Friday, May 7, 2021

कॉलेज के एजुकेशनल टूर्स - मेरी पहली घुमक्कड़ी पार्ट-1 -(#यात्रा)

पिता या घर के बड़ों के साथ की गयी मजेदार यात्राओं और तीर्थ यात्राओं को छोड़ से थो कॉलेज का ये ट्रिप था मेरी पहली घुमक्कड़ी।


 मैनें ईंजिंनियरिंग की पढ़ाई BCE, (Now NIT) पटना से की है। हमारा बैच था 1965-1970 ।  उस समय हमारे कॉलेज से फर्स्ट year को छोड़ हर साल कहीं न कहीं एजुकेशनल ट्रिप पर ले जाया जाता था । हमारा सेकंड  यिअर का ट्रिप  Dehri -on -Sone गए सर्वेयिंग कैंप के साथ  club किया  गया था  पुराना ब्लॉग देखे , बाद में हम बरौनी थर्मल पावर स्टेशन और HEC रांची भी गए थे। थर्ड यिअर यानि 1967 में हम दुर्गापुर, कलकत्ते, जमशेदपुर और पुरी घूमने गए थे। तब ज्यादातर लोगों के पास बॉक्स कैमरे होते थे। सिर्फ़ एक छात्र के पास फोल्डिंग वाला कैमरा था। पर वो बस फाइनल year में ही टूर पर गया था। आग्फा क्लिक 3 एक लोकप्रिय कैमरा था जिसमे 120 साईज की रील लगती थी जिस पर 12 फोटो खींचे जा सकते थे। मेरे एक क्लास मेट ने नेपाल से एक कैमरा जो सिर्फ 9 रुपये का था लाकर दिया था। ये कैमरा छोटे पर 16 फोटो एक रील पर खींचता था। हम श्वेत श्याम रील ही लगाते थे। रंगीन रील तब मिलता भी होगा तो हमें पता नहीं था। कुछ श्वेत श्याम फोटो को बाद में मैने फोटो ब्रश और कलर पेपर स्ट्रीप से अवश्य रंग डाले थे। टूर की सभी फोटो स्लाइड शो के रूप में प्रस्तुत हैं

थर्ड यियर में अपने पिताजी का आग्फा गेवर्ट कैमरा ले कर गया था। इस कैमरे में 120 नंबर का रील लोड होता था जिस पर इस कैमरे से सिर्फ 8 बड़े फोटो खींचें जा सकते थे। क्या पता था अपने पापा का यह कैमरा मैं कलकत्ते में खो दूंगा। हुआ ये कि जब कलकत्ते मे हम दमदम एअर पोर्ट (तब यही नाम था) घूमने गए और एक बोर्ड देख कर ठिठक गए "Photography prohibited". तब मैने अपना झेला टटोला पाया कि मै कैमरा तो बस में ही भूल आया जहां मैं बैठा बैठा झपक गया था। गाड़ियों के नंबर याद रखना तब मेरी आदत में शुमार था। और मैंने बस को ढ़ूढ़ निकाला। बस स्टॉप पर खड़ी ही थी पूछने पर कंडक्टर नें कहा कोई कैमरा नहीं छूटा है। उसकी आंखें और आव भाव कुछ और कह रहे थे। खैर कैमरे के साथ ही उस यात्रा में खींचे गए फोटो भी गुम हो गए।

फोर्थ यिअर 1968 की यात्रा मे मध्य और उत्तर भारत की यात्रा हमने की थी। भोपाल, जबलपुर, खजुराहो, पन्ना वेगैरह घूमते हुए हम आगरा पहुचें और फतहपुर सिकरी होते हुए दिल्ली गए। दिल्ली से चंडीगढ़, शिमला, कुफरी घूमते हुए हरिद्वार गए.. हरिद्वार से ऋषिकेश, लक्षमण झूला गए फिर देहरादून गए और वहां से मसूरी भी गए। हमारा लक्ष्य था ज्यादा से ज्यादा हिल स्टेशन घूम लेना, और एक प्रसिद्ध हिल स्टेशन नैनीताल गए बिना ट्रिप अधूरा रह जाता. हरिद्वार से हम काठगोदाम होते हुए नैनीताल भी घूम आये । पर लगातार हिल स्टेशन घूमते घूमते एक जैसे दृश्य परिवेश से हमारे क्लासमेट सब बोर हो गए थे और नैनीताल में रुकना ही नहीं चाह रहे थे. नैनी झील में नौका विहार तो किया और होटल में रुके भी पर आधे मन से. अगले दिन वापसी की ट्रेन पकड़ ली.  आस पास घूमने में किसीने कोई interest नहीं दिखाया।

हमने सारी यात्राएं अधिकतर ट्रेन से ही की थी. कहीं कहीं बस से भी गए. जैसे शिमला से कुफरी, देहरादून से मसूरी, काठगोदाम से नैनीताल, आगरा से फतेहपुर सिकरी वेगैरह.
ट्रेन यात्रा हम राउंड ट्रिप टिकट पर करते थे, जो थोड़ा सस्ता पड़ता था. नियम साफ था जबतक कोई टर्मिनल स्टेशन ना मिले किसी रूट पर दुबारा यात्रा ALLOWED नहीं था. इस तरह का यात्रा रूट बनाना कोई आसान काम नहीं था. रेलवे का ब्राडशा जो की पूरे भारत में चलने वाले ट्रेन की टाइम टेबल का संकलन होता था का उपयोग हम करना पड़ता था और मुझे इस काम में काफी मजा आता था। ब्रैडशा देखना काफी धैर्य का काम होता था। Trains at a glance और अब तो internet ने तो यह काम आसान कर दिया है। तब कोई स्लीपर क्लास नहीं होता था । सिर्फ 1st , 2nd और 3rd क्लास होते थे । 1st , 2nd क्लास उच्च्च श्रेणी माने जाते थे जैसे आज के 1AC, 2ndAC । तब का 3rd क्लास बाद में आज का जनरल 2nd क्लास हो गया। GT बोगी में ८० सीट्स होते थे और 4th ईयर तक हमने ऐसी बोगी में ही यात्रा की और गाड़ी आने पर धक्का-मुक्की कर बोगी मैं घुसते थे । रात होटेलों में  बिताते । फाइनल ईयर में पूरी बोगी बुक की गयी थी । मेरे ब्रांच में 60 लड़के थे और हम बोगी में ही सो लेते थे । कैंप काट का उपरी स्टील  का पल्ला हम साथ ले कर गए के और दो बर्थ के बीच में डाल देने से तीन छात्र उस पर सो लेते। साइड में आमने सामने के दो सीट खटिया की तरह रस्सियों से बिन  लेते। 80 seater बोगी में इस जुगाड़ से 600 लोगों की "बर्थ" बन जाती। मीटर गेज में साइड सीट नहीं होने पर हम adjust कर लेते। 
अब मैं यात्रा का कुछ डिटेल देता हूँ।

पटना से हम सब से पहले सतना पहुंचे, वहां से खजुराहो बस से गए. चन्देलों द्वारा बनाया मंदिरों को देखा. कंदरिया महादेव मंदिर के बाहरी दीवारों पर बने रति रत मुर्तियाँ अचंभित करने वाले थे। हमने इन मुर्तियों की कोई close up फोटो नहीं खींचा, तब घर में ऐसी Erotic फोटो नहीं ले जा सकते थे । हम ऐसे भी रील बचा बचा कर फोटो खींचते।

सतना से ट्रेन से हम जबलपुर पहुंचे. यहाँ मार्बल रॉक्स (भेराघाट) , धुआँधार फाल्स घूमना था हम लोग टैक्सी से सारी जगहे घूम आये. कुछ फोटो दे रहा हूँ. भेड़ाघाट में हमने बोटिंग की और सीधी खड़ी संगमर्मर के पहाड़ो मे मंत्रमुग्ध कर दिया। पानी साफ ट्रांसपेरेंट था। हम सिक्के फेंकते और कुछ पास खड़े बच्चे पानी में कूद जाते और सिक्को को अपने मुंह में दबाये लौट आते।


जबलपुर से हम भोपाल ट्रेन से गए। भोपाल में बड़ा तालाब और छोटा तालाब और ताज उल मस्ज़िद घूमने गए। अब सोचता हूँ साँची और भीम बेटका भी जाते तो अच्छा रहता ।

भोपाल से हमलोग आगरा गए और ताजमहल, आगरा फोर्ट घूमने गए। ताज महल की खूबसूरती देख कर हम स्तब्ध रह गए। हमारे उम्मीदों से कही ज्यादा सुन्दर । आगरा फोर्ट में हमने वह कमरा भी देखा जहाँ औरंगजेब ने शाहजहाँ को कैद कर रखा था । ताजमहल को यहाँ से देखा जा सकता था । शाहजहाँ ने अपने अंतिम दिन यही से ताजमहल को देखते देखते गुजरे थे । आगरा से हम फतह पुर सिकरी गए। यह जगह अकबर की बसायी राजधानी थी और यही है सलीम चिश्ती का मकबरा जो एक पवित्र जगह है। सलीम चिश्ती से अकबर ने एक बेटे की प्रार्थना की थी और सलीम (जहांगीर) का जन्म हुआ । उसका नाम भी सलीम चिश्ती के नाम पर रखा गया था । पानी के कमी के कारण अकबर को अपनी राजधानी आगरा shift करनी पड़ी थी ।

आगरा से हम लोग राजधानी दिल्ली पहुंचे । रुकने की जगह थी दिल्ली की काली बाड़ी । नजदीक ही बिरला मंदिर भी था । हम बहुत सारी जगह घूमें। DTC की बस में। पता चला की टिकट लेने की जिम्मेवारी पैसेंजर की हैँ। बिहार में कंडक्टर खोज खोज कर टिकट काटते । एक बार भीड़ में कडंक्टर को ढ़ूढ‌ टिकट नहीं ले पाए और जब उतरते समय टिकट चेक किया तब fine देना पड़ा । कंडक्टर थोड़ा rude भी था। कनाट प्लेस की एक खरीदारी याद हैं टाई की। हमारे रोज के ड्रेस में ब्लेजर और टाई सामिल था। बहरहाल कनाट प्लेस में टाई थे नौ रूपये में एक दर्जन । विश्वास करे दर्ज़न के भाव यही थे । एक लेने पर एक रुपया देना पड़ रहा था । सभी ने खरीदा । मैंने भी। हमारा एक मित्र था भारत भूषण लम्बा दुबला सा वह क्लास में सबसे आच्छा tie बंधता था । कुफरी के रंगीन फोटो में उसे देखा जा सकता है । कुतुब को अपने छोटे कैमरे में कैद करने की नाकाम कोशिश भी की। तब कुतुब में पहले तल्ले तक उपर चढ़ना allowed था और मै उपर से एक बढ़िया फोटो खींचने में कामयाब भी रहा।


हमारा अगला स्टॉप था चंडीगढ़ । पंजाब में जब एक जगह ट्रेन रुकी तो हम लस्सी पीने से अपने तो नहीं रोक पाए। हाथ भर लम्बे गिलास को तो हम देखते रह गए । चडीगढ़ के बारे में पढ़ रखा था । यह भारत के पहला पूरी तरह प्लान्ड शहर था । इसके आर्किटेक्ट थे Le Carbusier । चंडीगढ़ भारत का एक अद्भुत शहर है। यह शहर किसी भी राज्य का हिस्सा नहीं माना जाता। यह शहर भारत का केंद्र शासित प्रदेश है। इस शहर का नियंत्रण भारत सरकार के हाथों में है। इस शहर पर किसी भी राज्य का अधिकार नहीं। इस शहर की खास बात यह है की यह शहर पंजाब और हरियाणा दोनों राज्य की राजधानी है पर किसी भी राज्य का हिस्सा नहीं है । हम सुखना लेक रॉक गार्डन और रोज गार्डन देखने गाये । विधान सभा भवन देखा और एक फिल्म भी देखी ।

चंडीगढ से हमलोग कालका गए और छोटी लाईन के हिल रेलवे से हम लोग शिमला के लिए रवाना हो गए। ट्रेन बस 1 डब्बे की थी जिसे रेल मोटर कहते है । एक बड़े बस की तरह। 2014 में जब फिर से शिमला गए तो देखा ऐसी ट्रेन अब भी चलती है। रास्ते के दृश्यों का आनंद लेते लेते हम NAHAN आ पहुंचे । हम सभी जानते थे मोहन मैकिन्स की फैक्ट्री यहीं है । बरोग आया तो किसी लोकल ने उस इंजीनियर के बारे में बताया जिसने दोनों तरफ से टनल एक साथ खोदना शुरू तो कर दिया पर वह Misalign हो गया । शर्म से उसने आत्महत्या कर ली पर इस स्टेशन को अपना नाम दे गए । हम कुछ ही घंटे में शिमला पहुँच गए । प्रोफेसर साहेब पहले जा कर एक नजदीक का होटल बुक कर आए । हमारे ग्रुप के तीन दोस्तों का सामान holdall, metallic boxes (तब मोल्डेड सूटकेस मिलने शुरू नहीं हुआ था ) सिर्फ एक कुली ने अकेले उठा लिया और हम पैदल ही होटल पहुँच गए । शिमला में मॉल रोड होते हुए जाखू मंदिर तक पैदल ही हो आये । अगले दिन हम Kufri गए , काफी बर्फ पड़ी थी । हम ने वहां एक स्कीइंग क्लब में lunch बुक कर बर्फ में खेलने निकल पडे । जब लौटे तो क्लब के फायर प्लेस के पास बैठे। थोड़ी देर के बाद ब्लेजर के जेबों से पानी टपकने लगा । तब पता चला बर्फ पर स्की स्लोप में फिसलने के समय काफी बर्फ जेबों में भर गयी थी। २०१४ में जब फिर से कुफरी गया तब मैं इस क्लब को खोज रहा था पर कही नहीं दिखी ।


शिमला से हम हरिद्वार गए । चोटीवाला होटल में सभी ने छक कर खाया । बहुत स्वादिष्ट खाना था । सुना है अब शायद वैसा नहीं खिलाते । नाम को चरितार्थ करते हुए बाहर एक बच्चे को मुण्डन कर मोटी चोटी के साथ बैठा रखा था। हम ऋषिकेश और लक्मण झूला भी गए । हरिद्वार से हम देहरादून ( सहस्र धारा, फॉरेस्ट रिसर्च ) और फिर टैक्सी से मसूरी गये जहां पैदल ही घूमें। मसूरी के सबसे ऊँची चोटी ( peak ) लाल टिब्बा पर जाने की हिम्मत नंही हुईं । पर घुमावदार रास्ते का खूब आनंद उठाया सभी ने । शाम तक हम थक कर देहरादून लौट आए।


जैसे प्रारंभ में मैने लिखा है सबसे अंत में हम काठगोदाम हो कर नैनीताल गए । नैनी लेक में बोटिंग के सिवा और कुछ नहीं किया दूसरे दिन एक और लेक सिर्फ मै और एक क्लासमेट के साथ गए थे शायद भीमताल। वहां पहली बार एक पनचक्की देखीं जिसे यहाँ घराट कहते है । एक छोटा झरने से यह चल रहा था और अनाज पीसने के काम आता था । हमने काठगोदाम से वापसी का ट्रेन ली और बरेली गया होते हुए पटना आ गएं।


पूरा पढने के लिए धन्यवाद।

2 comments:

  1. Arti Sinha BCE 83-88April 26, 2023 at 12:00 PM

    Wonderful experiences. I remember my 3rd year survey tour in Rajgir. These tours should be mandatory and part of syllabus. It broadens your thought process.

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  2. अविस्मरणीय संस्मरण

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