Thursday, July 23, 2020

मेरा पहला इंटरव्यू और मेरी पहली नौकरी

Title of the document क्रम-सूची
भूमिका मेरी दिल्ली यात्रा मेरा पहला इंटरव्यू दिल्ली का खाना मेरी पहली नौकरी


भूमिका
हफ्ते भर पहले बोकारो से मेरे एक पुर्व सहयोगी का फ़ोन आया। बोकारो सिंटर प्लांट के बारे में कुछ तकनीकी बातें हुई और मैं अपनी पुरानीं यादों में खोता चला गया। सिटंर प्लान्ट मेरे पेशेवर औद्योगिक जीवन का पहला पड़ाव था । खैर मैं शुरू से शुरू करता हूँ। 1970 में इंजीनियरिंग करने के बाद मैं नौकरी की खोज में था। सबसे पहला इंटरव्यू HAL का आया। BARC का इन्टरव्यु किसी कारण वश जा नहीं पाया। बाद में पता चला काफी कठिन इन्टरव्यु था। HAL का इंटरव्यू दिल्ली में था।दिल्ली के उस ट्रिप में कई मजेदार घटनाये घटी। मेरे फुफेरे भाई रमन भैया जिन्होंने ISM (now an IIT) धनबादप् से applied जिओलॉजी की पढ़ाई की थी और उस समय दिल्ली में एटॉमिक एनर्जी कमिशन में साइंटिस्ट थे। उनके यहाँ ही रुकना था
रमन भैया -अब
मेरी दिल्ली यात्रा
दिल्ली इसके पहले एक बार ही आया था। कॉलेज ट्रिप में। तब मोती बाग़ दिल्ली शहर से बाहर की जगह लगती थी। औटो वाले काफी ना नुकुर के बाद जाने को राजी हुए। नई दिल्ली स्टेशन से ऑटो से हम मोती बाग़ आ गए, दूरी ज्यादा  थी और मैं आशंकित था कि कही ऑटो वाला बेवजह घुमा तो नहीं रहा। थोड़ा ढूढ़ने पर रमन भैया का घर मिल गया। उनकी शादी नहीं हुई थी और अकेले ही रहते थे। कॉलोनी में चारो तरफ तीन तल्ले फ्लैट वाले मकान थे और बीच में आंगन जैसा मैदान था बच्चो के खेलने या महिलाओं के मीटिंग्स के लिए अच्छी जगह थी । शाम को काफी चहल पहल हो जाती थी। सुबह-सुबह अजीब अजीब-सी आवाज़ों से नींद खुल गयी। बालकनी में आ कर देखा तो केरोसिन और ब्रेड वाले थे। तेल वाला बोल रहा था "तेअ" "तेअ" । ब्रेड वाला थोड़ी-थोड़ी देर में एक सिटी बजा रहा था। सभी कॉलोनी वाले इसका मतलब समझते होंगे। क्योकि कुछ देर में ही भीड़ लग गई। केरोसिन एक राशन कार्ड में मिलने वाला सामान था, भीड़ लगना लाज़मी था। तब क्या पता था भविष्य में बोकरो में फिर ऐसी आवाज़ों को सुनने का संयोग बन रहा था।

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मेरा पहला इंटरव्यू
सुबह ब्रेड बटर का नास्ता कर के मैं इंटरव्यू के लिए निकल पड़ा। कॉलेज में हर साल शैक्षिक यात्रा करते करते बड़े शहरों का मुझमें कोई खौफ नहीं था । यूनिवर्सिटी जाना था और एक रूट की बस जाती भी थी। मोती बाग़ इस बस के लिए लास्ट स्टॉप ही था। बस के लिए लाइन में लग गया। जब बस आई तो स्टॉप से काफी आगे जा कर रुकी। सभी लोग लाइन छोड़ दौड़ पड़े । मुझे देर हो गयी। दूसरी बस जब आई तो फिर  ऐसा ही कुछ हुआ। पर जब तीसरी बस मेरे सामने रुकी और मुझे चढ़ने का मौका मिला तब एक हृष्ट पुष्ट महिला मुझे धक्का देते हुए चढ़ गई।

दिल्ली यूनिवर्सिटी
स्टैन्ड पर औटो वाले सब देख रहे थे। मीटर से जाने को राज़ी ही नहीं हुए और ज़्यादा किराया देना पड़ा। खैर तीन दिन जाना था और अगले दिनों में मैंने बस लेने की कोशिश ही नहीं की और ऑटो वाले मीटर से ही ले गए। बिहार में मेरे कॉलेज को छोड़ इंजीनियरिंग एग्जाम देर से हुआ था और बिहार से सिर्फ़ दो लोग ही इंटरव्यू के लिए आये थे। written टेस्ट पास करने पर डिज़ाइन का एग्जाम हुआ। एक प्रश्न था व्हील बैरौ डिज़ाइन करे। मैं ट्रांसफॉर्मर और मोटर डिज़ाइन करने को पढ कर अया था। खैर समूहिक चर्चा (Group Discussion) के बाद first 20 में आने के बावजूद और आगे नहीं बढ़ पाया जीवन में पहली बार असफल हुआ था। मूड ख़राब हो गया। रमन भैया ने काफी हिम्मत बढ़ाई।

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दिल्ली का खाना
अगले दिन घर में अकेला था भैया ऑफिस गए थे। खाने के लिए पास के एक झोपड़ी नुमा होटल में गया। मैंने चावल दाल और सब्जी माँगा। फिर मैंने पाया की सभी मुझे ही घूर रहे हैं। शायद यहाँ लोग चावल नहीं खाते होंगे फिर देखा तो चावल मेनु में लिखा ही नहीं था। मैं तंदूरी रोटी और पनीर की सब्जी खा कर वापस आ गया। शाम को भैया ने कनॉट प्लास जाने का प्रग्राम बनाया। शायद मेरा मूड ठीक कारना चाहते होंगे। खाना खाने के लिए पहले हम एक अच्छे रेस्टोरेंट में घुसे। घुसते ही हम समझ गए की यह कुछ एक महंगा रेस्टोरेंट है। खैर बैठ गए। मेनू पढ़ते ही समझ आ गया की कुछ ज्यादा ही महँगा है । वेटर आया तो हमने काफी या चाय मंगाना ही उचित समझा। कॉफी भी काफी  महंगी थी। जिस टेबल पर बैठा था वह डिनर के लिए सजा था। "Will you mind sitting over there?" वेटर एक छोटे टेबल की और दिखा कर बोला। रमन भैया "We will definitely mind" कहते हुए बाहर आ गये। जरूरत से ज्यादा खर्च करने से बच गए।

फिर पालिका बाजर के पास एक ढाबा दिखा। नाम थी "काके दा होटल।" एक झोपड़ी नुमा रेस्टॉरेन्ट के बाहर खुले में कुर्सी टेबल लगे हुए थे। हमने टेबल खाली होने का ईतंज़ार किया और एक टेबल खाली होते ही बैठ गये। रेट कार्ड एक ब्लैक बोर्ड पर लिखा था। हमने रोटी चिकन खाने का निर्णय लिया। बस छ: रूपये में हमारा चिकन रोटी और एक स्वीट्स का डिनर होगया। यह होटल अब काफी प्रसिद्ध हैं, और इसके Franchise पूरे हिन्दुस्तान में फैले है, पर वो स्वाद और वो सफाई अब कहाँ? याद नहीं उस ट्रिप में  दिल्ली में कहीं और घूमने गये थे या नहीं। पर उस दिन पालिका बजार और जनपथ से कुछ चीजें जिसमें  एक बेल बॉटम पैन्ट और आधी दर्जन टाईया शामिल था, खरीदी ।१९६५ में जब कॉलेज में एडमिशन लिया था तब १३-१४ ईन्च मोहरी वाली और बिना प्लीट वाले ड्रेन पाइप पैंट का फैशन था। पांच साल बाद जब पास हुए चौडी मोहरी वाली बेल बॉटम पैंट का फैशन आ गया था और मैं Latest पोशाक ही पहनता था । टाईया भी थोड़ी महंगी हो गयी थे। १९६८ में जब कॉलेज ट्रिप पर आये थे तब ९ रु के एक दर्जन के अविश्वसनीय मूल्य पर हम सबों ने खरीदी थी। इस बार आधे दर्जन के कुल अट्ठारह रु लगे। लाल किला, कुतुब मीनार वैगरह कॉलेज ट्रिप में ही घूम चुके थे। अतः हम अधिक रात होने के पहले घर वापस आ गए।
उस समय ट्रेनों में तीन क्लास होते थे। आए थे फर्स्ट क्लास में। लौटे III क्लास से। आने जाने का फर्स्ट का पैसा मिल ही गया था। AC क्लास होता ही नहीं था ।

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मेरी पहली नौकरी
लौटने के बाद BIT, सिन्द्री  के M.Tech कोर्स  में एडमिशन ले लिया उन दिनों पी जी में पढ़ने के लिए महिने का रू 250 स्टाईपेन्ड मिलता था जो कि नौकरी में मिलने वाले रू 400 की तनख्वाह से थोड़ा ही कम। सिन्द्री, धनबाद के उस ट्रिप में झरिया के बिहार टॉकीज में  सिनेमा  देखा और बोकारो तक जा कर नियोजन दफ्तर में निबंधन भी कर आया। वापस आने के बाद पटना गया और HSL (हिन्दुस्तान स्टील) का written टेस्ट दे आया। बहुत आसान सा पेपर था। ईन्टरव्यु कॉल का ईतंजार कर रहा था कि पटना युनिवर्सिटी से leave vacancy के लिए लेक्चरर का एपॉईन्टमेन्ट लेटर आ गया। तीन वैकेंसी थी विद्युत् विभाग में। दो यांत्रिकी विभाग में।पटना युनिवेर्सिटी के प्रथम और द्वितीय टॉपर को लिया जाना तय था और विद्युत् विभाग में द्वितीय टॉपर होने के कारण मेरा नंबर आ गया। सत्य प्रकाश नारायण टॉपर था। हम दोनो के अलावा एक बी एच यु के टॉपर  'वर्मा' ने भी हमलोगों के साथ ज्वाईन किया। अब आगे जो लिखने जा रहा हूँ वो सारी कहानियां मैंने अपने करीबियों को कई बार बता चुका हूँ। फिर भी लिखता हूँ।
मैं कदम कुआँ अपनी बड़ी मौसी के यहाँ रहता था। स्कूल की पढाई भी मैंने यही रह कर पूरी की थी। कॉलेज कंपाउंड में स्टाफ के लिए कुछ कमरे थे. पहले सोचा था एक कमरा मिल ही जायेगा। बाद में पता चला छुट्टी पर गए टीचर्स ने कमरा खली ही नहीं किया है। कदम कुआँ से कॉलेज करीब ४ किलोमीटर दूर था। पहले दिन मैने बस लेने का सोचा। हम लोग कॉलेज में नए लेक्चरर लगे हैं छात्र लोग जान गए थे। वो हमें पहचानते भी थे। कॉलेज में काफी डे स्कॉलर्स  थे, और कई लड़के बस से ही जाते थे। बस में चढ़ते ही देखा कुछ लड़को ने टी स्कायर ले रखा था। ये सब मेरे कॉलेज के ही छात्र थे। वे सब काफी असहज दिखे। अचानक से मै एक चिन्ता रहित छात्र से आदरणीय शिक्षक हो गया जिसे गंभीर रहना चाहिए। बिना इधर उधर देखे मैने छोटी सी बस यात्रा तय की। बस स्टाप पर कुछ खरीदने का अभिनय करते हुए तब तक रुका रहा जब तक सभी छात्र चले नहीं गए। फिर धीरे धीरे चलते हुए कॉलेज गया। बस निश्चय कर लिया कि कल से रिक्शा से ही कॉलेज जाउंगा चाहे रोज के 4-5 रु देने ही पड़ जाय। नए लेक्चरर होने के नाते हमें 3rd year का लैब क्लास का काम मिला। महिने भर चाय के लिए टी क्लब में पैसे देने पड़े।सत्य प्रकाश चाय पीता नहीं था। मै कभी कभी पी लेता था और पैसा मै ही वसूल कर पाता था लैब में घटी दो घटनाए याद है। हमारा एक सहपाठी था कन्हैया। मोटा हँसमुख लड़का था। दो बार फेल होने के कारण वह अभी भी 3rd year में ही था। एक दिन उसे क्लास आने में देर हो गई। 75% उपस्थिति आवश्यक होती थी। लड़को के लिए उपस्थिति बनवाने के लिए प्रोक्सी भी करते थे पर लैब क्लास में यह सम्भव नहीं था। कन्हैया मेरे पास हिचकिचाते हुए उपस्थिति बनवाने आया। मै कुछ मज़ाक करने वाला था मेरा मुंह खुले उससे पहले उसके मुंह से निकला "सर"! वह कुछ और कहता उसके पहले ही मैने अटैन्डेन्स दे दी। मेरा काम था घूम कर लैब में छात्रों द्वारा किए जाने वाले प्रयोग की प्रगति को देखना। वर्मा ने जुनियर मोस्ट था, सारे कठिन प्रयोगो की जिम्मेवारी उसे सौंप ब्रिज मेगर का प्रयोग मैनें अपनी लिए रखा था। कई ग्रुप अपना मेगर का प्रयोग कर चुके थे और कॉपी में मुझसे हस्ताक्षर भी करवा लिए । सबको मैने ब्रिज बैलेन्स के लिए सुई को मेगर के बीच में रखने को कहा था। एक दिन दो लड़को के एक ग्रुप कई बार कहने पर भी मेगर के शुन्य पर ही बैलेन्स करते दिखे।मैने देखा तो डॉटने के स्वर में पूछा " ये क्या कर रहे हो?" लड़के ने डरते डरते बताया सर जीरो के पास ही Increase-0-decrease लिखा है। बैलेन्स यही पर करना है सर। मै तुरंत समझ गया मैने ध्यान नहीं दिया था और मैं गलत था । मैने उन्हें शाबाशी दी। फिर मैने उन दोनों कों कहाँ पहले जिसने भी इस प्रयोग को किया है उसको सुधार लेने बोल देना।

मै प्रतिदिन कुछ सीख रहा था। शिक्षण कार्य आसान नहीं है यह अहसास हो चला था। दोपहर का खाना मेस में खा नहीं सकता था। टिफिन लाते थे। एक दिन टिफिन नहीं ला पाए। इसलिए मोड़ पर राम जी के ढ़ाबानुमा नास्ते की दुकान में चले गए। ये वही दुकान थी जहाँ हम हॉस्टल से यदाकदा नास्ता करने आया करता था। छोटी सी दुकान थी। दोनो तरफ बेंच और टेबल लगे थे। राम जी ने हमें पहचान लिया और बैठने को कहाँ और क्या खाएगें पूछने लगे। वहाँ एक दुसरे से रगड़ाते ही बेंच में बैठने के लिए घुसना पड़ता था। दुकान छात्रो से भरा था। सब खड़े हो गए और बैठने का निमन्त्रण देने लगे। कुछ धीरे से खिसक भी लिए। मैं दुकानदार के तरफ देखने लगा। मानों वह भी कह रहा हो "आप यहाँ आए किस लिए।" मैने ने एक चाय पिया और जल्दी निकल लिए। फिर पिन्टू होटल तक गए और पर्स ढ़ीले कर खाना खाया। और पिन्टू का रसगुल्ला भी छोड़ते नहीं बना।
रविवार आया तो एक फिल्म देखने के लिए रिजेन्ट सिनेमा चला गया ठीक ठीक याद नहीं पर फिल्म का नाम शायद 'तलाश' था। मै आदतन रु 1.75 जो स्टुडेन्ड क्लास प्रसिद्ध था के लाईन में टिकट लेने लग गया। थोड़े देर में दो लड़के आए और उनके लिए दो टिकट भी लेने का अनुरोध करने लगे। मैने उनको लाईन में लग कर टिकट लेने दिया। लड़कों ने अक्ल लगाई और मेरा टिकट दुसरे ROW का लिया।
रीजेंट सिनेमा अब
देखते देखते दुर्गा पुजा की छुट्टी शुरू होने को हुआ। एकदिन  मै अपनी तनख्वाह के लिए  कालेज आफिस चला गया। उन्होनें बताया हमें यूनिवर्सिटी के नामित बैंक के चिन्हित ब्रांच में एकाऊन्ट खोलना होगा और एक बिल भी बनाना होगा तभी मेरे एकाउन्ट में पैसा जाएगा । मै फॉर्म ले ही रहा था कि किसीने मेरा पैैन्ट का पायचा पकड़ लिया। मै चौंक पड़ा। वो मेरा सहपाठी था। अरे अमिताभ ये सब नहीं चलेगा, वह मेरा दिल्ली वाले बेल बाटम पैन्ट को पकड़ कर बोल रहा था। मै चारो तरफ देखने लगी कि कोई छात्र देख तो नहीं रहा हैं। मैने निश्चय किया कि अब बेल बाटम पहन कर कॉलेज नहीं आऊंगा। राज कपूर ने सिर्फ तीन ही कसम खाई थी पर यह थी मेरी पाचंवी कसम।
खैर दुर्गा पुजा के लम्बी छुट्टी शुरू हो गई। मै घर चला गया। तभी बोकारो से कॉल आ गया। एक आसान से साक्षात्कार के बाद तुरंत नौकरी ज्याईन करने का पत्र मिल गया। परसनल विभाग ने बताया यदि हम अपने लेक्चरर की नौकरी को सेवा पंजिका (Service Record) में डालना चाहते है तो अनापत्ति प्रमाण पत्र ले कर आईए। मेरी मत तब मारी गई थी और मैं पटना चला गया। इतनी लम्बी चौड़ी प्रक्रिया बताया गया कि मेरे पास बैरंग लौटने के आलावा कोई चारा नहीं बचा। लौटने के पहले मैने ऑफिस के स्टाफ को एक चिठ्ठी लिख कर दे दी कि मेरा जो भी तनख्वाह बाकी होगी वह स्टाफ फंड के लिए दान करता हूँ । बोकारो जल्द वापस आ कर मैने ज्वाईन कर लिया। एक हफ्ते जूनियर होने से कोई और दिक्कत नहीं हुई पर तीन साल बाद जब क्वार्टर मिला तो   सेक्टर 3 में नहीं मिला और मिलने में देर हुई सो अलग।  जैैसा मैनें प्रारम्भ में ही लिख चुका हूँ,  बोकारो में मेरा प्रथम कार्यस्थल था सिंटर प्लांट। कई रोचक घटनाए वहाँ भी घटी। वो फिर कभी।

क्रम-सूची

Monday, July 13, 2020

ভুল হলে দয়া করে ক্ষমা করুন। हिंदी अनुवाद के साथ


कई मित्रों ने हिंदी अनुवाद का आग्रह किया हैं और मैं उसे नीचे दे रहा हूँ


কিছু দিন আগে আমার মোবাইলে আমার স্ত্রীর জন্য একটি কল এসেছিল। তার বন্ধু মিসেস শিল্পী গুহার ফোন ছিল। আমি তার বাংলোতে লেখা ফেসবুক পোস্টে কমেন্ট করেছিলাম। সেই সময় তিনি জিজ্ঞাসা করেছেন কি আমি লোকডাউনে বাংলা পড়তে শিখেছি ? আমি বললাম বাংলা পড়তে আগে থেকে জানতাম। এখন মোবাইলে বাংলা টাইপ করা শিখছি । তিনি কিছুটা অবাক হয়েছেন।

আমি সিদ্ধান্ত নিলাম বাংলায় একটি ব্লগ লিখব।

তারপরে ভাবতে শুরু করলাম কেন এবং কখন বাংলা শিখেছি। কেন তো জানিনা কিন্তু কবে মনে আছ। বেশি সময় আমার এই প্রশ্নের উত্তর হয় “আমি আমার বেঙ্গালি ফ্রিইন্ডস থেকে বোকারোতে শিখেছি । তবে আমার স্কুল টাইম থেকে এই ভাষাটি শেখার স্বাভাবিক ইচ্ছা ছিল। আমার শৈশবকালে একজন ডাঃ মুখার্জি আমাদের কাছে ছিলেন। উনি LMP (Licensed Medical Practitioner) ডাক্তার ছিলেন আর দেশ বিভাগের সময় তিনি আমাদের শহরে এসেছিলে। আমাদের এরিয়া তে কোনো ডাক্তার ছিলেনন। আমাদের জায়গাটি এমন ডাক্তার জন্য ভাল জায়গা ছিল প্রাকটিস করা জন্য। আমার বাবা তখন এরিয়ার এক মাত্র প্রাইভেট MBBS ডাক্তার ছিলেন। ডাক্তার মুখার্জী কাছে ছিল এক্টৌ Vouxhall কার । যার বাম বা ডান আলো সিগন্যালের জন্য উপরে উঠবে। হাত দেওয়া সংকেত মত। এটি বাচ্চাদের জন্য একটি কৌতূহল পূর্ণ বিন্যাস ছিল। তার ড্রাইভারের নাম ছিল নীলু। নীলু দা ছিলেন ওনার 'আল ইন বন' কম্পউণ্ডার, ড্রাইভর এবং সহায়ক। নীলু বাবুও বাঙালি ছিলেন । বেঙ্গালি সুরটি তাঁর হিন্দিতে স্পষ্ট ছিল। আমি উনাকে প্রায়ঃ কারে ঘোরাতে অনুরোধ করতাম। তিনি সাধারণত ঘুরিয়ে দিতেন। আমার বাংলা আলাপ মাঝে মাঝে হয়ে যেত। আমার বাংলা শেখা শুরু হয়ে গেছিলো।



ডাঃ মুখোপাধ্যায়ের গাড়িটি এরকম ছিল
আমি বোকারোর বাঙ্গালী ফ্রেইন্ডদের আভাড়ি আছি কি ওনাদের আমাকে বাগালী বলার চান্স দিলো । তারা আমার ভুলগুলিও মনে করেনি। এটা আমার আত্মবিশ্বাস টি বাড়িয়ে দিলো। উত্তর বিহারের কয়েকটি Dialect বাংলার সাথে খুব একই রকম । আমাদের মায়ের বাড়িতে বেগূসরায তে " 'कहाँ जा रहे है " জন্য আমরা বলব " कत जायछी " বাংলায় আমরা বলি " কোথায় যাচ্ছো " আগে মৈথিলির লিপিটিও ছিল বাংলা। বাংলা শেখা আমার জন্য স্বাভাবিক ছিল। অনেকে মনে করেন কিশোর বাংলার প্রেমের আগ্রহ হতে পারে। আমি নিশ্চিত করে বলছি যে এর মতো কিছুই ছিল না।
পরে আমি আস্তে আস্তে বাংলোটি পড়া শিখতে শুরু করেছি । দেবনাগরী একটি বৈজ্ঞানিক লিপি। যা লেখা আছে তা বলুন। ইংরেজীতে কিছু লিখুন অন্য কিছু পড়ুন!to=চূ do=ডূ go=গো But= বট put= পূট । বেশি ভারতীয় লিপি দেবনাগরীর মত। বাংলাও। আমার জন্য এই কারণে বংলা লিপি সহজ হয়েছে। বোকারোতে কয়েকটি বাংলা পত্রিকা পড়ার চেষ্টা করার সুযোগ পেয়েছি। আনন্দলোক মত ফিল্মের মাগ্জিনে পড়তে মজা লাগতো। দেশের মতো মূলধারার ম্যাগাজিন পাওয়া যেত। যে শব্দগুলি আমি পড়তে পারতাম না তখন প্রসঙ্গের সাথে বুঝিয়ে নিতাম। আস্তে আস্তে, এখন আমি শিরোনাম এবং ছোট কবিতা পড়তে পারি। কোমেন্টস জোকে আর পোস্ট গুলো পড়তে পারি দীর্ঘ গল্প বা কবিতা পড়ার ধৈর্য নেই। অমার বন্ধু দেবল দাশগুপ্তের দীর্ঘ কবিতাটি পড়তে পারেনি। "আকাশ ভরা সূর্য তারা, এখন আকাশ মেঘে ভরা" থেকে আগে যেতে পাই না। আমি হাতে লেখা বাংলো পড়তে পারি না। মুদ্রিত বাংলো 80-90% পড়তে পারি। এখন মোবাইলে বাংলা কীবোর্ডও রয়েছে। হিন্দি মতোই টাইপ করতে হয় । এখন আমি বাংলায় কিছু লিখতেও পারি। প্ররম্ভে আমি বাংলায কথা বলতে দ্বিধাগ্রস্ত হোতাম। ট্রেনে কিংবা ট্রামে কেই কিছু পূছলে আমি অনেকবার বাংলায উত্তর দিয়েছি যে আমি বাংলা জানি না। জিজ্ঞাসা করা লোক বিরক্ত হোতো ক্রোধ করতো। অন্যদের মজা নেতো। তমিলনাডু তেউ আমি তাই করতাম, "তমিল তেরিযদ" = তমিল জানিন । আম্তে আস্তে আমি ট্রেন ট্রাম ভীতরেউ বংলা বোলতে শূরূ করেছিলাম। তবুও আমার বাংলো পড়ার গতি কম। সম্প্রতি রাঁচিতে আমার প্রতিবেশী মিসেস মুস্তাফি কিছু নিবন্ধ পড়ার জন্য আমাকে অনেক বাংলা ম্যাগাজিন দিয়েছেন।একটি পৃষ্ঠা পড়তে আধ ঘন্টা সময় লাগে। তারপরেউ আমি 5 টি পৃষ্ঠা পড়েছি। তারপর আমার ধৈর্য হারিয়েছে। তবে অন্য যে কোনোউ ভাষায দীর্ঘ পাঠের সংগে এটা হয়।আমি কোনও উপন্যাস পড়তে পারি না। দিল্লী তে আমি এক বছরে বাংলায় একটি শব্দও কথা বলি নি। শেষ বছর আমি ফিজিওথেরেপিস্ট শ্রেওসী যে আমাদের সোসাইটীতে থাকে সংগে বংগলায কথা বোলতাম। তবে আমি এখন সুস্থ আছি তার ক্লিনিকে যাওয়ার দরকার নেই।আমি তার ছেলের সাথে বাংলায় কথা বলার চেষ্টা করেছি। তার ছেলে বাংলা জানে না।আমি জানতে পারলাম যে ছেলে টা বাংলা কথা বলে না। আমি জিজ্ঞাসা করলাম কেন তিনি বাংলায় কথা বলে না? শ্রেওসী বলল তার বাবা একজন হিন্দুস্তানি।আমি হাসে পড়েছি । হিন্দুস্তানি দ্বারা তিনি হিন্দিতে কথা বলার অর্থ করেছিলেন। সাধারণত হিন্দুস্তানির অর্থ হয ভারতীয়।
ব্লগ এখন খুব দীর্ঘ হয়ে উঠছে।আর পারহছিন। কিন্তূ মাঝে মাঝে বংহলায ব্লাহ লেখব। হিন্দী মাতৃভাষা হেলেউ বংলা আমার মাসী মাঁর ভাষা আছে।

আমার জন্য বাংলায় ব্লগ লেখার চেয়ে বড় আর কী হবে ? ভুল হলে দয়া করে ক্ষমা করবেন।



कुछ दिनों पहले मेरे मोबाइल पर मेरी पत्नी के लिए एक कॉल आया। उनकी मित्र श्रीमती शिल्पी गुहा का कॉल था। कुछ दिन पहले मैंने उनके बंगला में लिखे फेसबुक के पोस्ट पर टिप्पणी की थी। उस समय उन्होंने पूछा था कि क्या मैंने लॉकडाउन में बंगला पढ़ना सीखा है? मैंने जवाब में कहा नहीं, मैं पहले से ही बंगली पढ़ना जानता हूँ। और अब मैं मोबाइल पर बांग्ला लिखना सीख रहा हूं। वह थोड़ा आश्चर्यचकित हुई । तभी मैंने फैसला लिया कि बंगला में एक ब्लॉग लिखूंगा ।फिर मैं सोचने लगा कि क्यों और कब मैंने बंगला सीखना शुरू किया था। “क्यों” तो मुझे नहीं पता लेकिन कब याद है। इस सवाल का ज्यादातर मेरा जवाब होता है , "मैंने बोकारो में अपने बंगाली दोस्तों से सीखा।" लेकिन मुझे पता है कि स्कूल के समय से ही इस भाषा को सीखने की स्वाभाविक इच्छा थी। बचपन की बात हैं, हमारे एक पडोसी थे डॉ मुखर्जी । वह एक LMP (लाइसेंस प्राप्त मेडिकल प्रैक्टिशनर) डॉक्टर थे  और विभाजन के समय वह हमारे शहर में आये थे । हमारे इलाके में तब (अस्पताल को छोड़ कर) कोई डॉक्टर नहीं थे । ऐसे में प्राइवेट डॉक्टर के Practice के लिए हमारा शहर एक अच्छी जगह थी । मेरे पिता उस समय इलाके के एकमात्र प्राइवेट एमबीबीएस डॉक्टर थे। डॉ। मुखर्जी के पास एक Vouxhall कार थी। जिसके बाएं या दाएं Signal lights संकेत के लिए ऊपर की ओर उठता था । हाथ के संकेत की तरह। यह बच्चों के लिए एक कौतुहल का विषय था। उनके ड्राइवर का नाम नीलू था। नीलू दा उनके 'ऑल इन वन' कंपाउंडर, ड्राइवर और सहायक थे। नीलू बाबू भी बंगाली थे। उनकी हिंदी में बंगला का पुट स्पष्ट था । मैं अक्सर उन्हें कार से घूमा देने का आग्रह करता । वह ज्यादातर मुझे और अन्य बच्चों को कार में घूमा भी देते । उस समय अनजाने में ही मेरी उनसे बंगला में अक्सर छोटी बात समय-समय पर हो जाती । अब सोचता हूँ तो लगता है मैंने तब से ही बंगला सीखना शुरू कर दिया । मैं बोकारो के अपने बंगाली दोस्तों का आभारी हूं, क्योकि उन्होंने मुझे बंगला में बात करने का मौका दिया । उन्होंने मेरी गलतियों को भी नज़र अंदाज़ किया । इससे मेरा आत्मविश्वास बढ़ता गया । उत्तर बिहार की कुछ बोलियाँ बंगला से बहुत मिलती-जुलती हैं। बेगूसराय में  यानि मेरे ननिहाल   में, ''आप कहाँ जा रहे हैं '' के लिए, हम कहते थे "कत जायछी" या "कहा जय छहो", जबकि बंगला में कहेंगे "कोथाय जच्छो" । बंगाली सीखना मेरे लिए एक सामान्य सी स्वाभाविक बात थी । बाद में मैंने धीरे-धीरे बंगला पढ़ना भी शुरू किया। देवनागरी एक वैज्ञानिक लिपि है। वही बोलते है जो लिखा है । अंग्रेजी में लिखो कुछ ! और पढ़ो कुछ ! To= टु do= डु पर Go= गो Put= पुट पर But= बट । ज्यादातर भारतीय लिपि देवनागरी जैसी है । बांग्ला भी। इस कारण से, बांग्ला स्क्रिप्ट मेरे लिए आसान थी । मुझे बोकारो में कुछ बंगाली पत्रिकाओं को पढ़ने का मौका मिला। आनंदलोक जैसी फिल्मी पत्रिकाओं में पढ़ना मजेदार था। देश जैसी मुख्यधारा की पत्रिकाएँ भी मिल जाती थीं। जिन शब्दों को मैं पढ़ नहीं सकता, उन्हें मैं संदर्भ के साथ मिला कर समझ लेता । धीरे-धीरे, अब मैं शीर्षक और छोटी कविता पढ़ सकता हूं। मैं टिप्पणियों को, पोस्ट को और जोक को ठीक ठाक पढ़ सकता हूं । पर लंबी कहानियों या कविताओं को पढ़ने के लिए मेरे पास धैर्य नहीं है। अपने मित्र देबल दासगुप्ता की लंबी कविता पूरी नहीं पढ़ सकता । मैं पहली लाइन " अकाश भरा सूर्य तारा । एखान अकाश मेघे भरा " से आगे नहीं जा सकता । मैं हस्तलिखित बांग्ला पढ़ नहीं सकता। अब मैं 80-90% मुद्रित बांग्ला को पढ़ सकता हूँ । अब मोबाइल में बांग्ला कीबोर्ड भी है। जिसमे हिंदी की तरह ही टाइप करना होता हैं । अब मैं बांग्ला में कुछ लिख भी सकता हूं। पहले पहल मैं बंगला बोलने में हिचकिचाता था। ट्रेन या ट्राम में कुछ पूछे जाने पर, मैंने कई बार बंगला में जवाब दिया कि “आमि बांग्ला जनि न”। पूछने वाला व्यक्ति नाराज हो जाता । और दूसरे लोग मज़ा लेते । थोड़ा तमिल भी सीखा था पर तमिलनाडु में भी तब मैं ऐसा करता था, कुछ पूछने पर मेरा जवाब होता "तमिल तेरियाद या " "तमिल तेरि इल्ले " = तमिल नहीं जानता। धीरे-धीरे मैंने ट्रेन ट्राम के अंदर भी बंगला बोलना शुरू कर दिया। फिर भी मेरे बांग्ला में पढ़ने की गति कम है। हाल ही में रांची में मेरे पड़ोसी श्रीमती मुस्तफ़ी ने मुझे कुछ लेख पढ़ने के लिए कई बंगला पत्रिकाएँ दीं। एक पृष्ठ को पढ़ने में आधा घंटा लगा । तब भी मैंने 5 पेज पढ़े । फिर मैंने अपना धैर्य खो दिया। लेकिन यह मेरे साथ किसी भी अन्य भाषा में लिखे लंबे पाठ के साथ होता है चाहे वो हिंदी में ही क्यों न हो। मैं कोई उपन्यास नहीं पढ़ सकता। दिल्ली में हूँ और मैंने एक साल में बंगला का एक शब्द भी नहीं बोला। पिछले साल मैं बंगली फिजियोथेरेपिस्ट श्रीमती श्रेयषी, जो हमारे सोसाइटी में ही रहती है के साथ बंगला में बात कर लेता था । लेकिन अब मैं स्वस्थ हूं, उनके क्लिनिक में जाने की कोई जरूरत नहीं है। मैंने उनके बेटे के साथ बंगला में बोलने की कोशिश की थी । पता चला उनका बेटा बंगला नहीं जानता। मैंने आश्चर्य के साथ उनसे पूछा कि वह बंगला में बात क्यों नहीं करता हैं ? श्रेयोसी ने कहा कि मेरा पति एक हिंदुस्तानी हैं। मैं हंसा। हिंदुस्तानी से उनका मतलब हिंदी बोलने वाला । जबकि हिंदुस्तानी का मतलब आमतौर पर भारतीय होता है। ब्लॉग अब बहुत लंबा होता जा रहा है। भविष्य में कभी-कभी बंगला में लिखूंगा इस वादा के साथ समाप्त कर रहा हूँ । हिंदी मातृभाषा तो है पर बंगला भी मेरी मौसी भाषा जैसी है। बंगला में ब्लॉग लिखने से बड़ा मेरे लिए क्या हो सकता है? यदि कोई गलती हुई हो तो प्रथम प्रयास सोच कर, कृपया मुझे क्षमा करें ।

Friday, July 10, 2020

Jagdeep In memoriam

Syed Ishtiaq Ahmed Jafri more popularly known as Jagdeep passed away on 8th July. He was 81. Obviously he lived his life. Through this blog I will like to remember and relive his great work and his struggles. His works can be summarized as an actor who started as child artist grew up as hero and matured as great comedian. His comic timing,his dialogue delivery and facial expressions made one to laugh and laugh. We had comedians like Dhumal, Mukri, Sunder and Rajendra nath, whose getup and few dialogues were enough to make us laugh and we had also comedians like Omprakash,Kanhaiyalal, Kishore Kumar, Mehmood and Asrani who made themselves an important part of the story. Jagdeep fell in second category. As child artist his innocent face helped him to impress. He was doing well as main lead but probably his choice of films post Bhabhi, Barkha etc and his family compulsions forced him to do any film which came his way. This gave us a brilliant comedian. After Sholay he was our beloved Shoorma Bhopali.

उनका जन्म मध्य प्रदेश के दातिया में हुआ था। पिता की मृत्यु बटवारे के पहले हो गयी थी । उनकी माँ कनीज़ जाफरी मुम्बई आ गईं। और एक अनाथालय में कुक का काम करने लगीं। जगदीप भी घर चलाने में माँ की मदद करने के लिए स्कूल छोड़ सड़को पर साबुन वैगरह बेचने लगे। जब 1951 में श्री बी आर चोपड़ा की फिल्म अफसाना में एक बच्चे का रोल मिला तब जा कर घर की हालात कुछ सभंली। फिर दो बीघा जमीन में भी काम मिला। मुझे याद है स्कूल एक फिल्म दिखाई गई थी हम पंछी एक डाल के। जगदीप एक मासूम चेहरे वाले बाल अभिनेता थे और इस फिल्म को देखने के बाद मै दूसरी फिल्मों में भी उन्हें  पहचानने लगा। नेशनल इंट्रीग्रेशन पर बनी इस फिल्म ने जगदीप को एक पहचान दिला दी। उनकी दो और फिल्मों जैसे अब दिल्ली दूर नहीं और मुन्ना भी मैने स्कूल में ही देखी।बाल कलाकार के रूप में निम्नलिखित फिल्मों में जगदीप ने काम किया।
*अब दिल्ली दूर नहीं
*मुन्ना
*दो बीघा जमीन
*हम पंछी एक डाल के
*आर पार
"हम पंछी एक डाल के" एक एवीएम की फिल्म थी। यह फिल्म काफी सफल रही और इसकी तारीफ भी खूब हुई, फिर क्या था एवीएम ने जगदीप को 4-5 फिल्मों में बतौर नायक पेश किया जिसमें सबसे प्रसिद्ध फिल्म थी भाभी। इस फिल्म में जगदीप की नन्दा के संग जोड़ी बहुत जमी और उन पर फिल्माया गाना "चली चली रे पतंग देखो चली रे" बहुत लोकप्रिय हुई अब भी लोकप्रिय है और अक्सर विविध भारती पर बजता भी है। जिन फिल्मों में उन्होंने नायक का किरदार निभाया वो है।
*भाभी
*बरखा
*बिंदिया
*नूरमहल
*पुनर्मिलन
*शूरमा भूपाली, वैगरह
कल जगदीप जी की याद में विविध भारती पर एक कार्यक्रम प्रसारित हुआ। उनके जीवन परिचय के साथ उन पर फिल्माए गाने भी सुनाए गए। मै आश्चर्य में पड़ गया कई ऐसे कई कर्णप्रिय गाने जैसे "मेरे महबूब न जा आज की रात न जा" "पास बैठो तबियत बहल जाएगी मौत भी आ गयी हो तो टल जाएगी" उन फिल्मों के गाने है जिसमे वो हीरो थे। उनके कुछ फिल्मों के पोस्टर का कोलाज़ नीचे देता हूँ कुछ फिल्म हमें फ़्लैश बैक में ले जाएँगी।

नीचे यू ट्यूब पर उनके गानो का और शूरमा भोपाली वाले सीन का लिंक दे रहा हूँ।

इन प्यार की राहों में -फिल्म-पुनर्मिलन
पास बैठो तबियत बहल जाएगी मौत भी आ गयी हो तो टल जाएगी फिल्म-पुनर्मिलन
मेरे मर्हबूब न जा आज की रात न जा - फिल्म नूरमहल
चली चली रे पतंग देखो चली रे - फिल्म भाभी
चल उड़ जा रे पंक्षी अब ये देश हुआ बेगाना- फिल्म भाभी
प्यार किया नहीं जाता - फिल्म बरखा
हम पंछी एक डाल के - फिल्म- हम पंछी एक डाल के
शूरमा भोपाली सीन शोले

जगदीप जी ने ३००- ४०० फिल्मों में छोटे बारे रोल किये. उनकी प्रमुख फ़िल्में है :
1. गली  गाली  चोर  है (2012) 
2. लाइफ पार्टनर (2009) 
3. बॉम्बे टू गोवा  (2007) 
4. कहीं  प्यार  न  हो  जाए (2000)
5. चाइना  गेट (1998) 
6. हसीना  और  नगीना (1996) 
7. अंदाज़  अपना  अपना(1994)
8. इंसान  बना  शैतान (1992)
9. फूल  और  कांटे (1991) 
10. खूनी  पंजा (1991)
11. शूरमा  भोपाली (1988) 
12. शहंशाह (1988) 
13. बात  बन  जाये (1986) 
14. पुराना मंदिर  (1984) 
15. क़ुरबानी (1980)
16. मोर्चा (1980)
17. फिर वही रात (1980)
18. काली घटा (1980) 
19. एक बार कहो (1980)
20. सुरक्षा (1979) 
21. युवराज (1979)
22. स्वर्ग नरक(1978) 
23. एजेन्ट विनोद (1977) 
24. आइना (1977) 
25. शोले (1975)
26. बिदाई (1974)
27. गोरा और काला (1972)
28. सास भी कभी बहू थी (1970)
29. फुद्दु (1970)
30. खिलौना (1970)
31. तीन बहुरानियाँ (1968)
32. ब्रह्मचारी (1967)
33. नौनीहाल(1967)
34. नूर महल (1965)
35. पुनर्मिलन (1964) 
36. बरखा  (1959)
37. भाभी (1957)
38. हम पंक्षी एक डाल के (1957)
39. अब दिल्ली दूर नहीं(1957)
40. किस्मत का खेल (1956)
41. आर पार (1954) 
42. मुन्ना (1954)
43. लैला मजनु (1953) 
44. दो बीघा जमीन (1953)
45. अफसाना(1951)



अंत में दुआ करता हूँ कि ईश्वर उनके आत्मा को शान्ति दे, जन्नत बख़्से।

Tuesday, July 7, 2020

Our surveying camp in 2nd year and tour.

It was 1965. After completing my schooling ie higher secondary from Patna collegiate school I took admission initially to 3 year B.Sc course in Patna Science college and a month later shifted to 5 year Engineering  degree course in near by Bihar College of Engineering, now NIT when thier admission merit list was out. I had not applied anywhere else as at > 15, I was under age except for Patna's Engineering college which had no minimum age limits then. During counselling I found that I had been selected for both Civil and Electrical Engineering courses. Getting  admitted to an Engineering college was an usual aim for science students then.  As a school student I looked at Engg students travelling in local buses with T-square with awe. During counselling I was asked to choose between Civil and Electrical. Some how I had the notion that Civil means corruption (Forgive me, my Civil friends for this notion of a teen aged mind then). Though most aspirants preferred Civil, I preferred Electrical.

Free from curbs imposed by guardians at home 1st year passed fast, hostel life and hostel food was just heavenly. I made many friends quickly went to see films without any restriction, sometime every evening. Here is a link to my old blog giving a story of 1st year. Study took back seat, still I passed with satisfactory marks, curtsey my good performance in engineering drawings.



In second year some of my colleague changed to Civil as few seats became vacant. When my friend and current room mate as well as room mate of 1st year, KK changed from Electrical to Civil, I too applied only to be denied on the ground that I had refused Civil at the time of admission itself and could not choose it now. Any way our hostel in second year was within campus, and as a relief we were not required to rush to college in the mornings. We always relied  on the old unbelievably accurate  in-campus sundial, which was on way to college main building then. Hostel ( now probably called Kosi Extension Hostel) was very near the Gandhi Ghat as well, where we spent most of the evenings on the bank of holy Ganga. Each college of Patna University are located on the banks of the Ganga, My pastime included reading Hindi books and magazines. I also played chess with room mates. I was however defeated in one of the games by one of my room mate Samrendra Srivastava who had just learned the basic moves, due to over confidence. Samrendra a brilliant student in Civil however did not get addicted to chess as we other room mates had become. I am still trying to locate these old friends now on FB etc of no avail.

In 1966 India suffered acute food shortage. Our PM then Sri Lal Bahadur Shastri had called for skipping one meal weekly. Jai Jawan Jai Kisan was the slogan given. We developed taste for rotis made out of bajra (millet) flour due to shortage of wheat. Hostel mess closed down, hotel food became too expensive and all mess contractors went back to their villages in North Bihar. They were unable to make meal available at Rs 0.75 per meal rate fixed by university for Engg and Medical college mess then.Initially we cooked our meal in room. We will cook rotis only and eat it with mangoes which surprisingly was very cheap that year due to bumper crop. Slowly we were able to open the mess
s as self managed one, where we hostelers had to chose one student each month as mess manager who made purchases of food items by himself or through committee members, paid salary to cooks and other staff, kept records of expenditure to be shared proportionately at the end of the month. Several political parties donated grains to each hostel mess. However we were upset when member of a political party sent rotten rice to us. Luckily this situation did not last long and we got used to managing our own mess. Some mess managers proved themselves good by providing good food at low cost, and such persons were selected more than once.

Our college then had a norm of optional study tour each year starting 2nd year. University paid for limited travel cost for this. Final year's study tour was however compulsory. Student of all discipline had to attend surveying camp a Civil activity in 2nd year. We Electrical boys were allowed to do survey work in Rajendra Nagar area of Patna (still under development then) so that our surveying camp visit may be used as pleasure trip. This allowed us to keep dumpy levels and theodolite ( types of telescopes) in our hostel. This gave students certain ideas. Next to our hostel beyond the boundary wall was GDS women's hostel of Patna College. Boys will position the telescope in first floor of hostel switch off all the lights and peep into the women's hostel.I kept high moral ground that year and I despised the idea. I will mention here that our college was not co-educational then. What you could see through the telescope was girls moving here and there speaking something which was not audible. GDS hostel was near that telescope provided only slightly improved view over what you can see with naked eyes. Some one (not me) complained to the warden, who incidentally was also HOD-Civil From next day we were required to finish field work by mid day and deposit all instruments to stores every day. Stories started getting round the hostel about some unknown love affair between wards of the two hostels in the past leading to suicide which prompted building of the boundary wall closing a gate between the two hostels permanently. We never knew the truth about this even our super seniors did not know. As far as I was concerned this year I was interested in reading Hindi literature as I have also explained in one earlier blog. I wrote some poems, stories etc this year and the following year.

Back to surveying camp. Being a Civil oriented college since 1900, sixth oldest in India, our college organised yearly surveying camp where Civil were first to go followed by other 2 disciplines. Having completed our surveying assignment in Patna itself, this camp was to be our educational - Industrial tour. As was usual a tent colony was established In some vacant field near the town of Dehri-on-Sone with roughly 30 tents with camp cots and all surveying equipment. Mechanical boys went after Civil but ran into problem when some student made unwanted comments on women working in near by field. In no time whole village came with lathis and other lethal weapons to take revenge. They demanded that the erring boy be handed over to them. Some students also took our camp cot rods, offset rods etc and seemed a deadly fight will break out any time. Camp helpers who were seeing this all rushed to Professor in-charge to inform him about the happenings. Sir (sorry for forgetting his name) ran to the scene daringly stood between two grossly unequal armies and made truce, by way of forcing the timid erring boy to beg for forgiveness. Probably some monetary compensation was also done. Incidental same Sir once came to rescue of Mechanical boys during 5th year tour too. When the group was boarding train at Vasco-da-Gama railway station in Goa. Electrical boys suffered then too since , they were forced to skip Goa. This story in brief is that while electrical being a small group could stay in the bogies since we had carried camp cots and used ropes to converts side seats into berths, seeing all this innovations hardly any outsiders peeped in, anyway we all were always there sleeping or sitting on our make shift beds. Our bogie was simple II class bogie with no berth at the sides. When we reached Londa Jn (where our bogie was to be attached to train to Vasco da Gama) from Bangalore, some one saw a telegram from our principal on notice board which said "mechanical boys had trouble in Goa donot go to Goa". Our professor in-charge Sri PK Singh sir decided to skip Goa and requested station master to couple our bogie to train to Mumbai as planned after 2 days. We spent 2 days in the obscure place. We later found that when mechanical boys were boarding their reserved bogie after Goa trip, they found it occupied and they tried to force-ably push such the occupants out, however when they tried to force an old lady they were enraged and violent scuffle started some camera etc were snatched and the bruised boys were arrested. They were presented to a court and could obtain release after writing a bond. Our learned professor sir pleaded the case in the court.
Back to surveying camp again,after few days of delay due to above, finally the college management allowed Electrical group to visit and stay in the same camp colony. Number of students in Electrical was less further being optional many students were to skip the visit. We presented lower risk of erring behavior.
Finally we packed for the first outing with college friends. Took a train and reached a famous station named Dehri on Sone. By evening we found our selves in cozy tents one for each student. Like royals our group had 2 attendants and mess boys to our service. Cleaning of tents including making our beds was part of there work. They also obliged serving tea in tents. We had one and half day tour here with 2 intervening nights. Next day we went to see factories of Dalmiyanagar. Our Sir arranged gate pass for paper, cement and sugar factory situated in this small town. Cement factory with rotating kiln and conveyors were our first real life visit to any industry. We looked at what we saw with some engineering oriented eyes. Some students were interested in under standing the process, but the person explaining this was not very audible due to noise of kiln and other machine. No one was interested to see the sugar factory so we went ahead to visit ill smelling paper factory. Here we could understand the process of cutting of raw material ie wood into small pieces by machines and then these were crushed and allowed to rot which converted it to lugdi. After few more processes the lugdi was rolled into different varieties of paper and card board. One rolling mill made long paper sheets and coiled them over spools. This was the final product. I did not know then that later in life Rolling mills albeit for steel will become my bread and butter. Next day we visited Sone barrage and for the first time learned that Sone river were one of few rivers flowing from South to North. We even were not aware then that Sone meets Ganga near Patna.
Back in Patna we made representation that it was no tour and proper educational tour needed. College arranged visit to Barauni thermal power plant and oil refinery. .We did visit but it was not as enjoyable as the camps at Dehri. We had now had to wait one year for next college trip. May be next blog on that.

Sunday, July 5, 2020

मेरा कॉलेजिया मित्र बिजय कुमार बजाज

शायद आप मेरे ब्लॉग का शीर्षक देख कर चौंक जाय कि मित्र तो मित्र है ये कॉलेजिया मित्र क्या होता है? मै वैसे मित्र  को कॉलेजिया मित्र मानता हूं जिससे कॉलेज के बाद कोई संवाद न रहा हो। बिजय कुमार बजाज से मेरी दोस्ती बिहार कॉलेज आँफ ईन्जिनियरिन्ग (अब NIT Patna)  में हुई थी और विशेष कर 5 वें साल (5th year Engg 1969-70)  में ज्यादा गहरा गई थी। हम न्यू हॉस्टल (अब सोन होस्टल) के बीच वाले फ्लोर पर एकल कमरों में थे। पूरब तरफ के इस विंग को सबसे अच्छा और सबसे शान्त माना जाता था। बजाज का कमरा विंग में दायें मुड़ने पर पहला था यानी बाथरूम के सबसे नजदीक वाला और मेरा सबसे अन्तिम दक्षिण वाला कमरा था एकदम अकेला और कॉर्नर में।

मेरे कमरे से पहले दायें तरफ शारंगधर सिंह का कमरा था जो बोकारो स्टील में भी हमारा सहकर्मी था। शारंगधर का जिक्र आने पर एक बात याद आ गयी । ऐसे तो नियमानुसार हम लोगों ने थर्ड इयर में ही रम या व्हिस्की चख ली थी एक दयावान मित्र के छात्रवृत्ति के पैसे से, पर इस एकांत में शारंगधर को पीने की गन्दी आदत सी लगती जा रही थी। कभी कभी मै भी साथ दे देता। और कभी कभी मेरे रूम में ही पार्टी जमती। मैने जब बोकारो में एक बार उसे पीने में साथ देने से मना कर दिया था तो शारंगधर ने कहा था मुझे लत लगा कर अब बहुत साधु बनते हो। अब वह छोड़ना चाह रहा था ।

 बिजय से तकरीबन रोज सुबह बाथरूम जाते वक्त मुलाकात हो जाती। वो अपने कमरे के बाहर टूथ ब्रश मुंह में लगाए नीचे आंगन की ओर झांकता रहता। या फिर मै उसके दरवाजे पर धक्का दे कर उसे बाहर आने को मजबूर कर देता। सुबह का समय धोबी मोची के होस्टल में आने का होता था और कुछ थर्ड इयर के छात्र मैदान में खेल रहे होते थे। हम भी इन गतिविधियों को थोड़ी देर देखते। दोपहर हम लन्च के लिए होस्टल आते, यह समय था पोस्टमैन का यानि महीने महीने आने वाले मनी ऑर्डर का । शाम को बंगाली मिठाई वाले का ईतंजार करते। वह रोज कुछ नया ले आता। गरम सिंघाड़ा और रसगुल्ले हमारा फेवरिट था। बिजय के कमरे से आगे बाथरूम के बाद वाले कमरे में अम्बिका रजंन चटर्जी था जो बाद में बोकारो में पड़ोसी और सहकर्मी भी रहा। उसके कमरे में भी कभी कभी खाली समय बिताने इकठ्ठा होते थे। पता नहीं बिजय के साथ क्या केमेस्ट्री जमीं हम एक दूसरे के कमरों में खाली समय गप्पे मारने जमा हो जाते। किसी समय दिन हो या रात हमारे दरवाजे एक दूसरे के लिए खुले ही रहते। बाजार घूमना और फिल्म देखना भी साथ होता। तीन पत्ती के खेल में मै दर्शक बन जाता। खाने के लिए मेस भी साथ जाते। अक्सर लोग रूममेट के साथ मेस जाते थे। एकल रूम में हमनें अपना ग्रुप बना रखा था। अत: इस आपसी खिचाव के बदौलत धीरे धीरे सात मित्रों का एक ढ़ीलाढाला ग्रुप बन गया कौशल कुमार पाण्डे, सतीश,  सत्यनारायण,  विरेन्द्र, बिजय, केके और मैं। केके (कृष्ण कुमार सिन्हा) कॉलेज का घनिष्ठतम मित्र था और हम तीन बार रूममेट भी रहे। बाकी के पाँच में से
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चार मेरे मौसेरे बड़े भाई स्व श्री मिथिलेश सिन्हा  के छात्र रह चुके थे और उनके बहुत बड़े वाले भक्त थे। शायद यही हमारी बॉन्डिगं की वजह रही हो। बिजय का छोटा भाई अजय भी हमारे कॉलेज में एक साल जूनियर छात्र था और कॉलेज के बाद उसने बोकारो में ही एक सरकारी कम्पनी में नौकरी ज्वाइन किया था। उस कम्पनी में वह मेरे बचपन के मित्र अवनी कुमार सिन्हा का सहकर्मी था। रिजल्ट आने के बाद मै अपने ही कॉलेज में लेक्चरर लग गया और कुछ महीने बाद बोकारो स्टील ज्वाइन कर लिया। बिजय से सम्पर्क नहीं रहा पर जब मै खगड़िया अपने छोटे चाचा जी के यहाँ गया था तब मैने बिजय को जो खगड़िया का रहने वाला था ढूंढ निकाला। वह वहाँ के एक बड़े मारवाडी बिजनेस घराने का लड़का था पेट्रोल पम्प,  दुकाने एजेंसियां सभी थे इस परिवार के पास ।  मै सोचने लगा कि आखिर 6 साल लगा कर बिजय को ईजिंनिरिंग डिप्लोमा फिर डिग्री पढ़ने की क्या जरूरत थी,  कॉमर्स की पढ़ाई में तो सिर्फ तीन साल लगते। फिर घर का बिजिनेस ही संभालना था । फिर उसके घर पर खाना खाने गया तो सभी भाइयों एक साथ भी और अलग अलग  भी रहते देखा। सभी के पास दो कमरे। अपने गेस्ट को बैठाने खिलाने की  अपनी जगह अलग। और साथ रहने का अनुशासन भी। होस्टल में अपने छोटे भाई से छिप कर अण्डा खा लेने वाला बिजय के घर नॉन वेज सख्त मना था उस समय बिजय को चिन्तित देखा था क्योंकि इन्जिनियरिगं करने के बाद भी घर के बड़े बिजिनेस में आने के लिए जिद कर रहे थे, जो उचित भी था पर बिजय को यह मंजूर नहीं था। उसका कहना था नौकरी करना ज्यादा satisfying और fullfiling है । खैर अन्तत: उसने बड़ो का कहना माना और बिजिनेस में आ गया। अगले वर्ष जब अजय की बारी आई तो उसे नौकरी में जाने की अनुमति मिल गई। अजय भी रिटायर होने के बाद अब एक कन्स्ट्रकशन कंपनी का मालिक है ।
बिजय की शादी फरवरी 1973 में हुई भाभी जी दार्जिलिगं की थी इसी साल मेरी भी शादी जून में होनी थी और मेरी होने वाली बेगम काठमाण्डू से थी। जब शादी में जाने का निमंत्रण मिला तो नेपाली बोलने वाली जगह जाना है यह जान कर थोड़ी झुड़झुरी हुई। बारात का इंतजाम देख कर आँखे खुली रह गई, करीब एक दर्जन कार और एक ट्रक। इतने कारों का काफिला तब कम ही देखने को मिलता था। बंदूकधारी दो गार्ड भी साथ थे। हम सभी मित्र दुल्हे के साथ एक फिएट गाड़ी में थे। हर जगह जहाँ जहाँ हम रुकते खाना, नाश्ता, मिठाई, चाय का पुरकश इंतजाम था। यात्रा का मजा लेते खाते पीते हम सिलिगुड़ी पहुंचे। फिर चढ़ाई शुरू हो गई। हमारी गाड़ी बिजय के मौसा जी की थी। मैदानी इलाके की गाड़ी और मैदानी इलाके के ड्राइवर, पहाड़ी रास्ते मे़ १०-१५ किलोमीटर जाते जाते ही कार खराब हो गयी। पीछे से आने वाली गाड़ियाँ रुकती तो मौसा जी उनसे कहते बस अभी ठीक हो जाएगी आप निकलिए। एक एक कर सभी गाड़ी आगे निकल गई। हम लोग रुक कर प्रतीक्षा करने लगे। सिर्फ ट्रक पीछे थी। तभी एक अम्बेसडर कार आ कर रुकी। उसमे लड़की के मौसा जी थे। उन्होंने देखा कि लड़का ही रास्ते में फसां रह गया तो ठीक न होगा। हमे पहले लगा कि हमे मित्रों को यहीं छोड़ सिर्फ बिजय को लेकर जायेंगे, पर मै बिजय को जानता था, हमें अकेले छोड़ जाने वालों में नहीं था वह।उस गाड़ी से कुछ लोग वहीं उतर गए और हम लोग आगे की यात्रा पर साथ निकल पड़े और शाम तक दार्जिलिंग पहुंच गए। हमारे ठहरने का इंतज़ाम उंचाई पर बने एक होटल में था। जब हम लड़के के साथ पहुँचे तो सबके जान में जान आयी। एक घंटे बाद मौसा जी भी पहुँच गए । इन सब कारणों से पहाड़ी नज़ारों का ज़्यादा मज़ा नहीं उठा पाए। वह जाने के बाद ही नाश्ता परोसा गया। सब्जी ड्राई फ्रूट्स और पके फलों शायद अंगूर की थी। चीनी डाला हुआ था। मिठाईया भी ख़ूब थी। इतनी की नमकीन के लिए तरस गए। पता चला शादी होने तक नमकीन नहीं खिलाया जायेगा। बारात पहुँचने पर स्वागत में भी अच्छी-अच्छी मिठाई, पीने को लस्सी, बादाम मिल्क ! जलजीरा तक नहीं था। नई जगह, नई भाषा, थोड़ी-थोड़ी बारिश। कही बाहर भी नमकीन खाने नहीं जा सके। रात में शादी के बाद जब डिनर लगाया गया, बिजय के भैया मिठाईयां ले कर आये, अमिताभ क्या लोगे? मैं तो हाथ जोड़ कर खड़ा हो गया। भैया कुछ नमकीन खिला सकते है तो खिलाईए नहीं तो सुबह ही खाएगें। सारे लोग हस दिए। लड़का लड़की दोनों तरफ के लोग साथ मिल कर सबका ख्याल रख रहे थे, जो बहुत अच्छा लगा। अब तो ऐसा अक्सर देखने को मिलता है, पर 1973 में ऐसा कभी कभी ही होता था और लड़की वाले अकेले ही परेशान रहते थे। सुबह थोड़ी देर बाज़ार घूम आया। चाय बागान भी देखे पर ठीक तरह से दार्जीलिंग घूमने का मज़ा नहीं ले पाए। वापसी में कोई दिक्कत नहीं हुई। हम मित्र गण अलग-अलग गाड़ी में लौटे। मुझे बोकारो लौटने की हड़बड़ी भी थी। इसके बाद बिजय से सिर्फ़ एक बार मुलाकात हुई। शायद बोकारो में ही।
कुछ ही दिन पहले मेरे बचपन का दोस्त अवनि (मंटू) को जिसका जिक्र मैने उपर किया है, फेस बुक पर देखा। FB फ्रेन्ड बनने के बाद उससे फ़ोन पर लम्बी बात हुई। सारे पुराने दोस्तो के बारे में बातें हुई। अजय के बारे में भी पता चला कि वह दुर्गापुर में किसी कम्पनी का ओनर / डायरेक्टर हैं। उसे भी मैंने फेस बुक पर खोज डाला। मैसेज के अदान प्रदान के बीच मैंने उससे बिजय का नम्बर माँगा। "भैया तो अब नहीं रहे ! " मुझे ऐसे उत्तर की आशा नहीं थी। मैं अजीब ख्यालों में डूबता चला गया। पुरानी बातें याद आने लगी। तीन दिनों के बाद मैंने सोचा क्यो न एक संस्मरण ही लिख डालू। बस इतनी-सी हैं बिजय की कहानी। भगवान उसकी आत्मा को शांति दे। शायद इस तरह मेरे याद करने से उसे कुछ तकलीफ भी पहुँची हो। पर दोस्ती में नो थैंक यू, नो सॉरी।

साले बिना बताए कितनी दूर चला गया तू ?