Monday, February 19, 2024

मानस के कुछ भावुक क्षण - भाग- ५ (वन गमन ३-१)

मैं पिछले चार ब्लॉग में राम चरित मानस के भावुक क्षणों को मानस की चौपाइयों से संकलित करने की छोटी चेष्टा कर रहा हूँ । मैं पिछले ब्लॉगों का लिंक यहाँ दे रहा हूँ तांकि आपने यदि नहीं पढ़ा तो निरंतरता के लिए पढ़ सकते है। कृपया लिंक पर क्लिक करें।


आगे पढ़े आज का ब्लॉग "राम का वन गमन मार्ग भाग-३" मानस की चौपाइयों के संग । गणेश वंदना के बाद:

जो सुमिरत सिधि होइ गन नायक करिबर बदन।
करउ अनुग्रह सोइ बुद्धि रासि सुभ गुन सदन।।
मूक होई वाचाल, पंगु चढ़ई गिरिवर गहन।
जासु कृपा सो दयाल, द्रवहु सकल कलिमल-दहन।।

सुमंत का अयोध्या लौटना, सुमंत - दशरथ - सुमंत संवाद और दशरथ की मृत्यु , भरत- शत्रुघ्न का अयोध्या लौटना

श्रीवेंगपुर में मंत्री सुमंत ने महाराज दशरथ की इच्छा श्री राम को बताई थी की महराज ने कहा था सभी को चारदिन वन दिखा लौटा लाना लेकिन राम न माने न ही सीता मानी तब राम जी से मंत्री सुमंत को महाराज का ख्याल रखने के आग्रह के साथ वापस अयोध्या लौटने को मना लिया था । निषादराज ने चार निषाद सुमंत जी के साथ कर दिए। अब आगे।

सोच सुमंत्र बिकल दुख दीना। धिग जीवन रघुबीर बिहीना॥
रहिहि न अंतहुँ अधम सरीरू। जसु न लहेउ बिछुरत रघुबीरू॥
भए अजस अघ भाजन प्राना। कवन हेतु नहिं करत पयाना॥
अहह मंद मनु अवसर चूका। अजहुँ न हृदय होत दुइ टूका॥

व्याकुल और दुःखी सुमंत्रजी सोचते हैं कि श्री राम के बिना जीना धिक्कार है। आखिर यह अधम शरीर नश्वर है तो अभी श्री रामचन्द्रजी के बिछुड़ते ही छूटकर (प्राण निकल कर ) इसने यश क्यों नहीं ले लिया। ये प्राण अपयश और पाप के कारण बन गए। अब ये प्राण किस कारण कूच नहीं निकलते ? हाय! नीच मन बड़ा अच्छा मौका चूक गया। अब भी तो हृदय के दो टुकड़े नहीं हो जाते। वे सोचते है जब नगर में सभी नर नारी , दुखी माताएं पूछेंगी राम , सीता और लखन नहीं लौटे तो क्या जवाब दूंगा ?

देहउँ उतरु कौनु मुहु लाई। आयउँ कुसल कुअँर पहुँचाई॥
सुनत लखन सिय राम सँदेसू। तृन जिमि तनु परिहरिहि नरेसू॥

मैं कौन सा मुँह लेकर उत्तर दूँगा कि मैं राजकुमारों को कुशल पूर्वक पहुँचा आया हूँ! लक्ष्मण, सीता और श्रीराम का समाचार सुनते ही महाराज जिनका जीवन श्री रघुनाथजी के दर्शन के ही अधीन है,तिनके की तरह शरीर को त्याग देंगे। तमसा नदी के के किनारे पहुंच सुमंत जी ने निषादों को वापस भेज दिया।

सचिव आगमनु सुनत सबु बिकल भयउ रनिवासु।
भवनु भयंकरु लाग तेहि मानहुँ प्रेत निवासु।।

अति आरति सब पूँछहिं रानी। उतरु न आव बिकल भइ बानी।।
सुनइ न श्रवन नयन नहिं सूझा। कहहु कहाँ नृपु तेहि तेहि बूझा।।

मंत्री का (अकेले) आना सुनकर सारा रनिवास व्याकुल हो गया। राजमहल उनको भयानक प्रेतों का निवास लगने लगा । अत्यन्त आर्त होकर सब रानियाँ पूछती हैं, पर सुमंत्र को कुछ उत्तर नहीं आता, उनकी वाणी विकल हो गई रुद्ध हो गई है। न कानों से सुनाई पड़ता है और न आँखों से कुछ सूझता है। वे जो भी सामने आता है उस-उससे पूछते हैं मेरे राजा राम कहाँ हैं ?

आसन सयन बिभूषन हीना। परेउ भूमितल निपट मलीना॥
लेइ उसासु सोच एहि भाँती। सुरपुर तें जनु खँसेउ जजाती॥

भावार्थ:-राजा आसन, शय्या और आभूषणों से रहित बिलकुल मलिन पृथ्वी पर पड़े हुए हैं। वे लंबी साँसें लेकर इस प्रकार सोच करते हैं, मानो राजा ययाति स्वर्ग से गिरकर सोच रहे हों।

भूप सुमंत्रु लीन्ह उर लाई। बूड़त कछु अधार जनु पाई॥
सहित सनेह निकट बैठारी। पूँछत राउ नयन भरि बारी॥
राम कुसल कहु सखा सनेही। कहँ रघुनाथु लखनु बैदेही॥
आने फेरि कि बनहि सिधाए। सुनत सचिव लोचन जल छाए॥

राजा ने सुमंत्र को हृदय से लगा लिया। मानो डूबते हुए आदमी को कुछ सहारा मिल गया हो। मंत्री को स्नेह के साथ पास बैठाकर नेत्रों में जल भरकर राजा पूछने लगे -हे मेरे प्रेमी सखा! श्री राम की कुशल कहो। बताओ, श्री राम, लक्ष्मण और जानकी कहाँ हैं? उन्हें लौटा लाए हो कि वे वन को चले गए? यह सुनते ही मंत्री के नेत्रों में जल भर आया। राजा बार-बार मंत्री से पूछते हैं- मेरे प्रियतम पुत्रों का संदेशा सुनाओ।

सचिव धीर धरि कह मृदु बानी। महाराज तुम्ह पंडित ग्यानी॥
बीर सुधीर धुरंधर देवा। साधु समाजु सदा तुम्ह सेवा॥
जनम मरन सब दुख सुख भोगा। हानि लाभु प्रिय मिलन बियोगा॥
काल करम बस होहिं गोसाईं। बरबस राति दिवस की नाईं॥

सुमंत जी मृदुल बानी से महाराज को ढ़ाढस दिलाते है - आप तो पंडित ज्ञानी है , सुर वीर है , साधु समाज की सेवा करने वाले है। सुख दुःख , हानि लाभ , प्यारों से मिलना बिछुड़ना , यह सब काल कर्म के अधीन है रात दिन और दिन की तरह बरबस होते रहते है। सुमंत जी ने दशरथ से सारी कथा सुनाई कि कैसे पहली रात राम सीता - लक्ष्मण ने तमसा तट पर बिताई और कैसे निषादराज ने सेवा की कैसे वे श्रीवेंगपुर गए और केवट में नाव से उसपार गए और कैसे राम के कहने पर उन्हें लौटना पड़ा।

पुरजन परिजन सकल निहोरी। तात सुनाएहु बिनती मोरी॥
सोइ सब भाँति मोर हितकारी। जातें रह नरनाहु सुखारी॥
कहब सँदेसु भरत के आएँ। नीति न तजिअ राजपदु पाएँ॥
पालेहु प्रजहि करम मन बानी। सेएहु मातु सकल सम जानी॥

राम जी ने सुमंत जी ने आते समय कहा था कि सभी पुरवासियों और कुटुंब वालों से निहोरा करना कि वही मनुष्य हमारा हर तरह से हितकारी है जिसकी चेष्टा से महाराज सुखी रहें । जब भारत आये तो उससे कहना कि राज पद पाने पर नीति न त्याग दे। प्रजा पालन वचन और मन से करना। सभी माताओं को सामान जानकार उनकी सेवा करें।

मैं आपन किमि कहौं कलेसू। जिअत फिरेउँ लेइ राम सँदेसू॥
अस कहि सचिव बचन रहि गयऊ। हानि गलानि सोच बस भयऊ॥
सूत बचन सुनतहिं नरनाहू। परेउ धरनि उर दारुन दाहू॥
तलफत बिषम मोह मन मापा। माजा मनहुँ मीन कहुँ ब्यापा॥

सुमंत कहते है कि मैं अपने क्लेश कि क्या कहूँ। मैं वापस जिन्दा राम का सन्देश ले कर लौट आया हूँ ऐसा कह कर उनका गाला रुंध गया और वे हानि और ग्लानि के वश में हो गया । सुमंत से पुत्र कि बातें सुन कर महाराज पृत्वी पर गिर पड़े। मन भीषण मोह से व्याकुल हो गया। और वह मछली कि तरह तड़पने लगे। राजा के प्राण कंठ में आ गया मानो मणि के बिना सांप , जल के बिना कमल मुरझा गया हो। रानियों के विलाप से नगरवासी सभी दुःख हो गए ।

कौसल्याँ नृपु दीख मलाना। रबिकुल रबि अँथयउ जियँ जाना॥
उर धरि धीर राम महतारी। बोली बचन समय अनुसारी॥
नाथ समुझि मन करिअ बिचारू। राम बियोग पयोधि अपारू ।
करनधार तुम्ह अवध जहाजू। चढ़ेउ सकल प्रिय पथिक समाजू॥

कौसल्याजी ने राजा को बहुत दुःखी देखकर मन ही मन जान लिया कि अब सूर्यकुल का सूर्य अस्त हो चला! तब श्री रामचन्द्रजी की माता कौसल्या हृदय में धीरज धरकर समय के अनुकूल वचन बोलीं-हे नाथ! आप मन में समझ कर विचार कीजिए कि श्री रामचन्द्र का वियोग अपार समुद्र है। अयोध्या जहाज है और आप उसके कर्णधार खेने वाले हैं। सब प्रियजन कुटुम्बी और प्रजा ही यात्रियों का समाज है, जो इस जहाज पर चढ़ा हुआ है। पर कुछ काम न आया और अन्ततः राजा कि मृत्यु हो गयी और गई गुरु वशिष्ठ ने भारत को बुलाने को दूत भेजने को कहा। अयोध्या से राम के प्रस्थान के बाद से ही भारत को अपशकुन होने लगे सियार और गदहे उल्टे बोलने लगे। हवा के वेग से चलने वाले घोड़े से भारत चल पड़े । वे चाहते थे कैसे उड़ कर पहुँच जाऊं ।


राजा दशरथ का स्वर्गवास
पुरजन मिलहिं न कहहिं कछु गवँहि जोहारहिं जाहिं।
भरत कुसल पूँछि न सकहिं भय बिषाद मन माहिं॥

अयोध्या पहुंचने पर भारत जी नगर के लोग मिलते हैं, पर कुछ कहते नहीं, चुपके से जोहार (वंदना) करके चले जाते हैं। भरतजी भी किसी से कुशल नहीं पूछ सकते, क्योंकि उनके मन में भय और विषाद छा रहा है । आशंका होती है कि कोई बुरा समाचार न दे दे । भारत ने देखा पूरा अयोध्या दुखी है पर उसकी माता कैकयी आरती का थाल सजा ले आई।

सकल कुसल कहि भरत सुनाई। पूँछी निज कुल कुसल भलाई॥
कहु कहँ तात कहाँ सब माता। कहँ सिय राम लखन प्रिय भ्राता॥

सुनि सुत बचन सनेहमय कपट नीर भरि नैन।
भरत श्रवन मन सूल सम पापिनि बोली बैन॥

भरतजी ने सब कुशल कह सुनाई। फिर अपने कुल का कुशल-क्षेम भी पूछा । भरतजी ने कहा- कहो, पिताजी कहाँ हैं ? मेरी सब माताएँ कहाँ हैं ? सीताजी और मेरे प्यारे भाई राम-लक्ष्मण कहाँ हैं ? पुत्र के स्नेहमय वचन सुनकर नेत्रों में कपट का जल भरकर पापिनी कैकेयी भरत के कानों में और मन में शूल के समान चुभने वाले वचन बोली- मैंने मंथरा कि मदद से सारा काम कर लिया था पर विधाता ने थोड़ा काम बिगाड़ दिया और महाराज देवलोक पधार गए ।

चलत न देखन पायउँ तोही। तात न रामहि सौंपेहु मोही॥
बहुरि धीर धरि उठे सँभारी। कहु पितु मरन हेतु महतारी॥
सुनि सुत बचन कहति कैकेई। मरमु पाँछि जनु माहुर देई॥
आदिहु तें सब आपनि करनी। कुटिल कठोर मुदित मन बरनी॥

दशरथ को देख भारत विलाप करने लगे हे तात! मैं आपको अंत समय में समय देख भी न सका। और आप मुझे श्री रामजी को सौंप भी नहीं गए! फिर धीरज धरकर वे सम्हलकर उठे और बोले- माता!, पिता के मरने का कारण तो बताओ । पुत्र का वचन सुनकर कैकेयी कहने लगी : मानो मर्म स्थान को चाकू से चीरकर उसमें जहर भर रही हो। कुटिल और कठोर कैकेयी ने अपनी सब करनी शुरू से आखिर तक बड़े प्रसन्न मन से सुना दी । राम चंद्र जी का वन जाना जान कर भरत जी पिता के मृत्यु का दुःख भूल गए। और सारे अनर्थ का कारण अपने को जान कर मौन हो गए। पुत्र को व्याकुल देख कैकयी उन्हें समझाती है (जैसे जले पर नमक लगा रही हो) कि महाराज के जाने का दुःख न करो , उन्होंने पुण्य और यश कामा कर उसका पूरा भोग कर लिया है।

सुनि सुठि सहमेउ राजकुमारू। पाकें छत जनु लाग अँगारू॥
धीरज धरि भरि लेहिं उसासा। पापिनि सबहि भाँति कुल नासा॥
जौं पै कुरुचि रही अति तोही। जनमत काहे न मारे मोही॥
पेड़ काटि तैं पालउ सींचा। मीन जिअन निति बारि उलीचा॥

राजकुमार भरतजी यह सुनकर बहुत ही सहम गए। मानो पके घाव पर अँगार छू गया हो। उन्होंने धीरज धरकर बड़ी लम्बी साँस लेते हुए कहा- पापिनी! तूने सभी तरह से कुल का नाश कर दिया। हाय! यदि तेरी ऐसी ही दुष्ट इच्छा थी, तो तूने जन्मते ही मुझे मार क्यों नहीं डाला? तूने पेड़ को काटकर पत्ते को सींचा है और मछली के जीने के लिए पानी को उलीच डाला! अर्थात मेरा हित करने जाकर उलटा तूने मेरा अहित कर डाला । उसकी बात सुन कर शत्रुघ्न मंथरा को झोटा पकड़ कर घसीटने लगे । और उसका कूबड़ तोड़ डाला।


भारत कौशल्या संवाद और दशरथ की अंत्योष्टि

भरतहि देखि मातु उठि धाई। मुरुचित अवनि परी झइँ आई॥
देखत भरतु बिकल भए भारी। परे चरन तन दसा बिसारी॥
मातु तात कहँ देहि देखाई। कहँ सिय रामु लखनु दोउ भाई॥
कैकइ कत जनमी जग माझा। जौं जनमि त भइ काहे न बाँझा॥

भरत को देखते ही माता कौसल्याजी उठ दौड़ीं। पर चक्कर आ जाने से मूर्च्छित होकर पृथ्वी पर गिर पड़ीं। यह देखते ही भरतजी बड़े व्याकुल हो गए और शरीर की सुध भुलाकर चरणों में गिर पड़े। फिर बोले- माता! पिताजी कहाँ हैं? उन्हें दिखा दें। सीताजी तथा मेरे दोनों भाई श्री राम-लक्ष्मण कहाँ हैं? उन्हें दिखा दें। कैकेयी जगत में क्यों जनमी! और यदि जनमी ही तो फिर बाँझ क्यों न हुई?

कुल कलंकु जेहिं जनमेउ मोही। अपजस भाजन प्रियजन द्रोही॥
को तिभुवन मोहि सरिस अभागी। गति असि तोरि मातुजेहि लागी॥
सरल सुभाय मायँ हियँ लाए। अति हित मनहुँ राम फिरि आए॥
भेंटेउ बहुरि लखन लघु भाई। सोकु सनेहु न हृदयँ समाई॥

जिसने कुल के कलंक, अपयश के कारण बने और प्रियजनों के द्रोही मुझ जैसे पुत्र को उत्पन्न किया। तीनों लोकों में मेरे समान अभागा कौन है? जिसके कारण हे माता! तेरी यह दशा हुई! सरल स्वभाव वाली माता ने बड़े प्रेम से भरतजी को छाती से लगा लिया, मानो श्री रामजी ही लौटकर आ गए हों। फिर लक्ष्मणजी के छोटे भाई शत्रुघ्न को हृदय से लगाया। शोक और स्नेह हृदय में समाता नहीं है ।
क्रमशः

2 comments:

  1. Thanks for this blog series. Waiting for the next post. 🙏🙏

    ReplyDelete
  2. Thanks Rajiv, Amitabh

    ReplyDelete