मैं बिहार में जन्मा और विद्या अर्जन पश्चात झाखंड में अपना तक़रीबन पूरा जीवन बिताया। बिहार और झारखण्ड में ऐसे तो पूर्वी भारत में बनने वाले सभी व्यंजन खाये पकाये जाते है पर कुछ विशेष भी है यहाँ जैसे : दोनों राज्यों में :
ठेकुआ , पिडुकिया ,पुआ, मखाना से बने व्यंजन , सत्तू पराठा , लिट्टी चोखा , दही - चूड़ा , मीट चूड़ा , मोटी मकई रोटी और ओल का भरता या चना के साग (कच्चे सरसो तेल के साथ थोड़ा खट्टा किया हुआ ) , बूट कलेजी , पिट्ठा, तिलकुट, अनरसा, खाजा, बारा मिठाई और झारखण्ड में
धुस्का - मीट, बांस की सब्जी , रुगडा , खुखरी ( कुकरमुत्ते ), कोईनर साग , डुबकी , उड़द दाल , कुर्थी दाल ,खपड़ा रोटी, अनरसा , मीठा पीठा , कुदुरूम की चटनी इत्यादि
भारत में हर प्रान्त में अलग अलग प्रकार का खाना मिलता हैं और उसे आप या तो एन्जॉय करते हैं या फिर मजबूरी में उसके TASTE को पसंद करने की आदत डालनी पड़ती हैं । हमने बचपन में कई तरह के बिहारी खाने खाये और कुछ जैसा खाया अब मिलता भी नहीं हैं । लिट्टी चोखा को बिहार का MASCOT खाना माना जाता हैं पर मैं इससे सहमत नहीं हूँ । मैंने बचपन में रोटी चावल, पुलाओ वैगेरह की सिवा जो खाया और बहुत एन्जॉय किया वो था मक्की या मकई की मोटी मोटी रोटी और ओल का खट्टा भर्ता । बेगूसराय जहाँ मेरा बचपन बीता वहां हमारे बबा जी मामू (देखे मेरा ब्लॉग जो मैंने उन पर लिखा था ) मकई के आटे को मल मल कर गूंधते और फिर मोटी रोटी बनाते । कई बार मैंने मक्की की रोटियां खाई, पंजाबी ढाबे में भी, पर वैसा स्वाद और मिठास कभी नहीं मिला । दूसरा जो मुझे पसंद था और जिसको पकाने में ज्यादा तकनीक नहीं था वो था नेनुआ (spring gourd ) या झींगा ( ridge gourd ) की सब्जी जिसमे मूली डाला रहता था या फिर पीसी हुई तीसी (Flaxseed) । ऐसे चना दाल और बड़ी डाल कर तो अब भी घर में बनता है। बिहार के व्यंजनों में ठेकुआ बहुत लोक प्रिय हैं ।
छठ के अवसर पर यह अवश्य बनाया जाता है और जब मैं कॉलेज के दिनों में घर से बॉक्स भर ठेकुआ प्रसाद लेकर हॉस्टल जाता था तब घंटे भर में ही मेरे मित्र सारा चट कर जाते । ऐसे पिडुकिया भी बिहार में अवसरों पर, खास कर होली में जब माल पुआ भी बनता है, यु पी वाले इसे गुझिया कहते हैं । चाहे जिस नाम से पुकारे, कहीं के लोग इसे अपना कहे, मुझे बहुत पसंद हैं । बेगूसराय में मछली बहुत बार बनता और जो मछली ज़्यदातर पकाया जाता वो था रोहू और कभी कभी बुआरी मछली । मछली मेरे फुआ के यहां बहुत मजेदार बनता । तब भंसा में पीढ़े पर बैठ कर सबसे साथ खाते, कितना मज़ा आता । चूल्हे में बचे आग में शकरकंद (SWEET POTATO ) या आलू को हमारे बड़े भाई बहन खुद पका लेते और हम आनंद लेते । बेफिक्री वाला था मेरा बचपन ।
एक खाना जिसका स्वाद नैसर्गिक था वह था माँ के हाथ का बना गरम गरम घी भात और आलू का सादा (बिना प्याज़ के) भरता दो बूंद सरसों तेल के साथ क्योंकि जमुई में प्याज़ खाना वर्जित था । परीक्षा के दिनों में हमें (दीदी और मुझे) १० बजे तक स्कूल पहुंचना होता था और इन दिनों टिफिन की छुट्टी (Lunch break) नहीं होती थी। हमारा रसोईया जो दूर गॉव से आते थे तबतक नहीं आ पाते और कोयला का चूल्हा वही जलाते थे। माँ जल्दी में लकड़ी के चुल्हे पर भात पकाती और उसी में भरता के लिए आलू डाल देती और हम उस स्वादिष्ट खाने को हाथ जलने की परवाह किये बिना गरमा गरम खा लेते । यह हमारा Brunch होता। कभी कभी बिना ज्यादा भुने या बिना मसाले के खाने बहुत स्वादिष्ट बन जाते हैं - कद्दू की सादी सब्जी ऐसा ही एक डिश हैं । दादू अपने बोरसी के आग पर कभी कभी कुछ भोग पकती और खास कर उनका पकाया खिचड़ी का स्वाद मैं नहीं भूल सकता।
बचपन की स्वाद यात्रा अधूरी रह जाएगी यदि स्कूल के दिनों में बगल की कचहरी में ठेला लगा कर गुपचुप बेचने वाले का जिक्र न किया जाय। बिहार में पानी पूरी या गोल गप्पे को गुपचुप कहते हैं और बंगाल और झारखंड में उसीको फुचका कहते हैं । एक बार मैंने २ एकन्नियां (पुरानीं भारतीय करेंसी सिस्टम में १६ एकन्नियां का एक रुपये होता था ) जमीन पर गिरा पाया था और उसमे से १ एकन्नी का मैंने ६ गुपचुप खाये (अब शायद इसके कम से कम १० रूपये देने पड़े) और इसके स्वाद का कायल हो गया । उसी तरह बंगाली मिठाई वाले की रसगुल्ला और सरदारी मिठाई वाले की जलेबी बहुत लज़ीज़ होती थी । आस पास के क्षेत्र में मलयपुर का स्पंज रसगुल्ला (जिसे आप दबाकर छोटी गोली के साइज का कर सकते थे और छोड़ने पर फिर फूल जाता ) और पकरीवड़ावां का खास्ता बारा या बालुशाही प्रसिद्द था और मुझे भी पसंद था जमुई आने वाले लोग अक्सर ये मिठाईया ले कर आते ।
जमुई की स्वाद यात्रा में यदि तिलकुट की बात न करू तो ज्यादती होगी । तिल से बनने वाला ये मिठाई यो तो गया का प्रसिद्द है पर जमुई के जगदीश हलवाई की बनाई तिलकुट खा ले तो गया का तिलकुट भी भूल जाए । ये हमारे यहाँ रोज खोमचा ले कर पहुंचते और तिलकुट का मौसम न हो तो छेना की मिठाई जैसे छेना मुरकी (छोटा छोटा छेने की मिठाई) ले कर आते । एक थोड़े उमरगर हलवाई जिनका नाम झरी था मिठाई लेकर रात को आठ से नौ बजे के बीच रोज ठेले पर छेने और खोए की मिठाई जैसे रसगुल्ला, गुलाब जामुन,चमचम, पेड़ा और मैदे बेसन की मिठाई जैसे लड्डू, बालूशाही ले कर आते । हम बच्चे दोनों राह देखते रहते । जगदीश जी तो हमारे यहाँ कई शादियों में मिठाई बनाने भी आये ।
जमुई में हमारा घर
हॉस्टल - का खाना, पटना
घर का खाने का अनुभव तो मैंने लिखा पर जब पहली बार जब हॉस्टल में रहने का मौका मिला तो मैं हॉस्टल के खाने के स्वाद पर लट्टू हो गया । सबसे ज्यादा जो पसंद आया वो था छनुआ आलू का भुंजिया यानि deep fry किए महिन कटे आलू Indian फ्रेंच फ्राई । महीने में एक या दो दिन फीस्ट होता और एक्स्ट्रा पैसे देने पड़ते क्योंकि तले भुने खाने, मीट, खीर, पूरी वैगेरह बनते । रोटियां छोटी छोटी पूरी जितनी बनती और मैं १० -१५ रोटियां खा जाता । गोल्डन का आइस क्रीम पटना की खासियत थी और मुझे स्कूल के समय से पसंद था । मुझे अब तक दाम भी याद हैं १५ पैसे में दूध वाला आइस क्रीम बार, २० में ऑरेंज बार, और क्रीम वाली बार २५ पैसे में । जैसे जैसे समय बीता हॉस्टल के रूटीन खाने से ऊबने लगे और कभी कभी सोडा फाउंटेन (तब पटना का प्रसिद्द रेस्टोरेंट था) जा कर कुछ खा लेते । पहली बार मसाला डोसा इसी जगह खाया । सोडा फाउंटेन में पहली बार होटल मैं बैठ कर आइस क्रीम खाई थी । तब सोडा फाउंटेन में बाहर लॉन में ही टेबल कुर्सी लगे होते और अंदर बैठ कर गर्मी खाने के बजाय हम बाहर ही बैठना पसंद करते क्योंकि हम शाम को ही सिनेमा जाने क्रम में ही यहाँ जाते । मसाला डोसा बहुत ही अच्छा लगा और बाहर जब भी खाने का मौका मिलता मसला डोसा फर्स्ट चॉइस होता । तब पता नहीं था मैं अपने नौकरी के कई साल दक्षिण भारत में बिताने वाला था ।
पटना के हॉस्टल जीवन की बात चाली है तो मछुआ टोली के महंगू के मीट और रोटी / परांठे की याद तो आती ही है । 4th year में मुझे गिटार सीखने का शौक हुआ और मैं मछुआटोली में एक टीचर के यहाँ सीखने जाने लगा । सप्ताह में २ बार । और वहां से लौटते वक्त अक्सर मीट - पराठे खा कर आता । कॉलेज के तरफ मुड़ने वाली सड़क के कोने पर एक चाय नाश्ते की दुकान थी । समोसा की चाट बना कर देते और उनके छोटी सी दुकान में आमने सामने रखी २ बेंचों पर हम सट सट कर बैठते ताकि काफी लोग एक साथ चाट और जलेबी का लुत्फ़ उठा सके । इतने दिनों बाद उस चाट की याद आ रही है तो स्वादिष्ट तो होगा ही ।
दक्षिण भारत में खाने के कई अनुभव है और उसमें से कुछ हम शेयर करना चाहेंगे । पहली बार हमे १९६९ में दक्षिण जाने का मौका कॉलेज ट्रिप में मिला । हम तबतक सिर्फ इडली, वादा और मसाला डोसा से ही परिचित थे वो भी होटल में बैठ कर । वाल्टेयर (अब का विशाखापत्तनम) पहुंचते ही नास्ते में समोसा, कचोरी मिलना बंद हो गया और ईडली वड़ा मिलने लगा और खाने में भात के साथ दाल की जगह सांभर, रसम, चटनी मिलने लगा । हम मसाला डोसा जो हमे पसंद था से काम चलने लगे । नाश्ते में पूरी और मसाला (मसाला डोसा वाला आलू की फिलिंग) खाते या मैदे की रोटी या लच्छा पराठा । चेन्नई जो तब मद्रास पहुंचने तक हम इडली भी खाने लगे और अनियन उत्तपम भी । मद्रास सेंट्रल के सामने तब एक बुहारी होटल था और हम वही खाना खा लेते थे क्योंकि नार्थ इंडियन टाइप का खाना भी मिल जाता था । जब एर्नाकुलम पहुंचे तो एक होटल में पीढ़े पर बैठ कर सामने केले के पत्ते पर परसा हुआ राइस , सांबर, रसम तो संभालना मुश्किल हो रहा था कैसे तरल पदार्थ को बहने से रोके । पर पायसम और आम पसंद आया, लाल केला यहाँ पहली बार खाया एक से पेट भरने लायक बड़े थे । सबसे बड़ी बात जितना खाओ कोई एक्स्ट्रा नहीं । इस बात पर एक वाकया याद आ गया जब हम बंगलुरु तब बंगलौर पहुंचे तो होटल वाले ने पूरी का दाम बताया पर बोला सब्जी फ्री, जो हर बार एक छोटी कटोरी में ला देता। मेरे क्लासमेट उमेश शर्मा ने पूरी तो एक प्लेट मंगाई पर सब्जी के कटोरियों से उसका टेबल भर गया । आज की बात कहूँ तो अब तो मिनी इडली, फ्राइड और मसाला इडली भी मिलते है । रवा इडली का स्वाद बाद में मिला। सबसे स्वादिष्ट रव ईडली बैंगलुरू के रेसीडेंसी रोड में ही खाई थी। और वो रेस्टोरेंट टूर के समय नाश्ते की फेवरिट जगह थी। रवा डोसा और उपमा भी अच्छे लगने लगा । पर आंध्र में गोंगुरु की सब्जी चटनी कोई खास पसंद नहीं आई । सुलुरपेट (2003) में पत्नी जी ने एक डिश बनाना सीखा अड़ा जो बिना फरमेंट किये डोसा मिक्स से बनता है और स्वादिष्ट भी है । सालेम प्रवास (1980) के समय मेरे सीनियर स्व श्री डी डी सिन्हा साहेब आये थे और एक मजेदार घटना घाटी थी । एक बार हम दोनों शहर केे बीचों बीच स्थित वसंत विहार रेस्टुरेंट में गऐ। मैंने अपने तमिल ज्ञान को उपयोग में लाते हुए वेटर से पूछा तैयर बड़ा एरक् (दही बड़ा है?) । वेटर यह सोच कर की मुझे तमिल आती है अपने फ्लो में मेनू आइटम्स तमिल में बोलने लगा? मेरे पल्ले कुछ न पड़ा तो मैंने फिर पूछा तैयर बड़ा एरक् ? वह फिर तमिल में कुछ कह कर चला गया। शायद यह कह रहा होगा कि जो बताया बस वही है, श्री डीडी सिन्हा ने फिर कहाँ अब मेरा इशारों ( Sign Language) का कमाल देखो। उन्होंने ताली बजा कर वेटर को बुलाया। वे बोले 'मसाला दोसा' और दो ऊँगली दिखाई और वेटर दो दोसा ले आया। फिर कॉफी भी इसी तरह मंगाई गई।
सालेम में नॉन वेज खाने के लिए हम मिलिट्री होटल जाते जहाँ नॉन वेज बिरयानी मिल जाती थी, ऐसे नेशनल होटल में भी नॉन वेज के बहुत सारे डिश मिल जाते थे ।
फाइव रोड जंक्शन सालेम
पंजाब की एक हाथ वाली लस्सी का ग्लास ! 1968 के कॉलेज ट्रिप में अम्बाला के बाद एक गांव जैसी जगह पर ट्रेन रूक गई। सिग्नल नहीं थी। रेल ट्रैक के बगल में एक ढ़ाबा था जहाँ लोग गरम दूध और लस्सी पी रहे थे। जब बहुत देर ट्रेन न चली तो मै और कुछ और दोस्त, जो दरवाजे पर पैर लटका कर हवा खाते हुए सफर कर रहे थे, उतर पड़े और दूध और दही ले कर पीने लगे। दाम मात्र एक कप चाय के बराबर। पर इतने लम्बे ग्लास से पीने और पैसे देने लौटाने में इतनी देर लगी कि ट्रेन चल पड़ी। हमे 100 मिटर रेस लगा कर ट्रेन पकड़नी पड़ी थी। इतना बड़ा गिलास पहली बार देखा ! काके दा ढाबा दिल्ली के अनुभव मैं एक ब्लॉग में लिख चूका हूँ और यहाँ लिंक देता हूँ । ऐसे सबसे स्वादिष्ट और गाढ़ा लस्सी मैंने कानपूर में ही पिया या यू कहो खाया चम्मच से ।
अगले भाग में विदेशो के खाने के बारे में लिखूंगा ।