Tuesday, June 10, 2025

बस यात्राऔं का खट्टा मीठा आनुभव भाग-3

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बस यात्राओं का खट्टा मीठा आनुभव भाग-1

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बस यात्राओं का खट्टा मीठा आनुभव भाग-2

अपने खट्टे मीठे बस यात्राओं के इस तीसरे ब्लॉग में मैं बोकारो (मेरा कार्य स्थल ) से जमुई (मेरा पुश्तैनी घर ) तक की गयी एक यात्रा का अनुभव पहले साँझा कर रहा हूँ । तब की बात है जब हम नए नए मां बाप बने थे।


बिहार की बसें, लछुआड़ का जैन मंदिर

पहली यात्रा
बोकारो से जमुई की सीधी बस सेवा सिर्फ एक ही थी , जो करीब ९ बजे सुबह बोकारो से खुलती थी । हम इस बस को नया मोर चास रोड पर एयरपोर्ट के पास पकड़ते थे। वहां पहुंचने पर पता चला बस में कुछ खराबी है और ११-१२ बजे तक चलेगी। तब कोई मोबाइल तो होता नहीं था और फोन भी किसी किसी के यहाँ होते थे। इस कारण कई बार का आना जाना लग जाता था। हमें परेशान होता देख बस ड्राईवर हमें राम मंदिर से (जो हमारे क्वार्टर के करीब था) से pick up करने को तैयार हो गया। करीब १२ बजे बस आई और हम सामान और खाना पीना जिसमे बिटिया के लिए फीडर , पाउडर मिल्क का डब्बा और थरमस में गरम पानी भी सामिल था लेकर बस मे सवार हो गए। बस के चलते ही सुकून का अनुभव हुआ।
धनबाद के आगे चलने पर बस में स्टार्ट न होने का प्रॉब्लम सामने आया । यानि बस का रिपेयर ठीक से नहीं हुआ था । सेल्फ से स्टार्ट ही नहीं होता था कभी कभी। ड्राइवर बस का इंजन बंद नहीं करने और बस स्लोप पर ही खड़ी करने की सावधानी बरतने लगा। भगवान का नाम लेते लेते हम इसरी, गिरिडीह होते जमुआ पहुँच गए। हम मना रहे थे की जमुई बिना किसी व्यवधान के पहुंच जाये - नहीं मैं स्वार्थी नहीं हो रहा था जमुई में बस डीपो बड़ा था और बस वह पहुँच जाए तो रिपेयर हो सकता था। परिस्थिति ऐसी थी की बस में कोई औरत क्या औरत जात भी नहीं थी - कोई छोटी लड़की भी नहीं, मेरी पत्नी और मासूम बिटिया को छोड़ कर। मैं मना रहा था की बहुत रात होने के पहले ही पहुँच जाये और समय पर पहुंचना जमुआ तक संभव लग रहा था । चतरो के बाद बस एक जगह बंद हो गयी। दस बारह लोग उतर गए और बस को धक्का देने लगे। बस इस बार स्टार्ट नहीं हुई। फिर मैं भी धक्का देने उतर पड़ा। सामने १ या २ km तक थोड़ी चढ़ाई थी फिर ढलकान था। सभी का विचार हुआ उस चढ़ाई तक ठकेलते है फिर स्लोप में बस स्टार्ट हो जाएगी। पर ऐसा नहीं हुआ। बस स्टार्ट होने का नाम ही नहीं ले रहा था। सभी हिम्मत हारने लगे। कुछ दूर और कुछ दूर और कहते हम कई km तक बस को धकेलते रहे। फिर विचार हुआ अब तो चकाई तक ढलकान ही है ढकेल कर ही पहुंचा देते है। कुछ खाने पीने को ही मिल जाएगा। सुनसान इलाका था , घुप अँधेरा था , न कोई आदमी न कोई आदमजात। ऐसे इलाके में पुरुष यात्री ही डर रहे थे मुझे भी चिंता होने लगी थी। पर मैंने जाहिर नहीं किया।


लट्टू पैलेस सिमुलतला, क्लोक टावर, गिद्धौर

करीब ५ km ढकेलने के बाद एक की छोटी दूकान दिखी जो बंद होने जा रही थी। और बस को वहीँ खड़ा कर दिया गया। यह सोचकर की शायद कोई गॉव नजदीक होगा तो सेफ रहेगा। इधर बिटिया को भूख लग गयी, और हमारे थरमस में गरम पानी भी ख़त्म हो गया था। बस के इस समस्या के कारण बस कही रूक नहीं रही थी ताकि किसी चाय दुकान से गरम पानी ले सकते। हम करीब करीब सरौन पहुंच गए थे और चकाई सिर्फ दस एक km ही दूर थे मैं ढाबे (या चाय दूकान ) पर गरम पानी के लिए गया, उसको सुनने की फुर्सत नहीं थी। मैं धैर्य से रुका रहा फिर उसने बताया चूल्हा बुझा दिया है पुनः जलाना संभव नहीं। खाने के सामान के नाम पर इस दूकान में सिर्फ चूड़ा और पेड़ा था। सभी ने चूड़ा और पेड़ा खा कर भूख मिटाई सिर्फ मेरी बिटिया के। उसे हम बहलाने की कोशिश करने लगे। कोई उपाय न देख सभी किसी दूसरी बस का इंतज़ार करने लगे। तभी एक बस आती दिखी। नज़दीक आने पर पता चला यह दरभंगा बस है जो सिर्फ आज के दिन जमुई हो कर जा रही है। हमारे बस के सभी यात्री इस दूसरे बस में चढ़ गए। अब लगा हमारी किस्मत अच्छी थी क्योंकि जमुई की डायरेक्ट बस मिल गयी। यदि चकाई या जसीडीह की बस मिलती तो हम जमुई अगले दिन ही पहुंचते। बिटिया को रूलाते मानते ११-११:३० तक हम जमुई पहुंच गए। घर तक के लिए रिक्शा मिला या नहीं याद नहीं। पर हमने सही सलामत घर पहुचने पर भगवान को बहुत धन्यवाद दिया।

मैं एक और बस यात्रा का वर्णन करना चाहूंगा । राजनीतिक कारणों से रोड जाम करने की सारी परेशानी यात्रा करने वाले आम लोगों को ही उठानी पड़ती है। चाहे सरकार या शासन के कान पर जूं ही न रेंगे।

दूसरी यात्रा
हम विराटनगर नेपाल गए थे। मेरी साली की शादी थी। बारात पुर्णिया (बिहार) से आई थी। बताता चलूं कि पुर्णिया एक सीमावर्ती शहर है और बोर्डर टाउन फारबिसगंज से सिर्फ ७५ km दूर है। हम उस विवाह समारोह के बाद अपने छोटे साले साहब स्व डा० सुनील सिन्हा से मिलने धरान भी गए थे। वहां भी एक घटना हुई। उस पर चर्चा फिर कभी करेंगे।



विराटनगर बोर्डर, काली मंदिर, पुर्णिया
क्योंकि बोर्डर करीब था हमनें पुर्णिया हो कर ही रांची लौटना निश्चित किया। पुर्णिया तक की यात्रा बिना किसी कठिनाई के कट गई। पुर्णिया से रांची तक रात में चलने वाली डिलक्स बसों में से एक में मैंने सीट बुक कर लिए। डीलक्स बस का मायने होता था 2x2 सीट और reclining सीट। तब एसी बसें चलना शुरू नहीं हुई थी। खैर पुर्णिया में एक रात बिता कर हमने शाम सात बजे की अपनी बस पकड़ ली।

बस चल पड़ी। पर नन स्टाप बस के कई स्टाप आए और कहीं पैसेंजर और कहीं सामान बस पर चढे़ या चढ़ाए गए। हम थके मांदे थे, कब हम सो गए पता भी न चला। सिर्फ एक जगह हम जगे जहां बस खाने की जगह रूकी। बस चलने पर हम फिर सो गए। फिर एक स्टाप पर बस रूकी । हमारी नींद टूट गई पर फिर हम सो गए। जब काफी देर बाद बस रूकी तो हम जग गए और बाहर झांक कर देखा तो बस उसी जगह खडी थी। हम तिलैया डैम के पास थे और पिछले दो ढाई घंटे से बस यहीं खड़ी। कई बस, गांड़ी भी इस जाम में फंसी पड़ी थी। मैं नीचे उतर कर पता कर आया कि इतना जाम क्यों लगा है।

जब हम स्कूल में थे तब अविजित बिहार में कुल चार कमिश्नरी और १७ जिलों के बारे में पढ़ा करते थे। बहुत दिनों तक यह स्थिति बनी रही। फिर दौर आया एक जिले को कई भाग में बांटने का‌ । शायद बढ़ती आबादी के साथ यह जरूरी भी था। पर जहां कमिश्नरी और जिले बंट गए, सब डिवीजन उस अनुपात में नहीं बंटे। यहीं स्थित हजारीबाग जिले की भी थी। सबसे पहले गिरीडीह अलग हो कर जिला बना। फिर चतरा और कोडरमा को भी जिला बना दिया गया। और अंत में रामगढ़ अलग जिला बन गया। यह जाम हजारीबाग से कोडरमा अलग होने से संबंधित था।

बरही अंग्रेज़ो के समय में सब डिवीजन रह चुका था। अब कोडरमा अलग होने के बाद बरही के लोग इसे सब डिवीजन बनाने के लिए आंदोलन रत थे और भारत में आंदोलन करने का सहज तरीका है रोड ट्रेन रोक देना, दुकान न खुलने देना और न मानने पर गाड़ी, दुकान को क्षतिग्रस्त कर देना। खैर कई घंटे तक जब जाम नहीं खुला तब सभी यात्री किसी और रास्ते से चलने का आग्रह करने लगे। पहले कंडक्टर, ड्राइवर तो न माने पर उन्हें भी लगने लगा था कि जाम जल्दी खुलने वाला नहीं है। और जब कई गाड़ियां घुमने लगी तब हमारी बस ने भी कोडरमा गिरीडीह मार्ग पकड़ लिया। सरिया हो कर हमारी बस हजारीबाग के लिए निकल पड़ी। 10-11 बज गए थे। धूप काफी निकल आई थी। तभी सरिया के पास के रेलवे फाटक से पहले ही बस का एक पंचर हो गया। बस में स्टेपनी था पर जैक नहीं था‌ कंपनी की दो बस एक साथ पुर्णिया से निकली थी और साथ साथ चल रही थी। हमारी बस में स्टेपनी था जबकि दूसरी बस में जैक था। प्रोबेबिलिटी का ऐसा खेल। खैर मर्फी का नियम है Anything that may go wrong will go wrong. और वैसा ही हुआ जैक वाली बस आगे निकल गई। अब पहले बस स्टाफ बाद में यात्रीगण अन्य गाड़ियों से जैक मांगने लगे। तभी गर्मी से परेशान बस के उपर रखे मुर्गे की टोकरियां से मुर्गियां बाहर निकल आई। और यहां वहां भागने लगे। रास्ते में मुर्गियों की लूट मच गई। बस का खलासी भी मुर्गियां समेटने में लग गया। कुछ मुर्गियों की आवाज यात्रियों के झोले से भी आने लगी।

इन सब के बीच भी यात्री जैक को नहीं भूले पर गाड़ियां को रोक रोक कर जैक मांग रहे थे और गाड़ी वाले बहाने बना कर भाग रहे थे। आखिर यात्री लोग रोड पर धरना डाल कर बैठ गए। आखिर एक ट्रक को रोक कर जैक देने के राजी कर लिया गया लेकिन ड्राइवर ने भी दो मुर्गे देने की शर्त रख दी। और आखिर 12 घंटे देर से ही सही हम रांची पहुंच गए। रास्ते में न‌ खाना मिला न पानी और न ही शौचालय ।

ऐसे तो हरेक यात्रा की कोई न कोई कहानी होती है, पर मैं अपने इस बस यात्रा सीरीज को यहीं विराम देता हूं। कुछ और अनुभव ले कर शीघ्र हाजिर होऊंगा।

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