पिछले वर्ष नवंबर में उत्तराखंड के सिलक्यारा टनेल में हादसा हो गया और कई दिनों तक कई मजदूर फंसे रह गए। तब मैंने एक ब्लॉग लिखा था। क्लिक कर पढ़ें। इस बार भी उत्तराखंड और अन्य पहाड़ी राज्य कई आपदाओं से जूझ रहा है। क्यों होता है ऐसा ? और क्यों हम इसे रोक नहीं पाते इसे। आईए विचार करें।
हाल के दिनों में भारत के पहाड़ी राज्यों में अतिवृष्टि और भूस्खलन से होने वाली त्रासदी की कई घटनाएं हुई। हिमाचल के कई जिले के रास्ते अभी तक कटे बहे पड़े हैं।
उत्तराखंड के धरौली में हुई तबाही के बाद होने वाले rescue की अभी TV पर चल ही रही थी कि जम्मू-कश्मीर के किस्तवार में बादल फटने की घटना में 46 तीर्थ यात्रियों (जो मचैल देवी की यात्रा पर थे) के मृत्यु और अनेकों के घायल होने की खबर आ गई। और कल की बात करे तो कठुआ (J and K ) में बदल फटने की घटना ने सात लोगों की जान लेली । इसमें अन्य नुकसान सामिल नहीं है।
धराली ABP / DD News के सौजन्य से
पड़ोसी देश की बात करे तो पाकिस्तान के राष्ट्रीय आपदा प्रबंधन प्राधिकरण के अनुसार, जलवायु परिवर्तन के कारण उत्तर-पश्चिमी पाकिस्तान में अचानक आई बाढ़ से कम से कम 337 लोगों की मौत हो गई है, जबकि हाल के दिनों में क्षेत्र में अचानक आई बाढ़ के कारण दर्जनों लोग लापता हैं। इसी प्रकार के समाचार यूरोप और अमेरिका से भी आ रहे है।
पाकिस्तान में बाढ़ 2025 हिन्दुस्तान टाइम्स के सौजन्य से
पिछले वर्ष (२०२४) यूरोप में करीब ४ लाख लोग बाढ़ से पीड़ित हो गए और इस वर्ष heat wave से पूरा यूरोप परेशान है । अब अमेरिका (USA ) की बात करते है CNN के अनुसार इस वर्ष जुलाई तक "कभी फुर्सत और राहत का पर्याय मानी जाने वाली गर्मी अब चिंता और उथल-पुथल का मौसम बन गई है। जीवाश्म ईंधन प्रदूषण और अन्य जटिल कारकों ने इन महीनों को बढ़ते ख़तरे के दौर में बदल दिया है, जिसमें लगातार गर्म लहरें, भीषण जंगल की आग और विनाशकारी बाढ़ शामिल हैं।"
USA में बाढ़ 2025, CNN के सौजन्य से
इन सभी आपदाओं का कारण क्या है ? इसका उत्तर है हमारे वैज्ञानिको के पास, बस सारी मानवता लाचार सी सब देख रही है और कई जगहों पर तो मानव ही इन आपदाओं का कारण बनता नज़र आता है। इनको समझना कोई रॉकेट साइंस नहीं है। कार्बन डाई ऑक्साइड और ऑक्सीजन साइकिल के बारे में ज़्यदातर लोगों ने पढ़ा ही होगा । प्रकृति ने एक ऐसा बैलेंस बनाया जिसमे कार्बन डाई ऑक्साइड को हमारे दोस्त वनस्पति / जंगल ऑक्सीजन में बदल देते है। हम अपनी CO2 बनाते है चाहे साँस लेने में या आग इत्यादि जलने में और प्रकृति उसे फिर ऑक्सीजन में बदल देती है इस तरह की CO2 और Oxygen की मात्रा वायुमंडल में स्थिर बनी रहे। लेकिंन मानव एक तरफ ज्यादा आग जलाता कर CO2 और गर्मी पैदा कर रहा है - कल कारखानों में , मोटर कारों में , हवाई जहाजों में और युद्ध में और दूसरी और CO2 को बदल कर ऑक्सीजन देने वाले जंगलों पेड़ों भी हम काट रहे है । नतीजा CO2 - ऑक्सीजन का संतुलन बिगड़ता जा रहा है। अब यही कार्बन डाई ऑक्साइड ऊपरी वायुमंडल में एक सतह बना कर धरती में पैदा होने वाली गर्मी को अंतरिक्ष में जाने से रोक देती है ।
धरती को कितनी गर्मी मिलती है और कितनी गर्मी धरती के वायुमंडल से बाहर चली जाती है इससे तापमान का एक संतुलन बनता है और वैश्विक औद्योगीकरण (१८५०-१९००) काल के पहले के संतुलन को आधार माना गया है - सभी अंतरास्ट्रीय समझौतों और प्रयत्नों के लिए। पेरिस समझौते के तहत, देशों ने वैश्विक ग्रीनहाउस गैस उत्सर्जन को काफी हद तक कम करने पर सहमति व्यक्त की, ताकि दीर्घकालिक वैश्विक औसत सतही तापमान वृद्धि को पूर्व-औद्योगिक स्तर से 2 डिग्री सेल्सियस से नीचे रखा जा सके और इसे 1.5 डिग्री सेल्सियस तक सीमित करने के प्रयास जारी रहें। हालाँकि ज़्यादातर देश पेरिस समझौते का हिस्सा हैं, लेकिन ईरान, लीबिया और यमन सहित कुछ देशों ने या तो इसकी पुष्टि नहीं की है या इससे बाहर निकल गए हैं। नए प्रशासन के तहत, संयुक्त राज्य अमेरिका ने भी समझौते से हटने की प्रक्रिया शुरू कर दी है। इन सब कारणों के अलावा मूमध्यीय प्रशांत महा सागर के उष्ण धाराओं के कारण होने वाले "एल नीनो" या "ला नीना" के कारण होने वाले जलवायु परिवर्तन इन समझौता का हिस्सा नहीं है।
भारत ने निम्नलिखित लक्ष्य इस दिशा में स्थापित किए है और बहुत कुछ हासिल भी किया है : " गैर-जीवाश्म ईंधन (renewable energy ) से स्थापित क्षमता का 40% प्राप्त करने का लक्ष्य। 2022 तक 175 गीगावाट नवीकरणीय ऊर्जा उत्पादन का लक्ष्य। 2.5 अरब टन कार्बन डाइऑक्साइड को अवशोषित करने के लिए वन क्षेत्र का विस्तार करने की योजना। शुल्क और सब्सिडी में कमी के माध्यम से जीवाश्म ईंधन पर निर्भरता कम करना। जुलाई 2025 तक भारत में सौर ऊर्जा की स्थापित क्षमता 119 गीगावाट थी। लेकिन जब तक विश्व के सभी अति विकसित देश इस दिशा में अपने अपने लक्ष्य न बनाये या सक्रिय रूप में इस दिशा में कार्य नहीं करते Global Warming कम नहीं की जा सकती।
निश्चित रूप से कोई एक देश अकेले Global Warming पर लगाम नहीं लगा सकता। पर त्रासदी के होने पर जान माल की हानि कम करने का प्रयत्न अवश्य कर सकता है। कहना न होगा की पहाड़ी क्षेत्रों में पर्यावरण बहुत नाज़ुक होता है और विकास के लिए किया प्रत्येक प्रोजेक्ट कुछ न कुछ हानि पंहुचा ही जाता है। मुझे याद है ८०'s तक गंगोत्री से हमारे पंडा जी जब जाड़ों में हमारे घर आते तो बताते की ऋषिकेश से ऊपर बहुत कम ही रोड है और उन्हें प्रायः पूरी दूरी पैदल तय करनी पड़ती है और अब हम चारधाम के गंगोत्री और बद्रीनाथ तक बस से जा सकते है और केदारनाथ और यमुनोत्री के काफी करीब तक रोड चली जाती है। हमने भी 2023 जून के उत्तराखंड ट्रिप में बहुत जगहों पर लैंड स्लाइड देखी थी। रोड , टनेल और जल विद्युत परियोजना सभी पहाड़ के लोगों के लिए आवश्यक है। पर शायद इनके सभी के planning /execution में हमसे कुछ कमी रह जाती है। या फिर इन विकास परियोजनाओं से पहाड़ी राज्यों पर पर्यटकों के आगमन पर अत्यधिक प्रभाव पड़ता है। जहां पर्यटन से निवासियों की आमदनी बढ़ती वहीं इससे अनियोजित होटल , मकान, दुकान, होम स्टे भी बन जाते हैं। पेड़ कट जाते हैं वो अलग। पर्यटक भी पर्यावरण का उचित ख्याल नहीं रखते।
यही कुछ धराली त्रासदी में जान माल के अत्यधिक नुकसान का कारण बन गया। समाचारों से जो निश्कर्श निकाला जा सकता है वह मैं आगे लिख रहा हूं । क्षीर गंगा नदी या गाद भागीरथी में मिलने के पहले एक त्रिकोणीय डेल्टा सा बनाता है। गंगोत्री तक बस आ जाने से यात्रियों की भीड़ प्रत्येक वर्ष बढ़ती जा रही है और धराली उनके खाने ठहरने का सबसे उपयुक्त और लोकप्रिय जगह बन गई है। नतीजन क्षीर गंगा के किनारे और उसके त्रिकोणीय डेल्टा पर कई होटल दुकान बन गये थे। लोग निश्चितं थे कि ये छोटी नदी अपने इन किनारों के बीच ही सीमित रहेगी। लेकिन जब अचानक से बहुत सी बारिश हुई तो ये छोटी नदी अपने प्राकृतिक रास्ते पर बह निकली ढ़ेरों मिट्टी और पत्थर के साथ। जब तक लोग संभलते सौ से अधिक लोग मलबों में दफन हो गए। भयानक बारिश से दो स्थान पर रोड भी बह गए, धंस गए और सहायता पहुंचने में देर भी हो गई। कई काम किए जा सकते हैं। पहला तो पर्यटक और कारों की संख्या परमिट इत्यादि से सीमित करना पड़ेगा। रोड जाम की समस्या से निजात भी तो चाहिए।
चोप्ता में जाम 2023, cantilever रोड
दूसरा कोई निर्माण स्थिर स्थलों पर हो , भूस्खलन संभावित क्षेत्र या नदी नालों के प्राकृतिक बहाव पर न हो। टनल भूस्खलन से निजात दिला सकता है, यदि इसके निर्माण में पहाड़ो के संतुलन को क्षति न पहुंचाई जाय। स्विट्जरलैंड में भूस्खलन संभावि स्थान पर कैंटीलीवर रास्ते जिन पर छत भी हो दिख जाते हैं । मैं जानता हूं कि रोड और पर्यावरण विशेषज्ञ के पास अवश्य कई और बेहतर विकल्प होंगे। आज बस इतना ही।
Tuesday, August 19, 2025
ग्लोबल वार्मिंग
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