तिब्बत की खोज किसने की ? यानि तिब्बत जिसके बारे में बाहरी दुनिया को कुछ पता नहीं था उसको दुनिया के सामने कौन ले कर आया ? जिन तीन लोगों का नाम सामने आता है वो है पंडित राहुल सांस्कृत्यायन 1930 's में तिब्बत , ऑस्ट्रियन हेनरिक हरेर तिब्बत में बिताया काल 1944 - 51 (7 years in Tibet fame ) और पंडित नयन सिंह रावत जो तिब्बत 1856 में गए । यानि इन सभी में सबसे पहले तिब्बत जाने वाले पहले व्यक्ति। इसी क्रम के राधानाथ सिकदर ने त्रिगुणमिति की सहायता से माउंट एवेरेस्ट की ऊंचाई १८५२ में नपा था। वे सर्वे आफ इण्डिया के कर्मचारी थे। एवरेस्ट का नाम इस कारण तब के सर्वेयर जनरल आफ इंडिया श्री जार्ज एवरेस्ट के नाम पर पड़ा। ये सभी EXPLORER थे एक अनजान जगह की।
सबसे पहले पंडित राहुल सांकृत्यायन की बात करते है। उनके धर्म और दर्शन की बात करें तो सबसे पहले वे आर्य समाजी थे। बाद में श्री लंका में उन्होंने बुद्ध धर्म में दीक्षा ली और तभी अपना नाम महात्मा बुद्ध के पुत्र के नाम पर रखा राहुल। फिर जब वे सोवियत संघ गए और उनका झुकाव मार्क्सवाद के तरफ हुआ तब वे नास्तिक हो गए।
राहुल संस्कृत्यायन की मुर्ति, दार्जिलिंग
राहुल सांकृत्यायन का यात्राएं इतिहास 1910 में शुरू हुई, जब उन्होंने हिमालय की यात्राएं की। पहले उन्होंने भिक्षुओं के साथ यात्रा की, लेकिन बाद में अकेले यात्रा की। सांकृत्यायन की यात्राएं उन्हें लद्दाख, किन्नौर और कश्मीर सहित भारत के विभिन्न हिस्सों में ले गईं। उन्होंने नेपाल, तिब्बत, श्रीलंका सहित कई अन्य देशों की भी यात्रा जैसे ईरान, चीन और पूर्व सोवियत संघ। उन्होंने बिहार में सारण जिले के परसा गढ़ गांव में भी कई साल बिताए। गांव के प्रवेश द्वार का नाम भी "राहुल गेट" है। यात्रा करते समय, उन्होंने ज्यादातर भूतल परिवहन का उपयोग किया या पैदल यात्रा की। उन्होंने बौद्ध भिक्षु के रूप गुप्त तरीके से तिब्बत में प्रवेश किया।
उन्होंने तिब्बत की कई यात्राएँ कीं और बहुमूल्य पेंटिंग और पाली और संस्कृत पांडुलिपियाँ भारत वापस लाए। इनमें से अधिकांश विक्रमशिला और नालंदा विश्वविद्यालयों के पुस्तकालयों का हिस्सा थे। इन वस्तुओं को बारहवीं शताब्दी के दौरान बौद्ध भिक्षुओं द्वारा तिब्बत ले जाया गया था, जब आक्रमणकारी मुस्लिम सेनाओं ने भारत में विश्वविद्यालयों को नष्ट कर दिया था। कहा जाता है कि राहुल सांकृत्यायन ने इन सामग्रियों को तिब्बत से लाने के लिए बाईस खच्चरों को उपयोग में लाया।
अब बात करते हैं नैन सिंह रावत की जन्म 21 अक्टूबर 1830 - मृत्यु 1 फरवरी 1882 । जिन्हें हिमालय क्षेत्र और मध्य एशिया का पता लगाने या सर्वे के लिए अंग्रेजों द्वारा नियोजित किया गया था। वे कुमाऊँ की जोहार घाटी से थे। उन्होंने लद्दाख से तिब्बत तक व्यापार मार्ग का सर्वेक्षण किया, तिब्बत में ल्हासा का स्थान और ऊंचाई निर्धारित की और ब्रह्मपुत्र के एक बड़े हिस्से का सर्वेक्षण किया। वह 1,580 मील या 3,160,000 कदम चले और प्रत्येक की गिनती की और रिकॉर्ड किया।
नयन सिंह रावत, Explorer
वे तिब्बत तब गए जब बाहरी लोग खास कर गोरे लोगों को तिब्बत जाने की अनुमति नहीं थी और उन्हें इसलिए अंग्रेज़ों ने नौकरी दी थी तांकि वे तिब्बत जा कर ल्हासा , मानसरोवर , ब्रह्मपुत्र इत्यादि का नक्शा बना सके। उनके लिए तिब्बत जाना आसान था क्योंकि वह भुटिया जाति के थे और तिब्बती भाषा भी जानते थे। कोई सर्वेइंग उपकरण ले जाना संभव नहीं था इसलिए वे एक ३३ इंच की रस्सी पैरों के बीच बांध कर चलते थे और कदम गिनते जाते , हर २००० कदम एक मील के बराबर होता। इस तरह उन्होंने करीब १६०० मील पैदल चले और तिब्बत के कई क्षेत्र का नक्शा बना डाला अंगेरजों के लिए। ऐसा करने वाले वे पहले व्यक्ति थे।
एक जानकारी जो मेरी बहन ने भेजी है वह भी add कर रहा हूँ। नयन सिंह रावत की पत्नी हर वर्ष ऊन निकाल कर उनके लिए कोट पैंट बुनती थी। जब कई वर्ष वे नहीं आये तो लोगो ने उन्हें समझाया कि अब नयन नहीं आएंगे , पर फिर भी वो हर साल कोट पैंट बुनती और १६ साल बाद जब नयन लौट आये तो उन्हें एक साथ १६ कोट पैंट दिए।
अब बात करते है 7 years in Tibet वाले व्यक्तियों की, जिनके तिब्बत प्रवास पर 1997 में एक फिल्म भी बनी थी। वे थे :-
हेनरिक हैरर और पीटर औफ़श्नाइटर ।
हेनरिक हेरर, पर्वतारोही 1930 में
1939 में, ऑस्ट्रियाई पर्वतारोही हेनरिक हैरर अपनी गर्भवती पत्नी को छोड़कर ब्रिटिश शासित भारत में नंगा पर्वत पर चढ़ने की कोशिश कर रहे एक दल में पीटर औफ़श्नाइटर के साथ शामिल हो गए। जब 1939 में द्वितीय विश्व युद्ध शुरू हुआ, तो जर्मन (ओस्ट्रियन) होने के कारण ब्रिटिश अधिकारियों द्वारा गिरफ्तार कर लिया गया। दोनों देहरादून में Prisoner of war थे और 1944 में भाग कर तिब्बत जा पहुंचते है। जहां उसे शुरू में आने नहीं देते फिर भेष बदलकर और छिपते छिपाते और बहुत कठिनाई से ल्हासा जाने में सफल भी हो जाते है। कही रूकने जाने की अनुमति नहीं मिलती , पकड़े जाने के डर से रात में ही कठिन पहाड़ी रास्ते पर चलना पड़ता। कभी सामान ढोने के लिए याक नहीं मिलता। खैर ल्हासा में
वे तिब्बती राजनयिक कुंगो त्सारोंग के घर के मेहमान बन जाते हैं। तिब्बती वरिष्ठ अधिकारी न्गावांग जिग्मे भी दोनों विदेशियों को कस्टम-मेड पश्चिमी सूट के उपहार के साथ दोस्ती का हाथ बढ़ाते हैं क्योंकि उनके कपड़े तब तक पहनने के लायक नहीं रहते। बाद में उनकी मुलाकात 14 वें बालक दलाई लामा से भी होती है जिनके वे शिक्षक (Tutor) भी बनते है। ये दोनों ल्हासा तक जाने वाले पहले गोरे व्यक्ति थे। हेनरिक हैरर ने तिब्बत में बिताए उन सात सालों पर एक किताब भी लिखी है।
आज बस इतना ही, अगले ब्लॉग की प्रतीक्षा करें।
Excellent and very informative research Its evident that you have worked very hard to collect all these information.- Great job.
ReplyDeleteDr Bimal K Sinha
Thank you Bimal, Amitabh
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