Tuesday, March 12, 2024

मानस के कुछ भावुक क्षण - भाग- ८ (भरत की चित्रकूट यात्रा )

वर्णानामर्थसंघानां रसानां छन्दसामपि।
मंगलानां च कर्त्तारौ वन्दे वाणीविनायकौ॥

मैं पिछले छः ब्लॉग में राम चरित मानस के भावुक क्षणों को मानस की चौपाइयों से संकलित करने की छोटी चेष्टा कर रहा हूँ । मैं पिछले ब्लॉगों का लिंक यहाँ दे रहा हूँ तांकि आपने यदि नहीं पढ़ा तो निरंतरता के लिए पढ़ सकते है। कृपया लिंक पर क्लिक करें।

भरत गुरु वशिष्ठ, माताओ और अन्य अयोध्या वासियों के साथ गंगा तट श्रीवेंगपुर पहुंच गए हैं। शंका निवारण के बाद निषाद राज गुह उनकी सेवा में लगे हैं। अब आगे।

भरत , शत्रुघ्न और अन्य का प्रयाग पहुंचना और गंगा और जमुना के संगम पर प्रार्थना

कियउ निषादनाथु अगुआईं। मातु पालकीं सकल चलाईं॥
साथ बोलाइ भाइ लघु दीन्हा। बिप्रन्ह सहित गवनु गुर कीन्हा॥
आपु सुरसरिहि कीन्ह प्रनामू। सुमिरे लखन सहित सिय रामू॥
गवने भरत पयादेहिं पाए। कोतल संग जाहिं डोरिआए॥

निषाद राज के अगुवाई में सभी माताओं की पालकियां चली गयी , शत्रुघ्न को बुला उनके साथ कर दिया और ब्राह्मणों से साथ गुरु वशिष्ठ चल पड़े। भरत जी ने गंगा जी को प्रणाम किया और पैदल चल पड़े और न के पीछे पीछे रथ लिए घोड़े बिना सवार के ही चले जा रहे है । (सभी सुसेवक उन्हें रथारूढ़ होने को कहते है तब भारत जी कहते है राम भैया तो पैदल ही गए है तो मैं क्यों नहीं )



भरत तीसरे पहर कहँ कीन्ह प्रबेसु प्रयाग।
कहत राम सिय राम सिय उमगि उमगि अनुराग॥
झलका झलकत पायन्ह कैसें। पंकज कोस ओस कन जैसें॥
भरत पयादेहिं आए आजू। भयउ दुखित सुनि सकल समाजू॥

भरत जी श्रीवैनगपुर से चल कर सीताराम सीतराम कहते कहते उमंग अनुराग के साथ प्रयाग तीसरे पहर पहुँच गए । उनके चरणों में छाले पड़ गए और वे छाले कमल की कली पर पड़े ओस की बूंदों से चमकती हों। भरतजी पैदल ही चलकर आए हैं, यह समाचार सुनकर सकल समाज दुःखी हो गया।



चित्रकूट धाम (विकिपीडिया के सौजन्य से )

जानहुँ रामु कुटिल करि मोही। लोग कहउ गुर साहिब द्रोही॥
सीता राम चरन रति मोरें। अनुदिन बढ़उ अनुग्रह तोरें॥
तात भरत तुम्ह सब बिधि साधू। राम चरन अनुराग अगाधू॥
बादि गलानि करहु मन माहीं। तुम्ह सम रामहि कोउ प्रिय नाहीं॥

(त्रिवेणी संगम के श्वेत (गंगाजी ) और श्याम (यमुना जी ) में स्नान कर ) भरत जी त्रिवेणी जी की प्रार्थना करते है "श्री रामचंद्रजी भी भले ही मुझे कुटिल समझें और लोग मुझे गुरुद्रोही तथा स्वामी द्रोही भले ही कहें, पर श्री सीता-रामजी के चरणों में मेरा प्रेम आपकी कृपा से दिन-दिन बढ़ता ही रहे। हमे यही आशीष वरदान दीजिये।" त्रिवेणी जी कहते है "हे तात भरत! तुम सब प्रकार से साधु हो। श्री रामचंद्रजी के चरणों में तुम्हारा अथाह प्रेम है। तुम व्यर्थ ही मन में ग्लानि कर रहे हो। श्री रामचंद्रजी को तुम्हारे समान प्रिय कोई नहीं है। "

सुनत राम गुन ग्राम सुहाए। भरद्वाज मुनिबर पहिं आए॥
दंड प्रनामु करत मुनि देखे। मूरतिमंत भाग्य निज लेखे॥
धाइ उठाइ लाइ उर लीन्हे। दीन्हि असीस कृतारथ कीन्हे॥
आसनु दीन्ह नाइ सिरु बैठे। चहत सकुच गृहँ जनु भजि पैठे॥

भरत - भरद्वाज संवाद

ग्राम में श्री रामचन्द्रजी के सुंदर गुण समूहों को सुनते हुए वे मुनिवर भरद्वाजजी के पास आए। मुनि ने भरतजी को दण्डवत प्रणाम करते देखा और उन्हें अपना मूर्तिमान सौभाग्य समझा। मुनिश्रेष्ठ ने दौड़कर भरतजी को उठाकर हृदय से लगा लिया और आशीर्वाद देकर कृतार्थ किया। मुनि ने उन्हें आसन दिया। वे सिर नवाकर इस तरह बैठे मानो संकोच के घर में घुस जाना चाहते है। (भरद्वाज जी अनेक प्रकार से भरत जी को समझते है।)

तहँउँ तुम्हार अलप अपराधू। कहै सो अधम अयान असाधू॥
करतेहु राजु त तुम्हहि ना दोषू। रामहि होत सुनत संतोषू॥
सुनहु भरत रघुबर मन माहीं। पेम पात्रु तुम्ह सम कोउ नाहीं॥
लखन राम सीतहि अति प्रीती। निसि सब तुम्हहि सराहत बीती॥

भरद्वाज जी भरत को समझते है इसमें (राम वनगमन में ) भी तुम्हारा कोई तनिक सा भी अपराध कहे, तो वह अधम, अज्ञानी और असाधु है। यदि तुम राज करते तो भी तुम्हारा दोष न होता और यह सुनकर श्री रामचन्द्रजी को भी संतोष ही होता। हे भरत! सुनो, श्री रामचन्द्र के मन में तुम्हारे समान प्रेम पात्र दूसरा कोई नहीं है। इसी प्रकार लक्ष्मणजी, श्री रामजी और सीताजी तीनों की अत्यंत प्रेम भरी सराहना करते सारी रात बीती ।

इंद्र-बृहस्पति संवाद

देवतागण प्रभु का वनगमन ही चाहते थे तांकि दुराचारी रावण का संहार हो। इस कारण ही देवी सरस्वती ने मंथरा की बुद्धि भ्रष्ट की थी और राम को अंततः वनवास मिला था। भरत राम को कहीं वापस अयोध्या ले जाने में सफल न हो जाये यह चिंता इंद्र को भी थी।

देखि प्रभाउ सुरेसहि सोचू। जगु भल भलेहि पोच कहुँ पोचू॥
गुर सन कहेउ करिअ प्रभु सोई। रामहि भरतहि भेंट न होई॥

भरतजी के प्रेम के प्रभाव को देखकर देवराज इन्द्र को सोच हो गया कहीं इनके प्रेमवश हमारा बना-बनाया काम बिगड़ जाए (और राम लौट न जाएँ ) । संसार भले को लिए भला और बुरे को बुरा दिखता है । उसने गुरु बृहस्पतिजी से कहा- हे प्रभो! वही उपाय कीजिए जिससे श्री रामचंद्रजी और भरतजी की भेंट ही न हो।

रामु सँकोची प्रेम बस भरत सप्रेम पयोधि।
बनी बात बेगरन चहति करिअ जतनु छलु सोधि॥

राम संकोची है और भरत प्रेम के समुद्र , कहीं भरत की बात मान लौट न जाये। कुछ जतन (छल) कीजिये - कहीं बानी बात बिगड़ न जाये। (छल इंद्र का चरित्र रहा है इसलिए उन्हें ऐसी बात सूझी )।

बचन सुनत सुरगुरु मुसुकाने। सहसनयन बिनु लोचन जाने॥
मायापति सेवक सन माया। करइ त उलटि परइ सुरराया॥
मनहुँ न आनिअ अमरपति रघुबर भगत अकाजु।
अजसु लोक परलोक दुख दिन दिन सोक समाजु॥

इंद्र के वचन सुन गुरु मुस्कुराने लगते है, हजारो नयन युक्त इंद्र ज्ञान रूपी नेत्र रहित है। वे कहते है जो माया के स्वामी के सेवक के ऊपर कोई माया करता है तो वह उसके ऊपर ही आ पड़ती है। हे देवराज! रघुकुलश्रेष्ठ श्री रामचंद्रजी के भक्त का काम बिगाड़ने की बात मन में भी न लाइए। ऐसा करने से लोक में अपयश और परलोक में दुःख होगा और शोक दिनोंदिन बढ़ता ही चला जाएगा॥

सत्यसंध प्रभु सुर हितकारी। भरत राम आयस अनुसारी॥
स्वारथ बिबस बिकल तुम्ह होहू। भरत दोसु नहिं राउर मोहू॥
सुनि सुरबर सुरगुर बर बानी। भा प्रमोदु मन मिटी गलानी॥
बरषि प्रसून हरषि सुरराऊ। लगे सराहन भरत सुभाऊ॥

प्रभु श्री रामचंद्रजी सत्यप्रतिज्ञ और देवताओं का हित करने वाले हैं और भरतजी श्री रामजी की आज्ञा के अनुसार चलने वाले हैं। तुम व्यर्थ ही स्वार्थ के विशेष वश होकर व्याकुल हो रहे हो। इसमें भरतजी का कोई दोष नहीं, तुम्हारा ही मोह है। देवगुरु बृहस्पतिजी की श्रेष्ठ वाणी सुनकर इंद्र के मन में बड़ा आनंद हुआ और उनकी चिंता मिट गई। तब हर्षित होकर देवराज फूल बरसाकर भरतजी के स्वभाव की सराहना करने लगे।

भरतजी चित्रकूट के मार्ग में

भरत जी इसी प्रकार चित्रकूट के मार्ग में बढ़ते चले जा रहे थे ।

एहि बिधि भरत चले मग जाहीं। दसा देखि मुनि सिद्ध सिहाहीं॥
जबहि रामु कहि लेहिं उसासा। उमगत प्रेमु मनहुँ चहु पासा॥
द्रवहिं बचन सुनि कुलिस पषाना। पुरजन पेमु न जाइ बखाना॥
बीच बास करि जमुनहिं आए। निरखि नीरु लोचन जल छाए॥

इसी प्रकार भरतजी मार्ग में चले जा रहे हैं। उनकी (प्रेममयी) दशा देखकर मुनि और सिद्ध लोग भी रोमांचित हो जाते हैं। भरतजी जब भी 'राम' कहकर लंबी साँस लेते हैं, तभी मानो चारों ओर प्रेम उमड़ पड़ता है। उनके प्रेम पूर्ण वचनों को सुनकर वज्र और पत्थर भी पिघल जाते हैं। अयोध्यावासियों का प्रेम कहते नहीं बनता। बीच में निवास (मुकाम) करके भरतजी यमुनाजी के तट पर आए। यमुनाजी का जल देखकर उनके नेत्रों में जल भर आये कृष्ण वर्ण यमुना जल को देख प्रभु राम का स्मरण होने लगा।

रामसखाँ तेहि समय देखावा। सैल सिरोमनि सहज सुहावा॥
जासु समीप सरित पय तीरा। सीय समेत बसहिं दोउ बीरा॥
सकल सनेह सिथिल रघुबर कें। गए कोस दुइ दिनकर ढरकें॥
जलु थलु देखि बसे निसि बीतें। कीन्ह गवन रघुनाथ पिरीतें॥

रामसखा निषादराज ने उसी समय स्वाभाविक ही सुहावना पर्वतशिरोमणि कामदगिरि को दिखाया, जिसके निकट ही पयस्विनी नदी के तट पर सीताजी समेत दोनों भाई निवास करते हैं। सब लोग श्री रामचंद्रजी के प्रेम के मारे शिथिल होने के कारण सूर्यास्त होने तक दो ही कोस चल पाए और जल-स्थल को पास देखकर रात को वहीं रह गए। रात बीतने पर श्री रघुनाथजी को प्रेम करने वाले भरतजी आगे चले।

श्री सीताजी का स्वप्न, श्री रामजी को कोल-किरातों द्वारा भरतजी के आगमन की सूचना, रामजी का शोक, लक्ष्मणजी का क्रोध और राम जी का समझाना इत्यादि अगले भाग में। क्रमशः

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