नारायण हिटी दरबार | गोमा गणेश मन्दिर |
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भारत और नेपाल के बीच हमेशा से रोटी बेटी का नाता रहा है । खास कर तराई क्षेत्र में । सन 1973 की बात हैं। दरभंगा में संपन्न हुई हमारी शादी के बाद पहली बार ससुराल जाने का अनुभव मेरे लिए कुछ अलग-सा था। अलग इसलिए क्योकि मेरी धर्मपत्नी काठमांडू से हैं। वही जन्मी पली पढ़ी। काठमांडू की मेरी पहली यात्रा उत्सुकता भरा था। मेरी पहली विदेश यात्रा। यूँ तो कई देश घूमा हूँ पर मैं कभी वह पहली नेपाल यात्रा भूल नहीं सकता। बस एक हिन्दी फ़िल्म का गाना याद आता हैं "जग घूमया थारे जैसा न कोई"। पहले भाग में मैं यात्रा का वर्णन करूंगा और दूसरे भाग में काठमांडू में प्रथम प्रवास के अन्य अनुभवों का। मैं, पत्नी और माँ बाबूजी (मेरे स्व सास ससुर जी) और मेरे तीन छोटे साले साहेब साथ चले दरभंगा से।यात्रा का पहला भाग तो कोई रोमांच भरा नहीं था ट्रैन से दरभंगा से रक्सौल जाने में क्या रोमांच? छोटी लाइन-मीटर गेज की ट्रैन भीड़ तो होती ही थी। राम-राम कह सफ़र कटा।
ब्रह्मपुरी मेरा नन-ससुरलरास्ते में बरगैनिया स्टेशन आया तब मेरी पत्नी ने बताया "यही से ब्रह्मपुरी, गौर (नेपाल का एक जिला) जाते हैं जहाँ मेरा नानिहाल हैं"। मैंने तब सोचा मौका लगा तो जाऊँगा वहां । पर मेरे बच्चे तो हो आये मैं ही नहीं गया कभी । करीब सात घंटे में यह सफ़र कटा। बड़ी लाइन और तेज़ ट्रेन अब भी पांच घंटे लेती है। मैं, या सच कहूँ तो हम दोनों उत्साहित थे और बिलकुल नहीं थके थे। औरों का पता नहीं ।मेरी पत्नी शादी के पहले करीब छह महीने से दरभंगे में ही थी, और उन्हें भी घर जाने का उत्साह रहा होगा और वह भी पति के साथ ।
ब्रह्मपुरी का घर आज के दिन में
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बीरगंज बॉर्डर
खैर अब एक नए देश में प्रवेश करने की उत्सुकता मुझ में थी जो लाख छुपाने की कोशिश के वाबजूद जाहिर हो रहीं थी। रात होने वाली थी। यह निश्चित किया गया कि रक्सौल में नहीं रूकेंगे बोर्डर पार कर सीधा बीरगंज जाएगें । इनके पास शादी के लिए काठमांडू से दरभंगा लेकर गए सामान भी था और सुबह-सुबह बीरगंज से निकलना भी था। खैर दो तांगों मे हम सभी आ गए। हमारे साले साहब किशोर और अनिल ने हमे बोर्डर पर चुप ही रहने की हिदायत दी। सभी नेपाली में ही बात कर रहे हो तो चेक पोस्ट पर ज्यादा आसानी होती। हम चल पड़े एक छोटे मैत्री पुल के इस तरफ भारत और दूसरी ओर नेपाल। भारत के तरफ इमीग्रेशन और कस्टम के चेक पोस्ट पास पास ही थे। बाबूजी (मेरे श्वसुर जी) नेपाली कस्टम में कभी कार्यरत थे। जान पहजान भी होगी। तब नेपाल के बहुत से भूभाग के लिए भारत हो कर ही आना जाना पड़ता था। 'गौर' से आ रहे है कहने भर से और आने वाले कई प्रश्नों से हम बच गए ऐसे भी सभी नेपाली में बात कर ही रहे थे और मैं चुप था। तब आधार कार्ड पैन कार्ड, वोटर कार्ड वैगेरह होते नहीं थे। चूंकि नेपालियों और भारतियों को बोर्डर पर Visa की जरूरत नहीं थी चेक पोस्ट वाले आपकी नागरिगता जाँच करने के लिए कई प्रश्न पूछते थे। कहा से आ रहे है? कहाँ जाना है? क्यों जा रहे है? वैगेरह । नेपाल में कस्टम में थोड़ा सामान के बारे में पूछ ताछ हुई और नेपाल से ही सामान ईन्डिया ले जाया गया था के स्पष्टीकरण के बाद हम आगे बढ़े। नेपाली में लिखे बोर्ड को मै पढ़ता जा रहा था। एक जगह "सटही काउन्टर" लिखा था। मुझे बताया गया यहाँ करेंसी बदल कर नेपाली रुपया दिया जाता है। और साटना मतलब बदलना न कि चिपकाना। मै दौड़ कर 100 भारतीय रुपये के बदले १६५ नेपाली रू० ले आया
मै ईधर उधर देखता जा रहा था। साइन बोर्ड पढ़ता जा रहा था। दो तीन नेपाली शब्द तुरतं सीख लिए जैसे भंसार = कस्टम, साटना= Exchange करना, पसल= दुकान। एक जगह लिखा था "यहाँ कुखुरा को मांसु पाईन्छ"। कुखुरा= मुर्गी, आपने क्या सोचा ? विदेशी समानों से भरे दुकानों को देखते हुए हम बीरगंज के आदर्श नगर बस स्टैन्ड आ पहुचें। काठमांडु के लिए तब सिर्फ त्रिभुवन राजमार्ग ही था। यह एक कठिन पहाड़ी रास्ता है। जबकी अब त्रिसुली नदी के किनारे किनारे सुगम रास्ता बन गया है पर दूरी के हिसाब से पुराना रास्ता काफी छोटा है। उस समय वीरगंज से काठमांडू के लिए सिर्फ तड़के ही बस चलती थी अंतिम बस सुबह दस बजे तक निकल जाती थी। अब तो रात में ही ज्यादातर बसें चलती है। खैर हम तांगे से सीधे बसस्टैंड तक गए। रास्ते में पड़ने वाले सारे प्रतिस्थानो और दुकानों पर राजा और रानी के चित्र अनिवार्य रूप में लगे थे। भारत में भी लोग देवी देवताओ के अलावे नेहरू गाँधी या अन्य राजनीतिज्ञ के चित्र लगते है पर कोई अनिवार्यता नहीं है।
विंध्यवासिनी मंदिर | बीरगंज |
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रास्ते के दृश्य
आदर्शनगर बस स्टैंड को अब ओल्ड बस पार्क कहते है और सुना है वहां स्टेडियम बन गया है। बस स्टैंड पहुंचने पर टमटम वाले के साथ थोड़ी बहस इस बात को लेकर हुई कि किराया Indian currency में देना है या नेपाली में। बाद में पता चला यह हर बार की बात है। बस स्टैंड के चारो और लॉज और होटल्स थे। जल्द ही लॉज बुक कर लिया गया और बस का टिकट भी खरीद लिया गया। हम लोग फ्रेश हो कर बाबु जी के मित्र लाट अंकल से मिल आए और माई थान मन्दिर के दर्शन कर आए। मैं अपनी नई नवेली दुल्हन को भीड़ भाड़ से बचा रहा था, मेरा यह प्रयत्न मम्मी जी की नजरों से छुपी नहीं रह सकी और उनकी मन्द मुस्कुराहट मुझसे छिप न सकी। वापसी पर नजदीक के एक रेस्टॉरेन्ट में डिनर ले कर सो गए। सुबह जल्दी जगना था। सुबह तड़के जल्दी तैय्यार हो गए क्योंकि सभी समान पुलिस यानि प्रहरी से चेक करा कर सील करवाना था बस में चढ़ाने के पहले। शायद आर्म्स या ड्रग के लिए चेक करते होगें। ऐसा करने से रास्ते में बार बार समान खोल कर चेक करवाने से बच जाते थे। सील न किया सामान हर स्टॉप पर खुलवा कर चेक करते थे। अब ऐसा नहीं होता। खैर कचौड़ी जलेबी का लज़ीज नाश्ता कर हम लोग अपनी सीट पर बैठ गए। पहाड़ी रास्ते के कारण छोटी 35 सीट वाली 2x2 बसें ही चलती थी। बस वाले पैैसेन्जर को समय की बहुत याद दिला रहे थे। देर करने पर बस छूटने की धमकी भी दे रहा था। पर बस करीब एक घन्टे देर से खुली। शहर के अन्दर कई जगह रूक कर लोकल सवारी लेते बस आखिर कर बड़े रास्ते पर आ गई।
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हम एक घंटे में अमलेखगंज पहुंच गए। पता चला पहले रेल गाड़ी यहाँ तक आती थी। गूगल करने पर पता चला की नेपाल सरकार रेलवे (NGR) नेपाल का पहला रेलवे था। 1927 में स्थापित और 1965 में बंद हुआ। 47 किमी लंबी ये रेलवे लाइन नैरो गेज थी और भारत में सीमा पार रक्सौल से अमलेखगंज तक था। आगे जाने पर चुरिया माई मन्दिर के पास सभी बसें रुक रही थी। पूजा करके ही बसें आगे बढ़ती थी । हमारी बस भी रुकी। पुजा कर खलासी ने सबको प्रसाद बाटें। जब बस आगे बढ़ी तो चुरिया माई का महात्म्य पता चला। अब बस टूटते पहाड़ों (Land Sides prone) के ऋंखला से गुजर रही थी। अगला स्टॉप हेटौंडा था। यह एक औद्योगिक शहर है। अब यहाँ लम्बे पर सहज रास्ते से यानि महेन्द्र राज मार्ग से नारायणघाट और होकर मुंग्लिंग होते हुए भी काठमांडू जाया जा सकते है। तब ऐसा नहीं था। अगले स्टॉप भैसे ( एक जगह का नाम ) में एक छोटे पुल के पार बस रुकी दिन के खाने के लिए। इसके बाद चढ़ाई वाला रास्ता था, सो डर डर कर ताजी मछली भात खाये। अभी तक पुर्वी राप्ती नदी के किनारे किनारे चले जा रहे थे। रोड पर जगह जगह झरने की तरह स्वच्छ पानी गिर रहा था। नेपाली में इसे धारा कहते है। लोग इसी पानी में बर्तन कपडे धोने नहाने से लेकर पीने पकाने का पानी तक ले रहे थे। पानी ठंडा शीतल था और आँखों को बहुत अच्छा लग रहा था।
भैसे ब्रीज | काठमाण्डु की पहली कार, कन्धों पर |
ड्राईवर रास्ते में रंग बिरंगी नेपाली पारम्परिक कपड़ो में बस पर चढ़ने वाली मज़दूर युवतियों में चुहल बाज़ी कर रहा था। पत्नी ने बताया कि पहाड़ो में युवक युवतियो के बीच लोक गीतों में सवाल जवाब की प्रतियोगिता चलती है और कोई बुरा नहीं मानता।
च्यायांगबा होइ च्यायांगबा - नेपाली लोक गीत- क्लिक करे !
हम लोग नये जोड़ो के बीच होने वाले बिन मतलब की बातों में लग गए ।रास्ते के बारे में पत्नी जी बताती जा रहीं थी। उन्होंनें बताया कि पहले तराई से काठमाण्डू घाटी लोग भीमफेदी होकर पैदल ही जाते थे। घाटी में पहली कार भी लोगों के कन्धे पर इसी रास्ते ले जाया गया था। 28 किमी का यह पैदल रास्ता लोग तकरीबन तीन दिनों मे पूरा करते थे। यह सोच कर मुझे घबराहट होने लगी कि यदि हमें भी पैदल जाना पड़ा तो कई बार 3000 फीट से 7000-8000 फीट चढ़ाई उतराई (रास्ते का चित्र देखें) चढाई करते क्या मै सही सलामत पहुंच भी पाता?
भीमफेदी | भीमफेदी होकर पैदल रास्ता |
नेपाल का सबसे शानदार और रोमांच से भरा राजमार्ग, त्रिभुवन राजपथ है (आमतौर पर जिसे बायरोड या सिर्फ राजपथ (King's way) कहा जाता है, बीरगंज से काठमांडू घाटी की ओर जाता है । कई हेयरपिन मोड़ो की आश्चर्यजनक श्रृंखला के माध्यम से सीधे महाभारत रेंज होते हुए काठमांडू वैली पहुंचाता है यह रास्ता। यह राजमार्ग रोडोडेंड्रोन या गुराँस (नेपाल का राष्ट्रीय फूल, के जंगल से गुजरता है, काफल के बगीचों से भी गुजरता है । हिमालय के शानदार दृश्यों को अपने में समेटे, खासकर दमन से, यह रास्ता अब कम ही उपयोग में आता है और रास्ते में पड़ने वाले गाँवो को जोड़ने वाले रोड बन कर रह गया है। 1950 के दशक के मध्य में भारतीय इंजीनियरों द्वारा निर्मित, राजपथ काठमांडू को बाहरी दुनिया से जोड़ने वाला पहला राजमार्ग है। शायद भारत ने नेपाल हो कर चीनी आक्रमण के जोखिम को कम करने के लिए इस राजमार्ग को कठिन और असुविधाजनक बनाया होगा। चूंकि तेज मुगलिंग / नारायणगढ़ मार्ग ज्यादा लोकप्रिय है, इसलिए इस सड़क से यात्रा अब एक एडवेंचर यात्रा के रूप में बदल गई है, जो इसे माउंटेन बाइकिंग या मोटर साइकिलिंग के लिए एकदम सही बनाता है।
भैसे के बाद चढ़ाइ शुरू हो गयी । कई हेयरपिन मोड़ आये। एक जगह गाड़ी आगे जाने के बजाय पीछे भी खिसकने लगी थी जब ड्राइवर ने गियर ब्रेक का सही सही उपयोग कर गाड़ी आगे चलाई।
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सीमभंज्याङ्ग या शिवभंज्यांग | दमन से एवेरेस्ट का दृश्य |
जल्द ही हम सीमभंज्याङ्ग या शिवभंज्यांग पहुँच गये। सीमभंज्याङ्ग २४८८ मी (८१६० फ़ीट) पर स्थित है और यहाँ अच्छी ठण्ड लगने लगी। पता चला यहाँ स्नो फॉल भी होता है ।यहाँ से 10-12 कीoमिo बाद हम लोग दमन पहुँच गए जहाँ से एवेरेस्ट का सुन्दर दृश्य मिलता है। टूरिस्ट एवरेस्ट दर्शन के लिए ही यहाँ अब भी आते है। बादल से आकाश ढ़का था। हम तो कुछ देख नहीं पाए पर रुक कर चाय पिए और कुछ स्नैक्स भी खाए। पता चला नेपाली में पीना शब्द प्रयोग में नहीं है, सभी चीज़े सिर्फ़ खाते है। चुरुट यानी सिगरेट भी खाते है। पानी भी खाते है और चाऊमीन भी खाते है। बिलकुल बंगालियों,की तरह। थोड़ी देर रूक कर बस चल पड़ी। अब उतराइ थी और हम पालूंग घाटी (5700 फ़ीट) पहुँच गए। थोड़ी चहल पहल थी यहाँ। कुछ सवारी भी यहाँ चढ़ी। पहाड़ो का प्रसिद्ध फल जिसे काफल (Bayberry) कहते है और एक चिड़िया जो "काफल पाक्यो" जैसा कुछ बोलता है इस घाटी की विशेषता है। खेत सीढ़ी दार थे। यहाँ से बस खुलने पर फिर चढ़ाई आ गयी और हम तक़रीबन एक घंटे में टीसटुंग देयुराली (६६६० फ़ीट) पहुँच गए। एक छोटा सा क़स्बा था। हर स्टॉप पर सिपाही (प्रहरी) लोग बस पर चढ़ते सील्ड सामान को खलासी की सहायता से चेक करते। हाथ के समान को भी चेक कर रहे थे।
काफल, Bayberry | काफल पाक्यो, Cuculus micropterus |
अब तक एक जैसे दृश्यों को देख देख कर मैं ऊब सा गया था, और उघंने लगा। थोड़ी देर में शायद झपकी आ गयी। नींद खुली तो तो हम नौबिसे (३१०० फ़ीट) पहुंच रहे थे। आधे से ज्यादा लोग सो या उंघ रहे थे। शाम हो गयी थी। इस घाटी में अँधेरा भी जल्दी ही होता होगा। हम रोड किनारे के झरना या धारा में हाथ मुंह धो कर एक खाने पीने के दुकान में बैठ गए। सभी जरूरत के सामान थे और लेडीज टॉयलेट्स भी था दुकान में। गरमा गरम चावल दाल सब्जी, मीट बना कर दुकानदार ने सभी को खिलाया। शायद दुकनदार से पुरानी पहचान होगी वह हम लोग की विशेष सेवा में लगा था। स्किन सहित मीट पहली बार खा कर करीब ३०-४० मिनट रुकने के बाद हम चल पड़े। पता चला की अब करीब ३० की मी की रास्ता और बचा है । अँधेरे में कई घुमावदार मोड़ आये। जब सामने से ट्रक आते तो वह रुक कर बस को पास दे देता। पहाड़ी रास्ते का यह नॉर्म हर जगह follow किया जाता है। चढ़ने वाली गाड़ी को पास देते है लोग। दूर से ही आने जाने वाली गाड़ियों की लाईट मोड़ पर घूमती दिख जाती है। करीब १२०० फीट की चढ़ाई और बची थी। करीब एक डेढ़ घंटे में हम थानकोट चेक पोस्ट पहुँच गए।
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काठमांडू पहुँचने के बाद
यहाँ सामानो के सील खोल दिए गए और फाइनल चेकिंग हुई। बहुत सारी बसें चेकिंग के लिए रुकी थी। थोड़ा समय लग गया। असह्य हो चुकि प्रतीक्षा के बाद बस चल पड़ी। कालीमाटी में सामान (सब्जी) उतार कर बस शहर के रास्तो पर चल पड़ी। रास्ते में पड़ने वाले जगहों की जानकारी लगातार मिल रही थी। यह जी पी औ है, बाबुजी का ख़ाम (लिफाफ) बदलने वाला किस्सा भी हो गया जिसमे नेपाली साटना और हिंदी साटना का कन्फ़ुइजान हुआ था। बाबुजी लिफाफ साटने (चिपकाने) के लिए गोंद मांग रहे थे और पोस्ट आफिस वाला सोच रहा था कि पता लिखा लिफाफ लौटाने(नेपाली में साटना) आए है। रत्न पार्क बस अड्डे पर बस रुकी। हम लोग दो टैक्सी ले कर घर (गैरीधारा) के लिए चल पड़े। टैक्सी वाला टूरिस्ट समझ कर ज्यादा पैसा मांग रहा था। सभी को खाँटी नेपाली में बात करते देख सही भाड़े लेने को तैय्यार हो गया। जपानी टोयटा गाड़ी पहली बार देखा और वह भी टैक्सी में चलते हुए। रास्ते में नारायण हिटी दरबार (पुराना राजमहल) और नागपोखरी हो कर हम गैरीधारा पहुचे। नागपोखरी से राजमहल के किनारे किनारे अब एक रोड है, तब नहीं था। पता चला गहरे गढ्ढ़े मे धारा होने के कारण मुहल्ले का नाम गैरीधारा पड़ गया। तब धारा में पानी भी आता था। अब तो प्राय: सूख ही गया है।
हम लोग रात होने बाद घर पहुचें । पहली बार मुझे एक पारंपरिक नेपाली घर को नजदीक से देखने का मौका मिला। घर में दो भाग थे। एक भाग में नाना जी (बुवा) नानू, बड़े मामा, बड़ी मामी, छोटी मामी और मेरे ममेरे छोटे, छोटे साले-सालियाँ रहते थे। कई लोग मेरी शादी में नहीं आ पाए थे। अत: सभी से मिलने और प्रणाम पाती रात में ही करने गए। बड़ी और छोटी मामी बहुत सुन्दर और ग्रेसफुल लगी। बाद में जब मेरे बच्चे हुए तो छोटी मामी को गुड़िया नानी बुलाने लगे। मकान बड़ा सा और तीन तल्लों का था। सबसे नीचे का तल्ला (Ground floor) या झिरी स्टोरेज भूसा वैगरह रखने और गाय बांधने के लिए था। बाथ रूम और नल भी नीचे के तल्ले पर था। पहला, दूसरा तल्ला रहने के लिए था ।
शायद ठण्ड से बचने के लिए ग्राउंड फ्लोर पर बेड रूम नहीं रखते होंगे। सबसे ऊपर attick या नेपाली में ब्यूंगल में रसोई था। एक छोटा कमरा रसोई के सामने था जो मेरे साले साहब बिमल (अब डॉ बिमल) का था। प्रथम तल्ले पर बड़े कमरे में माँ, बाबूजी रहते थे। इसमें धुप अच्छी आती थी और छुट्टी के दिनो में बाबूजी इसी कमरे से ऑफिस का काम भी निपटा लेते थे। ऐसे बाबूजी और मामा जी का ऑफिस वर्मा सिन्हा लॉ कनसर्न नई सड़क के पास था। एक बारदली के पीछे हम लोग का कमरा था। माँ बाबुजी और ३ साले भाइयों के सिवा परिवार में दो और लोग थे। बूढी माई और 'भालू' हमारा कुत्ता। जल्दी ही वह हमें पहचान गया। शायद लोगों का विशेष ध्यान मेरे ऊपर देख वह समझ गया था की मैं इस घर का विशेष सदस्य हूँ।लज़ीज खाना खा कर हम थोड़ी देर गप्पे मार कर सो गए।
हमारा पारम्परिक नेपाली घर |
हमारा पारम्परिक नेपाली घर |
नया घर ८०'s में बना |
ठण्ड इतनी थी रजाई ओढ़ कर सोये। मच्छर दानी भी लगाया गया। ज़मीन पर गलीचा बिछा था और छत पर चांदनी लगी थी। बाद में पता लगा फर्श मिटटी की होती है और हर हफ्ते उसे गोबर मिटटी से नीपना पड़ता था. फिर गलीचा और दरी बिछाते है. ड्राइंग रूम में सोफे की जगह पर चारपाटी या ऊंचा गद्दा रखते थे और गलीचे पर झक झक उजाला चादर या जाजीम बिछाया जाता। सब कुछ राजसी लगता। अब तो सब बदल गया है कम ही पारम्परिक घर काठमांडू में होंगे। सारे घर पक्के सीमेंट के बनने लगे और आधुनिक फरनीचर से सजने लगे है।
काठमांडू में अपने बाल सखा और बाल सखियों, यानि मेरे छोटे साले और सालियों के संग बिताये वो दिन बहुत सारी यादगार और मजेदार घटनाओं से भरे पड़े है. मैं उसे दूसरे भाग में लिखने वाला हूँ ! तब तक के लिए bye...
What beautiful memory. Aapko ek-ek detail yaad hai us yatra ki!! Amazing!
ReplyDeleteVery beautifully expressed memoirs.Just want to suggest a few corrections. 1.The Purano bus park is still an open space meant for parking of vehicles.
ReplyDelete2. It’s Shiv Bhanjyang not shim bhanjyang.
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