मैंने पिछले ब्लॉग में लिखाा राम चरित मानस से कुछ भावुक क्षण भाग-1 (पढ़ने के लिए क्लिक करे) उसी क्रम में मैं अपना यह आलेख गणेश वंदना से शुरू करता हूँ ।
गाइये गनपति जगबंदन।
संकर -सुवन भवानी नंदन ॥ १ ॥
सिद्धि-सदन, गज बदन, बिनायक ।
कृपा -सिंधु ,सिंधुसुंदर सब-लायक ॥ २ ॥
मोदक-प्रिय, मुद -मंगल -दाता ।
बिद्या-बारिधि,बुद्धि बिधाता ॥ ३ ॥
माँगत तुलसिदास कर जोरे ।
बसहिं रामसिय मानस मोरे ॥ ४ ॥
गीता प्रेस के राम चरित मानस की सहायता मैंने ली है इस आलेख के लिए। इस भाग में राम सीता विवाह की कथा। पिछले भाग में श्री राम ने शिव धनुष की प्रत्यंचा आसानी से लगा ली और शिव धनुष खंडित हो गया।
का बरषा सब कृषी सुखानें।
समय चुकें पुनि का पछितानें॥
अस जियँ जानि जानकी देखी।
प्रभु पुलके लखि प्रीति बिसेषी॥
राम जी ने सोचा सारी खेती के सूख जाने पर वर्षा किस काम की? समय बीत जाने पर फिर पछताने से क्या लाभ? जी में ऐसा समझकर राम ने जानकी की ओर देखा और उनका विशेष प्रेम देख वे पुलकित हो गए।
गुरहि प्रनामु मनहिं मन कीन्हा।
अति लाघवँ उठाइ धनु लीन्हा॥
दमकेउ दामिनि जिमि जब लयऊ।
पुनि नभ धनु मंडल सम भयऊ॥
राम धनुष तोड़ने के लिए उठे और मन-ही-मन उन्होंने गुरु को प्रणाम किया और बड़ी फुर्ती से धनुष को उठा लिया। जब उसे (हाथ में) लिया, तब वह धनुष बिजली की तरह चमका और फिर आकाश में मंडल-जैसा (मंडलाकार) हो गया।
परशुराम लक्ष्मण संवाद
राम चरित मानस में परशुराम का आगमन और लक्ष्मण से उनका संवाद भी है और श्री राम उनको शांत करते है । मानस में यह संवाद बहुत रोचक और काफी लम्बा है। मैं कुछ ही झलकियां दे रहा हूँ ।
राम कहते है।
नाथ संभुधनु भंजनिहारा। होइहि केउ एक दास तुम्हारा॥
आयसु काह कहिअ किन मोही। सुनि रिसाइ बोले मुनि कोही॥
सेवकु सो जो करै सेवकाई। अरि करनी करि करिअ लराई॥
सुनहु राम जेहिं सिवधनु तोरा। सहसबाहु सम सो रिपु मोरा॥
परशु राम शिव धनुष के टुकड़े देख पर उत्तेजित हो कर राजा जनक से कहते है मुझे बताओं किसने ये धनुष तोडा है बताओ नहीं तो जहां तक तुम्हारा राज्य है उसे उलट पुलट कर दूंगा। श्री राम बोले शिव धनुष को तोड़ने वाला तो आपका कोई सेवक ही होगा। परशुराम बोले सेवक का काम सेवा करना है दुश्मनी नहीं , सुनो राम जिसने भी शिव धनुष तोड़ा है वह सहस्रबाहु की तरह मेरा दुश्मन है।
सो बिलगाउ बिहाइ समाजा। न त मारे जैहहिं सब राजा॥
सुनि मुनि बचन लखन मुसुकाने। बोले परसुधरहि अपमाने॥
बहु धनुहीं तोरीं लरिकाईं। कबहुँ न असि रिस कीन्हि गोसाईं॥
एहि धनु पर ममता केहि हेतू। सुनि रिसाइ कह भृगुकुलकेतू॥
इसलिए जिसने भी तोड़ा है वह वह अलग हो जाय नहीं तो सारे राजा मारे जाओगे। लक्ष्मण बोले हे गोसाईं! लड़कपन में हमने बहुत सी धनुहियाँ तोड़ डालीं, किन्तु आपने ऐसा क्रोध कभी नहीं किया। इसी धनुष पर इतनी ममता किस कारण से है? यह सुनकर भृगुवंशी परशुरामजी कुपित होकर कहने लगे ।
रे नृप बालक काल बस बोलत तोहि न सँभार।
धनुही सम तिपुरारि धनु बिदित सकल संसार॥
ए नृप पुत्र काल के वश होने के कारण बोलने में कुछ भी होश नहीं है। सारे संसार में विख्यात शिवजी का यह धनुष क्या धनुही के समान है?
इसी तरह लक्ष्मण जी परशुराम को क्रोध दिलाते रहते है । कहते है पिता माता (पिता के कहने पर माता की हत्या परशुराम ने की थी ) के ऋण से मुक्त आप गुरु ऋण (शिव ) से मुक्त होने आये है और उन्हें कह डालते है की वीर बातों से नहीं अस्त्रों से युद्ध करते है इस पर परशुराम अपना फरसा उठा लेते है। राम उनकी मनाते है की बालक यदि कुछ चपलता भी करे तो माता पिता और गुरु प्रसन्न होते है। परशुराम का गुस्सा कुछ कम होता है और वे कहते है राम तुम्हारा भाई शरीर का गोरा है पर मन का काला है। बाद में परशुराम जी की बुद्धि की परते खुलती है और राम के विष्णु का अवतार होना ज्ञात होता है।
राम रमापति कर धनु लेहू। खैंचहु मिटै मोर संदेहू॥
देत चापु आपुहिं चलि गयऊ। परसुराम मन बिसमय भयऊ
(परशुरामजी ने कहा-) हे राम ये विष्णु का धनुष हाथ में लीजिए और इसे खींचिए, जिससे मेरा संदेह मिट जाए। परशुरामजी धनुष देने लगे, तब वह आप ही आप राम जी के पास चला गया। तब परशुरामजी के मन का संदेह दूर हुआ।
राम सीता विवाह
दूत अवधपुर पठवहु जाई। आनहिं नृप दसरथहिं बोलाई॥
मुदित राउ कहि भलेहिं कृपाला। पठए दूत बोलि तेहि काला॥
अपने पुरोहित सतानन्द जी कहा अयोध्या को दूत भेजो जो राजा दशरथ को बुला लावें। राजा ने प्रसन्न होकर कहा- हे कृपालु! बहुत अच्छा! और उसी समय दूतों को बुलाकर भेज दिया॥ सारा नगर सजाने के लिए महाजनों को सन्देश दिए गए। स्वर्ण सामान केला के खम्भों से मंडप बनाये गए जिसको देख ब्रह्मा भी आश्चर्य चकित हो गए।
जेहिं तेरहुति तेहि समय निहारी।
तेहि लघु लगहिं भुवन दस चारी॥
जो संपदा नीच गृह सोहा।
सो बिलोकि सुरनायक मोहा॥
बसइ नगर जेहिं लच्छि करि कपट नारि बर बेषु।
तेहि पुर कै सोभा कहत सकुचहिं सारद सेषु॥
उस समय जिसने तिरहुत को देखा, उसे चौदह भुवन तुच्छ जान पड़े। जनकपुर में गरीबों के घर भी उस समय जो सम्पदा सुशोभित थी, उसे देखकर इन्द्र भी मोहित हो जाता। जिस नगर में साक्षात् लक्ष्मीजी स्त्री के सुंदर वेष बनाकर बसती हैं, उस नगर की शोभा का वर्णन करने में सरस्वती भी सकुचाते हैं॥ उधर जनकपुर के दूत अयोध्या पहुचतें है और वहां के वैभव देख कर चकित रह जाते है।
तब नृप दूत निकट बैठारे। मधुर मनोहर बचन उचारे॥
भैया कहहु कुसल दोउ बारे। तुम्ह नीकें निज नयन निहारे॥
स्यामल गौर धरें धनु भाथा। बय किसोर कौसिक मुनि साथा॥
पहिचानहु तुम्ह कहहु सुभाऊ। प्रेम बिबस पुनि पुनि कह राऊ॥
जा दिन तें मुनि गए लवाई। तब तें आजु साँचि सुधि पाई॥
कहहु बिदेह कवन बिधि जाने। सुनि प्रिय बचन दूत मुसुकाने॥
दूत अयोध्या जा कर महाराज दशरथ को चिट्ठी सौपता है। भारत और शत्रुघ्न जो कही खेल रहे होते है भाईयों के कुशल जानने आ जाते है। तब राजा दूतों को पास बैठाकर मन को हरने वाले मीठे वचन बाले- भैया! कहो, दोनों बच्चे कुशल से तो हैं? तुमने अपनी आँखों से उन्हें अच्छी तरह देखा है न? साँवले और गोरे शरीर वाले वे धनुष और तरकस धारण किए रहते हैं, किशोर अवस्था है, विश्वामित्र मुनि के साथ हैं। तुम उनको पहचानते हो तो उनका स्वभाव बताओ। राजा प्रेम के विशेष वश होने से बार-बार इस प्रकार पूछ रहे है। (भैया!) जिस दिन से मुनि उन्हें लिवा ले गए, तब से आज ही हमने सच्ची खबर पाई है। कहो तो महाराज जनक ने उन्हें कैसे पहचाना? ये प्रिय (प्रेम भरे) वचन सुनकर दूत मुस्कुराये।
तहाँ राम रघुबंसमनि सुनिअ महा महिपाल।
भंजेउ चाप प्रयास बिनु जिमि गज पंकज नाल॥
सुनि सरोष भृगुनायकु आए। बहुत भाँति तिन्ह आँखि देखाए॥
देखि राम बलु निज धनु दीन्हा। करिबहु बिनय गवनु बन कीन्हा॥
हे महाराज! सुनिए, वहाँ (जहाँ ऐसे-ऐसे योद्धा हार मान गए) रघुवंशमणि श्री रामचन्द्रजी ने बिना ही प्रयास शिवजी के धनुष को वैसे ही तोड़ डाला जैसे हाथी कमल की डंडी को तोड़ डालता है! धनुष टूटने की बात सुनकर परशुरामजी क्रोध में भरे आए और उन्होंने बहुत प्रकार से आँखें दिखलाईं। अंत में उन्होंने भी श्री रामचन्द्रजी का बल देखकर उन्हें अपना धनुष दे दिया और बहुत प्रकार से विनती करके वन को गमन किया ।
राजा सबु रनिवास बोलाई। जनक पत्रिका बाचि सुना।
सुनि संदेसु सकल हरषानीं। अपर कथा सब भूप बखानीं।।
राजा ने सभी रानियों को बुलाकर जनकजी की पत्रिका पढ़ कर सुनाई। समाचार सुनकर सब रानियाँ हर्ष से भर गईं। राजा ने फिर दूसरी सब बातों का जो दूतों से मौखिक रूप से सुना था उन सब बातों को भी बताया ।
मुनि प्रसादु कहि द्वार सिधाए। रानिन्ह तब महिदेव बोलाए।
दिए दान आनंद समेता। चले बिप्रबर आसिष देता।।
राजा ने कहा यह सब मुनि की कृपा है ऐसा कह चले गए । तब रानियों ने ब्राह्मणों को बुलाया और आनंद सहित उन्हें दान दिए और श्रेष्ठ ब्राह्मण आशीर्वाद दे कर चले गए।
जाचक लिए हँकारि दीन्हि निछावरि कोटि बिधि।
चिरु जीवहुँ सुत चारि चक्रबर्ति दसरत्थ के।।
भिक्षुकों को बुलाकर करोड़ों प्रकार की निछावरें उनको दीं। उन्होंने आशीर्वाद दिया 'चक्रवर्ती महाराज दशरथ के चारों पुत्र चिरंजीवी हों'। जनकपुर से आयी खबर पुरे नगर में फ़ैल जाती है। पूरा नगर तरह तरह के ध्वजा पताका इत्यादि से सज जाती है। सज धज कर नारियां मंगल गीत गा रही है।
गावहिं गीत मनोहर नाना। अति आनंदु न जाइ बखाना।
तब सुमंत्र दुइ स्यंदन साजी। जोते रबि हय निंदक बाजी।।
दोउ रथ रुचिर भूप पहिं आने। नहिं सारद पहिं जाहिं बखान।
राज समाजु एक रथ साजा। दूसर तेज पुंज अति भ्राजा।
नाना प्रकार के मनोहर गीत गा रही हैं। उनके अत्यन्त आनंद का बखान नहीं हो सकता। तब सुमन्त्रजी ने दो रथ सजाकर उनमें सूर्य के घोड़ों को भी मात करने वाले घोड़े जोते। दोनों सुंदर रथ वे राजा दशरथ के पास ले आए, जिनकी सुंदरता का वर्णन सरस्वती से भी नहीं हो सकता। एक रथ पर राजसी सामान सजाया गया और दूसरा जो तेज का पुंज और अत्यन्त ही शोभायमान था। एक रथ पर गुरु को चढ़ा कर दशरथ दूसरे रथ पर चढ़ते है और वे बृहस्पति के साथ इंद्र जैसे लग रहे थे ।
सुमिरि रामु गुर आयसु पाई। चले महीपति संख बजाई।
हरषे बिबुध बिलोकि बराता। बरषहिं सुमन सुमंगल दाता।।
श्री रामचन्द्रजी का स्मरण करके, गुरु की आज्ञा पाकर पृथ्वी पति दशरथजी शंख बजाकर चले। बारात देखकर देवता हर्षित हुए और सुंदर मंगलदायक फूलों की वर्षा करने लगे। बारात जनकपुर पहुँच जाती है फिर वह क्या होता वो सुनिए।
आवत जानि बरात बर सुनि गहगहे निसान।
सजि गज रथ पदचर तुरग लेन चले अगवान।।
जोर से बजते हुए नगाड़ों की आवाज सुनकर श्रेष्ठ बारात को आती हुई जानकर अगवानी करने वाले हाथी, रथ, पैदल और घोड़े सजाकर बारात लेने चले।
अगवानन्ह जब दीखि बराता। उर आनंदु पुलक भर गाता।
देखि बनाव सहित अगवाना। मुदित बरातिन्ह हने निसाना।।
भावार्थ:-अगवानी करने वालों को जब बारात दिखाई दी, तब उनके हृदय में आनंद छा गया और शरीर रोमांच से भर गया। अगवानों को सज-धज के साथ देखकर बारातियों ने प्रसन्न होकर नगाड़े बजाए।
सिय महिमा रघुनायक जानी। हरषे हृदयँ हेतु पहिचानी॥
पितु आगमनु सुनत दोउ भाई। हृदयँ न अति आनंदु अमाई॥
रघुनाथ यह सब सीता की महिमा जानकर और उनका प्रेम पहचानकर हृदय में हर्षित हुए। पिता दशरथ के आने का समाचार सुनकर दोनों भाइयों के हृदय में महान् आनंद समाता न था।
कहा एक मैं आजु निहारे। जनु बिरंचि निज हाथ सँवारे॥
भरतु राम ही की अनुहारी। सहसा लखि न सकहिं नर नारी॥
लखनु सत्रुसूदनु एकरूपा। नख सिख ते सब अंग अनूपा॥
मन भावहिं मुख बरनि न जाहीं। उपमा कहुँ त्रिभुवन कोउ नाहीं॥
जनकपुर वासी दो और राजकुमारों को देख कर आपस में बातें करते है। एक ने कहा - मैंने आज ही उन्हें देखा है; इतने सुंदर हैं, मानो ब्रह्मा ने उन्हें अपने हाथों सँवारा है। भरत तो राम की ही शकल-सूरत के हैं। स्त्री-पुरुष उन्हें सहसा पहचान नहीं सकते। लक्ष्मण और शत्रुघ्न दोनों का एक रूप है। दोनों के नख से शिखा तक सभी अंग अनुपम हैं। मन को बड़े अच्छे लगते हैं, पर मुख से उनका वर्णन नहीं हो सकता। उनकी उपमा के योग्य तीनों लोकों में कोई नहीं है।
एहि बिधि सकल मनोरथ करहीं। आनँद उमगि उमगि उर भरहीं।
जे नृप सीय स्वयंबर आए। देखि बंधु सब तिन्ह सुख पाए।।
इस प्रकार सब मनोरथ कर रही हैं और हृदय को उमंग-उमंगकर (उत्साहपूर्वक) आनंद से भर रही हैं। सीता के स्वयंवर में जो राजा आए थे, उन्होंने भी चारों भाइयों को देखकर सुख पाया। फिर सभी चार राजकुमारों का विवाह चार राजकमारियों से विवाह हुआ।
बर कुअँरि करतल जोरि साखोचारु दोउ कुलगुर करैं।
भयो पानिगहनु बिलोकि बिधि सुर मनुज मुनि आनँद भरैं॥
सुखमूल दूलहु देखि दंपति पुलक तन हुलस्यो हियो।
करि लोक बेद बिधानु कन्यादानु नृपभूषन कियो॥
दोनों कुलों के गुरु वर और कन्या की हथेलियों को मिलाकर शाखोच्चार करने लगे। पाणिग्रहण हुआ देखकर ब्रह्मादि देवता, मनुष्य और मुनि आनंद में भर गए। सुख के मूल दूल्हे को देखकर राजा-रानी का शरीर पुलकित हो गया और हृदय आनंद से उमंग उठा। राजाओं के अलंकार स्वरूप जनक ने लोक और वेद की रीति को करके कन्यादान किया।
तब जनक पाइ बसिष्ठ आयसु ब्याह साज सँवारि कै।
मांडवी श्रुतकीरति उरमिला कुअँरि लईं हँकारि कै॥
कुसकेतु कन्या प्रथम जो गुन सील सुख सोभामई।
सब रीति प्रीति समेत करि सो ब्याहि नृप भरतहि दई॥
तब वशिष्ठ की आज्ञा पाकर जनक ने विवाह का सामान सजाकर मांडवी, श्रुतकीर्ति और उर्मिला - इन तीनों राजकुमारियों को बुला लिया। कुशध्वज की बड़ी कन्या मांडवी को, जो गुण, शील, सुख और शोभा की रूप ही थीं, राजा जनक ने प्रेमपूर्वक सब रीतियाँ करके भरत को ब्याह दिया। राम का विवाह सीता से हुआ , भारत का मांडवी से , उर्मिला का लक्ष्मण से और श्रुतिकीर्ति का विवाह शत्रुघ्न से हो गया।
कोहबरहिं आने कुअँर कुअँरि सुआसिनिन्ह सुख पाइ कै।
अति प्रीति लौकिक रीति लागीं करन मंगल गाइ कै॥
लहकौरि गौरि सिखाव रामहि सीय सन सारद कहैं।
रनिवासु हास बिलास रस बस जन्म को फलु सब लहैं॥
सुहागिनी स्त्रियाँ खुश हो कर कुमारो और कुमारियों को कोहबर में लाईं और अत्यंत प्रेम से मंगल गीत गा-गाकर लौकिक रीति करने लगीं। पार्वती राम को वर-वधू का परस्पर ग्रास देना सिखाती हैं और सरस्वती सीता को सिखाती हैं। रनिवास हास-विलास के आनंद में मग्न है, राम और सीता को देख-देखकर सभी जन्म का परम फल प्राप्त कर रही हैं।
बारात चारो दूल्हे दुल्हनों को ले कर बजे गाजे के साथ अयोध्या पहुँचती है तब वह क्या हुआ सुनिए।
आरति करहिं मुदित पुर नारी। हरषहिं निरखि कुअँर बर चारी ।
सिबिका सुभग ओहार उघारी। देखि दुलहिनिन्ह होहिं सुखारी ।।
नगर की स्त्रियाँ आनंदित होकर आरती कर रही हैं और सुंदर चारों कुमारों को देखकर हर्षित हो रही हैं। पालकियों के सुंदर परदे हटा-हटाकर वे दुलहिनों को देखकर सुखी होती हैं।
उर धरि रामहि सीय समेता। हरषि कीन्ह गुर गवनु निकेता ।
बिप्रबधू सब भूप बोलाईं। चैल चारु भूषन पहिराईं ।।
सीताजी सहित श्री रामचन्द्रजी को हृदय में रखकर गुरु वशिष्ठजी हर्षित होकर अपने स्थान को गए। राजा ने सब ब्राह्मणों की स्त्रियों को बुलवाया और उन्हें सुंदर वस्त्र तथा आभूषण पहनाए ।
सभी रीति रिवाज खत्म होने पर। विश्वामित्र जाना चाहते हैं पर जा नहीं पाते।
बिस्वामित्रु चलन नित चहहीं। राम सप्रेम बिनय बस रहहीं ।
दिन दिन सयगुन भूपति भाऊ। देखि सराह महामुनिराऊ ।।
विश्वामित्रजी नित्य ही चलना (अपने आश्रम जाना) चाहते हैं, पर रामचन्द्रजी के स्नेह और विनयवश रह जाते हैं। दिनोंदिन राजा का सौ गुना भाव (प्रेम) देखकर महामुनिराज विश्वामित्रजी उनकी सराहना करते हैं। अखिर मुनि अपने आश्रम लौट जाते है।
सिय रघुबीर बिबाहु जे सप्रेम गावहिं सुनहिं।
तिन्ह कहुँ सदा उछाहु मंगलायतन राम जसु ।।
सीताजी और श्री रघुनाथजी के विवाह प्रसंग को जो लोग प्रेमपूर्वक गाएँ-सुनेंगे, उनके लिए सदा उत्साह (आनंद) ही उत्साह है, क्योंकि श्री रामचन्द्रजी का यश मंगल का धाम है।
राम वन गमन अगले भाग में। ईति श्री भाग-2
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