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जमुई की दुर्गा पूजा
पंच मन्दिर, पुजा जमुई 2018 | महादेव सिमरिया |
दशहरा पूरे भारत में किसी न किसी रूप में मनाया ही जाता है। कहीं डांडियाँ खेल कर कही दशहरा में रावण जला कर और कहीं ढ़ाक के थाप पर नाचते माँ की आरती उतार कर। मुझे चार पाँच जगहों के दशहरों की याद है। सबसे पहले मैं बचपन में मनाए दशहरे की बात करूंगा। तब दशहरे का उमंग और उल्लास कई दिन पहले से शुरु हो जाता था। खास कर हम बच्चों में। सबसे पहले वासुदेव जी के दुकान से कपड़े के थान साड़िया वैगेरह मंगाई जाती। वासुदेव जी के यहाँ से ही सारे कपड़े खरीदे जाते। कभी पूजा के लिए या किसी कारण वश कोई भी कपड़ा चाहिए जा कर कोई भी ले आता और वासुदेव जी हिसाब में लिख लेते। तब घर की महिलाऐं बाजार नहीं जाती थी और कपड़े के थान के थान और साड़ियों के बण्डल वासुदेव जी घर ही भेज देते ताकि कपड़े महिलाऐं पसन्द कर सके। हम सब भाई बहनों के कपड़े एक थान से ही सिले जाते जिसे हम सब दशहरे में एक स्कूल ड्रेस की तरह पहनते। सारे कपड़े पारिवारिक दर्जी हलीम मियाँ ही सिलते और घर ही आ जाते नाप और कपड़ा लेने, इसी से कपड़े के design /style भी एक जैसे ही होते। घर में काम करने वाले नौकर, रसोईए, दाई और कमपाउन्डर साहब के लिए भी कपड़े खरीदे जाते। कुछ सामान जैसे कपड़े स्टेशनरी (आने वाले दावात पूजा के लिए) वैगेरह 'जगाए' जाते, यानि एक बिछावन पर रात भर रख दिए जाते जो दिवाली और भाई दूज के समय ही उपयोग में लाए जाते।
रिबन फटाका | लकड़ी के खिलौने |
जमुई एक तब छोटा subdivisional शहर था। दुर्गा जी की प्रतिमा पूरे ईलाके में सिर्फ चार जगह ही,बनते थे जिसमें दो प्रतिमा जमुई शहर में और बाकी दो करीब 9 कि.मी. radius में पड़ने वाले रजवाड़े खैरा और परसन्डा (गिद्धौर) में बनते थे। गिद्धौर महराज चन्देलों के अंतिम राजा हुआ करते थे। मेरे दादा जी गिद्धौर महाराज के ही वकील थे और local court से ले कर privy council तक गिद्धौर राज को represent करते थे। जाहिर है इन पूजा मेलों में 20-30 km दूर के गाँवों से काफी भीड़ इकठ्ठा होती थी। छोटे बच्चे अपने पिता के कन्धों पर चढ़ कर मेला घूमते। जमुई में हम जब भी मोड़ पर स्थित पंजाबियों के परचून दुकान तक जाते, दस कदम आगे बनने वाले हटिया वाली दुर्गा जी के प्रतिमा की स्थिति जरूर देख आते। कभी सब्जी की हाट थी और यहाँ की दुर्गा पूजा को हटिया की पुजा कहते है, अभी भी। हम बड़ी बेसब्री से षष्ठी का इंतजार करते जब प्रतिमा पूजा के लिए तैय्यार हो जाती थी । तरह तरह के खिलौना पंजाबी दुकान में मिलने भी लगते थे और बन्दर वाला खिलौना छोटा वाला फिटफिट आवाज़ वाला खिलौना सिटी वैगेरह ललचाते। कुछ पैसे मिलने से खरीद भी लेते। पूजा के लिए रेवड़ी, मिठाई, फूल माला वैगेरह के साथ झाप (रंगीन कागज से बने मंदिर की आकृति ) भी मिलने थे तब। झाप वैगेरह अब नहीं मिलते। असली मेला पचमंदिर में लगता था जहाँ बहुत भीड़ होती थी।
पंच मंदिर मेला 2018 | मलेपुर (जमुई स्टेशन) पंडाल |
कई दुकानें लग जाती मिठाई और खिलौना हमें पसंद आता था। कठघोड़वा (Merry go round) और तारा माची (Small wheel) में घूमना भी अच्छा लगता था। दादू ( मेरी दादी ) के साथ मेला घूमने में बहुत अच्छा लगता था। जो भी मांगता वह खरीद देती या पापा या माँ से खरीदवा देती। नवरात्री में लगभग प्रति दिन सरदारी हलवाई या बंगाली दुकान से मिठाई खरीदी जाती। वैसी मिठाईयॉ भी इनदिनों मिलती जो अन्य दिनों में नहीं बनती जैसे लवंगलता, खाजा,इमरती, लाल मोहन, बारा या बालुशाही, क्रीम चॉप, मुरब्बा वैगेरह। दशमी आते आते मिठाई खा खा कर हम अघा जाते ।
मिठाइयां | काली मंदिर जमुई स्टेशन |
पटना की दुर्गा पूजा
दूसरा शहर जहाँ की दुर्गा पूजा मैंने देखी है वह है पटना का। जमुई में सिर्फ दो पन्डाल बनते यहाँ हर मोड़ पर छोटे पन्डाल और कहीं कहीं बड़े पन्डाल लगते थे। लंगरटोली, मछुआटोली, नाला रोड, राजेन्द्र नगर, हार्डिंग पार्क, गर्दनीबाग, कंकड़बाग, मारूफगंज वैगेरह के पंडाल प्रसिद्ध थे। पटना की पूजा बहुत अलग होती थी। सुन्दर पंडालो के अलावा मुख्य आकर्षण था नृत्य संगीत का कार्यक्रम जो जगह-जगह होता था । पटना शहर में 60-70 के दशक में दुर्गा पूजा के दौरान सांस्कृतिक मामलों को धार्मिक आस्था के साथ जोड़ने का प्रयास किया जाता था. जिन विभूतियों के कला काो हमने आनंद लिया उनके नाम है शहनाई वादक उस्ताद बिस्मिल्लाह खान, सितार वादक उस्ताद विलायत खान, वायलिन वादक वीजी जोग, नृत्यांगना सितारा देवी, और फिल्म उद्योग के महान गायकों का को भी सुना, जैसे कि तलत महमूद और मन्ना डे ।
उस्ताद बिस्मिल्लाह खान | कथक क्वीन सितारा देवी |
कालेज के पांच सालो में से तीन साल की दुर्गा पूजा छुट्टी हमने पटना में बिताई थी। 4 दिनों के नृत्य संगीत का कार्यक्रम देखना एक जरूरी past time था । एक साल हमने शाम में मारुफगंज में इस्माइल आजाद की कव्वाली का (वो कव्वाली "हमें तो लूट लिया मिल के हुस्न वालों ने" अभी तक याद हैं ) लगंरटोली में वी जी जोग की वायलिन वादन का, नाला रोड में मन्ना डे के हिन्दी/ बंगला गानों का, हार्डिन्ग पार्क में सितारा देवी के नृत्य का और गर्दनीबाग में विसमिल्ला खां के शहनाई का, गोदई महराज के तबला वादन का आनन्द एक रात में ही उठाया। आर्यावर्त, Indian Nation, Search light, और प्रदीप (पटना से प्रकाशित अखबार) कहाँ कौन सी संगीत - विभूति अपनी कला की प्रदर्शन करेगें इसकी सूचना पहले ही दे देती थी। आप कब पहुचें तब किसका प्रोग्राम आने वाला है या निकल गया ये आपकी किस्मत। श्रोता गण भी पुर्ण शान्ति के साथ सुनते। प्राय: सभी पन्डाल खचाखच भरे होते और पीछे खड़े हो कर ही सुनना पड़ता। 4 बजे तक प्रोग्राम चलता। रात भर खड़े रह कर, जब हॉस्टल पहुँचते हम थक कर चूर हो जाते और सोचते आज आराम करेगें पर शाम तक फिर चक्कर लगाने को तैय्यार हो जाते। मेले में ठेलों पर बिकने वाले खाना पीना खाते जो उस समय काफी स्वादिष्ट लगता। अब सब बदल गया है। वो संगीतमय दुर्गापूजा कहीं खो सी गई है।
राँची की दुर्गा पूजा
नौकरी लगने पर बोकारो की पूजा देखने को मिला। यह सुन्दर प्रतिमा और भीड़ का पर्याय था। फिर राँची आ गया। राँची की पुजा कलात्मक पन्डाल प्रतिमा और मेले में खाने पीने के लिए प्रसिद्ध है। हमारी संस्था मेकन में कार्य करने वाले बंगाली सहकर्मी तो शायद घर में खाना ही नही बनाते थे और सभी मित्र सारे समय कॉलोनी के पूजा पन्डाल और मेले में ही दिख जाते। फुचका और बच्चों के लिए लगाए झूले बहुत लोकप्रिय थे. कुछ फुचके वाले ज्यादा ही लोकप्रिय थे और भीड़ लगी रहती. बकरी बजार या भारतीय युवा संघ का पंडाल में बहुत भीड़ हो जाती थी . हर बार किसी न किसी प्रसिद्द ईमारत की प्रतिकृति बनाते हैं और गजब का बनाते है. अन्य पंडाल जो आकर्षण का केंद्र होते वे है आर आर स्पॉटिंग, स्टेशन रोड ( पंडाल के बाहर किसी थीम पर मूर्तियों से कोई scene बनाते), राजस्थान मित्र मंडली, बिहार क्लब, सत्य अमरलोक, कोकर पूजा समिति इत्यादि। सन 2000 के आसपास हम मित्र लोग एक दो कार में या एक कॉमन मेटाडोर में भीड़ से बचते हुये रात ४ बजे निकलते बस स्टैंड, कांटा टोली का पंडाल देखते हुए सर्कुलर रोड से कचहरी पहुंचते और बिहार क्लब की पूजा देखते हुए भुतहा तालाब होते अपर बाजार के पंडाल के पास कार पार्क करते और पैदल चलते हुए बकरी बाजार जाते। फिर राजस्थान मित्र मंडली के पंडाल देख कर लौट आते। हरमू बाईपास बनने के बाद हम लोग शाम में भी भाड़े की गाड़ी / ऑटो लेकर भी घूमें हैं। ऑटो वाले पहले छोटी गलियों से आर आर स्पॉटिंग के पीछे ले जाते फिर और जगह ले जाते. रात में घूमने का यह कार्यक्रम एक दिन सप्तमी या अष्टमी को करते. बाकि दिन मेकन कॉलोनी का पुजा शाम के शाम देखने जाते. वहां आरती, ढाप, शंख वादन, और ॐ-ओमकार प्रतियोगता के समय जाते. कुछ स्नैक्स खाते, कोल्ड ड्रिंक पीते, फुचका खाते और लौटते. कहाँ का पंडाल सबसे अच्छा बना इसको दशमी के बाद news paper वाले बताते.
क्रम-सूचीरांची स्टेशन पंडाल २०१४ | रांची स्टेशन पंडाल २०१३ |
रांची में दशहरा में रावण दहन का भी चलन हैं.पहले तीन जगहों पर रावण दहन होता था , मेकन, HEC, और मोरहाबादी । अब मेकन में नहीं होता पर बाकि दो जगहों पर होता हैं और बहुत भीड़ होती हैं. देर से पहुंचने पर बच्चे तो बच्चे बड़े भी ठीक से देख नहीं पाते थे. कई और जगहों पर भी अब रावण दहन होता हैं जैसे अरगोड़ा मैदान, पिस्का-नगरी.
CM रघुवर दास रावण पर तीर चलते हुये 2018 | ७० फीट का रावण मोराबादी २०१८ |
क्रम-सूची
इसबार पूजा घूमने देखने को कोविड के चलते तरस गए। अगली बार कहाँ की पूजा देखूगां नही कह सकता। ऐसे एक बार षष्ठी के दिन दुर्गापूजा की राजधानी कलकत्ता पहुँचा था, एयर पोर्ट से लॉर्ड सिन्हा रोड गेस्ट हाउस तक जाने में अनगिनत रोड ब्लाक या घूम कर जाने के कारण कई विशाल पंडाल देखने का मौका मिला था। 2011 में पूजा के समय कलकत्ते में था और ट्रैंगुलर पार्क पंडाल तक गया भी था। निर्विवाद रूप से सबसे अच्छे पंडाल कलकत्ता का ही होता है। अब बस फिर मिलता हूँ मेरे अगले ब्लॉग के साथ।
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