Saturday, February 24, 2024

उर्मिला का अंतर्द्वंद और त्याग

रामकथा उसके चरित्रों के त्याग से भरी हुई है। मर्यादा पुरुषोत्तम राम का त्याग उनमें सर्वोपरि है, लेकिन लक्ष्मण की पत्नी उर्मिला का त्याग किसी से कमतर नहीं है। उनकी वेदना इस मामले में विशिष्ट है कि उसमें आंसुओं के निकलने की मनाही भी शामिल है। इसके बाद भी उर्मिला को वह प्रतिष्ठा नहीं मिली, जिसकी वह अधिकारिणी हैं। आदि कवि वाल्मीकि से लेकर तुलसीदास जी तक सभी ने रामकथा का विवेचन किया है। तुलसीदास राम भक्त थे और राम चरित मानस के द्वारा राम भक्ति की अविरल धारा को प्रवाहित करना चाहते थे। इस कारण उन्होंने अपनी रचनाओं में उन्हीं पात्रों को स्थान दिया है। जिनके द्वारा किसी प्रकार राम का चरित्र उजागर होता था। उन्होंने लक्ष्मण,भरत,निषाद,शबरी,हनुमान,विभीषण आदि को राम कथा में प्रथम और विशेष स्थान दिया था। लेकिन मैथिली शरण गुप्त लिखित रामकथा 'साकेत' में उर्मिला के त्याग और सेवा पर प्रकाश डालता है ।‌ लेखिका आशा प्रभात ने अपने उपन्यास `उर्मिला' में लक्ष्मण से दीर्घ और दारुण विरह के समय अपने कर्तव्यों का उदात्त भाव से पालन करने वाली इस अद्भुत नारी के चरित्र को पर्याप्त विस्तार देकर इस कमी को पूरा करने का एक और प्रयास किया है।

राम चरित मानस में राम विवाह के समय उर्मिला का जिक्र आता है।

तब जनक पाइ बसिष्ठ आयसु ब्याह साज सँवारि कै।
मांडवी श्रुतकीरति उरमिला कुअँरि लईं हँकारि कै॥
कुसकेतु कन्या प्रथम जो गुन सील सुख सोभामई।
सब रीति प्रीति समेत करि सो ब्याहि नृप भरतहि दई॥

तब वशिष्ठजी की आज्ञा पाकर जनकजी ने विवाह का सामान सजाकर माण्डवीजी, श्रुतकीर्तिजी और उर्मिलाजी इन तीनों राजकुमारियों को बुला लिया। कुश ध्वज की बड़ी कन्या माण्डवीजी को, जो गुण, शील, सुख और शोभा की रूप ही थीं, राजा जनक ने प्रेमपूर्वक सब रीतियाँ करके भरतजी को ब्याह दिया।

जानकी लघु भगिनी सकल सुंदरि सिरोमनि जानि कै।
सो तनय दीन्ही ब्याहि लखनहि सकल बिधि सनमानि कै॥
जेहि नामु श्रुतकीरति सुलोचनि सुमुखि सब गुन आगरी।
सो दई रिपुसूदनहि भूपति रूप सील उजागरी॥

सीता जी की छोटी बहिन उर्मिलाजी को सब सुंदरियों में शिरोमणि जानकर उस कन्या को सब प्रकार से सम्मान करके, लक्ष्मणजी को ब्याह दिया और जिनका नाम श्रुतकीर्ति है और जो सुंदर नेत्रों वाली, सुंदर मुखवाली, सब गुणों की खान और रूप तथा शील में उजागर हैं, उनको राजा ने शत्रुघ्न को ब्याह दिया‌।

उर्मिला जनक नंदनी सीता की छोटी बहन थीं। सीता जनक द्वारा दुर्भिक्ष के समय हल जोतते समय सीतामढ़ी के पास पुनौरा गांव में धरती से निकली। उर्मिला जनक जी जैविक बेटी थी। सीता के विवाह के समय ही उर्मिला दशरथ और सुमित्रा के पुत्र लक्ष्मण को ब्याही गई थीं। इनके अंगद और चन्द्रकेतु नाम के दो पुत्र तथा सोमदा नाम की एक पुत्री थी। जब सीता वनगमन को उद्यत हुयी और लक्ष्मण भी माता से वन जाने की आज्ञा मानाने आये उर्मिला ने पति के साथ जाने की इच्छा प्रकट न होने दिया , कहीं पति अपने कर्त्तव्य से विमुख न हो जाए। साकेत में राष्ट्रकवि मैथिलि शरण गुप्त लिखते है की उर्मिला ने भी वन जाने की इच्छा प्रकट की तो लक्ष्मण ने यह कह कर मना कर दिया की उसके साथ जाने से अपने कर्त्तव्य को निभा न पाएंगे। तब उन्होंने पति को आश्वाश्त किया की महाराज और रानियाँ दुखी न हो जाये इसलिए वो अपने आँखों से आंसू भी नहीं निकलने देगी । उर्मिला का अवर्णित , अचर्चित त्याग , महान चरित्र,अखंड पतिव्रत और स्नेह की चर्चा रामायण में अपेक्षित थी पर वह हो न सका।

मैथिलि शरण गुप्त के साकेत का नवम सर्ग उर्मिला के विरह वेदना चित्रित करता है । उर्मिला कहती है :

मिथिला मेरा मूल है और अयोध्या फूल,
चित्रकूट को क्या कहूँ, रह जाती हूँ भूल!

मिथिला तो मेरा जन्मस्थान है और अयोध्या मेरे फैलने फूलने का स्थान , पर चित्रकूट को क्या कहूँ ? मै तो भूल जाती हूँ । स्मरण रहे चित्रकूट क्षेत्र के में ही राम, सीता और लक्ष्मण ने वनवास के ११ साल बिताये।
अयोध्या की राज वधू उर्मिला ने १४ वर्ष हर दिन १६ घंटे सो कर बिताये क्योकि लक्ष्मण से निंद्रा देवी से १४ वर्ष जागने का वरदान ले लिया तांकि वे राम और सीता की रक्षा में २४ घंटे जागे रहे और निंद्रा देवी ने उनके हिस्से की निंद्रा उर्मिला को देदिया। उनके सतीत्व की शक्ति ऐसी थी की मेघनाद की पत्नी सुलोचना जब राम के शिविर में मेघनाद का शीश लेने आई तो उन्होंने लक्ष्मण से कहा " भ्राता, आप यह मत समझना कि आपने मेरे पति को मारा है। उनका वध करने का पराक्रम किसी में नहीं। यह तो आपकी पत्नी के सतित्व की शक्ति है। अंतर मात्र यह है कि मेरे स्वामी ने असत्य का साथ दिया।

आशा प्रभात के पुस्तक (उर्मिला - अमेज़न पर उपलब्ध) में उर्मिला कहतीं है "आर्य राम , दीदी सीता और सौमित्र संग अरण्य जा चुके है , भवनवासियों को अश्रु के महासमुद्र में डुबों कर और मैं अश्रुशून्य नेत्र लिए द्वार पर एक पाषाण प्रतिमा की तरह जड़ सी खड़ी देखने को विवश हूँ सभी को वेदना में तड़पते , छटपटाते,,। "
अंत में मेरी एक कविता, उर्मिला कहती है:

जाओ कर लो जो मन ठाना
मै बनू नहीं कोई बाधा
न आंसू और न कोई शोक
तप सेवा से सह लूं वियोग
तुम तज गृह करो प्रभु सेवा
मैं तज सुख करूं प्रभु सेवा
-अमिताभ

अभी बस इतना ही। बांकी दोनों अयोध्या की राज वधुओं - मांडवी और श्रुतिकीर्ति पर भी लेख लिखूंगा ।

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