Sunday, May 12, 2024

संस्मरण- जलपरी - लेखिका मेरी दीदी श्रीमती कुसुमलता सिन्हा

भूमिका

इस कहानी या संस्मरण की लेखिका है मेरी चचेरी बहन कुसुमलता। यदि और विस्तार में बताऊँ तो मेरे दादा जी और उनके दादा जी सहोदर भाई थे। मेरे चाचा स्वर्गीय उमेश चंद्र प्रसाद बिहार के एक सबसे पुराने जिला शहर (One of the oldest District Town ) मुंगेर के लल्लू पोखर मोहल्ले में रहते थे। हम लोगों का एक दूसरे के यह आना जाना लगा रहता था। कभी लगता ही नहीं था की वे सब हमारी चचेरे भाई बहन है। सबसे बड़ी प्रेमा दीदी के शादी में मैं एक बच्चा था और उस बार के मुंगेर ट्रिप पर मैंने एक ब्लॉग पोस्ट भी किया है। लिंक यहाँ दे रहा हूँ। बचपन मै भी भागा था इस संस्मरण में जिन बड़ी माँ का जिक्र है वे हमारे स्व केदारनाथ चाचा जी की पत्नी थी और निःसंतान होने के कारण मुंगेर में ही रहती थी। इसी तरह निःसंतान दादा जी स्व श्री हरिहर प्रसाद की पत्नी संझली दादी हमलोगों के साथ जमुई में रहती थी। उस दौर में कोई बेसहारा नहीं होता था। बताता चलूं मुंगेर बिहार में गंगा के दक्षिण में बसा एक मुफस्सिल शहर है जो नवाब मीर कासिम के किले और योग नगरी, रेल वर्कशॉप, सिगरेट और बंदूक कारखाने वाले युगल शहर जमालपुर के लिए प्रसिद्ध है। अब आगे दीदी के शब्द।


लाल दरवाजा, मुंगेर

बचपन और उसकी कुछ यादें

हमारा घर मुंगेर में गंगा जी के किनारे है। मैं, मेरी दोनों बड़ी बहने और बड़की मैया/ बड़ी मां( बड़ी चाची) नियमत: वैशाख और जेठ के महीने में (गर्मी के दिनों में) गंगा स्नान करने जाते थे।
हम लोग बहुत उत्सुकता से गर्मी के मौसम का इंतजार करते थे। गर्मी का दिन,छुट्टियां और एकदम साफ गंगा, ऐसे में कौन बच्चा अपने को रोक पाता। हमने खेल-खेल में ही तैरना बिना किसी instructor और lifeguard के सीख लिया। तैराकी की सारी करतब सीखने कोशिश करते थे (तट के नजदीक)।
उस समय घड़ी हुआ करती थी, मगर बड़ी मां के पास अपने time pins थे जैसे पौ-फटने के पहले, दिन चढ़ने के बाद, अस्ताचल सूरज, गोधूलि बेला और वह उनके हिसाब से चलती थी। उन्हें घड़ी देखने की ज्यादा जरूरत नहीं पड़ती थी। ज्यादातर समय उनका समय का अंदाजा बिल्कुल सही होता था।
उन्होंने एक दिन सुबह-सुबह हमें अपने समय के अंदाजे से उठा दिया। हम सब गंगा जी जाने के नाम से, बिना ना-नुकर किए तुरंत तैयार हो गए। 100 में से एक दिन जब बड़ी मां का नेचुरल क्लॉक फेल हुआ होगा, यह वही दिन था। हम सभी गंगा जी के तट पर पहुंच गए ,मगर एकदम अंधेरा था। सूरज की किरण का कोई नामोनिशान नहीं था ।
उस जमाने में जब इतने घर नहीं थे,तब खुले में जैसे नदी तट पर चांद की रोशनी से भी थोड़ा ज्यादा ही उजाला हुआ करता था और उस उजाले में हमने नदी तट पर एक जलपरी जैसी आकृति देखी,वह अपना निचला हिस्सा मछली/पूछ वाला हिला रही थी । जलपरी की कहानियां हम सुना करते थे और हमारा कोमल मन उस पर विश्वास भी करता था। खैर हम सब ने उस "जलपरी को देखा और हमारी हालत ऐसी की मानो काटो तो खून नहीं।
उल्टे पांव चारों दौड़कर वापस घर आ गए।हमने तुरंत निर्णय लिया कि इस बात का जिक्र किसी और से नहीं करेंगे, डर था हमारा गंगा जाने का मजेदार दौर खतरे में न पड़ जाए ।उस दिन काफी देर के बाद सूर्योदय हुआ। लगता है हम लोग एक या दो बजे ही गंगा जी चले गए थे।
आज हमारे बीच बड़ी मां, मां-बाबूजी और बड़ी दीदी नहीं है तब मैं इस घटना से पर्दा हटा रही हूं। सोचती हूं हो सकता है उस दिन हमने गंगा में पाया जाने वाला घड़ियाल या सिर्फ उस इलाका में पाई जाने वाली डॉल्फिन देखी हो या कौन जाने शायद सच की जलपरी ही देखी हो ।
इस घटना को याद करने के के साथ बहुत सारी बचपन की मीठी-मीठी यादें सजीव हो गई है। और कौन‌ जाने कभी उन यादों पर भी कुछ लिख डालूं।
कुसुमलता सिन्हा, पटना

Thursday, May 2, 2024

इस बार (२०२४ ) का काठमांडू प्रवास - भाग १


दिल्ली हवाई अड्डा T3 के बाहर का दृश्य, दिल्ली हवाई अड्डे के अंदर के दृश्य

भूमिका

क्यूंकि मैंने काठमांडू पर कई ब्लॉग समय समय पर लिखे है, इसलिए प्रश्न उठता है फिर एक और क्यों ? और इसलिए इस ब्लॉग के लिए एक भूमिका की जरूरत पड़ गई। मेरी इस बार की काठमांडू यात्रा टिकट के तारीख के कारण कुछ ज्यादा ही eventful थी। अब महीने भर का काठमांडू प्रवास भी सिर्फ तीन चार बार ही हुआ है। मेरे फेसबुक के एक ग्रुप सदस्य ने अपने कमेंट में महीने भर के प्रवास के अनुभव को टुकड़े टुकड़े में ही सही ग्रुप में पोस्ट करने की सलाह दी। ऐसे तो मैंने पहले ही उस ग्रुप में ऐसे कई पोस्ट डाल रखे थे पर एक पूरा ब्लॉग लिखने से मैं अपने को रोक नहीं पा रहा। इसी बहाने मुझे भी एक खूबसूरत यात्रा को फिर से जीने का अवसर मिलेगा और भविष्य में याद आने पर फिर से ब्लॉग पढ़ भी सकते है। जब भी हम दिल्ली आते है काठमांडू (जो मेरा ससुराल है) जाने का प्रोग्राम बनने ही लगता है । इस बार भी प्रोग्राम था और फिर मेरे साले साहब के भारत के किसी लॉ विश्वविद्यालय के समारोह में आने का प्रोग्राम बन गया। हमने उनके साथ ही जाने के ख्याल से उनके वापस जाने के दिन का और उसी फ्लाइट का टिकट ले लिया।

तारीखों का घाल मेल

मैंने टिकट खरीदने वक़्त सीट नहीं चुना, सोचा साथ बैठ कर वेब चेक इन कर लेंगे। फिर जाने का दिन आया। मैंने लाख कोशिश की पर वेब चेक इन हो नहीं रहा था। हर बार ४८ घंटे पहले ही वेब चेक इन कर सकते है का नोटिफिकेशन आ जा रहा था। मैंने इसे वेब पेज कि गड़बड़ी मान लिया। खैर हम एयरपोर्ट जा पहुंचे। टिकट को गेट पर दिखते हुए विस्तरा एयर के काउंटर पर। कॉउंटरवाला भी परेशान कि टिकट उसके कंप्यूटर पर दिख क्यों नहीं रहा है। उसने टिकट को चेक करने दूसरे काउंटर पर भेजा तब पता चला कि जो टिकट मैंने बुक किया था उसमे डेट तो ठीक था पर महीना मार्च की जगह पर अप्रैल का था। खैर एयरलाइन ने एक्स्ट्रा पैसे लेकर उसी फ्लाइट में जगह दे दी। फिर भी सभी सीट एक साथ नहीं मिली। मैं, गेट सिक्योरिटी वाला और कॉउंटरवाला सभी सिर्फ डेट देख रहे थे महीना किसीने नहीं देखा। हम कुछ देर GMR वाले के सौजन्य से उनके लाउन्ज में रूके और चाय बिस्कुट खा कर सेक्युरिटी चेक के लिए चल पड़े। कुछ खरीदारी ड्यूटी फ्री में कर हम फ्लाइट में बैठ गए। फ्लाइट समय पर थी और समय पर ही पहुँची। काठमांडू के इमिग्रेशन में होने वाले साधारण होच पॉच के बाद बहार निकले पर ड्यूटी फ्री में ख़रीदा एक सामान निकलते समय वाले एक्स्ट्रा चेकिंग में कही छूट गया। यह वाली चेकिंग जिसे गोल्ड चेकिंग कहते है आपको किसी और अंतर्राष्ट्रीय हवाई अड्डे पर नहीं मिलेगी।


हवाई जहाज से बाहर का दृश्य, काठमांडू हवाई अड्डा

अब आते है वापसी के यात्रा पर। ससुराल जगह अजीब है वहां आप अपनी मर्जी से जाते हो पर वापसी ससुराल वालों के मर्जी से ही हो पाती है खास कर मेरे जैसे रिटायर्ड लोगों को जिनक पास छुट्टी / नौकरी का कोई बहाना न हो। पोखरा और आस पास घूमने का प्रोग्राम पहले से ही था। अब मैंने शर्त रख दी थी कि उन्हीं जगहों पर जाऊँगा जहा गाड़ी चली जाये और मुझे पहाड़ी रास्तों पर पैदल चलना न पड़े। उम्र का तकाजा ठहरा। इन चक्करों में वापसी की तरीखनिश्चित नहीं हो पाई और मै वापसी का टिकट पहले से खरीद कर रख नहीं पाया। धीरे धीरे काठमांडू दिल्ली का टिकट करीब Rs २२०००/ हो गया। जब करीब महीने भर बाद जाने का प्रोग्राम बना तब किसी और रूट से जाने का सोचने लगे। अंत में तय हुआ भद्रपुर (नेपाल के ककरभिठठा के पास ) नेपाली एयरलाइन से जाये और फिर टैक्सी से 40 km दूर बागडोगरा (भारत) तक जाये और फिर बागडोगरा दिल्ली फ्लाइट से।


पुर्वी हिमालय हवाई जहाज से, भद्रपुर हवाई अड्डा

करीब आधे दाम में हो जाती ये यात्रा यदि वो न हुआ होता जो हुआ। सबसे पहले दार्जीलिंग जिले में २६ अप्रैल को मतदान के मद्देनज़र मैंने २५ अप्रैल का टिकट लिया। तब किसी के कहने पर भारतीय न्यूज़ चेक करने लगा तब पता चला नेपाल - भारत बॉर्डर २३ अप्रैल से ही बंद था। मैंने टिकट को २७ अप्रैल तक आगे बढ़ा दिया एक्स्ट्रा पैसे दे कर। एक बार फिर मै वेब चेक इन नहीं कर पा रहा था। और एक बार फिर इसे मै वेब पेज की गड़बड़ी मान रहा था। २६ के रात में नींद से जग गया और अचानक ख्याल आया कहीं फिर तो तारीख वाली वही गड़बड़ी तो नहीं हो गई। टिकट को मोबाइल में खोल कर देखा तो सचमुच २७ अप्रैल के वजाय २७ मई की टिकट ले रखी थी। अब पैनिक में आ गया मैं रात में ही टिकट तो २७ अप्रैल के लिए प्री पोन कर लिया पर पैसे कट गए पर टिकट नहीं आया। रात भर मै एयरलाइन के सभी सोशल मीडिया प्लेटफार्म और ईमेल पर कंप्लेंट डाल दिए। रात में ठीक से सो भी नहीं पाया। एयरलाइन वाले का एक जवाब आया की यह पैसे ४-५ दिन में ऑटोमेटिकली वापस हो जायेगा (अभी तक तो नहीं आया ) आप फिर से टिकट ले ले। मैंने वैसा ही किया और इसके बाद यह रुट चेंज सस्ता न रहा पर मैंने काठमांडू आनेजाने का एक ADDITIONAL रुट का अनुभव ले लिय। दार्जीलिंग , सिक्किम के साथ कोई नेपाल भ्रमण करना चाहे तो यह एक बहुत उपयोगी रुट है।


भद्रपुर से बागडोगरा के बीच एक चाय बगान, बागडोगरा एयर पोर्ट

काठमांडू कैसे जाएं

पहले मेरे काठमांडू यात्रा का रूट ज्यादातर रक्सौल (ट्रेन से) और बॉर्डर पार कर बीरगंज-सिमरा से काठमांडू (बस/कार / हवाई जहाज) हो कर ही होता था। पर जब से मेरे दोनों बच्चे दिल्ली (NCR) में रहने लगे है दिल्ली-काठमांडू की हवाई यात्रा ही की है। एक बार गोरखपुर सनौली हो कर भी गया हूं कार से जब गोरखपुर में कार्यरत मेरे साढ़ू भाई और साली भी साथ गए थे। अब एक और लोकप्रिय रूट जयनगर से जनकपुर (ट्रेन) और जनकपुर से काठमांडू (कार/बस/ हवाई जहाज) से हो गया है।

ख्याति प्राप्त सर्जन और साहसी महिला से मुलाकात

काठमांडू पहुंचते ही हम सभी लोग एक पार्टी में गए जो मेरे रिश्तेदार के यहां थी उनके 3 शिशु नातियों के लिए थी पर साथ दक्षिण भारत के एक प्रसिद्ध और्थो और प्लास्टिक सर्जन जो मेडिकल कालेज में मेरे बड़े साले के क्लास मेट थे,को भी बुला रखा था । मै नेपाली समझ बोल लेता हूं और फिर भी मैं पार्टी में बोर हो रहा था तो इस दक्षिण भारतीय परिवार का हाल समझा जा सकता है। अब नेपाली राजनीति में कोई भारतीय कितना दिलचस्पी ले सकता है। जब नेपाली खाना परोसा गया तब डाक्टर परिवार के बच्चे परेशान हो गए। मेहमानों में मेरे हमउम्र कजन साले की एक साली जी आई हुई थी। बातों में पता चला उन्हें साहसिक खेल, साहसिक यात्रा पसंद है। अपने अनुभव को साझा भी कर रही थी। मैनें उनकी उम्र का अंदाज लगाया अपने से 5 वर्ष कम लगाया। जब मैंने अपने को वहां उपस्थित लोगों में दूसरा सबसे उम्रदराज बताया तब उन्होंने अपनी उम्र मुझसे पांच साल ज्यादा बता कर आश्चर्य चकित कर दिया। मैं उनकी FITNESS की तारीफ किए बिना नहीं रह सका।


दक्षिण काली मंदिर , फारपिंग

दक्षिण काली

काठमांडू में कई जगह घूमने का प्लान था। पर मेरे छोटे साले साहब कुछ एलर्जी के शिकार हो गए इसलिए पोखरा या कही दूर जाने की योजना नहीं बन पाई। हमारी पहली घुमक्कड़ी शहर से 20 KM दूर फारपींग गांव के पास स्थित दक्षिण काली के दर्शन से हुए।
हम जानते है कि काली क्रोध में सर्वनाश करने पर तुली थी सब शिव उनके रास्ते में लेट गए और उन पर पांव पड़ते ही काली न हीं सिर्फ रुक गई उनकी जीभ भी निकल आई। ज्यादातर मंदिरों में काली जी का दाहिना पैर शिव जी के उपर दिखाया जाता है पर दक्षिण काली में उनका बायां पैर शिव के उपर दिखाया गया है। यहां दशैं (दशहरा) में पशु बलि के साथ पूजा किया जाता हआ। पत्नी जी ने बताया परिवार के वार्षिक पिकनिक के लिए ये जगह पहली पसंद हुआ करती थी। प्राकृतिक सौंदर्य अब तक विद्यमान है और पिकनिक अब भी मनोरंजक होगा।

ऐसा माना जाता है कि देवी काली 14वीं शताब्दी में नेपाल पर शासन करने वाले राजा प्रताप मल्ल के सपने में प्रकट हुई थीं। माना जाता है कि देवी ने राजा को एक मंदिर बनाने का आदेश दिया था जो उन्हें समर्पित होगा।

दक्षिण काली मंदिर का भी वही धार्मिक महत्व है जो नेपाल में पशुपतिनाथ मंदिर और मनकामना मंदिर का है। मंदिर में पर्यटकों का आकर्षण अधिक है क्योंकि यह नेपाल में फर्पिंग ग्राम के पास स्थित एक लोकप्रिय लंबी पैदल यात्रा का गंतव्य है। दक्षिणकाली, काली का सबसे लोकप्रिय रूप है। वह दयालु माता है, जो अपने भक्तों और बच्चों को दुर्भाग्य से बचाती है। दक्षिण काली के रास्ते से ही दिख जाता है चोभार गोर्ज। माना जाता है काठमांडू घाटी पानी से एक कप की तरह भरी थे। मंजू श्री से पहाड़ो को काट कर पानी को बागमती नदी के रूप में बहा दिया और काठमांडू रहने बसने लायक हो गई।
ब्लॉग लंबा हो गया अतः रोचकता बनाए रखने के लिए अन्य जगह जहां गए ब्लॉग के अगले कई भागों में लिखूंगा। ब्लॉग अंत तक पढ़ने के लिए धन्यवाद।

क्रमशः

Thursday, April 25, 2024

काठमांडू -A time travel




पशुपतिनाथ दर्शन अप्रैल 2015 (भुकंप के कुछ दिन पहले)

"काठमांडू की समय यात्रा "


"हरे राम हरे कृष्ण" एक फिल्म आई थी १९७२ में और हमारे मन मस्तिष्क में काठमांडू एक हिप्पी राजधानी के रूप में छा गई थी । इसके पहले कालेज जीवन में नेपाली सह छात्र वासियों को औरों से अलग थलग ही देखा था - शायद भाषा की दिक्कत के कारण या उनके पढ़ाई में ज्यादा ही serious होने के कारण। मेरा एक सहपाठी, जो नेपाल के सीमावर्ती क्षेत्र से था, ने एक "120 no" की रील पर १६ और १२ फोटो खींचने वाले दो अत्यंत सस्ते (₹ ९ और ₹ ११ के) चाईनीज कैमरा ला दिए थे १९६७ में। हमारे मन में काठमांडू भारतीय उपमहाद्वीप के एक मात्र कैसीनो वाले शहर के रूप में भी अंकित था। क्या पता था इसी शहर की लड़की से विवाह हो जायेगी और इस शहर से अटूट रिश्ता बन जाएगा। १९७३ में की गई मेरी प्रथम काठमांडू यात्रा बहुत ही यादगार थी मेरा ब्लॉग भी है उस घटना पर। (मेरी पहली नेपाल यात्रा १९७३) तब वीरगंज से काठमांडू तक एक ही रोड था पर अब कई है। तब पारंपरिक घर मकानों वाला यह शहर हरा भरा था, हर घर के पीछे खेत। बड़े पर स्वादिष्ट काउली (गोभी) , मूला , बंदागोवी (बंधागोभी), गोलभेड़ा (टमाटर) अपने घर के बाड़ी से ही आ जाते और अन्य सब्जियां तराई से। जगह जगह मंदिरों से पटा यह शहर एक doll house की तरह है। हर मंदिर मुर्ति किसी अनजाने काल की कलाकृति है जो एक doll की तरह आपका ध्यान खींच लेती है। लेकिन अब बहुत ही बदल गया है काठमांडू।



पारंपरिक नेपाली घर और खेत 2024

यदि आधुनिक विज्ञान समय-यात्रा को संभव बनाने का कोई रास्ता खोज लेता है, तो मैं अतीत में वापस जाने और पुराने दिनों के रहस्यमय शहर काठमांडू घाटी का अनुभव पुनः लेना चाहुंगा । प्राचीन काल में काठमांडू घाटी भारतीय और तिब्बती व्यापारियों के लिए एक लोकप्रिय व्यापारिक केंद्र थी। हिप्पी के मक्का के रूप में इसकी लोकप्रियता 1960 के दशक के दौरान बढ़ी। काठमांडू ने 60 और 70 के दशक के दौरान पश्चिमी लोगों की कल्पना पर कब्जा कर लिया था, और अपने अपने जीवन से निराश अमेरिकी और यूरोपीय उत्तर भारत और नेपाल की रूख करने लगे। खैर, अब मैं केवल यह आशा कर सकता हूं कि काठमांडू ऐतिहासिक, स्थापत्य और प्राकृतिक स्वर्ग होने के साथ-साथ अपने प्रचारित शहरी विकास को पकड़ने के लिए वैश्विक शहरों की बराबरी करते हुए अच्छा संतुलन बनाए रखे।
अपने २०२४ , अप्रैल के काठमांडू यात्रा के दौरान हमें शहर से निकल कर ग्रामीण इलाकों में जाने का अवसर मिला और मेरा विश्वास दृढ़ हो गया कि अभी भी बहुत सुन्दर है नेपाल। अपनी एतिहासिक और प्राकृतिक विरासत से भरपूर। कुछ जगहें जिसका जिक्र मैं करना चाहूंगा।

१) तराई क्षेत्र: जनकपुर गया था। इतने सारे मकान, होटल बनने के बाद भी यह स्थान अपने सांस्कृतिक और धार्मिक पहचान के साथ प्राकृतिक रूप को बनाएं रखने में कामयाब है। कई जगहों पर अब भी जंगल से जानवर रास्ते पर आ जाते हैं अतः आग्रह है अब और जंगल न कांटे। जनकपुर पर और ब्लॉग भी लिखूंगा।


जानकी मंदिर, जनकपुर, 2024

२) नदी और घाटी : नेपाल में जल विद्युत की असीम संभावनाएं हैं और उनको परियोजनाओं में बदला भी जा रहा है। हमने एक मैरीन diversion परियोजना को बनते भी देखा जहां सुनकोशी का पानी एक टनेल से दूसरी नदी (बागमती) में divert किया जाएगा जिससे जहां सिंचाई की ज्यादा जरूरत है वहां पानी उपलब्ध कराया जा सके। अब कुछ भी बनेगा तो पहाड़ और पेड़ों की कटाई तो होगी ही पर आशा बंधी जब सुनने में आया नेपाल में environmental clearance आसान नहीं।


सुनकोशी 2024

३) काठमांडू के आसपास: कई जगह पहाड़ी, नदी किनारे, जंगलों में बेचने के लिए बने प्लौटिंग देख थोड़ा दुःखी भी हुआ। कुछ वर्ष बाद ये सरी मनोरम जगहें मकानों से पट जाएगी और हरियाली गायब भी हो जाएगी पर अभी तक आसपास की अनेकों स्थान काफी दर्शनीय है। 50 वर्ष पहले स्वयंभूनाथ के उपर से देखने पर सिर्फ खेत या खाली जगहें दिखती थी म्यूजियम को छोड़ कर। पर अब आस पास घर मकान दुकान से भरा पड़ा है।


धरहरा टावर स्वयंभूनाथ से 2024

- बूढ़ा नीलकंठ , शिवपुरी : शहर बढ़ते बढ़ते विष्णु के शयन‌ वाले मंदिर के नाम को चरितार्थ करते इस सोए से कस्बे को लील‌ चुका है। जाम , भीड़ भाड़ वाले कस्बे को पार कर शिवपुरी निकुंज जाने पर ही फिर से प्राकृतिक दृश्य सामने आते हैं। शिवपुरी में की गई ट्रेकिंग की कुछ फोटो शेयर कर रहा हूं। अनुरोध है प्लास्टिक की थैली, बोतल जैसे सभी प्लास्टिक के सामान साथ वापस ले आए। जंगल में नहीं फेंके।


इस फोटो के लिए क्षमा करें, पर ऐसा न करें

-दक्षिण काली : मुख्य शहर से करीब 20 कि०मी० दूर यह स्थान अभी भी शहरीकरण से दूर है, अवश्य इसके आसपास कई मार्ग, रोड बन रहे है। श्रीमती ने बताया यह जगह परिवार के वार्षिक पिकनिक का स्थान हुआ करता था। अब भी यहां पिकनिक बहुत रमाईलो (मनोरम) हो सकता है।


दक्षिण काली 2024

-गोकर्ण : करीब ५१ वर्ष पहले इस जगह पर पिकनिक मनाने आए थे। तब घने जंगल के बीच पिकनिक मनाई गई थी। शाम को लौटते समय बहुत सारे हिरणों की आखें कार के हेडलाइट में चमक उठी थी। अब जंगल में रिसार्ट और गोल्फ कोर्स बन गए हैं पर अब भी हरियाली है और हिरण भी दिख जाते है।


गोकर्ण का गोल्फ कोर्स 2024

-इंद्रयानी और चांगुनारायण :-

ईन्द्रयाणी मंदिर

मै यहां पहली बार ही आया था। पर श्रीमती यहां ५२ वर्ष बाद आई थी, अपने कालेज के दिनों की पुरानी यादें ले कर जब "गांऊ फर्क (लौट) अभियान" के लिए किसी गांव में कैंप करना पड़ता था। ऐसे उन्हें कुछ भी पुराना न दिखा। खेतों से घिरा गांव पक्के मकानों से घिरा था। रही सही कसर २०१५ के भुकंप में पारंपरिक मकानों के टूटने के बाद बने कंक्रीट के मकानों ने कर दी थी। गांव पालिका अब नगर पालिका में बदल गई थी। पर अब भी स्वच्छ हवा और स्वच्छ organic भोजन‌ उपलब्ध है यहां। चांगुनारायण मंदिर भी गए जो काठमांडू घाटी का सबसे पुराना मंदिर है। इस मंदिर की कथा किसी दूसरे ब्लॉग में।

चंगुनारायण मंदिर (द्वीतिय शताब्दी)

Saturday, April 20, 2024

सिंधुली गढ़ी, नेपाल #यात्रा

सबसे पहले जगह, स्थान, भूगोल:
हम लोग जनकपुर से काठमांडू लौट रहे थे, बी पी राजमार्ग से और "सिंधुली गढ़ी भी देख ले" वाला विचार सर्व सम्मति से पास हो गया। सेल्फी डाडा और खनियाखर्क के बीच एक बांए मोड़ मिला और हममें से किसीने ड्राइवर को सिंधुली गढ़ी के तरफ कार घुमा लेने को कहा। दो कि०मी० से भी कम दूरी तय करते ही हम आ पहुंचे सिंधुली गढ़ी। प्रवेश के लिए टिकट लेना था। आश्चर्य तब हुआ जब हम दोनों का 70+ होने के कारण टिकट नहीं लगा ।



सिंधुली गढ़ी मध्य नेपाल में एक ऐतिहासिक किला और पर्यटक आकर्षण है। सिंधुली गढ़ी तत्कालीन गोरखा सेना और कैप्टन किनलोच के नेतृत्व वाली ब्रिटिश सेना के बीच लड़ाई के लिए प्रसिद्ध है। खजांची बीर भद्र उपाध्याय और सरदार बंशु गुरुंग की कमान के तहत गोरखा सेना ने नवंबर 1767 (कार्तिक 24, 1824 विक्रम संवत) में ब्रिटिश सेना को हराया।
कार पार्किंग के पास ही सानो (छोटा) गढ़ी की सीढ़ियां शुरू होती है। पत्थरों से बने कुछ खंडहर है। थोड़ी दूर चलने पर मिलता है शहीदों के स्मारक, म्यूजियम, नेपाल निर्माता श्री पृथ्वी नारायण शाह की मुर्ति, एक छोटा पार्क और ठुलो (बड़ा) गढ़ी की सीढ़ियां।
आईए अब इसके इतिहास के बारे में कुछ जाने।



नेपाल के एकीकरण के संबंध में राजा पृथ्वी नारायण शाह ने काठमांडू घाटी को घेर लिया और आर्थिक नाकेबंदी कर दी। उस समय काठमांडू के राजा जया प्रकाश मल्ल ने भारत में ब्रिटिश सेना को एक पत्र लिखकर सैन्य सहायता का अनुरोध किया। अगस्त 1767 में, जब ब्रिटिश सेना सिंधुली गढ़ी में पहुंची, तो गोरखा सेना ने उनके खिलाफ गुरिल्ला हमला किया। ब्रिटिश सेना के कई लोग मारे गए और बाकी अंततः भारी मात्रा में हथियार और गोला-बारूद छोड़कर भाग गए, जिन्हें गोरखा सेना ने जब्त कर लिया। बंशु गुरुंग की कमान के तहत गोरखा सेना ने ब्रिटिश सैनिकों को काठमांडू घाटी की ओर बढ़ने से रोक दिया था। गोरखाओं ने ब्रिटिश सैनिकों को हराने के लिए कई अन्य युक्तियों के साथ-साथ अरिंगाल (ततैया) के छत्तो को तोड़ना और पत्थर फेंकना या लुढ़काने जैसी अपरंपरागत युद्ध रणनीति का इस्तेमाल किया था।
हम उपर गढ़ी तक नहीं गए और हममें से एक सदस्य के घुड़सवारी के बाद लौट आए ‌। मोड़ पर बहुत सारे ताजे फल की दुकान थे और हम जुनार (मौसंबी) और काफल भी खरीदे। रास्ते में प्राचीन कुशेश्वर नाथ मंदिर में दर्शन कर हम काठमांडू लौट आए।

Tuesday, March 12, 2024

मानस के कुछ भावुक क्षण - भाग- ८ (भरत की चित्रकूट यात्रा )

वर्णानामर्थसंघानां रसानां छन्दसामपि।
मंगलानां च कर्त्तारौ वन्दे वाणीविनायकौ॥

मैं पिछले छः ब्लॉग में राम चरित मानस के भावुक क्षणों को मानस की चौपाइयों से संकलित करने की छोटी चेष्टा कर रहा हूँ । मैं पिछले ब्लॉगों का लिंक यहाँ दे रहा हूँ तांकि आपने यदि नहीं पढ़ा तो निरंतरता के लिए पढ़ सकते है। कृपया लिंक पर क्लिक करें।

भरत गुरु वशिष्ठ, माताओ और अन्य अयोध्या वासियों के साथ गंगा तट श्रीवेंगपुर पहुंच गए हैं। शंका निवारण के बाद निषाद राज गुह उनकी सेवा में लगे हैं। अब आगे।

भरत , शत्रुघ्न और अन्य का प्रयाग पहुंचना और गंगा और जमुना के संगम पर प्रार्थना

कियउ निषादनाथु अगुआईं। मातु पालकीं सकल चलाईं॥
साथ बोलाइ भाइ लघु दीन्हा। बिप्रन्ह सहित गवनु गुर कीन्हा॥
आपु सुरसरिहि कीन्ह प्रनामू। सुमिरे लखन सहित सिय रामू॥
गवने भरत पयादेहिं पाए। कोतल संग जाहिं डोरिआए॥

निषाद राज के अगुवाई में सभी माताओं की पालकियां चली गयी , शत्रुघ्न को बुला उनके साथ कर दिया और ब्राह्मणों से साथ गुरु वशिष्ठ चल पड़े। भरत जी ने गंगा जी को प्रणाम किया और पैदल चल पड़े और न के पीछे पीछे रथ लिए घोड़े बिना सवार के ही चले जा रहे है । (सभी सुसेवक उन्हें रथारूढ़ होने को कहते है तब भारत जी कहते है राम भैया तो पैदल ही गए है तो मैं क्यों नहीं )



भरत तीसरे पहर कहँ कीन्ह प्रबेसु प्रयाग।
कहत राम सिय राम सिय उमगि उमगि अनुराग॥
झलका झलकत पायन्ह कैसें। पंकज कोस ओस कन जैसें॥
भरत पयादेहिं आए आजू। भयउ दुखित सुनि सकल समाजू॥

भरत जी श्रीवैनगपुर से चल कर सीताराम सीतराम कहते कहते उमंग अनुराग के साथ प्रयाग तीसरे पहर पहुँच गए । उनके चरणों में छाले पड़ गए और वे छाले कमल की कली पर पड़े ओस की बूंदों से चमकती हों। भरतजी पैदल ही चलकर आए हैं, यह समाचार सुनकर सकल समाज दुःखी हो गया।



चित्रकूट धाम (विकिपीडिया के सौजन्य से )

जानहुँ रामु कुटिल करि मोही। लोग कहउ गुर साहिब द्रोही॥
सीता राम चरन रति मोरें। अनुदिन बढ़उ अनुग्रह तोरें॥
तात भरत तुम्ह सब बिधि साधू। राम चरन अनुराग अगाधू॥
बादि गलानि करहु मन माहीं। तुम्ह सम रामहि कोउ प्रिय नाहीं॥

(त्रिवेणी संगम के श्वेत (गंगाजी ) और श्याम (यमुना जी ) में स्नान कर ) भरत जी त्रिवेणी जी की प्रार्थना करते है "श्री रामचंद्रजी भी भले ही मुझे कुटिल समझें और लोग मुझे गुरुद्रोही तथा स्वामी द्रोही भले ही कहें, पर श्री सीता-रामजी के चरणों में मेरा प्रेम आपकी कृपा से दिन-दिन बढ़ता ही रहे। हमे यही आशीष वरदान दीजिये।" त्रिवेणी जी कहते है "हे तात भरत! तुम सब प्रकार से साधु हो। श्री रामचंद्रजी के चरणों में तुम्हारा अथाह प्रेम है। तुम व्यर्थ ही मन में ग्लानि कर रहे हो। श्री रामचंद्रजी को तुम्हारे समान प्रिय कोई नहीं है। "

सुनत राम गुन ग्राम सुहाए। भरद्वाज मुनिबर पहिं आए॥
दंड प्रनामु करत मुनि देखे। मूरतिमंत भाग्य निज लेखे॥
धाइ उठाइ लाइ उर लीन्हे। दीन्हि असीस कृतारथ कीन्हे॥
आसनु दीन्ह नाइ सिरु बैठे। चहत सकुच गृहँ जनु भजि पैठे॥

भरत - भरद्वाज संवाद

ग्राम में श्री रामचन्द्रजी के सुंदर गुण समूहों को सुनते हुए वे मुनिवर भरद्वाजजी के पास आए। मुनि ने भरतजी को दण्डवत प्रणाम करते देखा और उन्हें अपना मूर्तिमान सौभाग्य समझा। मुनिश्रेष्ठ ने दौड़कर भरतजी को उठाकर हृदय से लगा लिया और आशीर्वाद देकर कृतार्थ किया। मुनि ने उन्हें आसन दिया। वे सिर नवाकर इस तरह बैठे मानो संकोच के घर में घुस जाना चाहते है। (भरद्वाज जी अनेक प्रकार से भरत जी को समझते है।)

तहँउँ तुम्हार अलप अपराधू। कहै सो अधम अयान असाधू॥
करतेहु राजु त तुम्हहि ना दोषू। रामहि होत सुनत संतोषू॥
सुनहु भरत रघुबर मन माहीं। पेम पात्रु तुम्ह सम कोउ नाहीं॥
लखन राम सीतहि अति प्रीती। निसि सब तुम्हहि सराहत बीती॥

भरद्वाज जी भरत को समझते है इसमें (राम वनगमन में ) भी तुम्हारा कोई तनिक सा भी अपराध कहे, तो वह अधम, अज्ञानी और असाधु है। यदि तुम राज करते तो भी तुम्हारा दोष न होता और यह सुनकर श्री रामचन्द्रजी को भी संतोष ही होता। हे भरत! सुनो, श्री रामचन्द्र के मन में तुम्हारे समान प्रेम पात्र दूसरा कोई नहीं है। इसी प्रकार लक्ष्मणजी, श्री रामजी और सीताजी तीनों की अत्यंत प्रेम भरी सराहना करते सारी रात बीती ।

इंद्र-बृहस्पति संवाद

देवतागण प्रभु का वनगमन ही चाहते थे तांकि दुराचारी रावण का संहार हो। इस कारण ही देवी सरस्वती ने मंथरा की बुद्धि भ्रष्ट की थी और राम को अंततः वनवास मिला था। भरत राम को कहीं वापस अयोध्या ले जाने में सफल न हो जाये यह चिंता इंद्र को भी थी।

देखि प्रभाउ सुरेसहि सोचू। जगु भल भलेहि पोच कहुँ पोचू॥
गुर सन कहेउ करिअ प्रभु सोई। रामहि भरतहि भेंट न होई॥

भरतजी के प्रेम के प्रभाव को देखकर देवराज इन्द्र को सोच हो गया कहीं इनके प्रेमवश हमारा बना-बनाया काम बिगड़ जाए (और राम लौट न जाएँ ) । संसार भले को लिए भला और बुरे को बुरा दिखता है । उसने गुरु बृहस्पतिजी से कहा- हे प्रभो! वही उपाय कीजिए जिससे श्री रामचंद्रजी और भरतजी की भेंट ही न हो।

रामु सँकोची प्रेम बस भरत सप्रेम पयोधि।
बनी बात बेगरन चहति करिअ जतनु छलु सोधि॥

राम संकोची है और भरत प्रेम के समुद्र , कहीं भरत की बात मान लौट न जाये। कुछ जतन (छल) कीजिये - कहीं बानी बात बिगड़ न जाये। (छल इंद्र का चरित्र रहा है इसलिए उन्हें ऐसी बात सूझी )।

बचन सुनत सुरगुरु मुसुकाने। सहसनयन बिनु लोचन जाने॥
मायापति सेवक सन माया। करइ त उलटि परइ सुरराया॥
मनहुँ न आनिअ अमरपति रघुबर भगत अकाजु।
अजसु लोक परलोक दुख दिन दिन सोक समाजु॥

इंद्र के वचन सुन गुरु मुस्कुराने लगते है, हजारो नयन युक्त इंद्र ज्ञान रूपी नेत्र रहित है। वे कहते है जो माया के स्वामी के सेवक के ऊपर कोई माया करता है तो वह उसके ऊपर ही आ पड़ती है। हे देवराज! रघुकुलश्रेष्ठ श्री रामचंद्रजी के भक्त का काम बिगाड़ने की बात मन में भी न लाइए। ऐसा करने से लोक में अपयश और परलोक में दुःख होगा और शोक दिनोंदिन बढ़ता ही चला जाएगा॥

सत्यसंध प्रभु सुर हितकारी। भरत राम आयस अनुसारी॥
स्वारथ बिबस बिकल तुम्ह होहू। भरत दोसु नहिं राउर मोहू॥
सुनि सुरबर सुरगुर बर बानी। भा प्रमोदु मन मिटी गलानी॥
बरषि प्रसून हरषि सुरराऊ। लगे सराहन भरत सुभाऊ॥

प्रभु श्री रामचंद्रजी सत्यप्रतिज्ञ और देवताओं का हित करने वाले हैं और भरतजी श्री रामजी की आज्ञा के अनुसार चलने वाले हैं। तुम व्यर्थ ही स्वार्थ के विशेष वश होकर व्याकुल हो रहे हो। इसमें भरतजी का कोई दोष नहीं, तुम्हारा ही मोह है। देवगुरु बृहस्पतिजी की श्रेष्ठ वाणी सुनकर इंद्र के मन में बड़ा आनंद हुआ और उनकी चिंता मिट गई। तब हर्षित होकर देवराज फूल बरसाकर भरतजी के स्वभाव की सराहना करने लगे।

भरतजी चित्रकूट के मार्ग में

भरत जी इसी प्रकार चित्रकूट के मार्ग में बढ़ते चले जा रहे थे ।

एहि बिधि भरत चले मग जाहीं। दसा देखि मुनि सिद्ध सिहाहीं॥
जबहि रामु कहि लेहिं उसासा। उमगत प्रेमु मनहुँ चहु पासा॥
द्रवहिं बचन सुनि कुलिस पषाना। पुरजन पेमु न जाइ बखाना॥
बीच बास करि जमुनहिं आए। निरखि नीरु लोचन जल छाए॥

इसी प्रकार भरतजी मार्ग में चले जा रहे हैं। उनकी (प्रेममयी) दशा देखकर मुनि और सिद्ध लोग भी रोमांचित हो जाते हैं। भरतजी जब भी 'राम' कहकर लंबी साँस लेते हैं, तभी मानो चारों ओर प्रेम उमड़ पड़ता है। उनके प्रेम पूर्ण वचनों को सुनकर वज्र और पत्थर भी पिघल जाते हैं। अयोध्यावासियों का प्रेम कहते नहीं बनता। बीच में निवास (मुकाम) करके भरतजी यमुनाजी के तट पर आए। यमुनाजी का जल देखकर उनके नेत्रों में जल भर आये कृष्ण वर्ण यमुना जल को देख प्रभु राम का स्मरण होने लगा।

रामसखाँ तेहि समय देखावा। सैल सिरोमनि सहज सुहावा॥
जासु समीप सरित पय तीरा। सीय समेत बसहिं दोउ बीरा॥
सकल सनेह सिथिल रघुबर कें। गए कोस दुइ दिनकर ढरकें॥
जलु थलु देखि बसे निसि बीतें। कीन्ह गवन रघुनाथ पिरीतें॥

रामसखा निषादराज ने उसी समय स्वाभाविक ही सुहावना पर्वतशिरोमणि कामदगिरि को दिखाया, जिसके निकट ही पयस्विनी नदी के तट पर सीताजी समेत दोनों भाई निवास करते हैं। सब लोग श्री रामचंद्रजी के प्रेम के मारे शिथिल होने के कारण सूर्यास्त होने तक दो ही कोस चल पाए और जल-स्थल को पास देखकर रात को वहीं रह गए। रात बीतने पर श्री रघुनाथजी को प्रेम करने वाले भरतजी आगे चले।

श्री सीताजी का स्वप्न, श्री रामजी को कोल-किरातों द्वारा भरतजी के आगमन की सूचना, रामजी का शोक, लक्ष्मणजी का क्रोध और राम जी का समझाना इत्यादि अगले भाग में। क्रमशः

Sunday, March 3, 2024

आज दोसा दिवस है !

क्या आपको पता है आज ३ मार्च दोसा दिवस है ? एक food app की सूचना आई कि आज यानि तीन मार्च , दोसा दिवस है।

दोसे के कई प्रकार है अब - सिर्फ प्लेन और मसाला दोसा ही नहीं मिलते इनके सिवा भी बहुत प्रकार के दोसे मिलते है। सादा दोसा , मसाला दोसा , मैसूर मसाला दोसा , रवा दोसा , कर्नाटकी स्पंज दोसा ,नीर दोसा (मंगलौर का ),पेसरट्टु (मूग दोसा ), अड़ाई दोसा , पनीर दोसा , बाजरा दोसा, अंडा दोसा , ओट्स दोसा , रागी दोसा , चना दोसा, उत्तपम आदि करीब २२ प्रकार के दोसा गूगल करने पर मिल जाता है। इनमे स्टैण्डर्ड प्लेन या मसाला दोसा, रवा दोसा , पेसरट्टु , अड़ा दोसा अक्सर मेरे घर पर बन ही जाता है।


JFWonline से साभार उद्धृत

आज दोसा दिवस पर मुझे अपने तीन ब्लॉग याद आ रहे है। जिसमें दोसा के विषय में मैंने आप बीती और कहानियां लिखी हैं। उनके कुछ भाग पुनः प्रस्तुत है। मैंने सबसे पहले डोसा या दोसा शायद १९६५ में ही खाई थी वह था मसाला डोसा । दक्ष्णि भारतीय व्यंजनों में सिर्फ डोसा ही तब उत्तर भारत में लोकप्रिय थे , समोसा बांकी दक्षिण भारतीय व्यंजनों जैसे इडली , उपमा पर भारी पड़ते थे और उत्तर भारत में हर जगह मिलते भी नहीं थे। मैंने अपने नौकरी जीवन के कई साल दक्षिण भारत में बिताये और अब लगभग सभी व्यंजन - डोसा , इडली , उत्तपम , उपमा , पायसम , बड़ा इत्यादि मुझे भाता है। कॉलेज में किये केरल ट्रिप में केले के पत्ते पर भात पर रसम परोस देने पर संभाल नहीं पाते थे पर रसम पीना अच्छा लगता था। सांभर तो अच्छा लगता ही था , नारियल - चना दाल मूंगफली की चटनी बहुत पसंद आती थी, है । बाद में आंध्र की अत्यंत तीखी चटनी ( लाल वाली ) और कर्णाटक के स्पेशल चटनी भी चखने का मौका मिला था। बंगलुरु में पूरन पोली भी खाने को मिला पर पता चला यह एक महाराष्ट्रियन डिश है। अब आईये मेरे पुराने ब्लॉग के कुछ अंश शेयर करता हूँ।

दोसा से मेरा पहला परिचय

मैंने पटना के एक प्रसिद्द तकनिकी संस्थान में दाखिला ले लिया था और हॉस्टल के उन्मुक्त जीवन का आनंद ले रहा था। मेस का खाना अत्यंत पसंद आता। पर जैसे जैसे समय बीता हॉस्टल के रूटीन खाने से ऊबने लगे और कभी कभी सोडा फाउंटेन (तब पटना का प्रसिद्द रेस्टोरेंट था) जा कर कुछ खा लेते । पहली बार मसाला दोसा इसी जगह खाई थी। । सोडा फाउंटेन में पहली बार होटल मैं बैठ कर आइस क्रीम खाई थी । तब सोडा फाउंटेन में बाहर लॉन में ही टेबल कुर्सी लगे होते और अंदर बैठ कर गर्मी खाने के बजाय हम बाहर ही बैठना पसंद करते क्योंकि हम शाम को ही सिनेमा जाने क्रम में ही यहाँ जाते । मसाला डोसा बहुत ही अच्छा लगा और बाहर जब भी खाने का मौका मिलता मसला डोसा फर्स्ट चॉइस होता । तब पता नहीं था मैं अपने नौकरी के कई साल दक्षिण भारत में बिताने वाला था ।

सालेम - तमिलनाडु (तमिल का अल्प ज्ञान)

अपने नौकरी जीवन में कोई एक - डेढ़ साल मुझे सालेम (तमिलनाडु ) में बिताने का मौका मिला। यहाँ से कई जगह घूमने भी गए जैसे मेट्टूर , यरकौड। चेन्नई तो आते जाते रुकना ही पड़ता था। वह की कई यादों में से एक मेरे एक पुराने ब्लॉग से।


एक बार हमारे वरिष्ठ सहकर्मी श्री डी.डी. सिन्हा सालेम आये। उस समय मैं अकेला ही था सालेम में। सालेम में मेरे सहकर्मी Vdyanathan या Nair जो दूभाषिए का काम कर देते थे और जिनके बदौलत हम तमिल, मलयलम फिल्म देेख लेते थेे, राँची गए हुए थे। एक रविवार हम स्टेशन के पास के सिनेमा हॉल 'रमना' में एक हिन्दी फ़िल्म देखने गए थे। इंटरवल में हम पुरुष शौचालय खोजने लगे। मैंने चैनैई (तब मद्रास) के लोकल बसों में लेडीज सीट के ऊपर लिखा देखा था पेनकाल् (பெண்கள்) । सिनेमा हाल में जब मैने एक शौचालय के ऊपर कुछ और ही लिखा देखा तो उसी को पुरुष शौचालय समझ बैठे और हम दोंनो अंदर चले गए। उस दिन पिटते-पिटते बचे।

एक बार हम दोनों शहर केे बीचों बीच स्थित वसंत विहार रेस्टुरेंट में गऐ। मैंने अपने तमिल ज्ञान को उपयोग में लाते हुए वेटर से पूछा तैयर बड़ा एरक् (दही बड़ा है?) । वेटर यह सोच कर की मुझे तमिल आती है अपने फ्लो में मेनू आइटम्स तमिल में बोलने लगा? मेरे पल्ले कुछ न पड़ा तो मैंने फिर पूछा तैयर बड़ा एरक् ? वह फिर तमिल में कुछ कह कर चला गया। शायद यह कह रहा होगा कि जो बताया बस वही है, श्री डीडी सिन्हा ने फिर कहाँ अब मेरा  इशारों ( Sign Language) का कमाल देखो। उन्होंने हाथ हिला कर वेटर को बुलाया। वे बोले 'मसाला दोसा' और दो ऊँगली दिखाई और वेटर दो दोसा ले आया। फिर कॉफी भी इसी तरह मंगाई गई।

Saturday, March 2, 2024

मेरी रेल यात्रा और दादा पोता की बातें

हर यात्रा की एक कहानी होती है। और रेल यात्रा पर तो एक उपन्यास लिखा जा सकता है। मैंने रेल यात्रा पर कई ब्लॉग लिखे है और कुछ के लिंक दे रहा हूं।

मेरी हालिया रेल यात्रा रांची से नई दिल्ली की थी। हमें रेल यात्राएं पसंद है, बचपन से ही। मेरा एक पुराना ब्लॉग भी है क्लिक कर देखें। पहले मैंने गरीब रथ में बुकिंग की थी। एक दिन पहले अपने नातियों, पोते-पोतियों के पास पहुंचने के लिए। पर कई आशंकाएं मन में उठने लगी। इससे पहले मैने सिर्फ एक बार 2010 या 2009 में, गरीब रथ -( हटिया -भुवनेश्वर) गरीब रथ से यात्रा की थी। तब ट्रेन में बेडिंग लेने होड़ लगी थी, डब्बे में घुसते ही अटेंडेंट को बेडिंग के लिए बोल देना पड़ा था। बेडिंग के अलग से पैसे लगते थे सो अलग, बेडिंग सबको नहीं मिल पाते थे। यह थी मेरी पहली आशंका, दूसरी आशंका भोजन की थी। दिल्ली गरीब रथ का स्टापेज राजधानी के जैसा ही है और सिर्फ एक स्टेशन बरकाकाना में ही भोजन ले सकते है। मैंने दो तीन दिन सोचता रहा फिर टिकट कैंसिल कर अगले दिन राजधानी में ही टिकट करवा लिया।

विकीपीडिया से साभार

सिनियर सिटिजन कोटा से दोनों आमने-सामने का लोअर बर्थ हमें मिला था। जब उम्र कम थी तब उपर का बर्थ ही पसंद आता था। किसीसे कोई मतलब नहीं आप अपने बर्थ पर आते ही लेट जाओ। लोअर बर्थ पर आप तब तक नहीं ही लेट सकते हो जब तक आपके सहयात्री अपने बर्थ पर न चले जाए। हमसे आगे वाली बर्थों पर दो तीन परिवार जिनमें बच्चे भी थे हल्ला गुल्ला मचाए हुए थे। उनकी बातों से ही पता चला कि वे वैष्णो देवी जा रहे थे। पहले तीर्थ यात्रा में लोग धर्म कर्म की बातें किया करते थे, धर्म पर ही चर्चा होती थी या कहां ठहरे कब चले आदि बातों पर । अब लोग तीर्थ यात्रा में खूब मस्ती करते है । शायद कुछ लोगों को मेरी बात पसंद न आये , भई कोई हर्ज नहीं मस्ती करने में यदि वह मर्यादा में रहे। तीन चार बच्चे भी मजे ले रहे थे और मस्ती में उन्होंने रात में दही नीचे गिरा दिया और सुबह नाश्ते की ट्रे पलट दिया। यानि डब्बे की ऐसी तैसी कर दी। खैर बच्चों की तो हर ख़ता मुआफ। खेल, मजाक, चुहलबाज़ी और हल्ला गुल्ला से लेकर "मुझे मुर्गा नहीं पसंद, मुझे अंडा पसंद है। मैंने बतख नहीं खाई पर कबूतर खाया है इत्यादि बातें अगले सुबह मेरे कानों में पड़ रहे थे। खैर हिंदुओं में धर्म कर्म एक व्यक्तिगत बात है। आप जैसे चाहे पुजा पाठ तीर्थ यात्रा करें। दक्षिण में टिफिन जैसे इडली खाने से आपका व्रत नहीं टूटता, उत्तर भारत में नवरात्र में सेंधा नमक वाला खाना फलाहारी माना जाता है पर बिहार में फलाहार और उपवास रखना कठिन है।

शाम का नाश्ता और डिनर के बाद मैंने बिछावन लगाने की जल्दी दिखाई और उपर के बर्थ वाले यात्रियों को हमारा बर्थ छोड़ देने को मजबूर कर दिया। मैं फिर भी आईसक्रीम के इंतजार में जागता रहा। धीरे धीरे सभी यात्री अपने अपने बर्थ पर चले गए।‌ बत्तियां बुझ गई। तीर्थ यात्री परिवारों से धीरे धीरे खुसफुसाहट में बात करने की आवाज आने लगी। बीच बीच में दबी आवाज के साथ ठी ठी हंसने की आवाज मुझे सोने नहीं दे रहे थे।

रात में इग्यारह बजे होंगे, सभी लोग लगभग सो चुके थे। गया स्टेशन पर सभी गाड़ियां रूकती है। हमारी राजधानी ट्रेन भी रुकी। पैसेंजर के चढ़ने उतरने के शोर से मेरी अभी अभी लगी नींद टूट गई। दो लोग चढ़े एक बुजुर्ग और एक जवान आदमी, और लोगों का चढ़ना तो याद नहीं पर इन दोनों का चढ़ना याद रह गया। वे अपना बर्थ ढ़ूंढ रहे थे। जवान लड़का मोबाइल का टार्च जलाकर सभी बर्थ का नंबर पढ़ने लगे- हमारे बर्थ पर दो बार आया । हमने उसे बर्थ खोजने में मदद करनी चाही और बर्थ कहाँ है बताने की कोशिश की पर जवान आदमी बुजुर्ग को चढ़ाने आया था और उतरने की हड़बड़ी में था और मेरी बातों को नज़र अंदाज़ कर चला गया । जब बुजुर्ग भी हमारे बर्थ का नंबर पढ़ने आया तब उसे मैंने बताया कि उसका नीचे का बर्थ है मेरे बर्थ के बगल वाला है यानी पार्टीशन के उस तरफ तब उसे बर्थ मिला।‌ अफ़सोस उसके ही बर्थ पर आराम से सोऐ सज्जन, जिससे वह पहले बर्थ नंबर बता कर पूछ रहा था ने उसे मदद नहीं की थी लेकिन जब उसने अपना बर्थ न० पता कर लिया तब उन्होंने बर्थ खाली कर दिया। शायद बुजुर्ग की एसी कोच में अकेले यह पहली यात्रा थी। चादर मांगने उन्हें सहयात्रियों ने उपर रखे बेडिंग के पैकेट दिखा दिया , पर वह सारे चादर का पैकेट उतारने लगा और लोग के बताने पर कि सिर्फ एक पैकेट उतारो उसे समझ आया। वह अपना चादर बिछा ही रहा था की एक फ़ोन आ गया। वह तेज आवाज़ में बात करने लगे। लोग या तो आदतन‌ तेज बोलते हैं या जब खुद ऊंचा सुनते हो तब। फोन उनके बेगम का ही होगा। सभी डिस्टर्ब हो रहे थे पर उनकी बातों से मैं अंदाज़ लगाने लगा था क्या बात हो रही होगी।
बेगम : सलाम वालेकुम
बुज़ुर्ग (little annoyed) : वालेकुम
बेगम (लगभग डांटते हुए): ट्रैन में चढ़ कर फ़ोन क्यों नहीं किये , कोई फिक्रमंद है, आपको क्यों याद‌ होगा।
बज़ुर्ग : रूको ,सुनो, सुनो
बेगम (थोड़ा शांत हो कर): ठीक से बैठ गए ?
बुज़ुर्ग (complaing) : अभी अभी तो सीट मिलल है , रात का टाईम है , अँधेरा है , बत्ती बंद है और सभी लोग सो रहे है और तुमरा फ़ोन आ गया थोड़ा शबर तो कर लेते अभी बिछावन लगा ही रहे थे।
बेगम की कुछ और डांट पड़ी और‌ नसीहत हिदायत भी - "सामान ठीक से रख लिए - अब्दुल (शायद बेटा होगा जहाँ बुज़ुर्ग जा रहे होगें) को फ़ोन किये की नहीं ?
बेगम फ़ोन रखने तो तैयार नहीं , बुज़ुर्ग भी क्या करें ? बिछावन बिछाए , बीबी को सफाई दे या बेटा को फ़ोन करे। आस पास के सभी लोगों को तो जगा ही चुके थे। अल्लाह हाफिज कह अभी फ़ोन रखे ही थे की शायद पोते का फ़ोन आ गया। पोता इतनी जोर से बोल रहा था की मुझे भी सुनाई से रहा था। शायद ५-६ साल का होगा। बुजुर्ग के आवाज में तुरंत एक मिठास आ जाती है।
पोता : कब आओगे ?
दादा :बाबु ट्रेन में है। बेटा तुम्हारे पास ही आ रहे है। यह दो डायलॉग कई बार चला।
दादा : तुम्हारी दादी है न, गया वाली दादी, वो तुम्हारे लिए मिठाई दिहिन है। और भी कई चीज़ दिए है। सुबह से पहुंचते तब देंगे हां । अब पापा को फोन दो। पोता पापा को नहीं देता फ़ोन और कब आ रहे हो और क्या ला रहे हो के प्रश्न कई बार पूछता है। मिठाई खुद मत खा जाना भी कहता है। कई बार खुदा हाफ़िज़ कहने पर भी पोता फोन नहीं रखता और दादा भी फोन नहीं काटना चाह रहे होंगे। बाकि पैसेंजर (मैं भी) फोन बंद होने का इंतजार कर रहे थे, कि कब शोर बंद हो और हम सोएं। बहुत मुश्किल से शायद ५-६ मिनट बाद दादा अपने पोते को अल्लाह हाफिज कह पाए। मैं उनकी बात सुन रहा था। और सोच रहा था मैं भी नाती - पोते के पास ही जा रहा हूँ। यह भी दादा पोता का यह रिश्ता सभी के लिए एक जैसा है - शायद । Grand parents are a child's first friend and grand children are any person's last friend (, probably) ! पता नहीं पश्चिमी देशों में कैसा होता होगा यह रिश्ता ?
अभी इस कहानी को विराम देता हूं।‌ आशा है राम कथा पर मेरे ब्लॉग सिरिज के अगले ब्लॉग की प्रतीक्षा आप करेंगे।