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Thursday, May 11, 2023

वैशाली गणराज्य ( #यात्रा )

मैं हाल में एक पारिवारिक समारोह में भाग लेने हाजीपुर - (पटना के पास एक शहर जो वैशाली जिले का सदर मुकाम भी है) गया था। समारोह के बाद अगले दिन रात में मेरी ट्रेन पटना से थी । यानि मेरे पास एक दिन था वैशाली को explore करने के लिए । हमारा ठिकाना गाँधी सेतु जो पटना को उत्तर बिहार से जोड़ता है के पास था । हमने रात बिताने के लिए होटल खोज अभियान शरू किया और नज़दीक के चौरसिया चौक के पास स्थित होटल फन पॉइंट में दो कमरे ले लिए । यह होटल Covid के दौरान बंद ही था और सारे कमरे खाली ही पड़े थे । हमने दो सबसे बेहतर कमरे छांट लिए । हमारी रात अच्छी गुजारी । साफ़ सुथरे रूम और उजली साफ चादर । बस मज़ा आ गया ।

हमने अपनी यात्रा के लिए एक गाड़ी होटल से बुक करनी चाही पर बात नहीं बनी । हमें तो शाम तक पटना भी पहुंचना था इसलिए हमने पटना से ही गाड़ी मंगवा ली। दो बच्चे भी थे और थी उनकी अनगिनत जिज्ञासा । सब की राय हुईं की सबसे पहले हरिहर नाथ मंदिर जा कर पूजा कर ली जाये । हम सबसे पहले सोनपुर के प्रसिद्ध हरिहर नाथ मंदिर गए । इस क्षेत्र और मंदिर पर एक अलग ब्लॉग लिखने का इरादा है मेरा । पर मंदिर में काफी समय लग गया और इस कारण हमारी यात्रा बवंडर यात्रा (Whirlwind trip ) में तब्दील हो गयी । उसपर मेरे साथ जाने वाले मेरे छोटे भाई की एक ऑनलाइन मीटिंग का प्रोग्राम आ गया और हमारा घूमने का समय और भी कम हो गया । आगे वैशाली या वैशालीगढ़ की यात्रा विवरण लिख रहा हूँ ।

पहले कुछ इतिहास । आचार्य चतुरसेन के उपन्यास ने वैशाली को नगरवधु से जोड़ दिया और प्रसिद्ध भी कर दिया। हाल में एक राजनितिज्ञ ने इस बात का बेजा इस्तेमाल भी कर डाला। आम्रपाली को इतिहास की सबसे खूबसूरत महिला कहा जाता है. आम्रपाली की खूबसूरती की तुलना किसी भी चीज से नहीं की जा सकती है। लेकिन आम्रपाली की खूबसूरती ही उसके और वैशाली के दुर्भाग्य का कारण बना ।

वियतनामी मंदिर - वैशाली बुद्ध / महावीर काल के राज्य (dharmwire.com से आभार सहित )विश्व शांति स्तूप वैशाली

वज्जि संघ और वैशाली
नाम में क्या रक्खा है पर ऐसा माना जाता है कि वैशाली के प्राचीन शहर का नाम राजा विशाल से मिला है। प्रारंभ में, इसका नाम था विशालपुरी जो बाद में बदलकर विशाली या वैशाली हो गया।वज्जिका संघ सात आठ जनजातीय राज्यों का एक संघ था जो लिच्छवियो के नेतृत्व में दुनिया से सबसे पहले प्रजातंत्र था ।संघ की राजधानी थी वैशाली । इस प्रकार, लिच्छविका, मल्लका, वैदेह, और नायिका, शाक्य आदि जनजाति वज्जिका संघ के भीतर, क्षत्रिय जनजाति थे, और उनके राजा थे सेतक ...वैशाली शहर के आसपास केंद्रित लिच्छवियों के नेतृत्व में यह गणतंत्र दुनिया का पहला प्रजातंत्र या गणतंत्र था । संघ के अन्य सदस्य मिथिला क्षेत्र में वैदेह थे, कुण्डपुर के नायिका , और वज्जी जनजाति थे, जो लिच्छविकों के आश्रित थे । कुलीन पुरुषो से मत के आधार पर राजा चुना जाता । यानि राजा का बेटा ही राजा बने ऐसी कोई बाध्यता नहीं थी । मल्लका, जो दो अलग-अलग गणराज्यों में संगठित थे भी वज्जिका संघ का हिस्सा थे, हालांकि वे लिच्छवियों की निर्भर नहीं थे और इसलिए संघ के भीतर अपनी स्वतंत्रता और संप्रभु अधिकारों को बनाए रखते थे , जैन सूत्रों के अनुसार मल्लकों जो वज्जि संघ का हिस्सा थी पर वे स्वतंत्र रूप में कुशीनारा और पावा कासी-कोशल के गणतंत्र राज्य के हिस्सा भी थे । लच्छवियो और मल्लों का शासन कभी न कभी नेपाल और काठमांडू उपत्यका में भी रहा है । 6वीं शताब्दी ईसा पूर्व के दौरान गंगा घाटी में तीन प्रमुख शक्तियों का उदय हुआ, अर्थात् राजा बिम्बिसार के अधीन मगध साम्राज्य (हरयंका वंश), सेतक के अधीन वज्जिका संघ और प्रसेनजीत के अधीन कोशल साम्राज्य। ये सभी राजा गौतम बुद्ध और भगवान महावीर के समकालीन थे ।

आम्रपाली की कहानी
कहानी यह है की वैशाली नगर के एक गरीब दंपति को आम के पेड़ के नीचे एक नवजात बच्ची मिली। नवजात बच्ची को इस तरह से देखकर उस दंपति ने उसे उठा लिया और आम के पेड़ के नीचे पड़े होने के कारण उसका नाम रखा आम्रपाली। घर में धन अत्यधिक कमी थे फिर भी उसके माता-पिता ने उसके लालन में कोई कमी नहीं कीआम्रपाली जब तक 11-12 साल की हुई तब तक उसके रूप की चर्चा शुरू हो गई थी। आम्रपाली को देखते ही लोग उसकी खूबसूरती के दीवाने हो जाते थे। ये वो दौर था जब लोग उसकी एक झलक पाने के लिए दीवाने हो जाते थे। आम्रपाली की उम्र जैसे-जैसे बढ़ने लगी वैसे-वैसे उसके चाहने वाले बढ़ने लगे। सभीको उसका साथ चाहिए था सेठ, साहुकार, दरबारी, राजे, महाराजे सभी को। मता पिता के परेशानी का कारण बना आम्रपाली का रूप। उसका हाथ किसी एक के हाथ में देने का मतलब था औरों को नाराज़ करना, यानी गृह युद्ध। बात इतनी बढ़ी कि सभी बातों में दक्ष आम्रपाली बन गई नगर वधु। आम्रपाली ना अब शादी कर सकती थी और ना ही किसी एक व्यक्ति के साथ जिंदगी बिता सकती थी। उसे वो इंसान चुनने की इजाजत थी जिसके साथ वो संबंध बनाए, लेकिन वो किसी एक की नहीं हो सकती थी। आम्रपाली को ७ साल तक नगरवधू की पदवी रखनी थी । उसे रहने को महल और सभी अन्य सुख सुविधा दी गई । आम्रपाली एक आम नागरिक से प्यार भी करती थी जिसे राजा से मरवा डाला ।

आम्रपाली के बिम्बिसार और अजातशत्रु से सम्बन्ध
आम्रपाली की जिंदगी में प्यार दोबारा आया मगध के वयोवृद्ध राजा बिंबिसार के रूप में। बिंबिसार ने वैशाली राज्य पर हमला कर दिया और रूप बदलकर आम्रपाली के महल में शरण ले ली। बिंबिसार को आम्रपाली ने जगह दी तब उसे नहीं पता था कि वैशाली का राज्य खतरे में है। तब तक दोनों प्यार में पड़ गए थे और आम्रपाली को सच्चाई का पता चलते ही उसने बिंबिसार को युद्ध रोकने को कहा।
बिंबिसार भी आम्रपाली से प्यार कर बैठे थे कि उन्होंने युद्ध रोक दिया । आम्रपाली इसके बाद बिंबिसार के बेटे विमल कोंडाना की माँ भी बनी । कुछ समय बाद बिंबिसार को उसके बेटे अजातशत्रु के द्वारा मौत के घाट उतार दिया गया। बिंबिसार के मरने के बाद अजातशत्रु ने वैशाली पर फिर से आक्रमण कर दिया। जब अजातशत्रु वैशाली पहुंचा तो उसकी मुलाकात आम्रपाली से हुई। उसे देखते ही अजातशत्रु उसके प्यार में पड़ गया। आम्रपाली को भी वो पसंद आया पर उसे ये नहीं पता था कि ये बिंबिसार का बेटा है या बिंबिसार को मारने में इसका हाथ है। आम्रपाली को अजातशत्रु पसंद आ गया, लेकिन वैशाली के लोगों को ये बात पसंद नहीं आई और इस कारण उन्हें कारावास में डाल दिया गया । अजातशत्रु को यह नागबार गुजारी और उसने पूरे वैशाली में आग लगा दी। आम्रपाली को जब पता चला तो वो बहुत नाराज़ हो गईं। इसके बाद अजातशत्रु से उन्होंने नाता तोड़ लिया। अजातशत्रु ने वज्जि संघ को तहस नहस कर डाला और पूरा वज्जि संघ मगध साम्राज्य के अधीन आ गया ।

आम्रपाली का संघम शरणम् गच्छामि
इसके बाद आम्रपाली एक बौद्ध भिक्षु के तरफ आकर्षित ही । लेकिन बौद्ध भिक्षु के धार्मिक ज्ञान के आगे आम्रपाली नतमस्तक हो गईं और खुद बौद्ध भिक्षुणी बनने का फैसला लिया। एक महिला का बौद्ध विहार में प्रवेश का प्रारम्भ में विरोध हुआ । आम्रपाली पहली महिला बौद्ध भिक्षुणी थीं जिनके बाद अन्य महिलाओं ने भिक्षुणी बनने का फैसला लिया और इस तरह आम्रपाली को आखिर में जाकर शांति प्राप्त हुई।

आनंद स्तूप - वैशाली अशोक स्तम्भ वैशाली

बुद्ध, सम्राट अशोक और वैशाली
भगवान बुद्ध ज्ञान प्राप्ति के कुछ वर्षों बाद वैशाली पहुंचे थे। ऐसा माना जाता है कि उनके आगमन पर भारी बारिश हुई जिसने सूखे और बीमारी के शहर को साफ कर दिया। भगवान बुद्ध ने अपने सबसे उत्साही शिष्य आनंद को रतन सुत्त सुनाया और उनसे सुरक्षा और समृद्धि के लिए शहर के चारों ओर उसी का जाप करने का अनुरोध किया। इसने निश्चित रूप से वैशाली के भाग्य को बदल दिया क्योंकि 84000 लोगों ने बाद में राजाओं और राजकुमारों के साथ बौद्ध धर्म ग्रहण किया। अगले कुछ वर्षों के दौरान गौतम बुद्ध इस स्थान पर बार-बार रुके, कुटगरसला विहार में, जिसके खंडहर ट्रेडमार्क अशोक स्तंभ के बगल में स्थित हैं, जिसमें सिंह शीर्ष पर है। भगवान बुद्ध ने अपना अंतिम उपदेश वैशाली में दिया, अपने शिष्यों को अपने आसन्न महापरिनिर्वाण और कुशीनगर (जहाँ बुद्ध ने प्राण त्यागा ) जाने की इच्छा के बारे में बताया।
मूल रूप से बुद्ध के अवशेष केवल शाक्य वंश को जाने वाली थी, जिससे बुद्ध संबंधित थे। हालांकि, छह अन्य कुलों और एक राजा ने बुद्ध की राख की मांग की। इस विवाद को सुलझाने के लिए द्रोण नाम के एक ब्राह्मण ने बुद्ध की राख को आठ भागों में बांट दिया। और भगवान बुद्ध के नश्वर अवशेषों के आठ भागों में से एक लिच्छवियों के भी प्राप्त हुआ जिसे वैशाली में स्थापित किया गया । जहां यह अवशेष स्थापित है वह एक स्तूप है जिसे आनंद स्तूप कहाँ जाता है । इस स्तूप के चारो तरफ बुद्ध के अन्य शिष्यों के स्तूप भी है । बुद्ध के महापरिनिर्वाण के तीन शताब्दियों बाद सम्राट अशोक ने बुद्ध के अवशेषों को कई हज़ार भागों में बाँट कर पूरी दुनिया में जगह जगह स्तूप बनवाये । सम्राट अशोक ने कोल्हुआ, वैशाली में सिंह स्तंभ का निर्माण करवाया था। यह लाल बलुआ पत्थर के अत्यधिक पॉलिश किए गए एकल टुकड़े से बना है, जो 18.3 मीटर ऊंचे घंटी के आकार के शीर्ष से घिरा है। खंभे के शीर्ष पर एक शेर की आकृति रखी गई है।

और अंत में हमारी यात्रा
जैसा ऊपर मैंने लिखा हमारे पास वैशाली में बिताने के लिए बहुत कम समय था । और हमारे लिस्ट में था विश्व शांति स्तूप , नेपाल और अन्य देशो के बनाये मंदिर, महावीर जन्म स्थान, अभिषेक पुष्कर (सरोवर), आनंद स्तूप, अशोक सिंह स्तंभ । धीरे धीरे हमें सिर्फ दो स्थानों को देखने में सिमट गए । विश्व शांति स्तूप , अशोक स्तंभ जिसके पास आनंद स्तूप और अन्य स्तूप भी स्थित थे । इन सब जगहों को ढूढ़ने और देखने फोटो खींचने में ही तीन बज गए । हमारे साथ हमारे छोटे भाई थे जो एक न्यायिक अधिकारी है और उसका एक महत्वपूर्ण ऑनलाइन मीटिंग ४:३० बजे शाम से था । पहले प्लान था की यह मीटिंग वह पटना पहुँच कर करेगा क्योंकि वहीं लैपटॉप मिलने की संभावना था । पर अशोक स्तंभ देखने के बाद हमने वापस लौटना ही उचित समझा । लेकिन मर्फी का नियम बुरी तरह पीछे पर गया, हमारी गाड़ी ख़राब हो गयी । एक पेट्रोल पम्प के सामने ही । ड्राइवर बार बार बोलता रहा की गाड़ी में डीजल काफी है पर हमलोग ने डीजल ले लेने के लिए जोर दिया । उसने फिर एक बोतल में डीजल ला कर गाड़ी में डाला और गाड़ी स्टार्ट हो गयी किसी तरफ सामने पेट्रोल पम्प तक गाड़ी जा सकी और हमने डीजल भरवा लिया । हमारे पास डेढ़ घंटे थे जो पटना पहुंचने के लिए काफी थे । पर हाय री किस्मत अभी १०-१२ किलोमीटर गए हे थे की एक एक्सीडेंट जिसमे एक आदमी के मौत भी हो गयी थे और लोगों ने रोड ब्लॉक कर दिया । किसी तरह गाड़ी पीछे घूमा कर हम एक गांव के रोड पर गाड़ी डाल दी । गूगल ने हमें एक रेल लाइन तक ले गयी । उसके बाद खेतों के बीच से रास्ता था जो एक रेलवे लेवल क्रासिंग तक लेजाता था । हम पीछे लौट कर दूसरे रास्ते से उसी क्रासिंग तक गए उसके बाद भी कई जगह सिंगल रास्ते पर सामने से आने वाली गाड़ी और कभी कभी बस और ट्रक भी, मुश्किल पैदा कर रही थी और समय बीतता जा रहा था । खैर करीब घंटे भर बाद हम मैं रोड पर आ ही गए और क्योंकि रोड जाम था हमारे लेन में गाड़िया नहीं थी । ड्राइवर अब तेजी से गाड़ी भगा रहा था । खैर ४:३० बजते बजते हम हाजीपुर में अपने छोटी बहन के घर पहुँच ही गए और मेरे भाई ने मोबाइल पर ही ऑनलाइन मीटिंग कर लेना ठीक समझा । हम उसके बाद पटना जंक्शन के लिए निकल दिए और ट्रैन से अगले दिन रांची पहुँच गया ।

Monday, January 25, 2021

मेरा पैतृक शहर जमुई : रोचक इतिहास और #यात्रा

यूं तो हमारा पैतृक गाँव जिला नवादा, बिहार स्थित सरबाहनपुर है जहाँ हमारे पुर्वज शायद राजस्थान से आ बसे थे। मेरे दादा जी स्व० श्री प्रयाग नारायण लाल, जो पेशे से एक प्रसिद्ध वकील थे और परसन्डा (गिद्धौर) और टेकारी राज के वकील भी थे, 20 वीं शताब्दी प्रारम्भ में ही जमुई आ बसे। मेरा बचपन जमुई में ही बीता। मेरे दादा जी 57 के उम्र मे मेरे जन्म से पहले ही चल बसे और पारिवार की जिम्मेवारी संभालते हुए मेरे पिता स्व० राधा बल्लभ प्र० ने अपने मेडिकल की पढ़ाई पूरी की और अपने समय में क्षेत्र के अकेले MBBS डा० थे और काफी प्रसिद्धि भी अर्जित की थी। उनकी मृत्यु भी सिर्फ 57 वर्ष की उम्र में ही हो गई थी। बहुत पहले कनिंघम के लिखे पुस्तक मे पढ़ा था कि जमुई के पास गिद्धौर का राज परिवार चन्देल वंश के आखिरी वंशज है। 2018 दुर्गा पूजा में हम जमुई गए थे तब आसपास की कई दर्शनीय स्थानो को देखने गए थे और कुछ बातें और प्रचलित श्रुतियाँ  पर इन जगहों के शानदार और प्राचीन ईतिहास की और  इंगित कर रहा था । उत्सुकतावश मैने जमुई और आसपास के इतिहास पर जानकारी लेना शुरू किया। बचपन में खैरा के आगे गिद्धेश्वर पहाड़ जब जब जाते थे तब बताया जाता था कि जटायू रावण युद्ध यहीं हुआ था। अतः जमुई का रामायण कालीन होने सम्भावना है, पर इस क्षेत्र के लछुआर में भगवान महावीर के जन्मस्थान होने के कारण 600 BCE के इसका आसपास के होने में कोई शंका ही नहीं रही। गढ़ी बाँध यही पर कियुल नदी पर है और एक बड़ा शिवमंदिर भी यहीं है।  महाभारत काल के दौरान जमुई को जांबियाग्राम कहा जाता था। पटना संग्रहालय में संग्रहित तांबे की प्लेट के अनुसार कालांतर में इसे जम्भुबानी के रूप में में जाना जाने लगा। जमुई ज़िले में स्थित लछुआर और कुमार  गावं का नेतुला मंदिर भगवान महावीर का जन्म स्थान और केवल-ज्ञान प्राप्ति का स्थान भी है। मध्यकाल में  परसन्डा स्थित किले के कारण क्षेत्र का में नाम परसन्डा या पाटसंडा भी पड़ा ।

2018 के दुर्गा पूजा में भाड़े पर एक गाड़ी ले कर परिवारसहित  जमुई से 13 कि०मी० दूर स्थित शिव मन्दिर महादेव सिमरिया, कुछ आगे स्थित नेतुला भवानी का शक्ति पीठ (26 कि०मी०) लछुआर और खैरा  घूमने गया था। यात्रा में मैं इन जगहों के इतिहास के बारे में लोगों से जानकारी बीच लेता गया और अब मैं वही जानकारी सिलसिलेवार रखता हूँ । मै नेतुला मन्दिर से शुरू करता हूँ।
नेतुला भवानी मन्दिर को उतनी प्रसिद्धि प्राप्त नहीं है जितनी अन्य शक्ति पीठो को प्राप्त है पर स्थानीय लोगों के बीच इनका काफी महत्त्व हैं और यहाँ काफी प्रसिद्ध भी है। चूंकि हम दुर्गा पूजा में गए थे  भीड़ भाड़ स्वभाविक था। वैसे तो मां नेतुला मंदिर का इतिहास काफी पुराना है। इस मंदिर का 26 सौ साल पुराना इतिहास का रिकार्ड है। 6 सौ ई.पू. में भगवान महावीर गृह त्याग कर जब ज्ञान प्राप्त करने निकले थे, तब उन्होंने प्रथम दिन कुमार गांव में ही नेतुला मां की मंदिर परिसर स्थित वटवृक्ष के नीचे रात्रि विश्राम किया था और इसी स्थान पर अपना वस्त्र त्याग कर दिया था। इसका उल्लेख जैन धर्म के प्रसिद्ध ग्रंथ कल्पसूत्र में वर्णित है। नेतुला मां को चन्द्रघंटा का भी रूप बताया गया है। मन्यता है देवी सती की पीठ यही  गिरी थी। मन्दिर भव्य है पर पुन:निर्मित लगती है जबकि मुर्तियाँ पुरातन है।




----------------नेतुला मंदिर, कुमार, सिकन्दरा, बिहार-----------------



हमारा अगला स्टॉप था लच्छुआर। यह मान्यता है कि भगवान महावीर जो एक लिच्छवि राजकुमार थे का जन्म यही, तक़रीबन ६०० वर्षा ईशा पूर्व में, हुआ था न की वैशाली या चम्पारण ज़िले के कुण्डलीग्राम में,या बिहार शरीफ के कुण्डलपुर और लच्छुआर लिच्छवि का ही अपभ्रंश हैं। वर्धमान महावीर ने बारह वर्षों तक तप किया और कुमार के नेतुला मंदिर में उन्हें 'केवल ज्ञान' प्राप्त हुआ। उनकी मोक्ष प्राप्ति भी बिहार के पावापूरी में हुई। यहाँ के मन्दिर 10वीं शताब्दी की है, वैशाली में स्थित मन्दिर 16 वीं शताब्दी की और बिहारशरीफ के मन्दिर तो अभी अभी बना है। कुछ स्थान पर दिगम्बर जैनियों का विश्वास है कुछ पर श्वेताम्बरों की और कुछ पर इतिहासकारो का। एक टेबल दे रहा हूँ। जैन धर्म के ग्रन्थों में कहा गया है क महावीर स्वामी के जन्मस्थान पहाड़ो जंगलों से घिरा था और करीब नदी भी बहती थी। चूंकि अन्य दो क्षेत्र मैदानी इलाके में है अतः लछुवाड़ के पास पहाड़ पर स्थित कुण्डघाट ही 24वें तिर्थंकर महावीर स्वामी का असली जन्मस्थान हैं। श्वेताम्बर धर्मालम्बी भी ऐसा ही मानते है। ऐसी मान्यता हैं की वैशाली भगवान महावीर का ननिहाल था और वे वहां पहली बार ४२ वर्ष के उम्र में गये थे । पहाड़ी क्षेत्र कुण्डघाट पर एक नए भव्य मंदिर का निर्माण हो रहा है जो पूरा पूरा राजस्थान से लाए सफेद संगमर्मर से बनेगा। मन्दिर में नक्काशी और मुर्तियों का निर्माण बाहर से आए कारीगर कर रहे है। 2022-23 तक शायद मन्दिर पूरा हो जाएगा। हम लोग लछुआर में स्थित घर्मशाला और मन्दिर तक गए थे। उस समय मुख्य मुर्ति चोरी होने के 4 महीने के अन्दर चोर वापस रख गए थे। जिस दिन हम लोग लछुआर गए थे उस समय मुख्य मुर्ति नीचे मन्दिर में ही स्थापित थी और अगले ही दिन उसे शिखर जी ले जाने की योजना थी।



----------------जैन मंदिर,लछुआर, बिहार-----------------



पहाड़ी पर नया जैन मंदिर की नक्काशी


महादेव सिमरिया हम जमुई से आने समय ही हो आए थे। इस मन्दिर का इतिहास भी काफी रोचक है। जमुई। सिकन्दरा-जमुई मुख्यमार्ग पर अवस्थित बाबा धनेश्वर नाथ मंदिर आज भी लोगों के बीच आस्था का केंद्र बना हुआ है। जहा लोग सच्चे मन से जो भी कामना करते हैं उसकी कामना की पूर्ति बाबा धनेश्वरनाथ की कृपा से अवश्य पूरी हो जाती है। बाबा धनेश्वर नाथ शिव मंदिर स्वयंभू शिवलिंग है। इसे बाबा वैद्यनाथ के उपलिंग के रूप में जाना जाता है। प्राचीन मान्यता के अनुसार यह शिवमंदिर प्राचीन काल से है। जहा बिहार ही नहीं वरन दूसरे राच्य जैसे झारखंड, पश्चिम बंगाल आदि से श्रद्धालु नर-नारी पहुंचते हैं। पूरे वर्ष इस मंदिर में पूजन दर्शन, उपनयन, मुंडन आदि अनुष्ठान करने के लिए श्रद्धालुओं का ताता लगा रहता है।
मंदिर की सरंचना एवं स्थापना
इस मंदिर के चारों और शिवगंगा बनी हुई है। मंदिर का मुख्य द्वार पूरब दिशा की ओर है। मंदिर परिसर में सात मंदिर है जिसमें भगवान शकर का मंदिर गर्भगृह में अवस्थित है।शिवलिंग की स्थापना को लेकर मान्यता है कि पुरातन समय में धनवे गाव निवासी धनेश्वर नाम कुम्हार जाति का व्यक्ति मिट्टी का बर्तन बनाने हेतु प्रत्येक दिन की भाति मिट्टी लाया करता था कि अचानक एक दिन मिट्टी लाने के क्रम में उसके कुदाल से एक पत्थर टकराया। उस पर कुदाल का निशान पड़ गया। उसने उस पत्थर को निकालकर बाहर कर दिया। अगले दिन पुन: मिट्टी लेने के क्रम में वह पत्थर उसी स्थान पर मिला। बार-बार पत्थर निकलने से तंग आकर धनेश्वर ने उसे दक्षिण दिशा में कुछ दूर जाकर गडढे कर उसे मिट्टी से ढक दिया। उसी दिन मानें तो जैसे रात्रि महाशिवरात्रि सा लग रहा था। कालांतर में वहां एक मंदिर स्थापित किया गया
गिद्धौर के महाराजा ने की मंदिर की प्राण-प्रतिष्ठा
ऐसी मान्यता है कि १६ वीं शताब्दी में गिद्धौर (चंदेल ) वंश के तत्कालीन महाराजा पूरनमल सिंह सिकन्दरा, लछुआड़ से हर दिन देवघर जाकर शिवलिंग पर जल चढ़ाने के उपरांत ही भोजन किया करते थे। रास्ते में पड़ने वाली किउल नदी में बाढ़ आने के बाद वे कई दिन नदी पार कर देवघर नहीं जा पाए। रात्रि में स्वप्न आया कि मैं तुम्हारे राज्य में प्रकट होउंगा। सिकन्दरा से देवघर जाने के दौरान सुबह सबेरे महादेव सिमरिया के शिवडीह में लोगों की भीड़ देखकर राजा वहां पहुंचे तो स्वत: प्रकट शिवलिंग पाया। जैसा उन्हें देवघर के भगवान शंकर ने स्वप्न में बताया था। राजा ने वहां एक भव्य मंदिर बनाया और स्वप्न के अनुसार देवघर में पूजा का जो फल प्राप्त होता है वहीं महादेव सिमरिया की पूजा से प्राप्त है। चुकि कुंभकार की मिट्टी खुदाई के दौरान यह शिवलिंग प्रकट हुआ था। इस कारण महादेव सिमरिया में ब्राह्माणों की जगह आज भी कुंभकार ही पंडित का कार्य करते हैं।


मंदिर परिसर एक भग्न मूर्ति

---------------महादेव सिमरिया शिव मंदिर ---------------------


जमुई का इतिहास गिद्धौर राज वंश के  बिना अधूरा हैं। इनके पूर्वज मूल रूप से महोबा के शक्तिशाली चंद्रवंशी चंदेल राजपूत वंश के थे। खजुराहो इनकी  राजधानी थी और वे मध्य प्रदेश में प्रसिद्ध खजुराहो मंदिरों के निर्माता थे। बाद में मप्र के महोबा क्षेत्र और अंततः कालिंजर चंदेल शासकों की राजधानी बन गया 12 वीं शताब्दी में दिल्ली के शासक पृथ्वीराज चौहान और बाद में मुस्लिम शासकों द्वारा राजा परमर्दि देव के साम्राज्य पर अधिकार कर लिया गया था। अल्हा और उदल राजा परमर्दि देव के दो बहादुर सेना प्रमुख थे जिन्होंने कालिंजर की रक्षा के लिए बहादुरी से लड़ाई लड़ी लेकिन हार गए। मुझे याद हैं की जमुई क्षेत्र में आल्हा (जो आल्हा उदल की बहादुरी की गाथा हैं) गाने वाले अक्सर घर आते थे. शायद इसका कनेक्शन भी चंदेल वंश से होगा. चंदेल राजपूत शासकों ने अलग-अलग दिशाओं में प्रवास किया, एक शाखा हिमाचल प्रदेश में बस गई और बिलासपुर राज्य की स्थापना की और बाद में मिर्जापुर जिले के बिजयगढ़, अघोरी-बरार में स्थापित किया। रीवा राज्य के अंतर्गत उत्तर प्रदेश और बाड़ी, मप्र।
1266 ई। में, बाड़ी के राजा के छोटे भाई राजा बीर विक्रम सिंह ने बिहार के पाटसंडा (परसण्डा) क्षेत्र में प्रवास किया और दोसाद जनजाति के नागोरिया नामक आदिवासी प्रमुख की हत्या कर दी और राज्य की स्थापना की और कहा जाता है कि वह इस हिस्से के पहले राजपूत आक्रमणकारी थे । गिद्धौर बिहार के सबसे पुराने शाही परिवारों में से एक है और इसने छह शताब्दियों तक परसंडा (गिद्धौर) पर शासन किया है। गिद्धौर के द्वितीय राजा राजा सुखदेव सिंह ने गिद्धौर के पास काकेश्वर में भगवान शिव और एक देवी मंदिर को समर्पित 108 मंदिरों का निर्माण किया। 1596 में, राजा पूरन सिंह ने झारखंड के देवघर में बैद्यनाथ धाम के प्रसिद्ध ज्योतिर्लिंग शिव मंदिर का निर्माण किया। राजा पूरन आमेर के राजा मान सिंह के साथ बहुत करीबी दोस्त थे और उन्होंने राजा पूरन मल की बेटी की शादी आमेर के राजा चंद्रभान सिंह के साथ हुई, जो आमेर के राजा मान सिंह प्रथम का छोटा भाई था। राजा पूरन मल की ख्याति दिल्ली की दरबार तक पहुँच गई और माना जाता है कि मुग़ल सम्राट, राजा पूरन मल के स्वामित्व वाले एक पारसमणि पर कब्जा करना चाहते थे और उन्होंने युवराज हरि सिंह को दिल्ली बुला लिया और उन्हें बंदी बना लिया। जिस दौरान राजा पुरण मल की मृत्यु हुई और उनके छोटे बेटे राजकुमार बिसंभर सिंह को पाटसंडा के राजा का ताज पहनाया गया। युवराज हरि सिंह ने अपने तीरंदाजी कौशल से मुगल सम्राट को प्रभावित किया और अंततः एक परगना अनुदान के सजा पर रिहा किया गया और बाद में उनकी वापसी पर, समझौते के रूप में खैरा के जागीर को मंजूरी दे दी गई, और युवराज हरि सिंह खैरा के पहले राजा बन गए। 1651 में गिद्धौर के 14 वें राजा राजा दलार सिंह ने सम्राट शाहजहाँ से एक सनद प्राप्त की। 1919 में खैरा के वंशज राजा राम नारायण सिंह के राजा हरि सिंह ने खैरा की जमींदारी को मुंगेर के राय बहादुर बैजनाथ गोयनका के नेतृत्व वाले एक सिंडिकेट को बेच दिया। शहर से 2 किलोमीटर की दूरी पर स्थित रेलवे स्टेशन के नाम से परसंडा का नाम बदलकर गिद्धौर रख दिया गया। झाझा जमींदारी के भीतर एक और महत्वपूर्ण रेलवे स्टेशन था और जमुई सब डिवीजन हेड क्वार्टर था। हम लोग अपनी जमुई यात्रा में खैरा भी गए थे और किले का फोटो दे रहा हूँ.

खैरा फोर्ट -हाथी द्वार किउल नदी और पत्नेश्वर मंदिर

गिद्धौर के राजाओं ने बहुत सी सामाजिक कार्य किये जैसे स्कूल, कॉलेज, मंदिरों की स्थापना. युवराज कुमार कलिका ने आज़ादी की लड़ाई में हिस्सा भी लिया. शासकों की कुछ निर्माणों की सूचि दे रहा हूँ , गवर्नमेंट बॉयज़ मिडिल स्कूल, गवर्नमेंट गर्ल्स मिडिल स्कूल, रावणेश्वर संस्कृत महाविद्या, गिद्धौर में महाराज चंद्रचूड़ विद्या मंदिर, जमुई हाई स्कूल में रावनेश्वर हॉल का निर्माण और 1947 में एक पब्लिक लाइब्रेरी की स्थापना।
महाराजा बहादुर सर जय मंगल सिंह को महाराजा बहादुर के वंशानुगत उपाधि से सम्मानित किया गया था और के.सी.एस.आई. से भी। 1898 में लंदन के एक साप्ताहिक समाचार पत्र द ग्राफिक में उन पर एक लेख प्रकाशित हुआ था। महाराजा बहादुर रवनेश्वर प्रसाद सिंह ने 1909 में मिंटो टावर का निर्माण तत्कालीन ब्रिटिश वायसराय लॉर्ड इरविन की गिद्धौर यात्रा की याद में करवाया और डायमंड जुबली डिस्पेंसरी का भी निर्माण कराया। जिसे बिहार में सबसे अच्छी चिकित्सा सुविधाओं में से एक माना जाता था और 1925 के मुंगेर गजेटियर में इसका उल्लेख मिलता है। महाराजा बहादुर रवनेश्वर प्रसाद सिंह ने रु 10000/- पटना मेडिकल कॉलेज के लिए भी दिया ।
महुलीगढ़ के राजकुमार कालिका प्रसाद सिंह, गिद्धौर एक प्रसिद्ध स्वतंत्रता सेनानी और सत्याग्रही थे, जिन्होंने ब्रिटिश शासन के दौरान कई बार जेल गए और महात्मा गांधी के 1921 के असहयोग आंदोलन में बहुत महत्वपूर्ण भूमिका निभाई। जमुई शहर के कुमार कालिका मेमोरियल कॉलेज का नाम उनके नाम पर रखा गया है। गिद्धौर के महुलगढ़ के राजकुमार दिग्विजय सिंह बहुत ही उम्दा कलाकार थे। गिद्धौर के दाबिलगढ़ के राजकुमार बागेश्वरी प्रसाद सिंह एक महान विद्वान, कवि और दार्शनिक थे।
वर्त्तमान काल में नयागाँव (लाल कोठी) के कुमार दिग्विजय सिंह, गिद्धौर एक प्रमुख राजनेता थे और पाँच बार संसद सदस्य थे। MP (बांका, बिहार से लोकसभा) - 1998, 1999, 2009 और सांसद राज्यसभा- 1990, 2004। वे केंद्रीय वित्त और बाद में विदेश मंत्री के रूप में मंत्री रहे। चन्द्र शेखर सरकार (1990-1991) के दौरान। अटल बिहारी वाजपेयी ने राष्ट्रीय जनतांत्रिक गठबंधन सरकार का नेतृत्व किया, (1999-2004) वे रेलवे, वाणिज्य और उद्योग के केंद्रीय मंत्री और बाद में विदेश मंत्री थे।  महाराजा बहादुर प्रताप सिंह दो बार बांका संविधान, बिहार- 1989 और 1991 से जनता दल से संसद-लोकसभा के सदस्य चुने गए। जमुई क्षेत्र के कुछ और ऐतिहासिक हासिक बातें फिर कभी।