Wednesday, November 16, 2022

मेरे होस्टल जीवन के शुरुआती दिन

करीब तीन साल पहले मै पटना के महेन्द्रू मोहल्ले हो कर कुछ काम से जा रहा था और बड़ी ऊम्मीद से मै बायी तरफ देखता जा रहा था कि 55 साल बाद अपना पहला होस्टल BCE, PATNA का सिवमिल होस्टल देखने को मिलेगा। पर लॉ कॉलेज के होस्टल के पास एक आलीशान ईमारत दिखी पर मेरा होस्टल कहीं नहीं था। जल्दी में था इसलिए बाद में गुगल पर खोजा तब पता चला वह NIT पटना का ब्रह्मपुत्र होस्टल है जो पुराने CIVMIL होस्टल की जगह खड़ा है। हाल में मेरे कॉलेज मे सात साल सिनियर रहे एक सज्जन का ब्लॉग पढ़ रहा था तब पुराने होस्टल के बारे में किए उनके सजीव चित्रण नें मेरी यादों को हरा कर दिया। और मै अपने Version के साथ हाज़िर हूँ।

वर्ष 1965 में मैनें बिहार कॉलेज ऑफ ईन्जिनियरिंग, पटना में दाखिला लिया। कुल 15 साल का था और एक महिना पहले हीे साईंस कॉलेज में बी.एस.सी में प्रवेश लेने अकेले जाने में हिचक, डर रहा था और मौसेरे भाई ज्ञानु भैय्या को साथ चलने की जिद कर रहा था जिनके ना नुकुर करने पर मैय्या (बड़ी मौसी) से उन्हें डांट सुननी पड़ी थी। पर सिर्फ एक महिने बाद ईंजिनियरिंग कॉलेज मै अकेले आया था, काऊन्सिलिंग के बाद प्रवेश लिया और पता चला 1st year का होस्टल करीब 2 कि०मि० दूर पर था Civmil होस्टल या बैरेक होस्टल। अगले सप्ताह मै समान के साथ होस्टल आ गया। पहले इस 1886 में स्थापित संस्थान में CIVIL-MILITARY ENGINEERING की पढ़ाई अलग ब्रांच की तरह होता था। उनके लिए ही यह एक बैरेक बना जिसे ब्रांच के नाम पर CIVMIL HOSTEL कहा जाने लगा। होस्टल मिलिटरी के लोगो के rough tough जिंदगी के हिसाब से ही बना था। करीब 20 फीट ऊँची लम्बी अस्थायी Shed से दिखने वाली बिल्डिंग मे सात हाल थे। किसी में 24 और किसी में 12 बेड लगे थे बीच में पार्टिशन के साथ। मेरा रूम न० शायद 6 था। ईसमें 12 बेड थे बीच में तीन चौथाई चौड़ाई तक एक ईंटे की दिवाल का पार्टिशन था यानि दोनों तरफ 6 बेड। मेरा रूम पार्टनर थे केक सिन्हा, अंजनी ठाकुर और अन्य दोस्त। मेस कॉमन रूम और वार्डन के लिए अलग अलग बिल्डिंग थे। मजेदार चीजें थी नहाने का Open to sky स्थान था जिसे बिना छत या दरवाजे बाला Bathroom कहा जा सकता था । कई सारे नल लगे थे नल कभी कम नहीं पड़ते। यदि रात में नहाना चाहे तो अंधेरे में ही नहाना पड़ेगा। नहाना भी एक खेल ही होता हम दिवालों पर चढ़ कर दौड़़ते और चुहल कर कर नहाते। Toilet के बारे में बताऊंगा तब मानना पड़ेगा हमने एक साल एक सिपाही की जिंदगी ही जी थी। एक चौड़े नाले के उपर कई छोटे Cubicles बने थे जिसमे भारतीय Toilet सीट लगे थे। थोड़ी थोड़ी देर में पानी छोड़ा जाता जो मल मुत्र बहा ले जाता। पहले पहल घिन लगा बाद में बगल वाले Cubicles में बैठे मित्रों से बाते करतेे और सब भूल जाते।

उपर लिखे बातों के आलावा सभी कुछ मजेदार था। रूम काफी बड़े बड़े हवादार थे। गर्मी तो कभी महसूस नहीं होती रूम की ऊंचाई भी काफी थी। बेड से लगे किनारे एक बक्से सा बना था। जिसमें सामान रख कर लॉक कर सकते थे। एक टेबल कुर्सी तो थी ही। जगह बहुत थी सिंगल रूम हास्टल से ज्यादा। मेस का खाना बहुत पसंद आता था। खास कर आलू का छनुआ भुंजियाँ। कभी कभी फीस्ट होता जिसमें पूरी खीर या मंसाहारी खाना बनता था। नाश्ता में 4 रोटी सब्जी या कभी कभी तिकोना परांठा और भुंजिया। रोटी छोटे-छोटे बनते पूरी के साइज के और मैं 10 से कम कभी नहीं खाता पर नाश्ते में 4 रोटी फिक्स्ड था कभी-कभी एकाध ज़्यादा मांगने पर दे भी देते थे। एक बार मेरा मुरारी सिंह से रोटी खाने का कम्पेटेशन हो गया और हम हाफ सेंचुरी बना बैठे। मुरारी जो हमसे तीन गुना वज़नी था , जीत भी गया। कभी कभी यदि जल्दी तैय्यार हो गए तो रास्ते के उस पार लॉ कॉलेज कैंटीन चले जाते। यहां कूपन के लिए लाइन लगाना पड़ता। कचौड़ी सब्जी जलेबी का मजेदार नाश्ता मिलता था यहाँ।

दूसरीआनन्ददायक जगह थी कॉमन रूम जहाँ अखबार मैगजीन के सिवा दो तीन कैरम बोर्ड थे और रेडियो भी था। बुधवार को रेडियो सिलोन पर बिनाका गीतमाला सुनने के लिए कॉमन रूम खचाखच भर जाता। हर हफ्ते टॉप पर कौन गाना बजेगा इस पर हम लोग बाजी भी लगाते। हारने वाले को ज्यादातर फिल्म के टिकट का पैसा दे देने बाजी ही लगती। फिल्म देखने की आजादी हमे बहुत रास आई और प्रारंभिक दिनों में हर हफ्ते और कभी कभी हर दिन हम फिल्म देख आते। शाम का या रात का शो। रोज शाम पटना मार्केट बेमतलब घूमने जाना भी हमारे रूटीन में शामिल था। कॉलेज के मोड़ पर एक दुकान थी जिसमें टी-स्वक्यार, स्टेडलर का ड्राविंग बॉक्स, ड्राईंग सीट, ब्लैक इंक, 3B से लेकर 5-6 H पेंसिल और स्लाइड रूल हम खरीदते। पटना कॉलेज के सामने मेन रोड पर पुराने किताबो की दुकान थी। ये 40-50% में खरीदते और 60%-75% में बेचते। कई iconic ईंजिनियरिंग की किताबे जो काफी महंगी थी हम वहां से खरीद लाते।

हमारे हॉस्टल के बगल में लॉ कॉलेज का दोमंजिला हॉस्टल था। उधर हो कर ही गंगा का रानी घाट जा सकते थे। वहाँ कुछ ग्वाले यहाँ गाय के साथ आते कभी कभी बछड़ा या खाल में भूसा भरा बछड़ा ले कर आते और गाय को गाहको के सामने दूह कर शुद्ध दूध दे कर जाते। कोई कोई ग्राहक छात्र उपर अपने कमरों की खिड़कियों से झांकते रहते।कहते है एक बार एक ग्वाला एक बैल के पेट पर साइकल ट्युब लपेट कर दुध का घोल भर कर टाट से ढ़क कर लाता और उससे ही दूध निकाल कर दे देता। मेरे याद में मेरे होस्टल में कोई दूध के लिए ग्वाले को नहीं बुलाता था और मेस से ही दूध ले लेते। चाय पीना तब इतना पोपुलर नहीं था। घर वाले का दवाब पर बहुत से छात्र दूध लेते या घर से लाए शुद्ध घी को छोटी कटोरियों में निकाल कर मेस में ले कर आते। पर कई लोग आज इसका लाया तो कल उसका लाया घी में से कुछ बूंद दाल में डाल कर ही काम चला लेते। एक दो घटनाए घटी जो याद है।



Brahmputra Hostel NIT Patna

पहली घटना मेरे 1st टर्मिनल परीक्षा की है। हर साल तीन टर्मिनल परीक्षाए होती थी हर एक वैकेशन के बाद के पहले ही दिन। हर वैकेशन के बाद मै पहले बड़ी मौसी के यहाँ कदमकुआँ (पटना का एक मोहल्ला) रुकता फिर होस्टल आता। पहली गर्मी छुट्टी के बाद जब कदम कुआँ से सीधा कॉलेज गया और परीक्षा का सिटिंग चार्ट देख कर चौंक गया और पहला पेपर था ईंजिनियरिंग ड्राईंग। टी स्क्वायर और कम्पास चाहिए जो कदमकुआँ में था। परीक्षा शुरू होने में आधा घन्टा था मैं रिक्शा से कदमकुआँ जाकर टी स्क्वायर ले आया। थोड़ा लेट भी हो गया और परीक्षा खराब गई सो अलग। दुसरी घटना है जब मैने होस्टल में हलवा बनाने की कोशिश की। मुझे हलवा एक आसानी से बनने वाला पकवान लगता था। भूरा होने तक भूंजो पानी चीनी डालो बस हो गया। बत्ती वाला स्टोव था हमारे पास। आंटा, घी, चीनी ले आए। एक कड़ाही का इंतजाम किया और थोड़े घी में आंटा को भूंजा । जब भूरा हो गया तो चीनी पानी डाल दिया। थोड़ी देर में छोलनी चिपकने लगा तो थोड़ा घी और डाल दिया। गुठली पड़ गई तो थोड़ा पानी भी डाल दिया ये सिलसिला तब तक चलता रहा जब तक सभी घी खत्म न हो गया। एक लपसी जैसा बन कर तैय्यार हो गया। फिर कभी ऐसी हिमाकत नहीं की हमने।

बेसिक सुविधाओ वाले इस हास्टल में बिताया एक साल अनमोल था। काश मै कोई फोटो सिवमिल होस्टल का यहाँ डाल सकता। फिर भी वो एक साल हमें हमेशा याद रहेंगें।

Friday, October 14, 2022

श्री जय प्रकाश नारायण- हजारीबाग कारा में

1970 का छात्र आंदोलन

श्री जय प्रकाश नारायण, संपूर्ण क्रांति के जनक जिसके बाद हम उन्हें लोकनायक भी कहने लगे के पास मानसिक बल तो था ही, स्वतंत्रता संग्राम में उनका शारीरिक बल और सहन शक्ति का परिचय भी मिला। मुझे उनके इसका परिचय तब मिला जब 1970 में एक विद्यार्थी आंदोलन के दौरान मैने भी एक जेल भरो आंदोलन में भाग लिया और हजारीबाग केंद्रिय कारा में अतिथि बनने का सौभाग्य मिला, सौभाग्य इसलिए भी क्योंकि हम लोगों को उसी परिसर में रखा गया जहाँ कभी श्री जयप्रकाश नारायण को रखा गया था। मेरा ब्लॉग मेरी उसी तीर्थ यात्रा पर आधारित है।

बिहार की पहली गैर कांग्रेसी सरकार

उस काल में लिखी एक स्वरचित कविता से शुरू करता हूं।

आग सी लगी है शहर में
रास्ते बंद पड़ गए हैं
कलेजे के टुकड़ो को चुनते चुनते
शाम होने को आई है

कॉलेज के दिनों की बात है, छात्रो के "हमारे जिगर के टुकड़े" कहने वालो की सरकार बिहार में आ चुकी थी। महामाया बाबू कांग्रेस के एक प्रमुख नेता थे। ICS त्याग कर स्वतंत्रता संग्राम मे कूदने वाले इस नेता को डॉ राजेन्द्र प्रसाद ने एक प्रबल वक्ता बताया था। 1960 के दशक के बिहार में कांग्रेस के 3 कद्दावर नेताओ सर्वश्री के बी सहाय, सत्येन्द्र नारायण सिंह और विनेदानंद झा के साथ इनका भी नाम लिया जाता था। 67 के चुनाव के बाद पहली बार कांग्रेस को पुर्ण बहुमत नहीं मिला और पहली बार एक संयुक्त दलीय सरकार जन क्रांति दल के नेतृत्व में  बनी महामया बाबू CM और कर्पुरी ठाकुर DyCM बने। यह सरकार एक साल चली फिर सतीश प्र सिंह की सरकार बनी। दल बदल का बोल बाला रहा और 1970 मे फिर कांग्रेस की सरकार बनी और CM बने श्री दरोगा प्रसाद राय।

हम भी छात्र आंदोलन में कूद पड़े

इसी साल मार्च या शायद एप्रिल में बिहार के अभियांत्रिकी कॉलेज के छात्रों का आंदोलन हुआ बेरोजगारी के विरूद्ध। कार्यक्रम था जेल भरो का। पटना राजधानी है इसलिए इस आंदोलन की कमान मेरे कॉलेज के अंतिम वर्ष के छात्रों पर आन पड़ी। मेरी या हमारी अंतिम परीक्षा में कुछ महीने बाकी थे मेरी बड़ी दीदी इलाज के लिए पटना आई हुई थी और मुझे इस कारण आंदोलन में भाग लेने से छूट दे दी गई थी। फिर भी मै रोज सचिवालय में धरना देकर जेल जाने वाले ग्रुप को विदा करने जाया करता था। पर जब एक ग्रुप में जब हमारे कुछ दोस्त माला लगा धरने पर बैठे तो मै अपने को रोक नहीं नहीं पाया और मैने भी माला पहन लिया। हम लोगों को बस में बैठा कर बांकीपुर जेल ले जाया गया। हमें पहले लोअर ग्रेड राजनितिक कैदी के रूप में अलग वार्ड में हमें रखा गया। Sub standard खाना मिलता, और टायलेट, पानी इत्यादि की limited सुविधा ही मिलती थी। हम लोग घर वालो या दोस्तो (Visitors) से साबुन कंघी, बिस्किट वैगेरह मंगवा लेते। इन छोटी सुविधाओ के लिए आपस में झगड़े होने लगे। फिर ग्रेजुएट कैदियों को मिलने वाली B grade में Upgrade हो गए हम लोग। अब कुछ चीजें सबको मिली जैसे साबुन, ब्रश, टूथ पेस्ट। अब तक जिन चीजें हम छुपा कर रखते कि कोई मित्र मांग न ले, इधर उधर रखे मिलने लगे। खाना हमारे लिए अलग बनने लगे। लाईन लगा कर खाना लेने के बजाय पंगत में बैठ कर खाने लगे। दूध और नन वेज भी हमें मिलने लगे। अच्छे खाने के लोभ में कई कैदी हम लोगों के लिए duty में आने लगे। कूंए पर नहाने के पानी के लिए जहां पहले राशनिंग थी वहां अब कई बाल्टी पानी से हम नहाने लगे। बांड लिख कर जेल से बाहर जाने का सरकारी प्रपोजल संगठन ने ठुकरा दिया। धीरे धीरे हमारी संख्या बढ़ने लगी। फिर एक दिन हमें बसों से हजारीबाग केंद्रिय कारा भेज दिया गया।



हजारीबाग

रास्ते में बरही के आसपास एक नदी के पास बस रोकी गई ताकि हम सुबह के नित्य कार्य कर सकें (Fresh हो सके)। साथ में चल रहे कांस्टेबल इस फिक्र से निश्चिंत थे कि कोई भागेगा । खैर हम केंद्रिय कारा पहुंचे और हमें उसी परिसर में रखा गया जहां स्वतंत्रता सेनानियों को रखा जाता था। अगले दिन हमारे कपड़े का नाप लिया गया, मै तो डर गया कि कैदियों वाला धारीदार ड्रेस पहनना पड़ेगा। पर अगले दिन एक जोड़ी खादी का सफेद कुर्ता पायजामा, एक पेयर बाटा का जुबली चप्पल, 2 चादर और एक मच्छरदानी सभी को मिले, शायद एक छोटा बैग भी था। अपर क्लास कैदी को मिलने वाले खाने का मेनु कोई ले आया। हमें रोज 1 पाव दूध, एक पाव मटन/मछली/चिकन चावल, दाल, रोटी, अंडे, मिठाई मिलने लगे। सुबह गिनती होती फिर दिन भर हम जेल में घूमते रहते। सिर्फ रात में हमारा हॉल (वार्ड) बंद किया जाता। जमीन पर दरी चादर बिछा कर हम सो जाते। जहाँ तक याद है अंदर बिजली , पंखा नहीं था, ताकि कोई कैदी बिजली पंखे से आत्महत्या न कर ले। एक खुला बिना दरवाजे वाला शौच घर अंदर था रात में उपयोग के लिए। दिन में सिर्फ एक जगह जाने की मनाही रहती जहां फांसी, उम्रकैद की सजा पाने वालों के सेल थे। एक अलग दुनिया ही थी यह। खटाल से ले कर धोबी इत्यादि सब। यानि मजे में जिंदगी चल रही थी।


इतिहास के पन्नौ से

फिर एक दिन हमारे खिदमत में लगे एक कैदी ने बताया कि श्री जयप्रकाश नारायण को भी इसी परिसर में कैद कर रखा गया था। और  यहीं से 17 फीट ऊंची दीवार को फांद कर वह भाग भी गए थे। 9 अक्टूबर 1942 को जेल की अभेद्य दीवार को फांद कर भागे थे जयप्रकाश नारायण । यह घटनाक्रम हजारीबाग सेंट्रल जेल को पूरे राष्ट्र में ना सिर्फ चर्चित कर दिया था बल्कि अंग्रेजों को हिला कर रख दिया था । JP की 17 फीट ऊंची एक प्रतिमा 2021 में लग गई है, उसके पहले तक लोग जेपी को याद करने के लिए उनकी जयंती, पुण्यतिथि और जेपी कारा से भागने की तिथि पर उनके सेल जाकर माल्यार्पण कर याद किया करते थे। उनको यहाँ बहुत यातनाएं भी दी गई थी। बर्फ के सिल्ली पर लेटा कर यातनाएं दी जाती थी, कई कई रात जगा कर रखा जाता।
हम भी JP का वह सेल देखने गए जो एक स्मारक के रूप में तब भी रखा गया था। अन्य क्रांतिकारियों के भी स्मारक है। हमें यह देखने का मौका लगा कि वे कैसे जीवट वाले रहे होगे जो उस ऊंचे अभेद्य दीवार को गार्ड के watch tower के पास से ही न सिर्फ खुद भागे, अपने अन्य साथियों - रामानंद मिश्र, शालीग्राम सिंह, सूरज नारायण सिंह, योगेंद्र शुक्ला और गुलाब चंद गुप्‍ता को भी भागने में मदद भी की। शुरुआत में जेपी समेत 10 लोगों का जेल से भागने का प्‍लान था। हालांकि, बाद में यह तय हुआ कि 6 लोग बाहर जाएंगे। बाकी के 4 गार्डों का ध्‍यान भटकाने का काम करेंगे। फरार होने वाले 6 क्रांतिकारियों में सबसे फुर्तीले योगेंद्र शुक्‍ला थे। वह तेजी से दीवारों पर चढ़-उतर लेते थे।उसी दिन दिवाली थी। जेल में ढेरों दििखे जल र‍हे थे। हिंदू वॉर्डनों को दिवाली की छुट्टी मनाने के लिए ड्यूटी से छुट्टी मिली थी। पूरे जेल में त्‍योहारी माहौल था। रात 10 बजे 6 लोग जेल के आंगन में पहुंचे। यह समय इसलिए चुना गया था क्‍योंकि वॉर्डन रात का भोजन करने के बाद अक्‍सर सिगरेट या पान खाने के लिए जाते थे। डिनर टेबल दीवार के पास रखी गई थी। शुक्‍ला घुटनों पर झुककर टेबल के ऊपर बैठ गए थे। एक दल वॉर्डनों पर नजर रख रहा था। इसके बाद सूरज नारायण सिंह के पेट के चारों ओर धोती लपेटी गई। 56 धोतियों का इस्तेमाल किया गया। गुलाब चंद, शुक्‍ला की पीठ पर चढ़े और सूरज गुलाब के कंधों पर चढ़कर दीवार पर चढ़ गए। चंद मिनटों में देखते ही देखते सभी क्रांतिकारी जेल के बाहर थे। ब्रिटिश साम्राज्य की बहुत फजीहत तब हुई जब 2 बटालियन को देखते गोली चलाने का ऑर्डर देने पर भी भागे कैदी पकड़ न आए और गया की ओर चले गए। अब इस जेल का नाम बदल कर जयप्रकाश नारायण के नाम पर कर दिया गया है । 1975 के आपात काल के समय भी JP को इतनी यातनाएं दी गई कि उन्हें ताउम्र डायलिसिस पर depend रहना पड़ा। बस इतनी ही कहनी याद रह गई।
20 दिनों बाद पटना ला कर बिना शर्त एक बांड लिखाकर हमें छोड़ दिया गया आंदोलन विफल हो गया था। नाक बचाने के लिए कुछ छोटी मांगें मानी गई।

लोकनायक जयप्रकाश नारायण अमर रहें। नमन ।

Saturday, September 3, 2022

बच्चे मन के सच्चे -1

सभी चारो एक फ्रेम में

मेरी बेटी और बेटा अपने परिवार सहित दिल्ली NCR में रहते है और हम लोग उनसे मिलने रांची से वहां आते जाते रहते हैं । हमारा रूटीन रहा हैं की दोनों नाती और पोता पोती के जन्म दिन में वहां अवश्य रहू । इस बार २०१९ का पूरा साल चल रहे इलाज के कारण वहीँ बीता, फिर COVID का दौर आ गया और हम दिल्ली में 2021 के मार्च तक वहीं रहे। COVID के पहले दौर के बाद हम रांची आ गए फिर २०२२ जनवरी में गए थे CHECK UP के लिए तब दोनों बड़े बच्चों के जन्म दिना मन आये । अभी पिछले हफ्ते (27 जुलाई 2022) मेरे छोटे नाती का जन्म दिन था और हम दोनों इस बार COVID के OMICRON वाले अवतार के चपेट में आ गए । ५-७ दिन में हम ठीक तो हो गये पर काफी कमजोरी तो हो गई। यानि हम लोग नाती के जन्म दिन में नहीं जा पाए । एक अपराध बोध सा घर कर गया है मन में। सोचा एक ब्लॉग ही लिख कर अपने जज़्बात जाहिर कर दू । तो ब्लॉग हाजिर है ।


उमंग


नाना/दादा के सबसे प्यारे दोस्त होते है उनके नाती, नातिन और पोते पोतियां , और मै कोई अपवाद नहीं । इसका अहसास मुझे तब हुआ जब मेरा बड़ा नाती और मेरी बिटिया 2007 में US से राँची मेरे पास आ गए। उनका प्लान हमेशा के लिए भारत वापस आ जाने का था। हम अपने नाती के जन्म की पार्टी रखने में व्यस्त हो गए और राँची के बाद दादा दादी ने बोकारो में पार्टी रखी। पार्टियों का दौर खत्म हुआ तो मेरी नाती - उमंग के साथ मेरे बॉन्डिंग का दौर शुरू हुआ। हम इस हसमुँख बच्चे के अदाओं में खो गए। मै उसे रोज सुबह नजदीक के नर्सरी पार्क ले जाता एक बेबी CARRIER में सामने सीने पर बांध कर, और पत्ते, फूल, चिड़िया से उसका परिचय करता गया। और वह भी इस मॉर्निंग वाक के लिए तत्पर और प्रतीक्षा रत रहता । बगल मे एक ताड़ का पेड़ था और उसके पत्ते के हवा में हिलते देख उमंग को निश्छल हँसी बेबस उठ जाती या नानी को चावल फटकते देख उसको बेबस झनकती हँसी उठ जाती, और हम लोग प्रफुल्लित हो जाते । मेरे आफिस से लौटने का उसको इंतेजार रहता जो उसकी आँखो से जाहिर हो जाता। घंटी बजते ही वह दरवाजे के तरफ घुटने के बल चलता चला आता और मैं झट उसे गोद में उठा लेता । इस खुशगवार क्षणों के कुछ ही महिने बीते कि मेरे दामाद जी ने खबर दी की USA उनका एक जॉब इंटरव्यू था जिसे AVOID नहीं किया जा सकता था और उन्होने वेतन सहित कुछ ऐसी शर्त रखी की जॉब के लिए वे रिजेक्ट हो जाय, ताकि वे परिवार के पास इंडिया लौट सके । पर कंपनी ने उनके शर्त को मान लिया और अब उन्हें वहां कुछ साल और रहना पड़ेगा और वो आ रहे है सबको US ले जाने । अब मेरा आत्म मंथन शुरू हो गया। क्या मै इस बच्चे के बिना रह सकूंगा, कैसे रहूंग़ा ? "मै नहीं रह सकता " ऐसा मेरा conclusion था। आखिरकर मेरे दामाद आ पहुंचे और जब वे लोग वापस USA जाने लगे उस दिन मुझे लगा कि वह मेरा सब कुछ ले जा रहे हैं । जाने के दिन हम लोग उन्हें छोड़ने हवाई अड्डे तक गए। मुझे रोना आ रहा था और खुद को समझा रहा था, कुछ ही साल की बात है, आ जाएगा उमंग। पहली बार बिटिया के बजाय नाती के जाने का ज्यादा दु:ख हो रहा था। जब सिक्यूरिटी के लाईन में वे लोग लग गए मै उन्हें देखता रहा। जब दिखना बंद हो गए तो सीढ़ी पर चढ़ कर देखने लगे। और जब बोर्डिंग में लाईन में लगे और ओझल हो गए तब पहली बार मेरी आँखों में एक छोटे बच्चे के जाने के कारण मेरी आँखों में आंसू थे। तीन साल बाद जब हम लोग दूसरे नाती के जन्म के समय US गए यहीं बच्चा इतनी तेजी से दौड़ता था कि हम पकड़ नहीं पाते थे । उसको एक ऐसी ट्राई सायकल पर ही घुमाने ले जाते जिसे पीछे के रॉड से उठा सकते थे ताकि वह सायकल से उतर न सके। एक बिल्ली के पीछे ऐसा भागा कि नानी के पकड़ से दूर पेड़ों के जंगल को पार कर गुम हो गया। शुक्र है कि उस पार एक पार्क था जिसका रास्ता उसे मालूम था और वो वही रुक गया और नानी के जान में जान आई। कई यादें उमंग के उस मासूम उम्र की जुड़ी है।


सिद्धान्त

दूसरा grand child जो हमारी जिंदगी में आया वह है मेरा पोता सिद्धांत या सिड। जब वह साल भर का था तब हमलोग दिल्ली आए थे। उसका जन्मदिन धूमधाम से मना। तब मेरा बेटा और बहू दोनो नौकरी कर रहे थे और सुबह सुबह ऑफिस निकल जाते । सिद्धांत के मामा, मामी भी तब साथ ही रहते थे। सभी के आफिस जाने के बाद सिड के साथ सिर्फ हम दोनो और उसकी मामी रह जाती थी। अभी सिड का डे केयर जाना शुरू नहीं हुआ था। हमसे काफी घुलमिल गया था। मै उसे रोज पास के एक पार्क में ले जाता और उसका समय दादू और दादी के साथ मजे में कट रहा था। तभी वह दिन भी आ गया जब हमें वापस लौटना था (तब मै रिटायर नहीं हुआ था) । स्टेशन जाने के लिए टैक्सी बुला रखी थी। सबके ऑफिस जाने के बाद दोपहर के बाद हमारी टैक्सी आ गई। सब समान नीचे भिजवा कर हम लोग भी नीचे उतरे सिद्धांत दादी के गोद में था। पहले मै बैठा फिर उसे मामी के गोद में दे कर दादी भी टैक्सी में बैठ गई। फिर जैसे ही टैक्सी का दरवाजा बंद हुआ उसका चेहरा ठिसुआ सा गया। बच्चे ने शायद सोचा होगा वह दादा, दादी के साथ टैक्सी में जाने वाला है। उसके चहरे का भाव था "YOU CHEAT" या फिर "मुझे भी जाना है, या बस "ना जाओ"। उसके मन में चल रहे इन विचारो ने हमें चुप करा दिया, एक दूसरे से कुछ न बोल पा रहे थे हम। यदि बोल लेते तो जरूर ट्रेन छोड़ देते। ट्रेन में एक घंटे बीतने के बाद ही हम धीरे धीरे सामान्य हो पाए।

एक दूसरी भी घटना याद आ रही है। सिद्धांत शायद दो ढ़ाई साल का था जब वह राँची आया था। राँची में उसकी तबियत खराब हो गई। डाक्टर नें तीन दिन के लिए एक इंजेक्शन लिख दिया। एक कम्पाऊंडर को ठीक कर दिए कि रोज घर आकर सुई लगा दें। पहले बार उसे शायद आईडिया नहीं था और बिना कुछ नखरा किए वह सुई लगवाने बैठ गया। जब सुई लगा तो थोड़ा रोया। दूसरे दिन वह बहुत खुश था और जॉनी जॉनी राइम सुना रहा था। जॉनी जॉ...तक ही बोल पाया था, उसका मुंह खुला ही था कि उसे घर मे आते कंपाउंडर साहब दिख गए, उसका मुंह कुछ पलो के लिए खुला ही रह गया, मुझे दया और हंसी दोनो आ रहे थे पर उसने बिना रोए सुई लगवा भी लिए।

क्रमश:

Wednesday, August 3, 2022

पेट पेरेंटिंग और हमारी प्यारी बिल्ली कटरीना


बहुत दिनों बाद लिखने बैठा हूँ । क्षमा करें । Pet parenting का एक अलग ही जज्बा होता है, और मेरा मकसद उन पर कटाक्ष करने का नहीं हैं। पर मै शुरू करता हूँ आज सुबह के मॉर्निंग वाक के दौरान देखे गए एक दृश्य से। मै जब कार्मेला इन्क्लेव (डिबडीह रांची) के पास से गुजर रहा था तब मैने देखा एक आदमी एक पूंछ कटे लम्बे थूथन वाले कुत्ते को (Breed हमें पता नहीं Dachshund जैसा ही लग रहा था) को गेट से बाहर लाने पर उसके Leash को खींच कर उसे दूर ले जाना चाहता था पर शायद उसे कुछ जल्दी थी और उस कुत्ते ने अपने मालिक के इच्छा के विरुद्ध गेट के पास ही मल त्याग कर दिया ।



Dachshund image curtsey wikipedia

मै समझ सकता हूँ , मै क्या हर मनुष्य समझ सकता है कि जब लगी हो और आसपास शौचालय न हो तो कैसी स्थिति होती है। जिन लोगो ने भारत में लम्बी दूरी के बस में यात्राएं की है वे तो अवश्य वाकिफ होगे और मुझसे जरूर इत्तेफा़क रखते होंगे। दूसरी बात कि पालतू कुत्ते की खुराक भी काफी ज्यादा और गरिष्ठ होती है, मालिक चाहे खुद शाकाहारी हो कुत्ते को नन वेज डॉग फुड जरूर खिलाता है। अब उन्हें इतना खाने के बाद दिन में सिर्फ एक या दो बार मल-मूत्र त्याग करने का अवसर मिलता हैं शायद यह एक प्रकार की क्रूरता ही हैं । खैर मैं सोचने लगा क्या उन लोगो के तरह जिन्हे कब्ज रहता है या जो मसालेदार गरिष्ठ खाना कहते हैं अक्सर बबासीर से पीड़ित हो जाते हैं, तो क्या पालतू कुत्तों में भी यह बीमारी होती हैं ?

मैंने भी एक बार PET PARENTING की है । और उसीका विवरण मैं नीचे दे रहा हूँ । १२ साल पहले का आज का दिन याद आ गया । दो-तीन महीने पहले मेरी पत्नी एक बिल्ली के बच्चे को जिसको उसकी माँ ने हमारे निर्माणाधीन घर के खुदे नींव में छोड़ दिया था, घर ले आई थी । दो -तीन दिन तक वह बच्चा असहाय पड़ा रहा था और उन दो दिनो तक उसका जिन्दा रह जाना एक miracle ही था । अक्सर बिल्ले ऐसे बच्चे को मार डालते हैं । बिल्ली के बच्चे को घर ले आना मुझे एकदम पसंद नहीं आया और मैंने अपनी राय बता भी दी पर एकदम से तो मैँ भी मना भी नहीं कर पाया । बिल्ली का वह बच्चा हमारे यहाँ पलने लगा । पहले दूध बूँद बूँद पिलाया गया फिर बोतल से और वो मरियल सा बच्चा ठीक ठाक लगने लगा । घर के पुराने सामने जैसे डब्बों के साथ खेलने लगा और लोगों का अटेंशन भी खोजने लगा । उसका म्याऊ म्याऊ घर में गूंजने लग गया और सभी के साथ मैं भी उस से जुड़ने लगा गया। घर में अंडा का आमलेट बनने पर वह पागल सी हो जाती और म्याऊ म्याऊ करते करते मेरी पत्नी के चारों तरफ घूम घूम कर ऑमलेट मांगती और जब तक न मिले ऐसा ही करती । हम सब उसके मोह में पड़ गए थे । तभी मेरी पत्नी को USA जाना पड़ा मेरे छोटे नाती के जनम के समय और बिल्ली का यह बच्चा जिसे हमने नाम दिया था "CATRINA " मेरे और मेरे भतीजे के साथ अकेला रह गया और मैं उससे और अटैच हो गया ।जून में मैं रिटायर हो चुका था और अब सारे समय CATRINA के साथ खेलते बीतता । कभी कभी उसे नहा देता, शैम्पू कर देता था तो वह मस्त सो जाती ऐसे पेट सहलाने पर भी अक्सर सो जाती । धीरे धीरे वह फैमिली का हिस्सा कब बन गई पता भी नहीं चला ।
फिर जुलाई (२०१०) आ गया और हमें गोआ जाना था भतीजे के एडमिशन के लिए जिसके तुरंत बाद मुझे भी USA जाना था । इस नन्ही जान को किसके भरोसे छोड़ जाऊ ? इस प्रश्न का उत्तर नहीं था हमारे पास । मैंने NOTICE किया था की किराने के दुकान वाले बिल्लिया पालते हैं ताकि वे चूहे मार सके । आईडिया अच्छा लगा और आस पास की सभी दुकान वालों से पूछ लिया । कोई रखने को तैयार न हुआ । मैंने फिर PET CARE सेंटर का पता लगाया । रांची में कम ही थे पर गूगल कर एक PET CARE CENTRE खोज निकला । उससे फोन पर बात की तो पता चला करीब 15 हज़ार महीने का लगेगा । यानि मेरे लौटने तक करीब ७५-८० हज़ार । यह मेरे जैसे अवकाश प्राप्त व्यक्ति के औकात से बाहर था । फिर से पंसारी - किराना दुकानों के चक्कर लगाने लगा ।शायद कुछ दे ले कर मामला सेट हो जाय। काम तो नहीं बना पर एक दुकानदार के सुझाव दिया कि इसे तपोवन मंदिर के पार्क में छोड़ दे ।



हमारी कैटरीना और जिस बिल्ली को मंदिर में देख कर हम उसे अपनी CATRINA समझने लगे
नीचे दिए लिंक पर क्लिक कर विडियो देखे।
एक यू टूयब विडिओ हमारी कटरीना in Happier days

वहां कई बिल्लिया रहती हैं पल जाएगी । मुझे अच्छा नहीं लगा क्योंकि एक दिन जब गलती से यह घर से बाहर निकल गई थी तब एक बिल्ले ने इसे घायल कर दिया था । मैँ समय पर पहुंच गया नहीं तो शायद मार ही डालता । पर मेरे पास कोई ऑप्शन नहीं था इस लिए हम उसे एक बैग में डाल कर मंदिर ले गए । पार्क में बैग से निकाल पार्क में रख दिया । नए माहौल में उसका ध्यान हम पर से थोड़ी देर हटा और हम वहां से जल्दी जल्दी कार के तरफ जाने लगे । उसके म्याऊ म्याऊ तुरंत शुरू हो गया जैसे हमे खोज रहा हो या बुला रहा हो । मेरे कदम रुक गए पर मेरे भतीजे ने मुझे वापस जाने से रोका । अपने जज़्बात पर मैंने किसी तरह काबू पाया । हम लोग उसे मंदिर में छोड़ कर आ गए । मन में कई विचार उभर रहे थे । क्या खा रहा होगा ? शायद कोई उसे घर ले जाय । किसी बिल्ले ने उसे घायल या मार तो नही दिया होगा । ऐसे बेचैनी लिए हम गोवा चले गए और वहां से आने के बाद मैं US चला गया । कुछ महीनो बाद US से लौटने के बाद एक बार मंदिर गया । उसी रंग की एक बिल्ली दिखी । शायद वही है सोच कर मैंने मन को मना तो लिया पर अभी भी एक अपराध बोध से ग्रसित हूँ ।

Sunday, May 22, 2022

चाय को चाय ही रहने दो भाग-१



Lemon and Tulsi Tea
चाय को चाय ही रहने दो भाग 2
चाय को चाय ही रहने दो भाग 3

कल अंतरराष्ट्रिय चाय दिवस था। भला हो सोशल मिडिया का नहीं तो इतने अंतरराष्ट्रिय दिवसों का पता ही नहीं चलता। अपन को तो सिर्फ गणतंत्र दिवस और स्वतंत्रता दिवस ही पता था। खैर यदि चाय दिवस आने ही वाला था तो दो तीन दिन पहले ही बता देते हम एक original यानि शुद्ध , खालिश पत्ती वाली चाय पी कर चाय दिवस मना भी लेते वर्ना हम तो रोज तुलसी अदरक चाय ही पीते है। हमारे यहाँ चाय तो कोई कोई ही पीता है, पर बुलाते सभी को चाय ही है। ईलायची चाय, जास्मीन चाय, नीली चाय, हरी चाय, फूल पंखुड़ी की चाय, हर्बल चाय और सबसे प्रसिद्ध काली नमक, चाट मसाले वाली लेमन टी। चाय, चहा, चा, टी भारत का सबसे लोकप्रिय पेय है चाहे जैसे पीऐ । पर मै कहता हू हर गरम पेय को चाय तो न बोलो । पहले ब्राउन रंग की पेय को (coke को छोड़ कर) चाय बुला लेते थे तब तक ठीक था अब तो नीली, पीली,हरी लाल सभी को चाय बुला लेते है। कोई और नाम रख लो भई, चाय को चाय ही रहने दो। खैर देर से ही सही पता लग ही गया कि कल अंतररष्ट्रीय चाय दिवस था, तो एक ब्लॉग तो बनता है चाय पर। हाजिर हैं ।



Blue Aprajita Flower Tea

सबसे पहले मै बताना चाहता हूँ कि जब 2007 में जर्मनी में आयोजित एक औद्योगिक प्रदर्शनी में भाग लेने वाली टीम के सदस्य के रूप में मुझे चुना गया तो मैं खुश था यह मेरी पहली ऑफिशियल विदेश यात्रा थी जिसमें मैं काम करने नहीं बस कुछ देखने जा रहा था। अन्य सभी विदेश यात्राओं में कमोबेश कुछ करना ही पड़ा था। ऐसे प्रदर्शनी में भाग लेने आए कई अन्य कम्पनी से बहुत से पुराने मित्र, और कुछ सिनियर से interact करने और दोस्ती renew करने का मौका मिला। कुछ नयी तकनीक देखने, सीखने का मौका भी मिला । शायद मेरी कम्पनी भी यहीं चाहती थी । प्रदर्शनी में भारतीय और चाईनीज कम्पनियों के बहुत सारे स्टॉल थे और विजिटर भी ज्यादा इन्हीं दो देशों से आए थे। हम लोग कुछ ग्राहकों के जैसे SAIL के सलाहकार थे, इसलिए विजिटिंग कॉर्ड देखते ही हर काऊंटर पर हमारी खातिर खूब होती । और चाय या कॉफी तो हर जगह जरूर पूछते ही थे लोग । मेरा चॉइस हर बार चाय ही होता। घूमते घूमते मै एक चाईनीज कंपनी के काउंटर पर पहुंच गया और चाय या कॉफी पूछने पर चाय की मांग कर डाली । पहली बार टी बैग की जगह फूल के पत्तियों वाली टी बैग मिला । एक सिप लेते ही कहीं थूक आने का मन करने लगा। Embarassed चीनी अगल बगल के स्टॉल से असली टी बैग लाने का कोशिश में लग गए, चीनी लोग कैंटीन से लाने में लगते उसके पहले हम उन्हें मना कर आगे बढ़ गए तांकि दूसरे स्टॉल पर मुंह का स्वाद दुरुस्त कर सकें।


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Tea factory and tea garden in Shri Lanka 2009, Munnar 2013

आइए अब चाय के इतिहास के बारे में कुछ जानने की कोशिश करते हैं और यह भारत में इतना लोकप्रिय कब और कैसे हुआ इस पर भी गौर करने की कोशिश करते हैं । 1820 के दशक की शुरुआत में, ब्रिटिश ईस्ट इंडिया कंपनी ने असम, भारत में बड़े पैमाने पर चाय का उत्पादन शुरू किया, जो पारंपरिक रूप से बर्मा की एक किस्म थी। चीनी चाय को अलग समझा जाता था । अब असम की चाय एक मिक्स वैरिएटी की चाय हैं। चीन का चाय पर एकाधिकार करीब हज़ार वर्ष का था और इसे वे किसी तरह अपने देश के बाहर नहीं जाने देना चाहते थे पर सन १८०० के आस पास एक स्कॉटिश बॉटनिस्ट, चीनी रईस का भेष बना कर धोखे से चाय का पौधा चीन से बाहर ले आने मे सफल हो गए, और फिर यह पौधा सारी दुनिया में फ़ैल गया । इसके हज़ारों पौधों को दार्जीलिंग के ढलान पर लगाए गए और बहुत सारे बर्बाद हो गए पर कुछ बच भी गए । दार्जिलिंग की चाय मे सिर्फ चीन से लाए पौधों या उनके वंशजों का ही इस्तेमाल किया गया और यह अपनी किस्म की अकेली सुगन्धित चाय हैं ।


आज भारत दूसरा सबसे ज्यादा चाय उत्पादन करने वाला देश है पर अपने उत्पादन का ७०-८० % देश में ही खपत हो जाती हैं । जबकि शुरूआती दिनों में महात्मा गाँधी ने चाय की तुलना कोको और तम्बाकू से करते हुए लोगों इसे नहीं पीने की सलाह भी दी थी।



पुराने प्रचार -चाय के

लेकिन स्थानीय खपत यू ही नहीं बढ़ी । ब्रिटिश चाय कंपनी और ब्रिटिश सरकार को बहुत यत्न करने पड़े लोगों के बीच चाय की तरफ झुकाव पैदा करने में । पुराने समय में मैं जब भी नवादा (बिहार) से 70 KM दूर अपने शहर जमुई बस से आता जाता था तो बस पकड़ी-बरांवा में जरूर रूकती थी लोग वहाँ का मशहूर बाड़ा (बालूशाही) खरीदने को उतरते ही थे । वहाँ एक पुराना प्रचार बोर्ड पर लिखा था "मैं और मेरा भाई पीते है रोज़ चाई " । ऐसे कई पोस्टर जिसमे कुछ चाय के लिए दूसरा मैसेज होता था, गाहे बेगाहे दिख जाते थे महात्मा गाँधी के चाय नहीं पीने की अपील के बावजूद चाय आज भारत में सबसे लोकप्रिय पेय है ।
1920 के दशक की शुरुआत में, प्रख्यात रसायनज्ञ और उत्साही राष्ट्रवादी आचार्य प्रफुल्ल रे ने चाय की तुलना जहर से करने वाले कार्टून प्रकाशित किए। बाद में, महात्मा गांधी ने अपनी पुस्तक, A key to health में एक अध्याय लिखा, जिसमें बताया गया कि चाय को कसैला बनाने वाला यौगिक टैनिन मानव उपभोग के लिए खराब क्यों था। उन्होंने तंबाकू जैसे पदार्थों के समान वर्ग में चाय को "नशीला" कहा। जब मैं बच्चा था चाय घर में रोज रोज नहीं बनती थी । सिर्फ मेहमानों के लिए चाय बनाई जाती । अब की बात करे तो बापू की बात लोगों ने नहीं मानी और आज शायद ही कोई भारतीय होगा जो चाय नहीं पीता हो ।

चाय या टी ?

चाय को आधी दुनिया चा,चाई या चाय के नाम से जानती है और बाकी आधी दुनिया टी, टा या टे। इसका कारण भी दिलचस्प है। चीन में नौवीं शताब्दी में चाय के लिए एक नया अल्फाबेट जोड़ा गया जो पहले व्यवहार में लाने वाले अक्षर (tu) के एक सोयी लाईन हटाने से बनी थी। जिसे इतने बड़े चीन के कुछ राज्यों में टा या टे पढ़ा गया और कुछ में चा पढ़ा गया। अब कुछ देशों में सड़क मार्ग से चाय भेजे गए और चीन के उन स्थानों पर इसे 'चा' कहा जाता था इसलिए इन देशों में इसे चा, चाई या चाय के नाम से जाना जाता है और उसी तरह जहाँ भी समुद्र मार्ग से भेजा गया, वहाँ नाम पड़ा टे, या टी। और हमारी दुनिया टी और चाय में बंट गई।
और अंत में चाय बनाने का तरीक़ा :
दार्जीलिंग चाय
एक छोटे, गर्म चायदानी में 1 चम्मच अच्छी गुणवत्ता वाली ढीली पत्ती वाली दार्जिलिंग चाय डालें। उसके ऊपर ताजा उबला हुआ पानी डालें जिसे एक या दो मिनट के लिए ठंडा होने दिया गया हो । 3 मिनट के लिए प्रतीक्षा करे । दूध, चीनी या नींबू के बिना पिएं, चाय के अनूठे और नाजुक स्वाद और सुगंध का असली मजा ले ।
अदरक वाली चाय - चा ,चाहा : घर पर भारतीय चाय बनाने का तरीका:
चूल्हे पर एक छोटे सॉस पैन में पानी, दूध अदरक और अन्य मसाले को उबाल लें। गर्मी कम करें और काली चाय डालें। चाय के उबलने का इंतज़ार करें। इस मिश्रण को मग या कप में छान लें; इससे सारे मसाले और चायपत्ती छन्नी में रह जाएगी।अपनी चाय में चीनी डालकर स्वादानुसार मीठा करें।
ऐसे जाते जाते याद दिला दूँ चाय को चाय ही रहने दो नया स्वाद न दो ।

Thursday, May 19, 2022

बेबी को बेस पसंद है


बेबी को बेस पसंद है" या "डी जे वाले बाबु मेरा गाना चला दो" मजेदार गाने है और हिंदुस्तान में हर अवसर पर फिल्मी गाने सुनने का रिवाज है या फिर ढ़ोल की धाप। आप पूछेगें "कहना क्या चाहते हो" तो कुछ कहानियाँ सुनाता हूँ।

हमारे जमाने में कोई शुभ अवसर हुआ नहीं कि ढ़ोल वाले पहुंच ही जाते थे। बड़े बड़े मोर पंख लगे ढ़ोल बजाते और ढ़ोल घुमा घुमा कर नाचते। एक खूबसूरत सा समा बंध जाता। बिहार, झारखंड या बंगाल के दुर्गा पूजा पंडाल में ढोल की थाप पर होने वाले आरती नृत्य तो बहुतों ने देखा होगा प्रत्यक्ष या फिल्मो में । दुर्गा पूजा पंडालों मे तो ऐसी आरती की प्रतियोगिता भी होती है। पर यह सब मै क्यो बता रहा हूँ ? लोक कला का ही रूप था बच्चे का जन्म हो या अन्य अवसर पमरिया के ढ़ोलक तो बजते ही थे। इन अवसरों पर होने वाला यह शोर सभी लोग पसंद करते थे क्योंकि तब लाउड स्पीकर्स या तो नहीं थे या इतने पावरफुल नहीं होते थे और सिर्फ छतों मुड़ेरो पर बाधें जाते थे कान के इतने करीब नहीं ।

आइए हम चलते है 2005 जब मै हिसार में था। मेरे एक जूनियर साथी के पहले बच्चे का पहला जन्मदिन था। मुझे भी बुलाया था और पार्टी एक बैक्येट हॉल में था। करीब 75 लोग थे पार्टी में और डी०जे० का भी इंतजाम था। केक कटने के तुरंत बाद लोगो ने डी०जे० से नृत्य संगीत बजाने फरमाईश कर दी। हम स्टेज से थोड़ी दूर बैठे थे लेकिन फुल वोल्युम संगीत से बहरे गूंगे से हो गए। जिस बच्चे के जन्मदिन पर हम जुटे थे वह लगातार रोता जा रहा था हमें पता था उसके रोने का कारण तेज शोर ही था पर उसके माता पिता उसे खिलौनो से बहलाने की बेकार कोशिश कर रहे थे। खैर खैर डिनर सर्व होने लगा और हम खा कर वापस घर पाए।
हाल में मैं एक रिश्तेदार के बिटिया की शादी में गया था । सब ठीक ठाक ही चल रहा था । शादी हो गयी थी और रिसेप्शन की पार्टी चल रही थी । म्यूजिक भी धीरे चाल रहा था इतना की सभी मेहमान आपस में बात कर सके । फिर अचानक किसी ने DJ को वॉल्यूम बढ़ने को कहा क्योंकि डांस फ्लोर पर दूल्हा दुल्हन को लाया जा रहा था । बस फिर क्या था आपस में बातें बंद हो गयी और सब खाने में जुट गए । खाने के काउंटर वाले से ठीक से पूछना भी मुश्किल था । मैं रांची में जहां रहता हूँ वह पास ही दो बैंक्वेट हॉल हैं । शादी के मौसम हो या कोई राजनितिक आयोजनों का काल हो या पर्व त्योहार कोई न कोई आयोजन रोज ही होते है। हमें रोज़ ही तेज़ म्यूजिक, बैंड बजा, आतिशबाजी को देर रात तक झेलना पड़ता हैं । एक सीनियर सिटिज़न के लिए यह सब कितना मुश्किल होता हैं जब वे ढंग से सो भी नहीं पाते । इस तरह के बैक्वेट हाल रिहाईशी ईलाकों में होने नहीं चाहिए, या फिर शोर कम करने का कोई नियम होना चाहिए और पालन भी किया जाना चाहिए। जब जर्मनी में एक एपार्टमेंट मे था तो बगल वाले पड़ोसी के मेरे रेडियो बजाने पर भी आपत्ती थी। शोर पैदा करने वाले रिपेयर भी सिर्फ शनिवार,रविवार को ही allowed था।


मुझे ऐसा लगता है कि हम लोग सिर्फ शोर ही नहीं करते है, हम लोगों को दूसरे को परेशान करने का या यह दिखाने कि हम किसीकी परवाह नहीं करते है का additional kick भी मिलता है। बारात यदि आपके कार के आगे आगे चली जा रही है तो आपको निकलने की जगह नहीं देगें। यू,तो हम खुद ही कहते रहते है पब्लिक रोड पर ये न करो वो न करो encroach न करो, गंदगी न फैलाओ, लेन में चलों इत्यादी, पर खुद पर आती है तो बारात के आगे घंटो नागिन डांस कर रोड ब्लॉक कर देते है। लोग भी आदी हो गए है, इतने कि जब कभी कोई बारात आपको निकलने की जगह दे देता है तो आप कितने आभारी महसूस करते हैं जबकी यह आपका हक है। सोच के देखिए अनेकों ऐसी घटनाएँ आपको भी याद आएगी। फिर भी भरोसा है कि कभी तो तो लोग दूसरों को होने वाली असुविधा को समझेंगे। देखूं कब तक शोर इतना कम होगी कि इसे pollution नहीं माना जाएगा, कभी होगा क्या ? पर तब तक क्या करे ? बेबी को बेस पसंद है और वह DJ वाले बाबू को अपना गाना चलाने को कह जो रही है ।

बस प्रतिक्षा किजिए।

कुकुर मुत्ता


आप शायद सोच रहे होगें कि मै Mushroom के बारे में कुछ लिखने वाला हूँ पर नहीं एकदम नहीं...पर कुकुरमुत्ता को कुकुरमुत्ता क्यो कहते है यह तो आप जानते ही होगें ।



हम दो महीने पहले रांची से दिल्ली एनसीआर गये थे और इसलिए बहुत दिनों बाद ही मैने फिर ब्लॉग लिखना शुरू किया हूँ । रांची में मैं रोज़ाना मॉर्निंग वाक पर जाता रहा हूँ और वहाँ (Gaur Saundaryam (ग्रेटर नॉएडा वेस्ट ) या इंदिरापुरम पर भी मेरा यह रूटीन जारी रहा । Gaur Saundaryam में काफी हरियाली है कई पार्क, खेल के कोर्ट / एरिया, स्विमिंग पूल और एक मंदिर है और सफाई का भी अच्छा इंतेज़ाम हैं । मेरा पुत्र यही रहता हैं मेरी पुत्री भी नज़दीक ही इंदिरापुरम में रहती हैं । खैर अब मैं आता हूँ आज के टॉपिक पर। एक सुबह मेरे साथ एक सज्जन लिफ्ट में मिले जो एक कुत्ते को "कुकुरमुत्ते" के लिए ले जा रहे थे यानि कुत्ते को सुबह की वाक पर ले जा रहे थे । पालतू कुत्तों की यह मजबूरी हैं की उन्हें दिन में सिर्फ एक ही बार, किसी किसी को 2 बार मौका मिलता हैं हल्का होने के लिए । और जरूरी नही की जगह उसके choice का ही हो। शायद ही पोल, खम्भे, कार टायर उन्हे मिले श्रद्धा सुमन चढ़ाने को। इस सोसाइटी में कुत्ते के मालिक को ही कुत्ते के पूप को उठाना पड़ता । यह एक अच्छा सिस्टम हैं जो मैंने काफी पहले 2007 में USA में देखा था । जबकि 1983 के जर्मन ट्रिप में कहीं कहीं dog shit दिख जाता था।
अब वापस लिफ्ट में चलते हैं । मैंने पाया की डॉगी कुछ अलग था और उसके ब्रीड को मैं पहचान नहीं पा रहा था । ऐसे बहुत कम ब्रीड को ही मै पहचानता भी हूँ इसलिए मैंने कुत्ते के मालिक को उसके ब्रीड के बारे में पूछ लिया उसका उत्तर बहुत ही चौकां देने वाला था। "मुझे भी नहीं मालूम" ज्यातादर डॉगी के foster parent को उसके ब्रीड पर घमंड सा होता है और गुगल से पढ़ कर भी पता कर लेते है। और इतने घने बालो वाले आकर्षक कुत्ते के बारे में मालिक को ही नहीं पता ? खैर कुत्ता पालने के 'पलटन' का नया रंगरूट होगा। ऐसा नहीं कि कुत्ता मुझे पसंद नहीं , लेकिन मुझे वे तभी तक पसंद है जब तक पट्टे में हो और मालिक के कन्ट्रोल में हो। छुट्टे कुत्ते से मै डरता हूँ (एक बार धोखे से एक कुत्ते नें कांट लिया था) और मोती हो, ड्यूक हो या व्हिस्की दोस्ती की पहल मै नहीं करता। यदि खुद पूंछ हिलाने लगे तो हिम्मत कर थप थपा सकता हूँ। भई माना यह आपके बेटे जैसा है पर मैं इससे कोई रिश्ता नहीं रखना चाहता। ऐसे सुना है इन street dogs को भी property rights होते है। क्योंकि ये territorial होते है। गाहे बे गाहे कोर्ट पुलिस भी हो जाती है इनके चलते (पूछता हूं बकरी की कोई right नहीं होती क्या ? उसके बच्चों को तो खुद तो खाते ही हो ईन कुत्तो को भी खिलाते हो) खैर इस सोसाईटी में कोशिश की जीती है कोई राह चलता डॉगी अंदर न आ जाय और अपने रिहायशी हक का दावा न कर बैठै। खैर वापस लिफ्ट की ओर चलते हैं। मैने उस सज्जन को लानत भेजी और आगे निकल लिया। लेकिन मेरा मन उस बेचारे बेजुबान पर ही अटका पड़ा था। इसके बाल क्यो नहीं ट्रिम करवाते है इस गर्मी में ? एक बार नजदीक के Pet care shop के पास कुछ काम से जाना पड़ा तो उन लोगों का एक leaflet सरसरी निगाह से देखने का मौका मिला। Dog grooming का दाम लिखा था 400-800 रूपया। शायद यह एक कारण हो। जहाँ कोविड काल में लोग अपने बाल घर पर काटने के आदी हो गए है वो कुत्ते का बाल तो खुशी खुशी खुद काट ही लेगे।
मै रोज लोगों को कुत्तों को सुबह शाम घुमाने ले जाते देखता हूँ। कुछ आलसी लोग इस काम के लिए अपने घर में काम करने वाली maid को भी लगा देते है। मै सोचता इनकी bonding कैसे बनेगी। कभी कभी किसी उम्र दराज व्यक्ति को भी कुत्ते को चराने sorry टहलाने ले जाते देखता हूँ। एक बार एक छोटा से कुत्ते को एक sr citizen औरत टहला रही थी..अरर कुत्ता ही उसे टहला रहा था क्योंकि कुत्ता ही उन्हें घिसियाते ले जा रहे थे जहाँ तहाँ और वे सिर्फ यह कहते उसे खींच रहीं थी "पगली कहाँ ले जा रही हमें इधर चल इधर। " बेचारी ! उस डॉगी की दादी कितनी लाचार थी। खैर मै अब राँची में हूँ। मेरे दो पड़ोसी के पास भी कुत्ते है, एक तो भेड़िया ही है, और दूसरा next door neighbour का लैब्राडोर है जो हमें देखते ही भूंकना शुरू कर देता है और कोई response नहींं मिलने पर थक कर चुप हो जाता है। शायद हमसे दोस्ती करना चाहता होगा। दूसरे दो कुत्तों को लेकर दो नौकर भी सुबह टहलाने निकलता है और कभी कभी हमारी टाईमिंग भी मिल जाती है। मुझे यदि दिख जाता है तब मै रोड के दूसरे तरफ चला जाता हूँ। मैने देखा है जिन लोगों ने उन कुत्तों से दोस्ती करने की कोशिश की वे उनके बदन पर सीधा चढ़ ही जाते है। डरता हूँ कहीं हमें भी नजदीक पा कर दोस्त ही नहीं समझने लगे।



भालू

ऐसा नहीं है कि मुझे किसी कुत्ते से दोस्ती ही नहीं थी। मेरे ससुराल में एक कुत्ता था भालू, उसका नाम था भई। तब काठमांडू (मेरा ससुराल) के लिए बीरगंज से सुबह सवेरे बसें चलती थी। और शाम तक ही काठमांडू पहुंचती थी, पर 1975-76 में एक बार मै अकेले यात्रा कर रहा था और 11-12 बजे तक बीरगंज पहुचां फिर भी बोर्डर पर ही एक बस मिल गई और मैं रात के 11 बजे काठमांडू पहुंचा। तब रिक्शा भी चलता था पर कोई रिक्शा या टैक्सी नहीं मिला और मजबूरन मुझे पैदल ही घर तक जाना पड़ा। जैसा डर था गली में घुसते ही कसाई टोल के खतरनाक कुत्ते पीछे पड़ गए । मै डर रहा था पर बिना panic में आये घर के नजदीक तक पहुँच गया। तब ही भालू आ गया और महीनों बाद मिलने पर भी मुझें पहचान गया। फिर तो गली के सारे आवारा कुत्ते भाग गए क्योंकि ये वाला एरिया भालू का था । भालू के बारे में बहुत सी कहानियाँ है कभी उस पर ही ब्लॉग लिखूगां। अभी के लिए बस इतना ही।

Tuesday, May 17, 2022

सुल्लूरपेट और आस पास २००३... भाग २ (#यात्रा)


पिछले भाग में मैंने लिखा था की अपने सुल्लुरपेट प्रवास के दौरान हम लोग नजदीक के कुछ और भी जगहें घूमनें गए जैसे नालपट्टू पक्षी विहार, एक गाँव जहाँ सिल्क और हैन्डलूम का काम हर घर में होता है, नैल्लोर का एक प्रमुख मंदिर । उनके बारे में प्रस्तुत हैं यह ब्लॉग ।
मेरे सहकर्मियों की पत्नियां एक छोटे गॉव के दुकान से हैंडलूम और रेशम की साड़ियां खरीदने जाया करती थी और उन्हें पता चला की नज़दीक के एक गावं में हर घर में कपड़े बुने जाते हैं । एक दिन हमने उस गावं को देखने का फैसला किया । पता चला वह बुनकरों गॉव सुल्लुरपेट से करीब १६ km दूर हैं नाम है करिपक्कम। बस क्या था एक रविवार हम चल पड़े । रास्ते में देखा (२००२ की बात हैं ) हर गांव में स्कूल थे बिजली थी । फख्र की बात थी आंध्र प्रदेश के लिए । खैर करिपक्कम पहुंचने पर वहां के मुखिया से मिले और उन्होंने सारे गॉव का सैर करवाया । शायद ही कोई ऐसा घर होगा जहां कपड़ें बुनने का करघा न हो । सूती और रेशमी दोनों तरह के कपडे बुने जाते थे वहां । एक दुकान भी थी वहां जहाँ कपड़े ख़रीदे जा सकते थे और हमने ख़रीदे भी बहुत सारे । यहाँ बुने सिल्क या कॉटन साड़ी को पतुर साड़ी कहते हैं , क्योंकि पतुर नज़दीक का एक ऐसा ही बुनकरों का एक गावं हैं ।



दूसरी जगह जिसका ज़िक्र मैं करने वाला हूँ वह हैं नालपट्टु पक्षी विहार यो तो हम रोज़ पुलिकट लेक क्रॉस कर साइट जाते और रोज़ जल पक्षी देखते पर नेलपट्टु का अलग महत्त्व था । यह हमारे मकान से करीब २० km दूर नेल्लोरे के रास्ते में था और हम वहां दो बार गए । इस अभयारण्‍य में कई प्रकार के अनोखे पक्षी देखने को मिलते है जैसे - लिटिल कोरमोरंट, पेंटेड स्‍टॉर्क, वहइट आईबिस और स्‍पॉटेड बिल्‍ड पेलीकन आदि। इस अभयारण्‍य की यात्रा का सबसे अच्‍छा समय अक्‍टूबर से मार्च के दौरान होता है। इस अवधि में कई सुंदर चिडियों को निहारा जा सकता है। टी स्पॉट-बिल पेलिकन के लिए एक महत्वपूर्ण प्रजनन स्थल है। नेलापट्टू में दो प्रमुख plant समुदाय हैं, बैरिंगटनिया दलदली वन और दक्षिणी शुष्क सदाबहार झाड़ियाँ। नेलापट्टू पक्षी अभयारण्य में लगभग 189 पक्षी प्रजातियां पाई जा सकती हैं, जिनमें से 50 प्रवासी हैं। स्पॉट-बिल्ड पेलिकन के अलावा, यह ब्लैक-हेडेड आइबिस, एशियन ओपनबिल, ब्लैक-क्राउन नाइट हेरॉन और लिटिल कॉर्मोरेंट के लिए एक महत्वपूर्ण प्रजनन स्थल है। अभयारण्य में आने वाले अन्य प्रवासी जल पक्षियों में यूरेशियन कूट, भारतीय स्पॉट-बिल्ड डक, ग्रे हेरॉन वैगेरह शामिल हैं।



तीसरी जगह जिसके बारे में मैं बताना चाहता हूँ वह नेल्लोर का एक प्रमुख मंदिर हैं । श्री रंगंथास्वामी मंदिर भगवान रंगनाथ को समर्पित है जो भगवान विष्णु के विश्राम स्वरूप हैं। यह मंदिर, जिसे तलपागिरी रंगनाथस्वामी मंदिर या रंगनायकुलु भी कहा जाता है, नेल्लोर के सबसे पुराने मंदिरों में से एक है। यह पेन्ना नदी के तट पर स्थित है और माना जाता है कि इसका निर्माण 12वीं शताब्दी में हुआ था। मंदिर के मुख्य प्रवेश द्वार के ठीक पहले एक गोपुरम है, जिसे गैलीगोपुरम कहा जाता है, जिसका शाब्दिक अर्थ है "हवा का गोपुरम"। यह गोपुरम लगभग 70 फीट ऊंची है और इसके ऊपर 10 फीट सोने की परत चढ़ा हुआ है, जिसे कलशम कहा जाता है। गोपुरम का निर्माण येरागुडीपति वेंकटचलम पंथुलु ने करवाया था। हर साल मार्च-अप्रैल के महीने के दौरान एक भव्य त्योहार मनाया जाता है। इन्हें ब्रह्मोत्सवम कहा जाता है।



जब बात निकली है तो उस समय चेन्नै के साप्ताहिक ट्रिप के बारे में जरूर बताऊंगा। सबसे पहले तब की बात जब हमारे छोटे बहनोई चेन्नै शिफ्ट किए। अकेले आए थे। एक उपनगरीय मोहल्ले में एक घर किराए पर ले लिया था। एक दिन रविवार को उनके बुलावे पर हम लोकल ट्रेन पकड़ कर उनके यहाँ पहुच गए । वे हमें स्टेशन लेने आए और हम दस मिनट में मकान के दरवाजे पर खड़े थे। दरवाजा pull to lock वाला था। और अब शुरू हुआ चाभी खोजने का episode. जब सारे पॉकेट ढ़ूढ लिया तब यह कनफर्म हो गया कि चाबी घर के अंदर ही रह गया। बहनोई जी ने कहा पड़ोसी के यहा डुप्लीकेट चाभी रखा है। पर भगवान जाने क्या चाहता था। पड़ोसी के यहाँ सिर्फ बुढ़ी सास घर पर थी और उन्हें पता ही नही था कि चाबी कहाँ है। बहुत सारी चाबियाँ हमारे पास ला कर रख दी उन्होंने । उसमें कोई घर की चाभी नहीं थी। खैर जब हम घर के अंदर न जा सके तो हम लोगों ने समय बिताने के लिए फिल्म देखने और बाहर खाने का निश्चित किया और एक बेकार सी फिल्म देखी और अगली ट्रेन से सुल्लुरूपेट लौट गए। बहनोई साहब ने चिकन बना कर रखा था जो शायद बर्बाद ही हुआ होगा क्योंकि उनका फ्रिज तब तक आया नहीं था। हम लोग अपने चेन्नै ट्रिप में सर्वणा मार्केट जरूर जाते जहाँ तकरीबन सभी घरेलू चीजें बहुत कम दाम में मिल जाते थे और लूट जैसा माहौल बन जाता था। फुड कोर्ट में खाना भी सस्ता और स्वादिष्ट होता था और आईस क्रीम भी गजब का मिलता था। आग लगने की एक दुर्घटना और उससे उपजे कानूनी दिक्कत के कारण सर्वणा स्टोर तब बंद हो गया था। शायद अब खुल गया है जैसा गुगल बाबा बता रहे है।



मेरा ये ब्लॉग पूरा नहीं होगा यदि मैने पंजाबी ढ़ाबा के बारे में नहीं बताया। यह ढ़ाबा 3-4 km दूर नेल्लोर के रास्ते में था और आटा की (तवे वाली या तंदूरी रोटी) और उत्तर भारतीय स्वाद वाली veg, पनीर की सब्जी, दाल तड़का वैगेरह के लिए हमारे सहकर्मियों ने इस ढ़ाबे को खोज निकाला। हम गाहे बेगाहे रात का खाना यहाँ खाने आ जाते अक्सर एक ग्रुप में और चारपाईयो पर या कुर्सी पर बैठ कर खाते। ढ़ाबा का मालिक दाढ़ी बढ़ाए और सर पर पगड़ी बांधे पंजाबी जैसा दिखता। हम बहुत दिनों तक इसे authentic पंजाबी ढ़ाबा ही समझते रहे। लाजवाब पनीर की सब्जी, गरम गरम रोटी और दाल तड़का हमारा विश्वास मजबूत ही करता। पर एक दिन उसे किसी ने भोजपुरी में अपने नौकर को डांटते सुना तो हम उससे पूंछ बैठे। हमारा अनुमान सही निकला जब उसने बताया कि वह बिहार से है और पंजाबी ट्रक ड्राईवर को आपने ढ़ाबे पर रोकने के लिए ही उसने ढ़ाबे का नाम और अपनी हुलिया पंजाबी की भांति कर रखा है। पता नहीं यह ढ़ाबा है या नहीं क्योंकि रोड एक्सप्रेस हाई वे में तब्दील हो रहा था और एक्सप्रेस हाई वे किनारे ढ़ाबा तो नहीं रख सकते।



पंजाब ढाबा. सुलुरुपेट नेल्लोरे रोड

Saturday, May 14, 2022

सुलुरपेटा के आस पास या थोड़ी दूर तक 2003- प्रथम भाग ( #यात्रा)


मेरी घुमक्कड़ी में सुल्लुरपेट का बड़ा स्थान हैं। 2000-2003 के बीच मै श्रीहरिकोटा में पोस्टेड था। श्रीहरिकोटा में family accommodation नहीं था इसलिए हम और कई सहकर्मी सुलुरपेट में किराए के मकानों में रहते थे। हम भी स्टेशन से सिर्फ 200-300 मीटर दूर एक किराए के मकान में रहता था। हमारे श्री हरिकोटा ऑफिस के हेड श्री राजेश गुप्ता जी भी नजदीक ही रहते थे। हमलोग कम्पनी कार से ही साथ साथ रोज 25 km दूर श्रीहरिकोटा स्थित प्रोजेक्ट ऑफिस जाते और कुछ ही दिनों में पारिवारिक रिश्ता बन गया उन लोगों से और हमारा 4 लोंगों का एक घुमक्कड ग्रुप बन गया। चैन्नै का तो हर रविवार को प्रोग्राम बन ही जाता था, वहाँ मेरी छोटी बहन जो रहती थी। दूसरे मैरी बेटी-दामाद हैदराबाद में थे जबकि बेटी की पोस्टिंग बैंगलोर में थी, यानि घूमने फिरने की काफी जगहें तो थी ही बहाने भी कम नहीं थे। खैर अपने श्रीहरिकोटा - सुलुरपेटा प्रवास के दौरान चेन्नै के सिवा पांडिचेरी, श्रीकालहस्ती, तिरुपति, नेल्लोर, श्रीशैलम, हैदराबाद भी घूमने गए । नज़दीक के मदिर और सिल्क साडी बनाने वाली एक गॉव भी गए थे हम लोग । धीरे धीरे सभी यात्राओं के बारे में लिखूंगा अभी सिर्फ सलुरुपेट - श्रीहरिकोटा के बारे में बताऊंगा ।
सबसे पहले सुलुरपेट (जैसा हमने तब देखा था ) के बारे में कुछ बातें । १९९८-९९ में मेरी कंपनी, जो साधारणतया स्टील प्लांट के कार्य करती हैै, - ISRO के नए उपग्रह के लॉन्च पैड के डिज़ाइन, सप्लाई से लेकर उसके सिविल कार्य, उसे स्थापित / कमिशनिंग के काम का tender भरती है और मैं पहली मीटिंग में presentation देने भेजा जाता हूं और उस टीम का हिस्सा बन जाता हूँ । सुलुरपेट स्टेशन एक्सप्रेस ट्रैन के लिए चेन्नै से एक पहले वाला स्टेशन है । दूरी 80 km ! Site के लिए लोकल purchase या ispection हो या काम से मुम्बई, पूना वैगेरह जाना हो चैन्ने ही सबसे नजदीक शहर, स्टेशन या airport था। और वहाँ का श्रावना भवन घरेलू समानो का लोकप्रिय मार्केट। सुलुरपेट से चेन्नै के लिए लोकल ट्रैन भी चलती है । सुलुरपेट एक छोटा सोया हुआ सा क़स्बा हैं जहा तब रात में रुकने के लायक सिर्फ एक लॉज था वह भी शायद ही पसंद आये किसीको। अब सुनते है कुछ ठीक ठाक हॉटल खुल गए है । सारा क़स्बा स्टेशन के आस पास के ३-४ वर्ग की मि के दायरे में बसा हैं । कोई ३ km दूर इसरो की कॉलोनियां हैं । इसरो का "SHAR केंद्र" रेलवे स्टेशन से 20-25 km दूर श्रीहरिकोटा द्वीप पर है । जब तक यहाँ पोस्टिंग नहीं हुई थी यानि डिजाईन सप्लाई के समय टूर पर ही आते थे और इसरो के SHAR केंद्र के अंदर बने गेस्ट हाउस में रुकते थे । यह बताना जरूरी है की श्रीहरिकोटा भारत के दूसरे सबसे बड़े brackish water lagoon पुलिकट झील में है और प्रवासी पक्षियों का पसंदीदा जगह है। मैं पहली बार रास्ते में इतने सारे पिंक फ्लेमिंगो देख कर आश्चर्य चकित हो गया था ।


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सुल्लुरपेट - मन्नार पोल्लुर मंदिर - चेंगलम्मा मंदिर MAP

२००० में इसरो के दूसरे लांच पैड को स्थापित करने का कार्य ठीक-ठाक शुरू हो गया और मेरी पोस्टिंग यहाँ हो गई । मैंने अपने एक सहकर्मी जो पहले से वहां posted था को एक घर किराए पर FIX करने अनुरोध कर, राँची से मय सर सामान सुलुरपेट ट्रेन से पहुँच गए। हमारी ट्रेन रात में पहुंची, जब कोई कुली नहीं होता है इस स्टेशन पर, 1 मिनट के स्टापेज मे 19-20 नग समान मै उतार न पाता यदि मेरे मित्र न आ गए होते। घर स्टेशन के पूर्व की तरफ था और इतना करीब था की ट्रैन के आने की सिटी सुनने के बाद भी घर से चले तो चेन्नै जाने वाली गाड़ी पकड़ सकते थे । स्टेशन के आस पास से ही हम सारे सामान खरीदते थे रेल लाइन के पश्चिम की तरफ ही मुख्या बाजार था । सुलुरपेट में सब्जी और फल बहुतायत में और कम दामों में मिल जाते थे । एक थोक भाव वाला सब्जी का मार्किट था वहाँ जहाँ हर रविवार हम हो आते । आस पास फलों के 30-40 बगीचे थे और केला, नारंगी, निम्बू, सपाटू, अनार , पपीता, आम बहुत सस्ते में मिल जाते थे । "दक्षिण के आम मीठे नहीं फीके होते है" हमारी ये धरना यहाँ ख़त्म हो गई । रसपुरी सहित अन्य आम के बगीचे आंध्र तमिल बॉर्डर TADA के पास थे । रसपुरी एक बेढंगे गोल आकर के आम था और इसके रेशा रहित मीठे गूदे और पतली आठी का क्या कहना । शायद यह मैसुर कर्नाटक का एक आम है। सपाटपल्ली या चीकू भी बहुत अच्छे और सस्ते मिल जाते थे और हम प्रायः रेलवे क्रोसिंग के पास से 5-6 रू का चिकू रोज ही ले आते । ज्यादा फल सब्जी खरीद कर रखने का साधन न था। पोस्टिंग टेम्पोरॉरी था फ्रिज लेकर नहीं आए थे हम।
ब्लॉग के इस प्रथम भाग में सुल्लुरपेट के आस पास के ही कुछ जगहों की बातें करना चाहता हूँ । सबसे पहली जगह जो हम कई बार गए वो हैं
चेंगलम्मा मंदिर जो एक देवी मंदिर हैं । यहाँ हर छुट्टी के दिन पहुंच ही जाते थे। हमारे घर से सिर्फ २ की मि दूर था ये मंदिर । चौथी शताब्दी में बने इस मंदिर में स्थापित प्रतिमा के बाएं भाग में पार्वती दाएं भाग में सरस्वती और बीच में लक्ष्मी को दर्शया गया हैं । इसलिए इसे त्रिकाल चेन्गली भी कहते हैं । हर शुक्रवार को बहुत भीड़ होती हैं यहाँ पर और दिनों में दर्शन आसानी से हो जाता था । भक्तगण मुंडन और अन्य रीति रिवाज़ों के लिए यहाँ आया करते थे ।


चेंगलम्मा मंदिर सुल्लुरपेट


दूसरी जगह जिसके बारे में बताना चाहता हूँ वह हैं

मन्नार पोल्लुर
मन्नारपोलुर आंध्र प्रदेश के नेल्लोर जिले में सुल्लुरपेटा के पास ’कालिंदी’ नदी के किनारे एक छोटा सा गाँव है। इस गाँव में एक बहुत प्राचीन मंदिर है, जो एक छोटे से गाँव के बीच है। कभी यह एक महत्वपूर्ण गाँव रहा होगा, निश्चित रूप से सुल्लुरपेटा जो कि काफी बाद का settlement है से कहीं अधिक महत्वपुर्ण होगा। मन्नारपोलुर के बारे में यह कहने का आधार यह है कि यह मंदिर 10 वीं शताब्दी यानि चोला साम्राज्य काल का है। इस मंदिर के अलावा चित्तूर जिले में श्रीकालहस्ती तक या नेल्लोर तक कोई अन्य महत्वपूर्ण मंदिर नहीं है।
इस मंदिर (अलघु मल्लारी कृष्णा स्वामी मंदिर) की एक छोटी सी कहानी है। सत्राजित नमक व्यक्ति भगवान सूर्य का बहुत बड़ा भक्त था। उसके भक्ति से प्रसन्न हो कर सूर्य देव ने उसे स्मयन्तक मणि भेंट में दे दी । सूर्य के सामन चमक वाली मंदिर में स्थापित कर दी गया । ये मणि रोज़ आठ भर सोना दिया करती और जहाँ वह पूजित होकर रहती थी, वहाँ दुर्भिक्ष, महामारी, ग्रहपीड़ा, सर्पभय, मानसिक और शारीरिक व्यथा तथा मायावियों का उपद्रव आदि कोई भी अशुभ नहीं होता था। एक दिन कुछ प्रसंगवश श्री कृष्ण ने सत्राजित को उस मणि को राजा उग्रसेन को दे देने के लिए कहाँ पर सत्राजित ने उनका कहा लोभ वश नहीं माना। एक दिन सत्राजित का भाई प्रसेन उस मणि को गले में धारण कर शिकार खेलने चला गया जहाँ सिंह ने उसके घोड़े और उसे मार कर खा गया और उससे मणि ले लिया । सत्राजित ने कृष्णा पर दोष लगाया तब भगवान् खुद मणि खोजते वन में गया पता चला सिंह को एक ऋक्ष ने मार डाला था और अब मणि ऋक्षराज जाम्ब्वान के पास था और मणि के लिए श्रीकृष्ण और जाम्ब्वान के बीच भीषण मल्ल युद्ध हुआ और जब जाम्ब्वान ने भगवान को पहचान लिया तो मणि तो लौटाया ही अपनी कन्या का विवाह भी कृष्ण के साथ कर दिया । कहते है वह युद्ध यहीं हुआ था। उधर जब सत्राजित को अहसास हुआ की उन्होंने कृष्णा पर झूठा कलंक लगाया था तो उसने भी कलंक दूर करने के लिए अपनी कन्या सत्यभामा का विवाह कृष्णा से कर दिया । इस कारण इस मंदिर में कृष्णा के साथ जाम्ब्वती और सत्यभामा की मूर्ति की पूजा होती हैं और द्वार पाल के रूप में सुग्रीव और जांबवान है । एक अलग मंदिर रुक्मिणी (सौंदरावल्ली थायर के रूप में) । वेंकटेश्वरा की मूर्ति बायें तरफ हैं । राम दरबार भी हैं यहाँ ।



मल्लार पोल्लूर मंदिर

तीसरी जगह जिसके बारे में मै कुछ बताना चाहता हू वह है एक दरगाह। यही वो दरगाह है जहाँ A.S. दिलीप कुमार ने अपने बहन की बीमारी ठीक होने की दुआ मांगी और वो कूबूल हो गई और दिलीप कुमार ने इस्लाम कबूल किया और बन गए A.R. RAHMAN । भारत के ऑस्कर जीतने वाले संगीतकार। कहा जाता है दरगाह स्थित कब्र हर साल कुछ इंच बड़ी हो जाती है। जब हम गए थे यह 100 फीट से भी ज्यादा लंबी थी। दरगाह वेनाडू द्वीप पर है। जाने का रास्ता तब बहुत ही खराब था । सुना है ए आर रहमान ने कच्चे दरगाह को पक्का करवा दिया है। जाने का रास्ता भी उन्होंने ही बनवायााथ , शायद ठीक भी करवा दिया हो अबतक।


photo curtsey viharadarshani.in अन्य सभी फोटो लेखक के कैमरे से

हम लोग नजदीक के कुछ और भी जगहें घूमनें गए जैसे नालपट्टू पक्षी विहार, एक गाँव जहाँ सिल्क और हैन्डलूम का काम हर घर में होता है, नैल्लोर का एक प्रमुख मंदिर । उसके बारे में अगले ब्लॉग में।

Thursday, May 12, 2022

सप्तश्रृंगी की एक स्मरणीय #यात्रा




2018 में शायद साईं ही हमारी घुमक्कड़ी पर मेहरबान थे कि कई यात्राओं का अवसर इस साल मिला। उन्हें पता था कि अगले दो साल कोरोना (Covid 2019) और अन्य व्यक्तिगत कारणों से हम कहीं घूम नहीं पाएगें। शिर्डी चलने का बुलावा हमारे घुमक्कड़ बहनोई कमलेश जी का आया तो हम आनन फानन में तैय्यार हो गए। प्रोग्राम दुर्गा पूजा के तुरंत बाद चलने का था। पूजा के समय शिर्डी में बहुत अधिक भीड़ होती है और पूजा के समय हम पैतृक शहर जमुई जहां जैन तीर्थांकर भगवान महावीर का जन्मस्थान भी है जाने वाले थे जिसका यात्रा विवरण का लिंक मैंने नीचे दे रखा है। जिस भी ट्रेन में जगह मिली बुक कर हमनें राँची से मनमाड का टिकट बुक कर लिया। उस दिन हटिया से पुणे की स्पेशल ट्रेन वास्तव में बहूप्रचारित हमसफर एक्प्रेस ट्रेन थी‌ और मै ट्रेन में चढ़ने के बाद आचंभित हो गया। इस आशंका से कि किसी गलत ट्रेन में तो नहीं चढ़ गए, टीटी से कनफर्म भी कर आया। मैने ने हमसफर एक्सप्रेस से जाना है जाने बिना ही बुकिंग कर ली थी। अब समझ में आया टिकट का किराया ज्यादा क्यूं था । जिसके कारण और ट्रेन में इतनी सीटें खाली क्यो थी। राजधानी वाला टिकट मोडल के कारण देर से बुक करने पर भाड़ा बढ़ता जाता है। हमने सुविधाओं पर ध्यान दिया तो पाया कुछ promised सुविधाएं तो दी गई पर कई सुविधाएं नहीं दी गई या अधुरी थी। 3-3 घंटे के स्टाप वाले ट्रेन में पैंट्रीकार न रहना खल गया।

जैन तीर्थ लछुवार, शक्तिपीठ नेतुला, जमुई यात्रा पर मेरा ब्लॉग
हम सफर एक्सप्रेस पर मेरा ब्लॉग

इसी साल की गई उदयपुर और उत्तर पूर्व की यात्रा के बारे में बाद में लिखूंगा।
मै शुरू करता हूं मनमाड शुरू करता हूं मनमाड पहुंचने के बाद का किस्सा। ट्रेन घन्टे भर से भी ज्यादा लेट थी। मुझे भुसावल से ही चिंता सताने लगी थी देर होने पर मनमाड से शिर्डी के लिए टैक्सी मिलेंगी या नहीं। मनमाड पहुंचते पहुंचते रात के 8-8:30 बज गए। मैनें मनमाड में कुली ले लिया ताकि जल्दी सही जगह पहुंच सके और पूछने पाछने में समय बर्बाद न हो। लेकिन मर्फी का नियम “What may go wrong will go wrong” लागू हो गया और सारी टैक्सियाँ और औटो हमारे पहुंचने तक भर गई। मै शेयर टैक्सी safety के कारण ही लेना चाहता था ताकि हम दोनो के आलावा भी यात्री साथ रहे।शिर्डी में होटल बुक था, नहीं तो मै रात मनमाड के किसी होटल में रात गुजार लेता। एक बस का स्टॉफ शिर्डी शिर्डी चिल्ला रहा था। उसमे बैठ गया। करीब आधे घन्टा चिल्लाने पर इक्का दुक्का सवारी ही और मिली तो बस वाले ने “बस नहीं जाएगी” की सूचना दे दी। तब तक हमारा कुली जो जिसने टैक्सी या बस पकड़ावा देने का वादा किया था चला गया। अंत में एक झंखार दिखने वाली मारुती कार वाला रिजर्व करने पर चलने को तैय्यार हुआ। सिर्फ हमें ले जाएगा का वादा कर उसने दो सवारियां और बैठा ली उनमें एक महिला थी तो मै अश्वस्त हो गया कि यात्रा safe ही होगी। हाई वे में रात में छोटी गाड़ी से चलना कितना खतरनाक है तब पता चला। जब जब कोई ट्रक और बस सामने से आ रहीं हो तेज हेड लाइट के चलते चालक कुछ देखने में असमर्थ हो जाता। या जब ओवर टेक करने वाला गाड़ी छोटी गाड़ी को रोड से नीचे उतरने को मजबूर कर देते। शायद मेरा भाग्य ही खराब था कि आधे रास्ते में गाड़ी भी खराब हो गई । ड्राईवर किसी तरह कोपरगाँव से पहले एक पेट्रेल पंप तक गाड़ी ले आया और हम चाय वाय पीते पीते गाड़ी ठीक होने का ईंतजार करने लगे। पर न गाड़ी ठीक हुई न हीं धक्का वैगेरह देना ही काम आया। अब हमारे पास किसी और गाड़ी के लिए इतंजार करने के सिवा कोई चारा न था। करीब 15-20 मिनट के बाद एक औटो रुका और हमारे ड्राइवर ने हमें उसमें बैठा दिया। खैर ॐ साई राम जपते हम शिर्डी पहुंचे। टैक्सी वाले ने हमें MTDC होटल तक पहुंचाने से मना कर दिया। मेरे बहस करने पर होटल का रास्ता दिखा कर बोला “वो तो रहा आपका होटल”। होटल नजदीक था। और हम पैदल ही दो मिनट में पहुंच गए। आशा है आप ऐसी स्थिति में मनमाड में ही रुक कर सुबह ही शिर्डी जाएगें। या फिर कोपरगाँव स्टेशन जो शिर्डी के करीब है उतरेंगे। कौपरगाँव शिर्डी के काफी नजदीक है। हमारी ट्रेन का स्टापेज भी कोपरगांव था पर मैं आश्वस्त नहीं था कि यहां औटो वैगेरह मिलेंगा या नहीं। ।मेरी सलाह है आप कोपरगाव ही उतरिये

शिर्डी में 3 दिन रूकने और मंदिर में साई चरित्र का पाठ कर हमारे लौटने का दिन आ गया। पिछली शिर्डी यात्रा के दैरान मेरा सप्तश्रृगीं जाने का प्रस्ताव हमे इसलिए ड्रॉप करना पड़ा था क्योंकि कुछ 510 सिढ़िंयाँ चढ़नी पड़ती। इस बार एक दिन Free था घूमने के लिए। और मैने पढ़ रखा था कि सप्तश्रृगीं में अब रोप वे लग गया है। बस मेरा प्रस्ताव इस बार मान लिया गया और एक टैक्सी ठीक कर हम सप्तश्रृंगी की यात्रा पर निकल पड़े।


सप्तश्रृगीं जाते समय हम जल्दी पहुँचना चाहते थे क्योंकि शाम तक लौट आना था, पर ड्राइवर को अपने घर /अपने गांव जाना था , वहां जाने के बाद कुछ समय रुक कर ही आगे चला। इस अकेले ड्राइवर ने सप्तश्रृंगी के लिए हां की थी इसलिए हम चुप थे। उसे पान मशाला की आदत थी और एक खास ब्रांड के पान मशाला खोजने खरीदने कई बार दुकानों में रूका और काफी समय भी लगाया । रास्ते में कई सुंदर दृश्य मिले हरे भरे जंगल पहाड़ हमारा मन मोह रहे थे। सतपुड़ा के पहाड़ो का एक अलग मोहक रूप यहाँ दिख रहा था। हम करीब 5 घन्टे में सप्तश्रृगीं पहुंच गए। किसी होटल के पार्किंग में गाड़ी पार्क कर हम रोप वे स्टेशन पैदल चले आए। रोप वे स्टेशन में जा कर पता चला यह फनीकुलर रोप वे है और भारत का पहला फनीकुलर। फनीकुलर रोप वे में कार तीरछे बने रेल पर चलता है और एक Winch में लिपटे रोप से उपर खींचा जाता है। साधरणत: दूसरे रोप वे हिंडोले हवा में लटकी रोप पर चलता है। सप्तश्रृगीं में माता की अठारह भुजी मुर्ति है। पहाड़ के सामने मूर्ति की नक्काशी की गई है । इतनी ऊंचाई पर खड़े होने की जगह न होते हुए भी कैसे यह अदभुत मुर्ति गढ़ी गई होगी यह शोध का विषय है। ऊपर का रोप स्टेशन , मदिर परिसर-क्यू लगाने की जगह तो हाल में बनी लगती है । यह पीठ महाराष्ट्र के साढ़े तीन शक्तिपीठों में से एक है। एक अर्ध पीठ। ऐसी मान्यता है कि यहाँ देवी सती की दाहिनी भुजा गिरी थी। भीड़ के कारण और लगातार “आगे बढ़ो” सुनते देवी की मूर्ति का एकदम नजदीक से फोटो नहीं खीच पाए। पर लाईन में खड़े खड़े एक ठीक ठाक फोटो खींचा मैनें । वह मैने इस ब्लॉग में डाला है वो फोटो।
रोप वे स्टेशन साफ सुथरा आधुनिक सुविधाओ से लैश विश्व स्तरीय स्टेशन है। अंदर एक अच्छा Food Court भी है। दर्शण से लौट कर दोपहर का खाना यहीं खाया हम लोगों नें । यहाँ एक फुड काउन्टर का नाम था “आओ जी, खाओ जी” । यह एक Unique नाम था और याद रह गया। लौटते समय मै और मेरी श्रीमती जी को मनमाड उतर जाना था क्योंकि तड़के सुबह ही हमारी ट्रेन थी। मनमाड के लिए एक मोड़ से रास्ता मुड़ता था। बाकी लोगों को मनमाड से शिर्डी वापस जाना था। हम रात रिटायरिंग रूम में बिताने वाले थे। रास्ते में जोरदार बारिश होने लगी। ड्राईवर को रास्ता भी ठीक से दिखाई नहीं दे रहा था। बारिश और तेज हवा के कारण गाड़ी संभल कर चलनी पड़ रही थी । हमने हवा के दबाब को काम करने खिड़की खोले का प्रयास किया तो भींगने लगे। जाहिर था कि काफी देर होने वाली थी और सभी चिंतित थे। मेरी ट्रेन सुबह 4:30 पर था ।
हम लोग रात 9 बजे तक पहुंच गए तब तक केयर टेकर रिटायरिंग रूम बन्द कर चले गए थे। हमारे कुली ने हमें वेटिंग रूम में बैठा कर रिटायरिंग रूम के केयर टेकर को खोज लाया । हम थके थे और तड़के सुबह की ट्रेन थी अत: तुरतं सो जाना चाहते थे। रिटायरिंग रूम प्लेटफार्म पर ही था। हमने उसी प्लेटफार्म पर जो भी मिला खा लिया और सोने की कोशिश करने लगे पर हर 5-10 मिनट पर कोई न कोई ट्रेन का एनाउन्समेट, चाय वाले की “चाय चाय” की पुकार और गुजरते ट्रेन के शोर में सोना नामुमकिन सा था। उसपर यह आशंका की सुबह सोए न रह जाए और ट्रेन छूट जाए। उंघते उंघते ही रात गुजर गई। रेलवे वेब साइट हमारी ट्रेन को “सही समय पर है” दिखा रहा था । हमने सुबह सामान पहुचाने के लिए कुली को कहा था । किसी और को भेजने का वादा कर वो चला गया । पर सुबह न तो कोई कुली आया न हीं कोई और कुली मिला। सब गायब थे। हार कर हम दोनोें साढ़े तीन बजे एक एक सामान कर सामने वाले प्लेटफार्म पर खुद ही ले गए। सभी गाड़ियाँ लेट हो रही थी इस कारण काफी भीड़ थी। बैठने को बेंच खाली नहीं मिला। हम खड़े खड़े ही प्रतिक्षा करने लगे। अब हमारे ट्रन का पहला अनाउंसमेट हुआ पता चला आधे घन्टे लेट है। एक दो ट्रेन निकलने पर बेंच पर बैठने की जगह तो मिल गई पर ट्रेन लेट होते होते दो ढा़ई घन्टे लेट हो गई। पहले से पता होता तो थोड़ा और सो लेते। जब ट्रेन आयी तो धूप निकल आई थी। सबसे मुश्किल तब हुई जब हमारा बोगी एकदम पीछ वाला निकला और हमें दौड़ कर पकड़ना पड़ा हमारा लोअर बर्थ था और सुबह होने पर सभी यात्री उस पर बैठे थे । हम दोपहर के पहले बर्थ पर लेट भी नहीं पाए। इतने विलंब पर चलने पर भी ट्रेन हमारे गंतव्य स्टेशन पर समय पर ही पहुंच गई और हम एक अति प्रतिक्षित यात्रा की सुनहरी यादें समेंटे घर लौट आए। आप खुश रहे दूसरा यात्रा वृत्तांत फिर कभी।

Sunday, March 13, 2022

स्मृतिशेष मंजरी जी

करीब एक साल बाद हमलोगों का दिल्ली NCR आना हुआ। छोटे नाती नें राँची से चलने से बहुत पहले कह रखा था इसबार मामा के बजाय मेरे घर ही आना है सामान के साथ। पिछली बार बेटे के यहाँ रूका था और बीच बीच में दो चार दिन के लिए 11 कि० मी० दूर रह रहे बेटी के यहाँ चला जाता था। इस बार पोते के जन्मदिन पर ही आने का प्रोग्राम बना अतः बेटे के यहाँ ही आ गया। हम दोनों कहाँ रुके यह मेरी नन्ही पोती और उससे बस एक साल बड़े छोटे नाती के बीच बहस का मसला हमेशा से रहा है। बड़े वाले teenager नाती और पोता अब इस सब के लिए बड़े हो गए है और मोबाईल लैप टॉप पर पढ़ाई या चैटिंग में बिजी रहने लगे है।


इसी बीच कुछ दिनों बाद हमलोगों ने बेटी के यहाँ जाने का प्रोग्राम बनाया और चले गए। वहाँ अपने स्वर्गीय समधन मंजरी जी के कमरे में ही हमारे रुकने का बंदोबस्त बिटिया ने किया हुआ था। और जो बात मेरी नोटिस में तुरंत आ गई वह थी यहाँ वहाँ लगे मंजरी के फोटो जिन पर माला चढ़ी थी। एक ब एक उनके न होने का अहसास ने मुझे उदास करने लगा, जैसे एक अजीब सा सुनापन हो। कमरे मे रखे मंजरी जी और नारायण साहब के शादी के समय का एक युगल चित्र पर पहली बार ही मेरी नजर गई तो मै इतने सुंदर युगल जोड़ी की मन ही मन प्रशंसा करने लगा। एक मित्रवत व्यक्ति की कमी तो महसूस होती ही है पर अपनी बिटिया को जिनके स्नेह की छत्रछाया में देख कर अच्छा लगता था उनकी कमी सालने लगी है । बेटी हमेशा उन्हें हँसाती थी और हँसी मजाक भी चलता। इस बार महसूस किया कि अब उसका ज्यादा ध्यान नारायण साहब के स्वास्थ्य और खाने पीने पर लगा है। मेरी बिटिया के बच्चे तो दादी के न होने के दुःख से उबर चुके है लेकिन गाहे बगाहे किसी बहाने दादी की चर्चा आ ही जाती है। दादी को कुछ काम नहीं करने देना है छोटे नवाब का ध्येय हुआ करता था । जब कोरोना काल में काम करने वाली का आना वर्जित था तब बहू को (यानि मेरी बिटिया) हमेशा घर के काम में बिजी देख पोते की नजर बचा कर जैसे ही मंजरी जी अपनी थाली धोने के लिए उद्धत होती पोता कहीं से आ ही जाता आपको नहीं करना है आप बैठिए। बहू को अकेले खटते देख मंजरी जी की चिंता होती और वो हमसे कहती "आप कहिए न हमे भी थोड़ा कुछ करने दिया करे"। और मुझे कहना पड़ता आपने जिंदगी भर तो किया ही है अब आराम करिए। उनकी ऐसी चिंता हमें बेटी के तरफ से हमें निश्चिंत करती। उनकी मेरे साथ हुई अंतिम टेलीफोन की बात चीत में आधे समय मेरी बेटी की और उसके दिए हमारे संस्कार की ईतनी तारीफ करती रही कि मै असहज महसूस करने लगा। कहती "खुद बीमार है बच्चे बीमार है पर मेरी सेवा में कोई कमी नहीं । उपर नीचे दौड़ती रहती है। पर उसकी सेवा से ही मै स्वस्थ्य हुई हूँ। " लोगों का दुनिया से आना जाना प्रकृति का सामान्य नियम है। पर उनकी कमी महसूस करना भी सामान्य मानवीय प्रतिक्रिया है।

Miss you Manjari ji, you are such noble soul. May you be in peace and bestow your ashis on all.

Sunday, February 20, 2022

मेरा शहर (विशाखापतनम)


मैने कई शहरों में अपने बेहतरीन साल और महीने बिताए है। इनमें राँची, जमुई, सेलम और डुसेलडॉर्फ के बारे में मैने कभी न कभी किसी न किसी ब्लॉग में लिखा है । पटना के बारे में थोड़ा थोड़ा बहुत सारे ब्लॉग में कुछ न कुछ लिखा है। पर कई शहर अब भी है जहाँ मै रहा हूँ, कई बार गया हूँ, जिससे मोहब्बत सी हो गई है और उस पर बारी बारी से लिखने का मै सोच रहा हूँ। इस बावत मुझे जिन शहरों की याद आ रही है वे है बोकारो, विशाखापत्तनम, सुलुरपेट (श्रीहरिकोटा),बेगुसराय, प्रीटोरिया और पेरिस। पटना के बारे में जो मैने कई पोस्ट मे लिखा उसे भी एक ब्लॉग मे लाने की ईच्छा है मेरी। बोकारो पर एक ब्लॉग लिखा भी है मैने पर शहर के बारे में ज्यादा कुछ नहीं लिखा है। आज  मेरा यह ब्लॉग  विशाखापतनम् को समर्पित है।
विशाखापतनम् जिसे हम और हमारे जैसे कई लोग प्यार से वाइज़ाग भी कहा करते है। मैंने  कुछ साल और मेरे परिवार ने भी कुछ समय बिताये हैं । पूर्वी भारत से दक्षिण भारत के हर यात्रा में आने वाला एक स्टेशन सभी को याद होगा जिसे पहले वाल्टेयर (अभी भी पेदा वाल्टेयर और चिन्ना वाल्टेयर यहाँ के दो मोहल्लो का नाम है।) कहा जाता था और अब कहते हैं विशाखापत्तनम। HOWRAH से चेन्नई सेंट्रल (जिसे भी पहले मद्रास सेंट्रल कहते थे) जाने वाला हर एक ट्रेन यहाँ कम से कम आधा घंटा तो अवश्य रुकती हैं क्योंकि ट्रेन का DIRECTION यहाँ बदल जाता हैं और ट्रेन इंजन को आगे से हटा कर पीछे लगाया जाता हैं । मैंने भी इस स्टेशन को चेन्नई, सालेम, बैंगलोर या फिर दक्षिण भारत की यात्राओं में कई बार CROSS किया हैं । १९८० में तो सालेम से कार से लौटते समय अन्नावाराम, जो वाइज़ाग से १६ की मि पर है, में रात भी गुजारी । फिर १९८२-१९८३ में विशाखापतनम स्टील प्लांट, जिसका शिलान्यास १९७१ में ही हो गया, के दो मिलों के लिए मेरी कंपनी ने आर्डर लेने का प्रयास शुरू किया और मैं भी इस प्रोजेक्ट का हिस्सा बन गया और फिर हुआ मेरे वाइज़ाग में आने जाने और रहने का सिलसिला । मैंने करीब ३ साल बिताये यहाँ और १९९३ तक समय बिताया । २००१ में अंतिम बार इस जगह पत्नी के साथ कुछ जगहे घूमे और पुरानी यादें ताज़ा कर आये । मैं अपने अनुभव को साँझा कर रहा हूँ यहाँ मै नए प्रोजेक्ट के काम से 2007 से 2010 के बीच भी कई बार गया पर कहीं घूमने का मौका तब नहीं मिला। ।

चेन्नई यात्रा में वाल्टेयर एक प्रमुख जंक्शन स्टेशन होता था। यहाँ ट्रेन नाश्ता या खाना का समय तक पहुँचती और हम इसका इंतज़ार कर रहे होते । ऐसे तो प्लेटफार्म पर ही सही अच्छा खाना जो अक्सर गरमा गरम भी होता था मिल जाता था फिर भी कभी कभी हमारे साथी स्टेशन के बाहर मिलने वाले बिरयानी लाने के लिए निकल जाते क्योंकि ट्रेन का स्टॉप अक्सर ४० मिनट का होता था । वाल्टेयर के बाद आने वाले जिस स्टेशनों की प्रतीक्षा रहती थी वह होती विजयवाड़ा और राजमुंद्री। इन स्टेशन पर हम खाने के लिए ही उतरते । १९८६ में वाल्टेयर स्टेशन का ही नाम बदल कर हो गया विशाखापत्तनम ।

जिस पहली वाकये का मैं जिक्र करना चाहता हूँ वह है जब मैं १९८० में सालेम मैं अपनी पहली कार खरीदी और मैं उसीसे रांची लौट रहा था । राजमुंद्री से जब पास कर रहा था तो रात में कहा रुके यही सोच रहा था । मन में सोचा था वाइज़ाग में ही रुकेंगे पर अन्नावरम पहुंचते पहुंचते अँधेरा हो गया और चूंकि मुझे रात में गाड़ी चलने में बहुत दिक्कत होती है । यहीं रात बिताने का फैसला किया।अन्नावरम में एक पहाड़ी पर श्री सत्यनारायण स्वामी का एक बहुत ख़ूबसूरत मंदिर हैं और उसीको देखा और हम वही रुक गए । रात का समय था कहां जाते ? पहाड़ी के नीचे स्थित एक धर्मशाला में मैंने चटाई पर सो कर रात गुज़ार दी ।


Annavaram photo curtsey wikipedia

सुबह सुबह नहा कर, पहाड़ी के नीचे बने मंदिर में पूजा की और फिर आगे निकल लिए। गजुवाका पहुंच कर इडली का नाश्ता कर आगे बढ़ गए भुबनेश्वर के लिए । इस तरह मै वाइज़ाग को छू कर निकल गया ।

१९८२ आते आते मेरा सालेम प्रोजेक्ट का काम पूरा हो गया और मैं विशाखापत्तनम में बनने वाले सबसे लम्बे LIGHT AND MEDIUM MERCHANT MILL प्रोजेक्ट से जुड़ गया और वाइज़ाग की कई यात्राएं की । हम लोग यह प्रोजेक्ट जर्मन लोगों के साथ कर रहे थे और उनके साथ साथ रहने के लिए हमें भी हवाई यात्रा से ही वाइज़ाग जाने का ऑर्डर आया और हम - रांची-कलकत्ता- वाइज़ाग हवाई मार्ग के यात्री बन गए । जब तक प्लांट डिज़ाइन का काम चल रहा था वहां के एक बहुत अच्छे होटल रामोजी फिल्म सिटी वालो के "डॉलफिन" में ही हम रुकते । और वहीं से प्लांट के प्रोजेक्ट ऑफिस जाते थे । हमारा एक ऑफिस बस स्टैंड के पास भी था जहाँ कभी कभी जाना पड़ता था । कई बार बस स्टैन्ड में आरकू वैली की बस देखता और जाने का प्लान बनाता पर जा न सका अभी भी मेरे bucket list मे अरकू है। डॉल्फिन होटल में तब दो रेस्टोरेंट और एक कॉफ़ी शॉप हुआ करता था पर बाद में ७ वे तल्ले पर होराइजन रेस्टोरेंट खुला और कॉफ़ी शॉप बंद हो गया । वसुंधरा जो एक शाकाहारी रेस्टोरेंट था हमारे बीच लोकप्रिय था लेकिन रविवार हम होराइजन में ही LIVE म्यूजिक के साथ रात का खाना खाते । रांची में टीवी की शुरुआत १९८३ के अंत तक शुरू हुयी थे पर इस होटल में रूम में टीवी और केबल पर प्रोग्राम चलता रहता । जब डिज़ाइन का काम ख़त्म हो गया और प्रोजेक्ट को बनाने और चलाने के लिए हमारी पोस्टिंग शायद १९८८ या ८९ में वाइज़ाग हो गयी । शुरुआत में मैंने स्कुल के छुटियों में परिवार को भी वाइज़ाग लाने का प्लान किया। हमने अपने एक दोस्त को MVP कॉलोनी में एक घर किराये पर ले देने का पैगाम दे दिया। अपनी गाड़ी भी लानी जरूरी थी क्योंकि कार अलाउंस जो लेनी थी । मेरे पास एक स्टैण्डर्ड १० सफारी मॉडल कार थी । मैंने ड्राइवर के बजाय एक मेकानिक को ले जाना उचित समझा पर हमारा मैकेनिक गाड़ी चलाना नहीं जनता था । और पूरे १००० किलोमीटर मुझे ही गाड़ी चलानी पड़ी । अंतिम रात मैंने ट्रक ड्राइवर्स के स्टॉप पर बिताई थी और लगातार ट्रक के आने जाने के कारण रात भर जगे ही रह गए थे । अंतिम दिन करीब ४०० Km की गाड़ी चला कर आया था और शाम तक वाइज़ाग पंहुचा था थक कर चूर था मै । बिस्तर पर गिरते ही सो जाने की हालत में था । मैंने मैकेनिक को MVP बीच के पास के दुकान से डोसा ले आने को कह कर मैं बिस्तर ठीक करने लगा । इसी समय BELL बजी और वैद्यनाथन मिलने आया हुआ था कैसे कब करते करते आधा घंटा हुआ होगा की फिर एक एक कर दूसरे दोस्त आते गए और दो तीन घंटे बीत गए । हर जन के जाने के बाद मैं सोचता सो जाऊँ, पर तभी कोई और आ जाता । मेरे पागल होने के पहले लोगों का आना जाना बंद हुआ और मैं सो सका । अगले तीन बार हम कम्पनी के गेस्ट हाऊस, उक्कू नगरम हाऊस, और ऊक्कूनगरम सेक्टर 8 मे रहा। मेरे कंपनी को २००७ में एक और प्रोजेक्ट का ऑफर मिला वाइज़ाग स्टील प्लांट से और मुझे कुछ समय और वाइज़ाग में बिताने को मिला ।

कई बार मेरी टेम्पररी पोस्टिंग वाइज़ाग हुई पर सिर्फ पहली बार ही मैंने गर्मी छुट्टी में परिवार को वाइज़ाग बुलाया । हम उनके साथ कई जगह घूमने गए । जिसमे ऋषिकोंडा बीच, MVP बीच, डियर सफारी और ज़ू हम गए जो हमारी MVP कॉलोनी से उत्तर की तरफ था यानि जब मैं वाइज़ाग आ रहा था तब ही मैंने इन सब जगहों को देख लिया था और सोच भी लिया था की इन सब जगहों पर फिर आऊंगा अपने परिवार के साथ । कुछ ही दिनों में मेरा एक कलीग रांची से परिवार सहित घूमने आये और इस बीच हमारे एक कॉमन दोस्त भी मिल गया जिनके साथ हम कई जगह घूमे । हमारा स्टैण्डर्ड सफारी मॉडल कार घूमने में बहुत काम आया । रास्ते में बच्चों द्वारा कहे शब्द अच्छा लगता "पुराना मॉडल का मारुती हैं "। पर सबसे पहले मैं MVP कॉलोनी के बारे में कुछ बताना चाहूंगा । MVP का पूरा नाम हैं मुव्व वाणी पालम यानि पायल की स्वर वाला मोहल्ला । जितने चाय की दुकान नहीं हैं यहाँ उससे ज्यादा शराब की दुकाने थी । पर उनमें कोई भी रेस्ट्रा या बार नहीं था । उनके पास बार का लइसेंस था ही नहीं । पर वे शराब को अपने दुकान में लोगों को बैठा कर पिला नहीं सकते थे। उन्हें सिर्फ पूरी बोतल ही बेचना पड़ता। ज्यादातर ग्राहक पूरा बोतल नहीं खरीदना चाहते। इस problem से निपटने के लिए दुकानदार ने सैंपल बेचा करते यानि करीब ९० ml एक गिलास में ढाल के एक घूंट में खड़े खड़े पीना होता था । दूसरा था होम लाइब्रेरी जो हर ४-५ घरों में से एक में मिल ही जाता था । एक security deposit जमा करने के बाद प्रति किताब 20-25 पैसे देकर किताब इस्यू कर सकते थे।  MVP सागरतट एक बढ़िया beach था पर मछुवारों के बस्ती नज़दीक थी और यह बीच उनके लिए open स्काई टॉयलेट ही तो था । यानि यह एक गन्दा सागरतट था ।
एक कहानी याद आ रही है। तेलगू में एक शब्द है 'लेदू' जिसका हिन्दी मे अर्थ है 'नहीं'। एक बार मेरा टीनएज बेटा पड़ोस के दुकान से दूध लाने गया पर दूध मांगने पर दूकान वाली ने कहा लेदू, दो लेना है समझ कर मेरा बेटे ने दो पैकट उठा लिए। दुकान वाली ने जब मना किया तो झुंझला कर वापस आ गया "पहले कहती है 'ले दू' और उठाने पर मना करती है। हम हँस पड़े थे।
हम लोग अपनी अपनी कार से ऋषिकोंडा बीच गए और पिकनिक मनाई नज़दीक ही एक डियर सफारी पार्क था तब वह भी गया । दूसरा बीच जहाँ गए थे वह था गंगावरम बीच


जिसका रास्ता हमारे वाइज़ाग स्टील प्लांट के बीच हो कर जाता था वहां जाने के लिए पास लेकर जाना पड़ा । अब तो बाहर से भी रास्ता हैं । इसी जगह एक दूजे फिल्म के कुछ गानों की शूटिंग भी हुई थी । बच्चों को बड़ा मजा आया । अपने बोकारो के मित्र बिनय और उदय सिंह के परिवार साथ ही वहां गए थे ।


सिम्हाचलम मंदिर Photo Curtsey Wikipedia

उसी ट्रिप में हम नरसिंह मंदिर देखने सिम्हाचलम गए थे जो NAD कोथा रोड जक्शन से सिर्फ ६ km दूरी पर था । मंदिर एक पहाड़ी पर है। यहाँ दो बार गए थे । नीचे गाड़ी पार्क कर बस से ऊपर गए थे । पहली बार लम्बी लाइन में लगाना पड़ा जबकि दूसरी बार आसानी से दर्शन हो गया था । जब तक बच्चे साथ थे हम RK बीच भी गए थे जहाँ मरीन ड्राइव और जुहू चौपाटी का मजा एक साथ आता था ।


थोटलकोण्डा बुद्धिस्ट स्तूप Photo Curtsey Wikipedia

ऐसे तो ऑफिस के काम से कई बार वाइज़ाग गया पर एक बार  पत्नी के साथ २००१ में भी वाइज़ाग गया था । उस बार एक शादी में रांची से कुछ कुक को लेकर हैदराबाद गया था और लौटते हमें वाइज़ाग में गाड़ी चेंज करना थे । काफी वक़्त मिल गया वह और हम कुछ नयी जगहे जैसे सबमरीन म्यूजियम, थोटलकोण्डा बुद्धिस्ट साइट और शिपयार्ड /पोर्ट स्थित टेम्पल वैगरह भी घूमे ।


Submarine Museum

इन सभी जगहों में जो जगह अनोखी लगी वह था हिंदुस्तान शिपयार्ड और वाइज़ाग पोर्ट । तीन पहाड़ियों पर यहाँ तीन धर्म के पूजा स्थल हैं । जहाँ हम सबसे पहले श्रृंगमणी पहाड़ी पर स्थित वेंकटेश्वर मंदिर मे गए जहाँ प्रसाद खाने के बाद आगे सीढियाँ चढ़ी फिर जैसे जैसे समुद्र तट की ओर बढ़े दरगा कोंडा पर स्थित मदनी वाले बाबा की दरगाह दिखा और फिर दिखा रोस हिल पर स्थित चर्च ।


एक डॉल्फिन जैसी दिखने वाला पहाड़ी जिस पर लाइट हाउस भी था वह भी दिखने लगा । लोगों ने बताया जब कोई जहाज इस Natural पोर्ट की तरफ बढ़ता तब नाविकों को ये पुजा स्थल एक सीध में दिखता है और उसकी उम्मीदें बंध जाती है की मंज़िल आ गयी ।

Saturday, February 19, 2022

ब्रैन्ड का असर


कल परसों मै अपने मोहल्ले के एक दुकान पर कुछ खरीदने गया था तभी एक 12-13 साल का लड़का आया और उसने कैसे खरीदारी की वह देखिए ।
ऐगो बीस रूपया वाला घड़ी निरमा दिजिए।
और एगो रिन दिजिए पतंजली।
हो गया त एगो 10 रुपया वाला कॉलगेट दिजिए पतंजली।
इसी तरह उसने एक दो और चीजें खरीदी। सभी समानों के दाम बताया ब्रैंड बताया। पर सामान के नाम के जगह पर उस वस्तु के उस ब्रैंड का नाम लिया जो वास्तव मे उस वस्तु का पर्याय बन चुका है। मुझे भी बचपन से ले कर आज तक के कई ऐसे ब्रैंड के नाम याद आने लगे । कुछ नाम प्रस्तिुत है। कुछ यदि आपको भी कुछ याद आए तो कमेंट मे बताएं।
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जब वनस्पति घी बनने लगा तो सबसे पहले आया 'डालडा ' ही वनस्पति का पर्याय बन गया चाहे किसी ब्रांड का हो। लोग दुकानों पर रथ का डालडा मांगते। और ओरिजनल डालडा खरीदना हो तो खजूर छाप डालडा मांगना पड़ता।
इसी तरह के ब्रैंड थे
कपड़ा धोने का साबुन सनलैट (Sunlight), 501

सिगरेट : चारमिनार, सिजर्स

हिन्दी अखबार : आर्यावर्त
मेडिकेडेट साबुन : लाइफब्याय
सर्फ भी कुछ समय तक वाशिंग पाउडर का पर्याय था या है ।
चाय पत्ती : लिप्टन
स्नो क्रीम : अफगन स्नो

आज के समय के ऐसी ही कुछ वस्तुए हैं
पोस्टमैन तेल के बहुत दिनों तक खाने वाले रिफाइंड तेल के पर्याय रहे थे


एक और ऐसा नाम है स्कूटी। याद होगा की बिना गियर वाले टू व्हीलर को पहले VICKY कहा जाता था जो एक मोपेड (MOTORISED PEDAL ) था । बाद में कई गियरलेस छोटी २ व्हीलर्स आई और बाद में जब बजाज की sunny आई तब सभी मॉडल के गैरलेस बाइक को Sunny कहा जाने लगा पर अब जिस पॉपुलर नाम गैरलेस २ व्हीलर से जुड़ा हैं वह है स्कूटी यानि TVS की scooty का नाम ऐसे गैरलेस २ व्हीलर का पर्याय बन गया गया ।
ज़ेरॉक्स भी एक ऐसी ही मशीन है , किसी भी make के फोटोकॉपी मशीन से कॉपी कराये कहलाता वोह ज़ेरॉक्स कॉपी ही हैं ।
कुछ और ऐसी चीज़े जो लोगों ने बताई वह है गोदरेज का आलमीरा, फेविकोल , बिसलेरी , कैडबरी वैगेरह ।