२८ नवंबर शाम के सात बज कर बाईस मिनट। मैं रोज सुरंग में फंसे मजदूरों के बचाव के समाचार सुनता रहा हूँ । १२ नवंबर जो जब मजदूरों के फंसे होने का खबर आया तो पता लग गया की मेरे प्रदेश झारखण्ड के भी कई भाई फंस गए है । ये जीवट वाले झारखंडी सीमा रोड संगठन में हर जगह सेवा देते दिख जाते है। पहले लगा छोटी मोटी दुर्घटना है और कुछ मीटर ही सुरंग बंद हुआ पर अगले दिन जब बचाव कार्य में उच्चतम स्तर से प्रयास होते दिखा तो इसकी भयावहता समझ आई। उत्तरकाशी में सिलक्यांरा सुरंग चारधाम प्रोजेक्ट का एक हिस्सा है। ५ किलोमीटर लम्बा ये सुरंग यह बरकोट के पास है और यमुनोत्री से गंगोत्री की यात्रा को २० km छोटी करने और सभी मौसम में उपयोग करने योग्य बनाया जा रहा था। कहना न होगा की उत्तराखंड में पहाड़ो में पर्यावरण बहुत नाज़ुक होता है और प्रत्येक प्रोजेक्ट कुछ न कुछ हानि पंहुचा जाता है। मुझे याद है ८०'s तक गंगोत्री से हमारे पंडा जी जब जाड़ों में हमारे घर आते तो बताते की ऋषिकेश से ऊपर बहुत कम ही रोड है और उन्हें प्रायः पूरी दूरी पैदल तय करनी पड़ती है और अब हम गंगोत्री और बद्रीनाथ तक बस से जा सकते है। हमने भी जून के उत्तराखंड ट्रिप में बहुत जगहों पर लैंड स्लाइड देखी थी।
१२ नवम्बर को अचानक सुरंग के प्रवेश से करीब १५० -२०० मीटर सुरंग धंस गयी और ४१ व्यक्ति अंदर फंस गए। बचाव कार्य तुरंत शुरू किया गया। राष्ट्र के सभी संसाधन और विशेषज्ञ कार्य में जुट गए - राज्य के मुख्यमंत्री , प्रधान मंत्री , सड़क मार्ग मंत्री सभी ने कार्य को आगे बढ़ाया पहले बोरिंग मशीन लगाई गयी फिर विशेष मशीन एयर फाॅर्स के हवाई जहाज़ से लाया गया। थाईलैंड और ऑस्ट्रेलिया से विशेषज्ञ बुलाये गए। पहले कुछ दिनों एक छोटी ४ इंच के पाइप से ऑक्सीजन , खाना दवाई , पानी भेजी गयी फिर एक बड़ी ६ इंच वाली पाइप लगाने से सुविधा बढ़ गयी। एक ८००-९०० mm पाइप को डाल कर मजदूरों को निकलने का फैसला लिया गया। Vertical भी खुदाई की जाने का प्रबंध किया गया और इसके लिए BRO ने तुरंत फुरंत सड़क भी बना दी। फंसे मजदूरों के मनोबल को बनाये रखने के लिए प्रयास किये गए और फंसे बहादुर लोगों ने १७ दिन तक भी आशा नहीं छोड़ी। जब कुछ ही मीटर बाकि थे विशेष मशीन टूट गयी। अब लगाए गए ऐसे मजदूर जिन्हे कहा जाता है "Rat Miner "। यह वो लोग है जो मेघालय जैसे राज्य में कोयले तो पतले परत को भी हाथ से खोद कर निकल लेते। इस प्रक्रिया को गैरकानूनी और असुरक्षित घोषित किया जा चूका था। पर ये विशेषज्ञ miner में ही आखिर कुछ बचे मीटर खोद डाली सिर्फ एक दिन में और कल २८-११-२०१३ को एक एक कर ४१ लोगों को स्ट्रेचर के जैसे ट्राली से खींच कर बाहर निकल लिए गए। इसके पहले बचाव कर्मी अंदर गए और एक अस्थायी नौ बिस्तरों वाले अस्पताल भी बना डाला। हमारे मोहल्ले में भी कुछ लोगों ने पड़ाके फोड़े। जान कर ख़ुशी हुई की सभी मजदूर स्वस्थ्य थे और मानसिक रूप से मजबूत भी थे। सारा राष्ट्र तनावमुक्त हो गया।
Wednesday, November 29, 2023
४१ लोग और ३९८ घंटे - उत्तराखंड सिलगरिया बरकोट सुरंग में
Tuesday, November 28, 2023
कुंभलगढ़ ,उदयपुर यात्रा दिसंबर २०१८ भाग १
मेरी ज़्यदातर यात्रा किसी न किसी बहाने से ही हुयी है और ऐसा ही एक मौका मिला जब मैंने इनसीटीटूशन ऑफ़ इंजिनीयरस के ३३ वें कांग्रेस के लिए एक पेपर लिखा और भेजा। ३३ वां कांग्रेस था २०१८ के दिसंबर महीने में उदयपुर में। पिछली बार यानि ३२ वां कांग्रेस चेन्नई में था। पेपर तब भी लिख भेजा था पर देखा दिखाया शहर था जाने का मन नहीं किया लेकिन उदयपुर पहली बार जाना था और यह था भी एक दर्शनीय और पर्यटन के हिसाब से बहुत अव्वल शहर था। मै क्या जनता था की ये ट्रिप कोरोना के पहले की अंतिम ट्रिप होगी। होटल और कांफ्रेंस इनसीटीटूशन ऑफ़ इंजिनीयर्स ने शहर से करीब २० km दूर रखा था पर पैसे मुझे ही देने थे। मैंने सोचा पत्नी को भी साथ ले चले एक दो दिन एक्स्ट्रा रुक कर घूम भी लेंगे। अपने हिसाब के होटल में ही रूक लेंगे। बिटिया भी अपने दोनों बच्चों के साथ जाने को तैयार हो गई । मैंने अपने भतीजे से भी पूछा । क्योंकि कांफ्रेंस शनिवार और रविवार को था वह भी तैयार हो गया। शुक्रवार से सोमवार तक का टूर था और क्रिसमस का समय था इसलिए सिर्फ एक दिन की छुट्टी लेनी पड़ती और इसलिए वह भी तैयार हो गया। इस तरह हमारी छह लोगों का आइडियल ग्रुप बन गया। एकदम एक SUV में फिट होने वाला। इस यात्रा का विवरण मैं २-३ भाग में ही लिख पाउँगा
उदयपुर को City of Lakes भी कहा जाता है (Pichola lake : photo Curtsey Wikipedia )
अब सबसे पहले आने जाने का टिकट लेना था और होटल भी ठीक करना था। दिल्ली से ही जाना था , और कई ट्रेन जाती है निजामुद्दीन स्टेशन से। मैंने गुरुवार २० दिसंबर २०१८ की पांच लोगों के लिए टिकट ले ली। भतीजे अंकुर ने गुरुग्राम के पास के स्टेशन से टिकट ली। मेक माय ट्रिप से होटल पारसमहल में दो कमरे चार वयस्क और दो बच्चे के लिए बुक कर लिए। यह होटल स्टेशन के करीब ही था।
Paras Mahal Hotel Lawn
20 दिसंबर 2018 , गुरुवार
मेरी ट्रेन थी मेवाड़ एक्सप्रेस और यह हज़रत निजाम्मुद्दीन से साढ़े छ बजे शाम को चलकर सुबह साढ़े सात बजे उदयपुर सिटी स्टेशन पहुँचती थी । हमारे ट्रेन में कुछ लड़किया जो शायद छात्र थी भी हमारे बर्थ के पास के बर्थ पर थी। वे ताश खेल रहीं थीं और अच्छा खासा शोर कर रहीं थी। मना करने पर कुछ ही समय शोर कम होता। बहुत देर के बाद हम अपना बर्थ खोल पाए फिर भी काफी देर से ही सो पाए। उनका शोर बंद होने पर भी फुसफुसाहट और फिर एक ब एक हंसी हमे सोने नहीं दे रहा था। सुबह हम उदयपुर पहुंच गए। अंकुर की ट्रेन चेतक एक्सप्रेस बाद में आई आठ बजे। हम लोगों ने उससे बात की और स्टेशन के बाहर आ कर उसके लिए प्रतीक्षा करने लगे। हमने गूगल में देख लिया था की हमारा होटल सिर्फ एक डेढ़ km दूर था। अंकुर के आने के बाद दो ऑटो ले कर हम होटल पहुंच गए। हमने पहले से घूमने के लिए एक गाड़ी एक ट्रेवल एजेंट से बुक कर ली थी। लेकिन होटल पहुंच कर फ़ोन किया तब पता चला गाड़ी नहीं आएगी , पिछले ग्राहक ने फ्री नहीं किया था पर ट्रेवल एजेंट ने एक दूसरा नंबर दिया किसी लोकल ड्राइवर का । मैंने फ़ोन किया और रेट और टाइम तय कर लिया। कुछ पैसे भी ऑनलाइन ट्रांसफर कर दिए।
21 दिसंबर 2018, शुक्रवार
In 33rd Engineering Congress, at Anant Resorts Udaipur
आज ही मेरा इंजीनियरिंग कांग्रेस में पेपर पढ़ने का दिन था इस लिए यह प्रोग्राम बना की आज मैं होटल ड्राप हो कर गाड़ी वापस भेज दूंगा और बाकी की पार्टी नाथद्वारा घूम आएगी। काफी इंतज़ार के बाद गाड़ी आई तब पता चला कांफ्रेंस का वेन्यू होटल अनंत, कोडियट रोड हमारे होटल से काफी दूर है। दूरी तो सिर्फ १०-११ km था पर रास्ते तंग और ख़राब थे। वहां पहुंचने में करीब ४० मिनट लग गया । होटल गार्डस ने मेरी गाड़ी अंदर नहीं जाने दी और होटल के ही एक गाड़ी ने हमें वेन्यू तक पंहुचा दिया। मैं अपने पहचान वालों को खोज रहा था पर लंच के समय ही रांची और मेकॉन के लोग मिले। वहां नाथद्वारा वाली पार्टी २ घंटे देर से ही निकल सकी। करीब छह बजे गाड़ी आने की खबर हुई और मैं होटल के गाड़ी का इंतज़ार करने लगा जिसमे भी करीब २० मिनट निकल गए। होटल पहुंच कर हमने गरमा गर्म चाय काफी बनाई और गप्पों में मशगूल हो गए। मेरे बिना सभी लोग चले तो गए नाथद्वारा पर फोटो एक नहीं खींची। अगले दिन भी इंस्टीटूशन ऑफ़ इंजिनीयर्स का कांफ्रेंस था लेकिन मैंने यह निर्णय लिया की मैं वहां नहीं जा कर कुम्भलगढ़ घूमने जाऊंगा।
22 दिसंबर 2018, शनिवार कुम्भलगढ़ किला
हमारे पास गाड़ी थी और ड्राइवर का नंबर भी पर ड्राइवर के पास देर करने के लाखों बहाने होते है। आज गाड़ी करीब डेढ़ घंटे लेट आई। प्रतीक्षा के समय को हमने होटल के खूबसूरत लॉन में स्थित मूर्तियों के फोटो लेकर बिताये । होटल बहुत आरामदेह और खुला खुला है और हरा भरा लॉन सोने पर सुहागा था। लॉन का उपयोग शादी समारोहों के लिए प्रयोग में लाये जाते थे और पिछले शाम को ही शादी की पार्टी थी लेकिन कोई disturbance हमे नहीं हुआ।
कुम्भलगढ़ दूर से देखने पर
आज का सफर करीब ९० km था और तीन घंटे लगने वाले थे और अभी चलने पर भी लंच टाइम तक ही पहुंचने वाले थे। खैर हम लोग चल पड़े । रास्ते में कई अच्छे होटल और होमस्टे दिखे। पहाड़ी रास्ता और खुबसूरत दृश्य , काश हम इन होटलों में से किसी में रुक सकते। हम कुम्भलगढ़ फोर्ट के तरफ चल पड़े। हमलोग किले को ढूंढ रहे थे पर वह दिख नहीं रहा। उस समय यह एक रक्षा रणनीति रहती होगी। एक ढाबे में थोड़ा नाश्ता का कर हम चल पड़े। कुम्भल गढ़ में पहला प्रवेश द्वार अरेट पोल है, उसके बाद मुख्य है हल्लाबोल पोल, हनुमान पोल, राम पोल और विजय पोल। हनुमान पोल महत्वपूर्ण है क्योंकि इसमें हनुमान की एक छवि स्थापित है जिसे राणा कुंभा द्वारा मांडवपुर से लाया गया था। पहले दो बड़े प्रवेश द्वार अरेट पोल और हल्लाबोल पोल के बाद गाड़ी को पार्किंग में रख एक गाइड ठीक किया और फोर्ट में जाने का टिकट भी खरीद लिए। गाइड ने बताया की इस किले में कुल नौ पोल या दरवाजे है। कुम्भलगढ़ के अंदर जाते ही बाई तरफ एक मंदिर था किले के परिसर में हनुमान पोल में स्थित, वेदी मंदिर कुंभलगढ़ में घूमने के लिए सबसे प्रतिष्ठित स्थानों में से एक है। यह देवी वेदी को समर्पित है और इसकी अद्वितीय अष्टकोणीय आकृति है वह प्रणाम कर हम गाइड के बताये रास्ते पर चल पड़े। ऊँची ऊँची सीढियाँ चढ़नी थी ।
कुम्भलगढ़ का 38 km लम्बा दीवार , हनुमान पोल
रास्ते में गाइड ने इस किले के निर्माण की कहानी बताई। राणा कुम्भा ने मेवाड़ में १५वीं सताब्दी में कुल ३२ किले बनवाये और कुम्भलगढ़ उनका एक border outpost था। इस फोर्ट के लिए अरावली की पहाड़िया चुनी गयी क्योंकि इस दुर्गम जंगल से घिरे स्थान तक दुश्मन पहुँच नहीं सकते । कहानी है की निर्माण के समय दीवार सुबह बनाओ रात में गिर जाती थी। यहाँ तपस्या करने वाले एक भैरव बाबा ने बताया यहाँ देवी का स्थान है और स्वेच्छा से नरबलि के बाद ही किला बन पायेगा । उन्होंने अपने को स्वेच्छा बलि के लिए प्रस्तुत भी किया। वे चलते गए और कहाँ कहाँ दरवज़ा या पोल बनेगा बताते गए। एक जगह उनका सर धड़ से अलग किया गया और वह बना भैरव पोल। गाइड ने हमें थकते देख बताया की अभी काफी ऊंचाई चढ़नी थी। यहाँ पर उनके बलि की जगह पर एक मंदिर बना है । गाइड ने बताया की सर कटने पर भी करीब ७०० फ़ीट ऊपर तक उनका धड़ चलता चला गया और रहने का खंड वही बना और वह एक भैरव मंदिर भी है । सबसे ऊँची (3700 above MSL ) जगह पर जो महल है उसे बादल महल कहते है क्योंकि बरसात में यह जगह बादलों के ऊपर होती है। हर लेवल पर कुछ न कुछ देखने को मिला कुछ। गाइड ने बताया की फोर्ट के बाहरी दीवार ३८ km लम्बी है और चीन की दीवार के बाद दुनिया की दूसरी सबसे लम्बी दीवार है। इस दीवार की चौड़ाई १५ m है। इस पर 4 घुड़सवार एक साथ जा सकते थे। यह दीवार UNESCO विश्व विरासत भी है। ऐसे राजगीर, बिहार में स्तिथ २६०० वर्ष पुरान सिक्लोपियन दिवार ४५-५० km लम्बीी है। इनकी स्तिथि भी ठीक है लेकिन जाने क्यों इसे भारत का सबसे लम्बा दीवार क्यों नहीं माना गया । शायद यह पूरा बिना किसी टूट के नहीं है इस लिए। बीच बीच में दरवाजो के लिए इसमें खाली जगहें है। कुम्भलगढ़ फोर्ट १५ वीं शताब्दी में राणा कुम्भा ने बनवाया था और इसी किले में महाराणा प्रताप का जन्म हुआ था। अंत में नीचे हम लोग किले के अंदर स्थित कुछ दुकानों में गए और कुछ दोहर ख़रीदे।
यह एक अविजित किला है जो कभी किसी के अधीन नहीं आया। गुजरात के अहमद शाह प्रथम ने 1457 में किले पर हमला किया, लेकिन प्रयास व्यर्थ पाया। तब स्थानीय मान्यता थी कि किले में बाणमाता देवता इसकी रक्षा करते थे और इसलिए उन्होंने मंदिर को नष्ट कर दिया। 1458-59 और 1467 में महमूद खिलजी द्वारा और भी प्रयास किए गए, लेकिन वे भी व्यर्थ साबित हुए। जो बात इन आक्रमणकरियों के विरुद्ध गयी वह थे इस फोर्ट तक पहुंचने की कठिनाई। अव्वल तो रास्ता ही नहीं मिलता फिर वो ३८ km लम्बा अजेय दीवार। दीवार के लिए हर थोड़े दूर पर बनाये घुमाव के कारण गोह (monitor lizard) की मदद से भी बड़ी संख्या में ऊपर चढ़ना कठिन था ।
सांभर हिरण
कुम्भलगढ़ जंगल सफारी
किले से लौटने के बाद हमारा मन भरा नहीं था। पता चला यहाँ एक जंगल सफारी भी है और तेंदुआ, भालू , हिरण, लोमड़ी वैगेरह दिख जाते है। खास कर सुबह और शाम के सफारी पर। सभी सफारी सरकारी हिसाब से चलता था। शाम के छह बजे के बाद हमें एक ओपन मारुती सुजुकी जीप दी गयी। पहले के एक किलोमीटर तो रोड ठीक थे पर उसके बाद एक drop gate आया और रोड की स्थिति बदल गयी । रोड उबड़ खाबड़ थी और कही कही ३-४ फ़ीट के गड्ढे थे जिसमे उतरना या चढ़ना था । धीरे धीरे शाम रात में बदल रही थे और ठण्ड भी बढ़ गयी और हमारे कपडे जिसमे गर्मी लग रही थी कम पड़ गए। हम तेंदुए के दिखने के आशंका से डरे हुए भी थे। साथ में एक बंदूकधारी थे इस लिए थोड़े निश्चिन्त भी। तेंदुआ तो दूर कोई लकड़बग्घा भी नहीं दिखा। साथ के गॉर्ड ने बताया वे जानवर नज़दीक होंगे और हमे देख भी रहे होंगे पर सामने नहीं आते । जीप से गिर न पड़े इस डर से हम जीप को रॉड को पकडे थे। बच्चों को बार बार रॉड पकड़ने की वार्निंग देते रहना पड़ता । एक हाथ से रॉड और दूसरे से कैमरा पकड़ना मुश्किल काम था।
जंगल सफारी का प्रवेश जो करीब २ km बाद आया , सफारी खुली जीप
फोटो ठीक ठाक उसी जगह ले पते जहाँ कुछ दिखने पर गाड़ी रोका जाता। फोटो खीचना गाड़ी के मूवमेंट और रौशनी के कमी के कारण मुश्किल था फिर भी हमने बहुत सारे चीतल हिरण, बारह सिंघे, साभार दिखे। तेंदुआ और भालू तो नहीं देख पाए पर करीब १० किलोमीटर की यात्रा दो घंटे में पूरे हुए और हमारा बदन टूट गया जीप के उछल कूद के कारण ।
हम रात में एक ढाबे में जो मिला वही खा कर उदयपुर लौटना चाह रहे थे । पर बच्चे खाने से बहुत खुश नहीं थे पर उन्हें डांट कर चुप कराया गया। मैं बच्चो की नाराज़गी से खुश नहीं था और उनका मूड ठीक करने में लग गया । आखिर उनके पसंद का खाना ढाबे वाला बनाने को राजी हो गया और हम देर से ही सही ख़ुशी खुसी उदयपुर के लिए निकल पड़े। नींद अच्छी आई क्या पता था अगले दिन सिटी पैलेस उतना ENJOY नहीं कर पाएंगे। इसके लिए ब्लॉग के अगले भाग की प्रतीक्षा कीजिये।
Monday, November 27, 2023
वन्दे भारत एक्सप्रेस नवम्बर २०२३
अगला ब्लॉग पटना में घूमक्कड़ी?
बहुत दिनों से इच्छा थी की वन्दे भारत एक्सप्रेस ट्रेन से यात्रा करूँ। जून 2023 में आनंद विहार टर्मिनल से हरिद्वार का टिकट भी ले लिया था पर बाद में टैक्सी ले कर जाने का प्रोग्राम बना और टिकट कैंसिल करना पड़ा। पर पिछले दिनों (22-11-2023) रांची से पटना और पटना से रांची वन्दे भारत के चेयर कार से यात्रा करने का अवसर मिला। छठ और दिवाली के आस पास किसी ट्रेन में जगह नहीं मिली। तब वन्दे भारत में भी कोशिश की थी। छठ के बाद पटना के लिए वन्दे भारत से जाने का निर्णय किया और टिकट भी ले लिया। बहुत सी अपेक्षाएं थी और रांची पटना की यात्रा से मै थोड़ा निराश हो गया। सबसे पहले हमारी सीट पर पहले से यात्री बैठे थे जब तक वे उठते भीड़ बढ़ती गयी और मुझे सामान ऊपर रखने के लिए जितनी जगह और सुकून चाहिए वह चला गया । मैं सीट के नीचे ही सामान रख दू ऐसा सोच एक सूटकेस सीट के नीचे रख भी दिया। दूसरे सूटकेस को ऊपर रखने में सीट से उठने वाले यात्री ने सहायता कर दी। भारतियों की औसत लम्बाई साढ़े पांच फ़ीट होती है पर सभी यंत्र (जिसमे ये लगेज रेक भी है छह फूटे के लिए डिज़ाइन किये जाते है पता नहीं क्यूँ ? सीट के सामने खुलने वाले टेबल भी शताब्दी से छोटे लगे। पहले लैपटॉप आराम से रख कर काम कर सकते थे। पैर फ़ैलाने की जगह भी कम लगी।
खैर ज्यादातर यात्री मेरी तरह त्यौहार के बाद यात्रा कर रहे थे। भीड़ में बहुत सारे बच्चे थे जो त्यौहार में हुई थकन और परेशानी के बाद लौट रहे थे और ज्यादातर irritated बच्चे थे। कुछ रो रहे थे कुछ अपने माँ - बाप को चैन से बैठने भी नहीं दे रहे थे। हमारे सीट को पीछे बैठा बच्चा हिला रहा था। सामने बैठे बच्चे ने पानी गिरा दिया और मेरा हैंड बैग जो मैंने नीचे रख दिया था वह भींग गया। हल्ला गुल्ला की इस स्थिति में आराम से बैठ - ऊंघ नहीं पा रहे थे। हमारा सीट भी उल्टा था, यानि ट्रेन हमारे बैठने के दिशा के विपरीत दिशा में चल रही थी। यानि यात्रा कठिन थी। स्नैक्स में एक चोको पाई , एक समोसा , नमकीन और इंस्टेंट चाय था। स्नैक्स रांची राजधानी से बेहतर था। रात का समय उल्टी दिशा में चल रही गाड़ी , जिसकी गति कभी तेज कभी धीमे हो रही थी उस पर घुमावदार ऊँचा नीचा रास्ता। ऐसे में स्नैक्स में दिया समोसा खा कर मेरी पत्नी की तबियत ख़राब होने लगी और उन्होंने डिनर को मना कर दिया। मैंने डिनर खाया। डिनर में दिया खाने का स्वाद और मात्रा अच्छी थी। रोटी सॉफ्ट थी , दाल गाढ़ी था और पनीर सॉफ्ट। मीठे में एक बालू शाही था। राजधानी में मिलने वाले डिनर से बेहतर था यह लेकिन आइस क्रीम नहीं था क्योंकि बालूशाही जो था। लेकिन यहीं ठीक है कई लोग आइस क्रीम गाला ख़राब होने के अन्देशे से नहीं लेते ।
वापसी की यात्रा अच्छी थी। पहले सीट सिर्फ गया तक उल्टा था और गया के बाद ट्रेन की दिशा और बैठने की दिशा सही था। बच्चे कम थे और शांत थे। हम भी थके थे जो झपकने में कोई बाधा नहीं थी। सिर्फ जो तकलीफ हुई वह था ऊपर के रैक में सामान रखने की जगह । समान जगह बहुत कम थी और मेरे आने तक पूरा भर गया था। कुली ने किसी तरह एडजस्ट किया।
Old Shatabdi Chair car (lenght 25 m) , vandebharat Chair car length 23 m) , New Shatabdi Chair Car Lenght=25 m
मै खुद नहीं कर पाता। गया आने पर ऊपर जगह भी बन गयी और खाली भी रह गयी। दो बातें याद हो आई। जब स्लीपर शुरू हुआ था तब एक एन्क्लोज़र प्रवेश के बाद बड़े सामान रखने को हुआ करता था। हमने कभी प्रयोग नहीं किया लेकिन जब किसी का बहुत बड़ा सामान बर्थ के नीचे नहीं अंटता तब शायद ऐसी जगह काम में आता होगा पर बिना किसी सिक्योरिटी के कौन ऐसे सामान रखेंगा। धीरे धीरे ये व्यवस्था ख़त्म हो गया। शायद अब वन्दे भारत / शताब्दी जैसे ट्रेन में यह एक उपयोगी व्यवस्था हो यदि लगेज टैग देने वाला किसी आदमी को रेलवे वहां रक्खे। पहले आने वाले यात्री भी सामान रखते वक़्त आने वाले यात्रियों के लिए जगह नहीं छोड़ते।
दूसरी बात जो याद हो आई वह था लम्बी दूरी के गाड़ियों में distance restriction ! शायद हम कम दूरी जाने वालों को discourage कर सके तांकि दूर जाने वाले आराम से जा सकें।
सबसे पहले दो बिस्कुट के साथ instant चाय दी गयी। Unibic का बहुत स्वदिस्ट बिस्कुट था। गया के बाद नास्ता दिया गया जिसमे था दो ब्रेड स्लाइस मक्खन , जैम , ऑमलेट , फ्रेंच फ्राइज, उबला गाजर , मटर , कप केक। मात्रा और स्वाद में सभी ठीक था। लेकिन दुबारा चाय का इंतज़ार करते रह गए। क्योंकि यात्रा दिन में हुई हमने बाहर के दृश्यों का मज़ा भी लिया। हरे भरे पहाड़, घने जंगल और पांच सुरंग। जहां एग्जीक्यूटिव क्लास में घूमने वाली कुर्सी थी चेयर कार में पैरों के पास जगह कम थी एकदम हवाई जहाज़ के इकॉनमी क्लास की तरह। स्टेशन आने पर तीन भाषाओँ में घोषणा होती थी अंग्रेजी , हिंदी और बांग्ला। Display board हमे सीट से नहीं दिख रहे थे , शयद उसे डब्बे के बीच में लटकने चाहिए। CCTV कैमरा भी था। खाना मिला या नहीं के लिए भी घोषणा कर पूछा ज रहा था। WIFI था जिसमे इंटरनेट नहीं था पर लोकल मनोरंजन था - मूवी , टेलीविज़न और गाने। लेकिन काफी कम था यह सब। एयर लाइन की तरह करना चाहिए जिसजे यात्रियों को समय बिताना आसान हो जाये। ट्रेन की गति बहुत नहीं थी कहीं कही १०० KMPH तक गति जाती थी। अक्सर ७० - ८० KMPH की गति हे रही ट्रेन की।
पटना में मैंने क्या किया और कहाँ गए यह सब अगले ब्लॉग में।
Monday, November 20, 2023
दुनिया का पहला मोनोरेल - वुपरटाल (जर्मनी)
कई तरह के साधन है एक जगह से दूसरी जगह जाने के लिए। शायद सबसे पहले जानवरों का उपयोग यहाँ वहां जाने या सामान ढ़ोने के लिए प्रयोग में लाये गए होंगे। 13,000 और 2,500 ईसा पूर्व के बीच मनुष्यों ने अपने जंगली जीवों से कुत्तों, बिल्लियों, मवेशियों, बकरियों, घोड़ों और भेड़ों को पालतू बनाया। हालाँकि पालतू बनाना और पालतू बनाना शब्द अक्सर एक दूसरे के स्थान पर उपयोग किए जाते हैं, लेकिन वे समान नहीं हैं। मानवों ने धीरे धीरे घोड़ों और बैलों को अपने यात्राओं के साधन के रूप में प्रयोग में लाया। ऊंटों और हाथियों का भी उपयोग भी बाद में होने लगा। रथ , बैलगाड़ी , तांगा टमटम के बाद रेल गाड़ी को भी घोड़ों ने खींचा। बाद में बने साइकिल , कार इत्यादि। रेलगाड़ी तरह तरह के रूप में आने लगे जैसे रेल पर चलने वाली और घोड़ों से खींचने वाले से लेकर स्टीम इंजन , डीजल इंजन से लेकर बिजली के इंजन तक। शहर में चलने वाले ट्राम भी इसी तरह बने होंगे । मेट्रो , अंडरग्रॉउंड , लोकल , बुलेट ट्रेन भी बने और इसी तरह बना मोनोरेल यानि सिर्फ एक रेल पर लटक क्र चलने वाला ट्रेन। मुझे इस तरह के ट्रेन का अनुभव सिर्फ एक बार हुआ और उसके बारे में हैं यह ब्लॉग।
मोनोरेल एक रोड क्रासिंग के ऊपर और दो स्टेशन के बीच (Photo Curtsey Wikipedia )
एक यादगार ट्रिप जो मैंने जर्मनी में 1983 में किया वो था वुपरटाल का। पता लगा एक मोनोरेल चलती है वुपरटाल तक। मैं और केडिया एक रविवार डुसेलडॉर्फ से इस १३ किलोमीटर की मोनोरेल जिसे जर्मन में स्वाबेबान कहते की यात्रा पर निकल पड़े। शायद यह दुनिया के सबसे पुराना मोनोरेल है। स्वाबेबान का निर्माण 1898 में शुरू हुआ, और 24 अक्टूबर 1900 को, सम्राट विल्हेम द्वितीय ने मोनोरेल ट्रायल रन में भाग लिया और 1901 में रेलवे परिचालन में आया।
मोनोरेल डिपो में (Photo Curtsey Wikipedia )
हम ट्रेन का टिकट ले कर चढ़े। मोनोरेल दो डब्बे का था। हमने टिकट को मशीन में डाल कर पंच कर बैठ गए। एकदम भीड़ नहीं थी। रविवार जो था । यहाँ कोई टिकट चेकर नहीं आता लेकिन यदि पकडे गए तो फाइन तब ३० DM था और मैंने कोई देखा की कोई बिना टिकट पंच किये नहीं चढ़ता। करीब बीस स्टेशन आये। वुपर नदी और एक्सप्रेसवे के ऊपर से मोनोरेल दन दानाती चली जा रही थी पर अफ़सोस तब हुआ जब अंतिम स्टेशन सिर्फ ३० मिनट में ही आ गया। हमने सोचा वुपरटाल शहर घूम लेते है। कुछ विंडो शॉपिंग ही कर लेते है। पर रविवार था और सभी दुकाने बंद थी। शहर वुपर नदी के किनारे एक लम्बे स्ट्रिप पर बसा है । हमने सोचा हम वापस पैदल चलते है टिकट के पैसे बच जायेंगे। इतना कम समय लगा था आने में। हमने सोचा दूरी ज्यादा नहीं होगी। वापस पैदल ही चल पड़े। एक जगह एक पब्लिक शौचालय दिखा तो हम उपयोग करने अंदर दाखिल हो गया। हमने एक चकाचक साफ़ टॉयलेट की आशा की थी जैसी एयरपोर्ट, स्टेशन या ऑफिस में दिखते थे। पर हमे निराश होना पड़ा। बहुत तो नहीं पर थोड़ी गन्दगी थी और कुछ दिवाल पर लिखा हुआ भी था, दिवाली से प्लास्टर टूट रहे थे। पब्लिक शौचालय की हालत हर जगह एक जैसी होती है । खैर उस ठन्डे में चलते चलते गर्मी लगने लगी । आखिर दो-तीन स्टॉप चलते चलते थक गये तब हम वापस एक स्टेशन चले गए और डुसेलडॉर्फ के तरफ जाने वाली मोनोरेल में बैठ गए।
अब इस शहर यानि वुपरटाल के विषय में दो शब्द।
वुपर घाटी रूहर से पहले, जर्मनी का पहला अत्यधिक औद्योगिकीकृत क्षेत्र था, जिसके परिणामस्वरूप एल्बरफेल्ड और बार्मेन के तत्कालीन स्वतंत्र शहरों में वुपर्टल सस्पेंशन रेलवे का निर्माण हुआ। वुपरटाल के आस पास के शहरों की कपड़ा मिलो, धातु उद्योग के कारण कोयले की बढ़ती मांग ने पास के रूहर के विस्तार में तेजी ले आया। वुपर्टल अभी भी एक प्रमुख औद्योगिक केंद्र है, जो कपड़ा, धातु विज्ञान, रसायन, फार्मास्यूटिकल्स, इलेक्ट्रॉनिक्स, ऑटोमोबाइल, रबर, वाहन और मुद्रण उपकरण जैसे उद्योगों का घर है। एस्पिरिन की उत्पत्ति वुपर्टल से हुई है, जिसका 1897 में Bayer द्वारा पेटेंट कराया गया था।
आज बस इतना ही। और कई यादगार यात्राओं के विषय में फिर कभी।
Monday, November 13, 2023
अचानक की गयी लंदन यात्रा
साल था २००७ और मैं अमेरीका से भारत लौट रहा था फ्लाइट थी जेट और वर्जिन की। नेवार्क (न्यू जर्सी ) से लन्दन तक वर्जिन अटलांटिक की फ्लाइट था और लन्दन से दिल्ली तक जेट एयरवेज़ की। जाते समय लन्दन में करीब ५ घंटे का ले ओवर था वीसा था नहीं और मैंने एयरपोर्ट से बाहर निकलने के लिए कोशिश भी नहीं की। तीन महीने बाद वापसी की फ्लाइट थी और लन्दन में १० घंटे का ले ओवर था। मेरे अमेरकी प्रवास के दौरान मेरे साढ़ू भाई जो अमेरिकन नागरिक है ने सलाह दी इमिग्रेशन काउंटर पर लाइन लगा दिजियेगा बाहर जाने मिला तो ठीक है , घूम लीजियेगा। मैंने देखा की निकलने में एक घंटे और चेक इन में दो घंटे भी निकल देने पर भी सात घंटे थे मेरे पास। लन्दन की मुख्य जगहें देखने के किये बहुत थी। १९९३ में USA , CANADA , GERMANY के ट्रिप में दो बार लन्दन में ले ओवर मिला भी था और वीसा भी था लेकिन ग्रुप में रहने के कारण नहीं जा पाया घूमने और रुकने का संयोग नहीं बना। मैंने मन ही मन कोशिश करने का ठान लिया।
लन्दन हम सुबह ८-९ बजे तक पहुँच गए। मेरा लगेज तो दिल्ली के लिए बुक्ड था। मेरे पास एक ट्राली बैग ही था। मैं इमीग्रैशन काउंटर की तरफ बढ़ा और कोई काउंटर के पीछे किसी देशी को खोजने लगा। एक देशी लड़की दिखी और वहां भीड़ भी कम थी। मैंने वहीं लाइन लगा दिया। करीब आधे घण्टे में मेरी बारी आई। मैंने अपनी समस्या पहले अंग्रेजी फिर हिंदी में समझने लगा और बताया भी की १९९३ में UK का वीसा लगा था इस बार तो घूमने दे दो। "No you have to wait in the airport " कहते कहते उसने मेरे पासपोर्ट पर स्टाम्प लगा दिया और मैं जल्दी जल्दी अपना स्ट्रॉली घसीटा और बाहर आ गया।
अब प्रश्न था कहाँ कहाँ और कैसे घूमे ? कुछ रिश्तेदार है लन्दन में पर मैं उनके यहाँ जा कर अपना समय नष्ट नहीं करना चाहता था और वे रहते भी दूर दूर है।
मैं लंदन एयरपोर्ट एक्सप्रेस मेट्रो के हीथ्रो टर्मिनल ५ पर चला गया और टूरिस्ट इनफार्मेशन काउंटर से उठाये मेट्रो का रूट मैप देख रहा था तभी एक देशी लड़का - लड़का ही था मेरे पास आया और कुछ होटल का एडवाइस मुझे देने लगा। मैंने देखते ही पहचान लिया की ये एक बंगाली लड़का है और मैंने बंगला मैं उससे बोलना शुरू कर दिया। "Kemon achhen , amar dos ghantar overlay achhe aikhane ,hotel chai na " कैसे है मुझे दस घंटे का ले ओवर है और मुझे होटल नहीं चाहिए। इस बांग्ला बातचीत का बहुत असर हुआ। उसका नाम था भट्टाचार्जी , संक्षेप में हमारा परिचय हुआ। वह एक छात्र था और आज रविवार था और वह कुछ अतिरिक्त आय के लिए किसी होटल के एजेंट का काम कर रहा था । अब उसने जो बातें बताईं वो ईमानदार एडवाइस था। उसने बतया की एयरपोर्ट एक्सप्रेस का टिकट का दाम १६ पौंड लगेगा और वह सिटी सेण्टर तक ही जाएगी । उसने मेरे हाथ से मेट्रो का रूट मैप लेकर उसपर उन सभी स्टेशन को मार्क कर दिया जहाँ उतर कर मुख्य मुख्य जगह देखा घूमा जा सकता है और मुझे बताया की नीचे अंडरग्राउंड से नार्मल मेट्रो ट्रैन लेना बेहतर ऑप्शन है और क्योंकि रविवार है पुरे दिन कहीं भी घूमने का टिकट सिर्फ ६ पौंड में मिल जायेगा। इतनी कीमती सलाह लेकर मैं निकल पड़ा लंदन घूमने।
Map of London
London Metro Map
सबसे पहले हाईड पार्क स्टेशन उतरा। सुन रखा था यहाँ पब्लिक मीटिंग होती रहती है जैसे राम लीला ग्राउंड या जंतर मंतर में होता रहता है।
पार्क में थोड़ा बहुत घूमा। बहुत सारे लोग थे। एक जगह रास्ते दिखने वाले पट्टे लगे था लगता था की यहीं से बकिंघम महल तक जा सकेंगे पर मैप पर ग्रीन पार्क मार्क था। इस लिए वापस हाईड पार्क से ग्रीन पार्क की तरफ की मेट्रो ले ली। ग्रीन पार्क स्टेशन से बकिंघम पैलेस और वहां स्थित पार्क (शायद जेम्स पार्क ) नजदीक था।
Pcadally Circus and Hyde Park
इतना घूमने में ही करीब दो घंटे निकल गए। मेरे साथ एक और दिक्कत थी मेरे पास कोई कैमरा नहीं था। सिर्फ एक Nokia 6600 फ़ोन था जिसमे तब के समय का अच्छा कैमरा था पर आज से हिसाब से सिर्फ VGA कैमरा ही था। फिर कोई सेल्फी कैमरा तब होता ही नहीं था। अब जगहों के फोटो तो ले सकता थे पर अपनी फोटो कैसे लूँ ? इस अनजान जगह में किसीके हाथ में मैं अपना कैमरा देना भी नहीं चाहता था। मैंने कैमरा उल्टा कर एक दो अपनी फोटो ली लेकिन बहुत अच्छी नहीं आई। खैर इसी तरह मैं पिकाडली सर्कस , लंदन ब्रिज और ट्राफलगर स्क्वायर तक गया ।
Bukingham Palace and deep Escalator at London Bridge Underground
लंदन ब्रिज स्टेशन पर एक चलंत सीढ़ी (Escalator ) इतनी गहरी थी की देख कर डर लग जाये ।
At a restaurant at London Bridge for Lunch
टाइम छह घंटे निकल गए थे और अब क्योंकि एयरपोर्ट के लिए एक दो लाइन चेंज करना पड़ता इसीलिए समय की कमी के कारण मैं एयरपोर्ट के तरफ चल पड़ा। टावर ब्रिज और लंदन आई को बिना देखे। लन्दन मेट्रो के सभी लाइन को रंगो से जाना जाता है (जैसा और दुनिया का सबसे पुराना मेट्रो है और १८६३ में खुला था यह मेट्रो।
Monday, November 6, 2023
सुबह की दैनिक पदयात्रा -3 : समाज का अंतिम व्यक्ति
मैंने करीब दो साल पहले अपनी दैनिक पदयात्रा (Morning Walk ) पर कुछ ब्लॉग लिखे थे। पर्यावरण और इसीसे संबंधित बातें जब झकझोर देती तब ऐसे पोस्ट मैंने किये थे। बहुत दिनों के बाद एक बात मुझे फिर झकझोर गयी। हमारे कॉलोनी के कोने पर एक विकलांग भिखारी बैठा करता है सिर्फ सुबह एक घंटे। मैं अक्सर घर से याद कर कुछ सिक्के रख लेता हूँ उसके लिए और वह मेरा इंतजार भी करता नज़र आता है। कभी कभी जब पैसे नहीं होते तब ब्रेड / बन या बिस्कुट मैं नज़दीक के दुकानों से मोबाइल से पैसे दे कर भी खरीद कर भी दे देता हूँ।
मेरी सुबह की पदयात्रा सिर्फ एक किलोमीटर की होती है यानी आना जाना मिला कर दो किलोमीटर। मैं सिर्फ चलने की आदत बनाये रखना चाहता हूँ जो रिटायर्ड लोगों के लिए जरूरी भी है। ऐसा न करें तो ट्रेन भी न पकड़ सकू क्योकि ट्रेन भी दूर दूर के प्लेटफार्म पर आ सकती है और हवाई जहाज भी यदि दिल्ली के T -3 से पकड़नी हो तब दो किलोमीटर चलना निश्चित है। अब आज के टॉपिक पर वापस चलते है। मैंने पिछले दो दिन साल कोई दूसरा भिखारी अपने Morning Walk में नहीं देखा पर इधर कुछ दिनों से मै एक वृद्धा को अक्सर प्लास्टिक बोतल इकठ्ठा करते देखता और ऐसा सोच रहा था की शायद इन सबों को बेच कर उसका जीवन चल रहा हो। पर एक दिन उसकी एक हरकत मुझे हिला गया। वो पोल और दीवालों पर चिपकाये इश्तेहारों को उखाड़ उखाड़ कर कागज़ के उन हिस्सों को चबा कर खा रही थी जिसमे adhesive लगा होता है। शायद इससे नशा आता होगा या भूख मर जाती होगी। और आज एक दूसरी प्रोढ़ा को एक रेस्तरां के कचरो में से कुछ चावल के दाने और अन्य चीज़ो के बचे खुचे चीज़ों को इकठ्ठा करते देखा जबकि अन्य दिनों में इन कचरो को सड़क के कुत्तों को खाते देखा। मैं आज कागज़ खाने वाली वृद्धा के लिए लाये दस के सिक्के को तुरंत इस प्रोढ़ा को दे डाला की जाओं कुछ खरीद कर खा लो। लौटते समय उसे लेकिन उस कचरे को बीनते ही देखा। शायद कुछ ब्रेड बन ले आता तो बेहतर होता। लेकिन जो बात मुझे हिला गयी वह इन असहाय और बेघर लोगों की बढ़ती संख्या और जबकि ज़्यदातर व्यक्ति में स्वाभिमान अभी जिन्दा है और वे भीख नहीं मांगना चाहते। सरकार के इतने सारे कल्याणकारी योजनाओं के बाबजूद क्यों लोग भूखे है।क्या कमी रह गयी की इन योजनाओं का लाभ समाज के इन अंतिम व्योक्तियों तक नहीं पहुंच रहा। मनरेगा , महिला पेंशन , वृद्धा पेंशन , प्रधानमंत्री गरीब कल्याण अन्न योजना इत्यादि का लाभ इन तक क्यों नहीं पहुंच रहा। आरक्षण से लोग जनरल, OBC , EOBC , SC ,ST वर्ग में बंट गए है पर कोई इन अत्यंत गरीबो से नहीं पूछ रहा आप किस वर्ग में हो ? यदि ये लोग किसी आरक्षित वर्ग में है तो कहाँ है इनका लाभ ?
हमारी सड़क से मंत्री , अधिकारी , राज्यपाल और राष्ट्रपति तक गुजरते है लेकिन तब प्रशासन ठेले रेहड़ी वाले , फूटपाथ तक बढे हुए दुकानों तक को हटा देती है तो कैसे इन बेघरों , भूखो पर किसीकी नज़र पड़े । सरकारें भी यह सोच कर खुश है की गरीबों को दी जाने वाली सारी मदद सीधे बैंक खातों में जा तो रही है। गरीबों में जो थोड़ा बेहतर है वो सरकारी दुकानों से मुफ्त मिलने वाले अनाज बेच कर पैसे भी कमा रहे है
हमारी सरकार के गरीबों को देने वाली सुविधाएं कई सुविधसपन्न लोगो द्वारा अब भी हड़प ली जाती है। जातीय जनगणना की तो कई लोग हिमायत कर रहे है , शायद भविष्य में रिजर्वेशन की राजनीति के लिए पर ऐसे बेघरों की जनगणना क्यों नहीं की जा रही है ?
अब देखे हमारा संविधान क्या कहता है ? क्या खाना हमारा मौलिक अधिकार है ? संविधान के अनुसार "Article 39(a) of the Constitution, enunciated as one of the Directive Principles, fundamental in the governance of the country, requires the State to direct its policies towards securing that all its citizens have the right to an adequate means of livelihood, while Article 47 spells out the duty of the State to raise the level of nutrition and standard of living of its people as a primary responsibility. The Constitution thus makes the Right to Food a guaranteed Fundamental Right which is enforceable by virtue of the constitutional remedy provided under Article 32 of the Constitution. " ऐसे मौलिक अधिकार का क्या फायदा जब हम इसे लागू ही न कर सकें ?
रिजर्वेशन से ऐसे बेघरों , भूखों को कोई लाभ नहीं होने वाला । वोट में अवश्य फर्क होता है। इसलिए इस पर सबसे ज्यादा राजनीति होती है। रिजर्वेशन की राजनीति कैसे समाज को खोखला कर रहा है उसका एक उदहारण मणिपुर है। मणिपुर में एक ग्रुप ने रिजर्वेशन की मांग की और रिजर्वेशन मिले और मांगने वाले ग्रुप में हिंसा फ़ैल गयी जो थमने का नाम नहीं ले रही ।
मैंने जिन तीन लोगों का ज़िक्र ऊपर किया है उसमे सिर्फ एक भीख मांगता है , बाकी दो में अभी भी झिझक है। शायद कई राज्यों में चलने वाले जनता किचन जैसी योजना से इनकी झिझक इनके भूख के आगे न आये और ये इस तरह कागज़ को खा कर या कुत्तों से छीन कर खाने को विवश न हो। निश्चित तोड़ पर मेरे या किसीके कभी कभी कुछ पैसे दे देना समस्या हल नहीं है , शायद कोई समाज सेवी संसथान या NGO इनके मदद को आगे आये। इन लोगों का फोटो खींच उन्हें शर्मिंदा नहीं करना चाह रहे थे इसीलिए इंटरनेट से लिए "Free food for poor " से लिए फोटो के अलावा कोई फोटो नहीं दे रहा हूँ पर फैज़ अहमद फैज़ का ये चंद लाइन पेश है।
ये गलियों के आवारा बदनाम कुत्ते
के सौपा गया जिनको ज़ौके गदाई
जहां भर का फटकार सरमाया इनका
जहां भर कि दुत्कार इनकी कमाई
न राहत हैं शब को न चैन सबेरे
गलाज़त में घर नालियों में बसेरे
ये हर एक कि ठोंकरे खाने वाले
ये फांकों से उकता के मर जाने वाले
ये चाहें तो दुनिया को ज़न्नत बना दे
ये चाहें तो आकाओं के हड्डिया तक चबा ले
कोई इनको अहसास ज़िल्लत दिला दे
कोई इनकी सोई हुई दुम हिला दे
गरीबो के लिए मुफ्त खाना स्कीम (एक प्रदेश में )