वक्रतुण्ड महाकाय सूर्यकोटि समप्रभ। निर्विघ्नं कुरु मे देव सर्वकार्येषु सर्वदा॥
मैं पिछले छः ब्लॉग में राम चरित मानस के भावुक क्षणों को मानस की चौपाइयों से संकलित करने की छोटी चेष्टा कर रहा हूँ । मैं पिछले ब्लॉगों का लिंक यहाँ दे रहा हूँ तांकि आपने यदि नहीं पढ़ा तो निरंतरता के लिए पढ़ सकते है। कृपया लिंक पर क्लिक करें।
- राम चरित मानस से कुछ भावुक क्षण भाग-१ (बाल लीला )
- राम चरित मानस से कुछ भावुक क्षण भाग-२ ( विवाह )
- मानस के कुछ भावुक क्षण - भाग-३ (वन गमन १)
- मानस के कुछ भावुक क्षण भाग - ४ (राम वन गमन २)
- मानस के कुछ भावुक क्षण-भाग-५ (राम वनगमन-३.१)
- मानस के कुछ भावुक क्षण - भाग- ६ (वन गमन ३-२)
पिछले ब्लॉग में मैंने लिखा था कैसे भरत ननिहल से लौटते है और दशरथ की मृत्यु पर विलाप करते है और गुरू के याद दिलाने पर उनकी अंत्योष्टि करते है और फिर चित्रकूट जा कर राम को लौटा लाने का प्रस्ताव रखते है और गुरुआज्ञा से प्रस्थान की तैयारी करते है :
कहेउ लेहु सबु तिलक समाजू। बनहिं देब मुनि रामहि राजू॥
बेगि चलहु सुनि सचिव जोहारे। तुरत तुरग रथ नाग सँवारे॥
अरुंधती अरु अगिनि समाऊ। रथ चढ़ि चले प्रथम मुनिराऊ॥
बिप्र बृंद चढ़ि बाहन नाना। चले सकल तप तेज निधाना॥
नगर लोग सब सजि सजि जाना। चित्रकूट कहँ कीन्ह पयाना॥
सिबिका सुभग न जाहिं बखानी। चढ़ि चढ़ि चलत भईं सब रानी॥
तिलक का सब सामान ले चलो। वन में ही मुनि वशिष्ठजी श्री रामचन्द्रजी को राज्य देंगे, जल्दी चलो। यह सुनकर मंत्रियों ने वंदना की और तुरंत घोड़े, रथ और हाथी सजवा दिए ।सबसे पहले मुनिराज वशिष्ठजी अरुंधती और अग्निहोत्र की सब सामग्री सहित रथ पर सवार होकर चले। फिर ब्राह्मणों के समूह, जो सब के सब तपस्या और तेज के भंडार थे, अनेकों सवारियों पर चढ़कर चले। नगर के सब लोग रथों को सजा-सजाकर चित्रकूट को चल पड़े। जिनका वर्णन नहीं हो सकता, ऐसी सुंदर पालकियों पर चढ़-चढ़कर सब रानियाँ चलीं।
सौंपि नगर सुचि सेवकनि सादर सकल चलाइ।
सुमिरि राम सिय चरन तब चले भरत दोउ भाइ।।
देखि सनेहु लोग अनुरागे। उतरि चले हय गय रथ त्यागे।।
जाइ समीप राखि निज डोली। राम मातु मृदु बानी बोली।।
तात चढ़हु रथ बलि महतारी। होइहि प्रिय परिवारु दुखारी।।
तुम्हरें चलत चलिहि सबु लोगू। सकल सोक कृस नहिं मग जोगू।।
विश्वासपात्र सेवकों के भरोसे नगर छोड़ और सबको आदरपूर्वक रवाना कर,और श्री सीता-रामजी के चरणों को स्मरण करके भरत-शत्रुघ्न दोनों भाई पैदल ही चले पड़े । उनका स्नेह -अनुराग देखकर सब लोग घोड़े, हाथी, रथों को छोड़कर, उनसे उतरकर पैदल चलने लगे। तब माता कौसल्याजी भरत के पास जाकर और अपनी पालकी उनके समीप खड़ी करके मृदु वाणी से बोलीं-हे बेटा! माताएं तुमहारी बलैया लेती है, तुम रथ पर चढ़ जाओ। (नहीं तो) सारा परिवार दुःखी हो जाएगा। तुम यदि पैदल चले से सभी लोग पैदल चलेंगे। शोक के मारे सब कृश यानि दुबले हो गए हैं, और पैदल चलने के योग्य नहीं हैं ।
सिर धरि बचन चरन सिरु नाई। रथ चढ़ि चलत भए दोउ भाई।।
तमसा प्रथम दिवस करि बासू। दूसर गोमति तीर निवासू।।
पय अहार फल असन एक निसि भोजन एक लोग।।
करत राम हित नेम ब्रत परिहरि भूषन भोग।।
माता के चरणों में सर नवा कर दोनों भाई रथ पर चढ़ गए। पहले दिन तमसा नदी और दूसरे दिन गोमती के किनारे निवास किया। कोई दूध पीता है कोई फलाहार करता है और को सिर्फ रात को खाता है । सभी आभूषण भोग विलास छोड़ कर रामचंद्र जी के लिए व्रत नियम रख रहे है ।
कारन कवन भरतु बन जाहीं। है कछु कपट भाउ मन माहीं।।
जौं पै जियँ न होति कुटिलाई। तौ कत लीन्ह संग कटकाई।।
जानहिं सानुज रामहि मारी। करउँ अकंटक राजु सुखारी।।
भरत न राजनीति उर आनी। तब कलंकु अब जीवन हानी।।
सकल सुरासुर जुरहिं जुझारा। रामहि समर न जीतनिहारा॥
का आचरजु भरतु अस करहीं। नहिं बिष बेलि अमिअ फल फरहीं॥
सभी लोग श्रीवेंगपुर पहुंचते है और निषादराज उन्हें देख कर सोचता है क्या कारण है जो भरत वन जा रहे है। जरूर मन में कपट - छल है नहीं तो साथ में सेना क्यों है। समझते है छोटे भाई लक्ष्मण सहित राम को मार कर निष्कंटक राज करूंगा। पहले राजनीति का ख्याल नहीं किया और कलंक लगा ही था अब तो जीवन की भी हानि होगी। सारे देवता भी साथ हो जाए तो भी श्री रामचंद्र को हरा नहीं सकते। भरत जो ऐसा कर रहे है उसमे कोई आश्चर्य नहीं - विष के बेल से अमृतफल नहीं फल सकता ।
दीख निषादनाथ भल टोलू। कहेउ बजाउ जुझाऊ ढोलू।।।
एतना कहत छींक भइ बाँए। कहेउ सगुनिअन्ह खेत सुहाए।। < br>
बूढ़ु एकु कह सगुन बिचारी। भरतहि मिलिअ न होइहि रारी।।
रामहि भरतु मनावन जाहीं। सगुन कहइ अस बिग्रहु नाहीं।।
निषादराज गुह ने अपने सेवको को कहा सभी नाव डूबा दो किसीको गंगा के पार नहीं जाने देंगें। निषादराज ने अपने वीरो को इकठ्ठा किया और ढोल बजाने को कहा , तभी बाये ओर से छींक आई , अपशगुन हुआ जान एक बूढ़े ने शगुन विचारने को कहा और कहा भरत राम से मिलने जा रहे युद्ध करने नहीं , शगुन कह रहा ही की कोई विरोध नहीं है । निषादराज ने भी सोचा जल्दबाजी में कुछ करना ठीक नहीं है। उसने अपने सेवको को सभी नाव घाट रोक लेने को कह कर कुछ फल मूल , हिरन , मछली आदि भेंट लेकर भरत से मिलने चला।
देखि दूरि तें कहि निज नामू। कीन्ह मुनीसहि दंड प्रनामू।।
जानि रामप्रिय दीन्हि असीसा। भरतहि कहेउ बुझाइ मुनीस ।।
राम सखा सुनि संदनु त्यागा। चले उचरि उमगत अनुरागा।।
गाउँ जाति गुहँ नाउँ सुनाई। कीन्ह जोहारु माथ महि लाई।।
करत दंडवत देखि तेहि भरत लीन्ह उर लाइ।
मनहुँ लखन सन भेंट भइ प्रेमु न हृदयँ समाइ॥
निषादराज ने मुनि वशिष्ठ को देखकर दंडवत प्रणाम किया। राम का मित्र जान मुनिराज ने उसे आशीर्वाद दिया। राम के मित्र है जान कर भरत ने रथ को त्याग दिया। और अनुराग सहित उमंग से चले। निषादराज ने धरती में सर नवा कर उन्हें प्रणाम किया।उनको दंडवत करता देख भरत ने उनके गले से लगा लिया मानों लक्ष्मण जी से ही भेट हो गयी।
लोक बेद सब भाँतिहिं नीचा। जासु छाँह छुइ लेइअ सींचा॥
तेहि भरि अंक राम लघु भ्राता। मिलत पुलक परिपूरित गाता॥
राम राम कहि जे जमुहाहीं। तिन्हहि न पाप पुंज समुहाहीं॥
यह तौ राम लाइ उर लीन्हा। कुल समेत जगु पावन कीन्हा॥
भरत ने जिस तरह स्नेहपूर्वक निषादराज को गले लगाया देख लोग ईर्ष्या पूर्वक कहते है - जिसे नीच माना गया है ओर जिसके छाया को छू लेने पर भी नहाना पड़ता हो उससे राम के छोटे भाई का मिलना - गले लगाने देख पूरा शरीर पुलकित हो गया। जिस राम नाम को जम्हाई में भी लेने से सारा पाप दूर हो जाता है उस गुह को तो श्री राम ने गले लगा लिया ओर उसे कुल समेत पावन कर दिया है।
करमनास जलु सुरसरि परई। तेहि को कहहु सीस नहिं धरेई।।
उलटा नामु जपत जगु जाना। बालमीकि भए ब्रह्म समाना।।
विकी मीडिया के सौजन्य से
कर्मनाशा नदी का जल गंगाजी में मिल जाता है, तब उसे कौन सिर पर धारण नहीं करता? जगत जानता है कि उलटा नाम (मरा-मरा) जपते-जपते वाल्मीकिजी ब्रह्म के समान हो गए। (कर्मनाशा नदी बिहार के कैमूर से निकल कर UP होते हुए गंगा जी में समां जाती है। इसके जल को पीना तो छोड़ कोई छूता भी नहीं न ही लोग खाना पकाते है ।)
रामसखहि मिलि भरत सप्रेमा। पूँछी कुसल सुमंगल खेमा॥
देखि भरत कर सीलु सनेहू। भा निषाद तेहि समय बिदेहू॥
सकुच सनेहु मोदु मन बाढ़ा। भरतहि चितवत एकटक ठाढ़ा॥
धरि धीरजु पद बंदि बहोरी। बिनय सप्रेम करत कर जोरी॥
राम सखा से भरत प्रेम पूर्वक मिलते है और कुशल क्षेम पूछते है। भरत का स्नेह , व्यवहार देख निषाद उसी समय विदेह हो गए यानि उन्हें अपने देह का सुध बुध भूल गया। संकोच , स्नेह मन ने इतना बढ़ गया की वे भरत जी को एकटक देखते रह गए। धीरज धर कर चरण वंदना कर विनती करने लगे। निषाद राज बाद में शत्रुघ्न ओर सभी रानियों के भी मिले ओर रानियों ने उसे लक्ष्मण सामान जान कर आशीर्वाद दिए। फिर गंगा जी की वंदना कर ओर स्नान कर वही रुकने की व्यवस्था की गयी।
इस ब्लॉग में बस इतना ही - आशा है आप अगले ब्लॉग की प्रतीक्षा करेंगे - राम भरत मिलाप के पहले क्या क्या होता है - उस कथा के लिए।