दूर-दूर तक पटाखे बज रहे थे। सुबह के पाँच बजे थे और मैं अभी-अभी उठी थी। कहीं-कहीं सुबह का अर्घ्य भी चल रहा था ! मैंने देखा कि पुरुष और महिलाएँ कमर तक ठंडे पानी में डूबे हुए उगते सूरज को अर्घ्य दे रहे थे। और तुरंत ही मैं कई साल पहले के अपने बचपन के दिनों में पहुँच गई, जब हम अक्सर दिवाली और छठ के दौरान अपने दादा-दादी के घर जाते थे।
बिहार में जमुई एक छोटा सा शहर है जहाँ मेरे दादा और दादी और उनका पूरा कुटुम्ब (विस्तारित परिवार) एक ही छत के नीचे रहता था। जमुई इतना छोटा था कि जब मैंने अपने दोस्तों को बताया कि मैं वहाँ छुट्टियाँ मनाने जा रहा हूँ, तो उन्हें लगा कि हम ‘जम्मू’ और कश्मीर जा रहे हैं, और उन्होंने अपने माता-पिता को भी यही बताया (और उनसे भी जाने की माँग की)।जल्द ही मेरे माता-पिता पूछने वालों की ग़लतफ़हमी दूर कर देते । जमुई इतना छोटा था कि हालांकि इसके नाम पर एक रेलवे स्टेशन है, लेकिन स्टेशन असल में शहर से कई मील दूर, मल्लेपुर में है। कुछ लोग तर्क दे सकते हैं कि जमुई अब एक जिला है, और इसलिए एक सभ्य आबादी वाला शहर है। यह कभी-कभी खबरों में भी आता है, हालांकि सही कारणों से नहीं, क्योंकि यह नक्सलियों से भरा इलाका है। फिर भी, मेरे लिए, यह एक ऐसा शहर था जहाँ दुकानदार अपने ग्राहकों को उनके नाम से जानते थे। जहाँ थिएटरों में महिलाओं और पुरुषों के लिए अलग-अलग बैठने की जगह थी, जो एक पर्दे से अलग थी। जहाँ डाकिया को डाक पहुँचाने के लिए बस दादाजी का नाम चाहिए था।
दादाजी का क्लीनिक और उनका एक्स-रे प्लांट, जो शहर में पहला था, काफी मशहूर था। मुझे अपने दादाजी के समय का एक भी दिन याद नहीं आता जब हमारे घर के बाहर का बड़ा बरामदा मरीजों से खाली रहा हो। आस-पास के गांवों से लोग कई दिनों तक वहां डेरा जमाए रहते थे और मुफ्त में इलाज करवाते थे। वे खाना बनाने के लिए केरोसिन स्टोव और सोने के लिए बिस्तर लेकर आते थे। घर में कुआं जमीन से ऊपर दीवार से आधा विभाजित था। बाहरी आधा हिस्सा मरीजों के पानी खींचने के लिए खुला था। और हां, शौचालय और स्नान की सुविधा भी थी।मैं अक्सर अपने दादाजी की गोद में बैठकर उन्हें पुरुषों, महिलाओं और बच्चों को ठीक करते हुए देखती थी, चाहे वह दवाइयों से हो या उनके शांत करने वाले शब्दों से। अगर मुझे चिकित्सा में कोई दिलचस्पी होती, तो मुझे यकीन है कि मैं उनके नक्शेकदम पर चलने की कोशिश करती ।
छठ पर लौटते हुए, मेरी सबसे पुरानी याद सुबह-सुबह उठना है, जब अंधेरा था, ऊनी कपड़े लादकर दादाजी की जीप में बिठाया जाता था। नदी का किनारा बहुत दूर नहीं था। शाम के अर्घ्य के लिए, हम बच्चों को पानी में जाने दिया जाता था। और अक्सर प्रार्थना करते समय बड़ों की नकल करते समय, हम अपना पैर फिसला देते थे और पानी में गिर जाते थे। माँ हमारे कपड़े बदल देती थीं, फिर हमें पानी में दोबारा न जाने की चेतावनी देते हुए किनारे पर छोड़ देती थीं। किऊल नदी धीमी गति से बहती है और उथली है। इसकी रेतीली तली और क्रिस्टल साफ़ पानी इसे हम बच्चों के लिए सुरक्षित बनाता था। उम्र के साथ हम साहसी होते गए और बीच में एक द्वीप पर जाकर पटाखे फोड़ते थे जो हमने अपनी दिवाली की बचत से बचाए थे। और सुबह के अर्घ्य के साथ व्रत-अवधि समाप्त होने के बाद, हम प्रसाद खाने के लिए उत्सुकता से इंतजार करते थे - मीठे स्वाद वाले, एक फुट लंबे ठेकुआ लोगों के पसंदीदा थे। प्रसाद का ज़्यादातर हिस्सा उस महिला ने खुद बनाया था जो यह कठिन व्रत कर रही थी। अब तक मैंने छठ के दौरान किए जाने वाले व्रत जितना कठिन कोई दूसरा त्यौहार नहीं देखा है। भगवान उन महिलाओं का भला करे जो हर साल इस कठिन व्रत को धार्मिक रूप से करती हैं।
जमुई आए हुए मुझे बहुत समय हो गया है। और उससे भी ज़्यादा समय हो गया है जब मैंने आखिरी बार किऊल के किनारे छठ मनाया था, जब हम लोगों की भीड़ के साथ नदी की ओर जाते हुए महिलाओं द्वारा गाए गए मधुर छठ गीतों को सुना था। फिर भी, हर साल, जब छठ का समय आता है, तो मैं पुराने दिनों में वापस चली जाती हूँ।
Wednesday, November 6, 2024
छठ और पुरानी यादें - मेरी बेटी श्वेता द्वारा लिखित ब्लॉग का हिंदी अनुवाद
Friday, November 1, 2024
,दिवाली : नेपाल के पारंपरिक लोक गीत भैलो और देउसी
मेरे वैवाहिक जीवन के प्रारंभिक दिनों में पत्नी जी ने नेपाल के जीवन, तीज त्योहारों के बारे में कई बातें बताई थी। उनमें कई रस्मों रिवाज बाद में हमारे परिवार का के रीति रिवाजों में भी शामिल हो गई जैसे किसीके घर से जाते समय पूजा घर में टीका लगाना और उनके हाथ में कुछ फल और कुछ पैसे रखना। दरवाजे पर पानी भरा कलश रखना और निकलते समय उसमें पैसा डालना। दशहरा यानि दसई के दिन बड़े लोगों द्वारा छोटों को टीका लगाना और पैसे देना। इत्यादि।
हरतालिका तीज भी नेपाल में धूम धाम से मनाया जाता है। उसमे एक प्रथा दर खाने की है। हिंदू महिलाओं के महान त्योहार तीज के पहले दिन को दर खाना दिवस कहा जाता है। सनातन हिंदू धर्म की नेपाली महिलाएं इस दिन से विशेष तैयारियों के साथ तीज मनाना शुरू कर देती हैं।विवाहित महिलाएँ अपने पति की लंबी आयु के लिए प्रार्थना करती हैं और अविवाहित महिलाएँ सुयोग्य पति की कामना करती हैं और कल के व्रत के उद्देश्य से इस दिन घर पर दूध से बनी मिठाइयाँ बनाकर खाने की प्रथा है। आजकल कई महिलाएं एक जगह इकट्ठा होकर एक पार्टी जैसा करती , आज इनके यहां कल उनके यहां।
दिवाली के पांच दिवसीय पर्व को नेपाल में तिहार यानि त्यौहार कहते है। इस दिन एक प्रथा होती है लड़किया और लड़के ग्रुप में घर घर भैलो और देउसी गा कर नाच कर लोगो को आशीर्वाद देने की। घर वाले बदले में फल, मिठाइयां और पैसे देकर विदा करते है। आज मेरा ब्लॉग इसी प्रथा के बारे में बताने का है।
भैलो और देउसी
नेपाल के पारंपरिक लोक गीत हैं जो नेपाल में तिहाड़ त्योहार के साथ-साथ दार्जिलिंग पहाड़ियों, सिक्किम, असम और भारत के कुछ अन्य हिस्सों में गोरखाली प्रवासी लोगों के बीच गाए जाते हैं। बच्चों के साथ-साथ वयस्क भी गीत गाकर और नृत्य करके देउसी/भैलो का प्रदर्शन करते हैं और अपने समुदाय के विभिन्न घरों में जाते हैं, धन, मिठाइयाँ और भोजन इकट्ठा करते हैं और समृद्धि के लिए आशीर्वाद देते हैं।
भैलो आम तौर पर लक्ष्मी पूजा की रात को लड़कियों और महिलाओं द्वारा किया जाता है जबकि देउसी अगली रात को लड़कों और पुरुषों द्वारा किया जाता है। भैलो करने वाली लड़कियों को भैलिनी कहा जाता है और देउसी करने वाले लड़कों को देउसी कहा जाता है। इन गीतों के अंत में घर का मालिक भोजन परोसता है और देउसी/भैलो गायकों और नर्तकियों को पैसे देता है। बदले में, देउसी/भैलो टीम सौभाग्य और समृद्धि का आशीर्वाद देती है।
इस प्रथा के मुख्यतः तीन कहानियां प्रचलित है जो जगह और जाति समूहों के अनुसार मानी जाती है।
पहले कहानी वामन और दानव राजा बलि के कथा से प्रेरित है । हिरण्यकश्यप के पुत्र प्रह्लाद के पौत्र थे राजा बालि । तीनों लोक के स्वामी राजा बलि बहुत पराक्रमी थे और प्रजा वत्सल भी। उन्होंने अपने पराक्रम से तीनो लोक को जीत लिया। तब इंद्र के प्रर्थना और देवों को देवलोक वापस दिलाने के लिए श्री विष्णु ५२ अंगुल के बौने वामन का रूप धर राजा बलि ९९ वें यज्ञ में पहुचें। इस यज्ञ के बाद बलि का इंद्र होना निश्चित था। वामन ने दानवीर बलि से तीन पग धरती के दान की कामना की। वामन के छोटे पैरों को देख तीन पग धरती का दान बलि को अपने यश के अनुरूप नहीं लगा और उन्होंने बहुत सारी गाएं और धरती के साथ धन का दान का प्रस्ताव रखा पर वामन ब्राह्मण अपनी तीन पग वाली बात पर अडिग रहे। बलि ने गंगा जल हाथ में लेकर तीन पग धरती दान कर दिए। तब श्री विष्णु अपने विशाल रूप में प्रकट हुए और दो पग में स्वर्ग और धरती दोनों नाप लिए। तीसरे पग के लिए बलि ने अपना सर प्रस्तुत कर दिया। विष्णु ने उसे सदा के लिए उसे पाताल भेज दिया जहां वह अब भी राज करता है। बलि सात चिरंजीवियों में से एक है। विष्णु ने बलि को वर्ष में एक बार अपने राज्य की प्रिय प्रजा के बीच वापस धरती पर आने का वरदान दिया। राजा बलि पांच दिनों के लिए अपनी प्रिय प्रजा के बीच हर साल वापस आते हैं। इन पांच दिनों को ही यमपञ्चक या तिहार कहा जाता है।
तब लोगों ने महाबली की उदारता के सम्मान में देउसी प्रदर्शन करना शुरू कर दिया। ऐसा कहा जाता है कि देउसीरे शब्द की उत्पत्ति नेपाली भाषा में देउ और सर शब्द से हुई है, जिसका अर्थ है 'देना' और सिर। यानि सर देना , भैलो में भी एक पद्य राजा बलि का उल्लेख करता है। जो ऐसे है।
हरियो गोबरले लिपेको, लक्ष्मी पूजा गरेको
हे! औंसीको बारो, गाई तिहारो भैलो
हामी त्यसै आएनौँ, बलि राजाले पठा'को
हे! औंसीको बारो, गाई तिहारो भैलो
अन्य दो कहानियां जुमला जिले और पाल्पा के मगर जाति में ज्यादा प्रसिद्द है और राजा बलि की कहानी से ही प्रेरित है। बांकी कथाये फिर कभी !
Tuesday, October 1, 2024
Tuesday, June 25, 2024
पंचायत season 1 Ep2 पर पेरोडी भुतिया पेड़
पंचायत season 1 episode 2 भुतिया पेड़ और सोलर लाइट
अभिषेक त्रिपाठी यानि सचिव जी अपने CAT के तैयारी में लगे हैं। आपको तो पता ही होगा वह आफिस में ही रहता है। रात को जागते हैं इसलिए सुबह सहायक विकास द्वारा आफिस का दरवाजा खटखटाने या पीटने पर नहीं जागते और विकास उन्हें खिड़की खटखटा कर जगाता है और कहता है "दोपहर होने को आया और आप अभी तक सो रहे हैं? हम तो घबड़ा गए थे। बहुत देर से दरवाजा पीट रहे हैं।
अभिषेक : जब छ बजे पूरा गांव उठ कर बैठ जाएगा तब नौ बजे दोपहर ही लगेगा
विकास मोमबत्ती खरीद लाया है। अभिषेक उसे पैसा देते हुए उसका दाम पूछता है। विकास का उत्तर सुनिए।
विकास: ऐसे तो आधा दर्जन का ५० रूपया मांग रहा था पर हम मोल भाव कर सस्ते में ले आए।
सचिव जी : कितने में दिया ?
४८ रू में। उसके पास चेंज नहीं था सो २ रूपए का पेठा ले लिए सोचे सुबह सुबह आपका नश्ता भी हो जाएगा।
विकास उसे एक और इमरजेंसी लाइट खरीदने की सलाह देता है और
अभिषेक झल्लाया सा हैन्ड पंप पर नहाने जाता है। वहां बार बार अभिषेक का टूथ ब्रश और पेस्ट नीचे गिर जाता है। वहां दोनो के बीच हुए संवाद सुनिए।
विकास :
नौकरी एकदम्मे पसंद नहीं आ रहा है न सर। अच्छा है सर हम खुद्दे यहां नौकरी होने के बाद आर्मी के बहाली में दौड़े थे। पर मेडिकल में छटा गए थे।
आदमी को हमेशा कुछ न कुछ अच्छा करने का कोशिश करते रहना चाहिए, हम तो कुछ नहीं कर पाए पर आपमें प्रतिभा है सर। मन लगा के पढ़िए ..
अभिषेक: इलेक्ट्रिसिटी रहे तब तो कोई पढ़ें। मुश्किल से चार पांच घंटे मिलते हैं वो बीत जाते हैं लाइट जलाते बुझाते। कभी ये इमरजेंसी चार्ज करो कभी वो इमरजेंसी डिम करो।
विकास: सर वैसे आज का पंचायत मीटिंग सोलर लाइट को लेकर है न ।
बिजली और गांव
बिजली जब जाती है तो कहां जाती है?
जाती है तो फिर चली भी आती है।
पर आने में बहुत देर लगाती है।
जब भी आती है खुशियां ही लाती है।
आते जाते, जाते आते थक नहीं जाती?
जब जाती है जिंदगी थम सी जाती।
काश वो दिन जल्दी आ जाय
जब बड़े शहरों की तरह
गांवों में भी बिजली कभी न जाय ।
पंचायत के मीटिंग में प्रधान जी ने बताया कि १० लाइट वार्ड मेंबर के यहां लगेगा और २ सोलर लाइट प्रधान और उप प्रधान के यहां लगना तय है, सिर्फ १३ वें लाइट का निर्णय लेना है। झिझक के कारण सचिव जी बोल नहीं पाते कि १३ वीं लाईट पंचायत आफिस पर लगना चाहिए और पंचायत में निर्णय लिया जाता है कि १३ वीं लाईट भुतहा पेड़ के पास लगेगा चाहिए ताकि लोग उस पेड़ के पास बे खौफ जा सके।
पूरे फुलेरा में भूत के होने के पक्ष में विचार व्यक्त किए जाने लगे।
पेड़ का भूत
बचपन में मैं समझता था कि इमली के पेड़ पर भूत होते हैं। होते हैं क्या?
भुतिया पेड़ रास्ते पर खड़ा है
आने जाने वालों को डराने में लगा है
सूखी पत्तियां चारों तरफ बिखरी पड़ीं है
पत्तियों की आवाज काल बेल की तरह
भूतों को जगा रही है।
डरावनी घास , जंगल, झाड़ियां , झड़बेरी
भुतिया पेड़ के चारों तरफ उग रही है।
मानों आने वालों को ठग रही है।
आओ भूतों को डरा दे भगा दे
पेड़ के छांव में तीन रात बिता दे
अभिषेक का 'सोलर लाइट को पंचायत आफिस में लगाने का', प्लान फेल होता देख विकास मजाक मजाक में एक सुझाव दे बैठता है "सर एक उपाय है भूत भगा दिजिए" । उसे क्या पता यह सुझाव उसे ही मंहगा पड़ने वाला था। अभिषेक अंधेरा होने पर विकास को साथ लेकर भुतहा पेड़ के पास जाता है। विकास डरा हुआ है और अपनी पत्नी खुशबू को फोन करता है:
"खुशबू हम नहीं लौटे तो तुम दूसरा शादी कर लेना समझ लेना हमारा तुम्हारा साथ यहीं तक था। और उपर वाला कमरा में बाबुजी के बक्सा में २५ चांदी का सिक्का रखा है तीन चार महीना का काम चल जाएगा। .. मोटरसाइकिल से नहीं न कूद सकते हम हेल्मेट नहीं पहने हैं ..."
अभिषेक : अच्छा तो है पेड़ । कुछ भी तो नहीं कर रहा।
विकास : सर पेड़ है बच्चा नहीं कि चच्चा आए है तो नाच गा के दिखा देगा।
अभिषेक : पेड़ गाता भी है।
विकास : नहीं सर यह दौड़ाता है ।
अभिषेक: इतना मोटा जड़ है यह कैसे दौड़ा सकता है? हमें क्यों नहीं दौड़ा रहा ?
विकास: (क्या जाने शायद) मन नहीं होगा ।
विकास ने बताया कि पिछली बार ३ साल पहले किसी को दौड़ाया था। अभिषेक और विकास एक एक कर उन सभी के पास जाता है जिसे पेड़ ने पहले कभी दौड़ा चुका होता है। सभी खड़खड़, कड़कड़ या धमधम की आवाज सुन दौड़ पड़े थे पर मुड़ कर किसी ने नहीं देखा था। सभी के अपने कारण। एक ने कहा "आगे दौड़ते समय पीछे देखने से गिर सकते हैं और ऐसे मौके पर गिरना सही नहीं होगा।" कईयो से पूछने के बाद पता चला १४ साल पहले मास्टर को सबसे पहले पेड़ ने दौड़ाया था। मास्टर साहब ने दिलेरी से कहानी बता दी कि उन्होंने पिछे मुडकर देखा था। पेड़ जमीन से एक मीटर उपर दौड़ रहा था।
मास्टर के घर से निकलते समय अभिषेक मास्टर जी से पूछता है : स्कूल कैसा चल रहा है?"
मास्टर अच्छा, पर आप क्यों पूछ रहे हैं?
अभिषेक : वो नई DM मैडम आई है थोड़ी स्ट्रिक्ट सी है, वही पूछ रही थी
मै उनको बता दूंगा स्कूल अच्छा चल रहा है, सिर्फ विज्ञान के टीचर भूत प्रेत पर विश्वास करते हैं। पता नहीं कैसे लेगी । यह तो बताने के बाद पता चलेगा। डरने की कोई बात नहीं सिर्फ स्ट्रिक्ट है कुछ करती वरती नहीं है।
उस रात अभिषेक आफिस में अपने दोस्त को यह सब बता रहा होता है तब दरवाजे खटखटाने की आवाज आती है, दोस्त जो भूत पर विश्वास रखता पहले खिड़की से देख लेने की सलाह देता है पर अभिषेक दरवाजा खोल देता है।
मास्टर साहब बताने आया था "सब सही बताए थे सिर्फ एक बात नहीं बताए कि उस रात पहली बार चिलम पिए थे। चिलम पीने से ऐसा ही लगता है आप एक बार पी कर देखिए। "
अभिषेक: जब नशा उतरा तो गांव वालों को सच क्यों नहीं बताया?
मास्टर जी: नई नई नौकरी थी नशे की बात पता चलती तो नौकरी चली जाती।
बात प्रधानजी के यहाँ पहुँचती है। मंजूदेवी को जब सब पता चलता है तो वह चुपचाप उठ कर जाती है और एक बेलन ले आती है और मास्टर की बेलन से पिटाई शुरू हो जाती है ।
मंजूदेवी : इस गंजेरी के चलते हम दो बार गिरे है। भूत के डर से रिंकी पे पापा इतना तेज़ मोटर साइकिल चलते है की। एक बार घुटना फुंटा और एक बार ६००० की साड़ी फट गयी।
मास्टर जी : प्रधान जी जितना पीटना हो यही पीट लीजिये गांव में पता नहीं चलना चाहिए।
उप प्रधान प्रह्लाद जी : गांव में नहीं बताएँगे तो सबका डर कैसे जायेगा ?
प्रधान जी : उसका भी एक उपाय है, सचिव जी सोच रखे है - बताईये सचिव जी
अभिषेक : लोगों का डर भागने प्रधान जी पेड़ के नीचे तीन रात सोयेंगे । गावं वालों के कहेंगे भूत भगाने के लिए प्रधान जी अपने जान की परवाह भी नहीं किये।
उप प्रधान : इससे तो वोट भी मिलेगा -(सचिव जी की तारीफ करते हुए) मास्टरस्ट्रोक
अब बात १३ वे सोलर लाइट पर आ जाती है।
मंजू देवी : उसको भी प्रधान के घर पर ही लगा दीजिये। प्रधान के घर दो सोलर लाइट होगी तो कोई दिक्कत है सचिव जी ?
अभिषेक (हिचकिचाते हुए ) : थोड़ी दिक्कत तो है - ज्यादा हो जायेगा लोग बातें बनाएंगे।
विकास : प्रधान जी हम कह रहे थे की वो तेरहवां लाइट है न उसको पंचायत ऑफिस के सामने लगवा देते हैं। बहुत अँधेरा हो जाता है। डर भी लगने लगता है।
विकास का प्रस्ताव मान लिया जाता है और अभिषेक का अभिप्राय सिद्ध हो जाता है।
क्रमशः
Saturday, June 22, 2024
पंचायत सीजन 1 एपिसोड 1 पर पैरोडी
कहां है फुलेरा ? क्या है कहानी ?
नायक अभिषेक शहर में पला बढ़ा है और कभी गा़व का चेहरा भी नहीं देखा है । उसे लाचारी में, जब तक MBA प्रवेश परीक्षा पास न हो जाए, पंचायत सचिव के पद पर बलिया जिला के एक अनजाने से गांव फुलेरा जाना पड़ा । गांव के नजदीक ही है फकौली बाजार । कहानी गांव में उसके अनुभवों और गांव वालों से उसके रिश्तों के इर्द-गिर्द घूमती है ।
फुलैरा गांव और फकौली बाजार नाम स्क्रिप्ट लिखनेवाले चन्दन कुमार ने अवश्य गूगल मैप देख कर चुना होगा। अब देखिये फुलैरा-250101 UP का एक गावं है जो ग़ाज़ियाबाद से करीब 35 km दूर है। एक दूसरा भी फुलैरा जंक्शन है राजस्थान में। फकौली बाजार भी है UP में प्रयाग राज से करीब 125 KM दूर। पर इस दोनों UP के गावों की आपस में दूरी है 540 KM. अब पंचायत सिरीज में इन दोनों जगह के बीच की दूरी है सिर्फ 10 KM यानी जगहें काल्पनिक है और यूट्यूब की दया से अब तो सभी जानते हैं इसकी सूटिंग भोपाल से 55 km दूर स्थित महौरिया गांव में हुई है।
और महौरिया गांव वालें अब टूरिस्टों से खुश-ओ-परेशान है।
उत्तर प्रदेश स्थित फुलेरा और उससे 540 km दूर स्थित फकौली बजार।
मध्यप्रदेश का महोड़िया ग्राम पंचायत ऑफिस जहां शूटिंग की गयी
Season-1 Episode-1 की कहानी कुछ यूं है।
नायक अभिषेक त्रिपाठी शहर छोड़ ग्राम पंचायत सचिव की नौकरी ज्वाइन करने फुलैरा पहुंच चुका है - गैस स्टोव, मोटरसाइकिल सभी ले कर । उसके स्वागत के लिए सहायक विकास और उप प्रधान प्रह्लाद चा चार पेठा मिठाई के साथ इंतजार कर रहे हैं, जिसमें से दो प्रहलाद चा खा चुके हैं, आफिस में ताला लगा है। ताले की चाभी प्रधान पति दुबे जी लेकर आने वाले हैं । पर चाभी प्रधान जी से खो जाता है खेत में झाड़ा फिरते समय । जब खेत में चाभी नहीं मिलता तब सहायक विकास अभिषेक के ही मोटरसाइकिल से चाभी मिस्त्री को लाने फकौली बाजार भेजा जाता है, पर वह मिस्त्री को साथ नहीं ला पाया, और तो और उसके मोटरसाइकिल का इंडिकेटर भी टूट चुका है। अभिषेक के झल्ला कर पूछने पर सहायक विकास क्या कहता है सुनिये।
विकास: पहले क्या बताए? मिस्त्री कहां है? या इंडिकेटर कैसे टूट गया ?
ताले
ताले लटकते नहीं लटकाए जाते हैं।
वे राह देखते हैं बस उस एक चाभी का।
ताले लटकते है, चाभियां घूम आती है।
रास्तों से गलियों से खेत खलिहानों से ।
पर कभी कभी चाभियां भटक भी जाती है ।
जेब से, चोरी से, लोटे से, या यादों से।
दूसरी चाभी को जब ताला नहीं पहचानते।
तब ताले डराएं जाते हैं यंत्रो और हथौड़े से।
कभी कभी ताले लटके रह जाते है
और टूट जाते है दरवाजे,
सभी संस्कार की बात है ।
खेत में सचिव जी प्रधान जी से और यह खेत किसका है?
सचिव जी का चाभी ढ़ूढने के बहाने खेत देखने जाना
प्रधान जी बताते है कि यह खेत विकास के चाचा का था, इसीको बेच कर तो अपनी बेटी का दहेज दिया और हम्हीं खरीदे। फिर फेकन और भाई के बीच खेत के बटवारे के लिए हुई लट्ठबाजी की बात भी बताते हैं। बहुत हल्के इशारे से गांव में अभी भी बचे सामंत शाही और दहेज प्रथा की बात कह जाता है यह episode. प्रधान वहीं बनता है जिसके पास पैसा हो खेत हो। लोग मजबूर हो तो उनका खेत औने पौने दाम में खरीद लेना या गिड़वी रख लेने वाला ही अंततः प्रधान बनेगा।
दहेज
कहां से दे दहेज ?
घर बेचे या खेत ?
देख बाप के माथे की लकीर
बेटी सोचे कहां खुदा और कहां फकीर ?
बिकने न दूंगी खेत घर द्वार
वो कर गुजरूंगी जो देखे संसार
दो कुलों का मान सम्मान रखने वाली
अब बेटा बन जाएगी, नाम कमाएंगी
जीवन साथी बनाने लड़को में होड़ लगे
ऐसा मुकाम हासिल कर जाएंगी
क्रमशः
Thursday, June 13, 2024
पूर्वोत्तर भारत में रेलवे का विकास और अवध - तिरहुत मेल
अवध तिरहुत मेल के बारे में कुछ लिखूं उसके पहले भारत के तब चलने वाले प्राइवेट रेलवे के बारे में कुछ जान लेना उचित होगा। प्राइवेट कंपनी के सिवा कई राजे रजवाड़ों के रेलवे थी या अपनी ट्रैन / सैलून थे। मैं बिहार और बंगाल में चलने वाले कुछ प्राइवेट रेलवे के बारे में बताना चाहूंगा।
पूर्वी भारत के प्राइवेट रेलवे
भारत की सबसे पहली प्राइवेट रेलवे थी देवघर रेलवे। जसीडीह से बैद्यनाथधाम जाने वाली यह 6 km लम्बी लाइन बिना सरकारी मदद या गैरंटी से बनी थी और बैद्यनाथ ज्योतिर्लिंग के तीर्थ यात्रियों की भारी भीड़ के कारण अच्छा लाभ भी कमा रही थी। बाबू हीरा चंद्र चटर्जी इंजीनियर इन चार्ज के देख रेख में बनी थी यह रेलवे।
देवघर रेलवे स्टेशन - अब
पूर्वी भारत के अन्य प्राइवेट रेलवे थे
पूर्वी भारत के अन्य प्राइवेट रेलवे थे। बंगाल में चलने वाले दो रेलवे लाइन अत्यंत छोटे २ फ़ीट के गेज वाली लाइन ।
- हावड़ा-अमता लाइट रेलवे, (२ फ़ीट या 610MM NG ), 1897 में शुरू हुई और १९७१ तक बंद हो गयी।
- हावड़ा-शेखल्ला लाइट रेलवे (२ फ़ीट या 610MM NG ), 1897 में शुरू हुई १९७१ में बंद हो गयी।
- बख्तियारपुर-बिहार शरीफ राजगीर लाइट रेलवे 762MM NG , 1902 में शुरू हुई 1962 में भारतीय रेल में विलय और बड़ी लाइन में परिवर्तित।
- आरा-सासाराम लाइट रेलवे, 1911 में शुरू हुई 1914 में विस्तारित हुई और 1978 में ये लाइन बंद कर दी गयी।
- फतुहा -इस्लामपुर लाइट रेलवे, 1922 में शुरू हुई 1986 में भारतीय रेल में विलय और बड़ी लाइन में परिवर्तित।
फतुआ इस्लामपुर लाइट रेलवे - railinfo.com के सौजन्य से
इसमें से फतुआ इस्लामपुर लाइट रेलवे तो तब भी था जब मैं पटना में पढ़ रहा था (1964-64 school, 1965-70 college) और हर बार पटना जाते वक़्त इस छोटी सी ट्रेन खासकर छोटे से स्टीम इंजन को देख मैं हैरान होता था। राजगीर लाइन तब तक ब्रॉड गेज हो चुकी थी और लोकल ट्रेन के अलावा भी कुछ ट्रेन राजगीर से ही खुलती थी।
ये सभी प्राइवेट रेल मार्टिन रेलवे कंपनी द्वारा बनाये गए थे और इनका परिचालन भी वे ही करते थे । मार्टिन रेलवे कंपनी ने ही नेपाल सरकार की रक्सौल - अमलेख गंज नैरो गेज रेलवे लाइन का निर्माण किया था और नेपाल सरकार के लिए उसका परिचालन भी ये ही करते थे।
जैसा मैंने अपने पिछले ब्लॉग में बताया था कविगुरु रविंद्रनाथ के दादा जी श्री द्वारकानाथ टैगोर ने भी वेस्ट बंगाल रेलवे के नाम से एक कंपनी खोली थे और वे रानीगंज तक रेल लाइन बिछाना चाहते थे पर अंग्रेजों ने इसकी अनुमति नहीं दी क्योंकि वे एक देशी (Native) थे।
अब अपने मुख्य विषय यानी बंद हुए प्रसिद्द ट्रेन अवध तिरहुत मेल पर वापस लौटते है । जबकि ब्रिटिश सरकार किसी देशी व्यापारी को रेलवे बनाने या चलाने नहीं दे रही थी लेकिन वे राजे महाराजों को नहीं रोक पायी और भारत में कई देशी रियासतों के अपने रेल लाइन थे। बृहत ब्रिटिश भारत की बात छोड़ भी दे तो भी तिरहूत के दरभंगा महाराज और अवध या रामनगर के नवाबों के रेलवे तो इस ब्लॉग के विषय की ही बातें है। दरभंगा महाराज और अवध के प्रिंस मुहम्मद आकरम हुसैन जब ब्रिटिश राज के सदस्य बने तब उन्होंने अवध क्षेत्र और तिरहुत क्षेत्र के बीच आवागमन को आसान बनाना चाहा।
अवध -तिरहुत रेलवे।
विकिपीडिया के सौजन्य से - काठगोदाम स्टेशन पर अवध तिरहुत रेलवे (AT railway ) की एक ट्रेन 1957
तिरहुत में पहली रेलवे लाइन दरभंगा महल परिसर - नारगोना टर्मिनस (जहां यह स्थान अभी भी परमेश्वर सिंह विश्वविद्यालय द्वारा चिह्नित है) से सकरी में बाजितपुर तक बिछाई गई थी। तिरहूत डिवीजन में सामान्य परिवहन के लिए पहली लाइन के रूप में दरभंगा से समस्तीपुर तक दूसरी लाइन बिछाई गई थी। जहा महल परिसर का रेलवे स्टेशन सिर्फ रॉयल परिवार के लिए ही था और लहेरियासराय स्टेशन सिर्फ अंग्रेजों के लिए था और आम जनता के लिए था हराही या दरभंगा रेलवे स्टेशन।
ऐसे तो इस रेलवे की स्थापना भीषण अकाल के समय 1874 में हुआ जब समस्तीपुर से दरभंगा के बीच अनाज से लदी मालगाड़ी चली थी पर बाद में पैसेंजर ट्रेनें भी चलायी गई और इसे मुजफ्फरपुर , मोतिहारी- बेतिया, सकरी जयनगर, सोनपुर-बहराइच, समस्तीपुर-खगड़िया, नरकटियागंज-बगहा इत्यादि तक बढ़ाया भी गया। तब गंगा नदी पर पुल नहीं थे कई जगह स्टीमर की व्यवस्था की गई और ऐसे घाटो तक रेलवे लाइन भी बिछाई गई जैसे पहलेजा घाट, मोकामा घाट, साहबपुर कमाल , सिमरिया घाट, मुंगेर घाट इत्यादि।
तिरहुत रेलवे के नरगौना टर्मिनल - ETV Bharat के सौजन्य से
तिरहुत रेलवे (तिरहुत राज्य रेलवे) सबसे पहले दरभंगा राज और बाद में प्रांतीय सरकार के स्वामित्व में था। इसके स्वामित्व को बाद में भारत के ब्रिटिश सरकार को हस्तांतरित कर दिया गया, जिसने इसे 1886 के अंत तक भारतीय राज्य रेलवे के हिस्से के रूप में संचालित किया, 1886 के अंत से 30 जून 1890 तक तिरहुत रेलवे के रूप में और 1 जुलाई 1890 से बंगाल और उत्तर पश्चिमी रेलवे के रूप में। तिरहुत रेलवे ने सुगौली-रक्सौल रेलवे को 1920 के आसपास अवशोषित किया । 1 जनवरी 1943 को अवध और तिरहुत रेलवे को को विलय कर बना अवध -तिरहुत रेलवे । 14 अप्रैल 1952 को, अवध तिरहुत रेलवे को असम रेलवे और बॉम्बे, बड़ौदा और मध्य भारत रेलवे के कानपुर-अछनेरा खंड के साथ मिलाकर पूर्वोत्तर रेलवे बनाया गया, जो अब भी वर्तमान भारतीय रेलवे के 16 क्षेत्रों में से एक है।
इसके पहले फरवरी 1943 में, बंगाल - उत्तर पश्चिम रेलवे (BNW Railway) और रोहिलखण्ड - कुमाऊं रेलवे (R and K railway) को ब्रिटिश सरकार द्वारा अधिग्रहित कर लिया गया और उन्हें तिरहुत रेलवे, मशरक-थावे एक्सटेंशन रेलवे , लखनऊ -बरेली रेलवे के साथ मिला कर बना अवध-तिरहुत रेलवे। इसका मुख्यालय गोरखपुर में था। ट्रेन नं. 301अप - 302 डाउन कानपुर (अनवरगंज)-सिलीगुड़ी अवध तत्कालीन अवध-तिरहुत मेल (जिसे ए.टी. मेल के नाम से जाना जाता है) इस क्षेत्र की सबसे प्रसिद्ध ट्रेन थी। आज का मेरा ब्लॉग इसी ट्रैन के बारे में है।
अवध तिरहुत मेल
मीटर गेज पर, सबसे लंबी दूरी की ट्रेनों में से एक लखनऊ (LJN) और गुवाहाटी के बीच 1/2 अवध तिरहुत मेल थी। 70 के दशक के अंत तक भी उत्तरी भारत से उत्तर-पूर्व तक कोई ब्रॉड गेज लिंक नहीं था। मीटर गेज की शायद सबसे लंबी दूरी तय करने वाली यही ट्रेन थी। आजादी के पहले बंगाल से उत्तर पुर्व जाने के लिए जिन लाइनों का प्रयोग होता था उनमें से कई पुर्वी पकिस्तान यानि बंगलादेश में चली गई और पुर्वोत्तर जाने वाली बहुत सी ट्रेनों का रूट बदला पर AT mail बंद होने तक अपने original रूट पर ही चली।
'मेल' ट्रेन क्या होती है
तब राजधानी , शताब्दी या वन्दे भारत तो होती नहीं थी , मेल ट्रेन ही सबसे तेज़ और कम स्टॉपेज वाली ट्रेन होती थी। ऐसे स्टीम इंजन के उपयोग के कारण स्टॉपेज लम्बे लम्बे होते - आधा से एक घंटे तक का। पानी - कोयला लेना या इंजन चेंज होने के लिए। इसे मेल इसलिए कहा जाता था क्योकि मेल या डाक इसीसे जाता था। इसमें रेलवे मेल सर्विस की बोगी भी होती थी और अति आवशयक या बिना विलम्ब के पहुचने के लिए RMS बोगी में चिट्ठियां डाल भी सकते थे। और इसलिए अवध तिरहुत मेल एक सबसे महत्वपूर्ण ट्रेन थी। पहले इसे अनवरगंज (कानपूर) से सिलीगुड़ी के लिए चलाया गया और तब ये पूरा रूट ही मीटर गेज था। बाद में इसे लखनऊ से गुवाहाटी तक चलाया गया। लेकिन 1979 के आस पास बरौनी समस्तीपुर बाराबंकी रुट की लाइन मीटर गेज से ब्रॉड गेज हो गयी और बरौनी - मानसी - कटिहार - सिलीगुड़ी लाइन मीटर गेज ही रह गयी तब इस ट्रेन को दो भागों में बाँट दिया गया। लखनऊ से आने पर बरौनी जंक्शन स्टेशन पर मीटरगेज की ट्रेन दूसरे प्लेटफार्म (ज्यादातर सामने वाले प्लेटफार्म) पर प्रतीक्षा रत मिलती। यात्रियों को ब्रॉडगेज से मीटरगेज या मीटरगेज से ब्रोडगेज़ में शिफ्ट करने के लिए पर्याप्त समय मिलता। मेरा इस ट्रेन में चलने का अनुभव थोड़ा ही है - अक्सर बरौनी से बेगूसराय तक (मीटरगेज) । याद नहीं दूरी का कोई प्रतिबंध था या नहीं जो अक्सर मेल एक्सप्रेस ट्रेनों में तब हुआ करती थी पर भीड़ बहुत होती थी इस ट्रेन में। इस ट्रेन में १९५७ में ही AC डब्बे लगाने की मांग पार्लियामेंट उठाई गयी थी।
अवध तिरहुत मेल की जगह पर अवध -आसाम एक्सप्रेस जा फोटो - RAILINFO के सौजन्य से
१९८५ से इसी ट्रेन की जगह पर अब चलती है 15909 /15910 अवध - आसाम एक्सप्रेस जो लखनऊ से गुवाहाटी तक पूरी तरह ब्रॉडगेज पर चलायी गयी। इसका रूट जलपाईगुड़ी तक पहले वाली थी पर यह गुवाहाटी तक चली। दो साल के भीतर इसे दिल्ली से चलाया जाने लगा। 2003 में इसका पश्चिमी टर्मिनेशन स्टेशन हो गया दिल्ली - सराई - रोहिल्ला और 2006 में इसे राजस्थान से लालगढ़ तक बढ़ा दिया गया । 2014 में नई तिनसुकिया और 2016 में डिब्रूगढ़ तक बढ़ाये जाने के बाद रोज़ 3118 KM दूरी तय करने वाली भारत की सबसे लम्बी दूरी की ट्रेन हो गयी है ।
आज बस इतना ही। कुछ और बातें लेकर फिर हाज़िर होऊंगा तब तक के लिए शुभ कामनाएं।
Saturday, June 8, 2024
पुर्वी भारत में रेल के प्रारंभिक दिन
अब बंद हो चुके और अपने ज़माने की सुप्रसिद्ध ट्रेन तूफ़ान एक्स्प्रेस पर मेरा ब्लॉग
भारत में रेल चलाने के लिए अंग्रेजों को जल्दी क्यों थी ?
मैंने सोचा था तूफ़ान एक्सप्रेस के इतिहास के बाद अब बंद हो चुकी प्रतिष्ठित अवध - तिरहुत मेल ट्रेन के विषय में लिखूंगा पर सोचा पहले पूर्वी भारत में रेलवे के शुरुआती दिनों के बारे में लिख लू तो क्रोनोलॉजी बनी रहेगी।
ब्रिटेन में पहली रेलगाड़ी १८२५ में स्टॉक्टन और डार्लिंगटन के बीच चली थी और सिर्फ २८ साल बाद भारत में १८५३ में बोरीबंदर से थाना के बीच। ऐसे भारत में पहली ट्रैन का ख़िताब सही मायने में रेड हिल रेलवे को जाता है जो १८३७ में चली थी रेड हिल्स से चितान्द्रीपेट के लिए। रेड हिल रेलवे को मद्रास के रोड बनाने के लिए पत्थर लाने के लिए उपयोग में लाया गया था।
अब सवाल यह उठता है की अंग्रेजों को भारत में रेल चलाने की जल्दी क्यों थी ? जल्दी थी व्यापर के लिए। रानीगंज और आसपास के खदानों से कोयला का परिचालन हो या चीन से आने वाले चाय का या फिर बिहार और बंगाल में बहुतायत से होने वाले अफीम का । ब्रिटिश ईस्ट इंडिया कंपनी ने भारतीय प्रांत बंगाल (बिहार सहित) में अफ़ीम की खेती पर एकाधिकार स्थापित किया था,उगाने से लेकर बेचने पर ब्रिटिश सरकार की मोनोपली। जहाँ उन्होंने सस्ते और प्रचुर मात्रा में अफ़ीम उगाने की एक विधि विकसित की। संयुक्त राज्य अमेरिका सहित अन्य पश्चिमी देश भी व्यापार में शामिल हो गए, जो तुर्की के साथ-साथ भारतीय अफ़ीम का व्यापार करते थ। जबकि अफीम का भारत में व्यापर गैरकानूनी बना दिया गया था और विदेश से व्यापर में कोई अप्पत्ति नहीं थी । चीन से चाय आती थी जिसके लिए चांदी और सोने के सिक्के लगते थे। यह चाय भी बॉम्बे से बाहर के देशो में भेजे जाते । अब उन जहाजों के चीन खाली नहीं भेजा जाता पर उनसे अफीम चीन भेजी जाती । 1839 तक चीन के चाय की कीमत चांदी सोने के वजाय अफीम से ही अदा होने लगी।
टैगोर परिवार और रेलवे
टैगोर परिवार का रेलवे से भी घनिष्ठ संबंध है क्योंकि रवीन्द्रनाथ के दादा प्रिंस द्वारकानाथ टैगोर, एक उद्योगपति थे , जो रानीगंज के पास कई कोलियरियों के मालिक थे, 1843 में इंग्लैंड में रेलवे को देखकर इतने प्रभावित हुए कि उन्होंने अपने घर तक एक रेलवे लाइन बनाना चाहा। कोयला खदानें उन्होंने मुख्य रूप से रानीगंज और राजमहल कोयला क्षेत्रों से और कृषि और खनिज उत्पादों की आवाजाही के लिए ग्रेट वेस्टर्न बंगाल रेलवे कंपनी नामक एक कंपनी की स्थापना की। उन्होंने गंगा नदी के समानान्तर रेल लाइन बनाने की योजना बनाई तांकि नदी से होने वाले कोयला का परिचालन ट्रैन से हो सके। इस बीच, आर मैकडोनाल्ड स्टीफेंसन ने पहले ही इंग्लैंड में स्थापित ईस्ट इंडिया रेलवे कंपनी के लिए शेयर जारी कर दिए थे। ईस्ट इंडिया कंपनी को लाइन के निर्माण की अनुमति देने के लिए इंग्लैंड में द्वारकानाथ के प्रयास तब विफल हो गए जब उनकी योजना को ईस्ट इंडिया कंपनी के निदेशकों की अदालत ने खारिज कर दिया क्योंकि वे देशी (Native ) कंपनी या प्रबंधन को रेल जैसा प्रमुख उद्योग में स्थान नहीं देना चाहती थी।
ईस्ट इंडियन रेलवे कंपनी, जिसका गठन 1 जून 1845 को हुआ था, ने 1846 में कलकत्ता से मिर्ज़ापुर के रास्ते दिल्ली तक एक रेलवे लाइन के लिए अपना सर्वेक्षण पूरा किया। कलकत्ता से इसका रुट वही था जैसा श्री टैगोर के कंपनी ने प्लान कर रखा था। कंपनी शुरू में सरकारी गारंटी से इनकार करने पर निष्क्रिय हो गई, जो 1849 में दी गई थी। इसके बाद, कलकत्ता और राजमहल के बीच एक "प्रायोगिक" लाइन के निर्माण और संचालन के लिए ईस्ट इंडियन रेलवे कंपनी और ईस्ट इंडिया कंपनी के बीच एक समझौते पर हस्ताक्षर किए गए, जिसे बाद में मिर्ज़ापुर के माध्यम से दिल्ली तक बढ़ाया जाएगा। निर्माण 1851 में शुरू हुआ।
हावड़ा और हुगली के बीच १९५४ में चलने वाली पहली ट्रेन , ईस्ट इंडियन रेलवे का logo
खाना जंक्शन-राजमहल खंड अक्टूबर 1859 में पूरा हुआ, रास्ते में अजय नदी को पार किया गया। पहली ट्रेन 4 जुलाई 1860 को हावड़ा से खाना होते हुए राजमहल तक चली। जमालपुर मुंगेर शाखा सहित, खाना जंक्शन से जमालपुर होते हुए किऊल तक लाइन फरवरी 1862 में तैयार हो गयी थी। तब इसे हावड़ा दिल्ली मेन लाइन कहा गया। पर जब सीतारामपुर झाझा किउल होकर एक लाइन तैयार हो गयी तो उसे पहले कॉर्ड लाइन फिर लोकप्रियता के कारण हावड़ा - दिल्ली मेन लाइन कहा गया और खाना - राजमहल - जमालपुर - किउल लाइन को साहिबगंज (इसी लाइन में एक स्टेशन ) लूप का नाम दिया गया। बाद में जब इससे भी एक छोटी दूरी की लाइन GAYA होकर बन गई तो उसे हावड़ा - दिल्ली ग्रैंड कॉर्ड लाइन नाम दिया गया।
साहिबगंज लूप , मेन लाइन और ग्रैंड कॉर्ड लाइन
खैर साहिबगंज होकर तब की मेन लाइन की बात पर लौटते है। राजमहल से, निर्माण तेजी से आगे बढ़ा, गंगा के किनारे पश्चिम की ओर बढ़ते हुए, 1861 में भागलपुर, फरवरी 1862 में मुंगेर, और दिसंबर 1862 में वाराणसी (गंगा के पार) और फिर यमुना के तट पर नैनी तक पहुँच गया। इस कार्य में जमालपुर में ईआईआर (ईस्ट इंडियान रेलवे ) की पहली सुरंग और आरा में सोन नदी पर पहला बड़ा पुल शामिल था।
बाद में अवध क्षेत्र में अवध रोहिलखण्ड रेलवे और तिरहुत क्षेत्र में तिरहुत रेलवे की स्थापना हुई जो कालांतर में उत्तर रेलवे और उत्तर पूर्व रेलवे कहलाई। इनकी कहानी फिर कभी।
Monday, June 3, 2024
तुफान एक्सप्रेस
पूर्वी भारत में रेल के प्रारंभिक दिनों पर मेरा एक ब्लॉग
7 UP / 8 down हावड़ा-दिल्ली तुफान एक्सप्रेस या उसका नया अवतार 3007/3008 हावड़ा-गंगानगर उद्यान आभा तुफान एक्सप्रेस 92 साल चलने के बाद 2022 में बंद हो गई। एक जमाने में अपने नाम को सार्थक करती यह एक प्रसिद्ध सुपरफास्ट ट्रेन थी। एक फिल्म भी बनी थी 8 down toofan mail. और १९४२ की फिल्म 'जवाब' में एक गाना भी था दुनिया ये दुनिया तूफ़ान मेल ! आज मैं इसी ट्रेन की कहानी सुनाऊंगा।
हमारे शहर जमुई (पटना - हावड़ा के मध्य) में कुछ ही सुपरफास्ट ट्रेनें रूकती थी। जिसमें तुफान एक्सप्रेस भी एक था। तब main line होकर चलने वाली सबसे तेज़ ट्रेन 5 UP /6 Dn पंजाब मेल हमारे स्टेशन पर नहीं रुकती थी। छात्र जीवन में तुफान एक्सप्रेस पटना से जमुई के लिए मेरी पसंदीदा ट्रेन थी। सुबह छः के करीब चल कर तीन घंटे में 153 km की यात्रा पूरी करती थी। औसत 50 kmph के स्पीड तब के लिए बहुत शानदार स्पीड हुआ करता था। ट्रेन की अधिकतम स्पीड 65 होती थी। पटना से 12 dn बनारस एक्सप्रेस (बाद में अमृतसर एक्सप्रेस) और 39 dn जनता एक्सप्रेस दो अन्य गाड़ियां थी जिससे मैं जमुई लौटता था। पहले देखे इस ट्रेन का इतिहास !
Via Grand Chord ie via Gaya
पटना होकर चलने वाली यह ट्रैन प्रारम्भ में गया होकर चलती थी । साल 1930 से 1955 तक यह गाड़ी 7Up/8Dn हावड़ा से दिल्ली तूफान एक्सप्रेस वाया सासाराम,गया,मुगल सराय, (यानि ग्रैंड कार्ड लाईन) कानपुर, अलीगढ़ टूंडला के रास्ते चलती थी। 7up हावड़ा से 20:10 बजे चलती थी और दिल्ली अगले दिन 06:23 बजे पहुंचती थी और 8dn दिल्ली से 20:55 बजे चलती थी और हावड़ा अगले दिन 08:36 बजे पहुंती थी।यानि हावड़ा से दिल्ली तक की यात्रा करीब ३५ घटने में पूरी होती थी। बताना न होगा की ट्रेन में तब स्टीम इंजन का प्रयोग होता था।
Via main line ie via Patna
फिर साल 1956 में तूफान एक्सप्रेस को हावड़ा से नई दिल्ली वाया पटना, टूंडला आगरा हो कर चलाया गया तब भी इसकी स्पीड अच्छी थी। हावड़ा से 09:45 बजे चलकर दिल्ली अगले दिन 15:00 बजे पहुंचती थी और दिल्ली से 16:55 बजे चलकर हावड़ा अगले दिन 18:36 बजे पहुंचती थी।
1957 बड़हिया में ट्रेन रोकने के लिए 4 लोगो ने जान गंवाई
बड़हिया में तूफान एक्सप्रेस के ठहराव के लिए 1957 में आंदोलन किया गया था। उस आंदोलन में ट्रेन से कटकर चार लोगों की जान चली गई थी। ये घटना क्षेत्र में काफी प्रसिद्ध है। बड़हिया रेलवे स्टेशन पर तूफान एक्सप्रेस का ठहराव नहीं था। उक्त ट्रेन के ठहराव की मांग के लिए ग्रामीण रेलवे स्टेशन की अप लाइन पर धरना पर बैठे थे। सुरक्षा में लगे पुलिस जवानों ने ट्रेन के आने की सूचना से पहले सबको हटाने का प्रयास किया, लेकिन चार लोग बैठे ही रह गए थे। तत्कालीन मुंगेर जिले के जिलाधिकारी एवं सरकार का सख्त निर्देश था कि तूफान एक्सप्रेस को बड़हिया स्टेशन पर नहीं रोकना है। किऊल स्टेशन पर उस वक्त ट्रेन के इंजन एवं ड्राइवर को बदलकर आगे के लिए रवाना किया गया और तूफान एक्सप्रेस उक्त चारों धरना दे रहे लोगों को रौंदते हुए बड़हिया स्टेशन से गुजर गई और अगले स्टेशन मोकामा में जाकर ही रुकी।
तुफान एक्सप्रेस कैसे बना उद्यान आभा तुफान एक्सप्रेस
साल 1991 में 7up/8dn हावड़ा-नई दिल्ली तूफान एक्सप्रेस को एक अन्य ट्रेन के साथ मिला दिया। गया । अक्सर ऐसी ट्रेनें मर्ज होने पर अपनी विशिष्टता (Exclusivity) और पहचान खो बैठती है। नए रूट , नए बढ़े स्टापेज के कारण लेट चलने की समस्या होने लगती है और राजनीतिक दवाब के कारण नए ठहराव जुड़ने लगते हैं। तब 59UP/60DN नई दिल्ली- श्रीगंगानगर उद्यान आभा एक्सप्रेस चलती थी 59DN दिल्ली से 22:45 बजे चलती थी और श्रीगंगानगर नगर 08:00 बजे पहुंचती थी और 60UP श्रीगंगानगर से 22:55 बजे चलती थी और नई दिल्ली 07:20 बजे पहुंचती थी।
इसी ट्रेन को तूफ़ान एक्सप्रेस के साथ मर्ज कर दिया गया और तूफान एक्सप्रेस औरअब इस ट्रेन का नाम हो गया उद्यान आभा तूफान एक्सप्रेस । और 3007UP/3008DN हावड़ा-श्रीगंगानगर तक यह ट्रेन चलने लगी । नई दिल्ली से आगे यह ट्रेन रोहतक,जींद ,नरवाना,जाखल,बठिंडा स्टेशन पर रूकती हुई श्रीगंगानगर पहुँचती थी।
इस तरह इस नयाब ट्रेन के बर्बादी की शुरुआत तो हो ही चुकी थी रही सही कसर 1997 में पूरी हुईं जब हावड़ा-नई दिल्ली तूफान एक्सप्रेस की स्पीड को स्लो किया गया। अब यह गाड़ी हावड़ा और गंगा नगर के 110 जगह रुकते चलते बीच 45 घंटे लेने और कितने घंटे लेट चलने लगी यह शोध का विषय है। इस प्रकार एक जामाने की सुपरफास्ट ट्रेन तूफान एक्सप्रेस को बर्बाद किया गया और यह अक्सर छोटी लोकल यात्राओं के लिए लोकप्रिय हो गयी।
Saturday, May 25, 2024
बैठे ठाले-4 तुझे क्या सुनाऊं मैं दिलरूबा
आज एक गाना सुन रहा था
"तुझे क्या सुनाऊँ मैं दिलरुबा,
तेरे सामने मेरा हाल है।
तेरी इक निगाह की बात है
मेरी ज़िंदगी का सवाल है।
मेरे दिल जिगर में समा भी जा,
रहे क्यों नज़र का भी फ़ासला ।
के तेरे बग़ैर ओ जान-ए-जां
मुझे ज़िंदगी भी मुहाल है ।"
इस गाने में नूतन के साथ एक ऐसे हीरो दिखे जिन्हें शायद पहले कभी न देखा था । गूगल किया तो पता चला ये गाना १९५८ की फिल्म " आखिरी दांव " का था और हीरो का नाम था शेखर । कई अन्य पुरानी गीतों की तरह ये गीत भी काफी अच्छा था । मजरूह सुल्तानपुरी (जिनकी कल २४ मई को ही पुण्यतिथि थी) के गीत को संगीतबद्ध किया था सुरो के जादुगर मदन मोहन ने। गुगल से डाऊनलोड किया लिरिक्स दे रहा हूँ ।
तुझे क्या सुनाऊँ मैं दिलरुबा
तेरे सामने मेरा हाल है
तेरी इक निगाह की बात है
मेरी ज़िंदगी का सवाल है
मेरी हर ख़ुशी तेरे दम से है
मेरी ज़िंदगी तेरे ग़म से है
तेरे दर्द से रहे बेख़बर
मेरे दिल की कब ये मज़ाल है
तेरे हुस्न पर है मेरी नज़र
मुझे सुबह शाम की क्या ख़बर
मेरी शाम है तेरी जुस्तजू
मेरी सुबह तेरा ख़याल है
मेरे दिल जिगर में समा भी जा
रहे क्यों नज़र का भी फ़ासला
के तेरे बग़ैर ओ जान-ए-जां
मुझे ज़िंदगी भी मुहाल है।
शेखर जी के बारे में दो शब्द
शेखर 50 's के हिंदी फिल्म अभिनेता थे । (1950) में शेखर को नलिनी जयवंत के साथ पेश किया गया था। उनकी अन्य फिल्मों थी आस (1953), हमदर्द (1953), नया घर (1953), आखिरी दाव (१९५८), बैंक प्रबंधक (1959) आदि शामिल हैं।
एक अभिनेता के रूप में शेखर का करियर अचानक छोटा हो गया, क्योंकि उन्होंने फिल्म निर्माता बनने का फैसला किया। उन्होंने छोटे बाबू (1957, आखिरी दाव (1958) और बैंक मैनेजर (1959) का निर्माण किया।
बाद में, उन्होंने फणी मजूमदार के साथ निर्देशक और एन. दत्ता के साथ संगीत निर्देशक के रूप में एक फिल्म 'प्यास' शुरू की। बीना राय को उनके अपोजिट हीरोइन के तौर पर साइन किया गया था। इस फिल्म के लिए वित्त की व्यवस्था करने के लिए, उन्होंने सी ग्रेड फिल्मों को स्वीकार किया, जैसे दिल्ली का दादा शेख मुख्तार और हम मतवाले नौजवान, दोनों 1962 फिल्में। शेखर ने बड़ी मुश्किल से फिल्म को पूरा किया। फिल्म अंततः 1968 में एक नए शीर्षक 'अपना घर अपनी कहानी' के साथ रिलीज हुई। जैसा कि अनुमान था, फिल्म ने दर्शकों को आकर्षित नहीं किया। आर्थिक रूप से बर्बाद, शेखर कनाडा चले गए और बहुत समय पहले वहीं उनकी मृत्यु हो गई।
बैठे ठाले में आज बस इतना ही ।
अमिताभ सिन्हा, रांची
Sunday, May 12, 2024
संस्मरण- जलपरी - लेखिका मेरी दीदी श्रीमती कुसुमलता सिन्हा
भूमिका
इस कहानी या संस्मरण की लेखिका है मेरी चचेरी बहन कुसुमलता। यदि और विस्तार में बताऊँ तो मेरे दादा जी और उनके दादा जी सहोदर भाई थे। मेरे चाचा स्वर्गीय उमेश चंद्र प्रसाद बिहार के एक सबसे पुराने जिला शहर (One of the oldest District Town ) मुंगेर के लल्लू पोखर मोहल्ले में रहते थे। हम लोगों का एक दूसरे के यह आना जाना लगा रहता था। कभी लगता ही नहीं था की वे सब हमारी चचेरे भाई बहन है। सबसे बड़ी प्रेमा दीदी के शादी में मैं एक बच्चा था और उस बार के मुंगेर ट्रिप पर मैंने एक ब्लॉग पोस्ट भी किया है। लिंक यहाँ दे रहा हूँ। बचपन मै भी भागा था इस संस्मरण में जिन बड़ी माँ का जिक्र है वे हमारे स्व केदारनाथ चाचा जी की पत्नी थी और निःसंतान होने के कारण मुंगेर में ही रहती थी। इसी तरह निःसंतान दादा जी स्व श्री हरिहर प्रसाद की पत्नी संझली दादी हमलोगों के साथ जमुई में रहती थी। उस दौर में कोई बेसहारा नहीं होता था। बताता चलूं मुंगेर बिहार में गंगा के दक्षिण में बसा एक मुफस्सिल शहर है जो नवाब मीर कासिम के किले और योग नगरी, रेल वर्कशॉप, सिगरेट और बंदूक कारखाने वाले युगल शहर जमालपुर के लिए प्रसिद्ध है। अब आगे दीदी के शब्द।
लाल दरवाजा, मुंगेर
बचपन और उसकी कुछ यादें
हमारा घर मुंगेर में गंगा जी के किनारे है। मैं, मेरी दोनों बड़ी बहने और बड़की मैया/ बड़ी मां( बड़ी चाची) नियमत: वैशाख और जेठ के महीने में (गर्मी के दिनों में) गंगा स्नान करने जाते थे।
हम लोग बहुत उत्सुकता से गर्मी के मौसम का इंतजार करते थे। गर्मी का दिन,छुट्टियां और एकदम साफ गंगा, ऐसे में कौन बच्चा अपने को रोक पाता। हमने खेल-खेल में ही तैरना बिना किसी instructor और lifeguard के सीख लिया। तैराकी की सारी करतब सीखने कोशिश करते थे (तट के नजदीक)।
उस समय घड़ी हुआ करती थी, मगर बड़ी मां के पास अपने time pins थे जैसे पौ-फटने के पहले, दिन चढ़ने के बाद, अस्ताचल सूरज, गोधूलि बेला और वह उनके हिसाब से चलती थी। उन्हें घड़ी देखने की ज्यादा जरूरत नहीं पड़ती थी। ज्यादातर समय उनका समय का अंदाजा बिल्कुल सही होता था।
उन्होंने एक दिन सुबह-सुबह हमें अपने समय के अंदाजे से उठा दिया। हम सब गंगा जी जाने के नाम से, बिना ना-नुकर किए तुरंत तैयार हो गए। 100 में से एक दिन जब बड़ी मां का नेचुरल क्लॉक फेल हुआ होगा, यह वही दिन था। हम सभी गंगा जी के तट पर पहुंच गए ,मगर एकदम अंधेरा था। सूरज की किरण का कोई नामोनिशान नहीं था ।
उस जमाने में जब इतने घर नहीं थे,तब खुले में जैसे नदी तट पर चांद की रोशनी से भी थोड़ा ज्यादा ही उजाला हुआ करता था और उस उजाले में हमने नदी तट पर एक जलपरी जैसी आकृति देखी,वह अपना निचला हिस्सा मछली/पूछ वाला हिला रही थी । जलपरी की कहानियां हम सुना करते थे और हमारा कोमल मन उस पर विश्वास भी करता था। खैर हम सब ने उस "जलपरी को देखा और हमारी हालत ऐसी की मानो काटो तो खून नहीं।
उल्टे पांव चारों दौड़कर वापस घर आ गए।हमने तुरंत निर्णय लिया कि इस बात का जिक्र किसी और से नहीं करेंगे, डर था हमारा गंगा जाने का मजेदार दौर खतरे में न पड़ जाए ।उस दिन काफी देर के बाद सूर्योदय हुआ। लगता है हम लोग एक या दो बजे ही गंगा जी चले गए थे।
आज हमारे बीच बड़ी मां, मां-बाबूजी और बड़ी दीदी नहीं है तब मैं इस घटना से पर्दा हटा रही हूं। सोचती हूं हो सकता है उस दिन हमने गंगा में पाया जाने वाला घड़ियाल या सिर्फ उस इलाका में पाई जाने वाली डॉल्फिन देखी हो या कौन जाने शायद सच की जलपरी ही देखी हो ।
इस घटना को याद करने के के साथ बहुत सारी बचपन की मीठी-मीठी यादें सजीव हो गई है। और कौन जाने कभी उन यादों पर भी कुछ लिख डालूं।
कुसुमलता सिन्हा, पटना
Thursday, May 2, 2024
इस बार (२०२४ ) का काठमांडू प्रवास - भाग १
दिल्ली हवाई अड्डा T3 के बाहर का दृश्य, दिल्ली हवाई अड्डे के अंदर के दृश्य
भूमिका
क्यूंकि मैंने काठमांडू पर कई ब्लॉग समय समय पर लिखे है, इसलिए प्रश्न उठता है फिर एक और क्यों ? और इसलिए इस ब्लॉग के लिए एक भूमिका की जरूरत पड़ गई। मेरी इस बार की काठमांडू यात्रा टिकट के तारीख के कारण कुछ ज्यादा ही eventful थी। अब महीने भर का काठमांडू प्रवास भी सिर्फ तीन चार बार ही हुआ है। मेरे फेसबुक के एक ग्रुप सदस्य ने अपने कमेंट में महीने भर के प्रवास के अनुभव को टुकड़े टुकड़े में ही सही ग्रुप में पोस्ट करने की सलाह दी। ऐसे तो मैंने पहले ही उस ग्रुप में ऐसे कई पोस्ट डाल रखे थे पर एक पूरा ब्लॉग लिखने से मैं अपने को रोक नहीं पा रहा। इसी बहाने मुझे भी एक खूबसूरत यात्रा को फिर से जीने का अवसर मिलेगा और भविष्य में याद आने पर फिर से ब्लॉग पढ़ भी सकते है। जब भी हम दिल्ली आते है काठमांडू (जो मेरा ससुराल है) जाने का प्रोग्राम बनने ही लगता है । इस बार भी प्रोग्राम था और फिर मेरे साले साहब के भारत के किसी लॉ विश्वविद्यालय के समारोह में आने का प्रोग्राम बन गया। हमने उनके साथ ही जाने के ख्याल से उनके वापस जाने के दिन का और उसी फ्लाइट का टिकट ले लिया।
तारीखों का घाल मेल
मैंने टिकट खरीदने वक़्त सीट नहीं चुना, सोचा साथ बैठ कर वेब चेक इन कर लेंगे। फिर जाने का दिन आया। मैंने लाख कोशिश की पर वेब चेक इन हो नहीं रहा था। हर बार ४८ घंटे पहले ही वेब चेक इन कर सकते है का नोटिफिकेशन आ जा रहा था। मैंने इसे वेब पेज कि गड़बड़ी मान लिया। खैर हम एयरपोर्ट जा पहुंचे। टिकट को गेट पर दिखते हुए विस्तरा एयर के काउंटर पर। कॉउंटरवाला भी परेशान कि टिकट उसके कंप्यूटर पर दिख क्यों नहीं रहा है। उसने टिकट को चेक करने दूसरे काउंटर पर भेजा तब पता चला कि जो टिकट मैंने बुक किया था उसमे डेट तो ठीक था पर महीना मार्च की जगह पर अप्रैल का था। खैर एयरलाइन ने एक्स्ट्रा पैसे लेकर उसी फ्लाइट में जगह दे दी। फिर भी सभी सीट एक साथ नहीं मिली। मैं, गेट सिक्योरिटी वाला और कॉउंटरवाला सभी सिर्फ डेट देख रहे थे महीना किसीने नहीं देखा। हम कुछ देर GMR वाले के सौजन्य से उनके लाउन्ज में रूके और चाय बिस्कुट खा कर सेक्युरिटी चेक के लिए चल पड़े। कुछ खरीदारी ड्यूटी फ्री में कर हम फ्लाइट में बैठ गए। फ्लाइट समय पर थी और समय पर ही पहुँची। काठमांडू के इमिग्रेशन में होने वाले साधारण होच पॉच के बाद बहार निकले पर ड्यूटी फ्री में ख़रीदा एक सामान निकलते समय वाले एक्स्ट्रा चेकिंग में कही छूट गया। यह वाली चेकिंग जिसे गोल्ड चेकिंग कहते है आपको किसी और अंतर्राष्ट्रीय हवाई अड्डे पर नहीं मिलेगी।
हवाई जहाज से बाहर का दृश्य, काठमांडू हवाई अड्डा
अब आते है वापसी के यात्रा पर। ससुराल जगह अजीब है वहां आप अपनी मर्जी से जाते हो पर वापसी ससुराल वालों के मर्जी से ही हो पाती है खास कर मेरे जैसे रिटायर्ड लोगों को जिनक पास छुट्टी / नौकरी का कोई बहाना न हो। पोखरा और आस पास घूमने का प्रोग्राम पहले से ही था। अब मैंने शर्त रख दी थी कि उन्हीं जगहों पर जाऊँगा जहा गाड़ी चली जाये और मुझे पहाड़ी रास्तों पर पैदल चलना न पड़े। उम्र का तकाजा ठहरा। इन चक्करों में वापसी की तरीखनिश्चित नहीं हो पाई और मै वापसी का टिकट पहले से खरीद कर रख नहीं पाया। धीरे धीरे काठमांडू दिल्ली का टिकट करीब Rs २२०००/ हो गया। जब करीब महीने भर बाद जाने का प्रोग्राम बना तब किसी और रूट से जाने का सोचने लगे। अंत में तय हुआ भद्रपुर (नेपाल के ककरभिठठा के पास ) नेपाली एयरलाइन से जाये और फिर टैक्सी से 40 km दूर बागडोगरा (भारत) तक जाये और फिर बागडोगरा दिल्ली फ्लाइट से।
पुर्वी हिमालय हवाई जहाज से, भद्रपुर हवाई अड्डा
करीब आधे दाम में हो जाती ये यात्रा यदि वो न हुआ होता जो हुआ। सबसे पहले दार्जीलिंग जिले में २६ अप्रैल को मतदान के मद्देनज़र मैंने २५ अप्रैल का टिकट लिया। तब किसी के कहने पर भारतीय न्यूज़ चेक करने लगा तब पता चला नेपाल - भारत बॉर्डर २३ अप्रैल से ही बंद था। मैंने टिकट को २७ अप्रैल तक आगे बढ़ा दिया एक्स्ट्रा पैसे दे कर। एक बार फिर मै वेब चेक इन नहीं कर पा रहा था। और एक बार फिर इसे मै वेब पेज की गड़बड़ी मान रहा था। २६ के रात में नींद से जग गया और अचानक ख्याल आया कहीं फिर तो तारीख वाली वही गड़बड़ी तो नहीं हो गई। टिकट को मोबाइल में खोल कर देखा तो सचमुच २७ अप्रैल के वजाय २७ मई की टिकट ले रखी थी। अब पैनिक में आ गया मैं रात में ही टिकट तो २७ अप्रैल के लिए प्री पोन कर लिया पर पैसे कट गए पर टिकट नहीं आया। रात भर मै एयरलाइन के सभी सोशल मीडिया प्लेटफार्म और ईमेल पर कंप्लेंट डाल दिए। रात में ठीक से सो भी नहीं पाया। एयरलाइन वाले का एक जवाब आया की यह पैसे ४-५ दिन में ऑटोमेटिकली वापस हो जायेगा (अभी तक तो नहीं आया ) आप फिर से टिकट ले ले। मैंने वैसा ही किया और इसके बाद यह रुट चेंज सस्ता न रहा पर मैंने काठमांडू आनेजाने का एक ADDITIONAL रुट का अनुभव ले लिय। दार्जीलिंग , सिक्किम के साथ कोई नेपाल भ्रमण करना चाहे तो यह एक बहुत उपयोगी रुट है।
भद्रपुर से बागडोगरा के बीच एक चाय बगान, बागडोगरा एयर पोर्ट
काठमांडू कैसे जाएं
पहले मेरे काठमांडू यात्रा का रूट ज्यादातर रक्सौल (ट्रेन से) और बॉर्डर पार कर बीरगंज-सिमरा से काठमांडू (बस/कार / हवाई जहाज) हो कर ही होता था। पर जब से मेरे दोनों बच्चे दिल्ली (NCR) में रहने लगे है दिल्ली-काठमांडू की हवाई यात्रा ही की है। एक बार गोरखपुर सनौली हो कर भी गया हूं कार से जब गोरखपुर में कार्यरत मेरे साढ़ू भाई और साली भी साथ गए थे। अब एक और लोकप्रिय रूट जयनगर से जनकपुर (ट्रेन) और जनकपुर से काठमांडू (कार/बस/ हवाई जहाज) से हो गया है।
ख्याति प्राप्त सर्जन और साहसी महिला से मुलाकात
काठमांडू पहुंचते ही हम सभी लोग एक पार्टी में गए जो मेरे रिश्तेदार के यहां थी उनके 3 शिशु नातियों के लिए थी पर साथ दक्षिण भारत के एक प्रसिद्ध और्थो और प्लास्टिक सर्जन जो मेडिकल कालेज में मेरे बड़े साले के क्लास मेट थे,को भी बुला रखा था । मै नेपाली समझ बोल लेता हूं और फिर भी मैं पार्टी में बोर हो रहा था तो इस दक्षिण भारतीय परिवार का हाल समझा जा सकता है। अब नेपाली राजनीति में कोई भारतीय कितना दिलचस्पी ले सकता है। जब नेपाली खाना परोसा गया तब डाक्टर परिवार के बच्चे परेशान हो गए। मेहमानों में मेरे हमउम्र कजन साले की एक साली जी आई हुई थी। बातों में पता चला उन्हें साहसिक खेल, साहसिक यात्रा पसंद है। अपने अनुभव को साझा भी कर रही थी। मैनें उनकी उम्र का अंदाज लगाया अपने से 5 वर्ष कम लगाया। जब मैंने अपने को वहां उपस्थित लोगों में दूसरा सबसे उम्रदराज बताया तब उन्होंने अपनी उम्र मुझसे पांच साल ज्यादा बता कर आश्चर्य चकित कर दिया। मैं उनकी FITNESS की तारीफ किए बिना नहीं रह सका।
दक्षिण काली मंदिर , फारपिंग
दक्षिण काली
काठमांडू में कई जगह घूमने का प्लान था। पर मेरे छोटे साले साहब कुछ एलर्जी के शिकार हो गए इसलिए पोखरा या कही दूर जाने की योजना नहीं बन पाई। हमारी पहली घुमक्कड़ी शहर से 20 KM दूर फारपींग गांव के पास स्थित दक्षिण काली के दर्शन से हुए।
हम जानते है कि काली क्रोध में सर्वनाश करने पर तुली थी सब शिव उनके रास्ते में लेट गए और उन पर पांव पड़ते ही काली न हीं सिर्फ रुक गई उनकी जीभ भी निकल आई। ज्यादातर मंदिरों में काली जी का दाहिना पैर शिव जी के उपर दिखाया जाता है पर दक्षिण काली में उनका बायां पैर शिव के उपर दिखाया गया है। यहां दशैं (दशहरा) में पशु बलि के साथ पूजा किया जाता हआ। पत्नी जी ने बताया परिवार के वार्षिक पिकनिक के लिए ये जगह पहली पसंद हुआ करती थी। प्राकृतिक सौंदर्य अब तक विद्यमान है और पिकनिक अब भी मनोरंजक होगा।
ऐसा माना जाता है कि देवी काली 14वीं शताब्दी में नेपाल पर शासन करने वाले राजा प्रताप मल्ल के सपने में प्रकट हुई थीं। माना जाता है कि देवी ने राजा को एक मंदिर बनाने का आदेश दिया था जो उन्हें समर्पित होगा।
दक्षिण काली मंदिर का भी वही धार्मिक महत्व है जो नेपाल में पशुपतिनाथ मंदिर और मनकामना मंदिर का है। मंदिर में पर्यटकों का आकर्षण अधिक है क्योंकि यह नेपाल में फर्पिंग ग्राम के पास स्थित एक लोकप्रिय लंबी पैदल यात्रा का गंतव्य है। दक्षिणकाली, काली का सबसे लोकप्रिय रूप है। वह दयालु माता है, जो अपने भक्तों और बच्चों को दुर्भाग्य से बचाती है। दक्षिण काली के रास्ते से ही दिख जाता है चोभार गोर्ज। माना जाता है काठमांडू घाटी पानी से एक कप की तरह भरी थे। मंजू श्री से पहाड़ो को काट कर पानी को बागमती नदी के रूप में बहा दिया और काठमांडू रहने बसने लायक हो गई।
ब्लॉग लंबा हो गया अतः रोचकता बनाए रखने के लिए अन्य जगह जहां गए ब्लॉग के अगले कई भागों में लिखूंगा। ब्लॉग अंत तक पढ़ने के लिए धन्यवाद।
Thursday, April 25, 2024
काठमांडू -A time travel
पशुपतिनाथ दर्शन अप्रैल 2015 (भुकंप के कुछ दिन पहले)
"काठमांडू की समय यात्रा "
"हरे राम हरे कृष्ण" एक फिल्म आई थी १९७२ में और हमारे मन मस्तिष्क में काठमांडू एक हिप्पी राजधानी के रूप में छा गई थी । इसके पहले कालेज जीवन में नेपाली सह छात्रा वास मित्रों को सबसे अलग थलग ही देखा था - शायद भाषा की दिक्कत के कारण या उनके पढ़ाई में ज्यादा ही serious होने के कारण। मेरा एक सहपाठी, जो नेपाल के सीमावर्ती क्षेत्र से था, ने एक "120 no" की रील पर १६ और १२ फोटो खींचने वाले दो अत्यंत सस्ते (₹ ९ और ₹ ११ के) चाईनीज कैमरे ला दिए थे १९६७ में जो मेरे कालेज ट्रिप्स में बड़े काम आए। हमारे मन में काठमांडू भारतीय उपमहाद्वीप के एक मात्र कैसीनो वाले शहर के रूप में भी अंकित था। क्या पता था इसी शहर की लड़की से विवाह हो जायेगी और इस शहर से अटूट रिश्ता बन जाएगा। ५१ वर्ष पहले १९७३ में की गई मेरी प्रथम काठमांडू यात्रा बहुत ही यादगार थी मेरा ब्लॉग भी है उस घटना पर। (मेरी पहली नेपाल यात्रा १९७३) तब वीरगंज से काठमांडू तक एक ही रोड था त्रिभुवन राज पथ जिसे बाय रोड के बाटो भी कहा जाता था। पता चला इस रोड के पहले भीमफेदी हो कर पैदल यात्रा करनी पड़ती थी। पर अब कई रास्ते है। तब पारंपरिक घर मकानों वाला यह शहर हरा भरा था, हर घर के पीछे खेत। इन खेतों से बड़े पर स्वादिष्ट काउली (गोभी) , मूला , बंदागोवी (बंधागोभी), गोलभेड़ा (टमाटर) अपने घर के बाड़ी से ही आ जाते और अन्य सब्जियां तराई से। हलुआबेद, सुनतला, मुनतला, सेव नाशपाती भी घर के फुलवारी में ही होते थे। जगह जगह मंदिरों से पटा यह शहर एक doll house की तरह है। हर मंदिर मुर्ति किसी अनजाने काल की कलाकृति है जो एक doll की तरह आपका ध्यान खींच लेती है। लेकिन अब बहुत ही बदल गया है काठमांडू।
पारंपरिक नेपाली घर और खेत 2024
यदि आधुनिक विज्ञान समय-यात्रा को संभव बनाने का कोई रास्ता खोज लेता है, तो मैं अतीत में वापस जाने और पुराने दिनों के रहस्यमय शहर काठमांडू घाटी का अनुभव पुनः लेना चाहुंगा । प्राचीन काल में काठमांडू घाटी भारतीय और तिब्बती व्यापारियों के लिए एक लोकप्रिय व्यापारिक केंद्र थी। हिप्पी के मक्का के रूप में इसकी लोकप्रियता 1960 के दशक के दौरान बढ़ी। काठमांडू ने 60 और 70 के दशक के दौरान पश्चिमी लोगों की कल्पना पर कब्जा कर लिया था, और अपने अपने जीवन से निराश अमेरिकी और यूरोपीय उत्तर भारत और नेपाल की रूख करने लगे। खैर, अब मैं केवल यह आशा कर सकता हूं कि काठमांडू ऐतिहासिक, स्थापत्य और प्राकृतिक स्वर्ग होने के साथ-साथ अपने प्रचारित शहरी विकास को पकड़ने के लिए वैश्विक शहरों की बराबरी करते हुए अच्छा संतुलन बनाए रखे।
अपने २०२४ , अप्रैल के काठमांडू यात्रा के दौरान हमें शहर से निकल कर ग्रामीण इलाकों में जाने का अवसर मिला और मेरा विश्वास दृढ़ हो गया कि अभी भी बहुत सुन्दर है नेपाल। अपनी एतिहासिक और प्राकृतिक विरासत से भरपूर। कुछ जगहें जिसका जिक्र मैं करना चाहूंगा।
१) तराई क्षेत्र: इस बार हम जनकपुर भी गए थे। इतने सारे मकान, होटल बनने के बाद भी यह स्थान अपने सांस्कृतिक और धार्मिक पहचान के साथ प्राकृतिक रूप को बनाएं रखने में कामयाब है। कई जगहों पर अब भी जंगल से जानवर रास्ते पर आ जाते हैं अतः आग्रह है अब और जंगल न कांटे। जनकपुर पर और ब्लॉग भी लिखूंगा।
जानकी मंदिर, जनकपुर, 2024
२) नदी और घाटी : नेपाल में जल विद्युत की असीम संभावनाएं हैं और उनको परियोजनाओं में बदला भी जा रहा है। हमने एक मैरीन diversion परियोजना को बनते भी देखा जहां सुनकोशी का पानी एक टनेल से दूसरी नदी (बागमती) में divert किया जाएगा जिससे जहां सिंचाई की ज्यादा जरूरत है वहां पानी उपलब्ध कराया जा सके। अब कुछ भी बनेगा तो पहाड़ और पेड़ों की कटाई तो होगी ही पर आशा बंधी जब सुनने में आया नेपाल में environmental clearance आसान नहीं।
सुनकोशी 2024
३) काठमांडू के आसपास: कई जगह पहाड़ी, नदी किनारे, जंगलों में बेचने के लिए बने प्लौटिंग देख थोड़ा दुःखी भी हुआ। कुछ वर्ष बाद ये सरी मनोरम जगहें मकानों से पट जाएगी और हरियाली गायब भी हो जाएगी पर अभी तक आसपास की अनेकों स्थान काफी दर्शनीय है। 50 वर्ष पहले स्वयंभूनाथ के उपर से देखने पर सिर्फ खेत या खाली जगहें दिखती थी म्यूजियम को छोड़ कर। पर अब आस पास घर मकान दुकान से भरा पड़ा है।
धरहरा टावर स्वयंभूनाथ से 2024
- बूढ़ा नीलकंठ , शिवपुरी : शहर बढ़ते बढ़ते विष्णु के शयन वाले मंदिर के नाम को चरितार्थ करते इस सोए से कस्बे को लील चुका है। जाम , भीड़ भाड़ वाले कस्बे को पार कर शिवपुरी निकुंज जाने पर ही फिर से प्राकृतिक दृश्य सामने आते हैं। शिवपुरी में की गई ट्रेकिंग की कुछ फोटो शेयर कर रहा हूं। अनुरोध है प्लास्टिक की थैली, बोतल जैसे सभी प्लास्टिक के सामान साथ वापस ले आए। जंगल में नहीं फेंके।
इस फोटो के लिए क्षमा करें, पर ऐसा न करें
-दक्षिण काली : मुख्य शहर से करीब 20 कि०मी० दूर यह स्थान अभी भी शहरीकरण से दूर है, अवश्य इसके आसपास कई मार्ग, रोड बन रहे है। श्रीमती ने बताया यह जगह परिवार के वार्षिक पिकनिक का स्थान हुआ करता था। अब भी यहां पिकनिक बहुत रमाईलो (मनोरम) हो सकता है।
दक्षिण काली 2024
-गोकर्ण : करीब ५१ वर्ष पहले इस जगह पर पिकनिक मनाने आए थे। तब घने जंगल के बीच पिकनिक मनाई गई थी। शाम को लौटते समय बहुत सारे हिरणों की आखें कार के हेडलाइट में चमक उठी थी। अब जंगल में रिसार्ट और गोल्फ कोर्स बन गए हैं पर अब भी हरियाली है और हिरण भी दिख जाते है।
गोकर्ण का गोल्फ कोर्स 2024
-इंद्रयानी और चांगुनारायण :-
ईन्द्रयाणी मंदिर
मै यहां पहली बार ही आया था। पर श्रीमती यहां ५२ वर्ष बाद आई थी, अपने कालेज के दिनों की पुरानी यादें ले कर जब "गांऊ फर्क (लौट) अभियान" के लिए किसी गांव में कैंप करना पड़ता था। ऐसे उन्हें कुछ भी पुराना न दिखा। खेतों से घिरा गांव पक्के मकानों से घिरा था। रही सही कसर २०१५ के भुकंप में पारंपरिक मकानों के टूटने के बाद बने कंक्रीट के मकानों ने कर दी थी। गांव पालिका अब नगर पालिका में बदल गई थी। पर अब भी स्वच्छ हवा और स्वच्छ organic भोजन उपलब्ध है यहां। चांगुनारायण मंदिर भी गए जो काठमांडू घाटी का सबसे पुराना मंदिर है। इस मंदिर की कथा किसी दूसरे ब्लॉग में।
चंगुनारायण मंदिर (द्वीतिय शताब्दी)
Saturday, April 20, 2024
सिंधुली गढ़ी, नेपाल #यात्रा
सबसे पहले जगह, स्थान, भूगोल:
हम लोग जनकपुर से काठमांडू लौट रहे थे, बी पी राजमार्ग से और "सिंधुली गढ़ी भी देख ले" वाला विचार सर्व सम्मति से पास हो गया। सेल्फी डाडा और खनियाखर्क के बीच एक बांए मोड़ मिला और हममें से किसीने ड्राइवर को सिंधुली गढ़ी के तरफ कार घुमा लेने को कहा। दो कि०मी० से भी कम दूरी तय करते ही हम आ पहुंचे सिंधुली गढ़ी। प्रवेश के लिए टिकट लेना था। आश्चर्य तब हुआ जब हम दोनों का 70+ होने के कारण टिकट नहीं लगा ।
सिंधुली गढ़ी मध्य नेपाल में एक ऐतिहासिक किला और पर्यटक आकर्षण है। सिंधुली गढ़ी तत्कालीन गोरखा सेना और कैप्टन किनलोच के नेतृत्व वाली ब्रिटिश सेना के बीच लड़ाई के लिए प्रसिद्ध है। खजांची बीर भद्र उपाध्याय और सरदार बंशु गुरुंग की कमान के तहत गोरखा सेना ने नवंबर 1767 (कार्तिक 24, 1824 विक्रम संवत) में ब्रिटिश सेना को हराया।
कार पार्किंग के पास ही सानो (छोटा) गढ़ी की सीढ़ियां शुरू होती है। पत्थरों से बने कुछ खंडहर है। थोड़ी दूर चलने पर मिलता है शहीदों के स्मारक, म्यूजियम, नेपाल निर्माता श्री पृथ्वी नारायण शाह की मुर्ति, एक छोटा पार्क और ठुलो (बड़ा) गढ़ी की सीढ़ियां।
आईए अब इसके इतिहास के बारे में कुछ जाने।
नेपाल के एकीकरण के संबंध में राजा पृथ्वी नारायण शाह ने काठमांडू घाटी को घेर लिया और आर्थिक नाकेबंदी कर दी। उस समय काठमांडू के राजा जया प्रकाश मल्ल ने भारत में ब्रिटिश सेना को एक पत्र लिखकर सैन्य सहायता का अनुरोध किया। अगस्त 1767 में, जब ब्रिटिश सेना सिंधुली गढ़ी में पहुंची, तो गोरखा सेना ने उनके खिलाफ गुरिल्ला हमला किया। ब्रिटिश सेना के कई लोग मारे गए और बाकी अंततः भारी मात्रा में हथियार और गोला-बारूद छोड़कर भाग गए, जिन्हें गोरखा सेना ने जब्त कर लिया। बंशु गुरुंग की कमान के तहत गोरखा सेना ने ब्रिटिश सैनिकों को काठमांडू घाटी की ओर बढ़ने से रोक दिया था। गोरखाओं ने ब्रिटिश सैनिकों को हराने के लिए कई अन्य युक्तियों के साथ-साथ अरिंगाल (ततैया) के छत्तो को तोड़ना और पत्थर फेंकना या लुढ़काने जैसी अपरंपरागत युद्ध रणनीति का इस्तेमाल किया था।
हम उपर गढ़ी तक नहीं गए और हममें से एक सदस्य के घुड़सवारी के बाद लौट आए । मोड़ पर बहुत सारे ताजे फल की दुकान थे और हम जुनार (मौसंबी) और काफल भी खरीदे। रास्ते में प्राचीन कुशेश्वर नाथ मंदिर में दर्शन कर हम काठमांडू लौट आए।