Wednesday, September 22, 2021

किशोर वय का लेखन -क्षणिकाएं

मैने अपने एक ब्लॉग में अपने किशोर वय में की गई साहित्य सेवा का वर्णन किया था। कुछ महिनों पहले मुझे अपने छात्र जीवन की एक कॉपी मिली जो काफी दयनीय अवस्था में है। कभी यह मोटी कॉपी काफी दुबली हो गई है। कभी गुस्से में मैने इसके 75% पन्ने फाड़ कर फेक डाले थे। सोचता हूँ जो बचे है उनमें यदि कुछ पढ़ने लायक हो तो उसे यहाँ लिख डालू। उसमे लिखी कुछ क्षणिकाएं पेश हैं यह एक सतरह साल के लड़के ने लिखी है कुछ छोटी कविताएं जिसे एक सत्तर साल का senager दुहरा भर रहा है ।




1) 
बिक रही है पुंसत्वहीन विवशता ,
रेहन रक्खी पुरुषत्व पर
महाजन ने अपना ब्याज बढ़ा दिया है ।
  

2) 
उस बार भी मौसम ऐसे ही बदला था ,
इस बार भी मौसम बदल रहा है ।
उस बार आइसक्रीम खाता था , 
कोल्ड ड्रिंक पीता था ।
इस बार मन करता है ,
बारूद खालूं जहर पी लूँ ।


3) 
दूर हुआ जाता है मुझसे मेरा वो चिराग
जिसकी बाती, लौ और थे रौशनी अपनी 


4) 
आग सी लगी है शहर में
रास्ते बंद पड़ गए हैं 
कलेजे के टुकड़ो को चुनते चुनते 
शाम होने को आई है 

लिखी तो थी कुछ और कविताए पर सभी खो सी गयी हैं । एक नाटक या कोई उद्धृत कविता अगले भाग में पर एक हिसाब मेरी इस कॉपी में मिली हैं और अलग अलग पत्रिकाओं का एक महीने का हिसाब हैं । यह सिर्फ ये अंदाज़ लगाने को दे रहा हूँ की १९६६-६७ में इन पत्रिकाओं के दाम क्या थे ।


१. धर्मयुग - ३.०० 
२. कादम्बिनी १.०० 
३. ज्ञानोदय १.०० 
४. नई  कहानियां ०.७५ 
५. माधुरी १.५० 
६.सारिका १.०० 
७. Filmfare - २.००
८ . Readers digest २.००
९. Imprint २.००
१०. Illustrated Weekly १.००
११. Blitz १.५० 
१२. Competition Master १.००  

घर  से महीने के ६०-१०० रूपये आते थे जिसमे करीब १८ रूपये इन पत्रिकाओं में खर्च हो जाते थे ।

Tuesday, September 21, 2021

मेरी पेय स्वाद यात्रा

स्वाद यात्रा, पेय पदार्थों की

स्वाद यात्रा के अंत में ड्रिंक्स या पेय पदार्थ के बारे में कुछ पंक्तियाँ, कुछ पैराग्राफ । दूध, लस्सी. मट्ठा और शरबत तो माँ भी पिलाती थी पर जब बाजार में कुछ खरीद कर पीने का मौका आया तो सबसे पहले जो पिया वह था गोल्ड स्पॉट । वह एक ऑरेंज ड्रिंक हुआ करता था , सोडा जिसके बोतल को गोली से बंद करते थे और जिसे खोलने पर फुट की आवाज़ आती थी वह था मेरा अगला पेय ।



ठंडा पेय, Cold Drinks

धीरे धीरे कई और शीतल पेय से परिचय होता गया लिम्का, फैंटा, स्प्राइट । पर जो सबसे लोकप्रिय था वह था कोकाकोला । ठंढा या cold drink का मतलब ही होता था कोकोकोला । कोका कोला की बोतल ने तो सुन्दर कमर की तारीफ करने का एक मुहावरा भी दे दिया "कोकोकोला सी कमर" । १९७७ में जब कोकाकोला बैन किया गया तब आया कैम्पाकोला, ७७, थम्स अप लेकिन कोकाकोला को जगह ये सब नहीं ले सका, हाँ थम्पस अप ने अपनी एक अलग जगह बनाई । जब बैन हटी तो पहले आई पेप्सी और फिर आई कोकाकोला - फिर से । । अब तो कई और ड्रिंक्स हैं जैसे माउंटेन डिउ जिसे मैंने अभी तक नहीं पिया है । पर बच्चो में जो सबसे लोकप्रिय है वो है फ्रूटी, माज़ा और स्लाइस । यह सब मुझे भी पसंद हैं । इंस्टेंट कोल्ड ड्रिंक पाउडर की शुरुआत हुई रसना से और तुरंत इसने सबका मन मोह लिया । दूरदर्शन पर रसना का cute ad सबको याद होगा "I love you रसना"। अब तो tang भी है । फ्रूट जूस और नारियल पानी की बात मैंने लिखी नहीं पर नारियल पानी पर एक बात याद आ रही है । निकोबार के नारियल का पानी पीने का मौका पोर्टब्लेयर में मिला था और इतना बड़ा नारियल था की हममें से कोई पूरा पानी पी नहीं पाया था ।


Alcoholic Drinks

मैं २०१५ के बाद कोई हार्ड ड्रिंक्स नहीं लेता हूँ न ही इसके लिए किसी को प्रेरित करना चाहता हूँ फिर भी मेरी स्वाद यात्रा अल्कोहलिक पेय का स्वाद बातए बिना पूरी नहीं होगी । ऐसे हार्ड ड्रिंक्स का स्वाद पहले पेग में ही लिया जा सकता हैं बाद के पेग का स्वाद से कोई फर्क नहीं पड़ता। और वाइन का तो महक भी लेते हैं लोग । फिर पीना शरू करने के पहले गिलास टकराते हुए कहते है चियर्स । कभी पढ़ा था की ऐसा बुरी आत्माओं को भगाने के लिए करते हैं । पर असल में चार पेग के बाद वे खुद लड़खड़ाने, हकलाने वाले भूत बनने वाले है ।
खैर शुरू करता हूँ अलकोहलिक पेय में मेरी स्वाद यात्रा । जैसी परंपरा थी व्हिस्की, रम और जिन हमने कॉलेज (1965-70) के थर्ड year में ही चख लिया था । बियर पीना महंगा पड़ता था क्योंकि जैसा नशा तब चाहिए था उतने बोतल बियर उतने पैसे में आ नहीं सकता था जितने हमारे पास होते थे । ब्रांडी के नाम से दवाई की फीलिंग आती थी और वाइन तब पटना में मिलती नहीं थी। एक निप (१८० ml ) के बोतल को दो लोग शेयर करते और पैसे बचाते । पर तब जो दिक्कत थी वो था खरीदने कौन जाये । हिचक होती थी । अब कंडोम पर ऐड देखने को मिलता हैं की कैसे कंडोम की जगह लोग चूरन, साबुन खरीद लाते है वही हाल हमलोगों का तब होता था जब रम या व्हिस्की खरीदने निकलते । पटना में अपना बाजार खुला था बिहार में अपनी तरह का पहला डिपार्टमेंटल स्टोर । जहाँ आप अपने पसंद की वस्तु खुद लेकर शॉपिंग बैग में डाल ले और सिर्फ काउंटर पर पैसे देते वक़्त ही निकालना पड़ता था । इस तरह आप मुंह खोल कर शराब की बोतल मांगने की हिचक से बस सकते थे । किसीने कहाँ वहां व्हिस्की, रम भी मिलता हैं । बस क्या था मैं और रामविलास जी (जो अपनी छात्रवृत्ति इस पावन कार्य पर खुशी खुशी खर्च करने वाले थे) वहां जा पहुंचे । यह देख कर परेशान हो गए की अल्कोहलिक पेय के अलग काउंटर बना रखा था जहा काउंटर वाले मांगने पर बोतल निकाल कर अख़बार में लपेट कर देते और पेमेंट वही करना होता । दो तीन बार चक्कर लगाने के बाद मैंने ही हिम्मत की "एक निप व्हिस्की का चाहिए" "कौन सी ?" "कोई कम दाम वाला" । उसने CAREWS ब्रांड का एक बोतल थमा दिया । हिचक मिटने पर यह शॉप फेवौरिट हो गया । कभी कभी थ्री एक्स रम भी पिया करते। शायद महीने में एक बार जब सबके घर से पैसे आते तब बनता था यह प्रोग्राम फोर्थ ईयर और फिफ्थ ईयर में भी चला यह कार्यक्रम। तब सिर्फ एक बार जिन पी गई थी क्योंकि लोगों ने कहा यह तो लेडीज ड्रिंक हैं पर आज की कोई फिल्म देख ले महिलाये यहाँ तक की बड़ी उम्र वाली दादियों को भी व्हिस्की पीते दिखा देते है ये फिल्म वाले । महिलाएं ऐसे अब हार्ड ड्रिंक्स पीने भी लगी है । आखिर हार्ड ड्रिंक लेने में कौन सी मर्दानगी ?



१) मार्फा ब्रांडी पहले कैन में आती थी फ्री में, अब बोतल में मिलती हैं Mustang Agro के फेसबुक पेज से २) नेपाल डिस्टिलरी का खुखरी रम

नेपाल का पीना पिलाना

एक कहावत हैं सूर्य अस्त नेपाल मस्त । अब नेपाल में ड्रिंक ले कर गाड़ी चलाने पर पर कम से कम रात भर थाने में बैठा देती हैं पुलिस और कोई पैरवी काम नहीं आती ।

शादी के बाद नेपाल में किसी भी या हर दुकान में व्हिस्की और दूसरे ड्रिंक बिकते देख कर शुरू शुरू में अजीब लगा । पार्टियों में अल्कोहलिक ड्रिंक परोसा जाना एक आम बात थी और थोड़ा बहुत पी लेना भी चलता था । मेरे बड़े साले साहब जब डॉक्टरी पास कर आ गए तो बाबूजी से छिप छिप कर कभी कभी ड्रिंक्स का प्रोग्राम बनने लगा। जब मेरे एक और साले साहब भी वकालत पास करने के बाद एक जापानी कंपनी में अफसर लग गए और तब तक नया घर और ऑफिस बन कर तैयार हो गया था । देर शाम ऑफिस रूम एक निरापद जगह होती थी इन सब क्रिया कलाप के लिए । बाबूजी (मेरे ससुर जी) के सामने हम ड्रिंक्स, सिगरेट नहीं पीते थे पर उन्हें शायद अंदाजा था की हम लोग शनिवार के शाम में ऑफिस में क्या करते है और वो शाम के पहले अपने फाइल अपने कमरे में मंगवा लेते और जरुरत पड़ने पड़ वही काम निपटा लेते । फिर एक दिन ५ लीटर कैन में आया "मार्फा" । मार्फा नेपाल के सुदूर पश्चिम में जोमसोम- मुक्तिनाथ के पास एक जिला हैं जहाँ सेव बहुतायत में होता हैं पर उसे कही भेजने के साधन तब कम थे । वहां के लोग इसी सेव से एक उम्दा ब्रांडी बनाते हैं जिसे भी मार्फा ही कहते है । हमारे एक रिश्तेदार हेमंत, जिनका HAL के हेलीकॉप्टर की agency थी वहां और इस कारण नेपाल एयर फाॅर्स में जान पहचान थी ५ लीटर के कैन में "मार्फा" हवाई मार्ग से मंगवा लेते । गजब का ड्रिंक था कोई दुर्गन्ध नहीं , एक दम पानी की तरह पारदर्शी । यदि गिलास में लेकर पी रहे हो तो लोग समझते पानी पी रहा हैं । हमारा काम आसान हो गया हम डिनर के टेबल पर ही बाबूजी के आने के पहले ही अपना अपना मार्फा का गिलास लेकर बैठ जाते । यह एक गजब का स्ट्रांग ड्रिंक है और अब बोतलबंद भी मिलता है। खैर आगे बढ़ते हैं । एक दिन बाबूजी ने इंडियन एम्बेसी के एक अधिकारी को खाने पर बुला रखा था जो मेरे एक सहकर्मी का छोटा भाई था और उन्होंने मुझे ही से उसका साथ देने भेज दिया । पीना पिलाना भी था। अब मैं आधिकारिक रूप में बाबूजी के सामने भी हार्ड ड्रिंक्स ले सकता था । बिमल के साथ हर तरह का ड्रिंक्स वोदका, व्हिस्की,ब्रांडी ,कॉन्यैक, बियर, वाइन, आयरिश कॉफी कभी न कभी पिया ही हैं पर व्हिस्की ज्यादा बार पीया। जीजाजी को पिला कर डाउन करना हैं ये मेरे सालों का एक लक्ष्य होता था ।



जर्मनी 1) बियर का लिटरवला गिलास (सभी को कम से कम दो गिलास पीना था) और ऑरेंज जूस 2) डुसेलडॉर्फ हमारा फ्लैट : टेबल के नीचे रक्खे बियर बोतल

यूरोप और विदेश के अन्य देश में पीना पिलाना

१९८३ में पहली बार विदेश गया तो पीना लाज़मी था । शैम्पेन और लाल, उजली वाइन तो प्लेन में ही चख ली थी । जब जर्मनी पहुंचा तो हम ड्रिंक्स पर एक्सपेरिमेंट करने लगे । बियर और वाइन तो रोज़ के डिनर का हिस्सा होने लगा बियर के बोतल छोटे थे ३३० मिली लीटर या ५०० मिली लीटर और एक बोतल बियर या १ गिलास वाइन रोज़ का कोटा था । बियर तो घर के सामने वाले सिगरेट शॉप या गुमटी में ही मिल जाती 1 ड्यूओस मार्क (DM) या उससे कम में ही आ जाता जबकि ७५० मिली लीटर का वाइन बोतल ३-४ DM में आ जाती । लाल, गुलाबी और वाइट तीनो तरह के वाइन हमने पी लिया । जर्मनी, साउथ अफ्रीका लम्बे ट्रिप थे और ड्रिंक्स के हर तरह की वैरायटी हमने try किया लेकिन अमेरिका, फ्रांस के ट्रिप में ब्रांड्स का ध्यान रखा ।

मैने अपने छात्र जीवन के बाद और नौकरी मिलने के बीच के अंतराल में हैरॉल्ड रॉबिन्स के कई उपन्यास पढ़ डाले थे और उसमें जहाँ भी High Society का दृश्य होता कोई न कोई ड्रिंक का नाम अवश्य आता जैसे "Vodka Martini , Martini & Extra Dry Vermouth, Sherry, Sherry with Ginger Ale, Irish Coffee, शिराज प्लम मार्टीनी , शीराज़ एंड जिम वैगेरह। और मै सभी आजमाना चाहता था। कॉकटेल तो बना नहीं पाया पर वोदका, मार्टिनी, वरमाउथ, शैरी, शीराज़ , आयरिश कॉफी (जो वास्तव में एक कॉकटेल ही है) और कुछ कॉकटेल को जरूर अवश्य कभी न कभी आजमाया। वोदका को छोड़ अन्य सभी में अलकोहॉल वाईन और व्हिस्की के बीच वाला होता है।
कॉकटेल की बात चली है तो ९५-९६ के बीच हिंडालको, रेणुकूट के गेस्ट हाउस का खाना याद आ गया । बिरला के इस गेस्ट हाउस में मांसाहारी खाना कभी नहीं बनता और हम हर ट्रिप में सिर्फ साग सब्जी खा कर बिताने को मजबूर थे। पर एक ट्रिप में में जब गया तो कुछ विदेशी मेहमान आये थे और एक शाम डिनर पार्टी भी थी । उस दिन चिकन और मछली भी बनी और ड्रिंक्स का भी इंतेज़ाम था । मैंने सोचा व्हिस्की बियर तो हर बार पीते ही हैं इस बार कोई कॉकटेल पे ले और मैंने दो टाइप के कॉकटेल पीये स्क्रू ड्राइवर और ब्लडी मेरी। पता चला स्क्रू ड्राइवर और ब्लडी मेरी जो एक फ्रूट जूस जैसा था में वोदका भी था ।

German Beer

जर्मनी की बात चली हैं तो वहा के बियर की बात न करूँ तो बात पूरी नहीं होगी । हमें तो पता ही नहीं था इतने प्रकार के बियर होता हैं । पहला पाला पड़ा लैगर बियर से । लैगर बियर को कम तापमान पर बनाया जाता है और लोकप्रिय पिल्सनर बियर भी एक पीला लैगर बियर जिसे पिल्सन शहर में बनाया जाता था । बर्लिनर बियर भी एक दो बार पीया गया । एक एक खट्टापन लिए लाइट गेहूं का बियर था और हमारे दोस्तों को बहुत पसंद नहीं आया और पिल्सनर हमारे बीच ज्यादा लोकप्रिय था । बताता चलूँ कि किंगफ़िशर भी एक लैगर बियर हैं । दूसरा प्रकार होता हैं । Ale बियर एक प्रकार का बीयर है जिसे गर्म FERMENTATION विधि का उपयोग करके बनाया जाता है, जिसके परिणामस्वरूप एक मीठा, FULL BODIED और FRIUTY स्वाद वाला बियर तैयार होता है। डुसेलडॉर्फ के ओल्ड टाउन (Altstadt ) में मिलता है अल्ट्बियर जो एक Ale बियर हैं । म्यूनिक, जर्मनी में एक बियर फेस्टिवल होता हैं अक्टूबर में । जुलाई में एक छोटा सा बियर फेस्ट डुसेलडॉर्फ में भी होता हैं और कहते है लड़किया अपने पसंद के लड़कों की टाई काट लिया करती हैं । एक और प्रकार के बियर से पला पड़ा बंगलुरु के रेजीडेंसी रोड / ब्रिगेड रोड के एक पब में । गिलास, बोतल, कैन के बजाय एक बड़े जग में बियर ला कर टेबल पर रख दिया गया । यह एक Drought या ड्राफ्ट बियर था । ये बीयर बोतल या कैन के बजाय पीपा या केग से परोसा जाता है। प्रेशराइज्ड केग से परोसी जाने वाली ड्राफ्ट बियर को केग बियर के नाम से भी जाना जाता है।
Home made beer
कुछ अनाजों का उपयोग होता हैं बियर बनाने में जैसे माल्ट, चावल, rye , गेहूं । राइस बियर उत्तर पूर्व, झारखण्ड, नेपाल के घर में भी बनाया (Homebrew ) जाता हैं और मेरी जानकारी के अनुसार नेपाल में इसे जांड और झारखण्ड में इसे कहते हैं हंडिया । नेपाल और कुछ नार्थ ईस्टर्न इंडियन स्टेट्स में इसे छांग भी कहते हैं ।



Image from web site "https://www.tasteatlas.com/bordeaux"

Brands ..brands

अंत मैं कुछ पसंदीदा ब्रांड्स की बात करूँगा । जैसा मैंने एक पिछले एक ब्लॉग में लिखा था साउथ अफ्रीका में बियर ब्रांड्स में castle , carlsberg , Amstel, Vivo और हेनकेन बियर ही ज्यादा पसंद था । बियर कि बातें करने पर मुझे मेरे सहकर्मी उदयन, जो हाल ही में कोविड कि भेट चढ़ गया, की याद अचानक आने लगी हैं । जब भी रांची टाटा रोड ट्रिप में होते एक मोटेल पर रुक कर एक एक बोतल बियर पीना must होता यदि वह साथ होता । उसके साथ ही १९९७ में अमेरिका गया था और उसकी पसंदीदा बियर थी बडवाइज़र । व्हिस्की तो जॉनी वॉकर का रेड और ब्लैक लेबल ज्यादा बार पिया । लेकिन वाइन हर बार अपने मेजबान के चॉइस का ही पिया। आर्डर के बाद जब वेटर एक बोतल ले आता और खोल कर पेश करता और हमारे मेजबान (एक प्रवासी भारतीय सागरेन मूडली) उसे सूंघ कर ओके करते । मुझे वाइट वाइन ज्यादा पसंद था जबकि औरों को लाल वाली । हर बार स्वाद अलग होता कभी फ्रूटी मीठा सा और कभी खट तुरुस ।



१) म्यूनिख के सड़को पर बियर के साथ २) Cabernet Veneto इटालियन वाइन है जो हमने मिलान, इटली में पिया था ।

वाइन और विनयर्ड्स (अंगूर के बगीचे)

वाइन के प्रकार और स्वाद अंगूर के प्रकार और और अंगूर के बगीचे के जगहों पर बहुत ही निर्भर करते हैं ।वाइन मुख्य रूप से फ्रांस, इटली या आईबेरियन प्रायः द्वीप (स्पेन, पुर्तगाल) का ज्यादा प्रसिद्द हैं और जर्मनी प्रवास में कुछ ऐसे ही वाइन से पाला पड़ा था । ऐसे जर्मनी के बवारिया और राइन रूढ़ के रीजन में भी कई वाइनरी हैं । सैम्पैन, जो एक स्पार्कलिंग वाइन हैं, का तो नाम ही पड़ा हैं पेरिस से १५० की मी पूर्व स्थित एक जगह "सैम्पैन" के नाम पर पर कुछ वाइन के नाम याद आ रहे हैं जैसे bordeaux जो एक फ्रेंच वाइन हैं बरगंडी भी एक फ्रेंच वाइन ही है जबकि बरोलो एक इटालियन वाइन हैं । Cabernet Veneto इटालियन वाइन है जो हमने मिलान, इटली में पिया था और फोटो भी पोस्ट कर रहा हूँ । जर्मन राइन रीजन में रिज्लिंग एक वाइट अंगूर की खेती होती है और १९८३ में वही देखने हम गए थे बॉन के आस पास ।


इंडियन वाइन रेड, वाइट, स्पार्कलिंग

वाइन की बात चली है तो नाशिक इंडिया में बनने वाली सुला (SULA) वाइन की बात करना जरूरी है । मैंने पहली बार सुला तब पी थी जब २००८ में नाशिक गया था । पता चला रेड, वाइट वाइन यहाँ तक स्पार्कलिंग वाइन भी बनाते हैं सुला वाले । सुला वाले रेसलिंग (वाइट वाइन), शीराज़ और कैबेरनेट (रेड वाइन) अलग अलग वाइनरी में बनाते है ।


स्कॉच- सिंगल माल्ट व्हिस्की

विदेशों में या ड्यूटी फ्री से कभी कभी व्हिस्की वैगरह खरीदने का सिलसिला भी चलता रहा और कंस्ट्रक्शन साइट पर कभी कभी पार्टिया भी देनी पड़ती । धीरे धीरे ब्रांड के बारे में हम सजग होते गए । सबसे पहला ब्रांड के वैल्यू का अनुभव है जब ९० के दशक में एक रिटायर्ड चेयरमैन को एक मीटिंग के लिए विशाखापट्नम बुलाया गया था। वे कुछ महीनो पहले ही रिटायर हुए थे और उसी होटल में रुके जहा मैं ठहरा हुआ था । उन्होने बहुत शालीनता से मुझे कहा क्या तुम आखिरी बार मेरा एक काम कर दोंगे ? मैं चिंतित होता उससे पहले उन्होंने कुछ पैसे मुझे दे कर आग्रह किया की नज़दीक के किसी दूकान से एक व्हिस्की बोतल ले आओं। मैं जाने को हुआ तो ताकीद किया की रॉयल स्टैग ही लाना । फिर जब साइट की पार्टी हुई तो आई १०० पाईपर्स । फिर किसीने बताया सिवास रीगल ही पीना चाहिए । धीरे धीरे सिग्नेचर, टीचर्स, OC , RC , No1 , ब्लेंडर्स प्राइड वैगेरह चख कर देख लिया । स्कॉच में रेड लेबल ( जॉनी वाकर) कई बार पिया । जॉनी वॉकर के अलग अलग लेबल होते हैं जो व्हिस्की के age के हिसाब से होता हैं



1.Photo of brands taken from internet 2. VAT-69 tried in a Tatanagar hotel in 2014

रेड लेबल यानि ६-१० साल, काला यानि कम से कम 12 वर्ष ग्रीन यानि कम से काम १५ साल और गोल्ड का मतलब 18 साल । सबसे ज्यादा age किया और सबसे महंगा है ब्लू लेबल जिसकी आयु कम से कम २०-24 वर्ष है । सिवास रीगल भी कइयों का प्रिय हैं और यह १२ साल age किया होता है । मैंने श्री लंका से २००९ में ग्रीन लेबल के २ बोतल लिए थे क्योंकि श्री लंका के करेंसी को वही खर्च कर देना था । २ साल पहले ही यह ख़त्म हुआ क्योंकि जब भी मेरे साले साहब या मेरे कोई बहनोई आते तभी बोतल खुलती है । पेरिस से लाये हुए Ballantine स्कॉच का एक बोतल अभी भी रक्खा पीने वाले का इंतज़ार कर रहा हैं । JB का एक बोतल भी लाया था । Glenfiddich भी कभी न कभी पिया था और तो और VAT -69 भी जापानियों ने टाटा में एक मीटिंग के बाद पिलाई थी । यह एक फ़िल्मी ब्रांड है जो ६०-७० के दशक में कई फिल्मों में दिखाई गयी थी ।
और अंत में एक कहानी । जर्मनी में एक भारतीय मित्र थे कुमार साहेब जो पद्मसंशेर राणा जिन्हे कुछ कारणों से नेपाल छोड़ रांची आना पड़ा था, के डॉक्टर के पुत्र थे । उन्होंने एक जर्मन से शादी कर शादी कर रखी थी और दो बच्चे थे उनके । करीब करीब हर वीकेंड वह खाने पर बुलाते । एक बार खाने के बाद उन्होंने एक छोटे गिलास में कुछ ढाला और बताया इसे एक घूँट में पी जाये । बाद में पता चला यह टकीला था । टकीला कई बार और पीया था जब साउथ अफ्रीका गए थे । एक हिंदी गाना भी टकीला पर है, बताए कौन सा ?

Saturday, September 18, 2021

Use of Emerging Technologies for Rural India (Published Paper)

Use of Emerging Technologies for Rural India (Published Paper)
Amitabh Kumar Sinha, B.Sc. (Engg), FIE, Ranchi, India, amit1950@yahoo.co.in


Abstract – Some of the most pressing and urgent question, which mankind faces today are the future availability and cost of the energy supplies. Are the available resources sufficient to meet the growing demand of energy? Will the decline in the conventional source of energy affect the quality of living in rural India? Concern being expressed today for searching more and more renewable source of energy stems largely from the fact that the mankind today depends predominantly on fossil fuels such as coal, gas or petroleum products. Availability of these fuels is dwindling and may be consumed fully within a foreseeable future. Other concern about use of fossil fuels is its effect on environment and carbon foot prints. Solar energy is one convenient and clean source of energy and fully suitable for rural India even for the inaccessible areas. This implores us to find and ways to use this energy in rural areas, which is made possible due to availability of efficient and affordable solar photo voltaic cells and related equipments. Keywords - solar, energy, rural, India


1.0 INTRODUCTION

Rural India is starved of electricity. Many villages are yet to be electrified. Even those which are electrified received electricity only for limited hours in a day.
For Indians till now the crisis meant whether the millions will have enough food to cook and fuel to cook it. With declining world reserve of not so environmental friendly conventional fuel we had developed gobar gas plants as source of alternative energy and fertilizers, Now the emerging technologies such as solar / wind power or hybrid units enable us use of affordable source of un conventional and convenient source of power.
Use of solar power is steadily getting popular in rural area for domestic lighting, community and street lighting, solar Sun is the brightest object in the heaven, but for its light & heat life would be impossible on earth. The light and heat from Sun is the ultimate source of nearly all the energy which maintains plant and animal life and also the prime cause of weather, climate and wind. Sun is also source of all energy resources mankind uses viz coal, gas, petroleum, hydroelectricity, tidal power, wind mill, fire wood et al

powered pumping units, solar powered heating and cold storage units.

2.0 AVAILABILITY ASPECT OF SOLAR ENERGY The Earth receives enormous amount of energy in the form of sunlight. The amount of energy received can be estimated as follows:- As per solar power hand book (2) radiation received by an area of one square kilometer perpendicular to sunrays in India = 1.36*106 kW



Projection of total area of the Earth normal to sunrays at any time =π*R2 where R= radius of earth. (Fig-1) Energy received annually = 1.5*1018 KWh
As far as India is concerned this will mean that radiation over just 200 square kilometer (just .006 % of land area of India) can supply total power

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requirement of the country.
Use of Solar energy is needed for 2 reasons:
  1. No other energy source is available at the location, e.g. communication satellites. Street lights and community TV in remote areas.
  2. Solar energy is cheap e.g. heating of houses, swimming pools, water heaters or pre heaters for hotels etc.
It shall be interesting to scan through some of the recent news on use of Solar Power in India:
  • Solar water pumps can help India surpass 100 GW target.-PTI| Jul 31, 2018
  • US agency signs MOU with Indian company for 41 MW power project in Andhra - PTI Jul 31, 2018
  • The road to 100GW: lighting up India with solar power-3rd April 2018
  • Farmers to pay only 10% cost of solar pumps under Budget scheme: Minister, IANS February 03, 2018
  • Kochi airport becomes world's first to operate completely on solar power-First Post Aug 19-2015
  • Guwahati, (Assam) [India] May 16 (ANI) Guwahati now has India's first railway station run by solar power.

  • Solar power can be put in use in 2 ways:
    i) Solar Thermal System (Use of Solar thermal energy directly)

    In Solar Thermal System heat from sunrays are directly used through a collector or concentrator to heat up, e.g. solar powered water heating system, solar powered cold storage, solar cookers or even power plant where water is heated and steam formed is used for power generation by using solar power concentrator. Solar powered water heating in its simplest from was in use even in 1900 when water tanks were painted black.


    We are well aware of concentration of sun rays by using convex lens. In 1772 diamond was cut using this technique by Lavoisier. In experiments in France using large concave mirror built up with segments, temperature of 35000C in 1946 and 59000C – which is surface temperature of the Sun itself in 1968 were acheived.
    This paper is aimed at elaborating use of Solar Thermal systems for water heating systems and cold storages which are relevant to rural areas of India as well as use of Solar photo voltaic cells for production of electricity.
    Let us discuss some of the use of Solar Thermal Systems.
    Cooking is an important activity that occurs to prepare food for human survival. It is a well known fact that, most Prominent cooking energy in most developing world is fire wood. One of the alternatives to fire-wood / fossil fuel energy is solar energy, but the major problem with the use of solar energy is that, it is very dilute and fluctuates with time and weather condition. Solar cooker was one of the first simple systems widely publicized and subsidized by Indian government. The system was simple with a mirror used as concentrator and a black painted or reflective insulated box with a glass cover as collector. Apart from being economical this type of cooker is smokeless and preserves nutrition value of the cooked food too.

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    Payback period for such cookers (without any subsidy) in India is 4000/40/.67 = 149 days ; based on Annual sunshine at Delhi (see table-1) 2993 Hrs out of total sunshine of 4422 hrs / year i.e. for 67% in an year and fire wood need to be used for 33% of the days. Assuming cost of box type solar cooker as ₹4000/-( ₹1200/- after subsidy in Haryana) and consumption of 5 kg fire wood @ ₹ 8/- per kg for cooking one meal.



    Cold Storage in Rural India:

    Storage and preservation of food have been the concern of mankind since they wandered as food gatherers. Then it meant storing food at times if plenty and using them during periods of short supply. However as man learnt the values of various vegetables, fruits and meats he became

    interested in preserving them too. It was sheer luck that low temperature was found useful for food preservation.
    Refrigeration in true sense was first employed by Harappans, Romans and Greeks who cooled water and wine by storing then in porous earthen pots.
    However the real breakthrough was achieved when ice was manufactured in early 19th century. Earliest patent for practical ice manufacturing was granted in 1834 to Jacob Perkins, an American who lived in London.
    Present day refrigeration works on two principle vapor compression or vapor absorption. Vapor Compression is best suited where electricity is available to drive compressors or where large systems are required.

    fig-4
    The cycle is clear from above diagram & elaboration is given below.

    Compression:
    The refrigerant ‘gas’ at low pressure and low temperature enters the compressor. Here due to compression the temperature and refrigerant pressure rises. The refrigerant then leaves the compressor and enters to the condenser. An electric motor is used for compressor.
    Condensation:
    The condenser is essentially a heat exchanger. Heat is transferred from the refrigerant to atmosphere through air or water. As the refrigerant flows through the condenser, it is in a constant pressure.

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    Expansion

    The cooled refrigerant expands through a throttling valve, and pressure is released. Such expansion results fall in temperature and pressure.

    Evaporation:
    At this stage refrigerant is at a lower temperature than its surroundings. Therefore, it evaporates and absorbs latent heat of vaporization. At this stage heat from the load is extracted. Refrigerant at low pressure and low temperature then enters the compressor and the cycle continues.

    Vapor Absorption Cycle:
    This type of refrigeration cycle uses heat energy instead of mechanical energy to raise pressure and temperature of refrigerant, achieved in compressor of above described cycle. Due to this very reason this cycle can use alternative source of energy such as solar heater, wood fired heating etc etc.


    Absorption cycle based on solar power is shown in figure-5. The cycle is similar to compression cycle, but we have generator instead of compressor and absorber for absorption of vapor. The refrigerant used is Ammonia solution. The system does not need electricity and is a silent system. For the system to be suitable for alternative fuel source when the sun is not shining- the pumps between absorber and generator may be replaced by gravity flow where as air cooling may be adopted instead of water cooling shown above.
    The system is quite suitable for use in rural area in India.
    Solar Powered Cold Storage:
    In rural India storing vegetables and fruits such as potato or apple grown in rural side area is of prime importance.

    Whereas mechanical systems are available for use in areas with availability of regular electrical power, in villages with no or irregular power supply it is essential to have a non mechanical system without moving part such as intermittent absorption system. Authors & designers Sri N.C. Srivastava(6) & S/Sri H. Abhichandani, V.K. Nayyar, N.K.Narula (5) have suggested this method for use in solar powered cold storage / milk chilling units.
    This type of system has following advantages

    1. Such cold storages can be established even in remote non electrified or areas starved of electricity.
    2. Cold storages can be located near to production areas of potato or other perishable items.
    3. Transportation cost to conventional cold storages located in urban areas may be saved and spoilages avoided or minimized.
    4. Dependence of electricity is nil and alternative source of fuel to be used during rainy days are cheap and simple.
    5. Energy required are more in summer, which matches with available solar energy.
    6. The system has low noise.

    Disadvantages of the system are:
    1. Initial investment may be heavy.
    2. System may not function in rainy days when alternative fuels may be needed.
    3. Ice making cannot be resorted to.

    Typical design calculation for solar cold storage system:- Basis of design of any cooling system is heat load that need to be pumped out. The heat load for the system comprises of:
    a) Leakage Heat load
    b) Product heat load
    c) Heat load due to air change
    d) Other heat loads due to solar radiation, light bulbs/lamps, humans etc.

    a) Leakage heat load in (HL) is proportional to heat conductivity co-efficient (K=0.132 for insulation thickness of 250 mm and conductivity of .033 kcal / hr/m2 /deg C) of insulation, wall & roof, and proportional to wall/roof area (A = 350 sq m) and temperature difference between cold area (t2 ,5 deg C) and the ambient (t1, 35 deg C ). HL= K.A.( t1-t2). For 100T storage this is roughly 33,264 kcal / day.
    b)Product heat load (HP) : For a storage capacity of say 100 T let us consider 10% withdrawal and replenishment i.e. 10000 kg per day.

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    If the product intake temperature is 350C and cold product temperature is 50C. Then with specific heat (S) of the product =1, product heat load =10000*1*(35-5)= 3*105 kcal /day.
    c) Air change heat load: Air change due to door opening etc is (say) 2.7 per day. The volume (V) of storage of size 15*10*4 m=600m3, Heat gain due to air at 35 deg C at 60% RH = 40 kcal/m3. 600x2.7x40= 64800 kcal/day.
    d) Heat load due to solar radiation, burning lamps/ bulbs in the storage, and heat load due to humans inside are ignored at present.
    e) Total Heat Load per day = 398064 kcal. We consider that to maintain 5 deg C inside the storage, the refrigerant need to be kept at -9 deg C in evaporator. Thus the difference if temperature is 14 deg C. Similarly temperature difference between NH3 in Generator (75 deg C) and after cooling in condenser (35 deg C) is 40 deg C. The coefficient of performance = Q2/Q1= 14/40= 0.35, For removing heat load of 64800 kcal / day we need to input an energy of 398064/0.35=1137325.7=790 kcal/min. Solar radiation received is 1.36x106 kw/sq km = 19kcal/min. Hence area of solar collector needed @60% efficiency= 790/.6/19= 69 sq m.

    ii)Photo Voltaic cells

    Second method of using solar energy is via Photovoltaic (PV) cells, which directly convert solar energy to electrical energy. The electricity so generated is used directly or with storage batteries. This is most widely used method today and large solar farms are built up to feed entire locality or airport, such as 13.1 MW solar power plants for Cochin International airport.
    During about 200 years of its existence photo voltaic cells have undergone lot of changes. As per Wikipedia Alexandre Edmond Becquerel discovered photo electric effect in 1839 by shining light on an electrode dipped in a conductive solution which produced an electric current.
    Between 1873 to 1876 the photoconductivity of Selenium was discovered. It was found that Selenium became electrically conductive and that Selenium could produce electricity from light without heat or moving parts. This meant that solar power can be harvested for production of electricity. In 1883 first Selenium based solar cell was

    created and in 1956 first Silicon based more efficient & economical solar cells were commercially produced. Within 2 years in 1958 the solar cells were used as power source for satellites.

    For about 100 years the photo voltaic cells remained very inefficient and were used only to measure intensity of light. Shortly after invention of transistor Russell Ohl invented a solar cell in 1941.

    On March 11 this year during an International Solar Alliance Summit in Delhi , Our Hon. PM has set a target of achieving 100 GW (Giga Watt) by 2020, out of 175 GW India plans to produce through renewable sources. Country has already achieved 20 GW of solar power production by now. While the invention of Photo-voltaic cells found many usage for urban India and has been recently used for massive solar power plants to provide power for one airport or a railway station, rural usage are mainly for street or domestic lighting, water for irrigation and drinking, refrigeration and cooking. Recent developments is few areas also allows the residents of both urban and rural to offset their ever increasing electricity bills with reverse flow of energy using their roof top solar panels.

    Solar energy is used from stand alone lanterns to cold storages. The solar panels generate D.C electrical power only during sunlight hours. There is some usage which may use DC power directly and only during sunlight hours such usage are simple and without much complicated electrical controls. One of such use in rural areas are pumping units which pumps water from bore wells or from other water bodies to places where it shall be used for drinking or irrigation purpose. DC motors driven by solar cells directly are available in simplest forms. Between solar panels and the pump a controller & regulator are used. Solar panels are usually connected in series to have little higher DC voltage matching the voltage of the pump motor. Such circuit allows using the pump only during sun-light times. It matches with the farm requirement since you do not need water for irrigation during those times when cloud restricts the sun light. For domestic use it means storing drinking water instead of electrical energy. A regulator is used to regulate DC voltage in the same way stabilizer is used for AC voltage.

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    For those installations where continuous power is needed, not withstanding whether sun shines or not the energy is stored in batteries usually of 12-24 V DC and the using it for DC pump and lights (connected directly to battery bank) or for AC loads fed through VFD/ Inverter. The AC loads are pumps, lights, AC or heating units, Cold storages etc. Some of such loads are specific to rural areas.

    Further for areas where electrical power is available and grid feedback is allowed solar powered system with grid feedback (Fig-7) may be used. The inverters in such cases work in parallel with utility power and inverter is duly synchronized with the utility. When the solar energy produced is more than the load requirement, the excess energy is fed back to the utility grid and the energy meter reverses and results in savings for such feedback.


    in parallel. For such cold storage no alternative source of energy is needed. Payback Period:
    While cost of PV solar systems is coming down, cost of electrical power supply from utility is going up. Thus feasibility of solar system is getting better day by day. We can briefly analyze the feasibility as following:
    5 kW “On grid Solar system” with battery & inverter for a small building = Rs 6.80 Lakh, with 30% sale offer = Rs 4.75 Lakh. Installation cost Rs 0.75 Lakh Total Cost=Rs 5.5 Lakh (without Government subsidy but with grid feedback), Cost of capitals per month = Rs 4583/- For 3000 kWh consumption & feedback to grid and a cost of Rs 7.30 per unit (as in Delhi) saving in electricity bills = Rs 21900-4583 = 17317/-. Payback period = 550000/16417= 32 month.
    Conclusion:
    Need of the hour is use of renewable energy in place of fossil fuels which is likely to be exhausted in foreseeable future. Solar power is a very viable alternative today. In rural area the source and load are both are locally available & there is no need for transmission and distribution. Various types of usage have been discussed in this paper & use of solar power quite feasible. The need of hour is to promote Solar electrical units. Government of Jharkhand is likely to make roof top solar panel must for houses bigger than 3000 sqft. GOJ has even proposing 40% subsidy.
    Acknowledgement / Bibliography

    1. Purnell’s New English Encyclopedia
    2. Handbook of Solar Radiation data for India by Sri Anna Mani.
    3. Resources, Demand and Conservation of Energy with special reference to India by Sri Chaman Kashkari
    4. Frank’s school atlas.
    5. Proceedings of fifth national symposium on refrigeration and air conditioning, IIT Madras
    6. SUN: Mankind’s future source of Energy : Proceedings of The Solar International Energy Society Congress, Jan-1978, New Delhi
    7. Journal of Basic and Applied Scientific Research, 2011, www.textroad.com
    8. Thesis by the author submitted as part of 2 year Business Management course of AIMA in 1988.

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    Wednesday, September 15, 2021

    Evolution of Automatic Gauge Control philosophy


    Evolution  Control Philosophy for Single Stand Mills
    Chennai, 2017
    Theme: Innovation in Engineering: Competitive Strategy Perspective



    Evolution of Automatic Gauge Control philosophy for flat rolling in Single Stand Mills.
    Amitabh Kumar Sinha, B.Sc (Engg), FIE, Ranchi, India, amit1950@yahoo.co.in




    Abstract
    During the course of author’s working in Steel Industry, world of automatic gauge control changed from Mechanical Screw Down Control to Hydraulic AGC. This led to evolution of different control philosophies depending upon available sensors, required and possible response time as well as customer expectations and quality concerns. The control system also changed from available sophistication in automation e.g. from operational amplifiers and potted logic blocks of 70’s to Micro Processor and PLC based system including higher levels of process controls. The paper sums up the control strategies used from 1970’s till now for single stand steel mills, though some old methods may be still prevalent due to other considerations such as cost. The present study ignores effect of rolling speed, roll deformation, roll coolant etc on AGC.
    Initially mechanical screw down with large size DC motors were used for AGC control with a selsyn or pulse encoder as position sensor and load cells as roll force sensors. Basic parameter for control was back tension which was a fastest controlled parameter at that time. Roll gap was changed only if permitted change in back tension was not sufficient to get a desired thickness control. Once hydraulic roll cylinders were available for Automatic Gauge Controls, the scenario changed from tension control to direct roll gap control since faster control of cylinder position was possible. With improvement of Gauge measurement and other sensors and advent of micro-processors and PLC the control philosophy constantly changed and methodology of mass flow were also used. In multi stand mills one stand was used as reference mill and other stands will have speeds as per reduction in each stand since speed ratio will correspond to thickness reduction as per constant mass flow. For constant mass flow, hinv1=houtv2, i.e. hout = hinv1/v2, for a given constant. These principles are explained in the following articles in some detail with electro mechanical explanations as per authors’ experience in design and commissioning of such mills. 
    Keywords: AGC, Mass Flow, Screw Down, Mills



    AGC through control of Back Tension


    Before Hydraulic AGC Cylinders became a standard fixture in flat rolling mills, electrical DC motors were used to adjust top rolls for roll gap adjustment. Different systems from Ward Leonard to SCR’s controlled bridge rectifiers1 with or without circulating current were used to fasten the response of screw down motor controls.  However considering the slow response of such motorized screw downs roll gap adjustment was used only as coarse adjustment and alternative method was needed for fine gauge control. The fastest means was to control the back tension. Rolling tension moves the neutral plane of rolling forward or backward and thus changes the specific rolling pressure. This reduces rolling force for same reduction of the strip.   Tension Fz changes the roll force needed for same reduction in following manner (simplified formulae) :

    Pm=Pm1 {1-(α0+ α1)/k} ……… (1)2



    Where Pm = specific rolling pressure, Pm1 =mean specific pressure with zero tension, α0 & α1 are entry and exit stress due to tension on the strip in kg/mm2   for a given reduction, k= A constant.

    This leads to following equation
    Ra= Rf(1-k1*Fz) ………………. (1a)4

    Where Ra is actual roll force, Rf is roll force for same reduction with tension zero and k1 is a multiplication factor.

    Now we know that
    t2= s+Ra/mm   

    ( ie loaded gap = no load gap+ mill stretch)- Gage meter principle3

    Where t2= output thickness, s= unloaded gap in the mill and mm= mill modulus.

    Thus replacing Ra from first equation we get:

    t2=s+(Rf*(1-k1*Fz))/mm ………(2)

    Thus first fixing a calculated roll gap then manipulating back tension Fz as required up to a set limit for fine control, and then changing roll gap as coarse control allowing some more correction in Fz fast gauge control was achieved.
    Earlier tension control of Pay off reel or tension reel was controlled using field control of DC motor since SCR for armature control of such powerful motors were not available then. This type of tension control was known as “Tension Control” as opposed to torque control now applied. This control works with following principle:


    HTML5 Icon
    Fig-1
      n = reel rpm in MPM (measured by motor tacho / GR)
     ϑ = material speed in meter /min (measured by deflector roll tacho)

         ϑ= π*D*n                                 ie              D= ϑ/π/n............................. (3)

         Torque   T=   Fz * D/2                   ie                Fz= T*2/D..................................... (4)

         Since   ά ф*Ia                  ie              ά If*Ia .........................(5)

        Where Ia = motor armature current and If = motor field current. (фάIf)
      
        Putting value of T from (4) to (5) 
        we have  Fz=    2*k2*Ia*If/D     where k2  is a constant. ................(6)

    For field control  ά 1/ ф and ф ά If where ф= Field Flux, ie  n = k3/If….  (7)
    where k3 is a constant. 

    For a given fixed mill speed  ϑ   D*n = D*k3/If

    Hence if    If/D is kept constant as per (6)   Fz ά Ia………………(8)


    For keeping tension to a set value the motor has to run in constant power mode, where entire motor control is in field weakening range – keeping motor voltage constant. Base speed of motor is available at max OD of the coil and top speed at the ID of the coil. Motor current is adjusted as per tension required. We know motor power is proportional to tension x mill speed, Hence keeping motor power constant results in constant tension and if motor voltage is constant this means keeping motor current constant.
    The above calculations and control block diagram are shown in the graph below (fig-2).


    Fig-2

    AGC through calculated Roll Gap:


    During late 70’s after hydraulic AGC were introduced and became popular the faster controls directly of roll gap became possible and full dependence on tension control was not needed. However measuring out going thickness was not very fast and was not predictable accurately when material was in bite. This led to using the calculated roll gap for control of thickness using roll position control, roll force control & mill modulus to generate the calculated loaded roll gap and hence output gauge. Finer roll gap correction was done using feedback from X-Ray or isotope type thickness. Gauge Difference from set value was corrected using faster AGC position control and more accurate gap measurement using LVDT, relative and absolute position sensors or other position sensors. Use of hydraulic AGC cylinders with position sensors called for a procedure named calibration of the mill and position controller. This was required since the top level of bottom roll changed from campaign to campaign due to various factors including roll turn downs. 


    Calibration of position control:
    In this write up I assume that mechanical screw down for moving the rolls to compensate for roll turn downs for keeping pass line,  are mounted at the top of the mill where as hydraulic cylinders are mounted in the bottom. Process as per author’s experience is given below:
    i)      Top motorized screw down is moved down to bring the rolls to pass line keeping it parallel as far as possible.
    ii)    Bottom rolls are lifted under roll force mode with kissing roll force reference differential roll force reference as zero.
    iii)   Rolls will rise to touch to top rolls and touch either on drive or operator side as per skew due to error in parallel position of top rolls.
    iv)  Roll force will develop and rise up to the set value. Differential roll force also will rise since the rolls touches only on one side. Differential roll force controller comes into action to achieve the set value of zero, thus ensuring the rolls touch both side with equal force.
    v)       The above roll position is registered as kissing position or unloaded zero gap position. Rolls are rotated at small speed.
    vi)     Total roll force is then raised to another set value called the calibration roll force.
    vii)    Though the rolls are still touching but position sensors will read another position due to mill stretch and this is also registered. The difference in the two registered position divided by roll force gives mill stretch coefficient ie mill modulus  “mm”
    viii)  Mill calibrated signal lights up.


    Fig-3

    Mass Flow Principle

    With the advent of faster non-contact thickness gauges, AGC suppliers introduced a another method of measuring loaded roll gap or output thickness by using a simple principle that mass remains constant. Thus if entry side thickness is hin and entry material speed is ϑ1 , exit side thickness is hout and exit side material speed is ϑ2  then considering that there is no change in width of material,
    hin *ϑ1= hout ϑ2 thus    hout=  hin *ϑ1/ ϑ2…………………………………… (9)
    Thus if we are able to measure entry and output material linear speed and entry side thickness we have quite accurate and fast value for exit thickness, thus accurate AGC was possible with this calculated output thickness with over all vernier correction from exit thickness gauge. See figure-4. 

    Fig-4
    Fig-5

    Null Setting for Moog Servo Valves:

    In the various mill stands commissioned by the author Moog Servo Valve of 72 series are used for control of Hydraulic Force Cylinders. These valves have certain amount of flow even with zero control current. This flow will either make to top and bottom roll come together or separate from each other and may move with a skew (un parallel movement) when the power to the Moog Valves are powered off. If the rolls do come together the chance is that they will move and raise the roll force to unsafe values. Hence to have safe operation it is imperative that top and bottom rolls move away from each other with near equal speed or in parallel motion. The Moog Valve are provided with a “Null flow screw” and the manufacturer has provided 2 methods to adjust in the catalogue5 namely mechanical and electro-magnetic. Author did come across a much simpler procedure which however needed the position control commissioned and working. The procedure is very simple where in the rolls are separated to a fixed gap and the control system will keep the rolls at this gap – not affected by the null flow. Now the null screws on both drive side and operator side servo valves are adjusted one by one such that direction of control current is for same as for gap “closing” and is 2-4 % of full flow. Care is taken that this null current is same for both operator and drive side. Thus once the power is off the roll gap will “open” with almost parallel movement of rolls.

    Conclusion:

    With the use of Hydraulic AGC cylinders and fast and accurate position sensors and thickness gauge Automatic Gauge Control for flat mills have undergone sea change from controls through back tension to actual position. Temper passing in Cold Mill with constant roll force has also become feasible. In India Hydraulic AGC were introduced in late seventies and now is a standard fixture in flat rolling mills.  

    Acknowledgement / Bibliography

    1)       G.Molten, Line Commuted Thyristor Convertors, Siemens Ag, 1972
    2)       A.Teliskov, Stress and Strain in Metal Rolling. Mir Publishers, Moscow, 1967.
    3)        Peter Kucsera & Zsolt Béres, Hot Rolling Mill Hydraulic Gap.., Published in Acta Polytechnica Hungarica, Vol 12 No 6, 2015,
    4)       William L Roberts, Cold Rolling of Steel, 1978
    5)       Moog Servo Valve 72 series Technical Catalogue Rev-2, 2013