Saturday, December 11, 2021

मैं राँची हूँ, मुझ पर भी कुछ लिखो न !


सब पर लिखते तो हम पर भी तो लिखो - मैं रांची हूँ !

अल्बर्ट एक्का चौक इसे फिराया लाल चौक भी कहते है


मैं जहां तुम ४६ साल से भी ज्यादा दिनों से रह रहे हो, जिसने रोजी रोटी दी , जहाँ तुम्हारे बच्चे पढ़े, खेले, बड़े हुए पर लिखने का ख्याल न आया ? शायद कुछ ऐसी बातें राँची मुझसे कहना चाह रही थी पर जब ऐसी ही बात श्रीमती जी ने भी कह डाली तो मैं जुट गया राँची (जो मेरा- हमारा शहर हैं), पर एक ब्लॉग लिखने, आखिर मैंने इसे एक सोये हुए छोटे मुफ्फसिल जिला मुख्यालय से बढ़ते बढ़ते एक राज्य की राजधानी, उद्योग का केंद्र और एक महानगर में परिवर्तित होते जो देखा हैं । मैंने देखा हैं जो जगह जमशेदपुर और हज़ारीबाग़ के साथ ६० के दशक में एक संप्रद्रायिक रंजिश का हॉट स्पॉट था और रामनवमी और मुहर्रम के जुलूसों के समय में प्रशासन का सरदर्द बन जाता था, कैसे आज एक शांत सांप्रदायिक सौहाद्र वाली जगह बन गयी हैं । कैसे आपराधिक गतिविधियों के चलते जहाँ कभी बाजार सरे शाम यानि सात बजे तक बंद हो जाती थी, और सड़के कर्फ्यू की तरह वीरान हो जाती थी अब देर रात तक खुली रहती हैं और लोग बेख़ौफ़ घूमते हैं । मेन रोड की दुकाने तब मंगलवार या शुक्रवार को बंद होती थी और रविवार को खुली रहती थी, और हम ऑफिस जाने वाले के लिए सुविधाजनक भी था, बाजार जाना हो तो छुट्टी नहीं लेनी पड़ती थी । फिर आया रामायण टीवी सीरियल जो रविवार को आता था और मेन रोड की सभी दुकाने रविवार को बंद होने लगी क्योंकि कोई दुकानदार रामायण मिस नहीं करना चाहता था । यह सब होते भी मैंने देखा हैं । यानि कई बातें थी जिसे मै इस शहर के बारे में बता सकता था और पत्नी जी ने सही ही टोका था ।

रांची में लगातार रहते हुए ४६ वां साल बीत रहा हैं और मैंने कई बदलाव देखी हैं इस रांची में।  मैं तो १९६२-६४ से यहाँ आता रहा हूँ । मेरी बड़ी मौसेरी बहन स्व डॉ पुष्पा सिन्हा की पोस्टिंग तब ताज़ा ताज़ा खुले RMCH में हुई थी और हम तब शायद पहली बार रांची आये थे अपने पिताजी के साथ। जहाँ तक मुझे याद हैं तब हम डोरंडा में पिताजी के किसी मित्र से मिलने गए थे और हमें कडरू के रेलवे क्रॉसिंग होकर जाना पड़ा था । ओवरब्रिज राँची का एक मुख्य लैंड मार्क है और मेन रोड से डोरंडा जाने के लिए आज एक लोकप्रिय रुट हैं पर रिक्शावाला कडरू हो कर ले गया, ओवरब्रिज चढ़ कर जाना नहीं चाहता होगा या ओवरब्रिज तब बना ही न हो । मेरा यह ब्लॉग रांची में मेरे सामने हुए, बदलाव अनुभव, और कुछ पढ़े हुए इतिहास पर आधारित हैं । जानता हूँ जितना कुछ मन में हैं वह मैं पूरी तरह बयान नहीं कर सकूंगा पर मैं पूरी कोशिश करूँगा। तो लीजिये देखिये मेरी राँची को मेरे नज़र से ।


पहले थोड़ा इतिहास

आइये पहले थोड़ा इतिहास की बात करते हैं । छोटानागपुर, रांची क्षेत्र समेत, नन्द वंश के मगध साम्राज्य के हिस्सा था जो बाद में मौर्य साम्राज्य और गुप्ता वंश के बाद नाग वंश / पालवंश के राज्य का हिस्सा बना । शायद नाग वंश के शासन काल में ही इसका नाम छोटानागपुर पड़ा हो ।अशोक और समुद्रगुप्त रांची क्षेत्र हो कर ही अपने कलिंग / महा कौशल अभियान पर गए थे । गुप्त शासन के पश्चात नागवंश का शासन बहुत लम्बे समय तक अबाध चलता रहा । पर अकबर की सेना ने नाग वंशी कोकराह मधु सिंह को १५८५ में हरा दिया और जहांगीर के काल में नागवंशियों ने मुगलों की अधीनता स्वीकार कर ली ।
कोकराह प्रधान रघुनाथ शाह ने १७ वीं शताब्दी तक इस क्षेत्र पर राज किया पर प्लासी के युद्ध के बाद १७६५ में इस क्षेत्र पर अंग्रेजों के नियंत्रण में आ गया और नागवंशी राज्य उनके आधीन आ गए । पर एक समझौते के तहत नागवंश का शासन चलता रहा लेकिन १८१७ में रांची जिला रामगढ के मजिस्ट्रेट के सीधे नियंत्रण में आ गया । नागवंशी राजा लाल चिंतामणि शरण नाथ साह देव अंतिम राजा रहे । छोटानागपुर के साथ दालभूम (बांकुरा क्षेत्र) मिला एक परगना बनाया गया । तब जिला के मुख्यालय था लोहरदगा और इसमें पलामू के क्षेत्र भी शामिल था ।


रांची का नाम कैसे पड़ा

राँची का नाम कैसे पड़ा इस पर दो कहानियां प्रचालित हैं । अग्रेज कप्तान ने आर्ची को जो एक उरांव गाँव था अपना मुख्यालय बनाया और अंग्रेजों ने इसे राची और कालांतर में राँची कहना शुरू कर दिया । यहाँ बतातें चले की आर्ची का नागपुरी भाषा में अर्थ होता हैं बाँस के जंगल । मुंडारी भाषा में भी अरांची का मतलब होता हैं छोटी छड़ी ।
दूसरी कहानी है की राँची का नाम रिसि से पड़ा जो की एक काली चील का नाम हैं जो अक्सर पहाड़ी मंदिर के आस पास पाई जाती है । राँची स्टेशन के आस पास का क्षेत्र चुटिया कहलाता है और यही राँची का केंद्र हुआ करता था । चुटिया, हिंदपीढ़ी, रातू, बरियातू, डोरंडा, हिनू, धुर्वा, वैगेरह मिल कर बनते हैं राँची । १९८० में एक बार हम तो आश्चर्य में पड़ गए जब हमारी काम वाली ने एक दिन की छुट्टी मांगते हुए कहाँ " राँची जाना हैं" । राँची में ही तो थे हम लोग फिर इसने राँची जाना है क्यो कहा ? स्थानीय लोग रेलवे लाइन उस पार यानि उत्तर का क्षेत्र जो मेन रोड के नाम से ज्यादा प्रसिद्द हैं को ही राँची कहा करते थे ।



Photo Curtsey Wikipedia


राँची का मौसम - तब और अब

राँची २१३५ फ़ीट की ऊंचाई पर स्थित हैं और इसका सुहावना मौसम इसका एक प्रमुख आकर्षण रहा है । राँची को बिहार के एक हिल स्टेशन का भी दर्जा प्राप्त रहा है । यही कारण था कि बिहार कि राजधानी गर्मियों में राँची शिफ्ट हो जाती और राँची में भी एक मिनी सेक्रेटारियेट और हाई कोर्ट का बेंच हमेशा से रहा है । गर्मियों में (अप्रैल-मई) जब भी दिन में थोड़ी गर्मी पड़ती शाम तक बारिश के साथ मौसम में ठंडक आ जाती । ये सिलसिला अब करीब करीब टूट चूका है और जहाँ पंखा सिर्फ एक महीना मई में ही चलाना पड़ता था अब तो AC भी कभी कभी कम लगता हैं, और गर्मी में तापक्रम का ४० deg C से ऊपर चला जाना अब आम बात ही गयी है । तब राँची में पंखा बजार में कम ही दिखता था और कूलर तो मिलता ही नहीं था। अपनी शादी के बाद मैं पहली बार १९७७ में पत्नी के साथ राँची आया था और अपनी दीदी डॉ पुष्पा प्रसाद के बरियातू वाले क्वार्टर में रुका था। बरियातु की नंगी पहाड़ी के करीब ही था यह क्वार्टर। खुला हुआ क्षेत्र। कमरे के छत की उचाई काफी ज्यादा थी और बड़ी बड़ी हवादार खिड़किया भी थी । अगस्त का महीना था हमारे आने के दिन के शाम से ही बारिश लगातार होने लगी और फिर इतनी ठंढक हो गई की रजाई भी कम पड़ने लगी। अब तो हम वैसे मौसम की कल्पना भर कर सकते हैं । पेड़ो की कटाई, राजधानी बनने के बाद सड़कों पर चलती बेहिसाब गाड़ियां, बढ़ती जनसंख्याँ और कई ऐसे कारण गिनाये जा सकते है । पर शिकायते फिर कभी ।



Biggest Mall in Ranchi now

Good books, Ranchi, almost unchanged !
पुराने संस्थान और दूकाने

कई दुकाने राँची का चेहरा बन चुकी है या कभी थी उनके बारे में नहीं बताया तो क्या बताया ? चुरुवाला और राजस्थान कलेवालय का जिक्र पहले ही कर चुका हूँ । इस लिस्ट में निर्विवाद रूप में पहले स्थान पर आता है - फिरायालाल । बिहार का पहला डिपार्टमेंटल स्टोर । चर्च काम्प्लेक्स मार्किट खुलने तक कपडें और कई गृह सजावट के और सामने के लिए यह एक गिना चुना दुकान था। कश्मीर वस्त्रालय दूसरा चॉइस हुआ करता था । घर से मेन रोड के ज्यादातर शास्त्री मार्केट के लिए निकलने पर हमारे दो स्टॉप अवश्य होते थे गुड बुक्स और फिरायालाल । फिरायालाल का मुख्य आकर्षण था लाजवाब सॉफ्टी आइस क्रीम । मेरी बहू रानी अभी तक मेरे बेटे को ताने देती है की इतनी तारीफ तो कर दी कभी तो खिलाओ फिरायालाल की सॉफ्टी । गुड बुक्स बच्चों को बहुत पसंद था । हम लोग भी उन्हें उत्साहित करते रहते । यहाँ स्टेशनरी, किताबे, कॉमिक्स, नोवेल्स और कई आवशयक चीजे मिल जाती थी मेरे बच्चे तो कभी कभी पूरी कॉमिक्स बुक वहीं खड़े खड़े पढ़ भी लेते कई नाम और याद रहे हैं जैसे गुड बुक्स के बगल में स्थित शिमला चाट हाउस, उसके सामने शीतल छाया (जहां अब राज अस्पताल है) जहाँ का दोसा हमें अच्छा लगता था, पंजाब स्वीट्स (जहाँ मै और मेरा मित्र सुधांशू अक्सर गाजर हलवा खाने जाया करते थे), हैव मोर नन वेज के लिए प्रसिद्ध था, भारत बेकरी, चुंग-वाह और कई और जगहें भी लोकप्रिय थी । कुछ तब भी थे और बदले स्वरुप में अब भी हैं । राजेन्द्र चौक के पास स्थित युवराज और इसका रेस्टॉरेंट एलोरा एक समय में राँची के सबसे पॉश होटल हुआ करता था, अब रेडिसन हैं ।
जहाँ पहले फिरायालाल के पास स्थित शास्त्री मार्किट कपड़े और रेडीमेड खरीदने की लोकप्रिय जगह थी अब दस -बारह मॉल हैं राँची में - चर्च काम्प्लेक्स, स्प्रिंग सिटी, JD HI स्ट्रीट, ग्लैक्सिआ मॉल, न्युक्लियस मॉल, रिलाएन्स फ्रेश -स्मार्ट स्टोर्स, बिग बाजार, क्लब काम्प्लेक्स, मेपल प्लाजा, सैनिक बाजार और भी कई मॉल । कई पुराने सिनेमा हॉल और पेट्रोल पंप के जगहों पर मॉल और होटल बन गए हैं ।


टैक्सी स्टैंड और बस अड्डा

मैं ६० के दशक में कई बार आया । जब १९६६ में कॉलेज ट्रिप में आया तब राँची के केंद्र स्थल में था टैक्सी स्टैंड जो आज भी है (काली मंदिर - बहु बाजार और मेन रोड के चौक के पास) तब काफी बड़ा सा था टैक्सी स्टैंड क्योंकि इतनी बड़ी बड़ी दुकाने इसके आस पास जो नहीं थी । दो दुकानें जो तब देखा था और अब भी याद हैं वो हैं आज के सर्जना चौक के पास स्थित कलेवालाय और चुरुवाला क्योंकि हमने यहाँ नाश्ता जो किया था । एम्बेसडर कार शेयर टैक्सी में चलती थी रामगढ, चास, धनबाद, पुरलिया और टाटा तक के लिए मिल जाती थी और टैक्सी में इतने पैसेंजर बैठाये जाते की इसने कुछ जोक्स को जन्म दे डाला । शेयर टैक्सी और बस राँची से बाहर जाने के साधन थे जबकि रिक्शा शहर के अंदर के आने जाने के साधन थे । ऑटो रिक्शा तब राँची में नहीं चलते थे । फिरायालाल चौक और आज के सर्जना चौक के बीच एक बस स्टैंड था और पटना से आने वाली बसें आज के ओल्ड हज़ारीबाग रोड (कोकर लालपुर, प्लाजा सिनेमा) होते हुए फिरायालाल चौक पर ही रुकती थी । तब बिहार स्टेट ट्रांसपोर्ट का बस स्टैंड ओवर ब्रिज था में था या नहीं याद नहीं पर प्राइवेट बसें फिरायालाल चौक से खुला करती थी । रातू रोड में भी एक बस अड्डा था (शायद अब भी हैं) जहाँ से पलामू के लिए बस मिलती थी । शहर में लोकल बसें भी चलती थी और उसीसे हम धुर्वा गए थे HEC देखने । HEC की बात निकली है तो बता दे वहां देखे बड़ी बड़ी मशीनों से हम आश्चर्य में आ गए थे, हम अपने कॉलेज के वर्कशॉप से compare जो करने लगे थे । जो एक और बात हमे याद रह गई वो थी HEC कैंटीन में मिलने वाले दस पैसे के एक प्लेट समोसा । बस अड्डा राँची में अभी कांटा टोली के पास है और इससे पहले सैनिक बाजार वाले जगह पर भी कुछ दिनों तक था ।



Ranchi Railway Station Now and then (taken from internet)


Ranchi Main Road 1916 from internet

Ranchi main Road in 2018

राँची का रेलवे स्टेशन में भी काफी बदलाव आया हैं , मैं लिफ्ट और चलंत सीढी की बात नहीं कर रहा, पहले सिर्फ ३ प्लेटफार्म थे और सिर्फ एक फुट ओवर ब्रिज । टिकट खिड़की मिलिट्री MCO ऑफिस के पास थी । आज का एंट्री साइड हॉल या बुकिंग काउंटर तब नहीं थे । प्लेटफार्म पर AH Wheeler के बुक स्टाल के सिवा सिर्फ प्रथम श्रेणी का वेटिंग रूम हुआ करता था जो अक्सर बंद ही रहता । पार्किंग का प्रबंध ना के बराबर था और सिर्फ रिक्शा ही मिलता था बाहर जाने के लिए । ६० के दशक में ट्रेनों में २ टियर स्लीपर कोच लगने लगी थी जिसमे आप साधारण दूसरे दर्जे के टिकट से भी यात्रा कर सकते थे । नीचे के बर्थ पर लोग सीट रिज़र्व करा कर बैठते थे और ऊपर के बर्थ पर जहाँ लोग सामान रखा करते थे सोने के लिए TTE बाबू से मिन्नतें कर के लोग रिजर्व करा लेते थे । कुछ ही गाड़ियाँ चलती थी पटना हटिया एक्प्रेस, हावड़ा एक्सप्रेस और बर्दवान हटिया पैसेंजर। शायद खड़गपुर पैसेंजर भी ।

हवाई अड्डा

मेकॉन की नौकरी ने मुझे १९७९ के बाद से ही हवाई यात्रा के बहुत अवसर दिए - बैंगलोर या चेन्नई हो कर सालेम जाना हो या फिर विशाखापट्नम। उस ज़माने में हमेशा कोलकाता हो कर जाना पड़ता क्योंकि सिर्फ एक फ्लाइट राँची हो कर जाती थे दिल्ली - लखनऊ- पटना-राँची- कलकत्ता । पर तब एयरपोर्ट छोटा सा था एक एस्बेस्टस शीट से बना शेड जैसा जिसमे सिर्फ इंडियन एयरलाइन्स का काउंटर था । कोई भी आपको हवाई जहाज तक जा कर छोड़ सकता था, बोर्डिंग पास सिर्फ हवाई जहाज के अंदर जाने के पहले ही देखा जाता था । सीमेंट के एक चबूतरे पर आपका सामान आ जाता और एयरलाइन्स वाले सिन्हा जी पूछ पूछ कर और टैग मिला कर सामान आपको थमा देते। तब से दो बार हवाई अड्डा के टर्मिनल बने और बदले गए ।


राँची के सिनेमा घर तब और अब

पहले राँची के सिनेमा हॉल के इतिहास के बारे में कुछ बातें लिखना चाह रहा था । इंटरनेट में कुछ खोज निकाला वह मैं लिख रहा हूँ ।"रांची में छगनलाल सरावगी ने पहली बार 1924 में 'रांची बायोस्कोप' की स्थापना की। कई साल बाद रांची के ऑनरेरी मजिस्ट्रेट और बांग्ला अभिनेता कमल कृष्ण विश्वास ने बायोस्कोप को खरीद लिया और उसका नाम रखा 'माया महल'। माया महल को भी रांची का प्रतिष्ठित व्यवसायी घराना बुधिया परिवार ने खरीद लिया और एसएन गांगुली को लीज पर दे दिया। एसएन गांगुली ने माया महल का नाम बदल कर रूपाश्री कर दिया। यह लंबे समय तक अपने नाम के साथ रहा। उस समय रांची के एक और प्रतिष्ठित व्यवसायी गुल मुहम्मद ने रूपाश्री से दो कदम आगे एक सिनेमा हॉल की स्थापना की। नाम रखा, गुल सिनेमा। इसमें भी मूक फिल्में दिखाई जाती थीं। गुल मोहम्मद पेशावर के रहने वाले पठान थे। बाद में इस सिनेमा हॉल को रतनलाल सूरजमल के परिवार ने खरीद लिया। इसी जगह पर सज-धजकर रतन टाकीज का 1937 में उद्घाटन हुआ। इस सिनेमा हॉल को भी एसएन गांगुली को लीज पर दे दिया गया। 1937 में जब रतन टाकीज का उद्घाटन हुआ तो सवाक फिल्में आने लगीं। इस टाकीज में पहली फिल्म 'अछूत कन्या' दिखाई गई। जाने-माने लेखक डा. श्रवणकुमार गोस्वामी कहते हैं कि इस फिल्म को देखने के लिए काफी संख्या में दर्शक आए थे।"
राँची में कई सिंगल स्क्रीन सिनेमा हॉल थे - सुजाता (2 स्क्रीन), वेलफेयर, रतन टॉकीज, राजश्री, विष्णु, प्लाज़ा और संध्या । धीरे धीरे कुछ और सिनेमा हॉल खुले थे उपहार, वसुंधरा और मिनाक्षी । धीरे धीरे सुजाता और प्लाजा को छोड़ कर सभी बंद हो गए और उनकी जगह पर खुले नए मॉल या मल्टीप्लेक्स। वेलफेयर की जगह पर हैं JD Hi स्ट्रीट मॉल और सैनिक बाजार । रतन टॉकीज की जगह पर है कोलकाता मॉल, राजश्री की जगह पर भी नयी दुकाने हैं, विष्णु टॉकीज की जगह पर भी कुछ कंस्ट्रक्शन चल रहा हैं । संध्या सिनेमा की जगह संध्या टावर / SRS सिनेमा बन गया है ।सुजाता और प्लाजा अभी तक चल रहा हैं । बाकि तीन हॉल में से मिनाक्षी रेनोवेट हो रहा है । उपहार सिनेमा की जगह पर ग्लैक्सिया मॉल / पॉपकॉर्न सिनेमा बन गया है और फिलहाल वसुंधरा हॉल बंद पड़ा है । कई और भी नए मल्टीप्लेक्स सिनेमा हॉल्स खुल गए हैं जैसे फन सिनेमा, ऑयलेक्स, JD HI street मॉल (Glitz ), PVR , पॉपकॉर्न सिनेमा, पैंडोरा 7D वैगेरह



पहाड़ी मंदिर की सिढ़िया, अब ज्यादा रंगीन और सुविधाजनक
रांची के आकर्षण तब और अब

राँची में कुछ जगहें शुरू से मौजूद हैं जो यहाँ के दर्शनीय स्थान हैं जहाँ हम 80s में फिरायालाल के अलावा भी घूमने जाया करते थे जैसे पहाड़ी मंदिर, टैगोर हिल, जग्गनाथ मदिर, बड़ी तालाब, कांके डैम, हटिया डैम । ऐसे पास स्थित झरने तो हमेशा से आकर्षण का केंद्र रहे हैं जिसमे हुंडरू, जोन्हा और दसम सबसे सुगम और नज़दीक हैं । लेकिन अब कई नई जगहें हैं घूमने के लिए जैसे रॉक गार्डन, मछली घर, नक्षत्र वन, विश्व स्तरीय क्रिकेट स्टेडियम, फन कैसल एंड लेक, बिरसा जू, एक्वेरियम पार्क, ऑड्रे हाउस और पतरातू वैली ।


रांची के त्यौहार

मैंने तीन शहरों के दुर्गा पूजा पर एक ब्लॉग लिखा था जिसमें एक शहर था राँची और उस ब्लॉग का लिंक नीचे दे रहा हूँ ।


राँची की दुर्गा पूजा
रांची स्टेशन पंडाल २०१४  रांची स्टेशन पंडाल २०१३ 

राँची के त्यहारों में जिस दो त्यहारों की मैं इस ब्लॉग में वर्णन करने वाला हूँ वो हैं दुर्गा पूजा और रथ यात्रा । ऐसे सरहुल, रामनवमी भी बड़े शान से मनाया जाता हैं यहां । राँची में दुर्गा पूजा का मतलब होता है भव्य पंडाल । ८० के दशक में दिन में रोड पर कार लेकर निकलना मुश्किल होता था रास्ते बहुत जगह बंद जो कर दिए जाते थे। इसलिए पंडाल घूमने के लिए हम सुबह ४ बजे निकल पड़ते थे बस स्टैंड, स्टेशन का पंडाल देखते हुए हम कांटाटोली होते हुए सर्कुलर रोड, कचहरी, भुतहा तालाब अपर बाजार में कही पार्क करते थे और बकरी बाजार का पंडाल देख कार ही दम लेते थे । अक्सर बकरी बाजार का पंडाल सबसे भव्य और आकर्षक होता । एक बार एक औटो वाले 10-11 बजे जब पूजा की भीड़ peak पर थी ने गलियों से घुमाते रातू रोड के प्रमुख पंडाल "RR SPORTING CLUB" के पीछे ले आया और हम लोग कई खूबसूरत पंडाल घूम पाऐ। मेकॉन कालोनी की पुजा में काफी समय पंडाल मे गुजारते फुचका, दोसा खाते बिता देते।
दूसरा प्रमुख त्योहार जो राँची का signature त्योहार है वह है रथ यात्रा, जो बिल्कुल पुरी के रथ यात्रा जैसे ही मनाया जाता है। प्रत्येक वर्ष यहां जून या जुलाई के महीने में पुरी की तरह ही रथयात्रा का आयोजन किया जाता है।तिथि के अनुसार आषाढ़ शुक्ल द्वितीया तिथि को प्रतिवर्ष रथयात्रा का पर्व धूमधाम से मनाया जाता है।रांची में रथयात्रा की परंपरा 326 सालों से चली आ रही है। उन दिनों छोटानागपुर में नागवंशी राजाओं का शासन था। राजधानी रांची के जगन्नाथपुर में बने भगवान जगन्नाथ के भव्य मंदिर से हर साल जुन-जुलाई के महीने में रथयात्रा का आयोजन किया जाता है। इस मंदिर का निर्माण बड़कागढ़ के महाराजा ठाकुर रामशाही के चौथे बेटे ठाकुर ऐनीनाथ शाहदेव ने 25 दिसंबर, 1691 में कराया था। मंदिर का जो वर्तमान स्वरूप दिखता है, वह 1991 में जीर्णोद्धार किया हुआ स्वरुप है। वर्तमान मंदिर पुरी के जगन्नाथ मंदिर के स्थापत्य की तर्ज पर बनाया गया है। गर्भ गृह के आगे भोग गृह है। भोग गृह के पहले गरुड़ मंदिर हैं, जहां बीच में गरुड़जी विराजमान हैं। गरुड़ मंदिर के आगे चौकीदार मंदिर है। ये चारों मंदिर एक साथ बनाए गए थे। रथ यात्रा जग्गनाथ मंदिर से शुरू होती है और भगवान के विग्रहों को लकड़ी के रथ पर रख कर लोगों द्वारा रस्से से खींच कर करीब ५०० मीटर स्थित मौसी की बाड़ी तक ले जाया जाता हैं । भगवान वह दस दिन रहते हैं और फिर घूरती रथ यात्रा होती हैं और भगवान वापस जग्गनाथ मंदिर जाते हैं । रथ यात्रा में बहुत भीड़ होती है और बहुत सारे स्टाल और झूले लग जाते हैं । सभी पब्लिक ट्रांसपोर्ट खचा खच बड़े मिलेंगे इस दिन । गांव के हस्त शिल्प और जरूरी सामान एक आकर्षण की वास्तु होती हैं ।


राँची में मेरा 1978 से लेकर अब तक का सफर

राँची में पहला मकान जो मैंने किराये पर लिया था जो एक HEC कर्मी का नया बना मकान था और एयरपोर्ट के पास स्थित होटल De Port के पीछे था। तब मेरा ऑफिस बगुरोय बिल्डिंग, मेन रोड में था और लम्बी दूरी स्कूटर से आना जाना पड़ता था । पर शायद महीने भर बाद ही मैंने दूसरा मकान कडरू में लिया । कडरू में वक़्त बड़ा अच्छा बीता क्योंकि कुछ रिश्तेदार निकल आये कुछ दोस्त भी वहीं रहने आ गए । बच्चों का स्कूल में दाखिला हो गया और छोटी बहन का भी कॉलेज में दाखिला हो गया । याद है विजय स्कूटर पर पाँच लोग भी यात्रा कर लेते थे । बिटिया सामने खड़ी हो जाती, और छोटी बहन और मेरी पत्नी जी बेटे को गोद में ले कर मेरे पीछे की सीट पर बैठ जाते ।
तब बोकारो के चौड़े रास्ते के सामने राँची का मैन रोड काफी सकरी लगती क्योंकि तब रोड के बीच में डिवाइडर नहीं था और ट्रैफिक काफी अनियंत्रित सा होता था । पैडल रिक्शा का हुजूम अड़े तिरछे चलता था, और हम स्कूटर से भी रिक्शा को ओवरटेक नहीं कर पाते । इस स्थिति में भी मैं स्कूटर ठीक ठाक चला लेता था और कई बार मेरे दोस्त मुझे स्कूटर चला कर मैं रोड / फिरायालाल ले जाने के लिए बुला लेते । कुछ सालों बाद एक डिप्टी कमिश्नर साहेब आये तो उन्होंने मेन रोड में डिवाइडर बनवा दिया । तब जा कर बेतरतीब ट्रैफिक कुछ तरतीब में आयी और स्कूटर, कार चलना सुगम हो गया । ऑटो रिक्शा भी अब चलने लगे थे
कडरू में पानी की समस्या होने लगी तभी हमें क्वार्टर भी अलॉट हो गया और हमलोग मेकॉन / श्यामली या एच यस ऐल कॉलोनी में आ गए । इस कॉलोनी में हम बहुत दिनों तक रहे और मेरे पुत्री और पुत्र का विवाह भी इसी कॉलोनी में हुआ और मेकॉन कम्युनिटी हाल हमारे बहुत काम आया ।मेकॉन कॉलोनी एक साफ सुथरी well maintained कॉलोनी है । इसमें है एक स्टेडियम (जहां धोनी ने क्रिकेट सीखी) और एक खूबसूरत नर्सरी पार्क जहाँ मैं अपने बड़े नाती को रोज़ घूमने ले जाता था जब वो कुछ महीनों का था । १९८९ में मैंने एक घर बनवाया जो उस समय एक सूनी जगह थी जहाँ रोड तक नहीं बनी थी, पर अब एक अत्यंत बिजी रोड के पास हैं । अभी हम वही रहते हैं । जब घर बन रहा था हरमु रोड अरगोरा चौक तक था और वहा से एक खड़खड़िया रास्ता छोटी (लोहरदगा लाइन तब नैरों गेज थी) लाईन पर बने un manned level crossing होते डिबडिह और मेकॉन कॉलनी तक जाता था और अब जो रास्ता डीपीएस स्कूल से डिबडिह फ्लाई ओवर हो कर हरमू तक बना है और बिरसा राज मार्ग के नाम से प्रसिद्ध है तब नहीं था, और हम मेकॉन कॉलनी से रेलवे लाईन पार कर खेत हो कर या हिनू नदी पार कर ही अपने under construction घर तक आया जाया करता था। हम अशोक नगर, अरगोरा डिबडिह के खड़खड़िय रास्ते से जाया करते थे पर ज्यादा रात होने पर यह रास्ता safe नहीं माना जाता और कडरू होकर ही हम लौटते। अब यह रास्ता रात दिन चालु रहता है और safe भी है।


Wednesday, December 1, 2021

कैलाश मानसरोवर #यात्रा

कैलाश मानसरावर यात्रा (ट्रेक)

मैने अपने एक पुराने web page मे कई जगहों की तीर्थ यात्रा के बारे में लिखा है। मैने बैद्यनाथ धाम की कांवर यात्रा और 6 अन्य ज्योतिर्लिंग की यात्रा भी की पर कई यात्राऐं जैसे वैष्णों देवी, केदारनाथ और कैलाश मानसरोवर मेरे Bucket List में ही रह गए और मै Senior से Super Senior हो गया। इसमे कैलाश मानसरोवर को छोड़ अन्य जगह तो जा सकता हूँ खास कर घोड़ा या हेलीकाप्टर से पर मानसरोवर के लिए तो मेडिकल टेस्ट पास करना होगा जाने चाह कर भी मै जा पऊँगा या नही ? ऐसे कुछ सालों पहले मेरी एक सिनियर रिश्तेदार कैलाश मानसरोवर नेपालगंज से हवाई मार्ग से तिब्बत बोर्डर और वहाँ से बाकी की यात्रा SUV से पूरी की तो मेरा मनोबल बढ़ गया है। यदि ऊंचाई पर होने वाली दिक्कतें झेल पाऊ तो जा भी सकता हूँ। खैर मेरे पुराने web page पर दी गई जानकारी हिन्दी में दे रहा हूँ। कोरोना के कारण सरकार के व्यवस्था मे होने वाले फर्क का उल्लेख इस ब्लाग में नहीं कर रहा हूँ।


कैलाश मानसरोवर यात्रा 2018


हिंदू शास्त्रों के अनुसार कैलाश पर्वत पर भगवान शिव का वास है। कैलाश मानसरोवर क्षेत्र जैन धर्म और बौद्धों के लिए भी पवित्र है। कैलाश ट्रेक भारत सरकार द्वारा हर साल जून से सितंबर के बीच लिपु-लेख पास (उत्तराखंड) वाले मार्ग से या नाथुला पास (सिक्किम) वाले मार्ग से आयोजित किया जाता है ये दोनो ट्रेक सभी सक्षम भारतीय नागरिकों के लिए खुला है जिनके पास होना चाहिए वैध भारतीय पासपोर्ट और धार्मिक इरादा। तीन मार्ग नेपाल के रास्ते से भी मौजूद हैं । यात्रा सड़क मार्ग और उच्च ऊंचाई पर ट्रेकिंग का मिश्रण है। यात्रियों का चुनाव नीचे दिए तरीके से किया जाता हैं ।


Selection Process

1. Draw of lots :Yatris will be selected and assigned to different routes and batches by the Ministry of External Affairs through a fair computer-generated, random, gender-balanced selection process. At the application stage, a group of two persons may give the option to travel together in the same batch. Efforts will be made to accommodate such requests as far as possible, subject to eligibility conditions of each applicant. Application should be completed on-line for each applicant.
2. Intimation: Selected applicants would be informed through automated messages to their registered email id/mobile number after the computerized draw of lots. Status updates may also be accessed through IVRS helpline 011-24300655
Conditions
3. A route and batch once allocated to a Yatri through the computerized process will normally not be changed. However, if there is a need for doing so, selected Yatris may request for change of batch providing justification for the same. Subject to availability of vacancy, the decision of the Ministry in this matter would be final.
4. After the computerized draw of lots, each selected applicant will be required to confirm participation by crediting the non-refundable Confirmation Amount detailed in
'Fees and Expenditure for Yatris' into designated bank account of the Kumaon Mandal Vikas Nigam (KMVN) or, the Sikkim Tourism Development Corporation (STDC) before the cut-off date.
5. If payment is not received by KMVN / STDC by the cut-off date, such Yatri will be automatically removed from the selected list to wait list for the batch, and request from other Yatris would be considered as mentioned in para 3 above.
6. Yatris confirmed in a batch may be required to re-confirm their participation in the batch before their arrival in Delhi for the Yatra. The reconfirmation has to be done online at the website. Failure to do so may result in cancellation of their name from the list for the batch.
7. Confirmed Yatri must report on the scheduled date & time at Delhi Heart & Lung Institute (DHLI) according to the itinerary for the batch. Failure to do so would result in cancellation of their names from that batch. All Yatris in a batch must travel together and return back with the same batch.
8. Registered/waitlisted Yatri may also report at DHLI for inclusion in a batch against any drop out, subject to availability of vacancy arising due to this reason
9. Important Documents : Selected and confirmed Yatris must ensure to bring following documents with them when they arrive in New Delhi for the Yatra.
(i) Ordinary Indian passport,valid for at least six months as on 01 September of the current year.
(ii) Photograph - color, passport size (6 copies).
(iii) Indemnity Bond executed on a non-judicial stamp paper of Rs.100, or as applicable locally, and authenticated by a First Class Magistrate, or Notary Public.
(iv) Undertaking for evacuation by helicopter in case of emergency.
(v) Consent Form for cremation of mortal remains on Chinese side in case of death there.
10. If any of the documents mentioned in para 9 above are not submitted, or not in conformity to the requirement for the current year, or deficient in any aspect; the Yatri may not be allowed to proceed for the Yatra. The decision of the Ministry in this matter would be final, and no representation would be entertained in this regard.



लिपु लेख दर्रा हो कर कैलाश मानसरोवर यात्रा ।

यह एक पारंपरिक मार्ग है और नाथू-ला-पास हो कर नए मार्ग के खुलने तक भारत होते हुए मानसरोवर तक जाने का एक मात्र मार्ग था । इस मार्ग से यात्रा करने पर ज्यादा दूरी तक पैदल ट्रेकिंग करनी पड़ती हैं (लगभग 200 किमी) बाकि की यात्रा बस, एसयूवी द्वारा की जाती हैं । कुछ दूर तक एक नए रोड का उद्घाटन माननीय राजनाथ सिंह ने पिछले दिनों किया थे उसका मार्ग पर क्या प्रभाव पड़ेगा यह नहीं पता । कैसे जाना हैं वह उपर दिए मानचित्र से स्पष्ट है। मानचित्र से यह स्पष्ट है की लिपु लेख के बाद औसत ऊँचाई MSL से ऊपर 4500-5300m के बीच है। अच्छे मौसम में यात्रा में 24 दिन लगते हैं 2018 में लागत लगभग 1.6 लाख रुपये थी ।

नाथू ला दर्रा होकर कैलाश- मानसरोवर यात्रा

नाथुला हो कर कैलाश - मानसरोवर मार्ग पूरी तरह से मोटर से की जाती है और इसमें केवल 8 दिन लगते हैं। अधिकतम ट्रेकिंग की दूरी लगभग 35 किमी ही है। २०१८ में इसकी कीमत करीब 2 लाख रुपये थी ।

नेपाल हो कर कैलाश - मानसरोवर यात्रा

नेपाल हो कर कैलाश मानसरोवर जाने के तीन प्रचलित मार्ग हैं ।
रूट A. लखनऊ-नेपालगंज-सिमीकोट-हिल्सा-कैलाश मानसरोवर नेपाल रूट में पहुंचने के लिए एक लोकप्रिय मार्ग है। कैलाश पर्वत जहां आप हवाई यात्रा करते हैं और सिमीकोट से हिलसा के लिए एक हेलीकॉप्टर लेते हैं। हेलीकॉप्टर लेना तेज है और सुविधाजनक है लेकिन तुलनात्मक रूप से अधिक महंगा है। इस मार्ग से कैलाश पर्वत की यात्रा में परिक्रमा के साथ 8 दिन लगते हैं और पूर्व से परिक्रमा के बिना 5 दिन। लखनऊ या पूर्व। नेपालगंज। यदि आपके पास है तो इस मार्ग की पुरज़ोर अनुशंसा की जाती है कम छुट्टी का समय।
जाने का सबसे अच्छा समय: मई, जून, सितंबर (जुलाई-अगस्त पर्यटन मानसून से प्रभावित हो सकते हैं। 2018 में लागत लगभग है INR 2 लाख। ऑपरेटर के साथ जांचें।

रूट B. काठमांडू - क्यारोंग - कैलाश मानसरोवर कैलाश मानसरोवर की यात्रा के लिए एक भूमिगत मार्ग है यात्रा जिसमें लगभग 14 दिन लगते हैं। यह थल मार्ग है। जाने का सबसे अच्छा समय: मई-सितंबर। लागत INR 1.5 लाख। ऑपरेटर के साथ जांचें

रूट C. काठमांडू - ल्हासा - कैलाश मानसरोवर - आप ल्हासा के लिए उड़ान भरेंगे और फिर कैलाश मानसरोवर यात्रा के लिए सड़क मार्ग से जाएंगे और लगभग 15 दिन लगते हैं। यह सबसे अच्छा है यदि आपके पास पर्याप्त समय है और आप ल्हासा और कैलाश मानसरोवर दोनों की यात्रा करना चाहते हैं


जाने का सबसे अच्छा समय: मई-सितंबर। ऑपरेटर से संपर्क करें। लागत INR 4 लाख

Monday, November 22, 2021

ख्यालों में घुमक्कड़ी ( #यात्रा)

ख्यालों में गंगटोक - दर्जिलिंग यात्रा

मन ने कहा "जाओ कहीं घूम आओ"
मैं आज फिर अपने मनपसंद शगल में मशगूल होना चाहता हूँ, शायद मेरे सिवा भी कई और लोगो का भी यह एक पसंदीदा शगल हैं - यात्रा की रूप रेखा तैय्यार करना यानि हवाई किले बनाना । हमारे लिए २०१८ घूम - घुमक्कड़ी के ख्याल से बहुत बढ़िया साल था । फरवरी में हज़ारीबाग़ -रजरप्पा , मार्च में अंगराबारी, पटना और उत्तर पूर्व इंडिया (असम, मेघालय, अरुणांचल ) , मई में काठमांडू - चंद्रगिरि , जुलाई में मधुबनी - मंगरौनी - उच्चैठ , सेप्टेंबर में शिरडी - सप्तश्रृंगी , अक्टूबर में जमुई , लछुआर , नेतुला भवानी, दिसंबर में उदयपुर-कुम्भलगढ़ , चित्तौरगढ़। उसके बाद medical कारणों से कुछ ऐसे मशगूल हुए की पास की जगहें घूमने का सोच भी नहीं सके । और फिर २०२० के मई तक फारिग तो हो गए पर तब तक कोरोना का प्रकोप शुरू हो गया । २०२० का पूरा साल और २०२१ के शुरुआती महीने कोरोना के भेंट चढ़ गए । २०२१ में आखिरकार दिल्ली से रांची आ गए और अप्रैल में बच्चों (यानि पोता और पोती ) के साथ पतरातू घाटी और डैम घूमने गए जो करीब २ साल बाद किया जाने वाला पहला घुमक्कड़ी था । आगाज़ अच्छा था क्योंकि फिर अक्टूबर में करीब १५० KM दूर स्थित ऐतहासिक -धार्मिक स्थल इटखोरी भी घूमने गए । लेकिन ये जो सफ़र का अनुराग (wanderlust) हैं वह उकसा रहा हैं की कहीं और जाओ या न जाओ प्रोग्राम तो बना ही सकते हो । ऐसा प्रोग्राम जिसे कभी भी अमल में लाया जा सकता हैं । पिछली बार के उत्तर पूर्व भारत की यात्रा के अंत में भूटान के अंदर पांव रखने का मौका मिला था जब हम सीमा से सटे एक प्रसिद्द मंदिर में दर्शन सिर्फ एक बोर्ड पर मंदिर का नाम देख कर चले गए थे इसलिए भूटान तो हमारे बकेट लिस्ट में था ही, पर कोरोना में बॉर्डर खुला न हो तो क्या होगा ? मैंने इसलिए एक दूसरे प्रोग्राम पर काम करना शुरू कर दिया वह है दार्जीलिंग और गंगटोक की यात्रा। जानता था की ट्रेन से यह यात्रा NJP या न्यू जलपाईगुड़ी से और हवाई जहाज से जाने पर बागडोगरा या पक्योंग (सिक्किम) एयर पोर्ट से शुरू करनी होगी । और मै प्लानिंग में लग गया।

सफर के साथी कौन ?
मैं यह सोच कर चल रहा हूँ की एक टीम यानि हम दोनों पति पत्नि रांची से चलेंगे और एक टीम दिल्ली और पटना से ज्वाइन करेगी। क्योंकि दिल्ली से आने वाली टीम बड़ी होगी और दिल्ली - बागडोगरा या दिल्ली - पक्योंग की हवाई यात्रा बजट हिला देगी इसलिए मैंने ट्रेन की यात्रा को ही चुना है। रांची से एक साप्ताहिक ट्रैन चलती हैं कामाख्या एक्सप्रेस जो न्यू जलपाईगुड़ी गुरुवार दोपहर को पहुँचती हैं और मंगल दोपहर को वापस रांची जाती हैं यानि ४ पूरे दिन और दो आधे दिन में सभी जगह घूम लेना होगा । दिल्ली या पटना / पाटलिपुत्र से डिब्रूगढ़ राजधानी भी दोपहर तक न्यू जलपाईगुड़ी पहुंच जाती है और रांची या दिल्ली से जाने वाली टीम की timings मैच करती हैं इस तरह तो 6 दिन 5 रात (6D 5N) का प्रोग्राम बनाना ठीक रहेगा ।



Photo credit Rediff.com

रूट की समय सीमा :
गुरुवार - 12 से 1 बजे के बीच दिन में न्यू जलपाईगुड़ी आगमन - मंगलवार को न्यू जलपाईगुड़ी से प्रस्थान के बीच ही यात्रा का प्रोग्राम बनाना पड़ेगा।
ट्रिप एक फुल टाइम टैक्सी से ही करेंगे यह मैने सोच रखा हैं, क्योंकि खासकर जब बच्चे साथ तो यह एक सुविधाजनक विकल्प हैं । ऐसे कोई और परिवहन के साधन लेने पर बहुत समय बर्बाद होगा और जगह जगह रूक कर फोटोग्राफी करने कि सुविधा भी तभी हैं जब आपकी अपनी गाड़ी हो या फिर फुल टाइम टैक्सी । हमारा पिछले बार का उत्तर पूर्व का अनुभव भी फुल टाइम टैक्सी की ओर ही इशारा करता है। सिक्किम नंबर वाली टैक्सी लेने से उत्तर सिक्किम जाना आसान होता है।



गंगटोक और दार्जीलिंग Photo wkimedia- Google search

मुख्य गंतव्य दो हैं - दार्जीलिंग और गंगटोक । इस कारण दूसरा प्रश्न मन में यह उठा कि पहले कहाँ जाया जाय। गंगटोक जाने में ४-५ घंटे लगेंगे और रास्ते में जाम मिलने की संभावना बनी रहती हैं । दार्जीलिंग से समय कम लगता हैं और जाम भी कम मिलते है । मैं पहले गंगटोक जाने की सलाह दूंगा क्योंकि अंतिम दिन वापसी की ट्रैन पकड़ने के लिए समय पर पहुंचना जरूरी होगा और कम समय और जाम रहित रास्ता ही अंतिम दिन ठीक रहेंगा ।

जाने आने के समय कहाँ कहाँ रुका जाय ? मेरे मन में दो तीन जगहे हैं - कलिम्पोंग, मिरिक, खर्सियांग । मिरिक और खर्सियांग के बीच एक जगह चुननी पड़ेगी क्योंकि दोनों अलग अलग रूट पर हैं । मिरिक अपने आप में एक हिल स्टेशन हैं जो कम भीड़भाँड़ वाली जगह हैं जबकि खर्सियांग उसी रूट पर जिसपर टॉय ट्रैन चलती हैं । ऐसे सुना हैं टॉय ट्रैन अभी दार्जीलिंग से घूम तक ही चलती हैं । मैंने मिरिक चुना हैं यदि निर्धारित समय - सीमा में वहाँ जा सकें । इस सीमा मे रह कर जो रूट बनता है वह नीचे दे रहा हूँ ।



गुरुवार - न्यू जलपाईगुड़ी - गंगटोक - ११८ km ४:१५ hrs
गुरुवार / शुक्रवार - गंगटोक- रात्रि विश्राम (2N)
शनिवार - गंगटोक- कलिम्पोंग - ७६ km २:४८ hrs
शनिवार - कलिम्पोंग २-३ Hrs site seeing
शनिवार - कलिम्पोंग - दार्जीलिंग ५२ km २:१० hrs
शनिवार/रविवार दार्जीलिंग रात्रि विश्राम (2N)
सोमवार - दार्जीलिंग - मिरिक - ४० km १:५० hrs
सोमवार - मिरिक रात्रि विश्राम (1N)
मंगलवार- मिरिक - न्यू जलपाईगुड़ी ५६ km १:५० hrs

Day-1 गंगटोक ! क्या देखे क्या छोड़े ?
गंगटोक पहुंचने पर यदि हो सके तो महात्मा गाँधी रोड के किसी होटल में रुकना सही रहेगा तांकि पहले दिन जब शाम तक पहुंचे तो पास कहीं शॉपिंग या अनोखे नेपाली / सिक्किमी /तिब्बती खाना खा सके । ऐसे बढ़िया होम स्टे में भी रूक सकते हैं । मेरा पिछला होम स्टे का अनुभव ५०-५० था बोमडिला में बहुत अच्छा से शिलॉन्ग में उतना अच्छा नहीं और चेरापुंजी में बीच बीच का । अतः फूंक फूंक कर पांव रखना ठीक रहेगा । कहाँ कहाँ घूमेंगे मैंने यह भी सोच रखा हैं । गंगटोक से ४०-५० KM की दूरी पर स्थित चोंगो लेक, बाबा हरभजन सिंह यानि बाबा मंदिर और नाथुला पास पूरे एक दिन का समय लेता है और इन्हें मैंने अभी अपनी यात्रा कार्यक्रम से निकाल रखा हैं क्योंकि हम दोनों वरिष्ठ नागरिक हैं शायद ऊँची जगहों में होने वाली ऑक्सीजन की कमी वर्दाश्त नहीं कर पाए और नाथुला पास के लिए तो विशेष परमिट भी लेना पड़ता हैं । इस तरह गंगटोक में दूसरे दिन देखने लायक जगह होगी :



Day-2
1. राष्ट्रीय तिब्बत विज्ञान संस्थान, डू ड्रुल चोर्टेन
2. एंचेय मोनेस्ट्री
3. गणेश टोक
4. हनुमान टोक
5. बकथांग फाल्स
6. ताशी व्यू पॉइंट
7. बन झाकरी फॉल
8. रांका मोनेस्ट्री
9. रुमटेक मोनेस्ट्री
10. रोपवे
इस थकाने वाले excursion के अंत मे होने वाला रोप वे ride थकान दूर कर देगा।

Day-3 कलिम्पोंग
रात्री विश्राम के बाद तीसरे दिन हमारा अगला "स्टॉप ओवर" है कलिम्पोंग जहाँ नाश्ते के बाद शायद हम १० बजे तक पहुंचे पर यदि गंगटोक में रोप वे का ट्रिप छूट गया हो तो आज उस ट्रिप को पूरा कर सकते हैं क्योंकि रोप वे ९:३०-५ बजे तक ही चालू रहता हैं यदि ऐसा हुआ तो तीन घंटे के ड्राइव के बाद हम १ -२ बजे दिन तक कलिम्पोंग पहुंच सकते हैं । जितनीं देर से पहुंचेंगे उतना कम समय हमे कलिम्पोंग में घूमने को मिलेगा क्योकिं वहां रात में रुकने का कार्यक्रम नहीं हैं ।
कलिम्पोंग में क्या देखे क्या छोड़े ?
उपलब्ध समय के हिसाब से सिर्फ तीन जगह घूमना ही सही रहेगा कलिम्पोंग में :
दुर्पीन दरा मोनास्टरी
डॉ ग्रैहम'स होम
पाइन व्यू नर्सरी
यह सभी जगहे आस पास हैं और ज्यादा समय नहीं लेगी । और दो या ढाई घंटे के ड्राइव के बाद ५-७ बजे शाम तक दार्जीलिंग अपने होटल में पहुंच जायेंगे और शायद ही कहीं और घूमने निकल पाय ।

Day -3 दार्जीलिंग : रात्रि विश्राम ।
Day -4 दार्जीलिंग : घूमने की जगहें ।
चौथे दिन दार्जीलिंग में बहुत सुबह ४ बजे ही जगना पड़ेगा और जाना पड़ेगा टाइगर हिल - सूर्योदय देखने । क्योंकि हिमालय के उसपार से उगते सूरज का अद्भुत दृश्य कौन नहीं देखना चाहेगा ? टाइगर हिल के बाद 'घूम' मोनास्टरी और बतासिया लूप देखने के बाद वापस होटल जाना होगा नाश्ते के लिए । 'घूम' जाने के लिए टॉय ट्रैन का मज़ा भी ले सकते हैं । नाश्ते के बाद जाऐगें अन्य जगहें यानि :
जापानी पीस पैगोडा
चिड़िया खाना (रेड पांडा और अन्य ऐसे जानवर यहीं मिलेगा )
पर्वतारोही संस्थान
रोप वे
तेनज़िंग नोर्गे रॉक
तिबत हेंडीक्राफ्ट सेण्टर (रिफ्यूजी सेण्टर)
होटल वापस

डे ५ दार्जीलिंग - मिरिक
मिरिक
मिरिक पश्चिम बंगाल के दार्जिलिंग ज़िले में स्थित एक मनोरम हिल स्टेशन है। हिमालय की वादियों में बसा छोटा सा पहाड़ी क़स्बा मिरिक पिछले कुछ वर्षों में पर्यटकों के आकर्षण का केंद्र बन गया है। इसके पीछे कई कारण हैं। एक तो यह कि पश्चिम बंगाल में यह सबसे ज़्यादा आसानी से पहुंचने वाला स्थान है, दूसरा यहां रूटीन हिल स्टेशन जैसी भीड़ भाड़ नहीं है। इस जगह के बारे में अभी बहुत लोग नहीं जानते हैं इसलिए भी यहां की प्राकृतिक सुंदरता बरक़रार है। मिरिक में कई नारंगी के बाग हैं और चाय बागान तो हैं ही ।अन्य देखने लायक जगहे
१. मिरिक लेक
२. पशुपतिनगर (नेपाल बॉर्डर)
३. बोकर मोनेस्ट्री
४. मिरिक चाय बागान
५. मिरिक चर्च
६. रमीते धारा व्यू पॉइंट
रात्री विश्राम
पशुपतिनगर - ककरभीट्टा हो कर पूर्वी नेपाल का ईलाम जिला भी घूमा जा सकता है और यदि समय हो तो पाथिभरा भवानी और काठमांडू भी जाया जा सकता है। एक नया अनुभव के लिए।

Day 6 मिरिक से नई जलपाईगुड़ी यह टूर का आखिरी दिन होगा और हमारी यात्रा न्यू जलपाईगुड़ी स्टेशन पहुंच कर ट्रेन पकड़ने के साथ ख़त्म हो जाएगी ।

बजट


६ लोगों का जिसमे २ बच्चे हैं उनका बजट यूँ होगा
१. ट्रैन : ६ लोगों का टिकट - Rs २४०००.०० जो इस यात्रा खर्च का भाग नहीं है
२. ६ दिनों की टैक्सी ......- Rs १८०००.००
३. लंच और डिनर (6x6x2 ) Rs १२०००.००
४. पार्किंग वैगेरह.......... Rs २०००.००
कुल.................... Rs ४४०००.००
per person ........... Rs ७३३३.००
इंटरनेट के हिसाब से यह खर्च आता हैं रु १२००० - १४००० प्रति व्यक्ति । ऐसे शेयर टैक्सी या बस का उपयोग कर और बचत की जा सकती है।

जिस ट्रेवल एजेंट से २०१८ में नार्थ ईस्ट के लिए टाटा सुमो किराये पर लिए थे उनका इ मेल था "aprup@myvoyage.co.in and arpana@myvoyage.co.in or packages@myvoyage.co.in" और फोन न० था +91 96780 71669 (Mr Aprup Saikia)

क्यो चलना है ?

Friday, November 19, 2021

लफ़्फ़ाज़ी

क्या प्लास्टिक पैकिंग जरूरी हैं

कल मैं दूध के पैकेट लेने गया तो मैंने दुकानदार को एक ग्राहक से बहस करते देखा । उस मोहतरमा ने दूध के दो पैकेट और ब्रेड ख़रीदा था और प्लास्टिक की थैली या कैरी बैग मांग रही थी और दुकानदार कह रहा थे सख्त आर्डर हैं प्लास्टिक पूरी तरह बंद हैं । जब ग्राहक ने कहा मैं सामान कैसे ले जाऊ तब दुकानदार उसे बताने लगा कैसे एक हाथ से दोनों दूध का पैकेट कोने से पकड़ सकते हैं और दूसरे हाथ से ब्रेड पकड़ सकते हैं । खैर मैं हमेशा थैली ले कर ही बाजार निकलता हूँ और हमें कोई परेशानी नहीं हुई । मैं सोचने लगा गवर्नमेंट और नगर निगम कभी अचानक सख्त हो जाती हैं तो कभी ढील दे देती हैं । खैर मैं धीरे धीरे टहलने लगा । जबसे मैंने मोतियाबंद का ऑपरेशन करवाया मैं नज़रे नीचे करके ही चलता हूँ और मुझे कई चीज़े रास्ते में दिखने लगे जैसे पान मसाले के ५ से १५ ग्राम के छोटे छोटे सैकड़ो पाउच , कुरकुरे, चिप्स के २५-५० ग्राम के दसियों पाउच, (नालियां तो इन छोटे प्लास्टिक से भी बंद हो जाती हैं ।) १ लीटर के पानी के बोतल , बिस्कुट के प्लास्टिक के पैकिंग वैगेरह। मैं सोचे बिना नहीं रह सका की कैरी बैग पर रोक तो सिर्फ ऊंट के मुँह में जीरे के सामान है । फिर दिखे शराब के छोटे शीशी के बोतल जिसे किसीने रास्ते में ही फोड़ डाले थे । सोचने लगा क्या प्लास्टिक बोतल ही शराब के लिए एक सुरक्षित पैकिंग हैं। मुझे अपने बचपन का याद हो आई जब मंघाराम की बिस्कुट टीन के डब्बे में आते थे और उसके छोटे छोटे पैकेट वैक्स पेपर के होते थे शायद वह हमारे इन्वॉयरन्मेंट के लिए सबसे अच्छी पैकिंग होती। पंसारी चावल, दाल, आटा अख़बार से बने ठोंगे में पैक कर देते । घी, तेल के लिए डब्बे, बोतल हम घर से लेकर जाते थे। क्या ही दिन थे वे जब प्लास्टिक का इज़ाद नहीं हुआ था ।

नारी सशक्तिकरण

नारी सशक्तिकरण आज का Buzz Word हैं और मैं इसमें विश्वास भी रखता हूँ पर कैसे करना हैं यह सब ? मै अक्सर एक देशी शराब दुकान का जिक्र करता हूँ और मैं रोज़ वहां आने जाने वाले को देखता हूँ । देशी हड़िया (home brewed rice beer ) बेचने वाली एक महिला हैं और कई पीने वाली भी महिलाये भी आती हैं । क्या पीना पिलाना भी नारी सशक्तिकरण हैं ? माध्यम वर्ग में शायद नहीं । कभी कभार रेड वाइन पी लेना एक बात हैं और कोई हार्ड ड्रिंक ले कर बहक जाना दूसरी बात हैं । शायद इसलिए पुरानी फिल्मों में पीने वाली महिलाये बुरी औरते ही होती थी मैं कई नई फिल्मों और टीवी सेरिअल्स में देखता हूँ आजकल महिलाए भी पार्टियों में जम कर पीती हैं । मैं कल एक प्रसिद्द टीवी सीरियल में देख रहा था की करवा चौथ में व्रत खोलने के बाद औरत और मर्द दारू पानी की तरह पी रहे थे क्या यही हमारे संस्कार हैं क्या यह कोई गलत सन्देश नहीं दे रहा समाज को ?

Wednesday, November 17, 2021

खाने के अजीब अजीब तहजीब, अजब अजब रिवाज़ !

प्रस्तावना
बीते दिनों हमारी कॉलनी में दिवाली get together था । स्टार्टर खाते खाते मै अपने एक पड़ोसी के साथ बातें करने लगा और धीरे धीरे हम भारत के अलग अलग राज्यों में उत्सव समारोह में होने वालो भोज भात में खाना खाने खिलाने की क्या तहजीब है । कौन सा व्यंजन पहले परोसा जाएगा और किस व्यंजन के परोसने का मतलब है Party is over ! आज का ब्लॉग इसी टॉपिक पर है।


मानक (Standard) भारतीय भोजन
आपको आमतौर पर मानक भारतीय भोजन परोसा जाएगा, जिसमें नान, चपाती, रोटी या पराठा, पूरी, दाल, करी, रायता, चावल, अचार और कुछ मिठाइयाँ शामिल हैं। यदि आप पंजाब, गुजरात, बंगाल, उत्तर-पूर्व भारत या दक्षिण भारत जैसे देश के विभिन्न क्षेत्रों में जाते हैं तो परोसा जाने वाला भोजन भिन्न हो सकता है।

थाली,प्लेट का उपयोग

पारम्परिक भोज भात में (Buffet छोड़ कर) अक्सर पत्तल या केले के पत्ते पर खाना परोसा जाता है या फिर आज कल पेपर प्लेट का उपयोग होता है। पहले लोगों को जमीन पर बिछे दरी पर पंगत लगा कर बैठाया जाता था पर आज कल टेबल का प्रयोग ज्यादा होता है। पंगत में खाना खाने खिलाने में आदर और प्यार झलकता है, जब पूछ पूछ कर खिलाया गया हो।


कटलरी का उपयोग
भारतीय आमतौर पर खाना खाने के लिए कटलरी का इस्तेमाल नहीं करते हैं और कटलरी का प्रयोग रेस्तरां मे ही किया जाता है, लोग अपनी उंगलियों से खाना पसंद करते है। एसे चम्मच का प्रयोग बफेट में जरूर होता है।
एक मज़ाक यह भी है कि जब उंगलियों से खाया जाता है,तो भोजन का स्वाद बहुत अच्छा होता है। उंगलियों से भोजन बड़े करीने से खाया जाता है ऐसा न लगे खाना ढूंसा जा रहा है। जो भारतीय कटलरी का प्रयोग करते है वे भी चाकू को कटलरी के रूप में इस्तेमाल नहीं करते हैं क्योंकि यहां तैयार भोजन को आम तौर पर काटने की आवश्यकता नहीं होती है। फ्लैटब्रेड, फिर से, केवल हाथों से खाए जाते हैं। उंगलियों से एक छोटा सा टुकड़ा फाड़ा जाता है और नाव जैसी आकृति बनाई जाती है; फिर करी को स्कूप किया जाता है और मुंह में डाला जाता है। या फिर करी में डुबो कर खाया जाता है।


दाहिने हाथ का प्रयोग
भारतीय लोग भोजन करते समय हमेशा अपने दाहिने हाथ का प्रयोग करते है । भले ही आप लेफ्टी हों, आपको खाने के लिए अपने दाहिने हाथ का उपयोग करना चाहिए। भारतीय बाएं हाथ के इस्तेमाल को अशुद्ध और आपत्तिजनक मानते हैं। तो बायां हाथ सूखा रहता है और इसका उपयोग केवल पानी पीने या बर्तन पास करने के लिए किया जाता है। मुझे एक बुरा अनुभव बिहार में पंगत में खाना परोसने के समय हुआ। मै,लेफ्टी हूँ और मैने पूरियाँ बायें हाथ से परोस डाली। ऊम्रदराज महिलाओं ने बहुत आपत्ती जताई और कुछ ने पुरी को अपने पत्तल से हटा भी दिया।


दावत में क्या उम्मीद करें
मैंने इंडियन और विदेशी खाने पर कई ब्लॉग लिखे हैं, लेकिन इस ब्लॉग का विषय मैंने कुछ अलग चुना हैं । यदि आप भारत में हो तो दावत में क्या होगा कैसे होगा ? खाने के समय भारतीय तहजीब क्या है । ऐसे परम्पराएं हर जगह टूट रही हैं और एक एकरूपता धीरे धीरे आ रही है जैसे Buffet dinner ने परोसकर खिलाने की परम्परा को तोड़ ही डाली है। फिर भी कुछ फर्क जगह जगह में आ जाता हैं, और कई जगह अभी भी पुरानी परंपरा अभी भी ज़िंदा हैं और मैं परम्परिक भोज भात की ही बात करूँगा । भारत एक विविधता भरा देश हैं खाने के कई प्रकार हैं और खिलने के भी कई तरीके हैं । हर प्रदेश की कुछ अलग । कुछ प्रदेशों और देश के कुछ हिस्सों में परोसे जाने वाले क्रम (बुफे छोड़ कर ) के बारे में मैं नीचे दे रहा हूँ ।


भोजन का क्रम
ट्रेडिशनल पश्चिमी खाने में ३-४-५ कोर्स डिनर होता है और खाना का एक क्रम होता हैं । पहले सूप परोसा जाता हैं और अंत में डेजर्ट / काफी आती है । कहते हैं पश्चिमी संस्कृति के विपरीत, जब भारत में भोजन परोसने की बात आती है तो कोई 'क्रम' नहीं होता है। लेकिन यह सरासर गलत सोच है। सारा खाना एक बार में परोसा जाता है ऐसा बिल्कुल नहीं है। हालाँकि, आपको देश की क्षेत्रीय संस्कृतियों और विभिन्न व्यंजनों के आधार पर अलग-अलग सर्विंग स्टाइल देखने को मिल सकते हैं। साथ ही, अलग-अलग हिस्सों के अलग अलग व्यंजन कुछ और क्रम में परोसे जाएंगे ।



पश्चिम बंगाल
मैं बंगाल से शुरू करता हूँ क्योंकि अब शायद ही ऐसी परंपरा सामान्य रूप से मानी जाती हैं , मैंने भी सिर्फ दो अवसर पर पारम्परिक ढंग से परोसे गए बंगाली भोज खाया हैं जबकि मेरे बहुत सारे बंगाली मित्र हैं ।
आम तौर पर एक बंगाली पारम्परिक भोजन की शुरुआत 'शुक्तो' (एक कड़वा व्यंजन ) से होती है, उसके बाद ' पूरी/ लुची और चना दाल (दालें), शाक' (पत्तेदार सब्जियां),इसके बाद परोसा जाता है MAIN डिश जैसे पुलाव, विभिन्न प्रकार की सब्जियां, मछली/मटन/चिकन/अंडे की करी, और फिर आती है मिठाई , दही और अन्य पारंपरिक मिठाइयों जैसे संदेश या रसगुल्ला और चटनी (मीठी-खट्टी चटनी वाली वस्तु) ) के साथ समाप्त होता है। एक बार में एक ही सब्जी या नॉन वेज आइटम परोसा जाता हैं इस तरह हर आइटम का स्वाद सही सही लिया जा सकता हैं । और व्यंजन और सब्जिया एक दूसरे में गड्ड मड्ड भी नहीं होता । यदि आप किसी बंगाली के यहाँ भोज भात में आमंत्रित हैं और वो एक पारम्परिक आयोजन हैं तो शुरू शुरू के परोसे आइटम से पेट न भर लें क्योंकि ज्यादा स्वादिष्ट व्यंजन बाद में आते हैं ।



यु पी, बिहार और मारवाड़ी भोज
यु पी, बिहार के भोज भात में पंगत में या टेबल पर लोग बैठते है और पहले पानी परोसा जाता हैं क्योंकि पत्तल को लोग पानी के छीटों से शुद्ध करते हैं । फिर नमक मिर्च परसे जाते हैं । फिर, पूरी, चावल (या पुलाव), दाल, सब्जियां, नॉन वेज, अचार, पापड़ इसी क्रम में परोसे जाते हैं । भोज का अंत दही, चीनी या मिठाई के साथ होती हैं । यदि दही परोसा गया तो पंगत से उठने का समय आ गया। यदि आप उत्तर बिहार में किसी भोज भात में गए और चूड़ा-दही का खिलाया जा रहा है तो चूड़ा सिर्फ एक बार परोसा जाता है और सिर्फ दही या मिठाइयां ही परसन में ले सकते है । ऐसे प्रसिद्धि बिहारी खाना लिट्टी चोख कई उत्तरी राज्य में भी आजकल must हैं । जबकि बिहारी भोज भात में अक्सर लिट्टी शामिल नहीं होता । यहां मैं याद दिला दूँ की यदि आप मारवाड़ी के यहाँ भोज खाने गए है तो पापड़ परोसे जाने के बाद भोज ख़त्म माने । मारवाड़ी भोजन में खाना निरामिष होता है और सामिष खाने की कोई उम्मीद न रक्खे । मैं एक बिरला की फैक्ट्री के गेस्ट हाउस में रुक चूका हूँ । वहां अंडे तक नहीं मिलते थे । मुझे एक मारवाड़ी बारात में जाने का मौका मिला था और विवाह संस्कार के पहले कोई नमकीन व्यंजन नहीं परोसे गए, और सब्जी तक मीठी थी ।



दक्षिण भारत, तमिलनाडु
जबकि दक्षिण के चारो राज्यों के खाने में थोड़ा बहुत अंतर हैं खिलने का तरीक़ा करीब करीब एक ही होता है । भोज केले के पत्ते पर खिलाते हैं । पत्ते का तिकोना अग्र भाग खाना के लिए और पीछे वाला वर्गाकार कटा पत्ता टिफ़िन के लिए उपयोग में लाते हैं । ऐसे आज कल थाली / प्लेट के ऊपर गोल कटा केले का पत्ता का उपयोग भी किया जाता हैं । केले के पत्ते की लम्बाई हर वर्ग में अलग अलग होता हैं । कहते है केले का पत्ता एक परिचय पत्र की तरह हैं जिसे देख कर पता लग जाता हैं की खिलने वाले किस जगह और किस वर्ग से हैं ।
सबसे पहले बून्द भर पायसम को पत्ते पर खाने वाले के दायीं ओर परोसी जाती है । तत्पश्चात् भोजन को पत्ते पर परोसा जाता है : रायता, दूधी पचड़ी जो ऊपरी दाएं कोने पर परोसा जाता है।इसके बाद करी अवियल और फिर अचार अदरक पचड़ी, पत्ती के शीर्ष के साथ। बाईं ओर वड़ा दाल वड़ा, मिठाई अनानास शीरा, मिश्रित चावल जैसे लेमन राइस कोकोनट राइस आदि। फिर, मुख्य व्यंजनों को परोसा जाता हैं ।दाल केरला पारिपू, चावल और घी, सांभर और रसम के साथ। और फिर पायसम मूंग दाल पायसम को सूखे केले के पत्तों से बने कप में परोसा जाता है या कभी कभी मुख्य पत्ते पर ही, अंत में दही चावल और छाछ। खाना खत्म करने के बाद, रिश्तेदार और दोस्त आम तौर पर बाहर इकट्ठा होते हैं और थोड़ा पाचन-सहायक स्नैक पर चैट करे खाते हैं जैसे केले और पान या बीड़ा ।
आंध्र प्रदेश
मेरी बेटी काफी समय हैदराबाद में रही है और उसका कमेंट मैं add कर रहा हूँ ।श्वेता के शब्दों में "आंध्र प्रदेश में तीन कोर्स में खाना परोसा जाता है। मेरे पास इसके बारे में ज्ञान की कमी के कारण बहुत ही मजेदार अनुभव हुआ। पहली बात यह थी कि मेजबान मेरे खाना शुरू करने का इंतजार करता रहा और मैं बात करने में व्यस्त थी , इसलिए खाना तुरंत शुरू नहीं किया । मुझे यह समझने में थोड़ा समय लगा कि हर कोई इंतजार क्यों कर रहा है। परोसने वाली पहली वस्तु सांभर के साथ चावल थी। मुझे लगा कि यह पूरा डिनर है, इसलिए पर्याप्त चावल ले लिया , लेकिन सांभर काम पड़ने लगा । , मैंने सांभर खत्म किया और सांभर का परसन मांगा... पर आया चावल और रसम (मैं निराश हो गई क्योंकि कोई सांभर नहीं आया । सांभर वास्तव में स्वादिष्ट था और मैं और अधिक खाना चाहता थी )। वैसे भी रसम भी उतना ही स्वादिष्ट था और जब दही-चावल दिखने लगे तब तक मेरा पेट भर गया था। काश, मुझे पता होता कि इतनी तरह खाना का प्रबंध था, तो मैं निश्चित रूप से पहले कम चावल लेती । भोजन सरल था, लेकिन संतोषजनक था। बेशक खाने के साथ अचार और चटनी भी थी । अंत में हमें कस्टर्ड परोसा गया ... और हमें बताया गया कि कस्टर्ड हमारे लिए विशेष रूप से पकाया गया है (क्योंकि हम उत्तर भारतीय हैं और हमें अंत में कुछ मीठा खाना पसंद है)। थोड़ी चीनी भी पत्ते के बाहर परोसी गई,ताकि चीटियाँ वही busy रहे। शायद तमिलनाडू में इसी कारणवश बूंद भर पायसम पत्ते के किनारे परोसते है। "



गुजराती थाली
हल्की और बहुत विशिष्ट है, लेकिन निस्संदेह अच्छी है। चार सब्जियां, फरसान, रोटियां और एक छोटी भाकरी मीठी दाल, चावल या खिचड़ी, कटा हुआ सलाद, चटनी, अचार और कुछ विशेष रूप से ताज़ा छाछ (छाछ) के साथ आती है। मिठाई में गुलाब जामुन, रसगुल्ला, या आम रस जैसा कुछ मौसमी होता है। दाल सब्जियों में थोड़ा मीठापन होता हैं और नाश्ते में खाने वाले कुछ चीजें भी खाने की थाली में होती हैं । एक बार Baroda के एक होटल में गुजरती थाली खाई थी उसमे थे चार सब्जियां, फरसान, रोटियां और एक छोटी भाकरी मीठी दाल,कढ़ी, दही वडा, चावल और खिचड़ी, कटा हुआ सलाद, चटनी, अचार और ताज़ा छाछ । मिठाई में गुलाब जामुन, और कुछ मौसमी रस होता है जैसे आमरस । मजेदार था खाना लेकिन क्योंकि पूरी थाली परोस कर लाई गई थे इसलिए परोसने का क्रम पता नहीं चल सका ।पर अंत में पापड़ ही परोसा गया ।

अन्य जगहों के खाने

मैंने दक्षिण भारत जब भी गया मुंबई थाली मंगाई एक उत्तर भारतीय के स्वाद से एक दम मिलता जुलता हैं यह पर कभी भोज नहीं खाया मुंबई में । दिल्ली पंजाब में हमेशा बुफे खाना ही खाया है और जबकि मुझे छोला भटूरा और छोले चावल बहुत पसंद हैं । बटर चिकन और तंदूरी रोटी भी पसंद हैं पर परोस कर किसीने भोज नहीं खिलाया इन जगहों में कभी। मौके की तलाश में हूँ जब भी ऐसा मौका लगा जरूर इस ब्लॉग में add कर दूँगा ।

खाना खत्म करना
आपको अपनी थाली / पत्तल पर कुछ भी बचा हुआ नहीं छोड़ना चाहिए। ऐसे कहीं कहीं अपनी थाली में खाना छोड़ना status के लिए जरूरी माना जाता है। परोसे जाने वाले प्रत्येक व्यंजन का स्वाद लेना आवश्यक नहीं है, लेकिन आप अपनी थाली में जो कुछ भी रखते हैं वह समाप्त होना चाहिए। खाना मध्यम गति से खाना चाहिए ताकि पंगत मे बैठे अन्य लोगो के साथ ही आपका खाना खत्म हो । परोसने वाले को क्रम से खाना परोसने देना चाहिए। किसको कौन सा व्यंजन और चाहिए वह परोसने वाला देख कर लगाता है या मानक क्रम के अनुसार परसता है, उसे ऐसा करने दे।


बधाई देना
अपना भोजन समाप्त करने के बाद, आपको भोजन के लिए अपने मेजबान की सकारात्मक प्रशंसा करनी चाहिए। चूँकि भोजन बड़ी मेहनत और सावधानी से तैयार किया जाता है, इसलिए अपनी प्रशंसा व्यक्त करने से मेज़बान खुश हो जाएगा।


टेबल छोड़कर
यदि आपने अपना भोजन जल्दी समाप्त कर लिया है, तो आपको तब तक बैठे रहना चाहिए जब तक मेज़बान या मेज पर सबसे बड़ा व्यक्ति अपना भोजन समाप्त नहीं कर लेता। मेज से उठना जब बाकी सब लोग अभी भी खा रहे हों तो इसे खराब व्यवहार माना जाता है।