कुछ दिन पहले वट सावित्री व्रत था। मेरी पत्नी नज़दीक के पेट्रोल पम्प वाले बरगद के पेड़ की पूजा करने जाया करती थी । अब पत्नीजी नज़दीक वाले वट बृक्ष तक नहीं जा सकती । ऐसे भी वहां बने चबूतरे जिस पर पूजा की जाती रही है उसे पास के पेट्रोल पंप वाले ने घेर दिया है । ऐसे में हमने एक डाली ला कर गमले में डाल कर पूजा करने का निश्चय किया । ऐसा हम पिछले कुछ वर्षों से करते आ रहे है । पुत्र के यहाँ था तब उसके पास एक बोन्साई था बरगद का और उसकी ही पूजा की गई । बोन्साई की देख रेख करनी पड़ती है , पानी भी देनी पड़ती है क्योंकि गमले की मिट्टी सूख जाती है । क्योंकि हमें बार बार रांची से बाहर जाना पड़ता है हम बोन्साई की देख रेख नहीं कर सकते । पिछली बार कामवाली के बेटे से टहनी मंगा ली थी पर इस बार वह नहीं था । बरगद और पीपल जहां तहाँ दीवालों पर भी उग जाती है और हमने उसकी टहनी लाने का सोचा । आश्चर्य है की सिर्फ चिड़ियों के बीट से ही पौधे उगते है । बीज लगा कर देखा था पर पौधे नहीं निकले । हम लोग एक हफ्ते पहले से अपने प्रातः भ्रमण में दीवालों पर उग आने वाले बरगद को ढूढ़ने लगे । पेड़ों पर टहनी बहुत ऊँचे होते है और उन्हें तोड़ना हमारे बस की बात नहीं थी । हमें रोड में बने पुल के किनारे वाले गार्ड वाल में एक बरगद का पौधा दिख गया और हमने सोचा एक दिन पहले तोड़ लेंगे । उसी दिन बड़े बरगद की एक नीची टहनी दिखी और उसके कुछ पत्तों के साथ मैंने तोड़ लिया । गमले में लगा कर पानी डाल दिया । पर धुप इतनी तेज थी ही अगले दिन सारे पत्ते सुख गए या मुरझा से गए । अब कुछ पत्ते तो ऐसे चाहिए जिस पर सुहागिने पति का नाम लिखती है और बालों में खोंस लेती है । पत्नी ने तो कुछ कहाँ नहीं पर मैं रोड के पूल वाले छोटे बरगद के पत्ते तोड़ने निकल पड़े , लेकिन किसीने टहनी आज ही तोड़ दी थी । मैं फिर भी दो ताजा पत्ते ले आया ।
मैं बरगद की टहनी तोड़ लाया तो फेस बुक के एक पोस्ट पर नज़र पड़ी । लिखा था "हमारे धर्म में यह सब त्यौहार पेड़ो को बचाने के लिए है । टहनी और पत्ते तोड़ हम पेड़ो को नुकसान पंहुचा रहे है " । मुझे अपने बचपन में माँ द्वारा किये गए वट सावित्री व्रत की याद हो आये । घर में रोट (एक तरह का ठेकुआ) प्रसाद बनता । घर से २-३ फर्लॉंग दूर के वट बृक्ष तक माँ , घर की और सुहागिने और हम बच्चे पूजन सामग्री के साथ जाते । एक नौकर भी साथ होता जो सभी के लिए पेड़ से पत्ते तोड़ता और अक्सर पत्तों के साथ टहनी भी तोड़ लाते । सभी व्रतियों को ५-७ पत्तों की जरूरत होती । हाथ वाले पंखे से पेड़ तो हवा की जाती । पंडित जी कथा कहते और हम प्रसाद कब मिलेगा की चिंता करते । यानि पत्ता/ टहनी तोड़ने की परम्परा पुरानी ही है । लेकिन दीवालों पर उग आये पेड़ो की टहनी तोड़ी जा सकती हैं, इसबार ही समझ आया । आज न कल ऐसे पेड़ - पौधों को तो उजड़ना ही है ।
सब तैयारी कर पत्नी पूजा करने लगी और मैं भी सुबह सुबह नहा कर तैयार ही गया । मुझे व्रत कथा सुनाना जो पड़ता है। नज़दीक वाले पेड़ के पास तो एक पंडित जी आ जाते थे और बैच में पूजा करवा देते और कथा सुना देते । पास के मंदिर में जा कर भी कथा सुना जा सकता है ।आज कल सभी कथा मोबाइल पर ही उपलब्ध है । और मैंने वही से कथा पढ़ कर सुना डाली । कथा सुनाने के बाद मुझे दक्षिणा में फल, मिठाई मिली । फिर पत्नी जी ने हमारा चरण स्पर्श किया । ये सब समता के सिद्धांत के विरुद्ध लगता है पर परम्परा है इसलिए मैंने इस बार मना नहीं किया और "सदा सौभाग्यवती" वाला आशीर्वाद भी दे डाला । मैं परेशान था की मैं कितना स्वार्थी या असंवेदनशील हूँ अपने को ही दीर्घायु होने का आशीर्वाद दे दिया । मैं इस पर सोचता रहा फिर इस निष्कर्ष पर पंहुचा की वास्तव में जो बाद में अकेला रह जाय वही सच मुच अभागा है। सौभाग्यशाली तो वही है जो अकेला न रह जाय ।
इसी दिन एक मजेदार बात हो गयी । एक छोटी सी बिल्ली (Kitten ) ने हम लोग को adapt कर लिया है । म्याऊं म्याऊं कर हमारे पैरों में लिपटती रहती है । हम कभी दूध, कभी बिस्कुट और कभी ब्रेड खिला देते । उसे कभी पसंद नहीं आता तो बिस्कुट ब्रेड में चीज़ लगा कर देने लगा । आखिर कर हमने अमेज़न से कैट फ़ूड मंगवा लिए । कैट फ़ूड की खुसबू उसे ३० फ़ीट दूर से ही मिल जाती है और मुझे उसे टेरेस / बालकनी में बंद कर ही कैट फ़ूड निकलना पड़ता है । घर में मछली बने तो ये एक दम पीछे पड़ जाती है । पर एक दिन एक चूहा घर में घुस गया और हमने चूहे दानी लगाई रात में एक छोटा वाला चूहा फंस भी गयी । बिल्ली टेरेस पर थी और चूहेदानी बालकनी में । पर मेरी छोटी बिल्ली अजीब रास्ते से उछल पुछल कर चूहेदानी के पास पहुँच गयी । चुहिया तो डर के मारे मानो मर ही गयी । चूहे दानी का कोना तलाश कर शांत पड़ी थी । चूहे के पूंछ को तो बिल्ली ने चबा डाला था । मैंने बिल्ली को टेरेस में बंद किया और एक झोले में चूहे दानी डाल चूहे को थोड़ी दूर ले जा कर छोड़ आया । इस नन्ही मुन्ही बिल्ली को किसने बताया की उसका प्राकृतिक आहार क्या है ?
हमारा रोज का प्रातः भ्रमण के कार्यक्रम में एक छोटे पार्क में जाना भी शामिल है । जहां दो झूले और दो स्लाइड्स है । बगल में एक प्रसिद्द स्कूल है । मैंने नोटिस किया कि एक बच्ची रोज स्कूल टाइम से पहले पार्क आ जाती है और झूला झूलती है और घड़ी देखते रहती है । मैंने एक दिन उससे पूछ ही लिया रोज जल्दी झूला झूलने के लिए आती हो ? किस क्लॉस में पढ़ती हो । उसने कहा ७ वीं में । अब मेरी पोती भी ७ वीं में ही है । एक कनेक्शन बनाने लगा । उसका नाम है परी । हम रोज मिलते है और परी मिलने पर पैर छू कर प्रणाम कर लेती । यदि हम लोग जल्दी आ कर मंदिर के तरफ निकल गए और नहीं मिल पाए तो परी इंतज़ार करती हमलोग के लौटने का और हम दिख गए तो झूला छोड़ कर पार्क के गेट तक दौड़े आती और मिल लेती है । आज कल समय mismatch के कारण तीन चार दिन परी दिखी नहीं तो मैं miss कर रहा हूं। शायद इसलिए FB, Instagram Whattsapp बना है। हमें पहले भी एक छोटी नतिनी - चंडीगढ़ शताब्दी ट्रैन में (२००९) और एक छोटा सा पोता मनोकामना मंदिर नेपाल (२०१५) में मिल चुका है और यह पोता तो हमे जाने ही नहीं दे रहा ।उसकी माँ ने बताया बच्चे के दादा जी भी मेरे जैसे टकले है । उन दोनों का मासूम भोला चेहरा अभी भी मन में बसा है। ये कनेक्शन क्या कहलाता है ?