मेरे द्वारा देखी पहली फिल्म
मेरे दादीघर जमुई में देखी फ़िल्में
धार्मिक फिल्मों का जादू
धार्मिक फिल्मों में दिखाए चमत्कार बहुत पसन्द आते थे मुझें। "सती अनुसुईया" में त्रिदेव का बालक बन जाना बहुत चकित कर गया था और पहली बार भावुक होने की अनुभुति हुई । फिल्म 1956 की "देवता" में कई जादू वाले scene थे। ऐसी फिल्में गवई परिवेश में ज्यादा चलती होगी। जब नया हाल खुला तब इसमें छत भी थी और पंखे भी थे। और कई सामाजिक पारिवारिक फिल्में भी आई । हमें अक्सर मझलें फूफा अपने साथ फिल्म दिखाने ले जाते । पापा को medical practice से कम फुर्सत मिलती और वो कभी कभी ही जा पाते थे। इसकी भरपाई वह बाहर जाने पर करते थे। गंगा जमुना और ऐसी कई फिल्में उन्होनें पटना में देखी थी। कुछ फिल्मों के नाम जो हमनें उस काल में देखी थी और अभी भी याद है वो है "भाभी" जिसका गाना "चली चली रे पतगं" ज़ुबान पर चढ़ गया था। अब कहानी समझने लगा था पर अभिनेताओ को पहचान नहीं पाता था। प्यार इर्ष्या वैगरह की भी समझ कुछ कुछ होने लगी थी। "भाभी की चूड़ियाँ" में देवर का अपना आँख फोड़ लेना याद है। "घूंघट" की कहानी कुछ कुछ "कटी पतंग" जैसी थी। पर कई अच्छी फिल्म आई और चली गई। टमटम ( एक प्रकार का एक्का ) के दोनो तरफ फिल्म के पोस्टर लगाकर मोहल्ले मोहल्ले घूम घूम कर प्रचार किया जाता। फिल्म के कर्ण प्रिय गीत बजाए लुभाए जाते। कई फिल्म जैसे सारंगा, हरियाली और रास्ता, दिल अपना और प्रीत पराई आई और चली गई।
जब मैं टमटम में छुप कर फिल्म देखने गया
10-11 वर्ष का हो चला था और कुछ फिल्म घर वाले "बच्चों के लायक नहीं है" कह कर नहीं भी ले जाते। जब "जिस देश में गंगा बहती है " लगी यहीं बहाना बनाया गया। टमटम आ कर लग गया। और इसके पहले और लोग बैठते मै टमटम वाले की नज़र चुरा कर सीट ने नीचे घास रखने वाले जगह में घुस गया। जब सिनेमा हाल पहुचा तो सभी मुझे देख कर हतप्रभ रह गए। मै डर रहा था कि कहीं वापस न भेज दें पर वापस नहीं भेजा गया और मैने भी फिल्म देखी। वापसी में पूरे रास्ते चुप रहा।पर किसीने नहीं डाँटा। बाद में कई बार सोचा तो लगा पद्मिनी के नहाने के scene के चलते मना कर रहे होगें।
पटना में शांति दीदी का फिल्म का कोटा सिस्टम
मुझे अंतिम वर्ष के लिए पटना के एक स्कूल में पढ़ने भेजा गया था। वहाँ शान्ति दीदी और छोटू दीदी के strict अनुशासन में रहना पड़ा। महिनें में 1 फिल्म ही allowed थी। पटना में तब छह सिनेमा हॉल थे । एलफिस्टन, रीजेंट और रूपक घर के करीब थे और वीणा, प्लाजा और अशोक स्टेशन के पास । याद हैं जब "संगम" एलिफिन्स्टन में लगी थी तो पता चला यह 2 Interval वाली 4.5 घन्टे की फिल्म है। उसे देखने का मन बनाया था लेकिन सख्त मनाही हो गई। यह एक adult फिल्म जो थी। मै अपने एक मित्र के साथ जाने वाला था। खैर हमने "शहर और सपने" देखने का परमिशन मांगा और चल पड़े।फिल्म अशोक में लगी थी। रास्ते में पर्ल सिनेमा पड़ा। वहा "बेटी बेटे" लगी थी जिसका गाने बहुत कर्ण प्रिय और प्रसिद्ध हो गए थे। और हमने वो ही फिल्म देख ली। कॉलेज जाने से पहले मैने महीने में एक फिल्म के रूटीन में कई लाज़बाब फिल्म देखी जिसमें "हक़ीकत" "आखिरी खत" और "बम्बई रात के बाहों में" सामिल हैं। कॉलेज जाने पर छूटी हुई प्रसिद्द पुरानी फिल्म जैसे जाल, काला पानी, काला बाजार, CID, टैक्सी ड्राइवर माला सिन्हा की पहली फिल्म बादशाह (प्रसिद्ध गीत "आ नीले गगन तले"), नागिन, बाजी, अमरदीप, पेईंग गेस्ट, Mr and Mrs 55, 20 साल बाद, प्यासा, साहब बीबी और गुलाम वैगेरह देख डाली।
एक टिकट में दो खेल
अक्सर रूपक सिनेमा में रविवार को 1 टिकट में 2 फिल्म लगती थी। पुरानी फिल्म देखने के लिए यह अच्छा अवसर होता। मेरे महबूब देखने के लिए पटना सिटी तक हो आया था। कॉलेज में देखी गई फिल्मों के बारे में फिर कभी।
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