Tuesday, February 6, 2024

मानस के कुछ भावुक क्षण - भाग-३ (वन गमन १)

मैं पिछले दो ब्लॉग से राम चरित मानस के भावुक क्षणों को मानस की चौपाइयों से संकलित करने की छोटी चेष्टा कर रहा हूँ । मैं पिछले ब्लॉगों का लिंक यहाँ दे रहा हूँ तांकि अपने यदि नहीं पढ़ा तो निरंतरता के लिए पढ़ सकते है। कृपया लिंक पर क्लिक करें।


आगे पढ़े आज का ब्लॉग राम का वन गमन। गणेश वंदना के बाद


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ॐ गं गणपतये सर्व कार्य सिद्धि कुरु कुरु स्वाहा ॥

यह ब्लॉग राम चरित मानस के अयोध्या कांड पर आधारित है और राम के राज्याभिषेक की तैयारियों से शुरू होता है।

मंगलमूल रामु सुत जासू। जो कछु कहिअ थोर सबु तासू।
रायँ सुभायँ मुकुरु कर लीन्हा। बदनु बिलोकि मुकुटु सम कीन्हा।।
श्रवन समीप भए सित केसा। मनहुँ जरठपनु अस उपदेसा।
नृप जुबराजु राम कहुँ देहू। जीवन जनम लाहु किन लेहू।।

मंगल मूल श्री रामचन्द्रजी के पिता के लिए जो कुछ कहा जाए सब थोड़ा है। राजा ने स्वाभाविक ही हाथ में दर्पण ले लिया और उसमें अपना मुँह देखकर मुकुट को सीधा किया। उन्होंने देखा कानों के पास बाल सफेद हो गए हैं । मानों बुढ़ापा उपदेश कर रहा है कि हे राजन। श्री रामचन्द्रजी को युवराज पद देकर अपने जीवन और जन्म का लाभ क्यों नहीं लेते।।
पूरी अयोध्या सजाई जा रही थी , मंगलाचरण गया जा रहा था और देवी कैकयी (दशरथ की दूसरी रानी) की मंदबुद्धि दासी मंथरा पूछते चल रही थे ऐसा क्यों हो रहा है और उसे राम के राज्यभिषेक का पता चलता है।
मंथरा कैकयी संवाद :-

करइ बिचारु कुबुद्धि कुजाती। होइ अकाजु कवनि बिधि राती ।
देखि लागि मधु कुटिल किराती। जिमि गवँ तकइ लेउँ केहि भाँती।।
भरत मातु पहिं गइ बिलखानी। का अनमनि हसि कह हँसि रानी।
ऊतरु देइ न लेइ उसासू। नारि चरित करि ढारइ आँसू।।

वह दुर्बुद्धि, वाली दासी विचार करने लगी कि किस प्रकार से यह काम रात ही रात में बिगड़ जाए, जैसे कोई कुटिल भीलनी शहद का छत्ता लगा देखकर घात लगाती है कि इसको किस तरह से उखाड़ लूँ । उदास होकर भरतजी की माता कैकेयी के पास गई। रानी कैकेयी ने हँसकर कहा- तू उदास क्यों है? मंथरा कुछ उत्तर नहीं देती, केवल लंबी साँस ले रही है और नारी चरित करके आँसू ढरका रही है।

भयउ कौसिलहि बिधि अति दाहिन। देखत गरब रहत उर नाहिन।
देखहु कस न जाइ सब सोभा। जो अवलोकि मोर मनु छोभा।।
पूतु बिदेस न सोचु तुम्हारें। जानति हहु बस नाहु हमारें।
नीद बहुत प्रिय सेज तुराई। लखहु न भूप कपट चतुराई।।

मंथरा कहती है , कौसल्या को विधाता बहुत ही अनुकूल हुए हैं, यह देखकर उनके हृदय में गर्व समाता नहीं। तुम स्वयं जाकर सब शोभा क्यों नहीं देख लेतीं, जिसे देखकर मेरे मन में क्षोभ हुआ है। पुत्र परदेस में है, तुम्हें कुछ सोच नहीं। जानती हो कि मेरे बस में कुछ नहीं हैं। तुम्हें तो सेज पलँग पर पड़े-पड़े नींद लेना ही बहुत प्यारा लगता है, राजा की कपटभरी चतुराई तुम नहीं देखती। कैकयी ने मंथरा को बहुत खरी खोटी सुनाई। उनका राम के प्रीती भी सामने आता है ।

काने खोरे कूबरे कुटिल कुचाली जानि।
तिय बिसेषि पुनिचेरि कहि भरतमातु मुसुकानि।।

काने , लंगड़ों और कुबड़ों को कुटिल और कुचाली जानना चाहिए। उनमें भी स्त्री और खासकर दासी! इतना कहकर भरतजी की माता कैकेयी मुस्कुरा दीं।

जौं बिधि जनमु देइ करि छोहू। होहुँ राम सिय पूत पुतोहु।
प्रान तें अधिक रामु प्रिय मोरें। तिन्ह कें तिलक छोभु कस तोरें।।

जो विधाता कृपा करके फिर से जन्म दें तो यह भी दे श्री रामचन्द्र पुत्र और सीता बहू हों। श्री राम मुझे प्राणों से भी अधिक प्रिय हैं। उनके उनके तिलक की बात सुनकर तुझे क्षोभ कैसा? मंथरा के बार बार कहने पर कि कौसल्या और दशरथ ने कुटिलता से भारत को ननिहाल भेज कर यह राजतिलक का फैसला लिया। महारानी कैकयी कोप भवन में जाती है और दशरथ को उन्हें मानना आना पड़ता है।
कैकयी दशरथ संवाद :-

केहि हेतु रानि रिसानि परसत पानि पतिहि नेवारई।
मानहुँ सरोष भुअंग भामिनि बिषम भाँति निहारई॥
दोउ बासना रसना दसन बर मरम ठाहरु देखई।
तुलसी नृपति भवतब्यता बस काम कौतुक लेखई॥

हे रानी! किसलिए रूठी हो?' यह कहकर राजा उसे स्पर्श करते हैं, तो वह उनके हाथ को झटककर हटा देती है और ऐसे देखती है मानो क्रोध में भरी हुई नागिन क्रूर दृष्टि से देख रही हो। दोनों वरदानों की उस नागिन की दो जीभें हैं। तुलसीदासजी कहते हैं कि राजा दशरथ होनहार के वश में होकर इसे इस प्रकार हाथ झटकने और नागिन की भाँति देखने को प्रेम क्रीड़ा ही समझ रहे हैं।

प्रिया प्रान सुत सरबसु मोरें। परिजन प्रजा सकल बस तोरें।
जौं कछु कहौं कपटु करि तोही। भामिनि राम सपथ सत मोही।।
बिहसि मागु मनभावति बाता। भूषन सजहि मनोहर गाता।
घरी कुघरी समुझि जियँ देखू। बेगि प्रिया परिहरहि कुबेषू।।

हे प्रिया , मेरी प्रजा, कुटम्बी, सम्पति , पुत्र, यहाँ तक कि मेरे प्राण भी, ये सब तेरे वश अधीन हैं। यदि मैं तुझसे कुछ कपट करके कहता होऊँ तो हे देवी मुझे सौ बार राम की सौगंध है। तू प्रसन्नतापूर्वक अपनी मनचाही बात माँग ले और अपने अंगों को आभूषणों से सजा ले । हे प्रिये! जल्दी इस बुरे वेष को त्याग दे।
राजा ने राम की सौगंध खाई है जान कैकयी उठती है गहने पहनती है और फिर राजा को उनके दिए दो वचनो कि याद दिलाई ।

झूठेहुँ हमहि दोषु जनि देहू। दुइ कै चारि मागि मकु लेहू।
रघुकुल रीति सदा चलि आई। प्रान जाहुँ परु बचनु न जाई।।

मुझे झूठ-मूठ दोष मत दो। चाहे दो के बदले चार माँग लो। रघुकुल में सदा से यह रीति चली आई है कि प्राण भले ही चले जाएँ, पर वचन नहीं जाता

सुनहु प्रानप्रिय भावत जी का। देहु एक बर भरतहि टीका।
मागउँ दूसर बर कर जोरी। पुरवहु नाथ मनोरथ मोरी।।
तापस बेष बिसेषि उदासी। चौदह बरिस रामु बनबास।
सुनि मृदु बचन भूप हियँ सोकू। ससि कर छुअत बिकल जिमि कोकू।।

वह बोली- हे प्राण प्यारे! सुनिए, मेरे मन को भाने वाला एक वर तो दीजिए, भरत का राजतिलक और हे नाथ ! दूसरा वर भी मैं हाथ जोड़कर माँगती हूँ, मेरा मनोरथ पूरा कीजिए। राज्य और कुटुम्ब आदि की ओर से भलीभाँति उदासीन होकर विरक्त मुनियों की भाँति राम चौदह वर्ष तक वन में निवास करें। कैकेयी के विनययुक्त वचन सुनकर राजा के हृदय में ऐसा शोक हुआ जैसे चन्द्रमा की किरणों के स्पर्श से चकवा विकल हो जाता है।
दशरथ दुखित हो जाते है और राम जानना चाहते है कि ऐसा क्यों है और वो कैकयी के पास पिता के दुःख का कारण जानने को जाते है। राम को जब दशरथ जी के वरदानों कि बात पता चलती है तो वे कैकयी से कहते है।
राम कैकयी संवाद :-

मुनिगन मिलनु बिसेषि बन सबहि भाँति हित मोर।
तेहि महँ पितु आयसु बहुरि संमत जननी तोर।
भरतु प्रानप्रिय पावहिं राजू। बिधि सब बिधि मोहि सनमुख आजू।
जौं न जाउँ बन ऐसेहु काजा। प्रथम गनिअ मोहि मूढ़ समाजा ।।

राम कैकयी से कहते है वन में विशेष रूप से मुनियों का मिलाप होगा, जिसमें मेरा सभी प्रकार से हित है। उस पर यह पिताजी की आज्ञा और हे! जननी तुम्हारी भी सम्मति है और मेरा प्राण प्रिय भरत राज्य पावेंगे ऐसा प्रतीत होता है कि आज विधाता सब प्रकार से मुझे सम्मुख हैं। यदि ऐसे काम के लिए भी मैं वन को न जाऊँ तो मूर्खों के समाज में सबसे पहले मेरी गिनती करनी चाहिए।
राम फिर पिता के पास जाते है। उन्हें आया जान दशरथ की मुर्छा टूटती है। और वह उन्हें ढ़ाढ़स देते है।
राम दशरथ संवाद :-

अति लघु बात लागि दुखु पावा। काहुँ न मोहि कहि प्रथम जनावा।।
देखि गोसाइँहि पूँछिउँ माता। सुनि प्रसंगु भए सीतल गाता ।।

राम दशरथ से कहते है इस अत्यन्त छोटी बात के लिए आपने इतने दुःखी है। मुझे किसी ने पहले यह बात नहीं बताई। आपकी दशा देखकर मैंने माता (कैकयी) से पूछा उनसे सारी बात सुनकर मेरा मन शीतल हो गए।

अस कहि राम गवनु तब कीन्हा। भूप सोक बस उतरु न दीन्हा ।।
नगर ब्यापि गइ बात सुतीछी। छुअत चढ़ी जनु सब तन बीछी ।।

ऐसा कहकर तब श्री रामचन्द्रजी वहाँ से चल दिए। राजा शोकवश कोई उत्तर नहीं दे पाए। और वो बहुत अप्रिय बात नगर भर में इतनी जल्दी फैल गई, मानो डंक मारते ही बिच्छू का विष सारे शरीर में चढ़ गया हो ।
नगर वासी क्या कहते है
सभी कैकयी को बुरा भला कहने लगे। तुम तो कहती थीं राम तुम्हें भरत के जैसा ही प्रिय है।

अस बिचारि उर छाड़हु कोहू। सोक कलंक कोठि जनि होहू।।
भरतहि अवसि देहु जुबराजू। कानन काह राम कर काजू ।।

हृदय में ऐसा विचार कर के क्रोध छोड़ दो, शोक और कलंक की कोठी मत बनो। भरत को अवश्य युवराजपद दो, पर श्री रामचंद्रजी का वन में क्या काम है?
राम राज्य के भूखे नहीं है कभी भरत के राजकाज में विघ्न नहीं डालेंगे। फिर राम माता कौशल्या के पास जा कर उन्हें समझाते है।
राम कौशल्या संवाद :-

आयसु देहि मुदित मन माता। जेहिं मुद मंगल कानन जाता॥
जनि सनेह बस डरपसि भोरें। आनँदु अंब अनुग्रह तोरें॥

राम कहते है हे माता! तू प्रसन्न मन से मुझे आज्ञा दे, जिससे मेरी वन यात्रा में आनंद-मंगल हो। मेरे स्नेहवश भूलकर भी डरना नहीं। हे माता! तेरी कृपा से आनंद ही होगा।
राम के वन जाने के निर्णय से सीता जी भी उनके साथ जाने को उद्यत हो गयी। तब राम उन्हें भांति भांति से समझते है की महल में ही रहे।
राम सीता संवाद:-

जौं हठ करहु प्रेम बस बामा। तौ तुम्ह दुखु पाउब परिनामा।
काननु कठिन भयंकरु भारी। घोर घामु हिम बारि बयारी।।
कुस कंटक मग काँकर नाना। चलब पयादेहिं बिनु पदत्राना।
चरन कमल मृदु मंजु तुम्हारे। मारग अगम भूमिधर भारे।।
कंदर खोह नदीं नद नारे। अगम अगाध न जाहिं निहारे।
भालु बाघ बृक केहरि नागा। करहिं नाद सुनि धीरजु भागा।।

राम कहते है हे वामांगी यदि प्रेमवश हठ करोगी, तो दुःख पाओगी। वन बड़ा क्लेशदायक और भयानक है। वहाँ की धूप, जाड़ा, वर्षा और हवा सभी बड़े भयानक हैं। रास्ते में कुश, काँटे और बहुत से कंकड़ हैं। उन पर खाली पैड़ ही पैदल ही चलना होगा। तुम्हारे चरण कोमल और सुंदर हैं और रास्ते में बड़े-बड़े दुर्गम पर्वत हैं। पर्वतों की गुफाएँ, खोह , नदियाँ, नद और नाले ऐसे अगम्य और गहरे हैं कि उनकी ओर देखा तक नहीं जाता। रीछ, बाघ, भेड़िये, सिंह और हाथी भयानक शब्द करते हैं कि उन्हें सुनकर धीरज भाग जाता है। सीता राम के मानाने के बाद माता कौसल्या के पास आज्ञा मांगने जाती है।
राम सीता कौशल्या संवाद :-

तब जानकी सासु पग लागी। सुनिअ माय मैं परम अभागी।
सेवा समय दैअँ बनु दीन्हा। मोर मनोरथु सफल न कीन्हा।।

तब जानकीजी सास के पाँव लगीं और बोलीं- हे माता! सुनिए, मैं बड़ी ही अभागिनी हूँ। आपकी सेवा करने के समय दैव ने मुझे वनवास दे दिया। मेरा मनोरथ सफल न किया। बाद में कौशल्या ने उन्हें गले लगाया और कहा।

बारहिं बार लाइ उर लीन्ही। धरि धीरजु सिख आसिष दीन्ही।
अचल होउ अहिवातु तुम्हारा। जब लगि गंग जमुन जल धारा।।

उन्होंने सीताजी को बार-बार हृदय से लगाया और धीरज धरकर शिक्षा दी और आशीर्वाद दिया कि जब तक गंगाजी और यमुनाजी में जल की धारा बहे, तब तक तुम्हारा सुहाग अचल रहे।
लक्ष्मण का वन जाने का निर्णय

समाचार जब लछिमन पाए। ब्याकुल बिलख बदन उठि धाए।।
कंप पुलक तन नयन सनीरा। गहे चरन अति प्रेम अधीरा।।

जब लक्ष्मणजी राम वन गमन का समाचार पाया तब वे व्याकुल होकर उदास मुँह उठ दौड़े। शरीर काँप रहा है, रोमांच हो रहा है, नेत्र आँसुओं से भरे हैं। प्रेम से अत्यन्त अधीर होकर उन्होंने श्री रामजी के चरण पकड़ लिए।
राम लक्ष्मण संवाद:-

अस जियँ जानि सुनहु सिख भाई। करहु मातु पितु पद सेवकाई।।
भवन भरतु रिपुसूदनु नाहीं। राउ बृद्ध मम दुखु मन माहीं।।

राम बोले हे भाई! हृदय में ऐसा जानकर मेरी सीख सुनो और माता-पिता के चरणों की सेवा करो। भरत और शत्रुघ्न भी घर पर नहीं हैं, महाराज वृद्ध हैं और मेरे जाने से दुखी भी है।

मैं बन जाउँ तुम्हहि लेइ साथा। होइ सबहि बिधि अवध अनाथा।
गुरु पितु मातु प्रजा परिवारू। सब कहुँ परइ दुसह दुख भारू।।

भाई इस अवस्था में मैं तुमको साथ लेकर वन जाऊँ तो अयोध्या सभी प्रकार से अनाथ हो जाएगी। गुरु, पिता, माता, प्रजा और परिवार सभी पर दुःख का दुःसह भार आ पड़ेगा। लक्ष्मण जी फिर अपने माता सुमित्रा के पास जाते है। सब बातें जानकर सुमित्रा अपना सर पीट लेती है। और सोचती है पापिनी कैकयी ने कैसा घात लगाया।
लक्ष्मण सुमित्रा संवाद:-

धीरजु धरेउ कुअवसर जानी। सहज सुहृद बोली मृदु बानी।
तात तुम्हारि मातु बैदेही। पिता रामु सब भाँति सनेही।।

सुमित्रा ने कुसमय जानकर धैर्य धारण किया और स्वभाव से ही हित चाहने वाली सुमित्राजी कोमल वाणी से बोलीं- हे तात ! जानकीजी तुम्हारी माता सामान हैं और सब प्रकार से स्नेह करने वाले श्री रामचन्द्रजी तुम्हारे पिता सामान हैं।

अवध तहाँ जहँ राम निवासू। तहँइँ दिवसु जहँ भानु प्रकासू।
जौं पै सीय रामु बन जाहीं। अवध तुम्हार काजु कछु नाहीं।।

और जहाँ श्री रामजी का निवास हो वहीं अयोध्या है। जहाँ सूर्य का प्रकाश हो वहीं दिन है। यदि निश्चय ही सीता-राम वन को जाते हैं, तो अयोध्या में तुम्हारा कुछ भी काम नहीं है।
राम सीता लक्ष्मण दशरथ से आज्ञा मांगने जाना ;-

सीय सहित सुत सुभग दोउ देखि देखि अकुलाइ।
बारहिं बार सनेह बस राउ लेइ उर लाइ।।
सकइ न बोलि बिकल नरनाहू। सोक जनित उर दारुन दाहू।
नाइ सीसु पद अति अनुरागा। उठि रघुबीर बिदा तब मागा।।

सीता सहित दोनों सुंदर पुत्रों को देख-देखकर राजा अकुलाते हैं और स्नेह वश बारंबार उन्हें हृदय से लगा लेते हैं। राजा व्याकुल हैं, बोल नहीं सकते। हृदय में शोक से उत्पन्न हुआ भयानक सन्ताप है। तब रघुकुल के वीर श्री रामचन्द्रजी ने अत्यन्त प्रेम से चरणों में सिर नवाकर उठकर विदा माँगी। वो पहले राम फिर सीता को समझने की कोशिश भी करते है।

तब नृप सीय लाइ उर लीन्ही। अति हित बहुत भाँति सिख दीन्ही।
कहि बन के दुख दुसह सुनाए। सासु ससुर पितु सुख समुझाए।।
सिय मनु राम चरन अनुरागा। घरुन सुगमु बनु बिषमु न लागा।
औरउ सबहिं सीय समुझाई। कहि कहि बिपिन बिपति अधिकाई।।

तब राजा ने सीताजी को हृदय से लगा लिया और बहुत प्रकार की शिक्षा दी। वन के दुःसह दुःख कहकर सुनाए। फिर सास, ससुर तथा पिता के पास रहने के सुखों को समझाया। परन्तु सीताजी का मन श्री रामचन्द्रजी के चरणों में बसा था, इसलिए उन्हें घर अच्छा नहीं लगा और न ही वन भयान। फिर और लोगों ने भी वन में विपत्तियों की अधिकता बता-बताकर सीताजी को समझाया। मंत्री सुमंत की पत्नी , गुरु वशिष्ठ की पत्नी सीता को बोलती है , दशरथ जी ने तुमको वनवास नहीं दिया इसलिए तुम्हारा वन में जाना जरूरी नहीं है।

सीय सकुच बस उतरु न देई। सो सुनि तमकि उठी कैकेई।
मुनि पट भूषन भाजन आनी। आगें धरि बोली मृदु बानी।।
नृपहि प्रानप्रिय तुम्ह रघुबीरा। सील सनेह न छाड़िहि भीरा।
सुकृतु सुजसु परलोकु नसाऊ। तुम्हहि जान बन कहिहि न काऊ।।

सीताजी संकोचवश उत्तर नहीं देतीं। इन बातों को सुनकर कैकेयी तमककर उठी। उसने मुनियों के वस्त्र, माला, मेखला और कमंडल आदि लाकर श्री रामचन्द्रजी के आगे रख दिए और कोमल वाणी से कहा-ऐसा विचारकर जो तुम्हें अच्छा लगे वही करो। माता की सीख सुनकर श्री रामचन्द्रजी ने बड़ा सुख पाया, परन्तु राजा को ये वचन बाण के समान लगे। वे सोचने लगे अब भी अभागे प्राण क्यों नहीं निकलते!

लोग बिकल मुरुछित नरनाहू। काह करिअ कछु सूझ न काहू।
रामु तुरत मुनि बेषु बनाई। चले जनक जननिहि सिरु नाई।।

राजा मूर्छित हो गए, लोग व्याकुल हैं। किसी को कुछ सूझ नहीं पड़ता कि क्या करें। श्री रामचन्द्रजी तुरंत मुनि का वेष बनाकर और माता-पिता को सिर नवाकर चल दिए। राम सीता और लक्ष्मण के पीछे पीछे व्याकुल नगरवासी भी चल पड़ते है। वे कहाँ कहाँ गए और वनगमन पर अन्य चौपाई अगले ब्लॉग में।

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