कभी कभी खून से गाढ़े रिश्ते भी होते है। हमने यह बाबा जी क रूप में चरितार्थ होते देखा है। हम सबों से मामा भांजा का रिश्ता उन्होंने क्या गजब निभाया। मै तो भीड़ भाड़ में उनके कंधे पर भी बैठा। पापा के साथ साला बहनोई वाली नोक झोंक भी देखी।
मेरे नाना बाबू पुरेन्दर प्रसाद बेगुसराय के प्रमुख वकीलों में थे और उनकी लम्बी चौड़ी जमिन्दारी भी थी। उनके नाम से एक बार-लाइब्रेरी अभी भी जीर्ण अवस्था में कचहरी में मौजूद है। सभी तरह का अनाज, खाने का तेल, आम के दिनों,में आम खेत से आ जाता। शायद ही खाने पीने का कोई सामान दुकान से खरीदना पड़ता। रोज ताजी सब्जियाँ या मछली तो खेत से आ नहीं सकती पीछे बारी में कुछ सब्जियां जैसे कद्दू, ननुआ, भिण्डी, मिर्ची, मूली, गोभी, बैगन, टमाटर उपजा लिया जाता। एक नींबु का पेड़ भी था कुएं के पास। मुझे कुदरूम की याद है जिसकी चटनी बना करती थी। एक पीले (कनैल) फूल का भी पेड़ था जिसका समोसे जैसा फल मैने खा लिया था। जबरदस्ती पानी पिला पिला कर उलटियां करवाई थी लोंगों ने क्योंकि यह जहरीला होता है। मछली सब्जी वाली रोज हमारे आंगन के चक्कर लगा जाती। गाय भी घर पर ही थी, घोड़ा, टमटम, घोड़ेवान भी बाहर के कम्पाऊन्ड में ही थे। हाँ घर पर आलु चॉप या दुकान में बने नमकीन और मिठाई हमारे बड़े मौसेरे भाई बहन जरूर नाना के किरायेदार दुकान वाले से छिप कर मंगा लेते थे। मुझे भी वह आलु चॉप बहुत पसंद था। बबाजी नाना के विश्वस्तों में से थे।
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नाना को मैने वृद्ध ही देखा था । उनका व्यक्तित्व आकर्षक था। लम्बा, गोरा रौबदार। डिस्ट्रिक्ट बोर्ड के चेयरमैन रह चुके थे। डिस्ट्रिक्ट बोर्ड का ही अस्पताल भी था और अस्पताल की नर्स दीदी नाना को सुई लगाने घर ही आ जाती। नाना को सुगर की बीमारी थी। नाना की दो शादियाँ थी, या शायद तीन। पहली नानी के बारे में हाल में ही पता चला । मेरी मौसेरी बहन पुष्पा दीदी ने बताया की पहली नानी की कोई निशानी नाना के पास थी जिसे वो अकेले में कभी कभी निकाल कर देखते थे। मेरी अन्य दो नानियों में से बड़ी नानी से बड़ी मौसी जिन्हें हम सभी प्यार से मैय्या कहते थे, और भागलपुर वाली मझली मौसी थी। नानी की मृत्यु के बाद, नाना ने फिर शादी की और छोटी नानी से हुई मेरी माँ। मेरे कोई मामा न थे ।
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माँ के छोटे मामा स्व मुनेश्वरबाबू | माँ के छोटी मामी |
बबाजी या धनुषधारी सिंह रामदिरी के गरीब भुमिहार ब्राह्मण थे। वे कब हमारे परिवार का हिस्सा बने मुझे मालूम नहीं। जबसे होश संभाला उन्हें देखा। यूं तो वे घर में खाना बनाते थे पर घर के किसी सदस्य से न तो उनका रुतबा कम था न हीं उनका स्नेह। हमारे वे ही मामा थे। मेरी माँ को वे किसा (कृष्णा) कहते और बाकी मौसियों को दीदी। कुछ गलत करने पर हमें उनकी डाँट भी सुननी पड़ती। भंसा में हल्ला गुल्ला करने पर उनकी झिड़की "कलमच बैठ" हमें अब भी याद है। नाना की सेवा में वे लगे रहते। खाना देना। दूध देना, दवा देना। उन्हें सभी याद रहता। खाना हम लोग भंसा में जमीन पर पीढ़े पर बैठ कर खाते। रोटियाँ मोटी मीठी मुलायम बनती। हम कुल 18 में से 15 मौसेरे भाई बहन उस समय थे। मेरे तीन और छोटे भाई बहनों का जन्म तब नहीं हुआ था। सबसे छोटी तब मुकुल थी जिसका पहला नाम अस्पाताल में जन्म लेने के कारण अस्पतलनिया पड़ गया था।इतने बड़े कुनबे का खाना बनाने के लिए बाबा जी ने कभी ना नुकुर नहीं की, इसके उलट उन्हें ज्यादा लोंगों का चहल पहल ज्यादा पसंद था। सब लोग बच्चो,सहित काम में हाथ बटा देते, मै तो आँटे की छोटी लोई ले कर साँप या गाय, कुत्ता बनाता रहता । सब्जी काटना, रोटी बेल देना मिल जुल कर हो जाता। बाबाजी हाथ पर ठोक कर मकई की मोटी रोटी बहुत अच्छी बनाते। फिर वैसी रोटी मैने कभी नहीं खाई। ओल के खट्टे भरता के साथ वह अलौकिक लगता था । नेनुआ के सब्जी मूली से साथ बनता था जो मुझे बहुत पसंद था
एक वक्त वह भी आया जब हम सभी अपने ठौर ठिकाने पर चले गए, पटना, भागलपुर या जमुई। सबसे बड़ी मौसेरी बहन शान्ति दीदी वहीं स्कूल में टीचर थी। बड़े मौसा के गुजर जाने के बाद, अपने बलबूते पर पढ़ाई की नौकरी की भाई बहनो की भी जिम्मेवारी उठाई। दीदी ने जब ग्रेजुएशन किया तब उनका तबादला पटना हो गया। नाना बिल्कुल अकेले हो गए। सज्जन भैय्या कभी कभी नाना के पास आ जाते। यह वो वक्त था जब बाबा जी ने एक बेटे की भांति नाना कि सेवा की बबाजी अक्सर हम लोगों को ननिहाल से घर पहुचाते थे। उनका ममत्व हमेशा हम पर रहा। जब ही आते उनके हाथ की खिचड़ी खाने का लोभ हम संवरन नही कर पाते।
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सिमरीया घाट
| बाबा धाम मंदिर |
बाबा जी एक समर्पित शिव भक्त थे। देवघर स्थित बाबाधाम ( 12 ज्योतिर्लिंगों में एक), साल में कई बार जाते और सावन में सुल्तानगंज के बजाय सिमरिया से ही जल भर कांवर ले चल पड़ते। तब कांवर के रास्ते न दुकानों से सजते थे न हीं रास्ता के किनारे बालू वैगेरह डाले जाते। सुईयां पहाड़ सच में सुई का ही पहाड़ था। 8-10 दिन का रसद, ओढ़ने बिछाने के सामान, छाता, लाठी साथ में लिए तिरहुतिया कावंर ले कर 50-60 किमी की अतिरिक्त दूरी तय करते। जगह जगह रुक कर खाना पकाना, नहाना करते दुर्गम यात्रा करनी पड़ती थी । कुछ ही लोग यह कर पाते थे।अब तो कांवर यात्रा पिकनिक की तरह सुगम हो गई है। ईडली, दोसा, समोसा खाते गाना गाते भीड़ रेले की तरह लोग कांवर यात्रा कर लेते है। कांवर यात्रा में खान पान में साफ सफाई या गंदे पानी के उपयोग से बाबा जी क्रोनिक डिसेन्ट्री के मरीज हो गए। इस रोग ने ताजन्म उनका साथ न छोड़ा। फिर भी उन्होंने कांवर ले कर जाना नहीं छोड़ा। हर बार बाबाधाम से लौटते समय वहां काा पेड़ा चूड़ा हम लोगों को जमुई दे जाया करते। बबा जी जी ने अपनी कमाई से थोड़ा थोड़ा बचा कर अपने मृत्यु के कुछ महीने पहले एक शिव मन्दिर अपने गांव में बनवाया था। प्राण प्रतिष्ठा में सबको बुलाया था। अफसोस सिर्फ मै हीं जा पाया । काफी मशक्कत के बाद मै पहुंचा। थोड़ी बारिश में दलदल से भर जाने वाले गांव में जहाँ घुड़सवारी लोकप्रिय थी, मुझे रिक्शा से उतर कर पैदल ही जाना पड़ा ।
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कावंर | रामदीरी गांव |
मन्दिर में बाहर का प्लास्टर लगना अभी भी बाकी था। बबाजी अपने जीवन काल में ही शिव मन्दिर का काम समाप्त कर लेना चाहते थे। मेरे स्वागत में बाबाजी के भतीजे लगे थे। खाना पीना आडंबर रहित था। बाबा जी ने शादी नहीं की थी। उनके गाँव जा कर लगा सारी जमीन हम नाकारो को देने के वजाय नाना काश कुछ जमीन अपने इस निर्धन बेटे को दे जाते। उनका बुढ़ापा तो आराम से कट जाता। ऐसे मै मानता हूँ ऐसा बाबा जी ने भी नहीं चाहा होगा। उन्होंने शायद ही कोई उम्मीद रक्खी होगी। उन्हे हमलोग एक परिवार दे पाए और वे इसमें ही खुश थे। बबाजी के देहांत की कोई खबर समय पर नहीं पहुंची। हमें बिना कुछ कष्ट दिए वो चले गए। काश उनके लिए हम लोग कुछ कर पाते। हम बबाजी के ममत्व के हमेशा ऋणी रहेंगे।
Very touching story. I don't think I ever heard this one before. Only memories remain!
ReplyDeleteTouching! I too remember warmth in his behaviour and concern for all of us. Wish peace for his atma.
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