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बस यात्राओं का खट्टा मीठा आनुभव भाग-1
इस भाग में मैं दो बस यात्राओं के बारे में लिखूंगा जो पटना से काठमांडू जाने के क्रम में की गई थी। पहली यात्रा में मैं सामिल नहीं था। मेरी पत्नी जा रही थी बच्चो और मेरी मां के साथ मौका था मेरे साले साहब की शादी। रूट था पटना से रक्सौल, बीरगंज होते काठमांडू। तब मुंग्लिंग हो कर बस चलनी शुरू हो गयी थी और ये बसें रात में चला करती थी। पटना से रक्सौल तक बस मिल जाती थी और भारत नेपाल बॉर्डर तांगे से क्रॉस हम बीरगंज जाते थे। तब मेरे बड़े साले डॉ बिमल बीरगंज में पोस्टेड थे और वही एक दो दिन रूक कर रात की बस पकड़ हम काठमांडू जाते थे।
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बस में पीछे डिक्की होना शुरू हो चुका था और सामान को बस की छत पर रखने की परम्परा ख़त्म हो चुकी थी । बस में सीट नंबर भी टिकट में लिख देते थे और सीट के लिए मारामारी नहीं होती थी अब ।
काठमांडू में मेरे छोटे साले साहब की शादी थी । मेरा पहला यूरोप ट्रिप लग चुका था और लाइट सॉफ्ट लगेज की शुरुआत हो चुकी थी और एक खूबसूरत नए सूटकेस के साथ मेरी पत्नी सफर कर रही थी । कई और सामान भी साथ थे क्योंकि मेरा छोटा भाई और मेरी मां भी शादी में जा रहे थे। कुछ महंगे कपड़े और कीमती सामान भी साथ थे। तब पटना में प्राइवेट बस हार्डिंग पार्क से खुलती थी। सामान डिक्की में रखवा कर सभी अंदर बस में बैठ गए। रास्ता करीब पांच घंटे का था। सफर ठीक से कट गया। असली दिक्कत तब हूई जब रक्सौल पहुंचने पर सॉफ्ट लगेज वाला नया सूटकेस डिक्की में नदारत था। बस वाले पल्ला झाड़ने लगे। अपने चढ़ाया ही नहीं होगा ! रास्ते में कोई यात्री ले गया होगा ! इत्यादि बातें कहने लगे। मेरी पत्नी सीधे थाने चली गयी पहले थाने वाले कुछ करने को तैयार नहीं थे। तब उन्होंने अपने डॉक्टर भाई जो बीरगंज में था के हवाले से परिचय दे कर बताया की डॉक्टर साहब रक्सौल के क्लिनिक में भी बैठते है । रक्सौल वाले डॉक्टर मित्र से भी बात की गयी , यह सब तब जब सेल फ़ोन नहीं होते थे। फिर थानेदार ने बस ड्राइवर कंडक्टर और खलासी को थाने बुलवाया और उनकी जम कर क्लास लगाई । आखिर बस वाले ने पटना में ही सामान उतार लेने की बात स्वीकारी और अगली बस से सामान मंगवाने देने की हुंकारी भरी। सामान तो उस दिन नहीं आ सका पर दो दिन बाद सामान आ गया । दो दिन extra रुकना पड़ा। सूटकेस खोला गया था पर सभी सामान मौजूद थे, कुछ निकाल कर वापस रख दिए प्रतीत हो रहे थे। बहरहाल आगे की यात्रा खुशी खुशी संपन्न हो गई। परिवार में सभी मेरी पत्नी के इस तरह लड़ कर, पुलिस की मदद से सामान हासिल करने के कृत्य से खुद को गर्वित महसूस कर रहे थे। बाबुजी (मेरे स्वर्गीय ससुर जी) ने कहा "यही है बेटियों को पढ़ाने लिखाने का फायदा"।
नेपाल की पहली बस सेवा, बारह घुमती- 12 hair pin bends near Bhaise on Tribhuvan Rajpath curtsey wikipedia
इस ब्लॉग मैं एक और काठमांडू की बस यात्रा की कहानी कहूंगा। इस बार मैं भी परिवार - पत्नी और दो छोटे बच्चों और मेरी छोटी बहन के साथ था। तब बसें बीरगंज से काठमांडू के बीच पुराने त्रिभुवन राजपथ होकर सिर्फ दिन के समय में ही चला करती थी। बीरगंज से निकलते ही २० KM के बाद परसा राष्ट्रीय उद्यान यानि जंगल शुरू हो जाता है । चूरे पहाड़ यानि मिट्टी के पहाड़ जिसमे भूस्खलन होते रहते है भी अमलेखगंज के बाद मिलते है और वहॉ है चुरिया माई का मंदिर। उस वक़्त इतने ढाबे नहीं होते थे। गाहे बेगाहे चाय बिस्कुट , अंडे के दुकान अवश्य मिलते थे लेकिन जंगल में वह भी नहीं के बराबर थे।
हमारी बस में बीरगंज से कुछ दूर कलैया से ही स्टार्ट न होने की और खींचने के ताकत के कमी की दिक्कत शुरू हो गयी थी । तब आम था यह सुनना की "एयर ले लिया"। धीमे-धीमे चलकर किसी तरह बस जंगल शुरू होने के पहले स्थित पेट्रोल पंप तक पहुंची और डीजल भरवाया। उसके बाद बस दस KM भी नहीं चली होगी कि बस ने मानों हड़ताल कर दिया या युं कहें की अपने हाथ खड़े कर दिए। जब ठेलने ठूलने से भी बस चालू नहीं हुई तो बस स्टाफ बीरगंज जा कर दूसरी बस या मैकेनिक लाने का उपक्रम करने लगे । काश तब मोबाइल होता तो यह सहायता मोबाइल पर ही मांग लेते। खैर अभी ८-९ बजे सुबह का समय हुआ था । ऐसा लगा एक आध घंटे में समस्या का समाधान हो जायेगा। लेकिन बीरगंज जाने वाली किसी भी गाड़ी का इंतजार करना पड़ा । फिर दूसरी बस खाली मिल जाय अक्सर छोटे ट्रांसपोर्टर के लिए संभव नहीं होता और ड्राइवर इस बस को रिपेयर के बाद भी शायद ले जाने को तैयार नहीं था और सही भी था। आगे असली चढ़ाई प्रारंभ होने वाली थी और बीमार बस को लेकर चलना रिस्की था। खैर समय बीतता गया। सभी यात्रियों ने करीब ही एक चाय बिस्कुट की दुकान खोज निकाली थी। हमने भी दोनों बच्चों को कुछ स्नैक्स खिला दिए थे पर जब १२ बजे तक बस नहीं आई तब कई यात्रियों ने वहा बैठी महिला जिसे सभी बैनी (बहन को नेपाली में बैनी कहते हैं) बुला रहे को लंच के थाली के लिए कहा। होटल के कर्मचारियों को बैनी या कांछा (छोटू) कह कर बुलाने का रिवाज सा था। हमने भी थाली यानि नेपाल का प्रसिद्द दाल भात और रायो साग का आर्डर कर दिया। एक दो यात्रियों के लायक तो दाल चावल था बैनी के पास पर बस के तीस पैंतीस यात्रियों के लायक तो सामान ही नहीं था उनके पास। शायद उनका घर भी ज्यादा दूर नही था। कुछ ही देर में आनाज और साग सब्जी उनके घर से आ गई । करीब घंटे भर में ३०-३५ लोंगो के लिए गरमा गरम भोजन तैयार हो गया। खाना खाते खाते बस भी आ गई। गर्म भोजन कितना स्वादिष्ट था बयान करना मुश्किल था। एक बार फिर साबित हो गया सबसे अधिक स्वादिष्ट होता है भूख ।
बाकि यात्रा सुखद थी ओर हम रात सात बजे तक काठमांडू पहुंच गए।
एक दूसरे बस यात्रा का वर्णन अगले ब्लॉग में।
Thursday, June 5, 2025
बस यात्राऔं का खट्टा मीठा आनुभव भाग-2
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