के लिए भी प्रसिद्ध है। पिछली बार त्रिवेन्द्रम कॉलेज टूर में संभवतः 1969 में आया था। तब मध्य पूर्व की नौकरी मे कमाए पैसे केरल आने शुरू नहीं हुए थे। आलीशान मकानों और मॉल, होटल से केरल की जमीन पटी नहीं थी। तब केरल में हर तरफ हरियाली, साफ सुथरे गांव शहर, हर गांव में स्कूल, library ट्रेन से ही दिख जाते थे। केरल ने हमारा मन मोह लिया था तब। अब तो केरल के शहर भी कंक्रीट जंगल में बदल गए है। फिर भी केरल प्राकृतिक सौन्दर्य में अब भी किसीसे कम नहीं हैं। पश्चिमी घाट/ मुन्नार के पहाड़ झरने, चाय बगान, वन्य जीवन और अलेप्पी के हाउसबोट रिसोर्ट मन को मोहने के लिए काफी है। पिछली बार बहुत बड़े लाल केले खाए थे। इस बार कम ही दिखे।

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    हमारा रिसॉर्ट मुन्नार में २०१३ के ट्रिप में

    दो कमरो वाले , हाउस बोट, अलेप्पी

    त्रिवेन्द्रम में होटल STAY क्लियर ट्रिप (CLEAR TRIP) से कॉम्प्लिमेंटरी था। क्लियर ट्रिप से मैंने बहुत सारे टिकट काठमांडू, दिल्ली और इस ट्रिप के लिए टिकट ख़रीदे थे। टैक्सी से हॉटल पहुंचे तो होटल रूम में छोटा किचन देख कर समझ गया लम्बे समय तक रुकने वाले मुसाफिरों के लिए हॉटल या होम स्टे है। शायद कोई और टुरिस्ट अभी ठहरा हुआ भी नहीं था। कमरे अच्छे थे बड़े थे, अलग से बैठक भी थी हर रूम में, पर रेस्टॉरेन्ट नहीं था। सिर्फ चाय और टोस्ट और आमलेट मिलते थे। हॉटल की अच्छी बात यह थी की बीच से 5 मिनट के दूरी पर था और बुरी बात यह थी की ऑटो - टैक्सी मुश्किल से मिलता था।


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    हमारा त्रिवेंद्रम में होटल बेकर्स रिसोर्ट

    पद्मनाभ स्वामी मंदिर

    कमलेश जी ने हवाई अड्डे वाले टैक्सी ड्राईवर से अगले दिन के लिए कन्याकुमारी तक जाने आने के लिए बात पक्की कर ली थी। आज के टाईम में ओला,उबर हमारी टैक्सी की हर जरूरत पूरा कर देता है और अलग से चिंता करने की जरूरत नहीं पड़ती। कोवालम बीच नजदीक था और हम शाम को FRESH हो कर कोवलम घूमने चल दिए। बहुत सुन्दर लम्बा साफ सुथरा बीच था। पैदल चलते चलते हम थक भी गए। हम लोग एक हॉटल के बाहर लगे BEACH FACING कुर्सियों पर बैठ गए और डिनर का ऑर्डर कर प्रतिक्षा करने लगे। जब तक ऑर्डर बन कर तैय्यार होता हम और बीरू जी बगल के एक दो हॉटल देख आए। आश्चर्य जनक रूप से बीच पर ही कई अच्छे होटल में अच्छे रूम खाली मिले वे बहुत किफायति भी थे। हम क्लियर ट्रिप के FREE HOTEL STAY किसी अगले ट्रिप के लिए बचाने का सोचते तो कम पैंसे में ही अच्छे रूम/ होटल और बीच पर रुकने का आनंद ले पाते । रेस्टॉरेन्ट की कमी भी नहीं थी बीच पर। "अब पछताएँ होत क्या जब चिड़िया चुग गई खेत" कहावत चरितार्थ हो रही थी। 

    अटकुल भगवती मंदिर कनककुन्नू पैलेस

  • १ नवम्बर २००९
  • अगले दिन यानि १ नवंम्बर को हम कन्याकुमारी के लिए निकले। कन्या कुमारी की यात्रा पर निकलने से पहले हम त्रिवेन्द्रम में ही दो प्रसिद्ध मन्दिर देख आये। पहला मंदिर था अटकुल भगवती मंदिर। यह मंदिर महिलाओं में ज़्यादा लोकप्रिय हैं। महिलाओं का सबरीमाला भी कहते हैं इसे। ड्रेस कोड या पोशाक की कुछ समस्या हुई पर फिर दीपा अपनी भाभी के साथ अंदर चली गयी और हम पुरुष परिसर के अन्य मंदिरों में दर्शन अर्चना करने लगे। वहाँ से हम प्रसिद्ध पद्मनाभस्वामी मंदिर गए। पद्मनाभस्वामी मंदिर केरल राज्य के तिरुअनन्तपुरम में स्थित भगवान विष्णु का प्रसिद्ध मंदिर है। भारत के प्रमुख वैष्णव मंदिरों में शामिल यह ऐतिहासिक मंदिर तिरुअनंतपुरम के अनेक पर्यटन स्थलों में से एक है। पद्मनाभ स्वामी मंदिर विष्णु-भक्तों की महत्वपूर्ण आराधना-स्थली है। मंदिर की संरचना में सुधार  होते रहते हैं। उदाहरणार्थ 1733 ई. में इस मंदिर का पुनर्निर्माण त्रावनकोर के महाराजा मार्तडं वर्मा ने करवाया था। पद्मनाभ स्वामी मंदिर के साथ एक पौराणिक कथा जुडी है। मान्यता है कि सबसे पहले इस स्थान से  विष्णु की प्रतिमा प्राप्त हुई थी जिसके बाद उसी स्थान पर इस मंदिर का निर्माण किया गया है। तिरुअनन्तपुरम का नाम अनन्त पद्मनाभ स्वामी के कई नामों में से एक पर आधारित है। इस सुन्दर आकर्षक मंदिर के अंदर जाने के लिए पुरुषों के लिए ड्रेस कोड धोती (ऊपर का भाग निर्वस्त्र) और महिलाओं के लिए साड़ी था। ड्रेस कोड का पालन भी कड़ाई से हो रहा था। चूँकि धोती वैगेरह किराये पर मिल रहा था और कपडे बदलने की जगह भी थी। हम ड्रेस बदल कर दर्शन के लिए अंदर गए। दर्शन भी तुरंत ही हो गया। प्रसाद भी अच्छा स्वादिष्ट मिला। मन्दिर परिसर के अन्य मंदिरों का दर्शन कर और आँगन में बैठ कर प्रसाद खा कर हम सभी घंटे भर के भीतर बाहर आ गए और कपडे़ बदल कर कन्या कुमारी के लिए प्रस्थान कर गए ।

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    विवेकानद रॉक और थिरुवलवुर प्रतिमा, कन्या कुमारी गाँधी मंडपम

    कन्या कुमारी में कार थोड़ी दूर पार्क करना पड़ा। हम विवेकानंद रॉक के स्टीमर की लाइन में लग गए। लम्बी लाईन और लाइफ जैकेट के लिए लगी होड़ के बीच भी हम सभी एक ही ट्रिप में जाने में सफल हो गए। फिर मेमोरियल रॉक में जाने के लिए लाइन लगी फिर भी हम ठीक ठाक घूम आये। मैं अंतिम बार १९६९ में कन्या कुमारी, रामेश्वरम होते हुए आया था। तब तमिल के आदि कवि थिरुवालवावूर की काफी ऊँची प्रतिमा नहीं थी यहाँ। इस रॉक से दूसरे जहाज उस प्रतिमा पर जाना पड़ा और फिर जहाज और प्रतिमा के दो लाइनों के जाल में पड़ कर प्रतिमा तक पहुचें। इस बार हम चारो एक जहाज में नही आ पाए और अलग अलग पहुंचें पर प्रतिमा की दुसरी लाइन में एक साथ लग पाए। यहाँ काफी ऊपर तक जाना था आदि कवि के पैरों तक पहुचने के लिए। खैर सब कुछ कर हम लौट पाए। एक कैंटीन मिला जिसमे खाना खा कर हम कुमारी मंदिर देखने गए। कैमरा और दूसरे सामान को जमा करना था और उसमे लाइन लगा था। लाइनों से मैं परेशान था और मंदिर के स्टाफ से बहस हो गयी। कुमारी मंदिर से निकलने पर हम सूर्यास्त देखने की जगह पर गए सभी अपनी अपनी जगह चुन रहे थे। सूर्यास्त की कुछ अच्छी फोटो खींचने में सफल हो पाया। त्रिवेंद्रम लौटने के क्रम में एक बहुत सुन्दर मंदिर (नाम अब याद नहीं रहा) देखते हुए हम होटल पहुँच गए।

  • २ नवम्बर २००९
  • दूसरे दिन हमारा मदुरै का ट्रैन था करीब चार बजे शाम का । हम १० बजे तक चेकआउट कर निकल पड़े और बाकी बचे समय में कनककुन्नू पैलेस म्युजियम देखने गए। बहुत सुन्दर कलेक्शन था इसमें जो कभी त्रावणकोरे राजघराने का एक महल था। इसे श्री मूलम थिरुनल द्वारा निर्मित बताया गया है। बाद में इसका इस्तेमाल त्रावणकोर शाही परिवार ने अपने मेहमानों के मनोरंजन के लिए और उन्हें मांसाहारी भोजन परोसने के लिए किया क्योंकि शाही परिवार शाकाहारी था। यह अब पर्यटन विभाग द्वारा संरक्षित है । महल बहुत सारे सांस्कृतिक कार्यक्रमों और कार्यक्रमों की मेजबानी करता है। इंडियन नेशनल ट्रस्ट फॉर आर्ट एंड कल्चरल हेरिटेज (INTACH) ने इस स्थान को एक विरासत स्मारक के रूप में सूचीबद्ध किया है। हम ११ बजे तक रात तक मदूरै पहुचें और होटल स्टार में रुके। बहुत आरामदेह होटल था। अगले दिन रामेश्वरम के लिए टैक्सी पहले ही बुक रखा था। हम खाना खा कर सो गए।

  • ३ नवम्बर २००९
  • रामेश्वरम

    हम लोग सवेरे ही निकल पड़े रामेश्वरम मन्नार की खाड़ी में स्थित पामबान द्वीप में हैं। समुद्र में बने पाम्बन पूल पर रुक कर हमने मन भर फोटो खींचे। १९६९ में जब कॉलेज के टूर में यहाँ ट्रेन से आये थे तो बड़े बड़े कछुए को स्टेशन पर चेन्नई ले जाने के लिए रखे देखा था। आश्चर्य चकित थे कि कछुए का मांस भी खाते है,लोग। रामेश्वरम मंदिर १२ ज्योतिर्लिंगों में से एक है। और मान्यता है कि जब श्री राम श्रीलंका सीता जी के खोज में श्री लंका जा रहे थे तब उन्होंने समुद्र ने रास्ता माँगा था। जब कई बार कहने पर समुद्र ने रास्ता नहीं दिया तब श्री राम अपने वाण से समुद्र को सूखा देने को उद्यत हो गए। तभी समुद्र ने प्रकट हो समुद्र की मर्यादा की याद दिला कर उनसे नल- नील के सहायता से पुल बना कर जाने की प्रार्थना की। वहां से आगे जाने के पहले बालू का शिव लिंग बना कर श्री राम ने यही उपासना की थी। इस कारण इसे रामेश्वरम महादेव कहते है। यह चार धामों में (अन्य है बद्रीनाथ, जगन्नाथ पुरी और द्वारका) से एक है।

    इंदिरा अन्ना पम्बान सेतुहजार खम्भोंवाला गलियारा
    गन्दमादन/रामझरोखा लक्ष्मण तीर्थ

    हम लोग मंदिर के २२ कुंडो में नहाऐ। फिर दर्शन पूजा करने के बाद एक चबुतरे पर एक पंडित जी की सहायता से अभिषेक किया और बाहर आ गए । मंदिर का ४००० फ़ीट लम्बा गलियारा दुनिया का सबसे बड़ा गलियारा है । नजदीक के एक होटल में कुछ घंटे के लिए एक रूम सुविधा के ले लिया और लंच ले कर थोड़ा घूमने निकल पड़े। लक्ष्मण मंदिर, राम झरोखा देखने गए और देर शाम होने पर मदुरै के लिए चल पड़े।

  • ४ नवम्बर २००९
  • मदुरैमदुरै में मिनाक्षी मंदिर ही देखना मुख्य कार्य था। यह सुन्दर मंदिर हम दो तीन बार पहले भी आ चुके थे। पहले के ट्रिप की कई यादें है । किसी मारवाड़ी भोजनालय में पहले खाना खाया था। होटल वाले का आत्मीयता से से गरम गरम रोटियां रोटियां खिलाना हम बारबार अब भी याद करते हैं। मंदिर में ज्यादा भीड़ नहीं थी। मंदिर के चारो तरफ परिक्रमा हमने इलेक्ट्रिक रिक्शा से की। टैक्सी मन्दिर से दूर खड़ा करना पड़ा था। मंदिर का तालाब, १०० खम्भो वाला मंडपम, शिव के सात और शक्ति के आठ अवतारों के मंडप, मिनाक्षी अम्मान (पार्वती) और सुन्दरेश्वर (शिव) के लिए बने झूले भी देखे। संगीत वाले खम्भे, खम्भों पर उकेरी मुर्तियां देखते हुए कब शाम हो गयी पता नहीं चला।


    मिनाक्षी मंदिरहोटल स्टार मदुरै

  • ४- ५ नवम्बर २००९
  • हम रात ८:४५ बजे मदुरै से पांडियन एक्सप्रेस से चल कर अगले दिन ७:१० बजे सुबह चैन्ने पहुंच गए। और रात ८:१० बजे इंडिगो के फ्लाइट से दिल्ली के लिए निकल पड़े फिर वह से काठमांडु गए और कुछ दिनों बादं रांची लौटे।

    Wednesday, November 25, 2020

    छठ पूजा की यादें


    छठ पूजा के बारे में लिखने के पहले कुछ बातें बताना जरूरी है मेरे उन पाठकों के लिए जो इसके बारे में जानना चाहते है। इस पर्व को महापर्व भी कहा जाने लगा है जो एकदम सटीक है। बिहार के गांवो में इसे सिर्फ 'परव' या 'परवा' भी कहते है और इसे करने वाले को परवैती। बिहार, झारण्ड, पुर्वी  UP, बंगाल में तो लोग इस पूजा को करते ही है पर बिहारी लोग जहाँ जहाँ जीविका कमाने गए अपने साथ इस पर्व को भी ले गए। इस पर्व की तैय्यारी दिवाली से ही शुरु हो जाती है। घर की सफाई पुताई के बाद घर में लहसुन प्याज मिश्रित खाना नहीं बनता है। भारत में तो सभी राज्यों में इसे मनाते ही है  मोरिशस, अमेरिका में गए बिहारियों ने यह TRADITION वहाँ भी बनाए रक्खा है। ये पूजा 4 दिनों में सम्पन्न होता है। पहला दिन कार्तिक महीने के शुक्ल पक्ष चतुर्थी को नहाय खाय या कद्दु (लौकी, BOTTLE GOURD) भात के शुरु होता है जब परवैती नहा कर अरवा चावल, चना दाल और कद्दु की सब्जी और अन्य चीजें खा कर अपना निर्जल उपवास शुरू करते है। सारा खाना बिना लहसन प्याज का और सेंधा नमक (ROCK SALT) में बना होता है। अगले पंचमी के दिन खरना होता है। परवैति शाम के समय अकेले कमरे में पूजा करते है,  गुड़ की खीर रोटी का भोग लगाते है। किसी किसी परिवार में  नमकीन भोग भी लगाया जाता है। घर के सभी लोग और मित्र गण परवैती को प्रणाम कर प्रसाद ग्रहण करते है। इस प्रसाद ग्रहण के बाद परवैति पर्व खत्म होने तक निर्जल उपवास रखते है।


    खरना और कद्दु भात
    अगले दिन षष्ठी के पूरे दिन ठेकुआ प्रसाद शुद्ध तरीके से आटा, गुड़, घी से बनाया जाता है और बनाने वाले भी बनने तक उपवास रखते है। छठ के समय तरह तरह के फल जैसे शरीफा, पानी फल सिंघारा, सुथनी, पत्ते सहित मूली, गाजर, हल्दी, नारियल, केले का घौद, डाफ निम्बू, गन्ना, सुपारी इत्यादि से बाजार पट जाता है. और इन फलों को भी सूप पर ठेकुआ के साथ सजाते हैं. ठेकुआ की तरह दिखने वाले चीनी के बने सांचे भी सूपों पर सजाए जाते है। शाम के पहले डलिया, सूप प्रसाद के साथ तैय्यार करते है और नदी, तालाब, समुद्र, घर में बने हौदे पर परवैति नहा कर सूप को डूबते सुर्य के तरफ उठा कर अर्चना करते है सभी जन सूप के आगे जल या दूध गिरा कर अर्ध्य देते है। चौथे या पर्व के अंतिम दिन सुबह इसी विधि से उगते सुर्य को अर्ध्य देते है फिर परवैति प्रसाद पारन कर पर्व का समापन करते है।   

    छठ का बजार छठ का सजा सूप
    छठ का घाट हमारी दादू

    मेरे लिए छठ पूजा की यादों में जमुई में बिताया छठ पूजा एक स्वर्ण बिंदु की तरह हैं. बचपन में दादू (मेरी प्यारी करुणामयी दादी) छठ करती थीं. छठ के लिए बनने वाले ठेकुआ के लिए आटा पिसवाना पहला काम होता था. गेहूं को धो कर छत पर सुखाया जाता था. हम बच्चे गेहूं की रक्षा चिड़िया और लंगूरों से करते थे. फिर एक दिन सोनिया माई ( उनकी बड़ी बेटी का नाम सोनी था) आ कर गेहूं ले जाती और जांते में पीस कर दे जाती थी. बचपन में घर में होने वाले कद्दू भात और खरना का अब याद नहीं. ठेकुआ, चावल का लड़ुआ बनने की याद हैं. प्रसाद बनाने वाले लोग भी उपवास में रह कर ही प्रसाद बनाते। मिट्टी के एकछिया चुल्हे पर आम की लकड़ी जला कर प्रसाद बनाया जाता। हम दो दिन के बाद मिलने वाले प्रसाद की कल्पना में डूब जाते. तरह तरह के फल आते, घर के पेड़ों के अमरुद तब तक तोड़ने की मनाही रहती जब तक छठ में अमरुद प्रसाद की तरह चढ़ नहीं जाते. ज्यादा याद किउल नदी में जाने की हैं. पहली बार छठ में ही स्वैटर निकलता था और हम पैदल हाई स्कूल होते हुए छठ के डलिया, सूप मे सजे प्रसाद के साथ किउल नदी के किनारे जाते और बेखौफ छिछली नदी में प्रवेश कर जाते। नदी का तल बालू का है और स्वच्छ पारदर्शी पानी है इस नदी का। नहाने के लिए बालू खोद कर गढ्ढ़ा बनाया जाता। भाटचक (हमारे खेत वाला गांव) से कोई न कोई मजदूर मदद के लिए आ जाते थे। कभी कभी दूसरे किनारे या बीच में ऊभर आए बालू के बन गए द्वीप पर भी छठ का डलिया रखे जाते।


    कई द्वीपों वाली किऊल नदी छिछली किऊल नदी में छठ

    दादू जब छठ करने में असमर्थ हो गईं  तो हमारा छठ भी सोनिया माई करने लगी। सोनिया माई हमारे यहाँ सत्तु वैगेरह दे जाया करती थी और पारिवारिक सम्बन्ध था हमारे बीच। इस समय नारदीह गांव से मरूवन मदद करने आ जाते। अपनी अंतिम समय तक उन्होनें हम लोगों की सेवा की। सोनिया माई हमारे घर से गेहूँ या उसको खरीदने के लिए पैसे ले जाती और छठ पूजा में चढ़ने वाला प्रसाद उनके घर में ही बनता था । हमारे घर में भी ठेकुआ बनता जिसे अमनिया प्रसाद कहा जाता। हम बच्चे ठेकुआ को सांचे पर ठोकने का काम मजे ले कर कर देते। यह प्रसाद छठ के बाद बांटने, खाने के लिए उपयोग में आता । सिर्फ अमनिया प्रसाद ही नमकीन चीजों या अचार के साथ खाया जाता। खरना के रात में घर से मै, कवलेश चाचा और कोई वयस्क खेतों के बीच से होकर सोनिया माई के यहाँ जाते, यह एक बहादुरी का काम होता। एक दो बार सोनिया माई ने,अपने घर के नजदीक वाले एक तालाब में भी छठ का सूप उठाया था पर यह कियुल नदी में होने वाले छठ की तरह सुविधा जनक नहीं था। पटना में पढ़ने के समय मैने तीन साल पटना गंगा किनारे के छठ का आनन्द भी उठाया था। स्कूल के समय कलटरी / अन्टा घाट की छठ पूजा देखने गए थे। गंगा में पानी ज्यादा था और मै नदी में उतरने में हिचकिचा रहा था। कालेज के समय एक साल तो सूबह के अर्ध्य के बाद हॉस्टल के गेट पर एक चौकी रख कर प्रसाद इकट्ठा किया और एक वर्ष नाव से घाट घाट घूम कर।
    माँ ने बाद में छठ करना शुरु किया और हमारा कियुल में छठ का सिलसिला चलता रहा। राँची में छठ की निरंतरता बनाए रखने के लिए हमारा छठ लक्ष्मी (हमारी कामवाली) कर देती है। अक्सर डोरन्डा बटम तलाब में सूप उंठाती है पर दो साल स्वर्णरेखा के तट पर भी सूप उठाई। पानी तो कम था पर पथरीली नदी में कियुल जैसा आनन्द नहीं आता है।

    छठ रांची में -स्वर्ण रेखा और बटन तालाब (डोरंडा)
    अगले ब्लॉग में श्री लंका यात्रा के बचे भाग के बारे में लिखूँगा. आशा हैं आप पढ़ेगे

    Sunday, November 15, 2020

    श्री लंका #यात्रा 2009

    18 मई 2009 को श्री लंका का गृह युद्ध समाप्त हो गया। जब थोड़ी शांति स्थापित हो गई तो श्री लंका भारतीय पर्यटकों के लिए धीरे-धीरे खुलने लगा था। मेरा रिटायरमेंट भी अगले साल ही था। LTC ले कर कहीं घूमने का अंतिम मौका। कोई नई अनोखी जगह घूमने की इच्छा हमारे मन में घुमड़ने लगी थी । हमारा (मेरा और पत्नी जी का) WANDERLUST- भ्रमण लालसा बहुत समय से परेशान भी कर रही थी। किसी पड़ोसी देश (मेरे ससुराल नेपाल को छोड़ कर) जहाँ वीसा का झंझट न हो घूम आने के विचार मेरे मन में आने लगे थे। मलेशिया, थाईलैन्ड या सिंगापुर ? अपने कई यात्राओं के साथीे रहे दीपा और कमलेश जी (मेरी छोटी बहन और बहनोई) से विचार करना उचित समझा, वे सहर्ष साथ चलने को तैय्यार और उत्साहित थे। उन्होंने हाल ही में सिंगापुर और मलेशिया की यात्रा की थी ऐसे में श्री लंका जाना ही उचित लगा। दुर्गा पुजा छठ के बाद ही कहीं जाना है यह निश्चित किया गया। सितंबर में दुर्गा पूजा और अक्टूबर में दिवाली और छठ के बाद का प्रोग्राम बनने लगा और हम श्री लंका के लिए TOUR PACKAGE ढूंढने लगे । अक्षय इन्डिया टूर्स, चैन्नै के हरिबाबू ने करीब 20000/- प्रति व्यक्ति का पैकेज का ऑफर विस्तार में भेजा। कमलेश बाबु ने फोन पर मुझसे कहा कि "मोल भाव का काम आप मुझ पर छोड़ दीजिए" । चूंकि वे चैन्नै में ही थे और हरिबाबू से तमिल में भी बात कर सकते थे उनके प्रयत्न से बात कुछ रु13750/- PP पर फाईनल हो गया। 3 रातों और 4 दिनों का प्रोग्राम था। चैन्नै कोलम्बो का वापसी का हवाई जहाज का टिकट, 3 स्टार होटल डिनर और नाश्ता INCLUDED. सिर्फ जगह जगह ENTRANCE FEE हमें देने थे। कुल चार लोग थे हम लोग इससे अच्छा 'डील' क्या मिलता ? अब तो टूर आपरेटर बहुत ज़्यादा मांगते हैं। तब उत्तरी श्री लंका पर्यटको के लिए खुला नहीं था। और श्री लंका के लिए टूरिस्ट भी कम ही थे। किफायती पैकेज टूरिस्ट्स को लुभाने के लिए थे। खैर 27 से 30 अक्टूबर का टूर बुक कर लिया गया। हम चारो वापसी के बाद के SOUTH INDIA टूर का भी प्लान बनाने लगे। लौटते में दिल्ली होते काठमांडु भी जाना था इस लिए घूमने के,लिए समय सीमित थे। मैने एलटीसी त्रिवेन्द्रम तक के लिए लिया था। अतः कोलम्बो से चैन्ने वापस पहुंच कर त्रिवेन्द्रम तो जाना ही था। कमलेश,दीपा ने कन्या कुमारी, मदुरई और रामेश्वरम भी जोड़ दिया ।


    टूर एजेन्ट का श्री लंका यात्रा के लिए अंतिम ऑफर मिलने के बाद हमने पैकिंग शुरू कर दी और फिर रांची से इंटरसिटी ट्रैन से २६-१०-२००९ के सुबह ही हावड़ा के लिए निकल पड़े और कोलकता से चेन्नई की फ्लाइट लेकर रात तक चेन्नई पहुंच गए।

    श्री लंका का यात्रा वृतान्त इस ब्लॉग में दे रहा हूँ। बाँकी यात्रा का वृतान्त अगले ब्लॉग में।
  • २७ अक्टूबर २००९
  • एयर इंडिया एक्सप्रेस की उड़ान से हम चेन्नई से कोलोंबो के लिए रवाना हुए और ९ बजे सुबह वहाँ पहुंच भी गए। बर्ड फ़्लु फैला था इसलिए मेडिकल चेक अप कराने के बाद ही वीसा स्टाम्प मिला। भारत के किसी मोबाइल कम्पनी का सिम यहाँ चल नहीं रहा था और पहुंच कर ट्रेवल एजेंट से बात नहीं कर पाए अत: थोड़े चिन्तित थे, पर बाहर निकलने पर अपने नाम का प्ले कार्ड लिए टैक्सी वाले को देख कर चैन आया। SUV ले कर मालिक ही आया था। चार लोगों के लिए गाड़ी बहुत आरामदायक थी । पता चला सारे समय इसी गाड़ी से घूमना है। सबसे पहले हम एक टेलीफोन बूथ पर गए। STD बूथ तब वहाँ होते थे। पहले अपने बच्चों को फ़ोन किया। फिर DIALOG कम्पनी के दो टेम्पररी सिम कार्ड ले लिया। हर INDIA कॉल ISD कॉल होता था और काफी पैसे काट जाते थे पर फिर भी टेम्पररी सिम कार्ड काफी उपयोगी था। यहाँ पता चला भारतीय रूपये की UNOFFICIAL EXCHANGE RATE ज्यादा थी और जगह जगह ऐसी UNOFFICIAL सुविधा उपलब्ध भी थी। सबसे पहले हम पिनावाला हाथी अनाथालय गए। यह अनाथालय 1975 में वन्यजीव संरक्षण के लिए श्रीलंकाई वन विभाग द्वारा स्थापित किया गया था, जो कि हाथियों के अनाथ बच्चों को खिलाने, देखभाल करने के साथ अभयारण्य प्रदान करता था। अनाथालय विल्पट्टू राष्ट्रीय उद्यान में स्थित था, फिर बेंटोटा में पर्यटक परिसर में स्थानांतरित कर दिया गया। यह बेन्टोटा नदी के किनारे स्थित था। शायद इसे अब कहीं और स्थानान्तरित कर दिया गया है। कई हाथी के बच्चे जो गृह युद्ध के समय बिछाये बारूदी सुरंगों के चपेट में आ कर अनाथ या अपाहिज हो गए थे उन्हें यहाँ रक्खा गया था। अमिताभ बच्चन की फिल्म सूर्यवंशम के कई दृश्य की शूटिंग भी यहाँ हुई है। कई अनाथ या घायल हाथी को देख कर दिल पसीज गया। एक हाथी के एक पैर ही नहीं था। दोपहर में पास के रिवर व्यू रेस्टोरेंट में खाना खाया और हाथियों के समूह को नदी में नहाते देखा, और आनंद भी लिया। लंच के बाद हम कैंडी के लिए निकल पड़े। रास्ते में एक हर्बल गार्डन भी गए और कई मसलों और अन्य हर्ब्स की खेती भी देखी। कुछ खरीदारी भी की हमने। चाय पी कर आगे के लिए चल पड़े।
    पिनावाला हाथी अनाथालय बेन्टोटा नदी के किनारे रिवरव्यू रेस्टरान्ट


    कैंडी हम शाम तक पहुँचे। हमारे होटल का नाम था (THE SWISS RESIDENCE) द स्विस रेजिडेंस होटल । एकदम एक पहाड़ी के उपर था। सीधी खड़ी चढ़ाई वाला DRIVEWAY से जाना था, हम डर रहे थे पर एक्सपर्ट ड्राइवर ने ठीक ठाक गाड़ी चढ़ा ली। बहुत अच्छा होटल था रूम भी अच्छा, नजारा भी अच्छा। स्विमिंग पूल भी था। कैन्डी लेक के पास के बस स्टॉप से हॉटल का ड्राइव वे था। कैंडी लेक के पास है सुइसे होटल जिसका अपना एक दिलचस्प इतिहास हैं। 1880 के दशक की शुरुआत में इस इमारत पर कैंडी क्लब का कब्जा था। 1887 में, क्लब ओरिएंट बैंक द्वारा खाली की गई एक इमारत में चला गया, बाद में यह क्वीन के होटल का हिस्सा बन गया। 1924 में इस इमारत का अधिग्रहण एक स्विस महिला, जीन लुइसा बर्ड्रॉन ने किया था, जिसने होटल बनने से पहले इसे गेस्ट हाउस के रूप में संचालित किया था। द स्विस रेजिडेंस होटल के खाना में इतनी वेराईटी थी और इतना स्वादिष्ट था, हम CHEF को बुला कर उसका धन्यवाद करना नहीं भूले।
    होटल स्विस का लेक से ड्राइव वे स्विस रेजिडेंस होटल का स्विमिंग पूल

    कैंडी शहर एक मानव निर्मित झील के चारो तरफ़ बसा है। सबसे पहले हम एक सांस्कृतिक कार्यक्रम देखने गए। बहुत श्री लंका के बहुत सारे लोक नृत्य और करतबों से सजा प्रोग्राम बहुत पसंद आया। कुछ नृत्य भरत नाट्यम जैसे लगे। बस मज़ा आ गया और हम अभिभूत हो गए।
    रात में ही बुद्ध के पवित्र दंतावशेष मंदिर देखने गए। शानदार नक्काशी और चित्रों से सजे गलियारों वाला यह मंदिर मन मोह गया। किंवदंती के अनुसार, गौतम बुद्ध के परिनिर्वाण के बाद, दांत के अवशेष को कलिंग में 800 वर्ष तक सुरक्षित रखा गया फिर जब दो पड़ोसी राज्य इस दंतावशेष के लिए युद्ध के लिए उद्यत हो गए तब अपने पिता राजा महाशिव के निर्देश पर राजकुमारी हेममाली और उनके पति, प्रिंस दंथा द्वारा इसकी तस्करी की गई थी। वे अनुराधपुरा (301-328 CE) के सिरिमेघवन के शासनकाल के दौरान लंकापट्टन में द्वीप पर उतरे और दांत अवशेष सौंप दिए। मंदिर में बुद्ध भगवान के दन्तावशेष के दर्शन 8-8:30 बजे रात तक हुए। रात में स्विस हॉटल में बहुत ही स्वादिष्ट भोजन खा कर हमनें SEMI PRECIOUS रत्नों की होटल के शॉप में ही खरीदारी की और रात में हॉटल के आसपास का नज़ारा देख कर सो गए।
    दन्तावशेष मंदिर का गलियारा कैंडी में संस्कृतिक कार्यक्रम
    बुद्ध की विशाल प्रतिमा कैंडी का एक विहंगम दृश्य

  • २८ अक्टूबर २००९
  • दूसरे दिन कैंडी के अन्य आकर्षणों जैसे विशालकाय बुद्ध प्रतिमा, शेषनाग के फ़न के नीचे बुद्ध की मूर्ति वैगेरह देख कर हम बोटैनिकल गार्डन गए और कई आश्चर्यजनक पेड़, फूल, ग्रीन हाउस देखा। कैनन बाल ट्री भी यहीं देखा। बोटैनिकल गार्डन से हम नुवारा-एलिया के लिए चल पड़े। पहला पड़ाव था रम्बोदा झरना यहाँ हम एक ही जगह से तीन झरने देख सकते थे। फिसलन वाले चिकने रास्ते से किसी तरह नीचे स्थित रेस्टारेन्ट तक उतर कर हमने लंच लिया और झरनो का आनंद उठाया। नैसर्गिक दृश्य देख सभी कैमरों में व्यस्त हो गए। श्री लंका में करीब 100-105 छोटे बड़े झरने है। बहुत सारे हमें रास्ते में ही मिल गये। और हम गाड़ी में बैठे बैठे ही या कहीं कहीं गाड़ी से उतर कर देखते फोटो लेते और आगे बढ़ जाते।
    कैनन बाल ट्री, बोटोनिकल गार्डन में रामबोदा झरना (३५८ फ़ीट), तीन झरने एक साथ

    हम एक चाय की फैक्ट्री में भी रुके, उत्तमता के अनुसार तरह तरह के ग्रेड में छटाई देखी।पता चला की हम रोज़ाना जो महंगा वाला ग्रीन लेबल चाय पीते है या ज्यादातर होटल्स में पिलाते हैं वह ऊपर के स्तर का नहीं बल्कि एक औसत स्तर की चाय है। सबसे उत्तम स्तर वाले तो निर्यात ही होते है। हमने फ्री वाली एक एक चाय का भी यहाँ आनन्द उठाया। चाय की फैक्ट्री के बाद हम बिना रुके चलते चले गए और शाम तक नुवारे एलिया पहुँच गए। यह ६००० फीट की उचाँई पर बसा एक एक हिल स्टेशन है और चाय बागानों का इलाका हैं।
    मैकवुड्स टी एस्टेट डावोन झरना,लंका की सबसे ऊँचा (९२५फ़ीट)

    नुवारे एलिया में बहुत पुराने होटल एंड्रयूज (ESTT. 1875) में हमारा बुकिंग था पर होटल में रूम से ज़्यादा बुकिंग थी और कोई रूम रात तक खाली नहीं होने वाला था। हम लोग जब तक प्रतीक्षा कर रहे थे, बहुत उम्दा राइस सूप होटल के तरफ़ से परोसा गया। पर जब उन्होंने रूम के लिए मना कर दिया हम निराश हो गए, तेज बारिश भी होने लगी हॉटल के फोटो भी हम खींच नहीं पाए। हमारे ड्राइवर साहब जो हमारे टूर ऑपरेटर भी थे एक दूसरे होटल में बुकिंग करवाई। नाम था गलवाय फारेस्ट लॉज। नाम सुन कर लगा बहुत साधारण सा हॉटल होगा। काफ़ी दूर भी था शहर के बाहर लेकिन जब हम होटल पहुँचे तो पाया की सिर्फ़ नाम में लॉज लगा है पर होटल 3 स्टार है। बहुत ही आरामदेह रूम थे। खाना नाश्ता भी स्वादिष्ट था। शाम को हम थोड़ा घूमने निकले। लेक और एक मार्किट तक गए। ठण्ड थी कुछ कपडे और जैकेट भी ख़रीदे। हमारा ड्राईवर बहुत मन लगा कर घुमा रहा था और उसनें घुमाने में कोई कंजूसी नहीं की ।
    होटल एंड्रयूज Est: 1875 गलवाय फारेस्ट लॉज
    ग्रेगोरी लेक, नुवारे एलियाटी गार्डन, गलवाय फारेस्ट लॉज के नजदीक

    नुवारे एलिया के ठन्डे मौसम का मजा लेने के बाद हम लोग सुबह लजीज़ नाश्ता कर एक चाय बागान देखते हुए कोलोंबो के लिए निकल पड़े। लम्बा रास्ता था। रास्ते में एक ग्राम देवता का मंदिर और एक अय्यप्पा मंदिर, सबसे ऊँचा डावोन झरना, और सबसे चौड़ा सेंट क्लेयर्स फाल्स देखा, रास्ते में लंच खाया और शाम तक कोलोंबो पहुंच गए। सीता मन्दिर जो टूर के ईटिनियरी में था, कहीं नहीं दिखा।
    संत क्लारा फाल्स (सबसे चौड़ा झरना) कोलोंबो के रास्ते में लंच

    यहां श्री लंका के सबसे पुराने होटल ओरिएण्टल ग्रैंड (१८७५) में कमरा बुक किया गया था। कोलोंबो हारबर के ठीक सामने था यह होटल।हार्बर के मनोरम दृश्य को कैमरा में कैद करने को हमने अपने अपने कैमरे निकल लिए थे पर वहां खड़े गॉर्ड ने रोक दिया, हार्बर का फोटो खींचना सख्त मना था। होटल के रूम ठीक ठाक थे। आशा से थोड़ा कमतर थे क्योंकि बाहर से होटल शानदार दिख रहा था। कैंडल लाइट डिनर लेने हम जब शानदार डाइनिंग रूम में गए तो हार्बर के आश्चर्यजनक सुंदर दृश्य ग्लास के बड़ी सी दिवाल से दिखने लगे।
    ग्रैन्ड ओरियेन्टल हॉटल-1875 ग्रैन्ड हॉटल के प्रवेश के पास

    हमने यहां से मोबाइल से ही चुपचाप फोटो लेने की सोची। पर फिर स्टुअर्ड ने रोक दिया। शायद पेन वाला कैमरा लाते तो वीडियो चुपचाप ले लेते। दूसरे दिन चेन्नई का फ्लाइट दोपहर का था। और घूमने के लिए आधा दिन ही था। हम उस समय का उपयोग स्वंतंत्रता स्मारक, भंडारनायके केंद्र और टाउन हॉल देखने में किया। स्वंतंत्रता स्मारक में बहुत बारीक एनग्रेविंग देखने को मिला। यह १९४८ में अंग्रेजो से श्री लंका के स्वतंत्रता को स्मरण करने के लिए बनाया गया है । भंडारनायके अंतर राष्ट्रीय सम्मेलन केंद्र १९७०-७३ के बीच चीन के सहयोग से बनाया गया है और इसमें ज्यादातर निर्माण सामग्री चीन से ही लाया गया था। यहां बाहुत सारे सम्मलेन, आयोजन होते हैं और प्रदर्शनी भी लगाए जाते है। कोलोंबो अंतर्राष्ट्रीय पुस्तक मेला,कोलोंबो शॉपिंग मेला यहीं आयोजित किये जाते हैं। टाउन हॉल में कोलोंबो म्युनिसिपल कौंसिल और मेयर के कार्यालय है,
    टाउन हॉल, कोलोंबो स्वतंत्रता स्मारक, कोलोंबोभंडारनायके केंद्र, कोलोंबो

    घूम घाम कर हम कोलोंबो हवाई अड्डे गए और चेन्नई की वापसी का फ्लाइट ले ली। एयर पोर्ट पर ड्यूटी फ्री से जॉनी वाकर ग्रीन लेबल के तीन बोतल खरीदना हम नहीं भूलें। कुछ डॉलर फिर भी बच गए।चेन्नई पहुंचने के बाद हमने अगले ही दिन आगे की यात्रा यानि थिरुअनंतपुरम, कन्याकुमारी, रामेश्वरम और मदुरै के लिए निकल पड़े। उसका वर्णन अगले ब्लॉग में दे रहा हूँ।

    Friday, October 30, 2020

    दुर्गा पूजा - तीन शहरों की।

    क्रम-सूची
    {जमुई की दुर्गा पूजा } {पटना की दुर्गा पूजा }{राँची की दुर्गा पूजा }

    जमुई की दुर्गा पूजा
    पंच मन्दिर, पुजा जमुई 2018महादेव सिमरिया


    दशहरा पूरे भारत में किसी न किसी रूप में मनाया ही जाता है। कहीं डांडियाँ खेल कर कही दशहरा में रावण जला कर और कहीं ढ़ाक के थाप पर नाचते माँ की आरती उतार कर। मुझे चार पाँच जगहों के दशहरों की याद है। सबसे पहले मैं बचपन में मनाए दशहरे की बात करूंगा। तब दशहरे का उमंग और उल्लास कई दिन पहले से शुरु हो जाता था। खास कर हम बच्चों में। सबसे पहले वासुदेव जी के दुकान से कपड़े के थान साड़िया वैगेरह मंगाई जाती। वासुदेव जी के यहाँ से ही सारे कपड़े खरीदे जाते। कभी पूजा के लिए या किसी कारण वश कोई भी कपड़ा चाहिए जा कर कोई भी ले आता और वासुदेव जी हिसाब में लिख लेते। तब घर की महिलाऐं बाजार नहीं जाती थी और कपड़े के थान के थान और साड़ियों के बण्डल वासुदेव जी घर ही भेज देते ताकि कपड़े महिलाऐं पसन्द कर सके। हम सब भाई बहनों के कपड़े एक थान से ही सिले जाते जिसे हम सब दशहरे में एक स्कूल ड्रेस की तरह पहनते। सारे कपड़े पारिवारिक दर्जी हलीम मियाँ ही सिलते और घर ही आ जाते नाप और कपड़ा लेने, इसी से कपड़े के design /style भी एक जैसे ही होते। घर में काम करने वाले नौकर, रसोईए, दाई और कमपाउन्डर साहब के लिए भी कपड़े खरीदे जाते। कुछ सामान जैसे कपड़े स्टेशनरी (आने वाले दावात पूजा के लिए) वैगेरह 'जगाए' जाते, यानि एक बिछावन पर रात भर रख दिए जाते जो दिवाली और भाई दूज के समय ही उपयोग में लाए जाते।



    रिबन फटाकालकड़ी के खिलौने


    जमुई एक तब छोटा subdivisional शहर था। दुर्गा जी की प्रतिमा पूरे ईलाके में सिर्फ चार जगह ही,बनते थे जिसमें दो प्रतिमा जमुई शहर में और बाकी दो करीब 9 कि.मी. radius में पड़ने वाले रजवाड़े खैरा और परसन्डा (गिद्धौर) में बनते थे। गिद्धौर महराज चन्देलों के अंतिम राजा हुआ करते थे। मेरे दादा जी गिद्धौर महाराज के ही वकील थे और local court से ले कर privy council तक गिद्धौर राज को represent करते थे। जाहिर है इन पूजा मेलों में 20-30 km दूर के गाँवों से काफी भीड़ इकठ्ठा होती थी। छोटे बच्चे अपने पिता के कन्धों पर चढ़ कर मेला घूमते। जमुई में हम जब भी मोड़ पर स्थित पंजाबियों के परचून दुकान तक जाते, दस कदम आगे बनने वाले हटिया वाली दुर्गा जी के प्रतिमा की स्थिति जरूर देख आते। कभी सब्जी की हाट थी और यहाँ की दुर्गा पूजा को हटिया की पुजा कहते है, अभी भी।  हम बड़ी बेसब्री से षष्ठी का इंतजार करते जब प्रतिमा पूजा के लिए तैय्यार हो जाती थी । तरह तरह के खिलौना पंजाबी दुकान में मिलने भी लगते थे और बन्दर वाला खिलौना छोटा वाला फिटफिट आवाज़ वाला खिलौना सिटी वैगेरह ललचाते। कुछ पैसे मिलने से खरीद भी लेते। पूजा के लिए रेवड़ी, मिठाई, फूल माला वैगेरह के साथ झाप (रंगीन कागज से बने मंदिर की आकृति ) भी मिलने थे तब। झाप वैगेरह अब नहीं मिलते। असली मेला पचमंदिर में लगता था जहाँ बहुत भीड़ होती थी।



    पंच मंदिर मेला 2018मलेपुर (जमुई स्टेशन) पंडाल


    कई दुकानें लग जाती मिठाई और खिलौना हमें पसंद आता था। कठघोड़वा (Merry go round) और तारा माची (Small wheel) में घूमना भी अच्छा लगता था। दादू ( मेरी दादी ) के साथ मेला घूमने में बहुत अच्छा लगता था। जो भी मांगता वह खरीद देती या पापा या माँ से खरीदवा देती। नवरात्री में लगभग प्रति दिन सरदारी हलवाई या बंगाली दुकान से मिठाई   खरीदी जाती। वैसी मिठाईयॉ भी इनदिनों मिलती जो अन्य दिनों में नहीं बनती जैसे लवंगलता, खाजा,इमरती, लाल मोहन, बारा या बालुशाही, क्रीम चॉप, मुरब्बा वैगेरह। दशमी आते आते मिठाई खा खा कर हम अघा जाते ।


    मिठाइयांकाली मंदिर जमुई स्टेशन 
    क्रम-सूची

    पटना की दुर्गा पूजा

    दूसरा शहर जहाँ की दुर्गा पूजा मैंने देखी है वह है पटना का। जमुई में सिर्फ दो पन्डाल बनते यहाँ हर मोड़ पर छोटे पन्डाल और कहीं कहीं बड़े पन्डाल लगते थे। लंगरटोली, मछुआटोली, नाला रोड, राजेन्द्र नगर, हार्डिंग पार्क, गर्दनीबाग, कंकड़बाग, मारूफगंज वैगेरह के पंडाल प्रसिद्ध थे। पटना की पूजा बहुत अलग होती थी। सुन्दर पंडालो के अलावा मुख्य आकर्षण था नृत्य संगीत का कार्यक्रम जो जगह-जगह होता था । पटना शहर में 60-70 के दशक में दुर्गा पूजा के दौरान सांस्कृतिक मामलों को धार्मिक आस्था के साथ जोड़ने का प्रयास किया जाता था. जिन विभूतियों के कला काो हमने आनंद लिया उनके नाम है शहनाई वादक उस्ताद बिस्मिल्लाह खान, सितार वादक उस्ताद विलायत खान, वायलिन वादक वीजी जोग, नृत्यांगना सितारा देवी, और फिल्म उद्योग के महान गायकों का को भी सुना, जैसे कि तलत महमूद और मन्ना डे ।


    उस्ताद बिस्मिल्लाह खान कथक क्वीन सितारा देवी 


    कालेज के पांच सालो में से तीन साल की दुर्गा पूजा छुट्टी हमने पटना में बिताई थी। 4 दिनों के नृत्य संगीत का कार्यक्रम देखना एक जरूरी past time था । एक साल हमने शाम में मारुफगंज में इस्माइल आजाद की कव्वाली का (वो कव्वाली "हमें तो लूट लिया मिल के हुस्न वालों ने" अभी तक याद हैं ) लगंरटोली में वी जी जोग की वायलिन वादन का, नाला रोड में मन्ना डे के हिन्दी/ बंगला गानों का, हार्डिन्ग पार्क में सितारा देवी के नृत्य का और गर्दनीबाग में विसमिल्ला खां के शहनाई का, गोदई महराज के तबला वादन का आनन्द एक रात में ही उठाया। आर्यावर्त, Indian Nation, Search light, और प्रदीप (पटना से प्रकाशित अखबार) कहाँ कौन सी संगीत - विभूति अपनी कला की प्रदर्शन करेगें इसकी सूचना पहले ही दे देती थी। आप कब पहुचें तब किसका प्रोग्राम आने वाला है या निकल गया ये आपकी किस्मत। श्रोता गण भी पुर्ण शान्ति के साथ सुनते। प्राय: सभी पन्डाल खचाखच भरे होते और पीछे खड़े हो कर ही सुनना पड़ता। 4 बजे तक प्रोग्राम चलता। रात भर खड़े रह कर, जब हॉस्टल पहुँचते हम थक कर चूर हो जाते और सोचते आज आराम करेगें पर शाम तक फिर चक्कर लगाने को तैय्यार हो जाते। मेले में ठेलों पर बिकने वाले खाना पीना खाते जो उस समय काफी स्वादिष्ट लगता। अब सब बदल गया है। वो संगीतमय दुर्गापूजा कहीं खो सी गई है।


    राँची की दुर्गा पूजा

    नौकरी लगने पर बोकारो की पूजा देखने को मिला। यह सुन्दर प्रतिमा और भीड़ का पर्याय था। फिर राँची आ गया। राँची की पुजा कलात्मक पन्डाल प्रतिमा और मेले में खाने पीने के लिए प्रसिद्ध है। हमारी संस्था मेकन में कार्य करने वाले बंगाली सहकर्मी तो शायद घर में खाना ही नही बनाते थे और सभी मित्र सारे समय कॉलोनी के पूजा पन्डाल और मेले में ही दिख जाते। फुचका और बच्चों के लिए लगाए झूले बहुत लोकप्रिय थे. कुछ फुचके वाले ज्यादा ही लोकप्रिय थे और भीड़ लगी रहती. बकरी बजार या भारतीय युवा संघ का पंडाल में बहुत भीड़ हो जाती  थी . हर बार किसी न किसी प्रसिद्द ईमारत की  प्रतिकृति बनाते हैं और गजब का बनाते है. अन्य पंडाल जो आकर्षण का केंद्र होते वे है आर आर  स्पॉटिंग, स्टेशन रोड ( पंडाल के बाहर किसी थीम पर मूर्तियों से कोई scene बनाते),  राजस्थान मित्र मंडली, बिहार क्लब, सत्य अमरलोक, कोकर पूजा समिति इत्यादि। सन 2000 के आसपास  हम मित्र लोग एक दो कार में या एक कॉमन मेटाडोर में भीड़ से बचते हुये रात ४ बजे निकलते  बस स्टैंड, कांटा  टोली का पंडाल देखते हुए सर्कुलर रोड से कचहरी पहुंचते और बिहार क्लब की पूजा देखते हुए भुतहा तालाब होते अपर बाजार के पंडाल के पास कार पार्क करते और पैदल चलते हुए बकरी बाजार जाते। फिर राजस्थान मित्र मंडली के पंडाल देख कर लौट आते। हरमू बाईपास बनने के बाद हम लोग शाम में भी भाड़े की गाड़ी / ऑटो लेकर भी घूमें हैं। ऑटो वाले पहले छोटी गलियों से आर आर स्पॉटिंग के पीछे  ले जाते फिर और जगह ले जाते. रात में घूमने का यह कार्यक्रम एक दिन सप्तमी या अष्टमी को करते. बाकि दिन मेकन कॉलोनी का पुजा शाम के शाम देखने जाते. वहां आरती, ढाप, शंख वादन, और ॐ-ओमकार प्रतियोगता के समय जाते. कुछ स्नैक्स खाते, कोल्ड ड्रिंक पीते, फुचका खाते  और लौटते. कहाँ का पंडाल सबसे अच्छा बना इसको दशमी के बाद news paper वाले बताते.

    क्रम-सूची
    रांची स्टेशन पंडाल २०१४ रांची स्टेशन पंडाल २०१३ 

    रांची में दशहरा में रावण दहन का भी चलन हैं.पहले तीन जगहों पर रावण दहन होता था , मेकन, HEC, और मोरहाबादी । अब मेकन में नहीं होता पर बाकि दो जगहों पर होता हैं और बहुत भीड़ होती हैं. देर से पहुंचने पर बच्चे तो बच्चे बड़े भी ठीक से देख नहीं पाते थे. कई और जगहों पर भी अब रावण दहन होता हैं जैसे अरगोड़ा मैदान, पिस्का-नगरी.

    CM रघुवर दास रावण पर तीर चलते हुये 2018७० फीट का  रावण मोराबादी २०१८ 

    क्रम-सूची

    इसबार पूजा घूमने देखने को कोविड के चलते तरस गए। अगली बार कहाँ की पूजा देखूगां नही कह सकता। ऐसे एक बार षष्ठी के दिन दुर्गापूजा की राजधानी कलकत्ता पहुँचा था, एयर पोर्ट से लॉर्ड सिन्हा रोड गेस्ट हाउस तक जाने में अनगिनत रोड ब्लाक या घूम कर जाने के कारण कई विशाल पंडाल देखने का मौका मिला था। 2011 में पूजा के समय कलकत्ते में था और ट्रैंगुलर पार्क पंडाल तक गया भी था। निर्विवाद रूप से सबसे अच्छे पंडाल कलकत्ता का ही होता है। अब बस फिर मिलता हूँ मेरे अगले ब्लॉग के साथ।