सावन में शिव के धाम सीरीज का यह अंतिम क़िस्त है। इस भाग में दो शिव धामों का वर्णन करेंगे। अशोक धाम - लखीसराय , हरिहर महादेव सोनपुर !
कुछ वर्ष बीत गए समस्तीपुर से लौटते समय मैंने ड्राइवर से पूछा कि अशोक धाम कहाँ है। हम उस मंदिर तक जाने वाली सड़क के बहुत पास थे। ड्राइवर ने चुटकी लेते हुए कहा, "वहाँ जाना चाहेंगे ?" और मैं उसके दिए प्रलोभन का विरोध नहीं कर सका और तुरंत मान गया।मनो शिव जी ने हमें दर्शन के लिए बुलाया था। हम उसी समय अशोक धाम गए थे, जिसे अब श्री इंद्रदमनेश्वर महादेव कहा जाता है।
लगभग 52 साल पहले, 1973 में, अशोक नाम का एक 9-10 साल का बच्चा खेत में खेल रहा था, तभी उसे लगभग 20 फुट ऊँचे टीले से पत्थर जैसी कोई चीज़ झाँकती हुई दिखाई दी। जब टीले को खोदा गया, तो एक विशाल प्राचीन शिवलिंग मिला। कई अन्य प्राचीन कलाकृतियाँ और मूर्तियाँ भी मिलीं। उस समय अखबारों में कई लेख लिखे गए थे जिनमें दावा किया गया था कि यह स्थान वास्तव में हरिहर क्षेत्र है (जिसके बारे में भी मै इसी ब्लॉग में लिखनेवाला हूँ ) क्योंकि पास से हरोहर नदी बहती है।
अशोक धाम लखीसराय
अब यह जगह एक भव्य मंदिर परिसर के रूप में विकसित हो चुकी है, जिसमें एक सुंदर धर्मशाला आदि भी है। यह जगह लखीसराय से लगभग 5-7 किमी दूर है। वहाँ ली गई कुछ तस्वीरें यहाँ साझा की गई हैं। दर्शन करने लायक जगह है यह!
अशोक धाम लखीसराय , एक चित्र विकिपीडिया से ली गई है
हरिहर महादेव
हम हाजीपर में था एक पारिवारिक कार्यक्रम में गए थे । हमारे पास एक दिन था और हमने वैशाली घूम लेने का फैसला लिया । एक और फैसला लिया गया की हम सुबह सिर्फ चाय पी कर चलेंगे .. सबसे पहले प्रसिद्द हरिहरनाथ मंदिर , वह पूजा करेंगे नाश्ता करेंगे और फिर निकल चलेंगे वैशाली के भग्नावशेष देखने ।
हम लोग चौरसिया चौक के पास कन्हेरी घाट रोड की तरफ से मुड़ गए और गूगल मैप के सहारे चल पड़े । रास्ते में एक संकरा पुल पड़ा जो गंडक नदी के उपर था । इतना संकरा की दो गाड़िया मुश्किल से ही निकले। दोनों तरफ साइकिल और मोटर साइकिल के लिए भी पुल बने थे पर सभी साइकिल वाले बीच से ही चलते । जैसे ही पुल पार हुआ वो चौक आ गया जहाँ गज ग्राह की खूबसरत सी प्रतिमा लगी थी । हमने गाड़ी रुकवाई और एक दो फोटो खींच लिए ।
हरिहरनाथ मन्दिर, गन्डक गन्गा सन्गम गज ग्राह मुर्ति चौराहा , सोनपुर
वहां से हरिहरनाथ मंदिर नज़दीक ही था । हम लोग गंडक के किनारे किनारे बढ़े ही जा रहे की पता चला मंदिर था गेट और रास्ता पीछे ही रह गया । हमे थोड़ा पीछे जाना पड़ा । छोटा सा बाजार था । मिठाईयों की दुकान , पूजा से सामानों की दूकान , खिलोने वैगेरह की दूकान थी , एक मिनी देवघर।
हम लोग एक दूकान पर रुक कर पूजा की डलिया, फूल, नारियल, सिंदूर, धुप बत्ती लेकर मंदिर की और गए। यहाँ तरह तरह के पंडा मिलते है जो सालाना पूजा के नाम पर रकम मांगते है। हम कुछ दे दिला कर मंदिर से बाहर आ गए और प्रांगण में कुछ भी फोटोग्राफी की ।
हरिहर नाथ का इतिहास
हरिहर क्षेत्र के महत्व को लेकर ग्रंथों में भगवान विष्णु व भगवान शिव के जल क्रीड़ा का वर्णन किया गया है। इस ग्रंथ के अनुसार महर्षि गौतम के आश्रम में वाणासुर अपने कुल गुरु शुक्राचार्य, भक्त शिरोमणि प्रह्लाद एवं दैत्य राज वृषपर्वा के साथ पहुंचे और सामान्य अतिथि के रूप में रहने लगे।
वृषपर्वा भगवान शंकर के पुजारी थे। एक दिन प्रात: काल में वृषपर्वा भगवान शंकर की पूजा कर रहे थे। इसी बीच गौतम मुनि के प्रिय शिष्य शंकरात्मा वृषपर्वा और भगवान शंकर की मूर्ति के बीच खड़े हो गये। और इससे वृषपर्वा क्रोधित हो गये। और उन्होंने तलवार से वार कर शंकरात्मा का सिर धर से अलग कर दिया। जब महर्षि गौतम को इसकी सूचना मिली वे अपने आपको संभाल नहीं सके और योग बल से अपना शरीर त्याग दिये। अतिथियों ने भी इस घटना को एक कलंक समझा। इस घटना से दुखित शुक्राचार्य ने भी अपना शरीर त्याग दिया। देखते-देखते महर्षि गौतम के आश्रम में शिव भक्तों के शव की ढे़र लग गयी। गौतम पत्नी अहिल्या विलाप कर भगवान शिव को पुकारने लगी। अहिल्या की पुकार पर भगवान शिव आश्रम में पहुंच गये। भगवान शंकर ने अपनी कृपा से महर्षि गौतम व अन्य सभी लोगों को जीवित कर दिया। सभी लोग भगवान शिव की अराधना करने लगे। इसी बीच आश्रम में मौजूद भक्त प्रह्लाद भगवान विष्णु की अराधना किये। भक्त की अराधना सुन भगवान विष्णु भी आश्रम में पहुंच गये। भगवान विष्णु और शिव को आश्रम में देख अहिल्या ने उन्हे अतिथ्य को स्वीकार कर प्रसाद ग्रहण करने की बात कही। यह कहकर अहिल्या प्रभु के लिए भोजन बनाने चलीं गयीं। भोजन में विलम्ब देख भगवान शिव व भगवान विष्णु सरयू नदी में स्नान करने गये सरयू नदी में जल क्रीड़ा करते हुए भगवान शिव और भगवान विष्णु नारायणी नदी(गंडक) में पहुंच गये। प्रभु की इस लीला के मनोहर दृश्य को देख ब्रह्मा भी वहां पहुंच गये और देखते-देखते अन्य देवता भी नारायणी नदी के तट पर पहुंचे। जल क्रीड़ा के दौरान ही भगवान शिव ने कहा कि भगवान विष्णु मुझे पार्वती से भी प्रिय हैं। यह सुनकर माता पार्वती क्रोधित होकर वहां पहुंची। बाद में भगवान शिव ने अपनी बातों से माता के क्रोध को शांत किया। ग्रंथ के अनुसार यही कारण है कि नारायणी नदी के तट पर भगवान विष्णु व शिव के साथ-साथ माता पार्वती भी स्थापित है जिनकी पूजा अर्चना वहां की जाती है। इसी कारण सोनपुर का पूरा इलाका हरिहर क्षेत्र माना जाता है। चूंकि यहां भगवान विष्णु व शिव ने जलक्रीड़ा किया इसलिए यह क्षेत्र हरिहर क्षेत्र (हरि= श्री विष्णु, हर= शिव जी) के नाम से प्रसिद्ध है।
इसीलिए यह इलाका शैव व वैष्णव संप्रदाय के लोगों के लिए काफी महत्वपूर्ण है। इसी हरिहर क्षेत्र में कार्तिक पूर्णिमा से एक माह का मेला लगता है। पहले तो यह पशु मेला के रूप में विश्वविख्यात था। लेकिन अब इसे और आकर्षक बनाया गया है।
गज ग्राह की कहानी तो आपको पता ही होगा । जब गज की पुकार पर हरि दौड़े आये ग्राह यानि मगरमच्छ से गज की जान बचाई । पुराणों के अनुसार, श्री विष्णु के दो भक्त जय और विजय शापित होकर हाथी ( गज ) व मगरमच्छ ( ग्राह ) के रूप में धरती पर उत्पन्न हुए थे। पौराणिक कथाओं के अनुसार, गंडक नदी में एक दिन कोनहारा के तट पर जब गज पानी पीने आया तो ग्राह ने उसे पकड़ लिया। फिर गज ग्राह से छुटकारा पाने के लिए कई वर्षों तक लड़ता रहा। तब गज ने बड़े ही मार्मिक भाव से हरि यानी विष्णु को याद किया। जिन्होंने प्रकट हो कर मगरमच्छ से गज को बचाया ।
Monday, August 4, 2025
हमारे पास के 2 और शिवमंदिर सावन में शिवधाम भाग 7
Tuesday, July 29, 2025
इटखोरी सावन में शिवधाम भाग 6
सावन में शिव के धाम पर एक सिरिज लिख रहा हूं। कई और शिव मंदिर के विषय में लिखने का मेरी इच्छा है। आज मैं इटखोरी के सहस्त्र शिवलिंग के विषय में लिख रहा हूं।
इटखोरी रांची से १५० किलोमीटर दूर इटखोरी चतरा जिले का एक ऐतिहासिक पर्यटन स्थल होने के साथ-साथ प्रसिद्ध बौद्ध केंद्र भी है, जो अपने प्राचीन मंदिरों और पुरातात्विक स्थलों के लिए जाना जाता है। 200 ईसा पूर्व और 9वीं शताब्दी के बीच के बुद्ध, जैन और सनातन धर्म से जुड़े विभिन्न अवशेष यहां पाए गए हैं। पवित्र महाने एवं बक्सा नदी के संगम पर अवस्थित हैं इटखोरी का भद्रकाली मंदिर । मंदिर के पास महाने नदी एक यू शेप में है । कहा जाता हैं की कपिलवस्तु के राजकुमार सिद्धार्थ घर संसार त्याग कर सबसे पहले यही आये थे । उनकी छोटी माँ (मौसी) उन्हें मानाने यहीं आयी पर सिद्धार्थ वापस जाने को तैय्यार नहीं हुए तब उन्होंने कहा इत खोई यानि "I lost him here "
हम कोरोना काल खत्म होने पर था तब गए थे वहां। इटखोरी मुख्यतः भद्रकाली मंदिर के लिए प्रसिद्ध है पर यहां सहस्र शिवलिंग और सहस्र बुद्ध के लिए भी प्रसिद्ध है।
सहस्र शिव लिंग और सहस्र बोधिसत्व (स्तूप)
सहस्त्र शिवलिंग मैंने पहली बार देखा था। मुख्य भद्रकाली मंदिर की पूजा के बाद हम शनि मंदिर, पंच मुखी हनुमान मंदिर और शिव मंदिर में पूजा करने गए । शिव लिंग करीब ४ फ़ीट ऊँचा है और उस पर १००८ शिव लिंग उकेरे हुए हैं । राँची वापस जाते समय पद्मा के पास एक बहुत अच्छी चाय पी थी और लौटते समय पद्मा गेट (रामगढ राजा के महल का गेट जो अब पुलिस ट्रेनिंग केन्द्र है) के पास चाय पी और जब पता चला बहुत अच्छा कम चीनी वाला पेड़ा मिलता हैं तो खरीद भी लाया ।
इटखोरी में श्रावण मेला, जिसे भदुली मेला भी कहा जाता है, एक धार्मिक आयोजन है जो मां भद्रकाली मंदिर में आयोजित होता है। यह मेला श्रावण (सावन) के महीने में लगता है, जो हिंदू कैलेंडर का एक पवित्र महीना है, और भगवान शिव और देवी काली को समर्पित है।
Monday, July 28, 2025
जमुई कोर्ट मंदिर सावन में शिव के धाम भाग -5
सावन में शिव के धाम पर एक सिरिज लिख रहा हूं। कई और शिव मंदिर के विषय में लिखने का मेरी इच्छा है। पर मैं उस शिव मंदिर को कैसे भूल सकता हूं जिससे मेरे बचपन की अनेकों यादें जुड़ी हैं। जमुई कोर्ट में स्थित है 100 वर्ष से भी प्राचीन मंदिर। हमारे पुश्तैनी मकान से कुछ ही दूर स्थित जमुई सिविल कोर्ट परिसर में तब कोई बाउंड्री नहीं थी। हम बच्चों का खेल का मैदान । जमुई स्टेशन से घर आते वक्त हमारा टमटम इसी परिसर हो कर गुजरता था। हम जमुई के हाई स्कूल भी इसी परिसर होकर जाते छठ में हम लोग कियूल नदी घाट भी इधर हो कर ही जाते। हमारा रास्ता तो बंद हो गया है, और अन्य रास्तों पर लगे हमेशा के अवरोध कोई नहीं हटाता।
इस शिव मंदिर के गर्भ गृह में शिवलिंग स्थापित है। कुछ मुर्तियां ताखों पर स्थापित है। एक पुराना हनुमान मंदिर भी है जहां ध्वजा भी स्थापित है। बरामदा चारों तरफ है और पहले उत्तर के तरफ एक चबूतरा बना था। अब कुछ और मुर्तियां भी स्थापित की गई है।
इस परिसर में ही हम लट्टू, गुल्ली डंडा, गोली (कंचे) खेलते। इस परिसर में एक पेड़ भी था। जिस पर अंधेरा होने पर भूत होने का वहम हम बच्चों को था और शाम होने पर हम दौड़ कर जाते हैं। और तो और कैंची हो कर सायकल चलाना भी मैंने यही सीखी। इसी परिसर में हैं एक बहुत प्राचीन शिव मन्दिर। बचपन में इस मंदिर में मोहल्ले के भजन कीर्तन होते रहते थे और मैं हमेशा झाल बजाने चला जाता था। परिवार के हर तरह के पुजा पाठ, विवाह के बाद गोर लगाई इत्यादि इसी मंदिर में होती आई है और अब भी होती है। मंदिर के बाउंड्री के पार मां लोग बरगद के नीचे वर पूजा के लिए जाती थीं। किसी बात पर गुस्सा होने पर और कभी कभी सुई के डर से छिपने की जगह भी थी यह। अब कई नए मंदिर पास में ही बन गया है पर इस मंदिर की बात अलग है। अब इस मंदिर की बाउंड्री गेट बन गई है और एक देवी मंदिर और यज्ञशाला भी बन गया है । इस मंदिर के फर्श पर पहले जहांगीर लिखा होता था। हमारे ननिहाल कमला, बेगुसराय के कोई जहांगीर बाबा थे। शायद पुलिस में थे और उन्होंने ही इस मंदिर को बनवाया था। अब उनका नाम टाईल्स के नीचे दब गया है।
मैं अतीत की सुखद स्मृति में खो गया हूं। आइए हम वर्तमान में वापस चले। कुछ अन्य मंदिरों के बारे में कुछ और ब्लॉग ले कर फिर हाज़िर होऊंगा।
Thursday, July 24, 2025
महादेव सिमरिया सावन में शिव के धाम भाग -4
सावन के महीने में शिव दर्शन के लिए यात्राओं और आस पड़ोस की मंदिरों पर समर्पित है मेरा यह ब्लॉग सीरीज ।
अब मैं उन शिव धामों के बारे में लिख रहा हूं जो हमारे नजदीक है और मैं वहां जा चुका हूं। इस ब्लॉग मे महादेव सिमरिया
महादेव सिमरिया मेरे पुश्तैनी शहर जमुई (बिहार) से 12 km दूर है यह मंदिर। इस मन्दिर का इतिहास भी काफी रोचक है।
जमुई। सिकन्दरा-जमुई मुख्यमार्ग पर अवस्थित बाबा धनेश्वर नाथ मंदिर आज भी लोगों के बीच आस्था का केंद्र बना हुआ है। जहा लोग सच्चे मन से जो भी कामना करते हैं उसकी कामना की पूर्ति बाबा धनेश्वरनाथ की कृपा से अवश्य पूरी हो जाती है। बाबा धनेश्वर नाथ शिव मंदिर स्वयंभू शिवलिंग है। इसे बाबा वैद्यनाथ के उपलिंग के रूप में जाना जाता है। प्राचीन मान्यता के अनुसार यह शिवमंदिर प्राचीन काल से है। जहां बिहार ही नहीं वरन दूसरे राच्य जैसे झारखंड, पश्चिम बंगाल आदि से श्रद्धालु नर-नारी पहुंचते हैं। पूरे वर्ष इस मंदिर में पूजन दर्शन, उपनयन, मुंडन आदि अनुष्ठान करने के लिए श्रद्धालुओं का ताता लगा रहता है।
मंदिर परिसर, और परिसर स्थित एक भग्न मुर्ती
मंदिर की सरंचना एवं स्थापना
इस मंदिर के चारों और शिवगंगा बनी हुई है। मंदिर का मुख्य द्वार पूरब दिशा की ओर है। मंदिर परिसर में सात मंदिर है जिसमें भगवान शंकर मंदिर के गर्भगृह में अवस्थित शिवलिंग की स्थापना को लेकर मान्यता है कि पुरातन समय में धनवे गाव निवासी धनेश्वर नाम कुम्हार जाति का व्यक्ति मिट्टी का बर्तन बनाने हेतु प्रत्येक दिन की भाति मिट्टी लाया करता था। एक दिन मिट्टी लाने के क्रम में उसके कुदाल से एक पत्थर टकराया। उस पर कुदाल का निशान पड़ गया। उसने उस पत्थर को निकालकर बाहर कर दिया। अगले दिन पुन: मिट्टी लेने के क्रम में वह पत्थर उसी स्थान पर मिला। बार-बार पत्थर निकलने से तंग आकर धनेश्वर ने उसे दक्षिण दिशा में कुछ दूर जाकर गडढे कर उसे मिट्टी से ढक दिया। उसी दिन मानें तो जैसे रात्रि महाशिवरात्रि सा लग रहा था। कालांतर में वहां एक मंदिर स्थापित किया गया
महादेव सिमरिया में श्रावणी मेला
गिद्धौर के महाराजा ने की मंदिर की प्राण-प्रतिष्ठा
ऐसी मान्यता है कि १६ वीं शताब्दी में गिद्धौर (यानि चंदेल वंश) के तत्कालीन महाराजा पूरनमल सिंह हर दिन देवघर जाकर शिवलिंग पर जल चढ़ाने के उपरांत ही भोजन किया करते थे। एक बार जब वे सिकन्दरा, लछुआड़ में थे तब रास्ते में पड़ने वाली किउल नदी में बाढ़ आने के बाद वे कई दिन नदी पार कर देवघर नहीं जा पाए। रात्रि में स्वप्न आया कि मैं तुम्हारे राज्य में प्रकट होउंगा। सिकन्दरा से देवघर जाने के दौरान सुबह सबेरे महादेव सिमरिया के शिवडीह में लोगों की भीड़ देखकर राजा वहां पहुंचे तो स्वत: प्रकट शिवलिंग पाया। जैसा उन्हें देवघर के भगवान शंकर ने स्वप्न में बताया था। राजा ने वहां एक भव्य मंदिर बनाया और स्वप्न के अनुसार देवघर में पूजा का जो फल प्राप्त होता है वहीं महादेव सिमरिया की पूजा से प्राप्त है। चुकि कुंभकार की मिट्टी खुदाई के दौरान यह शिवलिंग प्रकट हुआ था। इस कारण महादेव सिमरिया में ब्राह्माणों की जगह आज भी कुंभकार ही पंडित का कार्य करते हैं।
हम 2018 में वहां गए थे और पूजा अर्चना की थी।
महादेव सिमरिया शिव मंदिर जमुई -सिकंदरा मार्ग पर मुख्य सड़क से कुछ 300 मीटर पर स्थित है और जमुई और सिकंदरा दोनों से करीब है। जमुई हावड़ा - पटना रेल मार्ग का एक स्टेशन है और सिकंदरा का भी करीबी रेल स्टेशन है। सिकंदरा नवादा या लक्खीसराय से भी सड़क मार्ग से पहुंचा जा सकता है।
Tuesday, July 22, 2025
वैद्यनाथ धाम सावन में शिव के धाम भाग -3
सावन के महीने में शिव दर्शन के लिए यात्राओं और आस पड़ोस की मंदिरों पर समर्पित है मेरा यह ब्लॉग सीरीज ।
अब मैं उन शिव धामों के बारे में लिख रहा हूं जो हमारे नजदीक है और मैं वहां जा चुका हूं।
बैद्यनाथ धाम, देवघर आज मैं देवघर,झारखण्ड स्थित बैद्यनाथ धाम की बात करूंगा मेरे Home Town जमुई से मात्र 100 KM पर स्थित है यह देव स्थान। हम बचपन से जाते रहे है। हमारे परिवार के सारे शुभ कार्य मुन्डन वैगेरह यही होते रहे है। जाने का सबसे सुलभ तरीका है रेल से जाना। पटना हो कर हावड़ा से दिल्ली रेल रथ पर स्थित जसीडिह ज० से देवघर 8 KM की दूरी पर है और जसिडीह से लोकल ट्रेन या औटो से देवघर जाया जा सकता है। हम कई बार ट्रेन, कार या बस से देवघर जा चुके है पर कांवर ले कर सुल्तानगंज से जल ले कर पैदल - नंगे पांव बाबा दर्शन को जाना रोचक और रोमांचक दोनो था ।
हमारी कांवर यात्रा के कुछ दृश्य
मैंने पांच बार प्रयास किया है। मै एक ग्रुप के साथ 4 बार 100-105 KM कि०मी० यह यात्रा पूरी कर चुका हूँ सावन के महिने में प्ररम्भ में या अंत में। पहली बार मै अकेले ही निकल पड़ा था लेकिन पक्की सड़क और धूप को avoid करना चाहिए यह ज्ञान न होने के कारण और गैर जरूरी जोश के कारण 20 कि०मी० की यात्रा के बाद ही पांव में आए फफोलो ने मेरी हिम्मत तोड़ दी और साथ साथ चलने वाले कांवरियों के लाख हिम्मत दिलाने पर भी आगे नहीं जा सका और रास्ते में पड़ने वाले एक शिवालय में ही बाबा को जल अर्पण कर लौट आया। बिन गुरू होत न ज्ञान रे मनवां। कावंर यात्रा में मेरे गुरू बने मेरे छोटे बहनोई सन्नू जी और उनके छोटे भाई। उन्हें परिवार सहित कांवर में जाने का 14-15 साल का अनुभव था और मैने बहुत कुछ कांवर के बारे में उनसे हीं सीखा। जब मैं बच्चा था तो उमर गर (senior citizen) बबा जी मामू को कांवर पर हर वर्ष जाते देखता था। गांव से ही कांवर ले कर चलते सिमरिया घाट पर ही जल भर कर वे नंगे पांव चल पड़ते थे यानि 50 सांठ मील की अतिरिक्त यात्रा। पहले सरकार के तरफ से कुछ प्रंबध नहीं होता और यात्री भी कम होते थे अतः राशन साथ ही ले चलना पड़ता होगा। जगह जगह रूक कर खाना पकाना खाना नहाना। कंकड़ पत्थर पर चलना खास कर सुईयां पहाड़ पर, या लुट जाने का खतरा झेलते यात्रा करनी पड़ती थी। अब सावन में रोड के किनारे मिट्टी डाला जाता है और, जगह जगह खाने पीने की दुकानें भी सज जाती है। कई संगठनों द्वारा सहायता शिविर, प्रथम उपचार केन्द्र, मुफ्त चाय, नाश्ता, पैर सेकने को गरम पानी और मेले सा माहौल से ये यात्रा काफी सुगम हो गई है। जगह जगह धर्मशालाएं है। लेकिन अब भी यदि अषाढ़, सावन, भादों को छोड़ दिया जाय तो अन्य दिनों में ये यात्रा बहुत सुगम नहीं हैं। मैने गजियाबाद के प्रवास के दौरान कावड़ यात्रियों को देखा है,जो ज्यादा लम्बी यत्राएं करते हैं पर जो बात देवघर कांवर यात्रा को कठिन बनाती है वह है नंगे पांव चलने का हठयोग। मै इस यात्रा का रूट नीचे दे रहा हूँ।
कांवर यात्रा का रूट
बाबा मंदिर के कुछ दृश्य:
बासुकीनाथ और बाबा बैद्यनाथ मंदिर
बैद्यनाथ के दर्शन को आने वाले भक्त बासुकीनाथ जाना नहीं भूलते। एक कहावत प्रचलित है बैद्यनाथ यदि सिविल कोर्ट है तो बासुकीनाथ फौजदारी कोर्ट है जहां न्याय जल्दी मिलता है। लोग यहां का प्रसिद्ध पेड़ा (बाबा मंदिर के पास) या बासुकीनाथ के रास्ते में पड़ने वाले घोरमारा गांव से भक्त खरीद कर प्रसाद के रूप में घर ले जाते हैं।
इस सीरीज के अगले ब्लॉग में कुछ और मंदिरों के बारे में।
अमरनाथ सावन में शिव के धाम भाग -2
सावन के महीने में शिव दर्शन के लिए यात्राओं और आस पड़ोस की मंदिरों पर समर्पित है मेरा यह ब्लॉग सीरीज । सबसे पहले उन यात्राओं के पर मैं लिख रहा हूँ जो मैंने नहीं किया या पूरा नहीं कर पाया और अपने उम्र के इस पड़ाव में कर न पाऊँ पर मैंने जो भी जानकारी उपलब्ध की अपने उन जानने वालों से जिन्होंने यात्राएं की या फिर अन्य साधनों से जो मैंने इस आशा से कभी एकत्रित की की कभी वहां जा पाऊं। ये दूसरा भाग अमरनाथ जी की यात्रा पर लिख रहा हूं।
विकी मिडिया और हिन्दुस्तान से साभार
अमरनाथ की कथा
अमरनाथ गुफा जम्मू और कश्मीर में स्थित एक पवित्र गुफा है, जो भगवान शिव को समर्पित है।
अमरनाथ जी की कथा यह है: देवी पार्वती के मन को एक प्रश्न उद्वेलित कर रहा था कि शिव तो अजर अमर है पर मुझे हर जन्म के बाद नए स्वरूप में जन्म ले कर शिव को प्राप्त करने के लिए कठोर तपस्या करनी पड़ती है। एक बार देवी पार्वती ने देवों के देव महादेव से यह पूछ ही लिया।
महादेव ने पहले तो देवी पार्वती को टालने की कोशिश की। पर त्रिया हठ के आगे किसकी चली है ? उन्हें यह गूढ़ रहस्य उन्हें बताने ही पडे़। शिव महापुराण में इस कथा का वर्णन है जिसे भक्तजन अमरत्व की कथा के रूप में जानते हैं।
भगवान शिव एक ऐसा स्थान ढूंढ़ने लगे जहां यह कथा देवी पार्वती के सिवा कोई और न सुने।
पौराणिक मान्यताओं के अनुसार, अमरनाथ की गुफा ही वह स्थान है जहां भगवान शिव ने पार्वती को अमर होने के गुप्त रहस्य बतलाए थे, उस दौरान वहां उन दो दिव्य ज्योतियों के अलावा तीसरा कोई प्राणी नहीं था। न महादेव का नंदी और न हीं उनका नाग, न सिर पर चंद्रमा और न ही गणपति, कार्तिकेय….!
महादेव ने अपने वाहन नंदी को सबसे पहले छोड़ा, नंदी जिस जगह पर छूटा, उसे ही बैलगांव या पहलगाम कहा जाने लगा। अमरनाथ यात्रा यहीं से शुरू होती है। यहां से थोडा़ आगे चलने पर शिवजी ने अपनी जटाओं से चंद्रमा को अलग कर दिया,
वो स्थान चंदनवाड़ी कहलाती है। इसके बाद गंगा जी और पंच तत्वों को पंचतरणी में और कंठाभूषण सर्पों को शेषनाग नामक स्थानों पर छोड़ दिया।
अमरनाथ यात्रा में अगला पडा़व है गणेश टॉप, मान्यता है कि इसी स्थान पर महादेव ने पुत्र गणेश को छोड़ा। इस जगह को महागुणा का पर्वत भी कहते हैं। इसके बाद महादेव ने जहां कीट पतंगों को त्यागा, वह जगह पिस्सू घाटी है।
इसके पश्चात् पार्वती संग एक गुफा में महादेव ने प्रवेश किया। तांकि कोई तीसरा प्राणी व्यक्ति, पशु या पक्षी गुफा के अंदर घुस कथा को न सुन सके इसलिए उन्होंने चारों ओर अग्नि प्रज्जवलित कर दी। फिर महादेव ने जीवन के गूढ़ रहस्य की कथा सुनाई।
अमरनाथ यात्रा का पंजीकरण
चारधाम की तरह अमरनाथ यात्रा करने के लिए भी पहले पंजीकरण करना जरूरी है। ऑनलाइन और ऑफलाइन दोनों तरीकों से पंजीकरण किया जा सकता है। ऑनलाइन पंजीकरण श्री अमरनाथजी श्राइन बोर्ड (एसएएसबी) की आधिकारिक वेबसाइट jksasb.nic.in पर किया जा सकता है। ऑफलाइन पंजीकरण जम्मू-कश्मीर बैंक, येस बैंक, पीएनबी बैंक और एसबीआई की कई शाखाओं में किया जाता है।
आवश्यक बातें।
13 से 70 वर्ष के व्यक्ति ही यह यात्रा कर सकतें हैं। अमरनाथ यात्रा के लिए रजिस्ट्रशन करते समय आपके पास अपनी 4 पासपोर्ट साइज फोटो, वेरिफिकेशन के लिए आधार कार्ड, पासपोर्ट, वोटर आईडी, ड्राइविंग लाइसेंस में से कोई एक चीज होनी चाहिए। आप जिस राज्य में रहते हैं, वहां के डॉक्टर का बनाया हुआ हेल्थ सर्टिफिकेट और यात्रा एप्लिकेशन फॉर्म की जरूरत होती है। आनलाइन आवेदन में यही सब अपलोड करना पड़ता है। रजिस्ट्रेशन के लिए कुछ रकम भी जमा करनी पड़ती है जो 2025 के लिए 220/- रूपए है।
अमरनाथ यात्रा रजिस्ट्रेशन के बाद क्या होता है ?
1. यात्रा परमिट (Yatra Permit):
रजिस्ट्रेशन के बाद, आपको एक यात्रा परमिट मिलेगा, जिसमें आपकी जानकारी, यात्रा की तारीख और मार्ग (बालटाल या पहलगाम) का उल्लेख होगा।
2. मेडिकल जांच:
आपको किसी अधिकृत अस्पताल से स्वास्थ्य प्रमाण पत्र (CHC) प्राप्त करना होगा।
3. बायोमेट्रिक और आधार सत्यापन:
आपको सरस्वती धाम में बायोमेट्रिक और आधार सत्यापन करवाना होगा।
4. RFID कार्ड:
सत्यापन के बाद, आपको RFID कार्ड जारी किया जाएगा।
5. यात्रा:
RFID कार्ड और अन्य आवश्यक दस्तावेजों (जैसे स्वास्थ्य प्रमाण पत्र, फोटो, आदि) के साथ, आप अपनी चुनी हुई तिथि और मार्ग से यात्रा शुरू कर सकते हैं।
6. यात्रा के दौरान:
यात्रा के दौरान, आपको सुरक्षा जांच से गुजरना होगा और आवश्यक निर्देशों का पालन करना होगा।
7. दर्शन:
पवित्र गुफा में भगवान शिव के दर्शन करने के बाद, आप अपनी यात्रा समाप्त कर सकते हैं।
अमर नाथ यात्रा पर जाने के भी दो रास्ते हैं। एक पहलगाम होकर और दूसरा उत्तर सोनमर्ग के समीप बालटाल से। यानी कि पहलगाम या बालटाल तक किसी भी सवारी से पहुँचें, यहाँ से आगे जाने के लिए अपने पैरों का ही इस्तेमाल करना होगा। अशक्त या वृद्धों के लिए सवारियों का प्रबंध किया जा सकता है। पहलगाम से जानेवाले रास्ते को सरल और सुविधाजनक समझा जाता है। इसमें 3 दिन लगते है।
फोटो भास्कर के सौजन्य से
बालटाल से अमरनाथ गुफा की दूरी केवल १४ किलोमीटर है लेकिन यह बहुत ही दुर्गम रास्ता है और इसे 1 दिन में पूरा करना होता है। इसीलिए सरकार इस मार्ग को सुरक्षित नहीं मानती और अधिकतर यात्रियों को पहलगाम के रास्ते अमरनाथ जाने के लिए प्रेरित करती है। इस रास्ता उनके लिए है जिन्हें रोमांच और जोखिम लेने का शौक रखने वाले लोग इस मार्ग से यात्रा करना पसंद करते हैं। इस मार्ग से जाने वाले लोग अपने जोखिम पर यात्रा करते है। पहलगाम से घोड़े खच्चर मिलते है पर बालाटाल से पैदल ही एक मात्र विकल्प है ऐसे डांडी जिसमें एक कुर्सी पर बैठ कर चार लोग के कंधे पर जाया जाता है अवश्य मिलता है। पैदल को छोड़ सभी विकल्प महंगे होते हैं।
उपर दिए सारी जानकारी मैंने internet से ली है। अगले ब्लॉग में कुछ और शिव मंदिरों के बारे में लिखूंगा।
Monday, July 14, 2025
कैलाश सावन में शिव के धाम भाग -1
सावन के महीने में शिव दर्शन के लिए यात्राओं और आस पड़ोस की मंदिरों पर समर्पित है मेरा यह ब्लॉग सीरीज । सबसे पहले उन यात्राओं के पर मैं लिख रहा हूँ जो मैंने नहीं किया या पूरा नहीं कर पाया और अपने उम्र के इस पड़ाव में कर न पाऊँ पर मैंने जो भी जानकारी उपलब्ध की अपने उन जानने वालों से जिन्होंने यात्राएं की या फिर अन्य साधनों से जो मैंने इस आशा से कभी एकत्रित की की कभी वहां जा पाऊं। कुछ जानकारी पुरानी हो सकती है , कृपया कमेंट में बताये मैं सही जानकारी से ब्लॉग को revise कर दूंंगा। पहले भाग मैं अपने एक पुराने ब्लॉग को नई जानकारी से पुनः प्रस्तुत कर रहा हूँ।
कैलाश मानसरावर यात्रा (ट्रेक)
मैने अपने एक पुराने web page मे कई जगहों की तीर्थ यात्रा के बारे में लिखा है। मैने बैद्यनाथ धाम की कांवर यात्रा को मिला कर 7 ज्योतिर्लिंग की यात्रा भी की पर कई यात्राऐं जैसे वैष्णों देवी, केदारनाथ और कैलाश मानसरोवर मेरे Bucket List में ही रह गए और मै Senior से Super Senior हो गया। केदारनाथ के रास्ते सोनप्रयाग से लौट आना पड़ा क्योंकि आगे रास्ता VIP भ्रमण के लिए बंद थे ऐसे हमारी मंज़िल भी त्रियुगी नारायण ही थी और वहां भी नहीं जा पाया। कैलाश मानसरोवर पर है मेरा यह लेख। अन्य जगह तो जा सकता हूँ खास कर घोड़ा या हेलीकाप्टर से पर मानसरोवर के लिए तो मेडिकल टेस्ट पास करना होगा जाना चाह कर भी शायद मै न जा पाऊँ। ऐसे कुछ सालों पहले मेरी एक सिनियर रिश्तेदार कैलाश मानसरोवर नेपालगंज से हवाई मार्ग से तिब्बत बोर्डर और वहाँ से बाकी की यात्रा SUV से पूरी की तो मेरा मनोबल बढ़ गया है। यदि ऊंचाई पर होने वाली दिक्कतें झेल पाऊ तो जा भी सकता हूँ।
मेरे सीनियर रिश्तेदार की कैलाश मानसरोवर यात्रा 2018
हिंदू शास्त्रों के अनुसार कैलाश पर्वत पर भगवान शिव का वास है। कैलाश मानसरोवर क्षेत्र जैन धर्म और बौद्धों के लिए भी पवित्र है। कैलाश ट्रेक भारत सरकार द्वारा हर साल जून से सितंबर के बीच लिपु-लेख पास (उत्तराखंड) वाले मार्ग से या नाथुला पास (सिक्किम) वाले मार्ग से आयोजित किया जाता है ये दोनो ट्रेक सभी सक्षम भारतीय नागरिकों के लिए खुला है जिनके पास होना चाहिए वैध भारतीय पासपोर्ट और धार्मिक इरादा। तीन मार्ग नेपाल के रास्ते से भी मौजूद हैं । यात्रा सड़क मार्ग और उच्च ऊंचाई पर ट्रेकिंग का मिश्रण है। यात्रियों का चुनाव नीचे दिए तरीके से किया जाता हैं ।
Goverment Advisory for this yatra
Yatris need to spend 3 or 4 days in Delhi for preparations and medical tests before starting the Yatra. Delhi Government arranges comman boarding and lodging facilities free of cost for Yatris only. Yatris are at liberty to make their own arrangements for boarding and lodging in Delhi.
The applicant may do some basic checks to determine their state of health and fitness before registering on-line. However, this will not be valid for the medical tests to be conducted by DHLI and ITBP in Delhi before the Yatra.
Advisory: The Yatra involves trekking at high altitudes of up to 19,500 feet, under inhospitable conditions, including extreme weather, and rugged terrain, and may prove hazardous for those who are not physically and medically fit. The itinerary provided is tentative and visits to the places are subject to local conditions at any point of time. The Government of India shall not be responsible in any manner for any loss of life or injury to a Yatri, or any loss or damage to property of a Yatri due to any natural calamity or due to any other reason. Pilgrims undertake the Yatra purely at their own volition, cost, risk and consequences. In case of death across the border, the Government shall not have any obligation to bring the mortal remains of any pilgrim for cremation to the Indian side. All Yatris are, therefore, required to sign a Consent Form for cremation of mortal remains on the Chinese side in case of death.
This Yatra is organized with the support of the state governments of Uttarakhand, Delhi, and Sikkim; and the cooperation of Indo Tibetan Border Police (ITBP). The Kumaon Mandal Vikas Nigam (KMVN), and Sikkim Tourism Development Corporation (STDC) and their associated organizations provide logistical support and facilities for each batch of Yatris in India. The Delhi Heart and Lung Institute conducts medical tests to determine fitness levels of applicants for this Yatra.
लिपु लेख दर्रा हो कर कैलाश मानसरोवर यात्रा ।
यह एक पारंपरिक मार्ग है और नाथू-ला-पास हो कर नए मार्ग के खुलने तक भारत होते हुए मानसरोवर तक जाने का एक मात्र मार्ग था । इस मार्ग से यात्रा करने पर ज्यादा दूरी तक पैदल ट्रेकिंग करनी पड़ती थी (लगभग 200 किमी) बाकि की यात्रा चीनी बसों , एसयूवी द्वारा की जाती हैं । कुछ दूर तक एक नए रोड का उद्घाटन माननीय राजनाथ सिंह ने कुछ साल पहले किया था। इस मार्ग से ट्रैकिंग की दूरी काफी काम हो गई है । अब गाला से लिपुलेख पास तक की यात्रा पैदल करनी होती है बाकि की यात्रा यानि धारचूला से गाला तक SUV से की जाती है , यदि रोड ठीक हो और कोई भू स्खलन नहीं हुआ हो। कैसे जाना हैं वह उपर दिए मानचित्र से स्पष्ट है। लिपु लेख के बाद औसत ऊँचाई MSL से ऊपर 4500-5300m के बीच है। अच्छे मौसम में यात्रा में 22-25 दिन लगते हैं लागत लगभग 1.8 लाख रुपये ।
नाथू ला दर्रा होकर कैलाश- मानसरोवर यात्रा
नाथुला हो कर कैलाश - मानसरोवर मार्ग पूरी तरह से मोटर से की जाती है और इसमें केवल 8 दिन लगते हैं। अधिकतम ट्रेकिंग की दूरी लगभग 35 किमी ही है। २०१८ में इसकी कीमत करीब 2 लाख रुपये थी ।
नेपाल हो कर कैलाश - मानसरोवर यात्रा
नेपाल हो कर कैलाश मानसरोवर जाने के तीन प्रचलित मार्ग हैं ।
रूट A. लखनऊ-नेपालगंज-सिमीकोट-हिल्सा-कैलाश मानसरोवर । कैलाश मानसरोवर पहुंचने के लिए एक लोकप्रिय मार्ग है। इस रूट में सिमीकोट तख आप हवाई यात्रा करते हैं और सिमीकोट से हिलसा के लिए एक हेलीकॉप्टर लेते हैं। हेलीकॉप्टर लेना तेज है और
सुविधाजनक है लेकिन तुलनात्मक रूप से अधिक महंगा है। इस मार्ग से कैलाश पर्वत की यात्रा में परिक्रमा के साथ 8 दिन लगते हैं
और से परिक्रमा के बिना 5 दिन। नेपालगंज यदि आपके पास है तो इस मार्ग की पुरज़ोर अनुशंसा की जाती है। समय न्युनतम लगेगा।
जाने का सबसे अच्छा समय: मई, जून, सितंबर (जुलाई-अगस्त पर्यटन मानसून से प्रभावित हो सकते हैं।
नीचे लिंक पर क्लिक करे और जाने यात्रा और बातें विस्तार से।
हवाई मार्ग - हेलीकाप्टर - सड़क मार्ग से कैलाश मानसरोवर यात्रा
रूट B. काठमांडू - क्यारोंग - कैलाश मानसरोवर कैलाश मानसरोवर की यात्रा के लिए एक थल मार्ग (over land) मार्ग है
यात्रा जिसमें लगभग 14 दिन लगते हैं। अभी कुछ दिन पहले इसी मार्ग में स्थित मैत्री पुल बह गया है।
जाने का सबसे अच्छा समय: मई-सितंबर। 2018 में लागत INR 1.5 लाख। ऑपरेटर के साथ जांचें
रूट C. काठमांडू - ल्हासा - कैलाश मानसरोवर - आप ल्हासा के लिए उड़ान भरेंगे और फिर कैलाश मानसरोवर यात्रा के लिए सड़क मार्ग से जाएंगे
और लगभग 15 दिन लगते हैं। यह सबसे अच्छा है यदि आपके पास पर्याप्त समय है और आप ल्हासा और कैलाश मानसरोवर दोनों की यात्रा करना चाहते हैं
जाने का सबसे अच्छा समय: मई-सितंबर। ऑपरेटर से संपर्क करें। 2018 में लागत INR 4 लाख
इसके सिवा दर्शन के दो और तरीके है या यों कहे तीन तरीके। पहला हवाई दर्शन : नेपाल गंज से एक हवाई जहाज से नेपाल चीन के सीमा तक ले जाते है और हवाई जहाज से ही कैलाश पर्वत के दर्शन कर सकते है।
पायलट भतीजे द्वारा खींचा फोटो
इसमें वीसा , उम्र , हेल्थ चेक अप की कोई परेशानी नहीं। नीचे लिंक पर क्लिक करे और जाने और बातें विस्तार से। खर्च ४३५००/- प्रति व्यक्ति ।
लखनऊ - नेपालगंज - हवाई दर्शन - नेपालगंज - लखनऊ।
अब भारत की धरती से भी कैलाश दर्शन किया जा सकता है। अदि कैलाश और ॐ पर्वत के साथ पुराने लिपुलेख के पास से कैलाश दर्शन के स्थान को हाल के वर्षों में बॉर्डर रोड आर्गेनाईजेशन ने खोज निकला। KMVN इसके लिए एक यात्रा भी Organize करता है गुंजी तक हलोकॉप्टर फिर रोड से। उनके web साइट पर इसका खर्च दिखाता है ८००००/- प्रति व्यक्ति। हवाई दर्शन के मुकाबले ऐसे यात्रा में कैलाश दर्शन के लिए काफी समय मिलता है। लिंक पर क्लिक करे और ज्यादा सूचना मिलेगी।
उत्तराखंड से कैलाश दर्शन।
अब अंतिम तरीका अत्यंत साहसी लोगों के लिए। मैंने एक यू ट्यूब वीडियो में नेपालगंज से सिमीकोट हो कर लिमि लाप्चा (नेपाल) तक मोटर साइकिल से जाने का वीडियो देखा था पर रोड अभी बन ही रहा है, और बहुत बड़े बड़े पत्थरो के बीच से बाइक ले कर गए जो साधरण लोगों के लिए शायद संभव न हो । पुलिस वाले मना भी। करते है, पर सिमिकोट तक हवाई मार्ग से और वहां से लिमि - लाप्चा तक सड़क मार्ग से जाया जा सकता है। कुछ टूर ऑपरेटर इसका इंतजाम भी कर देते है । लाप्चा से कैलाश का साफ़ साफ़ दर्शन हो जाता है क्योंकि एरियल दूरी कुछ ७-१० KM की ही होती है। लिंक दे रहा हूँ।
नेपाल के धरती (Limi Laapcha ) से कैलाश दर्शन।
अगले भाग में और कुछ जानकारी ले कर आऊंगा। तब तक हर हर महादेव।
Tuesday, June 10, 2025
बस यात्राऔं का खट्टा मीठा आनुभव भाग-3
यदि इस ब्लॉग सिरिज का भाग एक पढ़ना चाहे तो यहां क्लिक करें
बस यात्राओं का खट्टा मीठा आनुभव भाग-1
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बस यात्राओं का खट्टा मीठा आनुभव भाग-2
अपने खट्टे मीठे बस यात्राओं के इस तीसरे ब्लॉग में मैं बोकारो (मेरा कार्य स्थल ) से जमुई (मेरा पुश्तैनी घर ) तक की गयी एक यात्रा का अनुभव पहले साँझा कर रहा हूँ । तब की बात है जब हम नए नए मां बाप बने थे।
बिहार की बसें, लछुआड़ का जैन मंदिर
पहली यात्रा
बोकारो से जमुई की सीधी बस सेवा सिर्फ एक ही थी , जो करीब ९ बजे सुबह बोकारो से खुलती थी । हम इस बस को नया मोर चास रोड पर एयरपोर्ट के पास पकड़ते थे। वहां पहुंचने पर पता चला बस में कुछ खराबी है और ११-१२ बजे तक चलेगी। तब कोई मोबाइल तो होता नहीं था और फोन भी किसी किसी के यहाँ होते थे। इस कारण कई बार का आना जाना लग जाता था। हमें परेशान होता देख बस ड्राईवर हमें राम मंदिर से (जो हमारे क्वार्टर के करीब था) से pick up करने को तैयार हो गया। करीब १२ बजे बस आई और हम सामान और खाना पीना जिसमे बिटिया के लिए फीडर , पाउडर मिल्क का डब्बा और थरमस में गरम पानी भी सामिल था लेकर बस मे सवार हो गए। बस के चलते ही सुकून का अनुभव हुआ।
धनबाद के आगे चलने पर बस में स्टार्ट न होने का प्रॉब्लम सामने आया । यानि बस का रिपेयर ठीक से नहीं हुआ था । सेल्फ से स्टार्ट ही नहीं होता था कभी कभी। ड्राइवर बस का इंजन बंद नहीं करने और बस स्लोप पर ही खड़ी करने की सावधानी बरतने लगा। भगवान का नाम लेते लेते हम इसरी, गिरिडीह होते जमुआ पहुँच गए। हम मना रहे थे की जमुई बिना किसी व्यवधान के पहुंच जाये - नहीं मैं स्वार्थी नहीं हो रहा था जमुई में बस डीपो बड़ा था और बस वह पहुँच जाए तो रिपेयर हो सकता था। परिस्थिति ऐसी थी की बस में कोई औरत क्या औरत जात भी नहीं थी - कोई छोटी लड़की भी नहीं, मेरी पत्नी और मासूम बिटिया को छोड़ कर। मैं मना रहा था की बहुत रात होने के पहले ही पहुँच जाये और समय पर पहुंचना जमुआ तक संभव लग रहा था । चतरो के बाद बस एक जगह बंद हो गयी। दस बारह लोग उतर गए और बस को धक्का देने लगे। बस इस बार स्टार्ट नहीं हुई। फिर मैं भी धक्का देने उतर पड़ा। सामने १ या २ km तक थोड़ी चढ़ाई थी फिर ढलकान था। सभी का विचार हुआ उस चढ़ाई तक ठकेलते है फिर स्लोप में बस स्टार्ट हो जाएगी। पर ऐसा नहीं हुआ। बस स्टार्ट होने का नाम ही नहीं ले रहा था। सभी हिम्मत हारने लगे। कुछ दूर और कुछ दूर और कहते हम कई km तक बस को धकेलते रहे। फिर विचार हुआ अब तो चकाई तक ढलकान ही है ढकेल कर ही पहुंचा देते है। कुछ खाने पीने को ही मिल जाएगा। सुनसान इलाका था , घुप अँधेरा था , न कोई आदमी न कोई आदमजात। ऐसे इलाके में पुरुष यात्री ही डर रहे थे मुझे भी चिंता होने लगी थी। पर मैंने जाहिर नहीं किया।
लट्टू पैलेस सिमुलतला, क्लोक टावर, गिद्धौर
करीब ५ km ढकेलने के बाद एक की छोटी दूकान दिखी जो बंद होने जा रही थी। और बस को वहीँ खड़ा कर दिया गया। यह सोचकर की शायद कोई गॉव नजदीक होगा तो सेफ रहेगा। इधर बिटिया को भूख लग गयी, और हमारे थरमस में गरम पानी भी ख़त्म हो गया था। बस के इस समस्या के कारण बस कही रूक नहीं रही थी ताकि किसी चाय दुकान से गरम पानी ले सकते। हम करीब करीब सरौन पहुंच गए थे और चकाई सिर्फ दस एक km ही दूर थे मैं ढाबे (या चाय दूकान ) पर गरम पानी के लिए गया, उसको सुनने की फुर्सत नहीं थी। मैं धैर्य से रुका रहा फिर उसने बताया चूल्हा बुझा दिया है पुनः जलाना संभव नहीं। खाने के सामान के नाम पर इस दूकान में सिर्फ चूड़ा और पेड़ा था। सभी ने चूड़ा और पेड़ा खा कर भूख मिटाई सिर्फ मेरी बिटिया के। उसे हम बहलाने की कोशिश करने लगे। कोई उपाय न देख सभी किसी दूसरी बस का इंतज़ार करने लगे। तभी एक बस आती दिखी। नज़दीक आने पर पता चला यह दरभंगा बस है जो सिर्फ आज के दिन जमुई हो कर जा रही है। हमारे बस के सभी यात्री इस दूसरे बस में चढ़ गए। अब लगा हमारी किस्मत अच्छी थी क्योंकि जमुई की डायरेक्ट बस मिल गयी। यदि चकाई या जसीडीह की बस मिलती तो हम जमुई अगले दिन ही पहुंचते। बिटिया को रूलाते मानते ११-११:३० तक हम जमुई पहुंच गए। घर तक के लिए रिक्शा मिला या नहीं याद नहीं। पर हमने सही सलामत घर पहुचने पर भगवान को बहुत धन्यवाद दिया।
मैं एक और बस यात्रा का वर्णन करना चाहूंगा
। राजनीतिक कारणों से रोड जाम करने की सारी परेशानी यात्रा करने वाले आम लोगों को ही उठानी पड़ती है। चाहे सरकार या शासन के कान पर जूं ही न रेंगे।
दूसरी यात्रा
हम विराटनगर नेपाल गए थे। मेरी साली की शादी थी। बारात पुर्णिया (बिहार) से आई थी। बताता चलूं कि पुर्णिया एक सीमावर्ती शहर है और बोर्डर टाउन फारबिसगंज से सिर्फ ७५ km दूर है। हम उस विवाह समारोह के बाद अपने छोटे साले साहब स्व डा० सुनील सिन्हा से मिलने धरान भी गए थे। वहां भी एक घटना हुई। उस पर चर्चा फिर कभी करेंगे।
विराटनगर बोर्डर, काली मंदिर, पुर्णिया
क्योंकि बोर्डर करीब था हमनें पुर्णिया हो कर ही रांची लौटना निश्चित किया। पुर्णिया तक की यात्रा बिना किसी कठिनाई के कट गई। पुर्णिया से रांची तक रात में चलने वाली डिलक्स बसों में से एक में मैंने सीट बुक कर लिए। डीलक्स बस का मायने होता था 2x2 सीट और reclining सीट। तब एसी बसें चलना शुरू नहीं हुई थी। खैर पुर्णिया में एक रात बिता कर हमने शाम सात बजे की अपनी बस पकड़ ली।
बस चल पड़ी। पर नन स्टाप बस के कई स्टाप आए और कहीं पैसेंजर और कहीं सामान बस पर चढे़ या चढ़ाए गए। हम थके मांदे थे, कब हम सो गए पता भी न चला। सिर्फ एक जगह हम जगे जहां बस खाने की जगह रूकी। बस चलने पर हम फिर सो गए। फिर एक स्टाप पर बस रूकी । हमारी नींद टूट गई पर फिर हम सो गए। जब काफी देर बाद बस रूकी तो हम जग गए और बाहर झांक कर देखा तो बस उसी जगह खडी थी। हम तिलैया डैम के पास थे और पिछले दो ढाई घंटे से बस यहीं खड़ी। कई बस, गांड़ी भी इस जाम में फंसी पड़ी थी। मैं नीचे उतर कर पता कर आया कि इतना जाम क्यों लगा है।
जब हम स्कूल में थे तब अविजित बिहार में कुल चार कमिश्नरी और १७ जिलों के बारे में पढ़ा करते थे। बहुत दिनों तक यह स्थिति बनी रही। फिर दौर आया एक जिले को कई भाग में बांटने का । शायद बढ़ती आबादी के साथ यह जरूरी भी था। पर जहां कमिश्नरी और जिले बंट गए, सब डिवीजन उस अनुपात में नहीं बंटे। यहीं स्थित हजारीबाग जिले की भी थी। सबसे पहले गिरीडीह अलग हो कर जिला बना। फिर चतरा और कोडरमा को भी जिला बना दिया गया। और अंत में रामगढ़ अलग जिला बन गया। यह जाम हजारीबाग से कोडरमा अलग होने से संबंधित था।
बरही अंग्रेज़ो के समय में सब डिवीजन रह चुका था। अब कोडरमा अलग होने के बाद बरही के लोग इसे सब डिवीजन बनाने के लिए आंदोलन रत थे और भारत में आंदोलन करने का सहज तरीका है रोड ट्रेन रोक देना, दुकान न खुलने देना और न मानने पर गाड़ी, दुकान को क्षतिग्रस्त कर देना। खैर कई घंटे तक जब जाम नहीं खुला तब सभी यात्री किसी और रास्ते से चलने का आग्रह करने लगे। पहले कंडक्टर, ड्राइवर तो न माने पर उन्हें भी लगने लगा था कि जाम जल्दी खुलने वाला नहीं है। और जब कई गाड़ियां घुमने लगी तब हमारी बस ने भी कोडरमा गिरीडीह मार्ग पकड़ लिया। सरिया हो कर हमारी बस हजारीबाग के लिए निकल पड़ी। 10-11 बज गए थे। धूप काफी निकल आई थी। तभी सरिया के पास के रेलवे फाटक से पहले ही बस का एक पंचर हो गया। बस में स्टेपनी था पर जैक नहीं था कंपनी की दो बस एक साथ पुर्णिया से निकली थी और साथ साथ चल रही थी। हमारी बस में स्टेपनी था जबकि दूसरी बस में जैक था। प्रोबेबिलिटी का ऐसा खेल। खैर मर्फी का नियम है Anything that may go wrong will go wrong. और वैसा ही हुआ जैक वाली बस आगे निकल गई। अब पहले बस स्टाफ बाद में यात्रीगण अन्य गाड़ियों से जैक मांगने लगे। तभी गर्मी से परेशान बस के उपर रखे मुर्गे की टोकरियां से मुर्गियां बाहर निकल आई। और यहां वहां भागने लगे। रास्ते में मुर्गियों की लूट मच गई। बस का खलासी भी मुर्गियां समेटने में लग गया। कुछ मुर्गियों की आवाज यात्रियों के झोले से भी आने लगी।
इन सब के बीच भी यात्री जैक को नहीं भूले पर गाड़ियां को रोक रोक कर जैक मांग रहे थे और गाड़ी वाले बहाने बना कर भाग रहे थे। आखिर यात्री लोग रोड पर धरना डाल कर बैठ गए। आखिर एक ट्रक को रोक कर जैक देने के राजी कर लिया गया लेकिन ड्राइवर ने भी दो मुर्गे देने की शर्त रख दी। और आखिर 12 घंटे देर से ही सही हम रांची पहुंच गए। रास्ते में न खाना मिला न पानी और न ही शौचालय ।
ऐसे तो हरेक यात्रा की कोई न कोई कहानी होती है, पर मैं अपने इस बस यात्रा सीरीज को यहीं विराम देता हूं। कुछ और अनुभव ले कर शीघ्र हाजिर होऊंगा।
मुझे शिकायत है (कविता)
हम फुसफुसाहट भी
साफ साफ सुन समझ लेते थे।
अब तो वो बोलते है कुछ
मै सुनता कुछ और हूं
समझ कुछ और लेता हूं।
और तो और मैं बोलता कुछ हूं।
वो जो भी सुनते है पहले उसमें
व्याकरण की गलतियां निकालते हैं
फिर मैं बताई गलतियां सुधारता हूं
तो वो फिर गलतियां निकालने लग जाती है
और हमारी बातचीत यूं ही
आधी अधूरी चलती ही रहती है।
उन्हें शिकायत है मैं बात नहीं करता
मुझे शिकायत है आप सुनती कब है?
उन्हें भी शिकायत है आप सुनते कब हो ?
मैं जानता हूं यह सब उम्र का तकाजा है
पर जब तक शिकायत है तबतक प्यार है
अहसास है, फिक्र है, मुहब्बत है।
अमिताभ कुमार सिन्हा, रांची
Thursday, June 5, 2025
बस यात्राऔं का खट्टा मीठा आनुभव भाग-2
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बस यात्राओं का खट्टा मीठा आनुभव भाग-1
इस भाग में मैं दो बस यात्राओं के बारे में लिखूंगा जो पटना से काठमांडू जाने के क्रम में की गई थी। पहली यात्रा में मैं सामिल नहीं था। मेरी पत्नी जा रही थी बच्चो और मेरी मां के साथ मौका था मेरे साले साहब की शादी। रूट था पटना से रक्सौल, बीरगंज होते काठमांडू। तब मुंग्लिंग हो कर बस चलनी शुरू हो गयी थी और ये बसें रात में चला करती थी। पटना से रक्सौल तक बस मिल जाती थी और भारत नेपाल बॉर्डर तांगे से क्रॉस हम बीरगंज जाते थे। तब मेरे बड़े साले डॉ बिमल बीरगंज में पोस्टेड थे और वही एक दो दिन रूक कर रात की बस पकड़ हम काठमांडू जाते थे।
मेरी पहली नेपाल यात्रा पर मेरे ब्लॉग के लिए यहाँ क्लिक करे
बस में पीछे डिक्की होना शुरू हो चुका था और सामान को बस की छत पर रखने की परम्परा ख़त्म हो चुकी थी । बस में सीट नंबर भी टिकट में लिख देते थे और सीट के लिए मारामारी नहीं होती थी अब ।
काठमांडू में मेरे छोटे साले साहब की शादी थी । मेरा पहला यूरोप ट्रिप लग चुका था और लाइट सॉफ्ट लगेज की शुरुआत हो चुकी थी और एक खूबसूरत नए सूटकेस के साथ मेरी पत्नी सफर कर रही थी । कई और सामान भी साथ थे क्योंकि मेरा छोटा भाई और मेरी मां भी शादी में जा रहे थे। कुछ महंगे कपड़े और कीमती सामान भी साथ थे। तब पटना में प्राइवेट बस हार्डिंग पार्क से खुलती थी। सामान डिक्की में रखवा कर सभी अंदर बस में बैठ गए। रास्ता करीब पांच घंटे का था। सफर ठीक से कट गया। असली दिक्कत तब हूई जब रक्सौल पहुंचने पर सॉफ्ट लगेज वाला नया सूटकेस डिक्की में नदारत था। बस वाले पल्ला झाड़ने लगे। अपने चढ़ाया ही नहीं होगा ! रास्ते में कोई यात्री ले गया होगा ! इत्यादि बातें कहने लगे। मेरी पत्नी सीधे थाने चली गयी पहले थाने वाले कुछ करने को तैयार नहीं थे। तब उन्होंने अपने डॉक्टर भाई जो बीरगंज में था के हवाले से परिचय दे कर बताया की डॉक्टर साहब रक्सौल के क्लिनिक में भी बैठते है । रक्सौल वाले डॉक्टर मित्र से भी बात की गयी , यह सब तब जब सेल फ़ोन नहीं होते थे। फिर थानेदार ने बस ड्राइवर कंडक्टर और खलासी को थाने बुलवाया और उनकी जम कर क्लास लगाई । आखिर बस वाले ने पटना में ही सामान उतार लेने की बात स्वीकारी और अगली बस से सामान मंगवाने देने की हुंकारी भरी। सामान तो उस दिन नहीं आ सका पर दो दिन बाद सामान आ गया । दो दिन extra रुकना पड़ा। सूटकेस खोला गया था पर सभी सामान मौजूद थे, कुछ निकाल कर वापस रख दिए प्रतीत हो रहे थे। बहरहाल आगे की यात्रा खुशी खुशी संपन्न हो गई। परिवार में सभी मेरी पत्नी के इस तरह लड़ कर, पुलिस की मदद से सामान हासिल करने के कृत्य से खुद को गर्वित महसूस कर रहे थे। बाबुजी (मेरे स्वर्गीय ससुर जी) ने कहा "यही है बेटियों को पढ़ाने लिखाने का फायदा"।
नेपाल की पहली बस सेवा, बारह घुमती- 12 hair pin bends near Bhaise on Tribhuvan Rajpath curtsey wikipedia
इस ब्लॉग मैं एक और काठमांडू की बस यात्रा की कहानी कहूंगा। इस बार मैं भी परिवार - पत्नी और दो छोटे बच्चों और मेरी छोटी बहन के साथ था। तब बसें बीरगंज से काठमांडू के बीच पुराने त्रिभुवन राजपथ होकर सिर्फ दिन के समय में ही चला करती थी। बीरगंज से निकलते ही २० KM के बाद परसा राष्ट्रीय उद्यान यानि जंगल शुरू हो जाता है । चूरे पहाड़ यानि मिट्टी के पहाड़ जिसमे भूस्खलन होते रहते है भी अमलेखगंज के बाद मिलते है और वहॉ है चुरिया माई का मंदिर। उस वक़्त इतने ढाबे नहीं होते थे। गाहे बेगाहे चाय बिस्कुट , अंडे के दुकान अवश्य मिलते थे लेकिन जंगल में वह भी नहीं के बराबर थे।
हमारी बस में बीरगंज से कुछ दूर कलैया से ही स्टार्ट न होने की और खींचने के ताकत के कमी की दिक्कत शुरू हो गयी थी । तब आम था यह सुनना की "एयर ले लिया"। धीमे-धीमे चलकर किसी तरह बस जंगल शुरू होने के पहले स्थित पेट्रोल पंप तक पहुंची और डीजल भरवाया। उसके बाद बस दस KM भी नहीं चली होगी कि बस ने मानों हड़ताल कर दिया या युं कहें की अपने हाथ खड़े कर दिए। जब ठेलने ठूलने से भी बस चालू नहीं हुई तो बस स्टाफ बीरगंज जा कर दूसरी बस या मैकेनिक लाने का उपक्रम करने लगे । काश तब मोबाइल होता तो यह सहायता मोबाइल पर ही मांग लेते। खैर अभी ८-९ बजे सुबह का समय हुआ था । ऐसा लगा एक आध घंटे में समस्या का समाधान हो जायेगा। लेकिन बीरगंज जाने वाली किसी भी गाड़ी का इंतजार करना पड़ा । फिर दूसरी बस खाली मिल जाय अक्सर छोटे ट्रांसपोर्टर के लिए संभव नहीं होता और ड्राइवर इस बस को रिपेयर के बाद भी शायद ले जाने को तैयार नहीं था और सही भी था। आगे असली चढ़ाई प्रारंभ होने वाली थी और बीमार बस को लेकर चलना रिस्की था। खैर समय बीतता गया। सभी यात्रियों ने करीब ही एक चाय बिस्कुट की दुकान खोज निकाली थी। हमने भी दोनों बच्चों को कुछ स्नैक्स खिला दिए थे पर जब १२ बजे तक बस नहीं आई तब कई यात्रियों ने वहा बैठी महिला जिसे सभी बैनी (बहन को नेपाली में बैनी कहते हैं) बुला रहे को लंच के थाली के लिए कहा। होटल के कर्मचारियों को बैनी या कांछा (छोटू) कह कर बुलाने का रिवाज सा था। हमने भी थाली यानि नेपाल का प्रसिद्द दाल भात और रायो साग का आर्डर कर दिया। एक दो यात्रियों के लायक तो दाल चावल था बैनी के पास पर बस के तीस पैंतीस यात्रियों के लायक तो सामान ही नहीं था उनके पास। शायद उनका घर भी ज्यादा दूर नही था। कुछ ही देर में आनाज और साग सब्जी उनके घर से आ गई । करीब घंटे भर में ३०-३५ लोंगो के लिए गरमा गरम भोजन तैयार हो गया। खाना खाते खाते बस भी आ गई। गर्म भोजन कितना स्वादिष्ट था बयान करना मुश्किल था। एक बार फिर साबित हो गया सबसे अधिक स्वादिष्ट होता है भूख ।
बाकि यात्रा सुखद थी ओर हम रात सात बजे तक काठमांडू पहुंच गए।
एक दूसरे बस यात्रा का वर्णन अगले ब्लॉग में।
Thursday, May 22, 2025
मेरा नाम भी अमिताभ है।
विकीपीडिया से साभार
अक्सर मेरे नाम बताने पर लोगों के चेहरे के भाव बदल जाते हैं। अमिताभ बच्चन बड़ी हस्ती है। पर लोगों के चेहरे पढ़ने पर लगता है कि वे कह रहे हो "कहां राजा भोज कहां गंगु तेली" और मैं अपने नाम पर झुंझला उठता और उसी झुंझलाहट मैं जो लिख बैठा वो हाजिर है।
वो परेशान था
अपनी परेशानी
एक कागज पर लिख आया
मजा़क में कोई दूसरा उसे
लाल डब्बे में डाल आया
मोबाइल के ज़माने में
खाली पड़े उस डब्बे में
पत्र पड़ा देख डाकिया
पहले तो घबराया
फिर खुश हो कर
कागज के उस टुकड़े को
डाकघर ले आया
सभी खुश थे कि कुरियर के
इस जमाने में
कोई तो है चिठ्ठी लिखने वाला
कोई "बैरंग" लिफाफा ले आया
किसीने उस पर 'स्टांप ड्यू' का
मोहर चस्पाया
और मजा लेने को
पता "अमिताभ बच्चन" लिखवाया
रास्ते में "बच्चन" धुल गया
नाम में क्या रखा है को झुठलाते
मुझसे डबल चार्ज ले कर डाकिया
वह पत्र मुझे दे गया
और मैं सोचने लगा मेरे
माता पिता ने मेरा नाम
अमिताभ क्यों रखा होगा ?
जब मै जन्मा हूंगा
8 वर्षीय अमिताभ बच्चन का
कोई नाम न होगा ।
शायद मेरे माता-पिता
हरिवंश राय बच्चन के
प्रशंसक रहे होंगे
और आज मैं डबल पोस्टल
स्टांप के पैसे चुका रहा हूं।
अमिताभ कुमार सिन्हा, रांची
Wednesday, May 21, 2025
बस #यात्रा ओं का खट्टा मीठा अनुभव
ऐसे तो ब्लॉग का शीर्षक में "खट्टा मीठा" लिखा है पर मेरा अनुभव पढ़ने के बाद आप पूछेंगे इसमें मीठा क्या है ? तो मैं कहूंगा अनजान लोगों से मिले मदद और उनका प्यार जो हर खराब अनुभव को भी मीठा बना देता है और हम कह उठते है । धन्यवाद। मेरी कहानियां तब की है जब ट्रेनें कम थी , शताब्दी , वन्दे भारत , जन शताब्दी , हम सफर और अन्य आरामदायक ट्रैन का चलना शुरू नहीं हुआ था। उस वक्त बिहार में सरकारी बसें एक जगह से दूसरे जगह जाने का प्रमुख साधन हुआ करती थी। प्राइवेट बसों का चलन शुरू हो चुका था। प्राईवेट बस उन्हीं रूटों पर चलती जिन पर सरकारी बसों की सेवा न हो। वॉल्वो मर्सडीज जैसे बसों का तो किसीने नाम भी नहीं सुना था। मैं कुछ तीन बस यात्राओं का वर्णन करूंगा । दो तीन ब्लॉग में।
रांची का बस अड्डा और BSTC की एक बस
पहली यात्रा जिसका वर्णन मैं इस ब्लॉग में करूंगा वह मैंने १९९० के आस पास किया था। मुझे अकेले रांची से जमुई (मेरा पुश्तैनी घर) जाना था। सरकारी बस रांची से मुंगेर जाती थी पर जमुई हो कर नहीं चलती पर एक प्राइवेट बस तब जमुई तक रात में चलने लगी थी। 3x 2 बसें होती थी। ढंड का समय था मैंने इसी बस की एक टिकट ले ली। आगे की दो सीट महिलाओं के लिए होती थी। मैं तीसरी सीट के Aisle के तरफ बैठ गया। रात की बस थी हाजारीबाग पहुंचते पहुंचते लगभग सभी यात्री सो चुके थे। स्टाफ के आपसी बात व्यवहार से लग रहा था ड्राइवर इस रूट पर पहली बार गाड़ी चला रहा था। कहां रूकना है कितनी देर रूकना है खलासी कंडक्टर ही बता रहे थे। रात के दो बजे हमारी बस खाना खाने के लिए रजौली रूकी। पहले की गई यात्राओं से मैं जानता था कि बस यहां डेढ़ घंटे रूकेगी , और यहां न रूकी तो नवादा में तो अवश्य रूकेगी। नवादा से सिकंदरा के बीच तब रात में गाड़ियां नहीं चला करती या फिर कारवां बना कर दो तीन बस को पुलिस escort कर चंद्रदीप पोलिस पोस्ट तक पार करा देती। रजौली के इस प्रसिद्ध ढ़ाबे में मैंने भी तड़का रोटी और तस्मय (एक प्रकार का खीर) खाई और बस में बैठ गया। आश्चर्य हुआ जब बस तुरंत चल पड़ी और नवादा में भी सवारी उतार कर बिना रुके आगे बढ़ गई। कंडक्टर, खलासी ने ड्राइवर को न रोका न खतरे से आगाह किया। गाड़ी का सेल्फ खराब था और ड्राइवर इंजन चालू रख रहा था या फिर गांड़ी ढ़लान पर पार्क कर रहा था।
गाड़ी ठीक ठाक चल रही थी पर कादिरगंज से कुछ ही कि० मी० आगे जाने पर ड्राइवर को दिख गया कि रास्ते को पेड़ काट कर जाम कर दिया गया है। उसने स्पीड तेज कर पेड़ के दाएं से गाड़ी उछलाते कुदाते बस निकालानी चाही पर लूटेरों ने ड्राइवर पर गोली चला दी। शीशा को छेद कर गोली अंदर आ गई पर ड्राइवर बाल बाल बच गया और और तुरंत बुद्धि लगा कर बस की सारी लाईट बंद कर यात्रियों के बीच बैठ गया। लूटेरे के पास शायद सिर्फ एक ही कट्टा था पर यात्री सभी डर गए थे। उनके पास टार्च, माचिस कुछ नहीं था। तीन चार लूटेरे बस पर चढ़ गए और ड्राइवर को ढ़ूढने लगे और बाडी लाइट जलाने की कोशिश करने लगे। असफल होने पर वे सबसे अंधेरे में, या धुंधलके में ही रुपया, घड़ी मांगने लगे। मैंने अपने जेब में रखे पैसे में से आधा नीचे गिरा दिया और पैर से उसे आगे वाली सीट के नीचे खिसका दिया। सुन रखा था पैसे छिपाने या चालाकी दिखाने पर ये मार पीट पर उतर आते हैं।
सम्राट मोटल रजौली और इससे २७ KM दूर ककोलत झरना
अभी लुटेरे मेरे पास आते उसके पहले एक छोटी गाड़ी की लाइट दिखी और सारे लूटेरे पुलिस गाड़ी समझ कर बस से उतर कर कही छिप गए। क्योंकि बस को स्टार्ट करने के लिए धक्का देना होता ड्राइवर इस मौके का फायदा नहीं उठा सका। छोटी गाड़ी किसी और तरफ मुड़ गयी शायद उन्होंने रास्ता बंद देख कर माजरा समझ लिया होगा। खतरा टल जाने पर तीन चार लुटेरे दुबारा बस में चढ़ गए और पैसे घड़ी मांगने लगे। और तो और रोशनी करने के लिए पैसेंजर से मैच बॉक्स भी मांगने लगे और कोई बेवकूफ माचिस देने भी लगा था पर पास वाले पैसेंजर ने रोका । सभी के सामान जिसमे मेरा सूटकेस भी था लुटेरे उतार ले गए । मैंने बिना हील हुज्जत घड़ी और पर्स से पैसे निकल कर दे दिए। मैंने समझा सीट के नीचे फेंके पैसे बच गए पर लुटेरों को पैसेंजर की इस हरकत का पता था और उन्हें फेका हुआ पैसा दिख गया । मैंने भी उठा कर तुरंत देते हुए कहा मेरा नहीं है । धुंधलके में उन्हें मेरा ओवरकोट खाकी रंग का दिखा और उसने गाली देते पूछा किस थाना से हो और इसी शक में मेरा जेब को सर्विस रिवाल्वर के लिए टटोलने लगे। मैंने उससे कहाँ की मैं रांची में पढ़ाता हूँ। थोड़ी देर में सभी के सूटकेस वापस रख कर वे गायब हो गए।
नवादा जिला का एक गावं और जमुई जिला का चंद्रदीप थाना
बस के स्टाफ अब थोड़े उजाले की प्रतीक्षा करने लगे । जब कुछ गाड़ियां चलने लगी तब कंडक्टर किसी गाड़ी से लिफ्ट ले कर नज़दीकी थाने गया और रिपोर्ट लिखा आया। करीब घंटे भर बाद थाने की गाड़ी आई और सभी पैसेंजर का बयान लिया गया। मैंने भी रु ८००/- और घडी की रिपोर्ट लिखा दी। फॉर्मेलिटी पूरी होने पर धक्का देकर बस को स्टार्ट किया गया और थाने ले जाया गया और कुछ कागजी कार्यवाही के बाद हम अपने सफर पर निकल पड़े । शुक्र है मोबाइल नहीं होते थे नहीं तो कॉल करने और जवाब देने में सभी परेशान हो जाते और मोबाइल छिना जाता सो अलग। अब मैंने लूटेरों द्वारा वापस लाया अपना सूटकेस खोला। अच्छे कपड़े शर्ट पैंट को छोड़ एक शाल ले गए और पैंट के जेब में रखे रु ३०० /- बच गए। मैंने महसूस किया मेरे रुपये बचा देख कंडकर / खलासी थोड़े निराश हो गए। ऐसे मै जजमेंटल नहीं होना चाहता पर मुझे लगा ड्राइवर को छोड़ (जिस पर गोली चली थी) बाकि दोनों शायद इन लूट में हिस्सेदार थे और इसलिए ड्राइवर को बस का रजौली / नवादा में डेढ़ दो घंटे रुकने का रूटीन नहीं बताया। लूटने वाले अत्यंत गरीब और नव सिखुआ लुटेरे लगे। इसलिए सिर्फ शाल ले कर गए और उनके व्यवहार में भी कठोरता नहीं थी और वे घोर अपराधी नहीं लग रहे थे। मेरे साथ घटित यह अकेला बस डकैती की घटना थी , इसके सिवा सिर्फ एक बार चोरों ने ट्रेन में चेन काट कर मेरा ब्रीफ केस उतरा था।
ऐसा ही था मेरा ब्रिफकेस , पाटलिपुत्र एक्सप्रेस
1990 की ही बात है। ् पाटलिपुत्र एक्सप्रेस जो पहले धनबाद से पटना के बीच चलती थी और जमुई में रुकती थी, हटिया से खुलने लगी थी, खुलने का समय रात दस बजे । रिजर्वेशन के नाम पर सिर्फ तीन स्लीपर कोच लगा करते थे। मैं इसी ट्रेन से अकेले जमुई जा रहा था । ट्रेन प्रायः खाली थी। उपर की बर्थ पर एक सज्जन जसीडीह जो उनका ससुराल था जा रहे थे। बातुनी शख्स थे। ससुराल में होने वाली शादी समारोह से लेकर पत्नी के साथ अनबन सहित अनेक व्यक्तिगत बातें मुझे बता गए। कुछ बातें फुसफुसाते हुए भी। मै सामने नीचे की बर्थ पर था और लांग सर्विस अवार्ड के तौर पर मिले वि० आई० पी० के ब्रीफकेस को सीट के नीचे चेन से लॉक कर थोड़ी देर बाद सो गया। धनबाद में चाय वालों ने इतना हल्ला मचाया कि नींद टूट गई। चाय पी कर फिर लेट गए। उपर वाले ने कहा अब क्या सोना 4-5 स्टेशन के बाद जसीडीह आ ही जाएगा। पर हम कब सो गए पता न चला। नींद खुली कुल्टी में। बोगी में हल्ला गुल्ला कन्ना पिट्टी मची थी। आगे के बर्थ पर से कईयों के सामान चोरों ने उतार लिया था। उपर वाले भी जग गए, उन्होंने अपना माथा पीट लिया, सर के नीचे से ब्रीफ केश चोर ले उड़े और उनकी नींद न खुली। वो 10000/-रूपए ससुराल में होने वाली शादी के लिए ले जा रहे थे और बिटीया के लिए कपड़े और पायल । वे अब आगे जाना ही नहीं चाह रहे थे। मैंने उन्हें दिलासा दिला कर किसी तरह शांत किया और बाॅगी में अन्य लोगों की चोरी के बारे में जानने को चला गया। सभी आश्चर्यचकित थे कि बाॅगी में सभी इतनी गहरी नींद में कैसे सो गए कि किसीकी नींद नहीं खुली। मैंने तो चेन लगाई थी और निश्चिंत था। मैं अपने बर्थ पर आ कर बैठा और अपना सामान देखने की गरज से चेन का ताला खोलने लगा। जी धक से रह गया जब टूटा चेन और ताला हाथ में आ गया, ब्रिफकेस के बिना। खैर कुछ खास तो था नहीं पर एक तो ब्रिफकेस महंगा वाला था और दूसरे मेरा लांग सर्विस अवार्ड भी था। टीटी आया तो मेरे साथ और पीड़ितों ने FIR लिखने की बात की। इधर उधर की बात और कानून सिखा कर वो चलता बना, काश तब रेल मदद जैसा कुछ होता । अभी बस इतना ही। अगले ब्लॉग में एक और बस यात्रा के साथ हाजिर होऊंगा ।
क्रमशः।
Sunday, May 18, 2025
वो कुछ नहीं कहते

उनको ये शिकायत है कि
हम कुछ नहीं कहते
कुछ कहता हूं तो कहते हैं
वो बात कहां है?
कुछ न कहूं तो कहते हैं
अल्फ़ाज़ कहां है?
कभी फुसफुसाहट भी
हम सुन लेते थे साफ साफ
अब वो कहें तो मैं कहूं
कुछ कह रहे हो क्या?
यह उम्र का तकाजा है
मुहब्बत फिर भी नहीं है कम
हर धर्म हर मजहब से
उपर है जज्बा-ए-मुहब्बत
कुछ न कहो फिर भी
समझ आता है मुहब्बत
वतन हो, दर हो, दरिया हो
हम हों, तुम हो, कायनात हो
बुत हो, देवता हो, दिल हो
या कोई अज़ीज़, मुहब्बत है तो
सब है न हो तो शब भी नहीं,
सुबह भी नहीं।
अमिताभ कुमार सिन्हा, रांची
Wednesday, April 30, 2025
Niagra Falls : History and Geography
Niagara Falls is neither the highest nor the widest nor with most flow in the world, but it is very unique. Let's discuss a little about its history and geography.

Curtsey Britannica
We visited Niagara Falls in 2007 from New Jersey. We took a bus from New York. The bus service was run by Chinese people. The Chinese have a dominance in the bus/travel/tour business in America. Niagara Falls is a major attraction in America and we were eager to know where it is and how these falls were formed. Onway We visited a glass factory Buffalo town and reached a hotel near Niagara Falls by evening. Later while there was already fading sunlight, we went to a park situated near Niagara Falls and started taking pictures of the falls and ourselves with the falls. I had a Yashica Electro-35 Semi atomatic film camera and it was difficult to focus in the dark, yet we were very enthusiastic and took many good and bad photos. Earlier I had visited Toronto in Canada in 1993, which is close to this fall, just across the Niagara River, this time too the Canadian side was visible from the American side. The border between America and Canada is right in the middle of Niagara Falls and the Niagara River. The bridge built between both countries is called the Rainbow Bridge.Thiis bridge has imigration and custom house built right in the middle of this bridge.
Where is Niagara Falls?
Niagara Falls is a system of waterfalls on the Niagara River between Lake Erie and Lake Ontario. From west to east, the different waterfalls are named Horseshoe Falls, Bridal Veil Falls, and American Falls. This river flows from southeast to northwest. I thought there was only one fall, but there are actually three here. The Niagara Falls and the Niagara River are situated between two countries, Canada and the United States. It is located 27 km from the city of Buffalo in New York State, USA, and 69 km from the city of Toronto in Ontario, Canada. Niagara Falls is a marvelous tourist attraction and every year about 25 million tourists visit here, including 13 million in Niagara Falls, Canada, and 10 million in Niagara Falls, USA.
Images Curtsey Scientific Research scirp.org and tripadvisor
What is the history of Niagara Falls?
Niagara Falls is quite young. During the last Ice Age, around 12,600 years ago, the melting ice in Lake Erie and other factors caused the water level to rise and overflow. The water first cut through the hard upper layers of rocks and then the softer layers, creating the Niagara River, which flows over the approximately 100-meter-high Niagara Falls and meets Lake Ontario, resulting in a unique natural site for the world. It is also a UNESCO World Heritage Site.
Official information center for Niagra Falls - American Side
Strange and adventurous events that happened at Niagara
Nathan Boya fell into the waterfall in a ball-like object and survived.
The first Canadian to conquer this waterfall was Karel Soucek. Karel fell and survived.
That's all ! let's discuss something else.
When Niagara ran dry
It has happened twice that Niagara completely dried up.
March 29, 1848 This year, due to ice formation in Lake Erie, the flow of the Niagara River was halted for 40 hours.
1969 When for certian work engineers constructed the temporary dam, no one had seen the bare rocky surface of the American Falls since In 1969, around 100,000 people gathered to see the dry Niagara. Besides these occasions, Niagara Falls partially froze on several other occasions as well. On such occasions, crowds of tourists poured in.
First image 1848 (curtsey today in History, Second image 1969 (Curtsey Smithsonian
Our Niagara trip 2007
Walking Trail We stayed at a nice hotel very close to Niagara. Crossing the road in front of the hotel, we could access a park near the Niagara Falls, and the tour operator took everyone there on foot. Not much was visible at night, but the white water falling from the falls was shimmering. There was quite a crowd. We took some photos and returned. The next day, we had to return to New York in the afternoon. The Maid of the Mist and Cave of Winds, which takes you to the falls wearing a raincoat, were closed due to freezing weather. We could only walk around. We had an early breakfast in the morning and set out. Our first stop was the information center (photo above). Here, there were curio shops, information on Niagara, and a coffee shop. We were amazed to learn for the first time that the Niagara Falls had completely dried up twice as stated before. We departed from here on a tourist company's bus. We crossed a bridge over the river to American Falls and Bridal Veil Falls and arrived at Goat Island. Luna Island was also on the way.
Layout of Niagra National Park, Statue of Nicola Tesla at Niagra
There is a statue of Nikola Tesla on Goat Island. Nikola Tesla was a Serbian-American. He was an inventor, physicist, mechanical engineer, electrical engineer, and futurist. Tesla's fame is due to his unprecedented contributions to the field of modern AC electric power supply systems. In Niagara, he invented the alternator used for hydroelectric power generation. We went to Niagara in 2007, and this statue was erected in 2006. A short walk from Tesla's statue leads to Terrapin Point, from where you can see Horseshoe Falls up close. We couldn't go onto the platform that is very close to the falls because it was covered in ice, and no one was allowed to go there. We had to return soon because we needed to take our seats on the bus back to New York before the scheduled time from Goat Island. Our luggage, which we had packed and left at the hotel reception, had already been loaded onto the bus. On our return, we also visited the glass factory and saw the glass artworks and did some shopping. We also visited the glass factory on our return and saw the glass artworks and did some shopping. There was also an artwork made of glass brought from the palace of a king of India, which was a matter of pride for us. That's all for now.
I myself don't know what the topic of my next blog will be, so stay tuned.