मैनें कई ब्लोग और पोस्ट में विदेश और दर्शनीय स्थल के यात्रा वृतांत वर्णित किया है। पर आज मै बचपन की कुछ यात्राओं के बारे में बताना चाहता हूँ। आज समय में जो यात्रा उबाउ होती हम उस समय भी बहुत enjoy करते थे। बचपन (50 के दशक) में रेल यात्रा ही एकमात्र साधन हुआ करता था। कुछ private Bedford बसें चलती थी पर बहुत कम और भीड़ भरी। हमारी ज्यादातर यात्रा बेगुसराय (ननिहाल) और जमुई (दादी घर दोनो बिहार में स्थित) के बीच हुआ करती थी।
घर से हम लोग सामान सहित नाना के टमटम (तब के खाते पीते घरों में कार का पर्याय) से स्टेशन जाते और आगे की यात्रा छोटी लाईन की रेल यात्रा से शुरू होती। समान में होल्डआल यानि बिछावन या बेडिंग, पानी की सुराही ग्लास और टिन वाले बक्से होते थे जिन्हे माँ नौकरों की सहायता से पूरा दिन लगा कर पैक करती थी। टिन वाले बक्से प्लेटफार्म या ट्रेन में हमारी चलती फिरती कुर्सी का काम करती थी। नाना के यहाँ हमारे रसोईया धनुषधारी सिंह जिनसे हम मामा का रिश्ता रखते थे और वह नजदीक के रमदीरी गाँव के थे भी कभी कभी हमें गार्डियन की तरह जमुई तक छोड़ आते थे। हम उन्हे बाबा जी पुकारते और वह माँ को किशा (कृष्णा) कह कर पुकारते । उस समय गंगा पर कोई पुल बिहार में नहीं था। मै 4-5 साल का था और ज्यादातर माँ और पापा (उस समय हम उन्हें बाबूजी पुकारते थे) और बड़ी दीदी के साथ सफर किया करते थे। रेल गाड़ियाँ कम थी और जिस यात्रा में अब 2 घंटे लगती उसमें पूरा दिन ही लग जाता। बेगुसराय से सिमरिया घाट या साहेब पुर कमाल रेल से जाते थे और टमटम और पैदल स्टीमर तक जाना पड़ता। गंगा स्टीमर से पार करने के बाद फिर टमटम और पैदल मोकामा या मुंगेर स्टेशन तक जाना होता था। मोकामा घाट से मोकामा ज: तक ट्रेन भी चलती थी। शायद अभी भी चलती है। इन सभी दिक्कतों के अलावा गंगा के उत्तर रेल लाईन छोटी या मीटर गेज थी और गंगा के दूसरे तरफ बड़ी लाईन।
मोकामा से जमुई के लिए कभी कभी सीधी चलने वाली तूफान एक्प्रेस भी मिल जाती थी। साहब पुर कमाल हो कर जाने पर मुंगेर से जमालपुर तक ट्रेन से जाते और दूसरी ट्रेन से कियुल स्टेशन तक जाते। कियुल स्टेशन से जमुई के लिए दूसरी ट्रेन मिलती थी।
जमुई स्टेशन से जमुई घर तक हमारी यात्रा टमटम (तांगां ) जिसमें पर्दा लगा होता (माँ हमेशा साथ जो होती थी) से खत्म होती थी।
खाना साथ होता था पानी नल का ही पीते । स्टेशन के नलों में हमेशा पानी होता था। बड़ों के लिए 6-7 change के साथ की गई यात्रा जैसी भी होती हो मेरे और दीदी के लिए यह पिकनिक से कम नहीं होता। माँ की बताई एक कहानी याद आ रही है कि अक्सर जशोदिया धाय यानी मेरी nanny मेरे छोटे से समझदार होने तक साथ होती थी। एक बार वह मेरे साथ कियुल में गलत ट्रेन मे चढ़ गई । किसी तरह समय पर पता चल गया और जंजीर खींच कर हमें उतारा गया और तब ही माँ की जान में जान आई। कभी कभी सोचता हूँ यदि हम खो गए होते तो क्या होता। एक और ट्रेन यात्रा 1961 की है जब छोटे चाचा के गौने में जा रहे थे। भीड़ के चलते जमुई की टिकट खिड़की बन्द कर दी गई और बरौनी तक की यात्रा बिना टिकट करनी पड़ी थी। हमारे बड़े फुफेरे भाई स्व अमरेन्द्र मोहन सिन्हा (बेगुसराय में तब के प्रसिद्ध वकील) को यात्रा की जिम्मेवारी दी गई थी। पूरे समय हमें खीरा चना खिलाते आए किसी टी टी को लेश मात्र शंका न हो अत: हम निश्चिंत भाव से बाते करते रहे। बरौनी में ट्रेन बदलनी थी। प्लेटफार्म पर ट्रेन के हर गेट के सामने टीटी तैनात थे और हमारी चेकिंग हो गई। पहले "टिकट रखने वाले पीछे से आ रहे है" कह कर थोड़ी देर संभाला गया पर ट्रेन वहीं तक की थी और अंतत: खाली हो गई। फिर फाईन की जगह पर दिए जाने वाली घूस के लिए मोल भाव होने लगा । टीटी से प्रति व्यक्ति 10 रू की बात तय होती तब तक हमारे ग्रुप का एक व्यक्ति टिकट खिड़की से आगे का टिकट ले कर आ गया और हमारे बड़ों ने कह दिया कि हम इस ट्रेन से उतरे ही नहीं है। अगली ट्रेन भी उसी प्लेटफार्म आने वाली थी और टी टी को कहा गया हम उसी ट्रेन का इतंज़ार कर रहे है कृपया परेशान न करें। उसे चाय का पैसा भी नही मिला। मैनें अकेली ट्रेन यात्रा तब शुरू की जब मै चाचा के मित्र के साथ पटना (जहाँ पढ़ने गया था) से जमुई जा रहा था और ऊन्होनें टीटी के जोर देने पर मुझे टिकट लेने के लिए मोकामा जहाँ 5 मिनट का stoppage था उतार दिया और मुझे टिकट ले कर जल्दी में चलती ट्रेन में चढ़ना पड़ा। मै 13 साल का था और पापा को लगा इससे तो बेहतर हो मै खुद अकेले ही ट्रेन यात्रा करू।
कुछ और यात्राओं का वर्णन फिर कभी।
घर से हम लोग सामान सहित नाना के टमटम (तब के खाते पीते घरों में कार का पर्याय) से स्टेशन जाते और आगे की यात्रा छोटी लाईन की रेल यात्रा से शुरू होती। समान में होल्डआल यानि बिछावन या बेडिंग, पानी की सुराही ग्लास और टिन वाले बक्से होते थे जिन्हे माँ नौकरों की सहायता से पूरा दिन लगा कर पैक करती थी। टिन वाले बक्से प्लेटफार्म या ट्रेन में हमारी चलती फिरती कुर्सी का काम करती थी। नाना के यहाँ हमारे रसोईया धनुषधारी सिंह जिनसे हम मामा का रिश्ता रखते थे और वह नजदीक के रमदीरी गाँव के थे भी कभी कभी हमें गार्डियन की तरह जमुई तक छोड़ आते थे। हम उन्हे बाबा जी पुकारते और वह माँ को किशा (कृष्णा) कह कर पुकारते । उस समय गंगा पर कोई पुल बिहार में नहीं था। मै 4-5 साल का था और ज्यादातर माँ और पापा (उस समय हम उन्हें बाबूजी पुकारते थे) और बड़ी दीदी के साथ सफर किया करते थे। रेल गाड़ियाँ कम थी और जिस यात्रा में अब 2 घंटे लगती उसमें पूरा दिन ही लग जाता। बेगुसराय से सिमरिया घाट या साहेब पुर कमाल रेल से जाते थे और टमटम और पैदल स्टीमर तक जाना पड़ता। गंगा स्टीमर से पार करने के बाद फिर टमटम और पैदल मोकामा या मुंगेर स्टेशन तक जाना होता था। मोकामा घाट से मोकामा ज: तक ट्रेन भी चलती थी। शायद अभी भी चलती है। इन सभी दिक्कतों के अलावा गंगा के उत्तर रेल लाईन छोटी या मीटर गेज थी और गंगा के दूसरे तरफ बड़ी लाईन।
मोकामा से जमुई के लिए कभी कभी सीधी चलने वाली तूफान एक्प्रेस भी मिल जाती थी। साहब पुर कमाल हो कर जाने पर मुंगेर से जमालपुर तक ट्रेन से जाते और दूसरी ट्रेन से कियुल स्टेशन तक जाते। कियुल स्टेशन से जमुई के लिए दूसरी ट्रेन मिलती थी।
जमुई स्टेशन से जमुई घर तक हमारी यात्रा टमटम (तांगां ) जिसमें पर्दा लगा होता (माँ हमेशा साथ जो होती थी) से खत्म होती थी।
खाना साथ होता था पानी नल का ही पीते । स्टेशन के नलों में हमेशा पानी होता था। बड़ों के लिए 6-7 change के साथ की गई यात्रा जैसी भी होती हो मेरे और दीदी के लिए यह पिकनिक से कम नहीं होता। माँ की बताई एक कहानी याद आ रही है कि अक्सर जशोदिया धाय यानी मेरी nanny मेरे छोटे से समझदार होने तक साथ होती थी। एक बार वह मेरे साथ कियुल में गलत ट्रेन मे चढ़ गई । किसी तरह समय पर पता चल गया और जंजीर खींच कर हमें उतारा गया और तब ही माँ की जान में जान आई। कभी कभी सोचता हूँ यदि हम खो गए होते तो क्या होता। एक और ट्रेन यात्रा 1961 की है जब छोटे चाचा के गौने में जा रहे थे। भीड़ के चलते जमुई की टिकट खिड़की बन्द कर दी गई और बरौनी तक की यात्रा बिना टिकट करनी पड़ी थी। हमारे बड़े फुफेरे भाई स्व अमरेन्द्र मोहन सिन्हा (बेगुसराय में तब के प्रसिद्ध वकील) को यात्रा की जिम्मेवारी दी गई थी। पूरे समय हमें खीरा चना खिलाते आए किसी टी टी को लेश मात्र शंका न हो अत: हम निश्चिंत भाव से बाते करते रहे। बरौनी में ट्रेन बदलनी थी। प्लेटफार्म पर ट्रेन के हर गेट के सामने टीटी तैनात थे और हमारी चेकिंग हो गई। पहले "टिकट रखने वाले पीछे से आ रहे है" कह कर थोड़ी देर संभाला गया पर ट्रेन वहीं तक की थी और अंतत: खाली हो गई। फिर फाईन की जगह पर दिए जाने वाली घूस के लिए मोल भाव होने लगा । टीटी से प्रति व्यक्ति 10 रू की बात तय होती तब तक हमारे ग्रुप का एक व्यक्ति टिकट खिड़की से आगे का टिकट ले कर आ गया और हमारे बड़ों ने कह दिया कि हम इस ट्रेन से उतरे ही नहीं है। अगली ट्रेन भी उसी प्लेटफार्म आने वाली थी और टी टी को कहा गया हम उसी ट्रेन का इतंज़ार कर रहे है कृपया परेशान न करें। उसे चाय का पैसा भी नही मिला। मैनें अकेली ट्रेन यात्रा तब शुरू की जब मै चाचा के मित्र के साथ पटना (जहाँ पढ़ने गया था) से जमुई जा रहा था और ऊन्होनें टीटी के जोर देने पर मुझे टिकट लेने के लिए मोकामा जहाँ 5 मिनट का stoppage था उतार दिया और मुझे टिकट ले कर जल्दी में चलती ट्रेन में चढ़ना पड़ा। मै 13 साल का था और पापा को लगा इससे तो बेहतर हो मै खुद अकेले ही ट्रेन यात्रा करू।
कुछ और यात्राओं का वर्णन फिर कभी।
Hello Jijaji, enjoyed reading your post. I remember the steamer boat rides on the Ganges. When the bridge was built it was such a major tourist attraction for us, we would take relatives visiting us for a joy ride over the bridge :). U took me back to my childhood!
ReplyDeleteBahut hi achchha likha .50 ki dashak ki yatra ka anubhav btane ke liye shukriya
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