फ़र्ज़ करें आप रास्ते पर चले जा रहे हो और अचानक एक कार आपके सामने से गुजर जाती है और आप देख कर हैरान हो जाते हैं कि कार में ड्राइवर ही नहीं है। आप क्या सोचेगे? खुद से चलने वाली कार बाजार में आ गई हैं या डर जाएंगे कि कोई भूत चला रहा है?
ड्राइवरलेस कार या autonomous कार का प्रयोगिक चलन कई अमेरिकन शहर जैसे फिनिक्स, लास एंजेलिस, सेन फ्रांसिस्को में जारी है । कई शहरों में ऐसी कार का उपयोग टैक्सी के रूप में शुरु भी हो गया है।
आम लोगों के लिए ऐसी कार एक भुतहा कार लग सकती है। एक स्टडी के अनुसार ड्राइवरलेस टैक्सी में सफर करना थोड़ा परेशान करने वाला अनुभव हो सकता है, कई लोगों के लिए शुरुआत में थोड़ा डर और अनिश्चितता हो सकती है, लेकिन यह यात्रा करने का एक सुरक्षित और कुशल तरीका भी हो सकता है। कुछ लोगों को यह अनुभव वाकई डरावना लगता है, खासकर इसकी नवीनता। वहीं कुछ लोग इसे ज़्यादा पसंद करते हैं और पारंपरिक टैक्सियों की तुलना में इसे बेहतर भी पाते हैं।
अमेरिका के फिनिक्स और औस्टिन शहर में उबर ने Baidu और Waymo जैसी कंपनियों के साथ साझेदारी का उपयोग करते हुए, चालक रहित कारों को बतौर टैक्सी तैनात भी कर दिया है । इन चालक रहित वाहनों को Uber की राइड-हेलिंग सेवा में एकीकृत किया जा रहा है, जिससे ग्राहकों को स्वचालित टैक्सी बुलाने का विकल्प मिलेगा । ऊबर वाले अन्य शहरों में भी भविष्य में इन चालक रहित टैक्सियों को लॉन्च करने की तैयारी कर रहे हैं। एक समाचार के अनुसार लोग 20-20 चालक सहित टैक्सी को decline कर रहे हैं ताकि उन्हें चालक रहित टैक्सी में सफर का अनुभव मिल सके।
Waymo Taxi San Francisco, फोटो Wiki के सौजन्य से
कैसे चलता है चालकरहित कार
मैं स्टील रोलिंग मिल के कंट्रोल से वाकिफ हूं। इसमें एक mode होता है optimisation ! इस मोड में कंट्रोल सिस्टम में प्रयोग होने वाले फार्मुला हर बार थोड़ा update होता है और एक समय ऐसा आता है सिस्टम इतना perfect हो जाता है कि सही सही product बनने लगता है। यानि हर बार सिस्टम कुछ सीखता है और याद रख लेता है। यही learning process कृत्रिम बुद्घिमत्ता या arficial intelligence का आधार है। जब हम कार चलाते हैं तो हम रोड के दूसरे उपयोग कर्ता के action को predict कर लेते है और तो और रोड के गड्ढे भी हमें याद हो जाते है। Three C का गुरू मंत्र हमें corner, child and cattle से सावधान रहना अवचेतन अवस्था में भी सिखा देता है। मानव मष्तिस्क का यह optimisation ही चालक रहित वाहन में उपयोग होने वाले artificial intelligence के जड़ में है। आखिर सीखने के बाद कई जानवर भी
सरकस में सायकल चला लेता है तो on board computer क्यों नहीं ? चालक रहित कार में हर तरह के सेंसर लगाने पड़ते हैं, आखिर मानव चालक कार में आंख, कान से देख सुन कर रोड के अवरोध, अन्य वाहन की स्थिति, सिग्नल के रंग, रोड पर के लेन मार्किंग, स्पीड लिमिट, वाहनों के हार्न, एम्बुलेंस के सायरन इत्यादि के अनुसार कार चलाते है। इन inputs को अपने अनुभव (यानि learning prpcess या मस्तिष्क के optimisation-जिसमें अन्य चालको के क्रिया प्रतिक्रिया का पुर्वानुमान भी सामिल है) के अनुसार analyze कर एक्सलेटर ब्रेक या स्टेयरिंग को दबाता या घुमाता है। कहना न होगा कि औटोमेटिक गियर वाली या एलेक्ट्रिक वाहन से क्लच पहले ही हट चुका है। लब्बो-लुआब यह है सब function तो चालक रहित कार में भी आवश्यक है। जिसमें सेंसर inputs को analyze करने और कार चलाने या कृयान्वित करने की जिम्मेदारी कार के optimized AI चलित ओन बोर्ड कंप्यूटर की होगी आगे इस पर और चालक रहित कार के औटोमेशन लेवल पर भी चर्चा करेंगे।
Robo racing car, फोटो Wikipedia के सौजन्य से
चालक रहित कारों में सेंसर:
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कैमरे: लेन में बने रहने, ट्रैफ़िक संकेतों की पहचान और वस्तुओं का पता लगाने के लिए दृश्य जानकारी प्रदान करते हैं।
** रडार: वस्तुओं की दूरी और गति मापते हैं, विशेष रूप से प्रतिकूल मौसम की स्थिति में उपयोगी। धुंध में जब मानव की आंखें देख नहीं सकती, वैसे मौसम में भी इसके भरोसे चालक रहित कार चल सकती हैं।
** LiDAR (लाइट डिटेक्शन एंड रेंजिंग): पर्यावरण का एक 3D मानचित्र बनाता है, जो विशेष रूप से वस्तुओं का पता लगाने और मानचित्रण के लिए उपयोगी है।
** अल्ट्रासोनिक सेंसर: पार्किंग सहायता जैसे नज़दीकी दूरी के पता लगाने के लिए उपयोग किए जाते हैं।
** इनके सिवा वाहन के आंतरिक स्थिति जैसे कार की स्पीड, acceleration, तापक्रम इत्यादि के लिए भी सेंसर होते है।
चालक रहित कारों के लेवल:
कई औटोमेशन feature मानव चलित कार में आने बहुत पहले से आते हैं जैसे ओटोमेटिक गियर,
क्रूश कंट्रोल, कैमरा और proximity sensor / alarm. पर कई feature आते गए जिससे कार में कई आटोमेशन लेवल हो गए।
सोसाइटी ऑफ ऑटोमोटिव इंजीनियर्स (SAE) इंटरनेशनल द्वारा कम कारों को परिभाषित किया गया है, जो स्तर 0 (नो ड्राइविंग ऑटोमेशन) से लेकर, जहाँ चालक का पूर्ण नियंत्रण होता है, स्तर 5 (पूर्ण ड्राइविंग ऑटोमेशन) तक है, जहाँ वाहन बिना किसी मानवीय हस्तक्षेप के, किसी भी परिस्थिति में, कहीं भी स्वयं चल सकता है। ये स्तर प्रौद्योगिकी की प्रगति को दर्शाते हैं।
** जहाँ स्तर 1-2 के लिए चालक की निरंतर निगरानी आवश्यक है,
** स्तर 3 के लिए चालक को विशिष्ट परिस्थितियों में पर्यवेक्षक बनने की अनुमति है, और
** स्तर 4-5 के लिए चालक की न्यूनतम या शून्य भागीदारी के साथ उच्च या पूर्ण स्वचालन की आवश्यकता होती है। ऐसे मेरी राय यह है कि मशीन सब कुछ सीख ले पर मानव मन के छठी इंद्री के सोच को नहीं समझ सकता।
लदा फदा ट्रोला
भारत में यदि ऐसी कार आ जाए
अब आप कल्पना कीजिए भारत में सब कंटीनेंट के शहरो में ऐसी कार लांच हो जाय । उन जगहों में जहां लेन ड्राइविंग ठीक ठाक follow की जाती है ऐसी कार तो आराम से चल लेगी पर जब फास्ट लेन में धीमी ट्रक चल रही हो या तीन लेन घेर कर लदी फदी ट्रोला आगे आगे चल रही या मोटर साइकिल लेन कटिंग कर रहे हो तो ऐसी कार कितनी गति से चल पाएगी यह कोई भी अनुमान लगा सकता है। ऐसे बाइकर्स द्वारा लेन कटिंग तो अमेरिका यूरोप में भी होता ही है आजकल। भारत में तो उन एक्सप्रेस वे पर भी बाइकर्स घुस जाते हैं जहां 2 wheelers बैन है। रास्ते पर पानी भरा हो या भयंकर बर्फ पड़ रही हो तो क्या ऐसी कार चल सकेगी ? पता नहीं।
ट्रैफिक सब कन्टीनेंट में
आशा है अब आप जब कभी भी स्वचलित कार देखेंगे तो उसे भूत चलित समझ कर नहीं डरेंगे, happy undriving !
Thursday, August 21, 2025
चालक रहित (Driverless) वाहन
Tuesday, August 19, 2025
धराली और ग्लोबल वार्मिंग
पिछले वर्ष नवंबर में उत्तराखंड के सिलक्यारा टनेल में हादसा हो गया और कई दिनों तक कई मजदूर फंसे रह गए। तब मैंने एक ब्लॉग लिखा था। क्लिक कर पढ़ें। इस बार भी उत्तराखंड और अन्य पहाड़ी राज्य कई आपदाओं से जूझ रहा है। क्यों होता है ऐसा ? और क्यों हम इसे रोक नहीं पाते इसे। आईए विचार करें।
हाल के दिनों में भारत के पहाड़ी राज्यों में अतिवृष्टि और भूस्खलन से होने वाली त्रासदी की कई घटनाएं हुई। हिमाचल के कई जिले के रास्ते अभी तक कटे बहे पड़े हैं।
उत्तराखंड के धरौली में हुई तबाही के बाद होने वाले rescue की खबर अभी TV पर चल ही रही थी कि जम्मू-कश्मीर के किस्तवार में बादल फटने की घटना में 46 तीर्थ यात्रियों (जो मचैल देवी की यात्रा पर थे) के मृत्यु और अनेकों के घायल होने की खबर आ गई। और कल की बात करे तो कठुआ (J and K ) में बदल फटने की घटना ने सात लोगों की जान लेली । इसमें अन्य नुकसान सामिल नहीं है।
धराली ABP / किस्तवार DD News के सौजन्य से
पड़ोसी देश की बात करे तो पाकिस्तान के राष्ट्रीय आपदा प्रबंधन प्राधिकरण के अनुसार, जलवायु परिवर्तन के कारण उत्तर-पश्चिमी पाकिस्तान में अचानक आई बाढ़ से कम से कम 337 लोगों की मौत हो गई है, जबकि हाल के दिनों में क्षेत्र में अचानक आई बाढ़ के कारण दर्जनों लोग लापता हैं। इसी प्रकार के समाचार यूरोप और अमेरिका से भी आ रहे है।
पाकिस्तान में बाढ़ 2025 हिन्दुस्तान टाइम्स के सौजन्य से
पिछले वर्ष (२०२४) यूरोप में करीब ४ लाख लोग बाढ़ से पीड़ित हो गए और इस वर्ष heat wave से पूरा यूरोप परेशान है । अब अमेरिका (USA ) की बात करते है CNN के अनुसार इस वर्ष जुलाई तक "कभी फुर्सत और राहत का पर्याय मानी जाने वाली गर्मी अब चिंता और उथल-पुथल का मौसम बन गई है। जीवाश्म ईंधन प्रदूषण और अन्य जटिल कारकों ने इन महीनों को बढ़ते ख़तरे के दौर में बदल दिया है, जिसमें लगातार गर्म लहरें, भीषण जंगल की आग और विनाशकारी बाढ़ शामिल हैं।"
USA में बाढ़ 2025, CNN के सौजन्य से
इन सभी आपदाओं का कारण क्या है ? इसका उत्तर है हमारे वैज्ञानिको के पास, बस सारी मानवता लाचार सी सब देख रही है और कई जगहों पर तो मानव ही इन आपदाओं का कारण बनता नज़र आता है। इनको समझना कोई रॉकेट साइंस नहीं है। कार्बन डाई ऑक्साइड और ऑक्सीजन साइकिल के बारे में ज़्यदातर लोगों ने पढ़ा ही होगा । प्रकृति ने एक ऐसा बैलेंस बनाया जिसमे कार्बन डाई ऑक्साइड को हमारे दोस्त वनस्पति / जंगल ऑक्सीजन में बदल देते है। हम अपनी CO2 बनाते है चाहे साँस लेने में या आग इत्यादि जलने में और प्रकृति उसे फिर ऑक्सीजन में बदल देती है इस तरह की CO2 और Oxygen की मात्रा वायुमंडल में स्थिर बनी रहे। लेकिंन मानव एक तरफ ज्यादा आग जलाता कर CO2 और गर्मी पैदा कर रहा है - कल कारखानों में , मोटर कारों में , हवाई जहाजों में और युद्ध में और दूसरी और CO2 को बदल कर ऑक्सीजन देने वाले जंगलों पेड़ों भी हम काट रहे है । नतीजा CO2 - ऑक्सीजन का संतुलन बिगड़ता जा रहा है। अब यही कार्बन डाई ऑक्साइड ऊपरी वायुमंडल में एक सतह बना कर धरती में पैदा होने वाली गर्मी को अंतरिक्ष में जाने से रोक देती है ।
धरती को कितनी गर्मी मिलती है और कितनी गर्मी धरती के वायुमंडल से बाहर चली जाती है इससे तापमान का एक संतुलन बनता है और वैश्विक औद्योगीकरण (१८५०-१९००) काल के पहले के संतुलन को आधार माना गया है - सभी अंतरास्ट्रीय समझौतों और प्रयत्नों के लिए। पेरिस समझौते के तहत, देशों ने वैश्विक ग्रीनहाउस गैस उत्सर्जन को काफी हद तक कम करने पर सहमति व्यक्त की, ताकि दीर्घकालिक वैश्विक औसत सतही तापमान वृद्धि को पूर्व-औद्योगिक स्तर से 2 डिग्री सेल्सियस से नीचे रखा जा सके और इसे 1.5 डिग्री सेल्सियस तक सीमित करने के प्रयास जारी रहें। हालाँकि ज़्यादातर देश पेरिस समझौते का हिस्सा हैं, लेकिन ईरान, लीबिया और यमन सहित कुछ देशों ने या तो इसकी पुष्टि नहीं की है या इससे बाहर निकल गए हैं। नए प्रशासन के तहत, संयुक्त राज्य अमेरिका ने भी समझौते से हटने की प्रक्रिया शुरू कर दी है। इन सब कारणों के अलावा मूमध्यीय प्रशांत महा सागर के उष्ण धाराओं के कारण होने वाले "एल नीनो" या "ला नीना" के कारण होने वाले जलवायु परिवर्तन इन समझौता का हिस्सा नहीं है।
भारत ने निम्नलिखित लक्ष्य इस दिशा में स्थापित किए है और बहुत कुछ हासिल भी किया है : " गैर-जीवाश्म ईंधन (renewable energy ) से स्थापित क्षमता का 40% प्राप्त करने का लक्ष्य। 2022 तक 175 गीगावाट नवीकरणीय ऊर्जा उत्पादन का लक्ष्य। 2.5 अरब टन कार्बन डाइऑक्साइड को अवशोषित करने के लिए वन क्षेत्र का विस्तार करने की योजना। शुल्क और सब्सिडी में कमी के माध्यम से जीवाश्म ईंधन पर निर्भरता कम करना। जुलाई 2025 तक भारत में सौर ऊर्जा की स्थापित क्षमता 119 गीगावाट थी। लेकिन जब तक विश्व के सभी अति विकसित देश इस दिशा में अपने अपने लक्ष्य न बनाये या सक्रिय रूप में इस दिशा में कार्य नहीं करते Global Warming कम नहीं की जा सकती।
निश्चित रूप से कोई एक देश अकेले Global Warming पर लगाम नहीं लगा सकता। पर त्रासदी के होने पर जान माल की हानि कम करने का प्रयत्न अवश्य कर सकता है। कहना न होगा की पहाड़ी क्षेत्रों में पर्यावरण बहुत नाज़ुक होता है और विकास के लिए किया प्रत्येक प्रोजेक्ट कुछ न कुछ हानि पंहुचा ही जाता है। मुझे याद है ८०'s तक गंगोत्री से हमारे पंडा जी जब जाड़ों में हमारे घर आते तो बताते की ऋषिकेश से ऊपर बहुत कम ही रोड है और उन्हें प्रायः पूरी दूरी पैदल तय करनी पड़ती है और अब हम चारधाम के गंगोत्री और बद्रीनाथ तक बस से जा सकते है और केदारनाथ और यमुनोत्री के काफी करीब तक रोड चली जाती है। हमने भी 2023 जून के उत्तराखंड ट्रिप में बहुत जगहों पर लैंड स्लाइड देखी थी। रोड , टनेल और जल विद्युत परियोजना सभी पहाड़ के लोगों के लिए आवश्यक है। पर शायद इनके सभी के planning /execution में हमसे कुछ कमी रह जाती है। या फिर इन विकास परियोजनाओं से पहाड़ी राज्यों पर पर्यटकों के आगमन पर अत्यधिक प्रभाव पड़ता है। जहां पर्यटन से निवासियों की आमदनी बढ़ती वहीं इससे अनियोजित होटल , मकान, दुकान, होम स्टे भी बन जाते हैं। पेड़ कट जाते हैं वो अलग। पर्यटक भी पर्यावरण का उचित ख्याल नहीं रखते।
यही कुछ धराली त्रासदी में जान माल के अत्यधिक नुकसान का कारण बन गया। समाचारों से जो निश्कर्श निकाला जा सकता है वह मैं आगे लिख रहा हूं । क्षीर गंगा नदी या गाद भागीरथी में मिलने के पहले एक त्रिकोणीय डेल्टा सा बनाता है। गंगोत्री तक बस आ जाने से यात्रियों की भीड़ प्रत्येक वर्ष बढ़ती जा रही है और धराली उनके खाने ठहरने का सबसे उपयुक्त और लोकप्रिय जगह बन गई है। नतीजन क्षीर गंगा के किनारे और उसके त्रिकोणीय डेल्टा पर कई होटल दुकान बन गये थे। लोग निश्चितं थे कि ये छोटी नदी अपने इन किनारों के बीच ही सीमित रहेगी। लेकिन जब अचानक से बहुत सी बारिश हुई तो ये छोटी नदी अपने प्राकृतिक रास्ते पर बह निकली ढ़ेरों मिट्टी और पत्थर के साथ। जब तक लोग संभलते सौ से अधिक लोग मलबों में दफन हो गए। भयानक बारिश से दो स्थान पर रोड भी बह गए, धंस गए और सहायता पहुंचने में देर भी हो गई। कई काम किए जा सकते हैं। पहला तो पर्यटक और कारों की संख्या परमिट इत्यादि से सीमित करना पड़ेगा। रोड जाम की समस्या से निजात भी तो चाहिए।
चोप्ता में जाम 2023, cantilever रोड
दूसरा कोई निर्माण स्थिर स्थलों पर हो , भूस्खलन संभावित क्षेत्र या नदी नालों के प्राकृतिक बहाव पर न हो। टनल भूस्खलन से निजात दिला सकता है, यदि इसके निर्माण में पहाड़ो के संतुलन को क्षति न पहुंचाई जाय। स्विट्जरलैंड में भूस्खलन संभावि स्थान पर कैंटीलीवर रास्ते जिन पर छत भी हो दिख जाते हैं । मैं जानता हूं कि रोड और पर्यावरण विशेषज्ञ के पास अवश्य कई और बेहतर विकल्प होंगे। आज बस इतना ही।
Wednesday, August 13, 2025
काठमांडू मनोरम मार्ग से
मैं या हम कब पिछली बार बीरगंज से सड़क मार्ग से काठमांडू आये थे अब याद भी नहीं। शायद १९९५-२००० के बीच में एक बार काठमंडू सड़क मार्ग से गए होंगे । जब से हमारे दोनों बच्चे दिल्ली- NCR मैं रहने लगे है हमेशा दिल्ली होकर ही नेपाल की हवाई यात्राी की है। पहले भी कलकत्ता से काठमांडू की फ्लाइट ले लेते थे । हाल में रक्षाबंधन के दिन पत्नी का प्रोग्राम बना। भतीजी US से आई हुई थी और उन्हें, भाईयों को राखी बांधने का अवसर भी मिल रहा था (बताता चलूँ मेरी श्रीमती का मायका काठमांडू में हैं ) हमारे विवाह के बाद पहली बार यानि ५२ वर्ष बाद । मैंने रांची से शताब्दी और आसनसोल से मिथिला एक्सप्रेस में रिजर्वेशन कर लिया। सावन में जसीडीह तक भीड़ होने की संभावना थी पर AC2 डिब्बे में कोई भीड़ नहीं हुई और हम आराम से रक्सौल पहुंच गए । रक्सौल भारत नेपाल सीमा पर भारत का एक busy शहर है । पहले नेपाल के बीरगंज से काठमांडू तक हवाई यात्रा की प्लानिंग थी पर मेरे साले साहब डॉ बिमल काठमांडू से गाड़ी लेकर बीरगंज आ गए थे और हमें लेने रक्सौल स्टेशन तक अपने बीरगंज के मित्र रमेश जी की गाड़ी लेकर आ गए। हमें तो बहुत ही सुविधा हो गयी लेकिन स्टेशन रोड से कस्टम के बीच के रेलवे क्रासिंग ने बहुत परेशान किया। करीब १ घंटे लग गए।
India rail info dot com के सौजन्य से
हम बीरगंज में थोड़ी देर रूक कर और रमेश जी के यहाँ लज़ीज़ नाश्ता कर काठमांडू के लिए निकल पड़े । पत्नी जी ने रमेश जी को राखी भी बांधी। हमारा पिछले अनुभव मुग्लिंग हो कर काठमांडू जाने का था जिसमे 290 KM का रास्ता तय करने में करीब १०-१२ घंटे में लगते थे पर बिमल जी ने बताया की इस बार हमें कुलेखनी - दक्षिण काली ही कर जाना है और 135 KM के रास्ता तय करने में ४-५ घंटे ही लगने वाले थे । बीरगंज से हम अमलेखगंज - हेटौंडा होकर भैसे पहुंचे । अमलेखगंज के रास्ते में हम वो ढाबा ढूंढने लगे जहाँ का वर्णन हमने अपने एक बस यात्रा वाले ब्लॉग में किया था । पर कहाँ १९९० की बात और कहाँ २०२५ का परिदृश्य। जंगल काट कर कई घर , मकान , दुकान और होटल बन गए है। लिंक पर यहाँ क्लिक कर वो पुराना अनुभव भी पढ़ सकते है।
भैसे से दो रास्ते अलग हो जाते है एक सिवभन्ज्याङ्ग - दमन - पालुंग -टीस्टुंग हो कर सबसे पुराना 'बाईरोड को बाटो' और दूसरा नया छोटा रास्ता। हम छोटे रास्ते के तरफ निकल लिए । ये रास्ता भीमफेदी हो कर जाता है । फ़ेदी का नेपाली शब्द है जिसका अर्थ है बेस जहां से पहाड़ शुरू होता है।
अभी के (२०२५) के यात्रा के कुछ दृश्य
मुझे काठमांडू यात्रा का अपना पहला अनुभव याद हो आया जब पता चला था की 'बाईरोड को बाटो' बनने के पहले यानि १९५० के पहले भीम फ़ेदी हो कर लोग पैदल काठमांडू जाए जाते थे और काठमांडू वैली की पहली कार भी इसी पैदल रास्ते से लोगों के कंधे पर गयी थी । मैं अपने पुराने ब्लॉग का लिंक यहाँ दे रहा हूँ। 1973 में की गई उस यात्रा ब्लॉग में मैंने लिखा था--
"अमलेखगंज
हम एक घंटे में अमलेखगंज पहुंच गए। पता चला पहले रेल गाड़ी यहाँ तक आती थी। गूगल करने पर पता चला की नेपाल सरकार रेलवे (NGR) नेपाल का पहला रेलवे था। 1927 में स्थापित और 1965 में बंद हुआ। 47 किमी लंबी ये रेलवे लाइन नैरो गेज थी और भारत में सीमा पार रक्सौल से अमलेखगंज तक था। आगे जाने पर चुरिया माई मन्दिर के पास सभी बसें रुक रही थी। पूजा करके ही बसें आगे बढ़ती थी । हमारी बस भी रुकी। पूजा कर खलासी ने सबको प्रसाद बाटें। जब बस आगे बढ़ी तो चुरिया माई का महात्म्य पता चला। अब बस चुरे या टूटते पहाड़ों (Land Sides prone) के ऋंखला से गुजर रही थी। अगला स्टॉप हेटौंडा था। यह एक औद्योगिक शहर है। अब यहाँ लम्बे पर सहज रास्ते से यानि महेन्द्र राज मार्ग से नारायणघाट और होकर मुंग्लिंग होते हुए भी काठमांडू जाया जा सकते है। तब ऐसा नहीं था। अगले स्टॉप भैसे ( एक जगह का नाम ) में एक छोटे पुल के पार बस रुकी दिन के खाने के लिए। इसके बाद चढ़ाई वाला रास्ता था, सो डर डर कर ताजी मछली भात खाये। अभी तक पुर्वी राप्ती नदी के किनारे किनारे चले जा रहे थे। रोड पर जगह जगह झरने की तरह स्वच्छ पानी गिर रहा था। नेपाली में इसे धारा कहते है। लोग इसी पानी में बर्तन कपडे धोने नहाने से लेकर पीने पकाने का पानी तक ले रहे थे। पानी ठंडा शीतल था और आँखों को बहुत अच्छा लग रहा था।
भैसे ब्रीज,, काठमाण्डु की पहली कार, कन्धों पर
रास्ते के बारे में पत्नी जी बताती जा रहीं थी। उन्होंनें बताया कि पहले तराई से काठमाण्डू घाटी लोग भीमफेदी होकर पैदल ही जाते थे। घाटी में पहली कार भी लोगों के कन्धे पर इसी रास्ते ले जाया गया था। 28 किमी का यह पैदल रास्ता लोग तकरीबन तीन दिनों मे पूरा करते थे। यह सोच कर मुझे घबराहट होने लगी कि यदि हमें भी पैदल जाना पड़ा तो कई बार 3000 फीट से 7000-8000 फीट चढ़ाई उतराई (रास्ते का चित्र देखें) चढाई करते क्या मै सही सलामत पहुंच भी पाता?"
भीमफेदी..भीमफेदी होकर पैदल रास्ता ऊंचाई का उतर चढाव देखे (AH42=त्रिभुवन राजपथ)
पैसा वसूल मार्ग / दृश्य
मैंने सोचा था पालुंग टिस्टुंग वाले रास्ते से अधिक scenic ये रास्ता थोड़े ही होगा। पर भैंसें से आगे बढ़ते ही मेरा कैमरा निकल आया। ऐसी वैली और ऐसे पहाड़। हमें दो बार 6000 फीट तक चढ़ना था और फिर उतरना था।
चितलांग का नाशपाती, नाशपाती बगान
पहले सुना था रास्ता संकरा और खतरनाक है, पर अब रास्ता काफी चौड़ा है। फिर भी सुमो शेयर टैक्सी वाले बहुत गंदा चलाते हैं और सावधानी की जरूरत है। पहाड़ बादलों से ढका था और कही कही मार्ग में दृश्यता काफी कम थी। सबसे ऊँची जगह से तो बादल हमारे नीचे दिख रहे थे और हम बादल के ऊपर।
हिल टॉप रेस्टोरेंट , एक झरना
यहीं पर है कुलेखानी जल विद्युत परियोजना है। कुलेखनी नदी जो बागमती की एक सहायक नदी है पर बांध बना है। इससे जो लेक बना है उसे ईंद्र सरोवर कहते हैं और यहां एक पर्यटक स्थल चितलांग भी है। तीन पावर प्लांट एक के नीचे एक लगाया गया है जो कुल ६० मेगावाट बिजली पैदा कर सकता है। हम जब नीचे जा रहे थे तब पिछले साल बांध के दो फाटक के अचानक खोलने से होने वाले बर्बादी देखे । कई स्थान पर सड़क बह गई थी और डाइवर्सन बनाए गए थे। नीचे उतरने के बाद फिर एक बार ६००० फीट की उंचाई तक जाना पड़ा जहां एक रेस्टोरेंट था। हम चाय सेल रोटी खाकर आगे बढ़ गए। एक तरह का नाशपाती यहां बहुतायत से होता है और उससे wine भी बनाया जाता है। जगह जगह फल के स्टाल लगे थे । हम भी चार किलो नाशपाती खरीद कर आगे बढ़े। दक्षिण काली और फारफिंग होते हुए हम काठमांडू पहुंचे।
Monday, August 4, 2025
हमारे पास के 2 और शिवमंदिर सावन में शिवधाम भाग 7
सावन में शिव के धाम सीरीज का यह अंतिम क़िस्त है। इस भाग में दो शिव धामों का वर्णन करेंगे। अशोक धाम - लखीसराय , हरिहर महादेव सोनपुर !
कुछ वर्ष बीत गए समस्तीपुर से लौटते समय मैंने ड्राइवर से पूछा कि अशोक धाम कहाँ है। हम उस मंदिर तक जाने वाली सड़क के बहुत पास थे। ड्राइवर ने चुटकी लेते हुए कहा, "वहाँ जाना चाहेंगे ?" और मैं उसके दिए प्रलोभन का विरोध नहीं कर सका और तुरंत मान गया।मनो शिव जी ने हमें दर्शन के लिए बुलाया था। हम उसी समय अशोक धाम गए थे, जिसे अब श्री इंद्रदमनेश्वर महादेव कहा जाता है।
लगभग 52 साल पहले, 1973 में, अशोक नाम का एक 9-10 साल का बच्चा खेत में खेल रहा था, तभी उसे लगभग 20 फुट ऊँचे टीले से पत्थर जैसी कोई चीज़ झाँकती हुई दिखाई दी। जब टीले को खोदा गया, तो एक विशाल प्राचीन शिवलिंग मिला। कई अन्य प्राचीन कलाकृतियाँ और मूर्तियाँ भी मिलीं। उस समय अखबारों में कई लेख लिखे गए थे जिनमें दावा किया गया था कि यह स्थान वास्तव में हरिहर क्षेत्र है (जिसके बारे में भी मै इसी ब्लॉग में लिखनेवाला हूँ ) क्योंकि पास से हरोहर नदी बहती है।
अशोक धाम लखीसराय
अब यह जगह एक भव्य मंदिर परिसर के रूप में विकसित हो चुकी है, जिसमें एक सुंदर धर्मशाला आदि भी है। यह जगह लखीसराय से लगभग 5-7 किमी दूर है। वहाँ ली गई कुछ तस्वीरें यहाँ साझा की गई हैं। दर्शन करने लायक जगह है यह!
अशोक धाम लखीसराय , एक चित्र विकिपीडिया से ली गई है
हरिहर महादेव
हम हाजीपर में था एक पारिवारिक कार्यक्रम में गए थे । हमारे पास एक दिन था और हमने वैशाली घूम लेने का फैसला लिया । एक और फैसला लिया गया की हम सुबह सिर्फ चाय पी कर चलेंगे .. सबसे पहले प्रसिद्द हरिहरनाथ मंदिर , वह पूजा करेंगे नाश्ता करेंगे और फिर निकल चलेंगे वैशाली के भग्नावशेष देखने ।
हम लोग चौरसिया चौक के पास कन्हेरी घाट रोड की तरफ से मुड़ गए और गूगल मैप के सहारे चल पड़े । रास्ते में एक संकरा पुल पड़ा जो गंडक नदी के उपर था । इतना संकरा की दो गाड़िया मुश्किल से ही निकले। दोनों तरफ साइकिल और मोटर साइकिल के लिए भी पुल बने थे पर सभी साइकिल वाले बीच से ही चलते । जैसे ही पुल पार हुआ वो चौक आ गया जहाँ गज ग्राह की खूबसरत सी प्रतिमा लगी थी । हमने गाड़ी रुकवाई और एक दो फोटो खींच लिए ।
हरिहरनाथ मन्दिर, गन्डक गन्गा सन्गम गज ग्राह मुर्ति चौराहा , सोनपुर
वहां से हरिहरनाथ मंदिर नज़दीक ही था । हम लोग गंडक के किनारे किनारे बढ़े ही जा रहे की पता चला मंदिर था गेट और रास्ता पीछे ही रह गया । हमे थोड़ा पीछे जाना पड़ा । छोटा सा बाजार था । मिठाईयों की दुकान , पूजा से सामानों की दूकान , खिलोने वैगेरह की दूकान थी , एक मिनी देवघर।
हम लोग एक दूकान पर रुक कर पूजा की डलिया, फूल, नारियल, सिंदूर, धुप बत्ती लेकर मंदिर की और गए। यहाँ तरह तरह के पंडा मिलते है जो सालाना पूजा के नाम पर रकम मांगते है। हम कुछ दे दिला कर मंदिर से बाहर आ गए और प्रांगण में कुछ भी फोटोग्राफी की ।
हरिहर नाथ का इतिहास
हरिहर क्षेत्र के महत्व को लेकर ग्रंथों में भगवान विष्णु व भगवान शिव के जल क्रीड़ा का वर्णन किया गया है। इस ग्रंथ के अनुसार महर्षि गौतम के आश्रम में वाणासुर अपने कुल गुरु शुक्राचार्य, भक्त शिरोमणि प्रह्लाद एवं दैत्य राज वृषपर्वा के साथ पहुंचे और सामान्य अतिथि के रूप में रहने लगे।
वृषपर्वा भगवान शंकर के पुजारी थे। एक दिन प्रात: काल में वृषपर्वा भगवान शंकर की पूजा कर रहे थे। इसी बीच गौतम मुनि के प्रिय शिष्य शंकरात्मा वृषपर्वा और भगवान शंकर की मूर्ति के बीच खड़े हो गये। और इससे वृषपर्वा क्रोधित हो गये। और उन्होंने तलवार से वार कर शंकरात्मा का सिर धर से अलग कर दिया। जब महर्षि गौतम को इसकी सूचना मिली वे अपने आपको संभाल नहीं सके और योग बल से अपना शरीर त्याग दिये। अतिथियों ने भी इस घटना को एक कलंक समझा। इस घटना से दुखित शुक्राचार्य ने भी अपना शरीर त्याग दिया। देखते-देखते महर्षि गौतम के आश्रम में शिव भक्तों के शव की ढे़र लग गयी। गौतम पत्नी अहिल्या विलाप कर भगवान शिव को पुकारने लगी। अहिल्या की पुकार पर भगवान शिव आश्रम में पहुंच गये। भगवान शंकर ने अपनी कृपा से महर्षि गौतम व अन्य सभी लोगों को जीवित कर दिया। सभी लोग भगवान शिव की अराधना करने लगे। इसी बीच आश्रम में मौजूद भक्त प्रह्लाद भगवान विष्णु की अराधना किये। भक्त की अराधना सुन भगवान विष्णु भी आश्रम में पहुंच गये। भगवान विष्णु और शिव को आश्रम में देख अहिल्या ने उन्हे अतिथ्य को स्वीकार कर प्रसाद ग्रहण करने की बात कही। यह कहकर अहिल्या प्रभु के लिए भोजन बनाने चलीं गयीं। भोजन में विलम्ब देख भगवान शिव व भगवान विष्णु सरयू नदी में स्नान करने गये सरयू नदी में जल क्रीड़ा करते हुए भगवान शिव और भगवान विष्णु नारायणी नदी(गंडक) में पहुंच गये। प्रभु की इस लीला के मनोहर दृश्य को देख ब्रह्मा भी वहां पहुंच गये और देखते-देखते अन्य देवता भी नारायणी नदी के तट पर पहुंचे। जल क्रीड़ा के दौरान ही भगवान शिव ने कहा कि भगवान विष्णु मुझे पार्वती से भी प्रिय हैं। यह सुनकर माता पार्वती क्रोधित होकर वहां पहुंची। बाद में भगवान शिव ने अपनी बातों से माता के क्रोध को शांत किया। ग्रंथ के अनुसार यही कारण है कि नारायणी नदी के तट पर भगवान विष्णु व शिव के साथ-साथ माता पार्वती भी स्थापित है जिनकी पूजा अर्चना वहां की जाती है। इसी कारण सोनपुर का पूरा इलाका हरिहर क्षेत्र माना जाता है। चूंकि यहां भगवान विष्णु व शिव ने जलक्रीड़ा किया इसलिए यह क्षेत्र हरिहर क्षेत्र (हरि= श्री विष्णु, हर= शिव जी) के नाम से प्रसिद्ध है।
इसीलिए यह इलाका शैव व वैष्णव संप्रदाय के लोगों के लिए काफी महत्वपूर्ण है। इसी हरिहर क्षेत्र में कार्तिक पूर्णिमा से एक माह का मेला लगता है। पहले तो यह पशु मेला के रूप में विश्वविख्यात था। लेकिन अब इसे और आकर्षक बनाया गया है।
गज ग्राह की कहानी तो आपको पता ही होगा । जब गज की पुकार पर हरि दौड़े आये ग्राह यानि मगरमच्छ से गज की जान बचाई । पुराणों के अनुसार, श्री विष्णु के दो भक्त जय और विजय शापित होकर हाथी ( गज ) व मगरमच्छ ( ग्राह ) के रूप में धरती पर उत्पन्न हुए थे। पौराणिक कथाओं के अनुसार, गंडक नदी में एक दिन कोनहारा के तट पर जब गज पानी पीने आया तो ग्राह ने उसे पकड़ लिया। फिर गज ग्राह से छुटकारा पाने के लिए कई वर्षों तक लड़ता रहा। तब गज ने बड़े ही मार्मिक भाव से हरि यानी विष्णु को याद किया। जिन्होंने प्रकट हो कर मगरमच्छ से गज को बचाया ।
Tuesday, July 29, 2025
इटखोरी सावन में शिवधाम भाग 6
सावन में शिव के धाम पर एक सिरिज लिख रहा हूं। कई और शिव मंदिर के विषय में लिखने का मेरी इच्छा है। आज मैं इटखोरी के सहस्त्र शिवलिंग के विषय में लिख रहा हूं।
इटखोरी रांची से १५० किलोमीटर दूर इटखोरी चतरा जिले का एक ऐतिहासिक पर्यटन स्थल होने के साथ-साथ प्रसिद्ध बौद्ध केंद्र भी है, जो अपने प्राचीन मंदिरों और पुरातात्विक स्थलों के लिए जाना जाता है। 200 ईसा पूर्व और 9वीं शताब्दी के बीच के बुद्ध, जैन और सनातन धर्म से जुड़े विभिन्न अवशेष यहां पाए गए हैं। पवित्र महाने एवं बक्सा नदी के संगम पर अवस्थित हैं इटखोरी का भद्रकाली मंदिर । मंदिर के पास महाने नदी एक यू शेप में है । कहा जाता हैं की कपिलवस्तु के राजकुमार सिद्धार्थ घर संसार त्याग कर सबसे पहले यही आये थे । उनकी छोटी माँ (मौसी) उन्हें मानाने यहीं आयी पर सिद्धार्थ वापस जाने को तैय्यार नहीं हुए तब उन्होंने कहा इत खोई यानि "I lost him here "
हम कोरोना काल खत्म होने पर था तब गए थे वहां। इटखोरी मुख्यतः भद्रकाली मंदिर के लिए प्रसिद्ध है पर यहां सहस्र शिवलिंग और सहस्र बुद्ध के लिए भी प्रसिद्ध है।
सहस्र शिव लिंग और सहस्र बोधिसत्व (स्तूप)
सहस्त्र शिवलिंग मैंने पहली बार देखा था। मुख्य भद्रकाली मंदिर की पूजा के बाद हम शनि मंदिर, पंच मुखी हनुमान मंदिर और शिव मंदिर में पूजा करने गए । शिव लिंग करीब ४ फ़ीट ऊँचा है और उस पर १००८ शिव लिंग उकेरे हुए हैं । राँची वापस जाते समय पद्मा के पास एक बहुत अच्छी चाय पी थी और लौटते समय पद्मा गेट (रामगढ राजा के महल का गेट जो अब पुलिस ट्रेनिंग केन्द्र है) के पास चाय पी और जब पता चला बहुत अच्छा कम चीनी वाला पेड़ा मिलता हैं तो खरीद भी लाया ।
इटखोरी में श्रावण मेला, जिसे भदुली मेला भी कहा जाता है, एक धार्मिक आयोजन है जो मां भद्रकाली मंदिर में आयोजित होता है। यह मेला श्रावण (सावन) के महीने में लगता है, जो हिंदू कैलेंडर का एक पवित्र महीना है, और भगवान शिव और देवी काली को समर्पित है।
Monday, July 28, 2025
जमुई कोर्ट मंदिर सावन में शिव के धाम भाग -5
सावन में शिव के धाम पर एक सिरिज लिख रहा हूं। कई और शिव मंदिर के विषय में लिखने का मेरी इच्छा है। पर मैं उस शिव मंदिर को कैसे भूल सकता हूं जिससे मेरे बचपन की अनेकों यादें जुड़ी हैं। जमुई कोर्ट में स्थित है 100 वर्ष से भी प्राचीन मंदिर। हमारे पुश्तैनी मकान से कुछ ही दूर स्थित जमुई सिविल कोर्ट परिसर में तब कोई बाउंड्री नहीं थी। हम बच्चों का खेल का मैदान । जमुई स्टेशन से घर आते वक्त हमारा टमटम इसी परिसर हो कर गुजरता था। हम जमुई के हाई स्कूल भी इसी परिसर होकर जाते छठ में हम लोग कियूल नदी घाट भी इधर हो कर ही जाते। हमारा रास्ता तो बंद हो गया है, और अन्य रास्तों पर लगे हमेशा के अवरोध कोई नहीं हटाता।
इस शिव मंदिर के गर्भ गृह में शिवलिंग स्थापित है। कुछ मुर्तियां ताखों पर स्थापित है। एक पुराना हनुमान मंदिर भी है जहां ध्वजा भी स्थापित है। बरामदा चारों तरफ है और पहले उत्तर के तरफ एक चबूतरा बना था। अब कुछ और मुर्तियां भी स्थापित की गई है।
इस परिसर में ही हम लट्टू, गुल्ली डंडा, गोली (कंचे) खेलते। इस परिसर में एक पेड़ भी था। जिस पर अंधेरा होने पर भूत होने का वहम हम बच्चों को था और शाम होने पर हम दौड़ कर जाते हैं। और तो और कैंची हो कर सायकल चलाना भी मैंने यही सीखी। इसी परिसर में हैं एक बहुत प्राचीन शिव मन्दिर। बचपन में इस मंदिर में मोहल्ले के भजन कीर्तन होते रहते थे और मैं हमेशा झाल बजाने चला जाता था। परिवार के हर तरह के पुजा पाठ, विवाह के बाद गोर लगाई इत्यादि इसी मंदिर में होती आई है और अब भी होती है। मंदिर के बाउंड्री के पार मां लोग बरगद के नीचे वर पूजा के लिए जाती थीं। किसी बात पर गुस्सा होने पर और कभी कभी सुई के डर से छिपने की जगह भी थी यह। अब कई नए मंदिर पास में ही बन गया है पर इस मंदिर की बात अलग है। अब इस मंदिर की बाउंड्री गेट बन गई है और एक देवी मंदिर और यज्ञशाला भी बन गया है । इस मंदिर के फर्श पर पहले जहांगीर लिखा होता था। हमारे ननिहाल कमला, बेगुसराय के कोई जहांगीर बाबा थे। शायद पुलिस में थे और उन्होंने ही इस मंदिर को बनवाया था। अब उनका नाम टाईल्स के नीचे दब गया है।
मैं अतीत की सुखद स्मृति में खो गया हूं। आइए हम वर्तमान में वापस चले। कुछ अन्य मंदिरों के बारे में कुछ और ब्लॉग ले कर फिर हाज़िर होऊंगा।
Thursday, July 24, 2025
महादेव सिमरिया सावन में शिव के धाम भाग -4
सावन के महीने में शिव दर्शन के लिए यात्राओं और आस पड़ोस की मंदिरों पर समर्पित है मेरा यह ब्लॉग सीरीज ।
अब मैं उन शिव धामों के बारे में लिख रहा हूं जो हमारे नजदीक है और मैं वहां जा चुका हूं। इस ब्लॉग मे महादेव सिमरिया
महादेव सिमरिया मेरे पुश्तैनी शहर जमुई (बिहार) से 12 km दूर है यह मंदिर। इस मन्दिर का इतिहास भी काफी रोचक है।
जमुई। सिकन्दरा-जमुई मुख्यमार्ग पर अवस्थित बाबा धनेश्वर नाथ मंदिर आज भी लोगों के बीच आस्था का केंद्र बना हुआ है। जहा लोग सच्चे मन से जो भी कामना करते हैं उसकी कामना की पूर्ति बाबा धनेश्वरनाथ की कृपा से अवश्य पूरी हो जाती है। बाबा धनेश्वर नाथ शिव मंदिर स्वयंभू शिवलिंग है। इसे बाबा वैद्यनाथ के उपलिंग के रूप में जाना जाता है। प्राचीन मान्यता के अनुसार यह शिवमंदिर प्राचीन काल से है। जहां बिहार ही नहीं वरन दूसरे राच्य जैसे झारखंड, पश्चिम बंगाल आदि से श्रद्धालु नर-नारी पहुंचते हैं। पूरे वर्ष इस मंदिर में पूजन दर्शन, उपनयन, मुंडन आदि अनुष्ठान करने के लिए श्रद्धालुओं का ताता लगा रहता है।
मंदिर परिसर, और परिसर स्थित एक भग्न मुर्ती
मंदिर की सरंचना एवं स्थापना
इस मंदिर के चारों और शिवगंगा बनी हुई है। मंदिर का मुख्य द्वार पूरब दिशा की ओर है। मंदिर परिसर में सात मंदिर है जिसमें भगवान शंकर मंदिर के गर्भगृह में अवस्थित शिवलिंग की स्थापना को लेकर मान्यता है कि पुरातन समय में धनवे गाव निवासी धनेश्वर नाम कुम्हार जाति का व्यक्ति मिट्टी का बर्तन बनाने हेतु प्रत्येक दिन की भाति मिट्टी लाया करता था। एक दिन मिट्टी लाने के क्रम में उसके कुदाल से एक पत्थर टकराया। उस पर कुदाल का निशान पड़ गया। उसने उस पत्थर को निकालकर बाहर कर दिया। अगले दिन पुन: मिट्टी लेने के क्रम में वह पत्थर उसी स्थान पर मिला। बार-बार पत्थर निकलने से तंग आकर धनेश्वर ने उसे दक्षिण दिशा में कुछ दूर जाकर गडढे कर उसे मिट्टी से ढक दिया। उसी दिन मानें तो जैसे रात्रि महाशिवरात्रि सा लग रहा था। कालांतर में वहां एक मंदिर स्थापित किया गया
महादेव सिमरिया में श्रावणी मेला
गिद्धौर के महाराजा ने की मंदिर की प्राण-प्रतिष्ठा
ऐसी मान्यता है कि १६ वीं शताब्दी में गिद्धौर (यानि चंदेल वंश) के तत्कालीन महाराजा पूरनमल सिंह हर दिन देवघर जाकर शिवलिंग पर जल चढ़ाने के उपरांत ही भोजन किया करते थे। एक बार जब वे सिकन्दरा, लछुआड़ में थे तब रास्ते में पड़ने वाली किउल नदी में बाढ़ आने के बाद वे कई दिन नदी पार कर देवघर नहीं जा पाए। रात्रि में स्वप्न आया कि मैं तुम्हारे राज्य में प्रकट होउंगा। सिकन्दरा से देवघर जाने के दौरान सुबह सबेरे महादेव सिमरिया के शिवडीह में लोगों की भीड़ देखकर राजा वहां पहुंचे तो स्वत: प्रकट शिवलिंग पाया। जैसा उन्हें देवघर के भगवान शंकर ने स्वप्न में बताया था। राजा ने वहां एक भव्य मंदिर बनाया और स्वप्न के अनुसार देवघर में पूजा का जो फल प्राप्त होता है वहीं महादेव सिमरिया की पूजा से प्राप्त है। चुकि कुंभकार की मिट्टी खुदाई के दौरान यह शिवलिंग प्रकट हुआ था। इस कारण महादेव सिमरिया में ब्राह्माणों की जगह आज भी कुंभकार ही पंडित का कार्य करते हैं।
हम 2018 में वहां गए थे और पूजा अर्चना की थी।
महादेव सिमरिया शिव मंदिर जमुई -सिकंदरा मार्ग पर मुख्य सड़क से कुछ 300 मीटर पर स्थित है और जमुई और सिकंदरा दोनों से करीब है। जमुई हावड़ा - पटना रेल मार्ग का एक स्टेशन है और सिकंदरा का भी करीबी रेल स्टेशन है। सिकंदरा नवादा या लक्खीसराय से भी सड़क मार्ग से पहुंचा जा सकता है।
Tuesday, July 22, 2025
वैद्यनाथ धाम सावन में शिव के धाम भाग -3
सावन के महीने में शिव दर्शन के लिए यात्राओं और आस पड़ोस की मंदिरों पर समर्पित है मेरा यह ब्लॉग सीरीज ।
अब मैं उन शिव धामों के बारे में लिख रहा हूं जो हमारे नजदीक है और मैं वहां जा चुका हूं।
बैद्यनाथ धाम, देवघर आज मैं देवघर,झारखण्ड स्थित बैद्यनाथ धाम की बात करूंगा मेरे Home Town जमुई से मात्र 100 KM पर स्थित है यह देव स्थान। हम बचपन से जाते रहे है। हमारे परिवार के सारे शुभ कार्य मुन्डन वैगेरह यही होते रहे है। जाने का सबसे सुलभ तरीका है रेल से जाना। पटना हो कर हावड़ा से दिल्ली रेल रथ पर स्थित जसीडिह ज० से देवघर 8 KM की दूरी पर है और जसिडीह से लोकल ट्रेन या औटो से देवघर जाया जा सकता है। हम कई बार ट्रेन, कार या बस से देवघर जा चुके है पर कांवर ले कर सुल्तानगंज से जल ले कर पैदल - नंगे पांव बाबा दर्शन को जाना रोचक और रोमांचक दोनो था ।
हमारी कांवर यात्रा के कुछ दृश्य
मैंने पांच बार प्रयास किया है। मै एक ग्रुप के साथ 4 बार 100-105 KM कि०मी० यह यात्रा पूरी कर चुका हूँ सावन के महिने में प्ररम्भ में या अंत में। पहली बार मै अकेले ही निकल पड़ा था लेकिन पक्की सड़क और धूप को avoid करना चाहिए यह ज्ञान न होने के कारण और गैर जरूरी जोश के कारण 20 कि०मी० की यात्रा के बाद ही पांव में आए फफोलो ने मेरी हिम्मत तोड़ दी और साथ साथ चलने वाले कांवरियों के लाख हिम्मत दिलाने पर भी आगे नहीं जा सका और रास्ते में पड़ने वाले एक शिवालय में ही बाबा को जल अर्पण कर लौट आया। बिन गुरू होत न ज्ञान रे मनवां। कावंर यात्रा में मेरे गुरू बने मेरे छोटे बहनोई सन्नू जी और उनके छोटे भाई। उन्हें परिवार सहित कांवर में जाने का 14-15 साल का अनुभव था और मैने बहुत कुछ कांवर के बारे में उनसे हीं सीखा। जब मैं बच्चा था तो उमर गर (senior citizen) बबा जी मामू को कांवर पर हर वर्ष जाते देखता था। गांव से ही कांवर ले कर चलते सिमरिया घाट पर ही जल भर कर वे नंगे पांव चल पड़ते थे यानि 50 सांठ मील की अतिरिक्त यात्रा। पहले सरकार के तरफ से कुछ प्रंबध नहीं होता और यात्री भी कम होते थे अतः राशन साथ ही ले चलना पड़ता होगा। जगह जगह रूक कर खाना पकाना खाना नहाना। कंकड़ पत्थर पर चलना खास कर सुईयां पहाड़ पर, या लुट जाने का खतरा झेलते यात्रा करनी पड़ती थी। अब सावन में रोड के किनारे मिट्टी डाला जाता है और, जगह जगह खाने पीने की दुकानें भी सज जाती है। कई संगठनों द्वारा सहायता शिविर, प्रथम उपचार केन्द्र, मुफ्त चाय, नाश्ता, पैर सेकने को गरम पानी और मेले सा माहौल से ये यात्रा काफी सुगम हो गई है। जगह जगह धर्मशालाएं है। लेकिन अब भी यदि अषाढ़, सावन, भादों को छोड़ दिया जाय तो अन्य दिनों में ये यात्रा बहुत सुगम नहीं हैं। मैने गजियाबाद के प्रवास के दौरान कावड़ यात्रियों को देखा है,जो ज्यादा लम्बी यत्राएं करते हैं पर जो बात देवघर कांवर यात्रा को कठिन बनाती है वह है नंगे पांव चलने का हठयोग। मै इस यात्रा का रूट नीचे दे रहा हूँ।
कांवर यात्रा का रूट
बाबा मंदिर के कुछ दृश्य:
बासुकीनाथ और बाबा बैद्यनाथ मंदिर
बैद्यनाथ के दर्शन को आने वाले भक्त बासुकीनाथ जाना नहीं भूलते। एक कहावत प्रचलित है बैद्यनाथ यदि सिविल कोर्ट है तो बासुकीनाथ फौजदारी कोर्ट है जहां न्याय जल्दी मिलता है। लोग यहां का प्रसिद्ध पेड़ा (बाबा मंदिर के पास) या बासुकीनाथ के रास्ते में पड़ने वाले घोरमारा गांव से भक्त खरीद कर प्रसाद के रूप में घर ले जाते हैं।
इस सीरीज के अगले ब्लॉग में कुछ और मंदिरों के बारे में।
अमरनाथ सावन में शिव के धाम भाग -2
सावन के महीने में शिव दर्शन के लिए यात्राओं और आस पड़ोस की मंदिरों पर समर्पित है मेरा यह ब्लॉग सीरीज । सबसे पहले उन यात्राओं के पर मैं लिख रहा हूँ जो मैंने नहीं किया या पूरा नहीं कर पाया और अपने उम्र के इस पड़ाव में कर न पाऊँ पर मैंने जो भी जानकारी उपलब्ध की अपने उन जानने वालों से जिन्होंने यात्राएं की या फिर अन्य साधनों से जो मैंने इस आशा से कभी एकत्रित की की कभी वहां जा पाऊं। ये दूसरा भाग अमरनाथ जी की यात्रा पर लिख रहा हूं।
विकी मिडिया और हिन्दुस्तान से साभार
अमरनाथ की कथा
अमरनाथ गुफा जम्मू और कश्मीर में स्थित एक पवित्र गुफा है, जो भगवान शिव को समर्पित है।
अमरनाथ जी की कथा यह है: देवी पार्वती के मन को एक प्रश्न उद्वेलित कर रहा था कि शिव तो अजर अमर है पर मुझे हर जन्म के बाद नए स्वरूप में जन्म ले कर शिव को प्राप्त करने के लिए कठोर तपस्या करनी पड़ती है। एक बार देवी पार्वती ने देवों के देव महादेव से यह पूछ ही लिया।
महादेव ने पहले तो देवी पार्वती को टालने की कोशिश की। पर त्रिया हठ के आगे किसकी चली है ? उन्हें यह गूढ़ रहस्य उन्हें बताने ही पडे़। शिव महापुराण में इस कथा का वर्णन है जिसे भक्तजन अमरत्व की कथा के रूप में जानते हैं।
भगवान शिव एक ऐसा स्थान ढूंढ़ने लगे जहां यह कथा देवी पार्वती के सिवा कोई और न सुने।
पौराणिक मान्यताओं के अनुसार, अमरनाथ की गुफा ही वह स्थान है जहां भगवान शिव ने पार्वती को अमर होने के गुप्त रहस्य बतलाए थे, उस दौरान वहां उन दो दिव्य ज्योतियों के अलावा तीसरा कोई प्राणी नहीं था। न महादेव का नंदी और न हीं उनका नाग, न सिर पर चंद्रमा और न ही गणपति, कार्तिकेय….!
महादेव ने अपने वाहन नंदी को सबसे पहले छोड़ा, नंदी जिस जगह पर छूटा, उसे ही बैलगांव या पहलगाम कहा जाने लगा। अमरनाथ यात्रा यहीं से शुरू होती है। यहां से थोडा़ आगे चलने पर शिवजी ने अपनी जटाओं से चंद्रमा को अलग कर दिया,
वो स्थान चंदनवाड़ी कहलाती है। इसके बाद गंगा जी और पंच तत्वों को पंचतरणी में और कंठाभूषण सर्पों को शेषनाग नामक स्थानों पर छोड़ दिया।
अमरनाथ यात्रा में अगला पडा़व है गणेश टॉप, मान्यता है कि इसी स्थान पर महादेव ने पुत्र गणेश को छोड़ा। इस जगह को महागुणा का पर्वत भी कहते हैं। इसके बाद महादेव ने जहां कीट पतंगों को त्यागा, वह जगह पिस्सू घाटी है।
इसके पश्चात् पार्वती संग एक गुफा में महादेव ने प्रवेश किया। तांकि कोई तीसरा प्राणी व्यक्ति, पशु या पक्षी गुफा के अंदर घुस कथा को न सुन सके इसलिए उन्होंने चारों ओर अग्नि प्रज्जवलित कर दी। फिर महादेव ने जीवन के गूढ़ रहस्य की कथा सुनाई।
अमरनाथ यात्रा का पंजीकरण
चारधाम की तरह अमरनाथ यात्रा करने के लिए भी पहले पंजीकरण करना जरूरी है। ऑनलाइन और ऑफलाइन दोनों तरीकों से पंजीकरण किया जा सकता है। ऑनलाइन पंजीकरण श्री अमरनाथजी श्राइन बोर्ड (एसएएसबी) की आधिकारिक वेबसाइट jksasb.nic.in पर किया जा सकता है। ऑफलाइन पंजीकरण जम्मू-कश्मीर बैंक, येस बैंक, पीएनबी बैंक और एसबीआई की कई शाखाओं में किया जाता है।
आवश्यक बातें।
13 से 70 वर्ष के व्यक्ति ही यह यात्रा कर सकतें हैं। अमरनाथ यात्रा के लिए रजिस्ट्रशन करते समय आपके पास अपनी 4 पासपोर्ट साइज फोटो, वेरिफिकेशन के लिए आधार कार्ड, पासपोर्ट, वोटर आईडी, ड्राइविंग लाइसेंस में से कोई एक चीज होनी चाहिए। आप जिस राज्य में रहते हैं, वहां के डॉक्टर का बनाया हुआ हेल्थ सर्टिफिकेट और यात्रा एप्लिकेशन फॉर्म की जरूरत होती है। आनलाइन आवेदन में यही सब अपलोड करना पड़ता है। रजिस्ट्रेशन के लिए कुछ रकम भी जमा करनी पड़ती है जो 2025 के लिए 220/- रूपए है।
अमरनाथ यात्रा रजिस्ट्रेशन के बाद क्या होता है ?
1. यात्रा परमिट (Yatra Permit):
रजिस्ट्रेशन के बाद, आपको एक यात्रा परमिट मिलेगा, जिसमें आपकी जानकारी, यात्रा की तारीख और मार्ग (बालटाल या पहलगाम) का उल्लेख होगा।
2. मेडिकल जांच:
आपको किसी अधिकृत अस्पताल से स्वास्थ्य प्रमाण पत्र (CHC) प्राप्त करना होगा।
3. बायोमेट्रिक और आधार सत्यापन:
आपको सरस्वती धाम में बायोमेट्रिक और आधार सत्यापन करवाना होगा।
4. RFID कार्ड:
सत्यापन के बाद, आपको RFID कार्ड जारी किया जाएगा।
5. यात्रा:
RFID कार्ड और अन्य आवश्यक दस्तावेजों (जैसे स्वास्थ्य प्रमाण पत्र, फोटो, आदि) के साथ, आप अपनी चुनी हुई तिथि और मार्ग से यात्रा शुरू कर सकते हैं।
6. यात्रा के दौरान:
यात्रा के दौरान, आपको सुरक्षा जांच से गुजरना होगा और आवश्यक निर्देशों का पालन करना होगा।
7. दर्शन:
पवित्र गुफा में भगवान शिव के दर्शन करने के बाद, आप अपनी यात्रा समाप्त कर सकते हैं।
अमर नाथ यात्रा पर जाने के भी दो रास्ते हैं। एक पहलगाम होकर और दूसरा उत्तर सोनमर्ग के समीप बालटाल से। यानी कि पहलगाम या बालटाल तक किसी भी सवारी से पहुँचें, यहाँ से आगे जाने के लिए अपने पैरों का ही इस्तेमाल करना होगा। अशक्त या वृद्धों के लिए सवारियों का प्रबंध किया जा सकता है। पहलगाम से जानेवाले रास्ते को सरल और सुविधाजनक समझा जाता है। इसमें 3 दिन लगते है।
फोटो भास्कर के सौजन्य से
बालटाल से अमरनाथ गुफा की दूरी केवल १४ किलोमीटर है लेकिन यह बहुत ही दुर्गम रास्ता है और इसे 1 दिन में पूरा करना होता है। इसीलिए सरकार इस मार्ग को सुरक्षित नहीं मानती और अधिकतर यात्रियों को पहलगाम के रास्ते अमरनाथ जाने के लिए प्रेरित करती है। इस रास्ता उनके लिए है जिन्हें रोमांच और जोखिम लेने का शौक रखने वाले लोग इस मार्ग से यात्रा करना पसंद करते हैं। इस मार्ग से जाने वाले लोग अपने जोखिम पर यात्रा करते है। पहलगाम से घोड़े खच्चर मिलते है पर बालाटाल से पैदल ही एक मात्र विकल्प है ऐसे डांडी जिसमें एक कुर्सी पर बैठ कर चार लोग के कंधे पर जाया जाता है अवश्य मिलता है। पैदल को छोड़ सभी विकल्प महंगे होते हैं।
उपर दिए सारी जानकारी मैंने internet से ली है। अगले ब्लॉग में कुछ और शिव मंदिरों के बारे में लिखूंगा।
Monday, July 14, 2025
कैलाश सावन में शिव के धाम भाग -1
सावन के महीने में शिव दर्शन के लिए यात्राओं और आस पड़ोस की मंदिरों पर समर्पित है मेरा यह ब्लॉग सीरीज । सबसे पहले उन यात्राओं के पर मैं लिख रहा हूँ जो मैंने नहीं किया या पूरा नहीं कर पाया और अपने उम्र के इस पड़ाव में कर न पाऊँ पर मैंने जो भी जानकारी उपलब्ध की अपने उन जानने वालों से जिन्होंने यात्राएं की या फिर अन्य साधनों से जो मैंने इस आशा से कभी एकत्रित की की कभी वहां जा पाऊं। कुछ जानकारी पुरानी हो सकती है , कृपया कमेंट में बताये मैं सही जानकारी से ब्लॉग को revise कर दूंंगा। पहले भाग मैं अपने एक पुराने ब्लॉग को नई जानकारी से पुनः प्रस्तुत कर रहा हूँ।
कैलाश मानसरावर यात्रा (ट्रेक)
मैने अपने एक पुराने web page मे कई जगहों की तीर्थ यात्रा के बारे में लिखा है। मैने बैद्यनाथ धाम की कांवर यात्रा को मिला कर 7 ज्योतिर्लिंग की यात्रा भी की पर कई यात्राऐं जैसे वैष्णों देवी, केदारनाथ और कैलाश मानसरोवर मेरे Bucket List में ही रह गए और मै Senior से Super Senior हो गया। केदारनाथ के रास्ते सोनप्रयाग से लौट आना पड़ा क्योंकि आगे रास्ता VIP भ्रमण के लिए बंद थे ऐसे हमारी मंज़िल भी त्रियुगी नारायण ही थी और वहां भी नहीं जा पाया। कैलाश मानसरोवर पर है मेरा यह लेख। अन्य जगह तो जा सकता हूँ खास कर घोड़ा या हेलीकाप्टर से पर मानसरोवर के लिए तो मेडिकल टेस्ट पास करना होगा जाना चाह कर भी शायद मै न जा पाऊँ। ऐसे कुछ सालों पहले मेरी एक सिनियर रिश्तेदार कैलाश मानसरोवर नेपालगंज से हवाई मार्ग से तिब्बत बोर्डर और वहाँ से बाकी की यात्रा SUV से पूरी की तो मेरा मनोबल बढ़ गया है। यदि ऊंचाई पर होने वाली दिक्कतें झेल पाऊ तो जा भी सकता हूँ।
मेरे सीनियर रिश्तेदार की कैलाश मानसरोवर यात्रा 2018
हिंदू शास्त्रों के अनुसार कैलाश पर्वत पर भगवान शिव का वास है। कैलाश मानसरोवर क्षेत्र जैन धर्म और बौद्धों के लिए भी पवित्र है। कैलाश ट्रेक भारत सरकार द्वारा हर साल जून से सितंबर के बीच लिपु-लेख पास (उत्तराखंड) वाले मार्ग से या नाथुला पास (सिक्किम) वाले मार्ग से आयोजित किया जाता है ये दोनो ट्रेक सभी सक्षम भारतीय नागरिकों के लिए खुला है जिनके पास होना चाहिए वैध भारतीय पासपोर्ट और धार्मिक इरादा। तीन मार्ग नेपाल के रास्ते से भी मौजूद हैं । यात्रा सड़क मार्ग और उच्च ऊंचाई पर ट्रेकिंग का मिश्रण है। यात्रियों का चुनाव नीचे दिए तरीके से किया जाता हैं ।
Goverment Advisory for this yatra
Yatris need to spend 3 or 4 days in Delhi for preparations and medical tests before starting the Yatra. Delhi Government arranges comman boarding and lodging facilities free of cost for Yatris only. Yatris are at liberty to make their own arrangements for boarding and lodging in Delhi.
The applicant may do some basic checks to determine their state of health and fitness before registering on-line. However, this will not be valid for the medical tests to be conducted by DHLI and ITBP in Delhi before the Yatra.
Advisory: The Yatra involves trekking at high altitudes of up to 19,500 feet, under inhospitable conditions, including extreme weather, and rugged terrain, and may prove hazardous for those who are not physically and medically fit. The itinerary provided is tentative and visits to the places are subject to local conditions at any point of time. The Government of India shall not be responsible in any manner for any loss of life or injury to a Yatri, or any loss or damage to property of a Yatri due to any natural calamity or due to any other reason. Pilgrims undertake the Yatra purely at their own volition, cost, risk and consequences. In case of death across the border, the Government shall not have any obligation to bring the mortal remains of any pilgrim for cremation to the Indian side. All Yatris are, therefore, required to sign a Consent Form for cremation of mortal remains on the Chinese side in case of death.
This Yatra is organized with the support of the state governments of Uttarakhand, Delhi, and Sikkim; and the cooperation of Indo Tibetan Border Police (ITBP). The Kumaon Mandal Vikas Nigam (KMVN), and Sikkim Tourism Development Corporation (STDC) and their associated organizations provide logistical support and facilities for each batch of Yatris in India. The Delhi Heart and Lung Institute conducts medical tests to determine fitness levels of applicants for this Yatra.
लिपु लेख दर्रा हो कर कैलाश मानसरोवर यात्रा ।
यह एक पारंपरिक मार्ग है और नाथू-ला-पास हो कर नए मार्ग के खुलने तक भारत होते हुए मानसरोवर तक जाने का एक मात्र मार्ग था । इस मार्ग से यात्रा करने पर ज्यादा दूरी तक पैदल ट्रेकिंग करनी पड़ती थी (लगभग 200 किमी) बाकि की यात्रा चीनी बसों , एसयूवी द्वारा की जाती हैं । कुछ दूर तक एक नए रोड का उद्घाटन माननीय राजनाथ सिंह ने कुछ साल पहले किया था। इस मार्ग से ट्रैकिंग की दूरी काफी काम हो गई है । अब गाला से लिपुलेख पास तक की यात्रा पैदल करनी होती है बाकि की यात्रा यानि धारचूला से गाला तक SUV से की जाती है , यदि रोड ठीक हो और कोई भू स्खलन नहीं हुआ हो। कैसे जाना हैं वह उपर दिए मानचित्र से स्पष्ट है। लिपु लेख के बाद औसत ऊँचाई MSL से ऊपर 4500-5300m के बीच है। अच्छे मौसम में यात्रा में 22-25 दिन लगते हैं लागत लगभग 1.8 लाख रुपये ।
नाथू ला दर्रा होकर कैलाश- मानसरोवर यात्रा
नाथुला हो कर कैलाश - मानसरोवर मार्ग पूरी तरह से मोटर से की जाती है और इसमें केवल 8 दिन लगते हैं। अधिकतम ट्रेकिंग की दूरी लगभग 35 किमी ही है। २०१८ में इसकी कीमत करीब 2 लाख रुपये थी ।
नेपाल हो कर कैलाश - मानसरोवर यात्रा
नेपाल हो कर कैलाश मानसरोवर जाने के तीन प्रचलित मार्ग हैं ।
रूट A. लखनऊ-नेपालगंज-सिमीकोट-हिल्सा-कैलाश मानसरोवर । कैलाश मानसरोवर पहुंचने के लिए एक लोकप्रिय मार्ग है। इस रूट में सिमीकोट तख आप हवाई यात्रा करते हैं और सिमीकोट से हिलसा के लिए एक हेलीकॉप्टर लेते हैं। हेलीकॉप्टर लेना तेज है और
सुविधाजनक है लेकिन तुलनात्मक रूप से अधिक महंगा है। इस मार्ग से कैलाश पर्वत की यात्रा में परिक्रमा के साथ 8 दिन लगते हैं
और से परिक्रमा के बिना 5 दिन। नेपालगंज यदि आपके पास है तो इस मार्ग की पुरज़ोर अनुशंसा की जाती है। समय न्युनतम लगेगा।
जाने का सबसे अच्छा समय: मई, जून, सितंबर (जुलाई-अगस्त पर्यटन मानसून से प्रभावित हो सकते हैं।
नीचे लिंक पर क्लिक करे और जाने यात्रा और बातें विस्तार से।
हवाई मार्ग - हेलीकाप्टर - सड़क मार्ग से कैलाश मानसरोवर यात्रा
रूट B. काठमांडू - क्यारोंग - कैलाश मानसरोवर कैलाश मानसरोवर की यात्रा के लिए एक थल मार्ग (over land) मार्ग है
यात्रा जिसमें लगभग 14 दिन लगते हैं। अभी कुछ दिन पहले इसी मार्ग में स्थित मैत्री पुल बह गया है।
जाने का सबसे अच्छा समय: मई-सितंबर। 2018 में लागत INR 1.5 लाख। ऑपरेटर के साथ जांचें
रूट C. काठमांडू - ल्हासा - कैलाश मानसरोवर - आप ल्हासा के लिए उड़ान भरेंगे और फिर कैलाश मानसरोवर यात्रा के लिए सड़क मार्ग से जाएंगे
और लगभग 15 दिन लगते हैं। यह सबसे अच्छा है यदि आपके पास पर्याप्त समय है और आप ल्हासा और कैलाश मानसरोवर दोनों की यात्रा करना चाहते हैं
जाने का सबसे अच्छा समय: मई-सितंबर। ऑपरेटर से संपर्क करें। 2018 में लागत INR 4 लाख
इसके सिवा दर्शन के दो और तरीके है या यों कहे तीन तरीके। पहला हवाई दर्शन : नेपाल गंज से एक हवाई जहाज से नेपाल चीन के सीमा तक ले जाते है और हवाई जहाज से ही कैलाश पर्वत के दर्शन कर सकते है।
पायलट भतीजे द्वारा खींचा फोटो
इसमें वीसा , उम्र , हेल्थ चेक अप की कोई परेशानी नहीं। नीचे लिंक पर क्लिक करे और जाने और बातें विस्तार से। खर्च ४३५००/- प्रति व्यक्ति ।
लखनऊ - नेपालगंज - हवाई दर्शन - नेपालगंज - लखनऊ।
अब भारत की धरती से भी कैलाश दर्शन किया जा सकता है। अदि कैलाश और ॐ पर्वत के साथ पुराने लिपुलेख के पास से कैलाश दर्शन के स्थान को हाल के वर्षों में बॉर्डर रोड आर्गेनाईजेशन ने खोज निकला। KMVN इसके लिए एक यात्रा भी Organize करता है गुंजी तक हलोकॉप्टर फिर रोड से। उनके web साइट पर इसका खर्च दिखाता है ८००००/- प्रति व्यक्ति। हवाई दर्शन के मुकाबले ऐसे यात्रा में कैलाश दर्शन के लिए काफी समय मिलता है। लिंक पर क्लिक करे और ज्यादा सूचना मिलेगी।
उत्तराखंड से कैलाश दर्शन।
अब अंतिम तरीका अत्यंत साहसी लोगों के लिए। मैंने एक यू ट्यूब वीडियो में नेपालगंज से सिमीकोट हो कर लिमि लाप्चा (नेपाल) तक मोटर साइकिल से जाने का वीडियो देखा था पर रोड अभी बन ही रहा है, और बहुत बड़े बड़े पत्थरो के बीच से बाइक ले कर गए जो साधरण लोगों के लिए शायद संभव न हो । पुलिस वाले मना भी। करते है, पर सिमिकोट तक हवाई मार्ग से और वहां से लिमि - लाप्चा तक सड़क मार्ग से जाया जा सकता है। कुछ टूर ऑपरेटर इसका इंतजाम भी कर देते है । लाप्चा से कैलाश का साफ़ साफ़ दर्शन हो जाता है क्योंकि एरियल दूरी कुछ ७-१० KM की ही होती है। लिंक दे रहा हूँ।
नेपाल के धरती (Limi Laapcha ) से कैलाश दर्शन।
अगले भाग में और कुछ जानकारी ले कर आऊंगा। तब तक हर हर महादेव।
Tuesday, June 10, 2025
बस यात्राऔं का खट्टा मीठा आनुभव भाग-3
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बस यात्राओं का खट्टा मीठा आनुभव भाग-1
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बस यात्राओं का खट्टा मीठा आनुभव भाग-2
अपने खट्टे मीठे बस यात्राओं के इस तीसरे ब्लॉग में मैं बोकारो (मेरा कार्य स्थल ) से जमुई (मेरा पुश्तैनी घर ) तक की गयी एक यात्रा का अनुभव पहले साँझा कर रहा हूँ । तब की बात है जब हम नए नए मां बाप बने थे।
बिहार की बसें, लछुआड़ का जैन मंदिर
पहली यात्रा
बोकारो से जमुई की सीधी बस सेवा सिर्फ एक ही थी , जो करीब ९ बजे सुबह बोकारो से खुलती थी । हम इस बस को नया मोर चास रोड पर एयरपोर्ट के पास पकड़ते थे। वहां पहुंचने पर पता चला बस में कुछ खराबी है और ११-१२ बजे तक चलेगी। तब कोई मोबाइल तो होता नहीं था और फोन भी किसी किसी के यहाँ होते थे। इस कारण कई बार का आना जाना लग जाता था। हमें परेशान होता देख बस ड्राईवर हमें राम मंदिर से (जो हमारे क्वार्टर के करीब था) से pick up करने को तैयार हो गया। करीब १२ बजे बस आई और हम सामान और खाना पीना जिसमे बिटिया के लिए फीडर , पाउडर मिल्क का डब्बा और थरमस में गरम पानी भी सामिल था लेकर बस मे सवार हो गए। बस के चलते ही सुकून का अनुभव हुआ।
धनबाद के आगे चलने पर बस में स्टार्ट न होने का प्रॉब्लम सामने आया । यानि बस का रिपेयर ठीक से नहीं हुआ था । सेल्फ से स्टार्ट ही नहीं होता था कभी कभी। ड्राइवर बस का इंजन बंद नहीं करने और बस स्लोप पर ही खड़ी करने की सावधानी बरतने लगा। भगवान का नाम लेते लेते हम इसरी, गिरिडीह होते जमुआ पहुँच गए। हम मना रहे थे की जमुई बिना किसी व्यवधान के पहुंच जाये - नहीं मैं स्वार्थी नहीं हो रहा था जमुई में बस डीपो बड़ा था और बस वह पहुँच जाए तो रिपेयर हो सकता था। परिस्थिति ऐसी थी की बस में कोई औरत क्या औरत जात भी नहीं थी - कोई छोटी लड़की भी नहीं, मेरी पत्नी और मासूम बिटिया को छोड़ कर। मैं मना रहा था की बहुत रात होने के पहले ही पहुँच जाये और समय पर पहुंचना जमुआ तक संभव लग रहा था । चतरो के बाद बस एक जगह बंद हो गयी। दस बारह लोग उतर गए और बस को धक्का देने लगे। बस इस बार स्टार्ट नहीं हुई। फिर मैं भी धक्का देने उतर पड़ा। सामने १ या २ km तक थोड़ी चढ़ाई थी फिर ढलकान था। सभी का विचार हुआ उस चढ़ाई तक ठकेलते है फिर स्लोप में बस स्टार्ट हो जाएगी। पर ऐसा नहीं हुआ। बस स्टार्ट होने का नाम ही नहीं ले रहा था। सभी हिम्मत हारने लगे। कुछ दूर और कुछ दूर और कहते हम कई km तक बस को धकेलते रहे। फिर विचार हुआ अब तो चकाई तक ढलकान ही है ढकेल कर ही पहुंचा देते है। कुछ खाने पीने को ही मिल जाएगा। सुनसान इलाका था , घुप अँधेरा था , न कोई आदमी न कोई आदमजात। ऐसे इलाके में पुरुष यात्री ही डर रहे थे मुझे भी चिंता होने लगी थी। पर मैंने जाहिर नहीं किया।
लट्टू पैलेस सिमुलतला, क्लोक टावर, गिद्धौर
करीब ५ km ढकेलने के बाद एक की छोटी दूकान दिखी जो बंद होने जा रही थी। और बस को वहीँ खड़ा कर दिया गया। यह सोचकर की शायद कोई गॉव नजदीक होगा तो सेफ रहेगा। इधर बिटिया को भूख लग गयी, और हमारे थरमस में गरम पानी भी ख़त्म हो गया था। बस के इस समस्या के कारण बस कही रूक नहीं रही थी ताकि किसी चाय दुकान से गरम पानी ले सकते। हम करीब करीब सरौन पहुंच गए थे और चकाई सिर्फ दस एक km ही दूर थे मैं ढाबे (या चाय दूकान ) पर गरम पानी के लिए गया, उसको सुनने की फुर्सत नहीं थी। मैं धैर्य से रुका रहा फिर उसने बताया चूल्हा बुझा दिया है पुनः जलाना संभव नहीं। खाने के सामान के नाम पर इस दूकान में सिर्फ चूड़ा और पेड़ा था। सभी ने चूड़ा और पेड़ा खा कर भूख मिटाई सिर्फ मेरी बिटिया के। उसे हम बहलाने की कोशिश करने लगे। कोई उपाय न देख सभी किसी दूसरी बस का इंतज़ार करने लगे। तभी एक बस आती दिखी। नज़दीक आने पर पता चला यह दरभंगा बस है जो सिर्फ आज के दिन जमुई हो कर जा रही है। हमारे बस के सभी यात्री इस दूसरे बस में चढ़ गए। अब लगा हमारी किस्मत अच्छी थी क्योंकि जमुई की डायरेक्ट बस मिल गयी। यदि चकाई या जसीडीह की बस मिलती तो हम जमुई अगले दिन ही पहुंचते। बिटिया को रूलाते मानते ११-११:३० तक हम जमुई पहुंच गए। घर तक के लिए रिक्शा मिला या नहीं याद नहीं। पर हमने सही सलामत घर पहुचने पर भगवान को बहुत धन्यवाद दिया।
मैं एक और बस यात्रा का वर्णन करना चाहूंगा
। राजनीतिक कारणों से रोड जाम करने की सारी परेशानी यात्रा करने वाले आम लोगों को ही उठानी पड़ती है। चाहे सरकार या शासन के कान पर जूं ही न रेंगे।
दूसरी यात्रा
हम विराटनगर नेपाल गए थे। मेरी साली की शादी थी। बारात पुर्णिया (बिहार) से आई थी। बताता चलूं कि पुर्णिया एक सीमावर्ती शहर है और बोर्डर टाउन फारबिसगंज से सिर्फ ७५ km दूर है। हम उस विवाह समारोह के बाद अपने छोटे साले साहब स्व डा० सुनील सिन्हा से मिलने धरान भी गए थे। वहां भी एक घटना हुई। उस पर चर्चा फिर कभी करेंगे।
विराटनगर बोर्डर, काली मंदिर, पुर्णिया
क्योंकि बोर्डर करीब था हमनें पुर्णिया हो कर ही रांची लौटना निश्चित किया। पुर्णिया तक की यात्रा बिना किसी कठिनाई के कट गई। पुर्णिया से रांची तक रात में चलने वाली डिलक्स बसों में से एक में मैंने सीट बुक कर लिए। डीलक्स बस का मायने होता था 2x2 सीट और reclining सीट। तब एसी बसें चलना शुरू नहीं हुई थी। खैर पुर्णिया में एक रात बिता कर हमने शाम सात बजे की अपनी बस पकड़ ली।
बस चल पड़ी। पर नन स्टाप बस के कई स्टाप आए और कहीं पैसेंजर और कहीं सामान बस पर चढे़ या चढ़ाए गए। हम थके मांदे थे, कब हम सो गए पता भी न चला। सिर्फ एक जगह हम जगे जहां बस खाने की जगह रूकी। बस चलने पर हम फिर सो गए। फिर एक स्टाप पर बस रूकी । हमारी नींद टूट गई पर फिर हम सो गए। जब काफी देर बाद बस रूकी तो हम जग गए और बाहर झांक कर देखा तो बस उसी जगह खडी थी। हम तिलैया डैम के पास थे और पिछले दो ढाई घंटे से बस यहीं खड़ी। कई बस, गांड़ी भी इस जाम में फंसी पड़ी थी। मैं नीचे उतर कर पता कर आया कि इतना जाम क्यों लगा है।
जब हम स्कूल में थे तब अविजित बिहार में कुल चार कमिश्नरी और १७ जिलों के बारे में पढ़ा करते थे। बहुत दिनों तक यह स्थिति बनी रही। फिर दौर आया एक जिले को कई भाग में बांटने का । शायद बढ़ती आबादी के साथ यह जरूरी भी था। पर जहां कमिश्नरी और जिले बंट गए, सब डिवीजन उस अनुपात में नहीं बंटे। यहीं स्थित हजारीबाग जिले की भी थी। सबसे पहले गिरीडीह अलग हो कर जिला बना। फिर चतरा और कोडरमा को भी जिला बना दिया गया। और अंत में रामगढ़ अलग जिला बन गया। यह जाम हजारीबाग से कोडरमा अलग होने से संबंधित था।
बरही अंग्रेज़ो के समय में सब डिवीजन रह चुका था। अब कोडरमा अलग होने के बाद बरही के लोग इसे सब डिवीजन बनाने के लिए आंदोलन रत थे और भारत में आंदोलन करने का सहज तरीका है रोड ट्रेन रोक देना, दुकान न खुलने देना और न मानने पर गाड़ी, दुकान को क्षतिग्रस्त कर देना। खैर कई घंटे तक जब जाम नहीं खुला तब सभी यात्री किसी और रास्ते से चलने का आग्रह करने लगे। पहले कंडक्टर, ड्राइवर तो न माने पर उन्हें भी लगने लगा था कि जाम जल्दी खुलने वाला नहीं है। और जब कई गाड़ियां घुमने लगी तब हमारी बस ने भी कोडरमा गिरीडीह मार्ग पकड़ लिया। सरिया हो कर हमारी बस हजारीबाग के लिए निकल पड़ी। 10-11 बज गए थे। धूप काफी निकल आई थी। तभी सरिया के पास के रेलवे फाटक से पहले ही बस का एक पंचर हो गया। बस में स्टेपनी था पर जैक नहीं था कंपनी की दो बस एक साथ पुर्णिया से निकली थी और साथ साथ चल रही थी। हमारी बस में स्टेपनी था जबकि दूसरी बस में जैक था। प्रोबेबिलिटी का ऐसा खेल। खैर मर्फी का नियम है Anything that may go wrong will go wrong. और वैसा ही हुआ जैक वाली बस आगे निकल गई। अब पहले बस स्टाफ बाद में यात्रीगण अन्य गाड़ियों से जैक मांगने लगे। तभी गर्मी से परेशान बस के उपर रखे मुर्गे की टोकरियां से मुर्गियां बाहर निकल आई। और यहां वहां भागने लगे। रास्ते में मुर्गियों की लूट मच गई। बस का खलासी भी मुर्गियां समेटने में लग गया। कुछ मुर्गियों की आवाज यात्रियों के झोले से भी आने लगी।
इन सब के बीच भी यात्री जैक को नहीं भूले पर गाड़ियां को रोक रोक कर जैक मांग रहे थे और गाड़ी वाले बहाने बना कर भाग रहे थे। आखिर यात्री लोग रोड पर धरना डाल कर बैठ गए। आखिर एक ट्रक को रोक कर जैक देने के राजी कर लिया गया लेकिन ड्राइवर ने भी दो मुर्गे देने की शर्त रख दी। और आखिर 12 घंटे देर से ही सही हम रांची पहुंच गए। रास्ते में न खाना मिला न पानी और न ही शौचालय ।
ऐसे तो हरेक यात्रा की कोई न कोई कहानी होती है, पर मैं अपने इस बस यात्रा सीरीज को यहीं विराम देता हूं। कुछ और अनुभव ले कर शीघ्र हाजिर होऊंगा।