गया का महत्त्व पिंडदान और सूर्य पूजन का पर्व छठ से जुड़ा है। गरुड़ पुराण में गया को सभी तीर्थों से उत्तम माना गया है। वायु पुराण में कहा गया है की गाया जी हर स्थान एक तीर्थ है और मत्स्य पुराण में इसे पितृ तीर्थ बताया गया है।
बिहार का गया जिला, जिसको लोग बहुत ही आदरपूर्वक ‘गयाजी’ के नाम से पुकारते हैं. गया जिले को धार्मिक नगरी के नाम से भी जाना जाता है. यहां हर कोने-कोने पर मंदिर हैं, जिनमें स्थापित मूर्तियां प्राचीन काल की बताई जाती हैं. हालांकि, सभी की मान्यताएं अलग-अलग हैं. भाद्रपद महीने के कृष्ण पक्ष के 15 दिनों को ही पितृपक्ष कहा जाता है. गरुड़ पुराण के मुताबिक, गयाजी में होने वाले पिंडदान की शुरुआत भगवान राम ने की थी. मान्यता है कि भगवान राम, सीता और लक्ष्मण गया की धरती पर पधारे थे और यही अपने पिता दशरथ का पिंडदान किया था. तभी से यहां पिंडदान करने की महत्ता शुरू हो गई थी. गयाजी में पिंडदान करने से पूर्वजों की मोक्ष की प्राप्ति होती है. यहां देश-विदेश से भी अब लोग अपने पूर्वजों की मोक्ष की कामना के लिए पिंडदान करने आते हैं पंडा लोग भारत की सभी भाषाएं बोलते मिल जाएगे.
विष्णुपद मंदिर
सीता का श्राप
वाल्मीकि रामायण के अनुसार श्री राम लक्ष्मण और सीता दशरथ के पिंडदान के लिए गया आये थे। श्री राम और लक्ष्मण पिंडदान में प्रयोग होने वाली वस्तुओं के लिए नगर के तरफ गए और देर होने पर दशरथ जी की आत्मा ने सीता से पिंडदान का मांग कर दिया। सीता जी जो फल्गु के किनारे अकेली थी फल्गु , केतकी (फूल ) , गाय और वट बृक्ष के गवाही में पिंडदान कर दिया। जब राम जी और लक्ष्मण जी वापस आये तो सीता ने बताया की ये चारों गवाह है की मैंने पिंडदान कर दिया। फल्गु नदी , केतकी और गाय मुकर गए जबकि वट बृक्ष ने सिर्फ सच बोला। तब सीता ने तीनो को श्राप दिया फल्गु को "तुम सिर्फ नाम के नदी रहोगे और तुझमे पनी नहीं रहेगा , केतकी को श्राप दिया की तुम्हारे फूल कभी देवताओं पर नाही चढ़ेंगे। गाय को श्राप दिया की भले ही तू पूज्य है पर तुम जूठा खाएंगी।
फल्गु नदी पिंडदान घाट , अक्षय वट
मेरी हाल की गया यात्रा
गया जक्शन एक बहुत ही मत्वपूर्ण स्टेशन है दिल्ली - हावड़ा ग्रैंडकॉर्ड लाइन पर और बहुत सी ट्रेन वन्दे भारत और राजधानी एक्सप्रेस समेत यहाँ रूकती है और यहाँ आने का रेल सबसे सुविधाजनक साधन है। पर पटना या रांची से बस या कार से भी आया जा सकता हैं। मैं 13-15 अक्टूबर 2023 को गया में था, पिण्डदान के लिए। मैं रांची से ट्रेन से ही आया था। रांची पटना के बीच चलने वाले चार ट्रेन गया हो कर पटना जाती है। पितृ पक्ष मेले के समय गया था तो होटल बुक करने में दिक्कत हुई। बाद में पिता महेश्वर मंदिर मार्ग में मिला होटल मिला। होटल में रूम ठीक था बाथरूम भी था , कमोड और AC भी। लेकिन लोकेशन बहुत अच्छा इस लिए नहीं था क्योंकि मंदिर के कारण ट्रैफिक की हालत ख़राब थी । पार्किंग नहीं था। पहले दिन सभी गाड़िया इस रास्ते पर बंद कार दिए गए।
लेकिन गया करीब १० वर्ष पहले किये गए ट्रिप से बेहतर था साफ सफाई ठीक थी पर ट्रैफिक की हालत बिगड़ी हुई है। पितृपक्ष मेला को संभालना आसान नहीं है। पूरे देश के लोग आए थे, पन्डा लोगों को कई भाषा बोल रहे थे। पर जो बात खटकी वह थी फल्गु नदी में गंदगी। फल्गु को सूखा रहने श्राप मिला था और रबर डैम बना कर पानी भर दिया गया है । अब इस पानी में बहुतायत में फूल और चावल के आंटे के बने पिण्ड फेंकें जा रहे है, फूल को तो छान लेते है पर पिण्ड तो सड़ जाते है और पानी महकने लगता है और इसी में नहाना पड़ता है। जब नदी सूखी थी तब बालू खोद साफ पानी से लोग नहा लेते है, और बालू पर पड़े पिण्ड पक्षी खा लेते। सीता जी के श्राप को झुठलाने की कोशिश से कोई पोजिटिव परिणाम नहीं निकला।
पिंडदान की विधि
मैंने पहले सभी पूर्वजों का तरपन किया और फिर जिन पूर्वजों का पिंडदान करना था उसका पिंडदान एक चादर बिछा कर किया। पंडित जी ने बताया पिंड को तीन भाग में करके एक भाग फल्गु नदी में डालना है एक भाग विष्णुपद मंदिर - जो फल्गु किनारे के पास थी देना था और अंतिम भाग अक्षय वट में जो फल्गु से कुछ दूर था । इलेक्ट्रिक ऑटो जिसे यहाँ टोटो बोलते है का किराया १००-१५० रु देने पड़े। अंत में हमने पिंडदान में पहने नए कपडे बदल कर वही छोड़ दिया।
पितृपक्ष से जुड़ी एक और कहानी
पितृ पक्ष मेला में पिण्डदान व श्राद्ध के लिए लोगो पूरे भारत और विदेश से भी यहाँ आते है । माना जाता है कि जिसका भी पिण्डदान यहां किया जाता है उसे मोक्ष की प्राप्ति हो जाती है। गया तीर्थ को तर्पण, श्राद्ध व पिण्डदान के लिए इतना महत्वपूर्ण क्यों माना जाता है इसके पीछे एक और धार्मिक कथा है। प्राचीन काल में गयासुर नामक एक शक्तिशाली असुर भगवान विष्णु का बहुत बड़ा भक्त था। उसने अपनी तपस्या से देवताओं को चिंतित कर रखा था। उनकी प्रार्थना पर विष्णु व अन्य समस्त देवता गयासुर की तपस्या भंग करने उसके पास पहुंचे और वरदान मांगने के लिए कहा। गयासुर ने स्वयं को देवी-देवताओं से भी अधिक पवित्र होने का वरदान मांगा।
वरदान मिलते ही स्थिति यह हो गई कि उसे देख या छू लेने मात्र से ही घोर पापी भी स्वर्ग में जाने लगे। यह देखकर धर्मराज भी चिंतित हो गए। इस समस्या से निपटने के लिए देवताओं के अनुरोध पर विष्णु ने अपने भक्त गयासुर को अपने शरीर पर एक यज्ञ के लिए राजी कर लिया गयासुर ने अपना संपूर्ण शरीर इस यज्ञ के लिए दे दिया । गयासुर अपना शरीर देने के लिए उत्तर की तरफ पांव और दक्षिण की ओर मुख करके लेट गया। गयासुर के पुण्य प्रभाव से ही वह स्थान तीर्थ के रूप में स्थापित हो गया। गया में पहले विविधि नामों से 360 वेदियां थी लेकिन उनमें से अब केवल 48 ही शेष बची हैं। आमतौर पर इन्हीं वेदियों पर विष्णुपद मंदिर, फल्गु नदी के किनारे अक्षयवट पर पिण्डदान करना जरूरी समझा जाता है। इसके अतिरिक्त नौकुट, ब्रह्योनी, वैतरणी, मंगलागौरी, सीताकुंड, रामकुंड, नागकुंड, पांडुशिला, रामशिला, प्रेतशिला व कागबलि आदि भी पिंडदान के प्रमुख स्थल हैं।
पिंडदान पूजा
अगले दिन नवरात्र का पहला दिन था। रात चार बजे अचानक बैंड बाजा, ड्रम और लाउडस्पीकर के आवाज से नींद टूट गई। बाहर जा कर देखा तो लोग कलश और उसके उपर जले हुए दीये रख कर गाजे बाजे के साथ चले जा रहे थे। पता चला ये सभी लोग पिता माहेश्वर घाट जो मेरे होटल से १ KM की दूरी पर है जा कर स्नान कर कलश भर कर मंदिर में पूजा कर ला रहे है। इतने गाजे बजे के साथ लोग अपने घर के लिए या पूजा पंडालों के लिए कलश भर कर ला रहे थे ऐसे सभी जगह नहीं दिखता। पता चला यहाँ हर त्यौहार इसी प्रकार मनाया जाता है। धूम धाम से । मंगला गौरी मंदिर में भी लोग आज के दिन जाते है। टेकरी राज के समय से ऐसा होता आ रहा है।
छठ और गया के सम्बन्ध में मेरा आलेख अगले अंक में।