Thursday, February 15, 2024

मानस के कुछ भावुक क्षण - भाग- ४ (वन गमन २)

मैं पिछले तीन ब्लॉग में राम चरित मानस के भावुक क्षणों को मानस की चौपाइयों से संकलित करने की छोटी चेष्टा कर रहा हूँ । मैं पिछले ब्लॉगों का लिंक यहाँ दे रहा हूँ तांकि अपने यदि नहीं पढ़ा तो निरंतरता के लिए पढ़ सकते है। कृपया लिंक पर क्लिक करें।


आगे पढ़े आज का ब्लॉग "राम का वन गमन मार्ग भाग-२" मानस की चौपाइयों के संग । गणेश वंदना के बाद: ओम गण गणपते नमः

निकसि बसिष्ठ द्वार भए ठाढ़े। देखे लोग बिरह दव दाढ़।।
कहि प्रिय बचन सकल समुझाए। बिप्र बृंद रघुबीर बोलाए।।
गुर सन कहि बरषासन दीन्हे। आदर दान बिनय बस कीन्।
जाचक दान मान संतोषे। मीत पुनीत प्रेम परितोषे।।



राम वन गमन का मैप अयोध्या कांड

राम लक्ष्मण और सीता विकल नगर वासियो को सोते छोड़ निकल पड़े है और गुरु वसिष्ठ के द्वार पर जा कर देखते है कि लोग विरह वेदना से दुखित है। वे प्रिय वचन बोल सभी ब्राह्मण जनों को बुलाते है वर्ष भर का अन्न आदि देकर विनय पूर्वक उन्हें समझते है फिर अपने दास दासियों को बुला कर उन्हें गुरु जी को सौप कर बोलते है कि हे गुरु इन सबों का माता पिता कि तरह ध्यान रखियेगा।

सुठि सुकुमार कुमार दोउ जनकसुता सुकुमारि।
रथ चढ़ाइ देखराइ बनु फिरेहु गएँ दिन चारि‌।।
जौं नहिं फिरहिं धीर दोउ भाई। सत्यसंध दृढ़ब्रत रघुराई॥
तौ तुम्ह बिनय करेहु कर जोरी। फेरिअ प्रभु मिथिलेसकिसोरी॥

राम लक्ष्मण सीता के जाते ही पूरी अयोध्या शोक में डूब गयी। जब दशरथ जी की मुर्छा टूटी तब उन्होंने मंत्री सुमंत को बुला कर कहा हे सखा ये सुकुमार दोनों भाई और सीता को चार दिन वन दिखा कर लौटा लाओ। यदि धैर्यवान दोनों भाई न लौटें- क्योंकि श्री रघुनाथजी प्रण के सच्चे और दृढ़ता से नियम का पालन करने वाले हैं- तो तुम हाथ जोड़कर विनती करना कि हे प्रभो! जनककुमारी सीताजी को तो लौटा दीजिए। सीता कभी अयोध्या रहे कभी जनकपुरी

1. तमसा नदी पहुंचना , नंदीग्राम

बालक बृद्ध बिहाइ गृहँ लगे लोग सब साथ।
तमसा तीर निवासु किय प्रथम दिवस रघुनाथ ।।
जबहिं जाम जुग जामिनि बीती। राम सचिव सन कहेउ सप्रीती ।।
खोज मारि रथु हाँकहु ताता। आन उपायँ बनिहि नहिं बाता ।।

बच्चों और बूढ़ों को घरों में छोड़कर सब लोग साथ हो लिए। पहले दिन श्री रघुनाथजी ने तमसा नदी के तीर पर निवास किया । यह जगह अयोध्या से करीब २० कि० मी० दूर भरतकुंड या नंदीग्राम के पास है। रामायण के अनुसार तमसा नदी बरसाती नदी है गंगा की बाये किनारे की सहायक नदी है। और यह कैमूर से निकलने वाली तमसा-टोंस नदी नहीं है। रात में जब सब नगर वासी सो गए जब दो पहर बीत गई, तब श्री रामचन्द्रजी ने प्रेमपूर्वक मंत्री सुमंत्र से कहा- हे तात! रथ के खोज मारकर (अर्थात् पहियों के चिह्नों से दिशा का पता न चले इस प्रकार) रथ को हाँकिए। और किसी उपाय से बात नहीं बनेगी सुबह जब नगरवासियों की नींद टूटती है तब तक राम लक्ष्मण और सीता जा चुके थे। और रथ का कहीं अता-पता भी नहीं था। सभी राम राम कह इधर उधर दौड़ने लगे। सभी दुःखी मन अयोध्या लौट आए और रामचन्द्रजी के पुनः दर्शन के लिए व्रत रखने लगे।

2. श्रृंगवेरपुर पहुंचना

सीता सचिव सहित दोउ भाई। सृंगबेरपुर पहुँचे जाई॥
उतरे राम देवसरि देखी। कीन्ह दंडवत हरषु बिसेषी॥

सीताजी और मंत्री सहित दोनों भाई श्रृंगवेरपुर जा पहुँचे। वहाँ गंगाजी को देखकर श्री रामजी रथ से उतर पड़े और बड़े हर्ष के साथ उन्होंने दण्डवत की । सभी ने गंगा जी में स्नान किया जिससे रास्ते कि थकन दूर हो गयी।

यह सुधि गुहँ निषाद जब पाई। मुदित लिए प्रिय बंधु बोलाई ॥
लिए फल मूल भेंट भरि भारा। मिलन चलेउ हियँ हरषु अपारा॥

यह निषादराज का क्षेत्र था। निषादराज और राम गुरुकुल में गुरुभाई रह चुके थे। जब निषादराज गुह ने यह खबर पाई, तब आनंदित होकर उसने अपने प्रियजनों और भाई-बंधुओं को बुला लिया और भेंट देने के लिए फल, मूल (कन्द) लेकर और उन्हें भारों (बहँगियों) में भरकर मिलने के लिए चला। उसके हृदय में हर्ष का पार नहीं था । निषादराज ने प्रभु से आग्रह किया घर चलने को तो प्रभु ने यह कह कर मना कर दिया कि पिता के वचन से उन्हें मुनि के जैसा व्यवहार करना है और वे किसी ग्राम - नगर में प्रवेश नहीं कर सकते।

राम लखन सिय रूप निहारी। कहहिं सप्रेम ग्राम नर नारी।।
ते पितु मातु कहहु सखि कैसे। जिन्ह पठए बन बालक ऐसे।।

ग्राम वासी रामजी, लक्ष्मणजी और सीताजी के रूप को देखकर गाँव के स्त्री-पुरुष बात चीत करने लगे । (कोई कहती है-) हे सखी! वे माता-पिता कैसे हैं, जिन्होंने ऐसे (सुंदर सुकुमार) बालकों को वन में भेज दिया है। और निषादराज सोचने लगे बृह्मा ने इसी बहाने हमारे नेत्रों को सुख दिया है।

लै रघुनाथहिं ठाउँ देखावा। कहेउ राम सब भाँति सुहावा॥
पुरजन करि जोहारु घर आए। रघुबर संध्या करन सिधाए॥
गुहँ सँवारि साँथरी डसाई। कुस किसलयमय मृदुल सुहाई॥
सुचि फल मूल मधुर मृदु जानी। दोना भरि भरि राखेसि पानी॥

निषादराज ने श्री रघुनाथजी को ले जाकर वह स्थान दिखाया जहाँ कुटिया बनाई जा सकती है । श्री रामचन्द्रजी ने जगह को देखकर कहा कि यह सब प्रकार से सुंदर है। पुरवासी लोग वंदना करके अपने-अपने घर लौटे और श्री रामचन्द्रजी संध्या करने पधारे। गुह ने कुश और कोमल पत्तों की कोमल और सुंदर सुथरी बिछावन बिछा दी और खोज खोज कर पवित्र, मीठे और कोमल फल-मूल दोनों में भर-भरकर रख दिया और पानी भी रख दिया। निषादराज राजकुमारों को धरती पर सोते देख और कंदमूल खाते देख भावुक हो जाते है और लक्ष्मण से अपने मन की बात कहते हैं।

तुम्ह पुनि पितु सम अति हित मोरें। बिनती करउँ तात कर जोरें॥
सब बिधि सोइ करतब्य तुम्हारें। दुख न पाव पितु सोच हमारें॥
सुनि रघुनाथ सचिव संबादू। भयउ सपरिजन बिकल निषादू॥
पुनि कछु लखन कही कटु बानी। प्रभु बरजे बड़ अनुचित जानी॥

सुमंत जी ने राम , लक्ष्मण सीता को महाराज दशरथ की उसे दी गई वो आज्ञा सुना दी कि महाराज ने उंन्हे वन से चारदिन के बाद लौटा लेन को कहा है। राम फिर सुमंत जी को वापस लौट जाने के लिए मनाते है । राम कहते है आप भी पिता के समान ही मेरे बड़े हितैषी हैं। हे तात! मैं हाथ जोड़कर आप से विनती करता हूँ कि आपका भी सब प्रकार से वही कर्तव्य है, जिसमें पिताजी हम लोगों के सोच में दुःख न पावे। श्री रघुनाथजी और सुमंत्र का यह संवाद सुनकर निषादराज कुटुम्बियों सहित व्याकुल हो जाते हैं। सुमंत जी सीता को भी वापस चलने को कहते है पर वह भी मना कर देती है।

जासु बियोग बिकल पसु ऐसें। प्रजा मातु पितु जिइहहिं कैसें॥
बरबस राम सुमंत्रु पठाए। सुरसरि तीर आपु तब आए॥

जिनके वियोग में पशु भी इस प्रकार व्याकुल हैं, उनके वियोग में प्रजा, माता और पिता कैसे जीते होंगे ? श्री रामचन्द्रजी ने जबर्दस्ती सुमंत्र को लौटाया। तब सभी गंगाजी के तीर पर आए।

मागी नाव न केवटु आना। कहइ तुम्हार मरमु मैं जाना॥
चरन कमल रज कहुँ सबु कहई। मानुष करनि मूरि कछु अहई॥
छुअत सिला भइ नारि सुहाई। पाहन तें न काठ कठिनाई॥
तरनिउ मुनि घरिनी होइ जाई। बाट परइ मोरि नाव उड़ाई॥




श्री राम ने केवट से नाव माँगी, पर वह कहता है - मैंने तुम्हारा मर्म जानता हूँ। तुम्हारे चरण कमलों की धूल के लिए लोग कहते हैं कि उसमे मनुष्य बना देने वाला कोई जादू है। जिसके छूते ही पत्थर की शिला सुंदरी स्त्री हो गई और मेरी नाव तो फिर भी काठ की है। काठ तो पत्थर से मुलायम होता है । मेरी नाव भी मुनि की स्त्री कि तरह हो जाए और इस प्रकार मेरी नाव उड़ गई तो मैं लुट जाऊँगा मेरी कमाने-खाने की राह ही मारी जाएगी। भले ही मेरे मना करने पर लक्ष्मण जी मुझे तीर मार दे पर जब तक आपके चरण धो न लू मै आपको पार नहीं उतार सकता।

सुनि केवट के बैन प्रेम लपेटे अटपटे।
बिहसे करुनाऐन चितइ जानकी लखन तन।
कृपासिंधु बोले मुसुकाई। सोइ करु जेहिं तव नाव न जाई॥
बेगि आनु जलपाय पखारू। होत बिलंबु उतारहि पारू॥

केवट की प्रेम भरे अटपटी बात सुन कर राम लक्ष्मण और सीता को देख मुस्कुराने लग गए। कृपा सिंधु मुस्कुरा कर केवट से बोले तुम वही करो जिससे तुम्हारी नाव न जाये, पानी ला और मेरे पैर धो और मुझे पार पहुंचा। जिनके स्मरण मात्रा से लोग भवसागर पार कर लेते है वही केवट से पार उतारने के लिए निहोरा कर रहे है। केवट चरण धो कर और परिवार सहित चरणामृत पी कर नाव गंगा पार ले गया।

उतरि ठाढ़ भए सुरसरि रेता। सीय रामुगुह लखन समेता॥
केवट उतरि दंडवत कीन्हा। प्रभुहि सकुच एहि नहिं कछु दीन्हा॥
पिय हिय की सिय जाननिहारी। मनि मुदरी मन मुदित उतारी॥
कहेउ कृपाल लेहि उतराई। केवट चरन गहे अकुलाई॥

निषादराज और लक्ष्मणजी सहित श्री सीताजी और श्री रामचन्द्रजी नाव से उतरकर गंगाजी की रेत में खड़े हो गये। यह जगह संगरोर के नजदीक कुरई गांव थी। तब केवट ने उतरकर दण्डवत की। उसको दण्डवत करते देखकर प्रभु को संकोच हुआ कि इसको तो कुछ दिया ही नहीं। पति के हृदय की जानने वाली सीताजी ने आनंद भरे मन से अपनी रत्न जडि़त अँगूठी उतारी। कृपालु श्री रामचन्द्रजी ने केवट से कहा, नाव की उतराई लो। केवट ने व्याकुल होकर चरण पकड़ लिए। हे नाथ! आज मैंने क्या नहीं पाया! मेरे दोष, दुःख और दरिद्रता की आग आज बुझ गई है। मैंने बहुत समय तक मजदूरी की। विधाता ने आज बहुत अच्छी भरपूर मजदूरी दे दी। सीता जी गंगा जी की पूजा करती है और कहती है आशीर्वाद दीजिये की पति और देवर के साथ लौट कर फिर आपकी पूजा करूँ। गंगा जी ऐसा ही आशीर्वाद भी देती है।

दीन बचन गुह कह कर जोरी। बिनय सुनहु रघुकुलमनि मोरी॥
नाथ साथ रहि पंथु देखाई। करि दिन चारि चरन सेवकाई॥
जेहिं बन जाइ रहब रघुराई। परनकुटी मैं करबि सुहाई॥
तब मोहि कहँ जसि देब रजाई। सोइ करिहउँ रघुबीर दोहाई॥

निषाद राज गंगा किनारे से वापस नहीं जाना चाहते वे हाथ जोड़कर दीन वचन बोले- हे रघुकुल शिरोमणि! मैं नाथ आप के साथ रहकर, रास्ता दिखाकर, चार दिन चरणों की सेवा करूँगा । हे रघुराज! जिस वन में आप जाकर रहेंगे, वहाँ मैं सुंदर पर्णकुटी (पत्तों की कुटिया) बना दूँगा। तब मुझे आप जैसी आज्ञा देंगे, मैं वैसा ही करूँगा। श्री राम जी उसके स्वाभाविक प्रेम से अभिभूत हो कर उसे साथ ले लेते है।

3.प्रयाग राज पहुंचना कुरई, संगरौर हो कर

तेहि दिन भयउ बिटप तर बासू। लखन सखाँ सब कीन्ह सुपासू।।
प्रात प्रातकृत करि रघुराई। तीरथराजु दीख प्रभु जाई।।

उस दिन पेड़ के नीचे निवास हुआ। लक्ष्मणजी और सखा गुह ने (विश्राम की) सब सुव्यवस्था कर दी। प्रभु श्री रामचन्द्रजी ने सबेरे प्रातःकाल की सब क्रियाएँ करके जाकर तीर्थों के राजा प्रयाग के दर्शन किए।

छेत्रु अगम गढ़ु गाढ़ सुहावा। सपनेहुँ नहिं प्रतिपच्छिन्ह पावा।।
सेन सकल तीरथ बर बीरा। कलुष अनीक दलन रनधीरा।।
संगमु सिंहासनु सुठि सोहा। छत्रु अखयबटु मुनि मनु मोहा।।
चवँर जमुन अरु गंग तरंगा। देखि होहिं दुख दारिद भंगा।।

प्रयाग क्षेत्र ही दुर्गम, मजबूत और सुंदर किला है, जिसको स्वप्न में भी (पाप रूपी) शत्रु नहीं पा सके हैं। संपूर्ण तीर्थ ही उसके श्रेष्ठ वीर सैनिक हैं, जो पाप की सेना को कुचल डालने वाले और बड़े रणधीर हैं। गंगा, यमुना और सरस्वती का संगम ही उसका अत्यन्त सुशोभित सिंहासन है। अक्षयवट छत्र है, जो मुनियों के भी मन को मोहित कर लेता है। यमुनाजी और गंगाजी की तरंगें उसके श्याम और श्वेत चँवर हैं, जिनको देखकर ही दुःख और दरिद्रता नष्ट हो जाती है। श्री राम लक्ष्मण , सीता और निषाद राज को प्रयागराज की महिमा सुनाते है। संगम के दर्शन , शिव जी के पूजा के बाद सभी चल पड़े और भरद्वाज ऋषि के पास गए।

दीन्हि असीस मुनीस उर अति अनंदु अस जानि।
लोचन गोचर सुकृत फल मनहुँ किए बिधि आनि।।
कुसल प्रस्न करि आसन दीन्हे। पूजि प्रेम परिपूरन कीन्हे।।
कंद मूल फल अंकुर नीके। दिए आनि मुनि मनहुँ अमी के।।

भरद्वाज मुनि ने उन्हें आशीर्वाद दिया। उन्होंने मन ही मन में सोचा विधाता ने श्री सीताजी और लक्ष्मणजी सहित प्रभु श्री रामचन्द्रजी के दर्शन कराकर मानो हमारे सम्पूर्ण पुण्यों के फल को लाकर आँखों के सामने कर दिया। कुशल पूछकर मुनिराज ने उनको आसन दिए और प्रेम सहित पूजन करके उन्हें परिपूर्ण कर दिया। फिर अमृत से अच्छे-अच्छे कन्द, मूल, फल और अंकुर लाकर दिए।

तेहि अवसर एक तापसु आवा। तेजपुंज लघुबयस सुहावा।।
कबि अलखित गति बेषु बिरागी। मन क्रम बचन राम अनुरागी।।

उसी अवसर पर वहाँ एक छोटी उम्र का एक तपस्वी आया, जिसका तेज का पुंज था और सुंदर था। उसकी गति कवि नहीं जानते था। वह वैरागी के वेष में था और मन, वचन तथा कर्म से श्री रामचन्द्रजी का प्रेमी था। बहुत टीकाकार को यह तापस प्रकरण को अप्रासंगिक और क्षेपक का जान पड़ता है। विद्वान जन ही जाने। फिर राम , सीता , लक्ष्मण और निषादराज आगे चलते और जमुना जी जो यम की बहन है के किनारे पहुंचते है।



4. जमुना के किनारे पहुंचना

पुनि सियँ राम लखन कर जोरी। जमुनहि कीन्ह प्रनामु बहोरी ।।
चले ससीय मुदित दोउ भाई। रबितनुजा कइ करत बड़ाई ।।
पथिक अनेक मिलहिं मग जाता। कहहिं सप्रेम देखि दोउ भ्राता ।।
राज लखन सब अंग तुम्हारें। देखि सोचु अति हृदय हमारें ।।

फिर सीताजी, श्री रामजी और लक्ष्मणजी ने हाथ जोड़कर यमुनाजी को पुनः प्रणाम किया और सूर्यकन्या यमुनाजी की बड़ाई करते हुए सीताजी सहित दोनों भाई प्रसन्नतापूर्वक जमुना जी को पार कर किनारे किनारे पश्चिम की ओर जाते है । रास्ते में जाते हुए उन्हें अनेकों यात्री मिलते हैं। वे दोनों भाइयों को देखकर उनसे प्रेमपूर्वक कहते हैं कि तुम्हारे सब अंगों में राज चिह्न देखकर हमारे हृदय में बड़ा सोच होता है।


5. बाल्मीकि आश्रम पहुंचना

देखत बन सर सैल सुहाए। बालमीकि आश्रम प्रभु आए ।।
राम दीख मुनि बासु सुहावन। सुंदर गिरि काननु जलु पावन ।।

सुंदर वन, तालाब और पर्वत देखते हुए प्रभु श्री रामचन्द्रजी वाल्मीकिजी के आश्रम में आए। श्री रामचन्द्रजी ने देखा कि मुनि का निवास स्थान बहुत सुंदर है, जहाँ सुंदर पर्वत, वन और पवित्र जल है। प्रभु को देख मुनि भाव विह्वल हो गए। प्रभु मुनि से कहते है।

तुम्ह त्रिकाल दरसी मुनिनाथा। बिस्व बदर जिमि तुम्हरें हाथा ॥
अस कहि प्रभु सब कथा बखानी। जेहि जेहि भाँति दीन्ह बनु रानी॥

हे मुनिनाथ! आप त्रिकालदर्शी हैं। सम्पूर्ण विश्व आपके लिए हथेली पर रखे हुए बेर के समान है। प्रभु श्री रामचन्द्रजी ने ऐसा कहकर फिर जिस-जिस प्रकार से रानी कैकेयी ने वनवास दिया, वह सब कथा विस्तार से सुनाई ।

चित्रकूट महिमा अमित कही महामुनि गाइ।
आइ नहाए सरित बर सिय समेत दोउ भाइ॥

महामुनि वाल्मीकिजी ने चित्रकूट की अपरिमित महिमा बखान कर कही। तब सीताजी सहित दोनों भाइयों ने आकर श्रेष्ठ नदी मंदाकिनी में स्नान किया ।

6 चित्रकूट पहुंचना

रघुबर कहेउ लखन भल घाटू। करहु कतहुँ अब ठाहर ठाटू॥
लखन दीख पय उतर करारा। चहुँ दिसि फिरेउ धनुष जिमि नारा॥

श्री रामचन्द्रजी ने कहा- लक्ष्मण! बड़ा अच्छा घाट है। अब यहीं कहीं ठहरने की व्यवस्था करो। तब लक्ष्मणजी ने पयस्विनी नदी के उत्तर के ऊँचे किनारे को देखा (और कहा कि-) इसके चारों ओर धनुष के जैसा एक नाला (क्षुद्र नदी) भी है । मंदाकिनी नदी इस धनुष की एक प्रत्यंचा की तरह है।

कोल किरात बेष सब आए। रचे परन तृन सदन सुहाए॥
बरनि न जाहिं मंजु दुइ साला। एक ललित लघु एक बिसाला॥

लक्ष्मण जी ने प्रभु को एक जगह दिखाई और वो जगह उन्हें पसंद आई। प्रभु इस मनोरम जगह पर रहेंगे जान कर विश्वकर्मा के साथ सभी देवता कोल-भीलों के वेष में आए और उन्होंने दिव्य पत्तों और घासों के सुंदर घर बना दिए। दो ऐसी सुंदर कुटिया बनाईं जिनका वर्णन नहीं हो सकता। उनमें एक बड़ी सुंदर छोटी सी थी और दूसरी बड़ी थी ।

अगले भाग में सुमंत का अयोध्या पहुंच जाना, दशरथ जी की मृत्यु, भरत शत्रुघ्न का ननिहाल से वापस आना, भरत का चित्रकूट आना, राम भरत मिलाप इत्यादि। अयोध्या से चित्रकूट का वन गमन मार्ग का मानचित्र भी है इस ब्लॉग में ।

क्रमश:

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