Thursday, February 22, 2024

मानस के कुछ भावुक क्षण - भाग- ६ (वन गमन ३-२)

वक्रतुण्ड महाकाय सूर्यकोटि समप्रभ। निर्विघ्नं कुरु मे देव सर्वकार्येषु सर्वदा॥

मैं पिछले चार-पांच ब्लॉग में राम चरित मानस के भावुक क्षणों को मानस की चौपाइयों से संकलित करने की छोटी चेष्टा कर रहा हूँ । मैं पिछले ब्लॉगों का लिंक यहाँ दे रहा हूँ तांकि आपने यदि नहीं पढ़ा तो निरंतरता के लिए पढ़ सकते है। कृपया लिंक पर क्लिक करें।

कुछ पाठको ‌ने बताया कि राम कथा ब्लॉग लंबा हो जा रहा है अतः मैंने वनगमन - भाग -३ के अपने ब्लॉग को दो भाग में बाँट दिया हूँ। पहला भाग में सुमंत के अयोध्या लौटने से लेकर दशरथ जी के मृत्यु तक की कथा है और दूसरे भाग (यानि इस भाग में भरत का आना और चित्रकूट के लिए प्रस्थान करने तक का प्रसंग है।
सुमंत राम सीता और लक्ष्मण के समझाने पर उन्हें गंगा तट तक पंहुचा कर अयोध्या आये है । उन्होंने बड़ी बुद्धिमता से सभी बातें दशरथ को बताई है लेकिन दशरथ राम जी का वियोग सह न सके और उनकी मृत्यु हो गयी। अब आगे ।

भारत कौशल्या संवाद और दशरथ की अंत्योष्टि


चित्रकूट , विकिपीडिया से साभार
भरतहि देखि मातु उठि धाई। मुरुचित अवनि परी झइँ आई॥
देखत भरतु बिकल भए भारी। परे चरन तन दसा बिसारी॥
मातु तात कहँ देहि देखाई। कहँ सिय रामु लखनु दोउ भाई॥
कैकइ कत जनमी जग माझा। जौं जनमि त भइ काहे न बाँझा॥

भरत को देखते ही माता कौसल्याजी उठ दौड़ीं। पर चक्कर आ जाने से मूर्च्छित होकर पृथ्वी पर गिर पड़ीं। यह देखते ही भरतजी बड़े व्याकुल हो गए और शरीर की सुध भुलाकर चरणों में गिर पड़े। फिर बोले- माता! पिताजी कहाँ हैं? उन्हें दिखा दें। सीताजी तथा मेरे दोनों भाई श्री राम-लक्ष्मण कहाँ हैं? उन्हें दिखा दें। कैकेयी जगत में क्यों जनमी! और यदि जनमी ही तो फिर बाँझ क्यों न हुई?

कुल कलंकु जेहिं जनमेउ मोही। अपजस भाजन प्रियजन द्रोही॥
को तिभुवन मोहि सरिस अभागी। गति असि तोरि मातुजेहि लागी॥
सरल सुभाय मायँ हियँ लाए। अति हित मनहुँ राम फिरि आए॥
भेंटेउ बहुरि लखन लघु भाई। सोकु सनेहु न हृदयँ समाई॥

जिसने कुल के कलंक, अपयश के कारण बने और प्रियजनों के द्रोही मुझ जैसे पुत्र को उत्पन्न किया। तीनों लोकों में मेरे समान अभागा कौन है? जिसके कारण हे माता! तेरी यह दशा हुई! सरल स्वभाव वाली माता ने बड़े प्रेम से भरतजी को छाती से लगा लिया, मानो श्री रामजी ही लौटकर आ गए हों। फिर लक्ष्मणजी के छोटे भाई शत्रुघ्न को हृदय से लगाया। शोक और स्नेह हृदय में समाता नहीं है ।


वशिष्ठ -भरत संवाद, श्री रामजी को लाने के लिए चित्रकूट जाने की तैयारी

तात हृदयँ धीरजु धरहु करहु जो अवसर आजु।
उठे भरत गुर बचन सुनि करन कहेउ सबु साजु॥

पतनु बेद बिदित अन्हवावा। परम बिचित्र बिमानु बनावा॥
गाहि पदभरत मातु सब राखी। रहीं रानि दरसन अभिलाषी ।।

वशिष्ठजी ने कहा- हे तात! हृदय में धीरज धरो और आज जिस कार्य को करने का अवसर है, उसे करो। गुरुजी के वचन सुनकर भरतजी उठे और उन्होंने सब तैयारी करने के लिए कहा। वेदों में बताई हुई विधि से राजा की देह को स्नान कराया गया और परम विचित्र विमान बनाया गया। भरतजी ने सब माताओं को चरण पकड़कर रखा अर्थात प्रार्थना करके उनको सती होने से रोक लिया। वे रानियाँ भी (श्री राम के) दर्शन की अभिलाषा से रह गईं।

रायँ राजपदु तुम्ह कहुँ दीन्हा। पिता बचनु फुर चाहिअ कीन्हा।।
तजे रामु जेहिं बचनहि लागी। तनु परिहरेउ राम बिरहागी।।
नृपहि बचन प्रिय नहिं प्रिय प्राना। करहु तात पितु बचन प्रवाना।।
करहु सीस धरि भूप रजाई। हइ तुम्ह कहँ सब भाँति भलाई।।

मुनि वशिष्ठ ने भारत को बुला कर सभी तरह से समझाया और कहा राजा ने राज पद तुमको दिया है। पिता का वचन तुम्हें सत्य करना चाहिए, जिन्होंने वचन के लिए ही श्री रामचन्द्रजी को त्याग दिया और रामविरह की अग्नि में अपने शरीर की आहुति दे दी । राजा को वचन प्रिय थे, प्राण प्रिय नहीं थे, इसलिए हे तात! पिता के वचनों को प्रमाण (सत्य) करो! राजा की आज्ञा सिर चढ़ाकर पालन करो, इसमें तुम्हारी सब तरह भलाई है।

परसुराम पितु अग्या राखी। मारी मातु लोक सब साखी।
तनय जजातिहि जौबनु दयऊ। पितु अग्याँ अघ अजसु न भयऊ।।
अनुचित उचित बिचारु तजि ते पालहिं पितु बैन।
ते भाजन सुख सुजस के बसहिं अमरपति ऐन।।

भरत को पिता की आज्ञा ( भरत का राज्याभिषेक) अनुचित लग रही है जान वशिष्ठ जी बोले , परसुराम ने पिता की आज्ञा मानी और माता को मार डाला , ययाति के पुत्रों ने अपनी जवानी पिता को दे दी , क्योंकि वे पिता की आज्ञा पालन कर रहे थे वे पाप के भागी नहीं हुए और उनका कुछ अपयश भी हो हुआ। उचित अनुचित का विचार त्याग कर जो पिता की आज्ञा पालन करते है वे और यहाँ सुख का और स्वर्ग के भागी बनते है । राज्य संभालो भले रामचंद्र जी के लौट आने पर राज्य उनको सौप देना। भरत अपने को और कुमाता को को सभी अनर्थो का कारण समझ बहुत विलाप करते है और कहते है की यदि मैंने राज्य संभाला तो सभी मुझे ही बुरा कहेगा, मैं अधम हूं लक्ष्मण तो बहुत भाग्यशाली है की उसे राम चंद्र और सीता माता के सेवा का अवसर मिला।

कौसल्या धरि धीरजु कहई। पूत पथ्य गुर आयसु अहई॥
सो आदरिअ करिअ हित मानी। तजिअ बिषादु काल गति जानी॥
बन रघुपति सुरपति नरनाहू। तुम्ह एहि भाँति तात कदराहू॥
परिजन प्रजा सचिव सब अंबा। तुम्हहीं सुत सब कहँ अवलंबा॥

कौसल्याजी भी धीरज धरकर कह रही हैं- हे पुत्र! गुरुजी की आज्ञा पथ्य (औषधि समान) रूप है। उनके आज्ञा का आदर करना चाहिए और हित मानकर उसका पालन करना चाहिए। काल की गति को जानकर विषाद का त्याग कर देना चाहिए। श्री रघुनाथजी वन में हैं, महाराज स्वर्ग का राज्य करने चले गए और हे तात! तुम इस प्रकार कातर हो रहे हो। हे पुत्र! कुटुम्ब, प्रजा, मंत्री और सब माताओं के, सबके एक तुम ही सहारे हो।

सील सकुच सुठि सरल सुभाऊ। कृपा सनेह सदन रघुराऊ॥
अरिहुक अनभल कीन्ह न रामा। मैं सिसु सेवक जद्यपि बामा॥
म्ह पै पाँच मोर भल मानी। आयसु आसिष देहु सुबानी॥
जेहिं सुनि बिनय मोहि जनु जानी। आवहिं बहुरि रामु रजधानी॥

भरत जी कहते है श्री रघुनाथजी शील, संकोच, अत्यन्त सरल , कृपा और स्नेही स्वाभाव के हैं। श्री रामजी ने कभी शत्रु का भी अनिष्ट नहीं किया। मैं यद्यपि टेढ़ा हूँ, पर हूँ तो उनका ही बच्चा और सेवक। आप पंच लोग भी इसी में मेरा कल्याण मानकर सुंदर वाणी से आज्ञा और आशीर्वाद दीजिए, जिसमें मेरी विनती सुनकर और मुझे अपना दास जानकर श्री रामचन्द्रजी राजधानी को लौट आवें।

भरत बचन सब कहँ प्रिय लागे। राम सनेह सुधाँ जनु पागे॥
लोग बियोग बिषम बिष दागे। मंत्र सबीज सुनत जनु जागे॥
मातु सचिव गुर पुर नर नारी। सकल सनेहँ बिकल भए भारी॥
भरतहि कहहिं सराहि सराही। राम प्रेम मूरति तनु आही॥

भरतजी के वचन सबको प्यारे लगे। मानो वे श्री रामजी के प्रेमरूपी अमृत में पगे हुए थे। श्री रामवियोग रूपी भीषण विष से सब लोग जले हुए थे। वे मानो बीज सहित मंत्र को सुनते ही जाग उठे। माता, मंत्री, गुरु, नगर के स्त्री-पुरुष सभी स्नेह के कारण बहुत ही व्याकुल हो गए। सब भरतजी को सराह-सराहकर कहते हैं कि आपका शरीर श्री रामप्रेम की साक्षात मूर्ति ही है। सभी उनके साथ राम के पास जाने तो उद्यत भी हो गए।

कहहिं परसपर भा बड़ काजू। सकल चलै कर साजहिं साजू॥
जेहि राखहिं रहु घर रखवारी। सो जानइ जनु गरदनि मारी॥

सभी नगर वासी आपस में कहते हैं, बड़ा काम हुआ। सभी चलने की तैयारी करने लगे। जिसको भी घर की रखवाली के लिए रहन पड़ा उन्हें ऐसा लगता हैं, मानो मेरी गर्दन मारी गई। भरत जी चित्रकूट के लिए चल पड़े सभी नगर वासी भी उनके साथ चल पड़े।

अरुंधती अरु अगिनि समाऊ। रथ चढ़ि चले प्रथम मुनिराऊ॥
बिप्र बृंद चढ़ि बाहन नाना। चले सकल तप तेज निधाना॥
नगर लोग सब सजि सजि जाना। चित्रकूट कहँ कीन्ह पयाना॥
सिबिका सुभग न जाहिं बखानी। चढ़ि चढ़ि चलत भईं सब रानी॥

सबसे पहले मुनिराज वशिष्ठजी अरुंधती और अग्निहोत्र की सब सामग्री सहित रथ पर सवार होकर चले। फिर ब्राह्मणों के समूह, जो सब के सब तपस्या और तेज के भंडार थे, अनेकों सवारियों पर चढ़कर चले। नगर के सब लोग रथों को सजा-सजाकर चित्रकूट को चल पड़े। जिनका वर्णन नहीं हो सकता, ऐसी सुंदर पालकियों पर चढ़-चढ़कर सब रानियाँ चलीं।

अगले ब्लॉग में राम भारत मिलाप तक लिखूंगा। उस महत्वपूर्ण क्षण को लिखने के लिए एक या दो ब्लॉग भी कम पड़े इसलिए मैं इस ब्लॉग को अभी समाप्त करता हूँ। आशा है आपको पसंद आएगा और उम्मीद करता हूँ राम भारत मिलाप के ब्लॉग क प्रतीक्षा आप करेंगे।

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