हर यात्रा की एक कहानी होती है। और रेल यात्रा पर तो एक उपन्यास लिखा जा सकता है। मैंने रेल यात्रा पर कई ब्लॉग लिखे है और कुछ के लिंक दे रहा हूं।
- जनकपुर से जयनगर ट्रेन के छत पर
- वन्दे भारत एक्सप्रेस
- बचपन की रेल यात्रायें
- गोवा जाते जाते रह गया
- बचपन की एक यादगार यात्रा
मेरी हालिया रेल यात्रा रांची से नई दिल्ली की थी। हमें रेल यात्राएं पसंद है, बचपन से ही। मेरा एक पुराना ब्लॉग भी है क्लिक कर देखें। पहले मैंने गरीब रथ में बुकिंग की थी। एक दिन पहले अपने नातियों, पोते-पोतियों के पास पहुंचने के लिए। पर कई आशंकाएं मन में उठने लगी। इससे पहले मैने सिर्फ एक बार 2010 या 2009 में, गरीब रथ -( हटिया -भुवनेश्वर) गरीब रथ से यात्रा की थी। तब ट्रेन में बेडिंग लेने होड़ लगी थी, डब्बे में घुसते ही अटेंडेंट को बेडिंग के लिए बोल देना पड़ा था। बेडिंग के अलग से पैसे लगते थे सो अलग, बेडिंग सबको नहीं मिल पाते थे। यह थी मेरी पहली आशंका, दूसरी आशंका भोजन की थी। दिल्ली गरीब रथ का स्टापेज राजधानी के जैसा ही है और सिर्फ एक स्टेशन बरकाकाना में ही भोजन ले सकते है। मैंने दो तीन दिन सोचता रहा फिर टिकट कैंसिल कर अगले दिन राजधानी में ही टिकट करवा लिया।
विकीपीडिया से साभार
सिनियर सिटिजन कोटा से दोनों आमने-सामने का लोअर बर्थ हमें मिला था। जब उम्र कम थी तब उपर का बर्थ ही पसंद आता था। किसीसे कोई मतलब नहीं आप अपने बर्थ पर आते ही लेट जाओ। लोअर बर्थ पर आप तब तक नहीं ही लेट सकते हो जब तक आपके सहयात्री अपने बर्थ पर न चले जाए। हमसे आगे वाली बर्थों पर दो तीन परिवार जिनमें बच्चे भी थे हल्ला गुल्ला मचाए हुए थे। उनकी बातों से ही पता चला कि वे वैष्णो देवी जा रहे थे। पहले तीर्थ यात्रा में लोग धर्म कर्म की बातें किया करते थे, धर्म पर ही चर्चा होती थी या कहां ठहरे कब चले आदि बातों पर । अब लोग तीर्थ यात्रा में खूब मस्ती करते है । शायद कुछ लोगों को मेरी बात पसंद न आये , भई कोई हर्ज नहीं मस्ती करने में यदि वह मर्यादा में रहे। तीन चार बच्चे भी मजे ले रहे थे और मस्ती में उन्होंने रात में दही नीचे गिरा दिया और सुबह नाश्ते की ट्रे पलट दिया। यानि डब्बे की ऐसी तैसी कर दी। खैर बच्चों की तो हर ख़ता मुआफ। खेल, मजाक, चुहलबाज़ी और हल्ला गुल्ला से लेकर "मुझे मुर्गा नहीं पसंद, मुझे अंडा पसंद है। मैंने बतख नहीं खाई पर कबूतर खाया है इत्यादि बातें अगले सुबह मेरे कानों में पड़ रहे थे। खैर हिंदुओं में धर्म कर्म एक व्यक्तिगत बात है। आप जैसे चाहे पुजा पाठ तीर्थ यात्रा करें। दक्षिण में टिफिन जैसे इडली खाने से आपका व्रत नहीं टूटता, उत्तर भारत में नवरात्र में सेंधा नमक वाला खाना फलाहारी माना जाता है पर बिहार में फलाहार और उपवास रखना कठिन है।
शाम का नाश्ता और डिनर के बाद मैंने बिछावन लगाने की जल्दी दिखाई और उपर के बर्थ वाले यात्रियों को हमारा बर्थ छोड़ देने को मजबूर कर दिया। मैं फिर भी आईसक्रीम के इंतजार में जागता रहा। धीरे धीरे सभी यात्री अपने अपने बर्थ पर चले गए। बत्तियां बुझ गई। तीर्थ यात्री परिवारों से धीरे धीरे खुसफुसाहट में बात करने की आवाज आने लगी। बीच बीच में दबी आवाज के साथ ठी ठी हंसने की आवाज मुझे सोने नहीं दे रहे थे।
रात में इग्यारह बजे होंगे, सभी लोग लगभग सो चुके थे। गया स्टेशन पर सभी गाड़ियां रूकती है। हमारी राजधानी ट्रेन भी रुकी। पैसेंजर के चढ़ने उतरने के शोर से मेरी अभी अभी लगी नींद टूट गई। दो लोग चढ़े एक बुजुर्ग और एक जवान आदमी, और लोगों का चढ़ना तो याद नहीं पर इन दोनों का चढ़ना याद रह गया। वे अपना बर्थ ढ़ूंढ रहे थे। जवान लड़का मोबाइल का टार्च जलाकर सभी बर्थ का नंबर पढ़ने लगे- हमारे बर्थ पर दो बार आया । हमने उसे बर्थ खोजने में मदद करनी चाही और बर्थ कहाँ है बताने की कोशिश की पर जवान आदमी बुजुर्ग को चढ़ाने आया था और उतरने की हड़बड़ी में था और मेरी बातों को नज़र अंदाज़ कर चला गया । जब बुजुर्ग भी हमारे बर्थ का नंबर पढ़ने आया तब उसे मैंने बताया कि उसका नीचे का बर्थ है मेरे बर्थ के बगल वाला है यानी पार्टीशन के उस तरफ तब उसे बर्थ मिला। अफ़सोस उसके ही बर्थ पर आराम से सोऐ सज्जन, जिससे वह पहले बर्थ नंबर बता कर पूछ रहा था ने उसे मदद नहीं की थी लेकिन जब उसने अपना बर्थ न० पता कर लिया तब उन्होंने बर्थ खाली कर दिया। शायद बुजुर्ग की एसी कोच में अकेले यह पहली यात्रा थी। चादर मांगने उन्हें सहयात्रियों ने उपर रखे बेडिंग के पैकेट दिखा दिया , पर वह सारे चादर का पैकेट उतारने लगा और लोग के बताने पर कि सिर्फ एक पैकेट उतारो उसे समझ आया। वह अपना चादर बिछा ही रहा था की एक फ़ोन आ गया। वह तेज आवाज़ में बात करने लगे। लोग या तो आदतन तेज बोलते हैं या जब खुद ऊंचा सुनते हो तब। फोन उनके बेगम का ही होगा। सभी डिस्टर्ब हो रहे थे पर उनकी बातों से मैं अंदाज़ लगाने लगा था क्या बात हो रही होगी।
बेगम : सलाम वालेकुम
बुज़ुर्ग (little annoyed) : वालेकुम
बेगम (लगभग डांटते हुए): ट्रैन में चढ़ कर फ़ोन क्यों नहीं किये , कोई फिक्रमंद है, आपको क्यों याद होगा।
बज़ुर्ग : रूको ,सुनो, सुनो
बेगम (थोड़ा शांत हो कर): ठीक से बैठ गए ?
बुज़ुर्ग (complaing) : अभी अभी तो सीट मिलल है , रात का टाईम है , अँधेरा है , बत्ती बंद है और सभी लोग सो रहे है और तुमरा फ़ोन आ गया थोड़ा शबर तो कर लेते अभी बिछावन लगा ही रहे थे।
बेगम की कुछ और डांट पड़ी और नसीहत हिदायत भी - "सामान ठीक से रख लिए - अब्दुल (शायद बेटा होगा जहाँ बुज़ुर्ग जा रहे होगें) को फ़ोन किये की नहीं ?
बेगम फ़ोन रखने तो तैयार नहीं , बुज़ुर्ग भी क्या करें ? बिछावन बिछाए , बीबी को सफाई दे या बेटा को फ़ोन करे। आस पास के सभी लोगों को तो जगा ही चुके थे। अल्लाह हाफिज कह अभी फ़ोन रखे ही थे की शायद पोते का फ़ोन आ गया। पोता इतनी जोर से बोल रहा था की मुझे भी सुनाई से रहा था। शायद ५-६ साल का होगा। बुजुर्ग के आवाज में तुरंत एक मिठास आ जाती है।
पोता : कब आओगे ?
दादा :बाबु ट्रेन में है। बेटा तुम्हारे पास ही आ रहे है। यह दो डायलॉग कई बार चला।
दादा : तुम्हारी दादी है न, गया वाली दादी, वो तुम्हारे लिए मिठाई दिहिन है। और भी कई चीज़ दिए है। सुबह से पहुंचते तब देंगे हां । अब पापा को फोन दो। पोता पापा को नहीं देता फ़ोन और कब आ रहे हो और क्या ला रहे हो के प्रश्न कई बार पूछता है। मिठाई खुद मत खा जाना भी कहता है। कई बार खुदा हाफ़िज़ कहने पर भी पोता फोन नहीं रखता और दादा भी फोन नहीं काटना चाह रहे होंगे। बाकि पैसेंजर (मैं भी) फोन बंद होने का इंतजार कर रहे थे, कि कब शोर बंद हो और हम सोएं। बहुत मुश्किल से शायद ५-६ मिनट बाद दादा अपने पोते को अल्लाह हाफिज कह पाए। मैं उनकी बात सुन रहा था। और सोच रहा था मैं भी नाती - पोते के पास ही जा रहा हूँ। यह भी दादा पोता का यह रिश्ता सभी के लिए एक जैसा है - शायद । Grand parents are a child's first friend and grand children are any person's last friend (, probably) ! पता नहीं पश्चिमी देशों में कैसा होता होगा यह रिश्ता ?
अभी इस कहानी को विराम देता हूं। आशा है राम कथा पर मेरे ब्लॉग सिरिज के अगले ब्लॉग की प्रतीक्षा आप करेंगे।
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