Wednesday, November 25, 2020

छठ पूजा की यादें


छठ पूजा के बारे में लिखने के पहले कुछ बातें बताना जरूरी है मेरे उन पाठकों के लिए जो इसके बारे में जानना चाहते है। इस पर्व को महापर्व भी कहा जाने लगा है जो एकदम सटीक है। बिहार के गांवो में इसे सिर्फ 'परव' या 'परवा' भी कहते है और इसे करने वाले को परवैती। बिहार, झारण्ड, पुर्वी  UP, बंगाल में तो लोग इस पूजा को करते ही है पर बिहारी लोग जहाँ जहाँ जीविका कमाने गए अपने साथ इस पर्व को भी ले गए। इस पर्व की तैय्यारी दिवाली से ही शुरु हो जाती है। घर की सफाई पुताई के बाद घर में लहसुन प्याज मिश्रित खाना नहीं बनता है। भारत में तो सभी राज्यों में इसे मनाते ही है  मोरिशस, अमेरिका में गए बिहारियों ने यह TRADITION वहाँ भी बनाए रक्खा है। ये पूजा 4 दिनों में सम्पन्न होता है। पहला दिन कार्तिक महीने के शुक्ल पक्ष चतुर्थी को नहाय खाय या कद्दु (लौकी, BOTTLE GOURD) भात के शुरु होता है जब परवैती नहा कर अरवा चावल, चना दाल और कद्दु की सब्जी और अन्य चीजें खा कर अपना निर्जल उपवास शुरू करते है। सारा खाना बिना लहसन प्याज का और सेंधा नमक (ROCK SALT) में बना होता है। अगले पंचमी के दिन खरना होता है। परवैति शाम के समय अकेले कमरे में पूजा करते है,  गुड़ की खीर रोटी का भोग लगाते है। किसी किसी परिवार में  नमकीन भोग भी लगाया जाता है। घर के सभी लोग और मित्र गण परवैती को प्रणाम कर प्रसाद ग्रहण करते है। इस प्रसाद ग्रहण के बाद परवैति पर्व खत्म होने तक निर्जल उपवास रखते है।


खरना और कद्दु भात
अगले दिन षष्ठी के पूरे दिन ठेकुआ प्रसाद शुद्ध तरीके से आटा, गुड़, घी से बनाया जाता है और बनाने वाले भी बनने तक उपवास रखते है। छठ के समय तरह तरह के फल जैसे शरीफा, पानी फल सिंघारा, सुथनी, पत्ते सहित मूली, गाजर, हल्दी, नारियल, केले का घौद, डाफ निम्बू, गन्ना, सुपारी इत्यादि से बाजार पट जाता है. और इन फलों को भी सूप पर ठेकुआ के साथ सजाते हैं. ठेकुआ की तरह दिखने वाले चीनी के बने सांचे भी सूपों पर सजाए जाते है। शाम के पहले डलिया, सूप प्रसाद के साथ तैय्यार करते है और नदी, तालाब, समुद्र, घर में बने हौदे पर परवैति नहा कर सूप को डूबते सुर्य के तरफ उठा कर अर्चना करते है सभी जन सूप के आगे जल या दूध गिरा कर अर्ध्य देते है। चौथे या पर्व के अंतिम दिन सुबह इसी विधि से उगते सुर्य को अर्ध्य देते है फिर परवैति प्रसाद पारन कर पर्व का समापन करते है।   

छठ का बजार छठ का सजा सूप
छठ का घाट हमारी दादू

मेरे लिए छठ पूजा की यादों में जमुई में बिताया छठ पूजा एक स्वर्ण बिंदु की तरह हैं. बचपन में दादू (मेरी प्यारी करुणामयी दादी) छठ करती थीं. छठ के लिए बनने वाले ठेकुआ के लिए आटा पिसवाना पहला काम होता था. गेहूं को धो कर छत पर सुखाया जाता था. हम बच्चे गेहूं की रक्षा चिड़िया और लंगूरों से करते थे. फिर एक दिन सोनिया माई ( उनकी बड़ी बेटी का नाम सोनी था) आ कर गेहूं ले जाती और जांते में पीस कर दे जाती थी. बचपन में घर में होने वाले कद्दू भात और खरना का अब याद नहीं. ठेकुआ, चावल का लड़ुआ बनने की याद हैं. प्रसाद बनाने वाले लोग भी उपवास में रह कर ही प्रसाद बनाते। मिट्टी के एकछिया चुल्हे पर आम की लकड़ी जला कर प्रसाद बनाया जाता। हम दो दिन के बाद मिलने वाले प्रसाद की कल्पना में डूब जाते. तरह तरह के फल आते, घर के पेड़ों के अमरुद तब तक तोड़ने की मनाही रहती जब तक छठ में अमरुद प्रसाद की तरह चढ़ नहीं जाते. ज्यादा याद किउल नदी में जाने की हैं. पहली बार छठ में ही स्वैटर निकलता था और हम पैदल हाई स्कूल होते हुए छठ के डलिया, सूप मे सजे प्रसाद के साथ किउल नदी के किनारे जाते और बेखौफ छिछली नदी में प्रवेश कर जाते। नदी का तल बालू का है और स्वच्छ पारदर्शी पानी है इस नदी का। नहाने के लिए बालू खोद कर गढ्ढ़ा बनाया जाता। भाटचक (हमारे खेत वाला गांव) से कोई न कोई मजदूर मदद के लिए आ जाते थे। कभी कभी दूसरे किनारे या बीच में ऊभर आए बालू के बन गए द्वीप पर भी छठ का डलिया रखे जाते।


कई द्वीपों वाली किऊल नदी छिछली किऊल नदी में छठ

दादू जब छठ करने में असमर्थ हो गईं  तो हमारा छठ भी सोनिया माई करने लगी। सोनिया माई हमारे यहाँ सत्तु वैगेरह दे जाया करती थी और पारिवारिक सम्बन्ध था हमारे बीच। इस समय नारदीह गांव से मरूवन मदद करने आ जाते। अपनी अंतिम समय तक उन्होनें हम लोगों की सेवा की। सोनिया माई हमारे घर से गेहूँ या उसको खरीदने के लिए पैसे ले जाती और छठ पूजा में चढ़ने वाला प्रसाद उनके घर में ही बनता था । हमारे घर में भी ठेकुआ बनता जिसे अमनिया प्रसाद कहा जाता। हम बच्चे ठेकुआ को सांचे पर ठोकने का काम मजे ले कर कर देते। यह प्रसाद छठ के बाद बांटने, खाने के लिए उपयोग में आता । सिर्फ अमनिया प्रसाद ही नमकीन चीजों या अचार के साथ खाया जाता। खरना के रात में घर से मै, कवलेश चाचा और कोई वयस्क खेतों के बीच से होकर सोनिया माई के यहाँ जाते, यह एक बहादुरी का काम होता। एक दो बार सोनिया माई ने,अपने घर के नजदीक वाले एक तालाब में भी छठ का सूप उठाया था पर यह कियुल नदी में होने वाले छठ की तरह सुविधा जनक नहीं था। पटना में पढ़ने के समय मैने तीन साल पटना गंगा किनारे के छठ का आनन्द भी उठाया था। स्कूल के समय कलटरी / अन्टा घाट की छठ पूजा देखने गए थे। गंगा में पानी ज्यादा था और मै नदी में उतरने में हिचकिचा रहा था। कालेज के समय एक साल तो सूबह के अर्ध्य के बाद हॉस्टल के गेट पर एक चौकी रख कर प्रसाद इकट्ठा किया और एक वर्ष नाव से घाट घाट घूम कर।
माँ ने बाद में छठ करना शुरु किया और हमारा कियुल में छठ का सिलसिला चलता रहा। राँची में छठ की निरंतरता बनाए रखने के लिए हमारा छठ लक्ष्मी (हमारी कामवाली) कर देती है। अक्सर डोरन्डा बटम तलाब में सूप उंठाती है पर दो साल स्वर्णरेखा के तट पर भी सूप उठाई। पानी तो कम था पर पथरीली नदी में कियुल जैसा आनन्द नहीं आता है।

छठ रांची में -स्वर्ण रेखा और बटन तालाब (डोरंडा)
अगले ब्लॉग में श्री लंका यात्रा के बचे भाग के बारे में लिखूँगा. आशा हैं आप पढ़ेगे

3 comments:

  1. You can take a Bihari away from Bihar, but you cannot take away chhat from them. :-) Very well written article!
    My blog post on Chhath too - https://shwetasheel.wordpress.com/2014/10/30/chhat-and-nostalgia/

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  2. A very good description of Chhat in Jamui .. by you..

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  3. Thanks for sharing this informative blog post about Chhath Puja. About Chhath puja Dates

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