Tuesday, February 27, 2024

मानस के कुछ भावुक क्षण - भाग- ७ - भरत का राम से मिलने जाना

वक्रतुण्ड महाकाय सूर्यकोटि समप्रभ। निर्विघ्नं कुरु मे देव सर्वकार्येषु सर्वदा॥

मैं पिछले छः ब्लॉग में राम चरित मानस के भावुक क्षणों को मानस की चौपाइयों से संकलित करने की छोटी चेष्टा कर रहा हूँ । मैं पिछले ब्लॉगों का लिंक यहाँ दे रहा हूँ तांकि आपने यदि नहीं पढ़ा तो निरंतरता के लिए पढ़ सकते है। कृपया लिंक पर क्लिक करें।

पिछले ब्लॉग में मैंने लिखा था कैसे भरत ननिहल से लौटते है और दशरथ की मृत्यु पर विलाप करते है और गुरू के याद दिलाने पर उनकी अंत्योष्टि करते है और फिर चित्रकूट जा कर राम को लौटा लाने का प्रस्ताव रखते है और गुरुआज्ञा से प्रस्थान की तैयारी करते है :

कहेउ लेहु सबु तिलक समाजू। बनहिं देब मुनि रामहि राजू॥
बेगि चलहु सुनि सचिव जोहारे। तुरत तुरग रथ नाग सँवारे॥
अरुंधती अरु अगिनि समाऊ। रथ चढ़ि चले प्रथम मुनिराऊ॥
बिप्र बृंद चढ़ि बाहन नाना। चले सकल तप तेज निधाना॥
नगर लोग सब सजि सजि जाना। चित्रकूट कहँ कीन्ह पयाना॥
सिबिका सुभग न जाहिं बखानी। चढ़ि चढ़ि चलत भईं सब रानी॥

तिलक का सब सामान ले चलो। वन में ही मुनि वशिष्ठजी श्री रामचन्द्रजी को राज्य देंगे, जल्दी चलो। यह सुनकर मंत्रियों ने वंदना की और तुरंत घोड़े, रथ और हाथी सजवा दिए ।सबसे पहले मुनिराज वशिष्ठजी अरुंधती और अग्निहोत्र की सब सामग्री सहित रथ पर सवार होकर चले। फिर ब्राह्मणों के समूह, जो सब के सब तपस्या और तेज के भंडार थे, अनेकों सवारियों पर चढ़कर चले। नगर के सब लोग रथों को सजा-सजाकर चित्रकूट को चल पड़े। जिनका वर्णन नहीं हो सकता, ऐसी सुंदर पालकियों पर चढ़-चढ़कर सब रानियाँ चलीं।

सौंपि नगर सुचि सेवकनि सादर सकल चलाइ।
सुमिरि राम सिय चरन तब चले भरत दोउ भाइ।।
देखि सनेहु लोग अनुरागे। उतरि चले हय गय रथ त्यागे।।
जाइ समीप राखि निज डोली। राम मातु मृदु बानी बोली।।
तात चढ़हु रथ बलि महतारी। होइहि प्रिय परिवारु दुखारी।।
तुम्हरें चलत चलिहि सबु लोगू। सकल सोक कृस नहिं मग जोगू।।

विश्वासपात्र सेवकों के भरोसे नगर छोड़ और सबको आदरपूर्वक रवाना कर,और श्री सीता-रामजी के चरणों को स्मरण करके भरत-शत्रुघ्न दोनों भाई पैदल ही चले पड़े । उनका स्नेह -अनुराग देखकर सब लोग घोड़े, हाथी, रथों को छोड़कर, उनसे उतरकर पैदल चलने लगे। तब माता कौसल्याजी भरत के पास जाकर और अपनी पालकी उनके समीप खड़ी करके मृदु वाणी से बोलीं-हे बेटा! माताएं तुमहारी बलैया लेती है, तुम रथ पर चढ़ जाओ। (नहीं तो) सारा परिवार दुःखी हो जाएगा। तुम यदि पैदल चले से सभी लोग पैदल चलेंगे। शोक के मारे सब कृश यानि दुबले हो गए हैं, और पैदल चलने के योग्य नहीं हैं ।

सिर धरि बचन चरन सिरु नाई। रथ चढ़ि चलत भए दोउ भाई।।
तमसा प्रथम दिवस करि बासू। दूसर गोमति तीर निवासू।।
पय अहार फल असन एक निसि भोजन एक लोग।।
करत राम हित नेम ब्रत परिहरि भूषन भोग।।

माता के चरणों में सर नवा कर दोनों भाई रथ पर चढ़ गए। पहले दिन तमसा नदी और दूसरे दिन गोमती के किनारे निवास किया। कोई दूध पीता है कोई फलाहार करता है और को सिर्फ रात को खाता है । सभी आभूषण भोग विलास छोड़ कर रामचंद्र जी के लिए व्रत नियम रख रहे है ।

कारन कवन भरतु बन जाहीं। है कछु कपट भाउ मन माहीं।।
जौं पै जियँ न होति कुटिलाई। तौ कत लीन्ह संग कटकाई।।
जानहिं सानुज रामहि मारी। करउँ अकंटक राजु सुखारी।।
भरत न राजनीति उर आनी। तब कलंकु अब जीवन हानी।।
सकल सुरासुर जुरहिं जुझारा। रामहि समर न जीतनिहारा॥
का आचरजु भरतु अस करहीं। नहिं बिष बेलि अमिअ फल फरहीं॥

सभी लोग श्रीवेंगपुर पहुंचते है और निषादराज उन्हें देख कर सोचता है क्या कारण है जो भरत वन जा रहे है। जरूर मन में कपट - छल है नहीं तो साथ में सेना क्यों है। समझते है छोटे भाई लक्ष्मण सहित राम को मार कर निष्कंटक राज करूंगा। पहले राजनीति का ख्याल नहीं किया और कलंक लगा ही था अब तो जीवन की भी हानि होगी। सारे देवता भी साथ हो जाए तो भी श्री रामचंद्र को हरा नहीं सकते। भरत जो ऐसा कर रहे है उसमे कोई आश्चर्य नहीं - विष के बेल से अमृतफल नहीं फल सकता ।

दीख निषादनाथ भल टोलू। कहेउ बजाउ जुझाऊ ढोलू।।।
एतना कहत छींक भइ बाँए। कहेउ सगुनिअन्ह खेत सुहाए।। < br> बूढ़ु एकु कह सगुन बिचारी। भरतहि मिलिअ न होइहि रारी।।
रामहि भरतु मनावन जाहीं। सगुन कहइ अस बिग्रहु नाहीं।।

निषादराज गुह ने अपने सेवको को कहा सभी नाव डूबा दो किसीको गंगा के पार नहीं जाने देंगें। निषादराज ने अपने वीरो को इकठ्ठा किया और ढोल बजाने को कहा , तभी बाये ओर से छींक आई , अपशगुन हुआ जान एक बूढ़े ने शगुन विचारने को कहा और कहा भरत राम से मिलने जा रहे युद्ध करने नहीं , शगुन कह रहा ही की कोई विरोध नहीं है । निषादराज ने भी सोचा जल्दबाजी में कुछ करना ठीक नहीं है। उसने अपने सेवको को सभी नाव घाट रोक लेने को कह कर कुछ फल मूल , हिरन , मछली आदि भेंट लेकर भरत से मिलने चला।

देखि दूरि तें कहि निज नामू। कीन्ह मुनीसहि दंड प्रनामू।।
जानि रामप्रिय दीन्हि असीसा। भरतहि कहेउ बुझाइ मुनीस ।।
राम सखा सुनि संदनु त्यागा। चले उचरि उमगत अनुरागा।।
गाउँ जाति गुहँ नाउँ सुनाई। कीन्ह जोहारु माथ महि लाई।। करत दंडवत देखि तेहि भरत लीन्ह उर लाइ।
मनहुँ लखन सन भेंट भइ प्रेमु न हृदयँ समाइ॥

निषादराज ने मुनि वशिष्ठ को देखकर दंडवत प्रणाम किया। राम का मित्र जान मुनिराज ने उसे आशीर्वाद दिया। राम के मित्र है जान कर भरत ने रथ को त्याग दिया। और अनुराग सहित उमंग से चले। निषादराज ने धरती में सर नवा कर उन्हें प्रणाम किया।उनको दंडवत करता देख भरत ने उनके गले से लगा लिया मानों लक्ष्मण जी से ही भेट हो गयी।

लोक बेद सब भाँतिहिं नीचा। जासु छाँह छुइ लेइअ सींचा॥
तेहि भरि अंक राम लघु भ्राता। मिलत पुलक परिपूरित गाता॥
राम राम कहि जे जमुहाहीं। तिन्हहि न पाप पुंज समुहाहीं॥
यह तौ राम लाइ उर लीन्हा। कुल समेत जगु पावन कीन्हा॥

भरत ने जिस तरह स्नेहपूर्वक निषादराज को गले लगाया देख लोग ईर्ष्या पूर्वक कहते है - जिसे नीच माना गया है ओर जिसके छाया को छू लेने पर भी नहाना पड़ता हो उससे राम के छोटे भाई का मिलना - गले लगाने देख पूरा शरीर पुलकित हो गया। जिस राम नाम को जम्हाई में भी लेने से सारा पाप दूर हो जाता है उस गुह को तो श्री राम ने गले लगा लिया ओर उसे कुल समेत पावन कर दिया है।

करमनास जलु सुरसरि परई। तेहि को कहहु सीस नहिं धरेई।।
उलटा नामु जपत जगु जाना। बालमीकि भए ब्रह्म समाना।।


विकी मीडिया के सौजन्य से

कर्मनाशा नदी का जल गंगाजी में मिल जाता है, तब उसे कौन सिर पर धारण नहीं करता? जगत जानता है कि उलटा नाम (मरा-मरा) जपते-जपते वाल्मीकिजी ब्रह्म के समान हो गए। (कर्मनाशा नदी बिहार के कैमूर से निकल कर UP होते हुए गंगा जी में समां जाती है। इसके जल को पीना तो छोड़ कोई छूता भी नहीं न ही लोग खाना पकाते है ।)

रामसखहि मिलि भरत सप्रेमा। पूँछी कुसल सुमंगल खेमा॥
देखि भरत कर सीलु सनेहू। भा निषाद तेहि समय बिदेहू॥
सकुच सनेहु मोदु मन बाढ़ा। भरतहि चितवत एकटक ठाढ़ा॥
धरि धीरजु पद बंदि बहोरी। बिनय सप्रेम करत कर जोरी॥

राम सखा से भरत प्रेम पूर्वक मिलते है और कुशल क्षेम पूछते है। भरत का स्नेह , व्यवहार देख निषाद उसी समय विदेह हो गए यानि उन्हें अपने देह का सुध बुध भूल गया। संकोच , स्नेह मन ने इतना बढ़ गया की वे भरत जी को एकटक देखते रह गए। धीरज धर कर चरण वंदना कर विनती करने लगे। निषाद राज बाद में शत्रुघ्न ओर सभी रानियों के भी मिले ओर रानियों ने उसे लक्ष्मण सामान जान कर आशीर्वाद दिए। फिर गंगा जी की वंदना कर ओर स्नान कर वही रुकने की व्यवस्था की गयी।

इस ब्लॉग में बस इतना ही - आशा है आप अगले ब्लॉग की प्रतीक्षा करेंगे - राम भरत मिलाप के पहले क्या क्या होता है - उस कथा के लिए।

Saturday, February 24, 2024

उर्मिला का अंतर्द्वंद और त्याग

रामकथा उसके चरित्रों के त्याग से भरी हुई है। मर्यादा पुरुषोत्तम राम का त्याग उनमें सर्वोपरि है, लेकिन लक्ष्मण की पत्नी उर्मिला का त्याग किसी से कमतर नहीं है। उनकी वेदना इस मामले में विशिष्ट है कि उसमें आंसुओं के निकलने की मनाही भी शामिल है। इसके बाद भी उर्मिला को वह प्रतिष्ठा नहीं मिली, जिसकी वह अधिकारिणी हैं। आदि कवि वाल्मीकि से लेकर तुलसीदास जी तक सभी ने रामकथा का विवेचन किया है। तुलसीदास राम भक्त थे और राम चरित मानस के द्वारा राम भक्ति की अविरल धारा को प्रवाहित करना चाहते थे। इस कारण उन्होंने अपनी रचनाओं में उन्हीं पात्रों को स्थान दिया है। जिनके द्वारा किसी प्रकार राम का चरित्र उजागर होता था। उन्होंने लक्ष्मण,भरत,निषाद,शबरी,हनुमान,विभीषण आदि को राम कथा में प्रथम और विशेष स्थान दिया था। लेकिन मैथिली शरण गुप्त लिखित रामकथा 'साकेत' में उर्मिला के त्याग और सेवा पर प्रकाश डालता है ।‌ लेखिका आशा प्रभात ने अपने उपन्यास `उर्मिला' में लक्ष्मण से दीर्घ और दारुण विरह के समय अपने कर्तव्यों का उदात्त भाव से पालन करने वाली इस अद्भुत नारी के चरित्र को पर्याप्त विस्तार देकर इस कमी को पूरा करने का एक और प्रयास किया है।

राम चरित मानस में राम विवाह के समय उर्मिला का जिक्र आता है।

तब जनक पाइ बसिष्ठ आयसु ब्याह साज सँवारि कै।
मांडवी श्रुतकीरति उरमिला कुअँरि लईं हँकारि कै॥
कुसकेतु कन्या प्रथम जो गुन सील सुख सोभामई।
सब रीति प्रीति समेत करि सो ब्याहि नृप भरतहि दई॥

तब वशिष्ठजी की आज्ञा पाकर जनकजी ने विवाह का सामान सजाकर माण्डवीजी, श्रुतकीर्तिजी और उर्मिलाजी इन तीनों राजकुमारियों को बुला लिया। कुश ध्वज की बड़ी कन्या माण्डवीजी को, जो गुण, शील, सुख और शोभा की रूप ही थीं, राजा जनक ने प्रेमपूर्वक सब रीतियाँ करके भरतजी को ब्याह दिया।

जानकी लघु भगिनी सकल सुंदरि सिरोमनि जानि कै।
सो तनय दीन्ही ब्याहि लखनहि सकल बिधि सनमानि कै॥
जेहि नामु श्रुतकीरति सुलोचनि सुमुखि सब गुन आगरी।
सो दई रिपुसूदनहि भूपति रूप सील उजागरी॥

सीता जी की छोटी बहिन उर्मिलाजी को सब सुंदरियों में शिरोमणि जानकर उस कन्या को सब प्रकार से सम्मान करके, लक्ष्मणजी को ब्याह दिया और जिनका नाम श्रुतकीर्ति है और जो सुंदर नेत्रों वाली, सुंदर मुखवाली, सब गुणों की खान और रूप तथा शील में उजागर हैं, उनको राजा ने शत्रुघ्न को ब्याह दिया‌।

उर्मिला जनक नंदनी सीता की छोटी बहन थीं। सीता जनक द्वारा दुर्भिक्ष के समय हल जोतते समय सीतामढ़ी के पास पुनौरा गांव में धरती से निकली। उर्मिला जनक जी जैविक बेटी थी। सीता के विवाह के समय ही उर्मिला दशरथ और सुमित्रा के पुत्र लक्ष्मण को ब्याही गई थीं। इनके अंगद और चन्द्रकेतु नाम के दो पुत्र तथा सोमदा नाम की एक पुत्री थी। जब सीता वनगमन को उद्यत हुयी और लक्ष्मण भी माता से वन जाने की आज्ञा मानाने आये उर्मिला ने पति के साथ जाने की इच्छा प्रकट न होने दिया , कहीं पति अपने कर्त्तव्य से विमुख न हो जाए। साकेत में राष्ट्रकवि मैथिलि शरण गुप्त लिखते है की उर्मिला ने भी वन जाने की इच्छा प्रकट की तो लक्ष्मण ने यह कह कर मना कर दिया की उसके साथ जाने से अपने कर्त्तव्य को निभा न पाएंगे। तब उन्होंने पति को आश्वाश्त किया की महाराज और रानियाँ दुखी न हो जाये इसलिए वो अपने आँखों से आंसू भी नहीं निकलने देगी । उर्मिला का अवर्णित , अचर्चित त्याग , महान चरित्र,अखंड पतिव्रत और स्नेह की चर्चा रामायण में अपेक्षित थी पर वह हो न सका।

मैथिलि शरण गुप्त के साकेत का नवम सर्ग उर्मिला के विरह वेदना चित्रित करता है । उर्मिला कहती है :

मिथिला मेरा मूल है और अयोध्या फूल,
चित्रकूट को क्या कहूँ, रह जाती हूँ भूल!

मिथिला तो मेरा जन्मस्थान है और अयोध्या मेरे फैलने फूलने का स्थान , पर चित्रकूट को क्या कहूँ ? मै तो भूल जाती हूँ । स्मरण रहे चित्रकूट क्षेत्र के में ही राम, सीता और लक्ष्मण ने वनवास के ११ साल बिताये।
अयोध्या की राज वधू उर्मिला ने १४ वर्ष हर दिन १६ घंटे सो कर बिताये क्योकि लक्ष्मण से निंद्रा देवी से १४ वर्ष जागने का वरदान ले लिया तांकि वे राम और सीता की रक्षा में २४ घंटे जागे रहे और निंद्रा देवी ने उनके हिस्से की निंद्रा उर्मिला को देदिया। उनके सतीत्व की शक्ति ऐसी थी की मेघनाद की पत्नी सुलोचना जब राम के शिविर में मेघनाद का शीश लेने आई तो उन्होंने लक्ष्मण से कहा " भ्राता, आप यह मत समझना कि आपने मेरे पति को मारा है। उनका वध करने का पराक्रम किसी में नहीं। यह तो आपकी पत्नी के सतित्व की शक्ति है। अंतर मात्र यह है कि मेरे स्वामी ने असत्य का साथ दिया।

आशा प्रभात के पुस्तक (उर्मिला - अमेज़न पर उपलब्ध) में उर्मिला कहतीं है "आर्य राम , दीदी सीता और सौमित्र संग अरण्य जा चुके है , भवनवासियों को अश्रु के महासमुद्र में डुबों कर और मैं अश्रुशून्य नेत्र लिए द्वार पर एक पाषाण प्रतिमा की तरह जड़ सी खड़ी देखने को विवश हूँ सभी को वेदना में तड़पते , छटपटाते,,। "
अंत में मेरी एक कविता, उर्मिला कहती है:

जाओ कर लो जो मन ठाना
मै बनू नहीं कोई बाधा
न आंसू और न कोई शोक
तप सेवा से सह लूं वियोग
तुम तज गृह करो प्रभु सेवा
मैं तज सुख करूं प्रभु सेवा
-अमिताभ

अभी बस इतना ही। बांकी दोनों अयोध्या की राज वधुओं - मांडवी और श्रुतिकीर्ति पर भी लेख लिखूंगा ।

Thursday, February 22, 2024

मानस के कुछ भावुक क्षण - भाग- ६ (वन गमन ३-२)

वक्रतुण्ड महाकाय सूर्यकोटि समप्रभ। निर्विघ्नं कुरु मे देव सर्वकार्येषु सर्वदा॥

मैं पिछले चार-पांच ब्लॉग में राम चरित मानस के भावुक क्षणों को मानस की चौपाइयों से संकलित करने की छोटी चेष्टा कर रहा हूँ । मैं पिछले ब्लॉगों का लिंक यहाँ दे रहा हूँ तांकि आपने यदि नहीं पढ़ा तो निरंतरता के लिए पढ़ सकते है। कृपया लिंक पर क्लिक करें।

कुछ पाठको ‌ने बताया कि राम कथा ब्लॉग लंबा हो जा रहा है अतः मैंने वनगमन - भाग -३ के अपने ब्लॉग को दो भाग में बाँट दिया हूँ। पहला भाग में सुमंत के अयोध्या लौटने से लेकर दशरथ जी के मृत्यु तक की कथा है और दूसरे भाग (यानि इस भाग में भरत का आना और चित्रकूट के लिए प्रस्थान करने तक का प्रसंग है।
सुमंत राम सीता और लक्ष्मण के समझाने पर उन्हें गंगा तट तक पंहुचा कर अयोध्या आये है । उन्होंने बड़ी बुद्धिमता से सभी बातें दशरथ को बताई है लेकिन दशरथ राम जी का वियोग सह न सके और उनकी मृत्यु हो गयी। अब आगे ।

भारत कौशल्या संवाद और दशरथ की अंत्योष्टि


चित्रकूट , विकिपीडिया से साभार
भरतहि देखि मातु उठि धाई। मुरुचित अवनि परी झइँ आई॥
देखत भरतु बिकल भए भारी। परे चरन तन दसा बिसारी॥
मातु तात कहँ देहि देखाई। कहँ सिय रामु लखनु दोउ भाई॥
कैकइ कत जनमी जग माझा। जौं जनमि त भइ काहे न बाँझा॥

भरत को देखते ही माता कौसल्याजी उठ दौड़ीं। पर चक्कर आ जाने से मूर्च्छित होकर पृथ्वी पर गिर पड़ीं। यह देखते ही भरतजी बड़े व्याकुल हो गए और शरीर की सुध भुलाकर चरणों में गिर पड़े। फिर बोले- माता! पिताजी कहाँ हैं? उन्हें दिखा दें। सीताजी तथा मेरे दोनों भाई श्री राम-लक्ष्मण कहाँ हैं? उन्हें दिखा दें। कैकेयी जगत में क्यों जनमी! और यदि जनमी ही तो फिर बाँझ क्यों न हुई?

कुल कलंकु जेहिं जनमेउ मोही। अपजस भाजन प्रियजन द्रोही॥
को तिभुवन मोहि सरिस अभागी। गति असि तोरि मातुजेहि लागी॥
सरल सुभाय मायँ हियँ लाए। अति हित मनहुँ राम फिरि आए॥
भेंटेउ बहुरि लखन लघु भाई। सोकु सनेहु न हृदयँ समाई॥

जिसने कुल के कलंक, अपयश के कारण बने और प्रियजनों के द्रोही मुझ जैसे पुत्र को उत्पन्न किया। तीनों लोकों में मेरे समान अभागा कौन है? जिसके कारण हे माता! तेरी यह दशा हुई! सरल स्वभाव वाली माता ने बड़े प्रेम से भरतजी को छाती से लगा लिया, मानो श्री रामजी ही लौटकर आ गए हों। फिर लक्ष्मणजी के छोटे भाई शत्रुघ्न को हृदय से लगाया। शोक और स्नेह हृदय में समाता नहीं है ।


वशिष्ठ -भरत संवाद, श्री रामजी को लाने के लिए चित्रकूट जाने की तैयारी

तात हृदयँ धीरजु धरहु करहु जो अवसर आजु।
उठे भरत गुर बचन सुनि करन कहेउ सबु साजु॥

पतनु बेद बिदित अन्हवावा। परम बिचित्र बिमानु बनावा॥
गाहि पदभरत मातु सब राखी। रहीं रानि दरसन अभिलाषी ।।

वशिष्ठजी ने कहा- हे तात! हृदय में धीरज धरो और आज जिस कार्य को करने का अवसर है, उसे करो। गुरुजी के वचन सुनकर भरतजी उठे और उन्होंने सब तैयारी करने के लिए कहा। वेदों में बताई हुई विधि से राजा की देह को स्नान कराया गया और परम विचित्र विमान बनाया गया। भरतजी ने सब माताओं को चरण पकड़कर रखा अर्थात प्रार्थना करके उनको सती होने से रोक लिया। वे रानियाँ भी (श्री राम के) दर्शन की अभिलाषा से रह गईं।

रायँ राजपदु तुम्ह कहुँ दीन्हा। पिता बचनु फुर चाहिअ कीन्हा।।
तजे रामु जेहिं बचनहि लागी। तनु परिहरेउ राम बिरहागी।।
नृपहि बचन प्रिय नहिं प्रिय प्राना। करहु तात पितु बचन प्रवाना।।
करहु सीस धरि भूप रजाई। हइ तुम्ह कहँ सब भाँति भलाई।।

मुनि वशिष्ठ ने भारत को बुला कर सभी तरह से समझाया और कहा राजा ने राज पद तुमको दिया है। पिता का वचन तुम्हें सत्य करना चाहिए, जिन्होंने वचन के लिए ही श्री रामचन्द्रजी को त्याग दिया और रामविरह की अग्नि में अपने शरीर की आहुति दे दी । राजा को वचन प्रिय थे, प्राण प्रिय नहीं थे, इसलिए हे तात! पिता के वचनों को प्रमाण (सत्य) करो! राजा की आज्ञा सिर चढ़ाकर पालन करो, इसमें तुम्हारी सब तरह भलाई है।

परसुराम पितु अग्या राखी। मारी मातु लोक सब साखी।
तनय जजातिहि जौबनु दयऊ। पितु अग्याँ अघ अजसु न भयऊ।।
अनुचित उचित बिचारु तजि ते पालहिं पितु बैन।
ते भाजन सुख सुजस के बसहिं अमरपति ऐन।।

भरत को पिता की आज्ञा ( भरत का राज्याभिषेक) अनुचित लग रही है जान वशिष्ठ जी बोले , परसुराम ने पिता की आज्ञा मानी और माता को मार डाला , ययाति के पुत्रों ने अपनी जवानी पिता को दे दी , क्योंकि वे पिता की आज्ञा पालन कर रहे थे वे पाप के भागी नहीं हुए और उनका कुछ अपयश भी हो हुआ। उचित अनुचित का विचार त्याग कर जो पिता की आज्ञा पालन करते है वे और यहाँ सुख का और स्वर्ग के भागी बनते है । राज्य संभालो भले रामचंद्र जी के लौट आने पर राज्य उनको सौप देना। भरत अपने को और कुमाता को को सभी अनर्थो का कारण समझ बहुत विलाप करते है और कहते है की यदि मैंने राज्य संभाला तो सभी मुझे ही बुरा कहेगा, मैं अधम हूं लक्ष्मण तो बहुत भाग्यशाली है की उसे राम चंद्र और सीता माता के सेवा का अवसर मिला।

कौसल्या धरि धीरजु कहई। पूत पथ्य गुर आयसु अहई॥
सो आदरिअ करिअ हित मानी। तजिअ बिषादु काल गति जानी॥
बन रघुपति सुरपति नरनाहू। तुम्ह एहि भाँति तात कदराहू॥
परिजन प्रजा सचिव सब अंबा। तुम्हहीं सुत सब कहँ अवलंबा॥

कौसल्याजी भी धीरज धरकर कह रही हैं- हे पुत्र! गुरुजी की आज्ञा पथ्य (औषधि समान) रूप है। उनके आज्ञा का आदर करना चाहिए और हित मानकर उसका पालन करना चाहिए। काल की गति को जानकर विषाद का त्याग कर देना चाहिए। श्री रघुनाथजी वन में हैं, महाराज स्वर्ग का राज्य करने चले गए और हे तात! तुम इस प्रकार कातर हो रहे हो। हे पुत्र! कुटुम्ब, प्रजा, मंत्री और सब माताओं के, सबके एक तुम ही सहारे हो।

सील सकुच सुठि सरल सुभाऊ। कृपा सनेह सदन रघुराऊ॥
अरिहुक अनभल कीन्ह न रामा। मैं सिसु सेवक जद्यपि बामा॥
म्ह पै पाँच मोर भल मानी। आयसु आसिष देहु सुबानी॥
जेहिं सुनि बिनय मोहि जनु जानी। आवहिं बहुरि रामु रजधानी॥

भरत जी कहते है श्री रघुनाथजी शील, संकोच, अत्यन्त सरल , कृपा और स्नेही स्वाभाव के हैं। श्री रामजी ने कभी शत्रु का भी अनिष्ट नहीं किया। मैं यद्यपि टेढ़ा हूँ, पर हूँ तो उनका ही बच्चा और सेवक। आप पंच लोग भी इसी में मेरा कल्याण मानकर सुंदर वाणी से आज्ञा और आशीर्वाद दीजिए, जिसमें मेरी विनती सुनकर और मुझे अपना दास जानकर श्री रामचन्द्रजी राजधानी को लौट आवें।

भरत बचन सब कहँ प्रिय लागे। राम सनेह सुधाँ जनु पागे॥
लोग बियोग बिषम बिष दागे। मंत्र सबीज सुनत जनु जागे॥
मातु सचिव गुर पुर नर नारी। सकल सनेहँ बिकल भए भारी॥
भरतहि कहहिं सराहि सराही। राम प्रेम मूरति तनु आही॥

भरतजी के वचन सबको प्यारे लगे। मानो वे श्री रामजी के प्रेमरूपी अमृत में पगे हुए थे। श्री रामवियोग रूपी भीषण विष से सब लोग जले हुए थे। वे मानो बीज सहित मंत्र को सुनते ही जाग उठे। माता, मंत्री, गुरु, नगर के स्त्री-पुरुष सभी स्नेह के कारण बहुत ही व्याकुल हो गए। सब भरतजी को सराह-सराहकर कहते हैं कि आपका शरीर श्री रामप्रेम की साक्षात मूर्ति ही है। सभी उनके साथ राम के पास जाने तो उद्यत भी हो गए।

कहहिं परसपर भा बड़ काजू। सकल चलै कर साजहिं साजू॥
जेहि राखहिं रहु घर रखवारी। सो जानइ जनु गरदनि मारी॥

सभी नगर वासी आपस में कहते हैं, बड़ा काम हुआ। सभी चलने की तैयारी करने लगे। जिसको भी घर की रखवाली के लिए रहन पड़ा उन्हें ऐसा लगता हैं, मानो मेरी गर्दन मारी गई। भरत जी चित्रकूट के लिए चल पड़े सभी नगर वासी भी उनके साथ चल पड़े।

अरुंधती अरु अगिनि समाऊ। रथ चढ़ि चले प्रथम मुनिराऊ॥
बिप्र बृंद चढ़ि बाहन नाना। चले सकल तप तेज निधाना॥
नगर लोग सब सजि सजि जाना। चित्रकूट कहँ कीन्ह पयाना॥
सिबिका सुभग न जाहिं बखानी। चढ़ि चढ़ि चलत भईं सब रानी॥

सबसे पहले मुनिराज वशिष्ठजी अरुंधती और अग्निहोत्र की सब सामग्री सहित रथ पर सवार होकर चले। फिर ब्राह्मणों के समूह, जो सब के सब तपस्या और तेज के भंडार थे, अनेकों सवारियों पर चढ़कर चले। नगर के सब लोग रथों को सजा-सजाकर चित्रकूट को चल पड़े। जिनका वर्णन नहीं हो सकता, ऐसी सुंदर पालकियों पर चढ़-चढ़कर सब रानियाँ चलीं।

अगले ब्लॉग में राम भारत मिलाप तक लिखूंगा। उस महत्वपूर्ण क्षण को लिखने के लिए एक या दो ब्लॉग भी कम पड़े इसलिए मैं इस ब्लॉग को अभी समाप्त करता हूँ। आशा है आपको पसंद आएगा और उम्मीद करता हूँ राम भारत मिलाप के ब्लॉग क प्रतीक्षा आप करेंगे।

Monday, February 19, 2024

मानस के कुछ भावुक क्षण - भाग- ५ (वन गमन ३-१)

मैं पिछले चार ब्लॉग में राम चरित मानस के भावुक क्षणों को मानस की चौपाइयों से संकलित करने की छोटी चेष्टा कर रहा हूँ । मैं पिछले ब्लॉगों का लिंक यहाँ दे रहा हूँ तांकि आपने यदि नहीं पढ़ा तो निरंतरता के लिए पढ़ सकते है। कृपया लिंक पर क्लिक करें।


आगे पढ़े आज का ब्लॉग "राम का वन गमन मार्ग भाग-३" मानस की चौपाइयों के संग । गणेश वंदना के बाद:

जो सुमिरत सिधि होइ गन नायक करिबर बदन।
करउ अनुग्रह सोइ बुद्धि रासि सुभ गुन सदन।।
मूक होई वाचाल, पंगु चढ़ई गिरिवर गहन।
जासु कृपा सो दयाल, द्रवहु सकल कलिमल-दहन।।

सुमंत का अयोध्या लौटना, सुमंत - दशरथ - सुमंत संवाद और दशरथ की मृत्यु , भरत- शत्रुघ्न का अयोध्या लौटना

श्रीवेंगपुर में मंत्री सुमंत ने महाराज दशरथ की इच्छा श्री राम को बताई थी की महराज ने कहा था सभी को चारदिन वन दिखा लौटा लाना लेकिन राम न माने न ही सीता मानी तब राम जी से मंत्री सुमंत को महाराज का ख्याल रखने के आग्रह के साथ वापस अयोध्या लौटने को मना लिया था । निषादराज ने चार निषाद सुमंत जी के साथ कर दिए। अब आगे।

सोच सुमंत्र बिकल दुख दीना। धिग जीवन रघुबीर बिहीना॥
रहिहि न अंतहुँ अधम सरीरू। जसु न लहेउ बिछुरत रघुबीरू॥
भए अजस अघ भाजन प्राना। कवन हेतु नहिं करत पयाना॥
अहह मंद मनु अवसर चूका। अजहुँ न हृदय होत दुइ टूका॥

व्याकुल और दुःखी सुमंत्रजी सोचते हैं कि श्री राम के बिना जीना धिक्कार है। आखिर यह अधम शरीर नश्वर है तो अभी श्री रामचन्द्रजी के बिछुड़ते ही छूटकर (प्राण निकल कर ) इसने यश क्यों नहीं ले लिया। ये प्राण अपयश और पाप के कारण बन गए। अब ये प्राण किस कारण कूच नहीं निकलते ? हाय! नीच मन बड़ा अच्छा मौका चूक गया। अब भी तो हृदय के दो टुकड़े नहीं हो जाते। वे सोचते है जब नगर में सभी नर नारी , दुखी माताएं पूछेंगी राम , सीता और लखन नहीं लौटे तो क्या जवाब दूंगा ?

देहउँ उतरु कौनु मुहु लाई। आयउँ कुसल कुअँर पहुँचाई॥
सुनत लखन सिय राम सँदेसू। तृन जिमि तनु परिहरिहि नरेसू॥

मैं कौन सा मुँह लेकर उत्तर दूँगा कि मैं राजकुमारों को कुशल पूर्वक पहुँचा आया हूँ! लक्ष्मण, सीता और श्रीराम का समाचार सुनते ही महाराज जिनका जीवन श्री रघुनाथजी के दर्शन के ही अधीन है,तिनके की तरह शरीर को त्याग देंगे। तमसा नदी के के किनारे पहुंच सुमंत जी ने निषादों को वापस भेज दिया।

सचिव आगमनु सुनत सबु बिकल भयउ रनिवासु।
भवनु भयंकरु लाग तेहि मानहुँ प्रेत निवासु।।

अति आरति सब पूँछहिं रानी। उतरु न आव बिकल भइ बानी।।
सुनइ न श्रवन नयन नहिं सूझा। कहहु कहाँ नृपु तेहि तेहि बूझा।।

मंत्री का (अकेले) आना सुनकर सारा रनिवास व्याकुल हो गया। राजमहल उनको भयानक प्रेतों का निवास लगने लगा । अत्यन्त आर्त होकर सब रानियाँ पूछती हैं, पर सुमंत्र को कुछ उत्तर नहीं आता, उनकी वाणी विकल हो गई रुद्ध हो गई है। न कानों से सुनाई पड़ता है और न आँखों से कुछ सूझता है। वे जो भी सामने आता है उस-उससे पूछते हैं मेरे राजा राम कहाँ हैं ?

आसन सयन बिभूषन हीना। परेउ भूमितल निपट मलीना॥
लेइ उसासु सोच एहि भाँती। सुरपुर तें जनु खँसेउ जजाती॥

भावार्थ:-राजा आसन, शय्या और आभूषणों से रहित बिलकुल मलिन पृथ्वी पर पड़े हुए हैं। वे लंबी साँसें लेकर इस प्रकार सोच करते हैं, मानो राजा ययाति स्वर्ग से गिरकर सोच रहे हों।

भूप सुमंत्रु लीन्ह उर लाई। बूड़त कछु अधार जनु पाई॥
सहित सनेह निकट बैठारी। पूँछत राउ नयन भरि बारी॥
राम कुसल कहु सखा सनेही। कहँ रघुनाथु लखनु बैदेही॥
आने फेरि कि बनहि सिधाए। सुनत सचिव लोचन जल छाए॥

राजा ने सुमंत्र को हृदय से लगा लिया। मानो डूबते हुए आदमी को कुछ सहारा मिल गया हो। मंत्री को स्नेह के साथ पास बैठाकर नेत्रों में जल भरकर राजा पूछने लगे -हे मेरे प्रेमी सखा! श्री राम की कुशल कहो। बताओ, श्री राम, लक्ष्मण और जानकी कहाँ हैं? उन्हें लौटा लाए हो कि वे वन को चले गए? यह सुनते ही मंत्री के नेत्रों में जल भर आया। राजा बार-बार मंत्री से पूछते हैं- मेरे प्रियतम पुत्रों का संदेशा सुनाओ।

सचिव धीर धरि कह मृदु बानी। महाराज तुम्ह पंडित ग्यानी॥
बीर सुधीर धुरंधर देवा। साधु समाजु सदा तुम्ह सेवा॥
जनम मरन सब दुख सुख भोगा। हानि लाभु प्रिय मिलन बियोगा॥
काल करम बस होहिं गोसाईं। बरबस राति दिवस की नाईं॥

सुमंत जी मृदुल बानी से महाराज को ढ़ाढस दिलाते है - आप तो पंडित ज्ञानी है , सुर वीर है , साधु समाज की सेवा करने वाले है। सुख दुःख , हानि लाभ , प्यारों से मिलना बिछुड़ना , यह सब काल कर्म के अधीन है रात दिन और दिन की तरह बरबस होते रहते है। सुमंत जी ने दशरथ से सारी कथा सुनाई कि कैसे पहली रात राम सीता - लक्ष्मण ने तमसा तट पर बिताई और कैसे निषादराज ने सेवा की कैसे वे श्रीवेंगपुर गए और केवट में नाव से उसपार गए और कैसे राम के कहने पर उन्हें लौटना पड़ा।

पुरजन परिजन सकल निहोरी। तात सुनाएहु बिनती मोरी॥
सोइ सब भाँति मोर हितकारी। जातें रह नरनाहु सुखारी॥
कहब सँदेसु भरत के आएँ। नीति न तजिअ राजपदु पाएँ॥
पालेहु प्रजहि करम मन बानी। सेएहु मातु सकल सम जानी॥

राम जी ने सुमंत जी ने आते समय कहा था कि सभी पुरवासियों और कुटुंब वालों से निहोरा करना कि वही मनुष्य हमारा हर तरह से हितकारी है जिसकी चेष्टा से महाराज सुखी रहें । जब भारत आये तो उससे कहना कि राज पद पाने पर नीति न त्याग दे। प्रजा पालन वचन और मन से करना। सभी माताओं को सामान जानकार उनकी सेवा करें।

मैं आपन किमि कहौं कलेसू। जिअत फिरेउँ लेइ राम सँदेसू॥
अस कहि सचिव बचन रहि गयऊ। हानि गलानि सोच बस भयऊ॥
सूत बचन सुनतहिं नरनाहू। परेउ धरनि उर दारुन दाहू॥
तलफत बिषम मोह मन मापा। माजा मनहुँ मीन कहुँ ब्यापा॥

सुमंत कहते है कि मैं अपने क्लेश कि क्या कहूँ। मैं वापस जिन्दा राम का सन्देश ले कर लौट आया हूँ ऐसा कह कर उनका गाला रुंध गया और वे हानि और ग्लानि के वश में हो गया । सुमंत से पुत्र कि बातें सुन कर महाराज पृत्वी पर गिर पड़े। मन भीषण मोह से व्याकुल हो गया। और वह मछली कि तरह तड़पने लगे। राजा के प्राण कंठ में आ गया मानो मणि के बिना सांप , जल के बिना कमल मुरझा गया हो। रानियों के विलाप से नगरवासी सभी दुःख हो गए ।

कौसल्याँ नृपु दीख मलाना। रबिकुल रबि अँथयउ जियँ जाना॥
उर धरि धीर राम महतारी। बोली बचन समय अनुसारी॥
नाथ समुझि मन करिअ बिचारू। राम बियोग पयोधि अपारू ।
करनधार तुम्ह अवध जहाजू। चढ़ेउ सकल प्रिय पथिक समाजू॥

कौसल्याजी ने राजा को बहुत दुःखी देखकर मन ही मन जान लिया कि अब सूर्यकुल का सूर्य अस्त हो चला! तब श्री रामचन्द्रजी की माता कौसल्या हृदय में धीरज धरकर समय के अनुकूल वचन बोलीं-हे नाथ! आप मन में समझ कर विचार कीजिए कि श्री रामचन्द्र का वियोग अपार समुद्र है। अयोध्या जहाज है और आप उसके कर्णधार खेने वाले हैं। सब प्रियजन कुटुम्बी और प्रजा ही यात्रियों का समाज है, जो इस जहाज पर चढ़ा हुआ है। पर कुछ काम न आया और अन्ततः राजा कि मृत्यु हो गयी और गई गुरु वशिष्ठ ने भारत को बुलाने को दूत भेजने को कहा। अयोध्या से राम के प्रस्थान के बाद से ही भारत को अपशकुन होने लगे सियार और गदहे उल्टे बोलने लगे। हवा के वेग से चलने वाले घोड़े से भारत चल पड़े । वे चाहते थे कैसे उड़ कर पहुँच जाऊं ।


राजा दशरथ का स्वर्गवास
पुरजन मिलहिं न कहहिं कछु गवँहि जोहारहिं जाहिं।
भरत कुसल पूँछि न सकहिं भय बिषाद मन माहिं॥

अयोध्या पहुंचने पर भारत जी नगर के लोग मिलते हैं, पर कुछ कहते नहीं, चुपके से जोहार (वंदना) करके चले जाते हैं। भरतजी भी किसी से कुशल नहीं पूछ सकते, क्योंकि उनके मन में भय और विषाद छा रहा है । आशंका होती है कि कोई बुरा समाचार न दे दे । भारत ने देखा पूरा अयोध्या दुखी है पर उसकी माता कैकयी आरती का थाल सजा ले आई।

सकल कुसल कहि भरत सुनाई। पूँछी निज कुल कुसल भलाई॥
कहु कहँ तात कहाँ सब माता। कहँ सिय राम लखन प्रिय भ्राता॥

सुनि सुत बचन सनेहमय कपट नीर भरि नैन।
भरत श्रवन मन सूल सम पापिनि बोली बैन॥

भरतजी ने सब कुशल कह सुनाई। फिर अपने कुल का कुशल-क्षेम भी पूछा । भरतजी ने कहा- कहो, पिताजी कहाँ हैं ? मेरी सब माताएँ कहाँ हैं ? सीताजी और मेरे प्यारे भाई राम-लक्ष्मण कहाँ हैं ? पुत्र के स्नेहमय वचन सुनकर नेत्रों में कपट का जल भरकर पापिनी कैकेयी भरत के कानों में और मन में शूल के समान चुभने वाले वचन बोली- मैंने मंथरा कि मदद से सारा काम कर लिया था पर विधाता ने थोड़ा काम बिगाड़ दिया और महाराज देवलोक पधार गए ।

चलत न देखन पायउँ तोही। तात न रामहि सौंपेहु मोही॥
बहुरि धीर धरि उठे सँभारी। कहु पितु मरन हेतु महतारी॥
सुनि सुत बचन कहति कैकेई। मरमु पाँछि जनु माहुर देई॥
आदिहु तें सब आपनि करनी। कुटिल कठोर मुदित मन बरनी॥

दशरथ को देख भारत विलाप करने लगे हे तात! मैं आपको अंत समय में समय देख भी न सका। और आप मुझे श्री रामजी को सौंप भी नहीं गए! फिर धीरज धरकर वे सम्हलकर उठे और बोले- माता!, पिता के मरने का कारण तो बताओ । पुत्र का वचन सुनकर कैकेयी कहने लगी : मानो मर्म स्थान को चाकू से चीरकर उसमें जहर भर रही हो। कुटिल और कठोर कैकेयी ने अपनी सब करनी शुरू से आखिर तक बड़े प्रसन्न मन से सुना दी । राम चंद्र जी का वन जाना जान कर भरत जी पिता के मृत्यु का दुःख भूल गए। और सारे अनर्थ का कारण अपने को जान कर मौन हो गए। पुत्र को व्याकुल देख कैकयी उन्हें समझाती है (जैसे जले पर नमक लगा रही हो) कि महाराज के जाने का दुःख न करो , उन्होंने पुण्य और यश कामा कर उसका पूरा भोग कर लिया है।

सुनि सुठि सहमेउ राजकुमारू। पाकें छत जनु लाग अँगारू॥
धीरज धरि भरि लेहिं उसासा। पापिनि सबहि भाँति कुल नासा॥
जौं पै कुरुचि रही अति तोही। जनमत काहे न मारे मोही॥
पेड़ काटि तैं पालउ सींचा। मीन जिअन निति बारि उलीचा॥

राजकुमार भरतजी यह सुनकर बहुत ही सहम गए। मानो पके घाव पर अँगार छू गया हो। उन्होंने धीरज धरकर बड़ी लम्बी साँस लेते हुए कहा- पापिनी! तूने सभी तरह से कुल का नाश कर दिया। हाय! यदि तेरी ऐसी ही दुष्ट इच्छा थी, तो तूने जन्मते ही मुझे मार क्यों नहीं डाला? तूने पेड़ को काटकर पत्ते को सींचा है और मछली के जीने के लिए पानी को उलीच डाला! अर्थात मेरा हित करने जाकर उलटा तूने मेरा अहित कर डाला । उसकी बात सुन कर शत्रुघ्न मंथरा को झोटा पकड़ कर घसीटने लगे । और उसका कूबड़ तोड़ डाला।


भारत कौशल्या संवाद और दशरथ की अंत्योष्टि

भरतहि देखि मातु उठि धाई। मुरुचित अवनि परी झइँ आई॥
देखत भरतु बिकल भए भारी। परे चरन तन दसा बिसारी॥
मातु तात कहँ देहि देखाई। कहँ सिय रामु लखनु दोउ भाई॥
कैकइ कत जनमी जग माझा। जौं जनमि त भइ काहे न बाँझा॥

भरत को देखते ही माता कौसल्याजी उठ दौड़ीं। पर चक्कर आ जाने से मूर्च्छित होकर पृथ्वी पर गिर पड़ीं। यह देखते ही भरतजी बड़े व्याकुल हो गए और शरीर की सुध भुलाकर चरणों में गिर पड़े। फिर बोले- माता! पिताजी कहाँ हैं? उन्हें दिखा दें। सीताजी तथा मेरे दोनों भाई श्री राम-लक्ष्मण कहाँ हैं? उन्हें दिखा दें। कैकेयी जगत में क्यों जनमी! और यदि जनमी ही तो फिर बाँझ क्यों न हुई?

कुल कलंकु जेहिं जनमेउ मोही। अपजस भाजन प्रियजन द्रोही॥
को तिभुवन मोहि सरिस अभागी। गति असि तोरि मातुजेहि लागी॥
सरल सुभाय मायँ हियँ लाए। अति हित मनहुँ राम फिरि आए॥
भेंटेउ बहुरि लखन लघु भाई। सोकु सनेहु न हृदयँ समाई॥

जिसने कुल के कलंक, अपयश के कारण बने और प्रियजनों के द्रोही मुझ जैसे पुत्र को उत्पन्न किया। तीनों लोकों में मेरे समान अभागा कौन है? जिसके कारण हे माता! तेरी यह दशा हुई! सरल स्वभाव वाली माता ने बड़े प्रेम से भरतजी को छाती से लगा लिया, मानो श्री रामजी ही लौटकर आ गए हों। फिर लक्ष्मणजी के छोटे भाई शत्रुघ्न को हृदय से लगाया। शोक और स्नेह हृदय में समाता नहीं है ।
क्रमशः

Saturday, February 17, 2024

राम चरित मानस में दोहा, चौपाई , सोरठा और छंद

अभी मैं राम चरित मानस पर ब्लॉग की एक श्रंखला लिख रहा हूँ तो मेरी भी कई जिज्ञासाएं उत्त्पन्न हो रही है। तुलसी दास कृत रामायण में है दोहा, चौपाई , सोरठा और छंद। ये क्या है और इनमे क्या अंतर है। मैं अपने ब्लॉग में इन्हे अलग अलग नहीं रख पा रहा हूँ और अपनी मेहनत बचाने और आसानी के लिए इनका मिश्रण भी कर दे रहा हूँ । क्योंकि इन ब्लॉगों में मेरा उद्देश्य सिर्फ राम कथा के उन क्षणों को प्रस्तुत करना है जिसमे भावुकता है। इस लघु ब्लॉग में मैं अपनी ही जिज्ञासा शांत करने की कोशिश कर रहा हूँ। मैंने जो भी खोज पाया उसे लिख रहा हूँ , यदि कुछ गलत लिखा तो कमेंट में बताएं।

दोह क्या है ?

इसमें दो लाइन होती है और चार चरण होते है। पहले और तीसरे चरण में १३-१३ और दूसरे और चौथे चरण में ११-११ मात्राएँ होती। है मात्रा गिनने के लिए दीर्घ स्वर के दो और ह्रस्व स्वर की एक मात्रा होती है। मात्रा को गिनते है किसी कविता , पद्य या काव्य को सुर ताल में गाने लायक बनाने के लिए। जैसे फ़िल्मी गीत को मीटर में लिखा जाता है। यानि दोहा के हर लाइन की ११+१३ = २४ मात्रा।
मात्रा कैसे गिने ? उदाहरण में बाल कांड की ये दोहा जो राम लक्ष्मण का गुरु विश्वामित्र के साथ जनकपुर के उद्यान में प्रवास का है
अ, इ, उ की मात्राएँ लघु (।) मानी गयी हैं । =१ मात्रा , आ, ई, ऊ ,ए ,ऐ ओ और औ की मात्राएँ दीर्घ (S) मानी गयी है। = २ मात्रा
क से लेकर ज्ञ तक व्यंजनों को लघु मानते हुए इनकी मात्रा एक (।) मानी गयी है।अनुस्वार (.) तथा स्वरहीन व्यंजन अर्थात आधे व्यंजन की आधी मात्रा मानी जाती है।

उठे लखनु निसि बिगत सुनि। अरुनसिखा धुनि कान।।
1S1111111111=१३ -----------1111S11S1 =११
गुर तें पहिलेहिं जगतपति। जागे रामु सुजान।।
11S11S11111 =१३------- SSS11S1 =११
यानि पहला और तीसरी भाग में १३-१३ और दूसरे और चौथे भाग में ११-११ मात्राएँ है।

चौपाई क्या है ?

चौपाई में चार चरण होते है और चारो १६-१६ मात्राएँ की होती पर अंत में S11 या 11S या गुरु लघु (S1 ) मात्रा वाले शब्द नहीं होने चाहिए। उदाहरण में राम वन गमन से एक चौपाई :-

राम लखन सिय रूप निहारी।
S1-111-11-S1-1SS= 16
कहहिं सप्रेम ग्राम नर नारी॥
ते पितु मातु कहहु सखि कैसे।
जिन्ह पठए बन बालक ऐसे॥

सोरठा
दोहा के विषम चरणों में १३ और सम चरणों में ११ मात्रा होती है इसके उलट सोरठा एक अर्ध सम मैट्रिक छंद है इसके विषम चरणों में ११ और सम चरणों में १३ मात्रा होती है।
सुनत सुमंगल बैन। मन प्रमोद तन पुलक भर।।
111 --11111 --S1 =११ 11 -SS1 -11 - 111 -11 =१३
सरद सरोरुह नैन। तुलसी भरे सनेह जल।।

छंद क्या है ?
यूँ तो मात्राओं के बंधन से बंधे हर काव्य छंद है और इसलिए दोहा , चौपाई और सोरठा भी छंद ही है।
रामचरित मानस में छन्दो की संख्या 208 है जिसमें से 139 हरिगीतिका छन्द है । यह छन्द गाने में अत्यन्त मनोहर है । इसमें चार चरण होते है । इसमें चार चरण होते है । प्रत्येक चरण में 28 मात्राएँ होती है । प्रत्येक सातवीं मात्रा के बाद दीर्घ आता है । उदाहरण में सुन्दरकाण्ड का एक छंद

बन बाग उपबन बाटिका सर कूप बापीं सोहहीं।
11S1--1111--S1S--11--S1--SS---S1S =28

नर नाग सुर गंधर्ब कन्या रूप मुनि मन मोहहीं॥
कहुँ माल देह बिसाल सैल समान अतिबल गर्जहीं।
नाना अखारेन्ह भिरहिं बहुबिधि एक एकन्ह तर्जहीं॥

अब नीचे लिखे छंदों के प्रकार बताईए । चौपाई, दोहा या सोरठा ? उत्तर नीचे दिया है।

1)
का बरषा सब कृषी सुखानें।
समय चुकें पुनि का पछितानें॥
अस जियँ जानि जानकी देखी।
प्रभु पुलके लखि प्रीति बिसेषी॥

2)
तुलसी इस संसार में ।
भांति भांति के लोग।।
सबसे हसकर बोलिये ।
नदी नावं संजोग।।

3)
चित्रकूट के घाट पर ।
भइँ संतान की भीर ।।
तुलसी दास चन्दन रगड़े ।
तिलक करे रघुवीर।।

4)
तुलसी मीठे वचन ते ।
सुख उपजत चहु और।।
बसीकरन एक मंत्र है ।
परिहरु वचन कठोर।।

5)
दया धर्म का मूल है ।
पाप मूल अभिमान।।
तुलसी दया न छाड़ियें।
जब लग घट में प्राण।।

6)
जो सुमिरत सिधि होइ , गन नायक करिबर बदन।
करउ अनुग्रह सोइ, बुद्धि रासि सुभ गुन सदन।।
मूक होई वाचाल, पंगु चढ़ई गिरिवर गहन।
जासु कृपा सो दयाल, द्रवहु सकल कलिमल-दहन।।

कुछ और विषय को लेकर या राम वन गमन के अगले भाग के ब्लॉग के साथ फिर हाज़िर होऊंगा।

Hover over me for answer 1) चौपाई 2) दोहा 3) दोहा 4) दोहा 5) दोहा 6) सोरठा

Friday, February 16, 2024

यायावर और घुमक्कड़

मै कई आनलाइन यात्री और घुमक्कड़ी ग्रुप का सदस्य हूं। और अक्सर इन शब्दों का अर्थ समझने की कोशिश कर रहा हूँ। ऐसे तो कहीं भी आना जाना एक यात्रा है, मैंने तो प्रभात यात्रा (morning walk) नाम से भी ब्लॉग लिखे हैं पर मेरे हिसाब से घूमने वालों के चार प्रकार होते है

१ पर्यटक
२ यात्री
३ घुमक्कड़ या घुमन्तु
४ यायावर


प्रसिद्द पर्यटक स्थल

पर्यटक यानि टूरिस्ट उन्हीं स्थानों पर जाते हैं जहां उनके जैसे और भी पर्यटक जाना पसंद करते है। यानि जिन जगहों में कोई नयापन न हो। ऐसी जगहों को ही कहते है Tourist places जहां जाने, ठहरने, घुमने के लिए सभी इंतजाम आसानी से मिल जाते है ऐसे ही पर्यटको के लिए Tourist Package का इंतजाम ट्रेवल एजेंट करते है।


यात्रा तीर्थ यात्रा - कावंर यात्रा , गया मेला यात्रा ,भोटो यात्रा नेपाल

यात्री परम्परिक रूप से यात्रा की जाती रही है। तीर्थ यात्रा एक उदहारण है। कुछ मौकों पर किया जाने वाले प्रोग्राम भी यात्रा कहा जाता है , जैसे चारधाम यात्रा , नेपाल का गाय यात्रा या मछेन्द्र नाथ यात्रा। जात्रा या जतरा कई प्रदेशों में कुछ त्योहारों को भी कहते हैं। हर यात्री traveller है पर हर traveller यात्री नहीं होता ।


घुमक्कड़ी कम प्रसिद्द जगहों की - लछुआर (बिहार ) लागेन्थॉल (स्विट्ज़रलैंड)

घुमक्कड़ घुमक्कड़ उसे कहते है जिसकी कोई खास मंज़िल न हो और वह नई नई जगह या पुरानी जगहों के नए नए रास्ते ढूंढ़ता रहे। घुमक्कड़ जगहों के सामाजिक आर्थिक, खान पान सभी चीज़ो को भी देखता है और मनन करता है।


नॉर्वे के रोमा और हिमांचल के गद्दी (यायावर)

यायावर यायावर यानि Nomads वह है जिसका कोई ठिकाना नहीं होता। उसको लौटने के लिए कोई घर नहीं होता। खानाबदोश लोग यायावर है। इनकी सारी संपत्ति इनके साथ ही होती है।

Thursday, February 15, 2024

मानस के कुछ भावुक क्षण - भाग- ४ (वन गमन २)

मैं पिछले तीन ब्लॉग में राम चरित मानस के भावुक क्षणों को मानस की चौपाइयों से संकलित करने की छोटी चेष्टा कर रहा हूँ । मैं पिछले ब्लॉगों का लिंक यहाँ दे रहा हूँ तांकि अपने यदि नहीं पढ़ा तो निरंतरता के लिए पढ़ सकते है। कृपया लिंक पर क्लिक करें।


आगे पढ़े आज का ब्लॉग "राम का वन गमन मार्ग भाग-२" मानस की चौपाइयों के संग । गणेश वंदना के बाद: ओम गण गणपते नमः

निकसि बसिष्ठ द्वार भए ठाढ़े। देखे लोग बिरह दव दाढ़।।
कहि प्रिय बचन सकल समुझाए। बिप्र बृंद रघुबीर बोलाए।।
गुर सन कहि बरषासन दीन्हे। आदर दान बिनय बस कीन्।
जाचक दान मान संतोषे। मीत पुनीत प्रेम परितोषे।।



राम वन गमन का मैप अयोध्या कांड

राम लक्ष्मण और सीता विकल नगर वासियो को सोते छोड़ निकल पड़े है और गुरु वसिष्ठ के द्वार पर जा कर देखते है कि लोग विरह वेदना से दुखित है। वे प्रिय वचन बोल सभी ब्राह्मण जनों को बुलाते है वर्ष भर का अन्न आदि देकर विनय पूर्वक उन्हें समझते है फिर अपने दास दासियों को बुला कर उन्हें गुरु जी को सौप कर बोलते है कि हे गुरु इन सबों का माता पिता कि तरह ध्यान रखियेगा।

सुठि सुकुमार कुमार दोउ जनकसुता सुकुमारि।
रथ चढ़ाइ देखराइ बनु फिरेहु गएँ दिन चारि‌।।
जौं नहिं फिरहिं धीर दोउ भाई। सत्यसंध दृढ़ब्रत रघुराई॥
तौ तुम्ह बिनय करेहु कर जोरी। फेरिअ प्रभु मिथिलेसकिसोरी॥

राम लक्ष्मण सीता के जाते ही पूरी अयोध्या शोक में डूब गयी। जब दशरथ जी की मुर्छा टूटी तब उन्होंने मंत्री सुमंत को बुला कर कहा हे सखा ये सुकुमार दोनों भाई और सीता को चार दिन वन दिखा कर लौटा लाओ। यदि धैर्यवान दोनों भाई न लौटें- क्योंकि श्री रघुनाथजी प्रण के सच्चे और दृढ़ता से नियम का पालन करने वाले हैं- तो तुम हाथ जोड़कर विनती करना कि हे प्रभो! जनककुमारी सीताजी को तो लौटा दीजिए। सीता कभी अयोध्या रहे कभी जनकपुरी

1. तमसा नदी पहुंचना , नंदीग्राम

बालक बृद्ध बिहाइ गृहँ लगे लोग सब साथ।
तमसा तीर निवासु किय प्रथम दिवस रघुनाथ ।।
जबहिं जाम जुग जामिनि बीती। राम सचिव सन कहेउ सप्रीती ।।
खोज मारि रथु हाँकहु ताता। आन उपायँ बनिहि नहिं बाता ।।

बच्चों और बूढ़ों को घरों में छोड़कर सब लोग साथ हो लिए। पहले दिन श्री रघुनाथजी ने तमसा नदी के तीर पर निवास किया । यह जगह अयोध्या से करीब २० कि० मी० दूर भरतकुंड या नंदीग्राम के पास है। रामायण के अनुसार तमसा नदी बरसाती नदी है गंगा की बाये किनारे की सहायक नदी है। और यह कैमूर से निकलने वाली तमसा-टोंस नदी नहीं है। रात में जब सब नगर वासी सो गए जब दो पहर बीत गई, तब श्री रामचन्द्रजी ने प्रेमपूर्वक मंत्री सुमंत्र से कहा- हे तात! रथ के खोज मारकर (अर्थात् पहियों के चिह्नों से दिशा का पता न चले इस प्रकार) रथ को हाँकिए। और किसी उपाय से बात नहीं बनेगी सुबह जब नगरवासियों की नींद टूटती है तब तक राम लक्ष्मण और सीता जा चुके थे। और रथ का कहीं अता-पता भी नहीं था। सभी राम राम कह इधर उधर दौड़ने लगे। सभी दुःखी मन अयोध्या लौट आए और रामचन्द्रजी के पुनः दर्शन के लिए व्रत रखने लगे।

2. श्रृंगवेरपुर पहुंचना

सीता सचिव सहित दोउ भाई। सृंगबेरपुर पहुँचे जाई॥
उतरे राम देवसरि देखी। कीन्ह दंडवत हरषु बिसेषी॥

सीताजी और मंत्री सहित दोनों भाई श्रृंगवेरपुर जा पहुँचे। वहाँ गंगाजी को देखकर श्री रामजी रथ से उतर पड़े और बड़े हर्ष के साथ उन्होंने दण्डवत की । सभी ने गंगा जी में स्नान किया जिससे रास्ते कि थकन दूर हो गयी।

यह सुधि गुहँ निषाद जब पाई। मुदित लिए प्रिय बंधु बोलाई ॥
लिए फल मूल भेंट भरि भारा। मिलन चलेउ हियँ हरषु अपारा॥

यह निषादराज का क्षेत्र था। निषादराज और राम गुरुकुल में गुरुभाई रह चुके थे। जब निषादराज गुह ने यह खबर पाई, तब आनंदित होकर उसने अपने प्रियजनों और भाई-बंधुओं को बुला लिया और भेंट देने के लिए फल, मूल (कन्द) लेकर और उन्हें भारों (बहँगियों) में भरकर मिलने के लिए चला। उसके हृदय में हर्ष का पार नहीं था । निषादराज ने प्रभु से आग्रह किया घर चलने को तो प्रभु ने यह कह कर मना कर दिया कि पिता के वचन से उन्हें मुनि के जैसा व्यवहार करना है और वे किसी ग्राम - नगर में प्रवेश नहीं कर सकते।

राम लखन सिय रूप निहारी। कहहिं सप्रेम ग्राम नर नारी।।
ते पितु मातु कहहु सखि कैसे। जिन्ह पठए बन बालक ऐसे।।

ग्राम वासी रामजी, लक्ष्मणजी और सीताजी के रूप को देखकर गाँव के स्त्री-पुरुष बात चीत करने लगे । (कोई कहती है-) हे सखी! वे माता-पिता कैसे हैं, जिन्होंने ऐसे (सुंदर सुकुमार) बालकों को वन में भेज दिया है। और निषादराज सोचने लगे बृह्मा ने इसी बहाने हमारे नेत्रों को सुख दिया है।

लै रघुनाथहिं ठाउँ देखावा। कहेउ राम सब भाँति सुहावा॥
पुरजन करि जोहारु घर आए। रघुबर संध्या करन सिधाए॥
गुहँ सँवारि साँथरी डसाई। कुस किसलयमय मृदुल सुहाई॥
सुचि फल मूल मधुर मृदु जानी। दोना भरि भरि राखेसि पानी॥

निषादराज ने श्री रघुनाथजी को ले जाकर वह स्थान दिखाया जहाँ कुटिया बनाई जा सकती है । श्री रामचन्द्रजी ने जगह को देखकर कहा कि यह सब प्रकार से सुंदर है। पुरवासी लोग वंदना करके अपने-अपने घर लौटे और श्री रामचन्द्रजी संध्या करने पधारे। गुह ने कुश और कोमल पत्तों की कोमल और सुंदर सुथरी बिछावन बिछा दी और खोज खोज कर पवित्र, मीठे और कोमल फल-मूल दोनों में भर-भरकर रख दिया और पानी भी रख दिया। निषादराज राजकुमारों को धरती पर सोते देख और कंदमूल खाते देख भावुक हो जाते है और लक्ष्मण से अपने मन की बात कहते हैं।

तुम्ह पुनि पितु सम अति हित मोरें। बिनती करउँ तात कर जोरें॥
सब बिधि सोइ करतब्य तुम्हारें। दुख न पाव पितु सोच हमारें॥
सुनि रघुनाथ सचिव संबादू। भयउ सपरिजन बिकल निषादू॥
पुनि कछु लखन कही कटु बानी। प्रभु बरजे बड़ अनुचित जानी॥

सुमंत जी ने राम , लक्ष्मण सीता को महाराज दशरथ की उसे दी गई वो आज्ञा सुना दी कि महाराज ने उंन्हे वन से चारदिन के बाद लौटा लेन को कहा है। राम फिर सुमंत जी को वापस लौट जाने के लिए मनाते है । राम कहते है आप भी पिता के समान ही मेरे बड़े हितैषी हैं। हे तात! मैं हाथ जोड़कर आप से विनती करता हूँ कि आपका भी सब प्रकार से वही कर्तव्य है, जिसमें पिताजी हम लोगों के सोच में दुःख न पावे। श्री रघुनाथजी और सुमंत्र का यह संवाद सुनकर निषादराज कुटुम्बियों सहित व्याकुल हो जाते हैं। सुमंत जी सीता को भी वापस चलने को कहते है पर वह भी मना कर देती है।

जासु बियोग बिकल पसु ऐसें। प्रजा मातु पितु जिइहहिं कैसें॥
बरबस राम सुमंत्रु पठाए। सुरसरि तीर आपु तब आए॥

जिनके वियोग में पशु भी इस प्रकार व्याकुल हैं, उनके वियोग में प्रजा, माता और पिता कैसे जीते होंगे ? श्री रामचन्द्रजी ने जबर्दस्ती सुमंत्र को लौटाया। तब सभी गंगाजी के तीर पर आए।

मागी नाव न केवटु आना। कहइ तुम्हार मरमु मैं जाना॥
चरन कमल रज कहुँ सबु कहई। मानुष करनि मूरि कछु अहई॥
छुअत सिला भइ नारि सुहाई। पाहन तें न काठ कठिनाई॥
तरनिउ मुनि घरिनी होइ जाई। बाट परइ मोरि नाव उड़ाई॥




श्री राम ने केवट से नाव माँगी, पर वह कहता है - मैंने तुम्हारा मर्म जानता हूँ। तुम्हारे चरण कमलों की धूल के लिए लोग कहते हैं कि उसमे मनुष्य बना देने वाला कोई जादू है। जिसके छूते ही पत्थर की शिला सुंदरी स्त्री हो गई और मेरी नाव तो फिर भी काठ की है। काठ तो पत्थर से मुलायम होता है । मेरी नाव भी मुनि की स्त्री कि तरह हो जाए और इस प्रकार मेरी नाव उड़ गई तो मैं लुट जाऊँगा मेरी कमाने-खाने की राह ही मारी जाएगी। भले ही मेरे मना करने पर लक्ष्मण जी मुझे तीर मार दे पर जब तक आपके चरण धो न लू मै आपको पार नहीं उतार सकता।

सुनि केवट के बैन प्रेम लपेटे अटपटे।
बिहसे करुनाऐन चितइ जानकी लखन तन।
कृपासिंधु बोले मुसुकाई। सोइ करु जेहिं तव नाव न जाई॥
बेगि आनु जलपाय पखारू। होत बिलंबु उतारहि पारू॥

केवट की प्रेम भरे अटपटी बात सुन कर राम लक्ष्मण और सीता को देख मुस्कुराने लग गए। कृपा सिंधु मुस्कुरा कर केवट से बोले तुम वही करो जिससे तुम्हारी नाव न जाये, पानी ला और मेरे पैर धो और मुझे पार पहुंचा। जिनके स्मरण मात्रा से लोग भवसागर पार कर लेते है वही केवट से पार उतारने के लिए निहोरा कर रहे है। केवट चरण धो कर और परिवार सहित चरणामृत पी कर नाव गंगा पार ले गया।

उतरि ठाढ़ भए सुरसरि रेता। सीय रामुगुह लखन समेता॥
केवट उतरि दंडवत कीन्हा। प्रभुहि सकुच एहि नहिं कछु दीन्हा॥
पिय हिय की सिय जाननिहारी। मनि मुदरी मन मुदित उतारी॥
कहेउ कृपाल लेहि उतराई। केवट चरन गहे अकुलाई॥

निषादराज और लक्ष्मणजी सहित श्री सीताजी और श्री रामचन्द्रजी नाव से उतरकर गंगाजी की रेत में खड़े हो गये। यह जगह संगरोर के नजदीक कुरई गांव थी। तब केवट ने उतरकर दण्डवत की। उसको दण्डवत करते देखकर प्रभु को संकोच हुआ कि इसको तो कुछ दिया ही नहीं। पति के हृदय की जानने वाली सीताजी ने आनंद भरे मन से अपनी रत्न जडि़त अँगूठी उतारी। कृपालु श्री रामचन्द्रजी ने केवट से कहा, नाव की उतराई लो। केवट ने व्याकुल होकर चरण पकड़ लिए। हे नाथ! आज मैंने क्या नहीं पाया! मेरे दोष, दुःख और दरिद्रता की आग आज बुझ गई है। मैंने बहुत समय तक मजदूरी की। विधाता ने आज बहुत अच्छी भरपूर मजदूरी दे दी। सीता जी गंगा जी की पूजा करती है और कहती है आशीर्वाद दीजिये की पति और देवर के साथ लौट कर फिर आपकी पूजा करूँ। गंगा जी ऐसा ही आशीर्वाद भी देती है।

दीन बचन गुह कह कर जोरी। बिनय सुनहु रघुकुलमनि मोरी॥
नाथ साथ रहि पंथु देखाई। करि दिन चारि चरन सेवकाई॥
जेहिं बन जाइ रहब रघुराई। परनकुटी मैं करबि सुहाई॥
तब मोहि कहँ जसि देब रजाई। सोइ करिहउँ रघुबीर दोहाई॥

निषाद राज गंगा किनारे से वापस नहीं जाना चाहते वे हाथ जोड़कर दीन वचन बोले- हे रघुकुल शिरोमणि! मैं नाथ आप के साथ रहकर, रास्ता दिखाकर, चार दिन चरणों की सेवा करूँगा । हे रघुराज! जिस वन में आप जाकर रहेंगे, वहाँ मैं सुंदर पर्णकुटी (पत्तों की कुटिया) बना दूँगा। तब मुझे आप जैसी आज्ञा देंगे, मैं वैसा ही करूँगा। श्री राम जी उसके स्वाभाविक प्रेम से अभिभूत हो कर उसे साथ ले लेते है।

3.प्रयाग राज पहुंचना कुरई, संगरौर हो कर

तेहि दिन भयउ बिटप तर बासू। लखन सखाँ सब कीन्ह सुपासू।।
प्रात प्रातकृत करि रघुराई। तीरथराजु दीख प्रभु जाई।।

उस दिन पेड़ के नीचे निवास हुआ। लक्ष्मणजी और सखा गुह ने (विश्राम की) सब सुव्यवस्था कर दी। प्रभु श्री रामचन्द्रजी ने सबेरे प्रातःकाल की सब क्रियाएँ करके जाकर तीर्थों के राजा प्रयाग के दर्शन किए।

छेत्रु अगम गढ़ु गाढ़ सुहावा। सपनेहुँ नहिं प्रतिपच्छिन्ह पावा।।
सेन सकल तीरथ बर बीरा। कलुष अनीक दलन रनधीरा।।
संगमु सिंहासनु सुठि सोहा। छत्रु अखयबटु मुनि मनु मोहा।।
चवँर जमुन अरु गंग तरंगा। देखि होहिं दुख दारिद भंगा।।

प्रयाग क्षेत्र ही दुर्गम, मजबूत और सुंदर किला है, जिसको स्वप्न में भी (पाप रूपी) शत्रु नहीं पा सके हैं। संपूर्ण तीर्थ ही उसके श्रेष्ठ वीर सैनिक हैं, जो पाप की सेना को कुचल डालने वाले और बड़े रणधीर हैं। गंगा, यमुना और सरस्वती का संगम ही उसका अत्यन्त सुशोभित सिंहासन है। अक्षयवट छत्र है, जो मुनियों के भी मन को मोहित कर लेता है। यमुनाजी और गंगाजी की तरंगें उसके श्याम और श्वेत चँवर हैं, जिनको देखकर ही दुःख और दरिद्रता नष्ट हो जाती है। श्री राम लक्ष्मण , सीता और निषाद राज को प्रयागराज की महिमा सुनाते है। संगम के दर्शन , शिव जी के पूजा के बाद सभी चल पड़े और भरद्वाज ऋषि के पास गए।

दीन्हि असीस मुनीस उर अति अनंदु अस जानि।
लोचन गोचर सुकृत फल मनहुँ किए बिधि आनि।।
कुसल प्रस्न करि आसन दीन्हे। पूजि प्रेम परिपूरन कीन्हे।।
कंद मूल फल अंकुर नीके। दिए आनि मुनि मनहुँ अमी के।।

भरद्वाज मुनि ने उन्हें आशीर्वाद दिया। उन्होंने मन ही मन में सोचा विधाता ने श्री सीताजी और लक्ष्मणजी सहित प्रभु श्री रामचन्द्रजी के दर्शन कराकर मानो हमारे सम्पूर्ण पुण्यों के फल को लाकर आँखों के सामने कर दिया। कुशल पूछकर मुनिराज ने उनको आसन दिए और प्रेम सहित पूजन करके उन्हें परिपूर्ण कर दिया। फिर अमृत से अच्छे-अच्छे कन्द, मूल, फल और अंकुर लाकर दिए।

तेहि अवसर एक तापसु आवा। तेजपुंज लघुबयस सुहावा।।
कबि अलखित गति बेषु बिरागी। मन क्रम बचन राम अनुरागी।।

उसी अवसर पर वहाँ एक छोटी उम्र का एक तपस्वी आया, जिसका तेज का पुंज था और सुंदर था। उसकी गति कवि नहीं जानते था। वह वैरागी के वेष में था और मन, वचन तथा कर्म से श्री रामचन्द्रजी का प्रेमी था। बहुत टीकाकार को यह तापस प्रकरण को अप्रासंगिक और क्षेपक का जान पड़ता है। विद्वान जन ही जाने। फिर राम , सीता , लक्ष्मण और निषादराज आगे चलते और जमुना जी जो यम की बहन है के किनारे पहुंचते है।



4. जमुना के किनारे पहुंचना

पुनि सियँ राम लखन कर जोरी। जमुनहि कीन्ह प्रनामु बहोरी ।।
चले ससीय मुदित दोउ भाई। रबितनुजा कइ करत बड़ाई ।।
पथिक अनेक मिलहिं मग जाता। कहहिं सप्रेम देखि दोउ भ्राता ।।
राज लखन सब अंग तुम्हारें। देखि सोचु अति हृदय हमारें ।।

फिर सीताजी, श्री रामजी और लक्ष्मणजी ने हाथ जोड़कर यमुनाजी को पुनः प्रणाम किया और सूर्यकन्या यमुनाजी की बड़ाई करते हुए सीताजी सहित दोनों भाई प्रसन्नतापूर्वक जमुना जी को पार कर किनारे किनारे पश्चिम की ओर जाते है । रास्ते में जाते हुए उन्हें अनेकों यात्री मिलते हैं। वे दोनों भाइयों को देखकर उनसे प्रेमपूर्वक कहते हैं कि तुम्हारे सब अंगों में राज चिह्न देखकर हमारे हृदय में बड़ा सोच होता है।


5. बाल्मीकि आश्रम पहुंचना

देखत बन सर सैल सुहाए। बालमीकि आश्रम प्रभु आए ।।
राम दीख मुनि बासु सुहावन। सुंदर गिरि काननु जलु पावन ।।

सुंदर वन, तालाब और पर्वत देखते हुए प्रभु श्री रामचन्द्रजी वाल्मीकिजी के आश्रम में आए। श्री रामचन्द्रजी ने देखा कि मुनि का निवास स्थान बहुत सुंदर है, जहाँ सुंदर पर्वत, वन और पवित्र जल है। प्रभु को देख मुनि भाव विह्वल हो गए। प्रभु मुनि से कहते है।

तुम्ह त्रिकाल दरसी मुनिनाथा। बिस्व बदर जिमि तुम्हरें हाथा ॥
अस कहि प्रभु सब कथा बखानी। जेहि जेहि भाँति दीन्ह बनु रानी॥

हे मुनिनाथ! आप त्रिकालदर्शी हैं। सम्पूर्ण विश्व आपके लिए हथेली पर रखे हुए बेर के समान है। प्रभु श्री रामचन्द्रजी ने ऐसा कहकर फिर जिस-जिस प्रकार से रानी कैकेयी ने वनवास दिया, वह सब कथा विस्तार से सुनाई ।

चित्रकूट महिमा अमित कही महामुनि गाइ।
आइ नहाए सरित बर सिय समेत दोउ भाइ॥

महामुनि वाल्मीकिजी ने चित्रकूट की अपरिमित महिमा बखान कर कही। तब सीताजी सहित दोनों भाइयों ने आकर श्रेष्ठ नदी मंदाकिनी में स्नान किया ।

6 चित्रकूट पहुंचना

रघुबर कहेउ लखन भल घाटू। करहु कतहुँ अब ठाहर ठाटू॥
लखन दीख पय उतर करारा। चहुँ दिसि फिरेउ धनुष जिमि नारा॥

श्री रामचन्द्रजी ने कहा- लक्ष्मण! बड़ा अच्छा घाट है। अब यहीं कहीं ठहरने की व्यवस्था करो। तब लक्ष्मणजी ने पयस्विनी नदी के उत्तर के ऊँचे किनारे को देखा (और कहा कि-) इसके चारों ओर धनुष के जैसा एक नाला (क्षुद्र नदी) भी है । मंदाकिनी नदी इस धनुष की एक प्रत्यंचा की तरह है।

कोल किरात बेष सब आए। रचे परन तृन सदन सुहाए॥
बरनि न जाहिं मंजु दुइ साला। एक ललित लघु एक बिसाला॥

लक्ष्मण जी ने प्रभु को एक जगह दिखाई और वो जगह उन्हें पसंद आई। प्रभु इस मनोरम जगह पर रहेंगे जान कर विश्वकर्मा के साथ सभी देवता कोल-भीलों के वेष में आए और उन्होंने दिव्य पत्तों और घासों के सुंदर घर बना दिए। दो ऐसी सुंदर कुटिया बनाईं जिनका वर्णन नहीं हो सकता। उनमें एक बड़ी सुंदर छोटी सी थी और दूसरी बड़ी थी ।

अगले भाग में सुमंत का अयोध्या पहुंच जाना, दशरथ जी की मृत्यु, भरत शत्रुघ्न का ननिहाल से वापस आना, भरत का चित्रकूट आना, राम भरत मिलाप इत्यादि। अयोध्या से चित्रकूट का वन गमन मार्ग का मानचित्र भी है इस ब्लॉग में ।

क्रमश: