Friday, October 29, 2021

भाई दूज की बजरी - सरोज सिन्हा

भाई दूज का पर्व आने वाला है इस बार भाई दूज ६ नवम्बर २०२१ को हैं । इस अवसर पर एक ब्लॉग की पुनरावृति कर रहा हूँ । मूल लेखक मेरी मम्मी ( ममतामयी मेरी स्व सासु माँ राजन सिन्हा ) हैं । सरोज सिन्हा के ब्लॉग से उद्धृत

अब तक मैने अपनी रचनाए आपसे सांझा की है, अब मै अपनी स्वर्गीय माँ द्वारा लिखित कथा कहानियाँ मे से एक मदर्स डे पर सांझा कर रहीं हूँ। मै अपने बचपन से उनसे उनकी स्मृतियाँ पर आधारित कहानियाँ सुनती आई हूँ। माँ का दादी घर नेपाल की तराई में है और नानीघर बिहार के मिथिलांचल में, और उनकी बहुतों कहानियाँ ईन क्षेत्रों पर ही आधारित हैं। 2009 में उनकी कुछ संस्मरण काठमाण्डू की एक पत्रिका में प्रकाशित हुई थी और मै उसे फिर से इस ब्लॉग के माध्यम से सबके सामने ला रहीं हूँ, आशा है आप इसे भी पढ़ेगें और पसंद भी करेंगें। पहली रचना नेपाल तराई क्षेत्र, बिहार में पारंपरिक ढंग से मनाए जाने वाले भाई दूज के त्योहार पर आधारित है।



मै, बुवा (नाना) , किशोर और विमल
भाई दूज की बजरी

दशहरा दीपावली का त्योहार हमारे हिन्दु समाज में अलग अलग महत्व रखता है। पर भैया दूज का बहने बड़े बेसब्री से इंतजार करती है। बचपन से हम सभी बहनें अपने भाईयों को कैसे टीका लागाएगीं, कैसी माला बनाएगीं, किसकी माला सबसे सुंदर होगी की होड़बाजी करती थी। घर में माँ, चाची, बुआ,सारी तैयारी करते पर हम बहनों को अपनी अपनी कल्पना की उड़ान से मतलब था। हम बच्चों पर कोई जिम्मेदारी तो थी नहीं। सबसे ज्यादा खुशी हमें बजरी कूटने मेें आती। ननिहाल में रहते तो नानी और दादी के घर रहते तो दादी एक ही कथा सुनाती कि कैसे सात बाहनों ने यमराज से अपने एकलौते भाई की प्राण रक्षा की । वह कथा मुझे अब भी याद है । नानी दादी की कथा उनके ही शब्दों में :-

बहुत पुरानी बात है किसी गाँव में एक ब्राम्हण दम्पति रहा करते थे। उनका नाम था देवदत्त शर्मा तथा ब्राम्हणी रुद्रमती। दोनों पति-पत्नि बहुत ही सीधे, सरल तथा धार्मिक प्रवृति के थे । समय के साथ साथ देवदत्त के घर में एक-एक कर सात कन्याऔं ने जन्म लिया। पुत्रियों के जन्म को उन्होनें भगवान का वरदान माना। कभी अपना मन दुखी नहीं किया पर एक पुत्र की आकांक्षा उनके मन में थी, कि एक पुत्र होता तो वंश आगे बढ़ता । मरने पर पिंड पानी देगा । पर उनके वश में तो कुछ था नहीं ईश्वर की इच्छा समझ कर पुत्रियों को अच्छे संस्कार देकर पालन पोषण करने लगे।

धीरे-धीरे बेटियाँ बड़ी हुई । उनकी सखी-सहेलियाँ भईया-दूज की तैयारी करती तो, उन्हें लगता कि हम भी भईया दूज में भाई को टीका लगाएगीं ।भाई को मिठाई खिलाएगें । घर जाकर माँ से पूछती तो माँ मना करती कि तुम्हारा कोई भाई नहीं है । वे माँ से प्रश्न करती हमारा कोई भाई क्यों नहीं है, सभी के भाई है, पर हमारा क्यों नहीं? माँ बेचारी क्या उत्तर देती, इतना ही कह देती “भगवान ने नही दिया ।"

माता पिता ने बेटियों के नाम गुण अनुरूप ही रखे थे, धीर-गम्भीर गंगा, यमुना, सरस्वती, गोदावरी, अलकनंदा, कावेरी और सबसे छोटी सबसे चंचल नर्मदी। सभी बहनों ने विधि के विधान को स्वीकार कर लिया परन्तु नर्मदा के मन ने यह स्वीकार नहीं किया । वह सोचती भगवान ने हमारे ही साथ यह अन्याय क्यों किया ? हमें भाई के सुख से वंचित क्यों किया। वह भगवान से प्रार्थना करती, रुठती, रोती और यही कहती, क्या तुम्हारे लिए हमारा दुख कोई मतलब नहीं रखता। कैसे भगवान हो तुम जो मेरी इतनी सी बात नहीं सुनते इन्ही दिनों ईश्वर की कृपा से ब्राहम्ण दम्पत्ति के घर एक पुत्र ने जन्म लिया । गोल मटोल सुन्दर सा पुत्र पाकर दोनों ने ईश्वर को लाख लाख धन्यवाद दिया। बहनें तो निहाल हो गई। बड़े प्यार से उन्होनें बालक का नाम सुदर्शन रखा ।

ब्राम्हण परिवार सुख से समय व्यतीत करने लगे। बेटियाँ ब्याह योग्य हो गयी तो ब्राह्मण दम्पत्ति ने अच्छे संस्कारशील परिवारों में योग्य वर खोज कर गंगा, यमुना, सरस्वती, गोदावरी, अलकनन्दा और कावेरी का विवाह कर उनको ससुराल भेज दिया। पर सबसे छोटी, सबसे तेज, हठीली नर्मदा ने न जाने क्या सोच कर विवाह से इन्कार कर दिया। शायद उसके मन में नाबालिग भाई और वृद्धावस्था की ओर बढ़ते माता पिता की असुरक्षा का भय था। उसने फिर कौमार्य ब्रत धारण करने की घोषणा कर दी।

दादी की कथा आगे बढ़ती रही। भईया दूज के दिन हम सभी मुंह अंधेरे नहा धो करा तैयारी हो जाते। बडे़ लोग अपनी अपनी तैयारी में जुटे रहते। सबेरे ही गाय के गोबर से आँगन लीपकर शुद्ध किया जाता । बीच आंगन में दादी चौका पूर कर, एक दिन पहले गोवर्धन पूजा मे प्रयोग किया गया गोबर से एक डरावनी सी आकृती बना कौड़ी की आखें डाल देती और आकृति की छाती पर एक पूरी इँट डाल उसपर एक मूसल रख देती । उल्टे यानी बायाँ हाथ से पूजा करने कहती। हम पूछते, बायाँ हाथ से क्यों, तो दादी कहती पहले सारी कथा सुन ले, बाद में प्रश्न पूछना।



इंटरनेट से लिया फोटो, कॉपी राइट वालों का आभार !

सुदर्शन दस वर्ष का हो गया था। उस बार भईया-दूज के दिन सातों बहनें अपनी तैयारी में लगी थी। आंगन को गाय के गोबर से लीप कर पवित्रता का प्रतिक अक्षत (चावल) और संघर्ष का प्रतीक लाल अबीर से अल्पना बनाया । जीवनी शक्ति का प्रतीक जल से भरा शुभ शगुन का प्रतीक कलश पर आत्म-चेतना का प्रतीक दीप प्रज्वलित किया । अमरता का प्रतीक दूब को दीर्घायु का प्रतीक सरसों के तेल में डुबोकर चौके को सुरक्षित घेरे में बाँध कुश के आसन पर भाई को बैठाकर कर टीका लगाने, “बजरी” खिलाने तैयार हुई । नवग्रह का प्रतीक नौ तरह के दलहनमें एक “हरी छोटी मटर" को स्थानीय बोलचाल की भाषा में “बजरी” कहा जाता है।पवित्रता का प्रतीक पान, सुपारी, और बजरी का होना अनिवार्य है। कभी न मुरझाने वाला मख मली, कभी न सूखने वाला कपास की माला, फल फूल, लक्ष्मीका प्रतीक द्रव्य, शीतलता का प्रतीक दही, थाली में सजाकर सुख सौभाग्य का प्रतीक सिन्दुर का टीका लगाने को बढ़ी ही थी कि एक अति डरावनी आकृति के पुरुष को अपने सामने पाकर चकित रह गई। कुछ पल को वह बोल ही नहीं पाई। फिर साहस बटोर कर नर्मदा ने पूछा कौन है आप और किस उद्देश्य से पघारे है । आप हमारे घर आए अतिथि है, हम आपकी क्या सेवा करे ।

उस डरावने पुरुषने कहा न मै तुम्हारा अतिथि हूँ और न मुझे तुम्हारी कोई सेवा चाहिए मै यमराज हूँ। इस बालक की आयु समाप्त होने को है । मैं इसे लेने आया हूँ, शीघ्र इसे इस सुरक्षित घेरे से बाहर निकालो । मैं इसके प्राण लेकर चला जाउँगा। सभी बहनें एक दूसरे का मुंह देखने लगी। किसी को कुछ सूझ ही नहीं रहा था कि, क्या करें, क्या कहे, क्या हमारा प्राण प्रिय भाई हमसे विछुड़ जायगा।

यम की रट देख तीक्ष्ण बुद्धि नर्मदा समझ गई कि इन अमरता की प्रतीक वस्तुओं का अनादर यम नहीं कर सकते, तभी तो इसे इस रक्षा रेखा से बाहर लाने की रट लगा रहे है। उसने धैर्यता से काम लिया। और यमराज से अनुनय-विनय करने लगी। हे देव, आप तो सर्वज्ञ है, सर्वशक्तिमान है, आपसे कोई बच नहीं सकता । मृत्यु तो जीवन का शाश्वत सत्य है, जो प्राणी जन्म लेता है उसे एक न एक मृत्यु विश्राम लेना ही पड़ता है । यह सत्य न आपसे छिपा है न हम मानवों से । फिर भी आप इस नन्हें से बालक पर दया कर इसके वृद्ध माता पिता पर कृपा कर के उनका सहारा न छीने । नर्मदा के अनुनय विनय का यम पर कोई असर नही पडा। वे यही रट लगाते रहे कि शीघ्र इसे मेरे हवाले करो, मुझे सुर्यास्त से पहले अपनी भगिनी यमुना के घर जाना है । यम की बात सुन नर्मदा ने कुछ सोचा .....

अपने भवन के द्वार पर खड़ी सुर्य पुत्री यमुना मन हीं मन व्याकुल होकर भाई की प्रतिक्षा कर रही थी क्यों नही आया। कहाँ रह गया। पिताके शाप से शापित पंगु पद से वह चल नही सकता । उसका मन्दबुद्धि-मन्दगति वाहन महिष किधर खो गया । भाई-दूजका समय बीता जा रहा था। भाई के अनुसन्धान में उसने अपने अनुचर को चारों और दौड़ाए , पर सभी सर झुकाये आकर खडे़ हो गये । सुर्यपुत्री यमुना ने अपने पिताको याद किया और उधर ही चल पड़ी ।

दिनभर के प्रचन्ड ताप से सारी सृष्टि, जीव-जन्तु, पेड-पौधे सभी को झुलसाकर अरुण रथ के आरोही स्वंय थकित व्यथित, अपने प्रचन्ड तेजको समेटते हुए अपने विश्राम स्थल अस्ताचल की ओर झुकने लगे । शनै शनैः निशासुन्दरी के आगमन की संकेत मिलने लगे। प्रातःकाल से दाना दुनका के खोज में निकले पक्षी कलरव करते हुये अपने नीड़ के तरफ उड़ चले । माँ की प्रतिक्षा में भूख से व्याकुल नन्हे नन्हे शावक, चक्षु खोले चंचल हो उठे । सद्य वत्सा गौए दुग्धभार से थकित धीर मंथर गति से चलकर अपने बछड़े की भूख मिटाने गौशाला की और चली जा रही थी। गोधूली की बेला में गोधूली से सारी पगडंडी आच्छादित हो उठी। भुखे-प्यासे क्लांत गो चारक व्याकुलता से घर पहुंचने को आतुर थे । निशासुन्दरी अपने तारों की सेना के साथ अपना साम्राज्य स्थापित करने दिवाकर को पीछे से आक्रमण कर उन्हे अंधकार में डुबो देने को आतुर अपनी असंख्य सितारों जड़ी काली चादर से सारी प्रकृति को ढक देने की संकल्प के साथ तेजीसे चली आ रही थी।

पिताश्री, पिताश्री "एक क्षण को रुक जाइये, रुक जाइये" । परिचित स्वर की पुकार सुन दिवाकर ने अपने रक्तिम नेत्रोको खोलकर देखा, पुत्री यमुना उन्हें पुकारती हुई चली आ रही है। उन्होने अपनी गति को थोड़ा भी विराम न देकर पुछा । पुत्री क्या विपत्ति आ गई, जो तू इतनी व्याकुल है। सुर्यपुत्री यमुना ने कहा - हे पिता श्री भाई दूजका समय निकला जा रहा है मैं भाई की प्रतिक्षा करते थक गई । पर वह अभीतक नही आया मैने उसके अनुसन्धान में अपने अनुचर को चारो ओर भेजा, पर वह कही नहीं मिला । कृपया आप अपनी दष्टि चारों ओर घुमाकर देखें, वह कहा किस हाल में है। सुर्यदेव ने अपनी दृष्टी आकाश, पाताल, धरती पर केन्द्रित कर यमको खोजने की चेष्टा की। परन्तु उनकी शत्तिः शनैः शनैः क्षीण होती जा रही थी, उन्होने पृथ्वी परअपनी दृष्टि दौडाई तो उन्हें विश्वास करना कठिन हो गया। पुत्र की दुर्दशा पर उनका हृदय द्रवित हो गया। उदण्ड ही सही, श्रापित ही सही, था तो अपना पुत्र ही। पिताका हृदय व्यकुल हा गया। उन्होने यमुना से कहा पुत्री, शीघ्र जा और अपने भाई की रक्षा कर । अब तू ही उसका उद्धार कर सकती है। मेरी शक्ति अब क्षीण हो चकी है। यमुनाको उसका गन्तव्य बताकर सुर्यदेव अस्ताचल की ओर प्रस्थान कर गये।

यमुना उस स्थान पर पहुंची जहाँ सातों बहनें यम की छाती पर रखी शिला पर बजरी और सुपारी तोड़ रही थी। सुपारी छिटक छिटक कर दूर गिर रही थी और उसे उठा उठा कर धमाधम कूट रही थी । असहाय सा भाई चित पड़ा था। उसका मन्दगति वाहन आनन्द से बैठा जुगाली कर रहा था। यमुना ने कहा तुम यह क्या कर रही हो। इसे छोड़ दो। यह मेरा भाई है, मै भाई दूज के लिए इसे लेने आई हूँ ।

बुद्धिमती नर्मदा तो इसी की प्रतीक्षा में थी। तभी तो उसने इस शर्त पर यम से वचन मांगा था कि उनकी छाती पर शिला रख, सुपारी और बजरी तोड़, भाईको बजरी खिलाकर उन्हे सौप देगी। वह न सुपारी तोड़ रही थी और न ही बजरी । वह जानती थी कि यमुना अवश्य आयेगी और तब वह यम से निबट लेगी। उसने कहा हे देवी यमुना, क्या आप चाहेगी आज के दिन किसी बहन का भाई उससे छिन जाय । क्या आप यह स्वीकार करेंगी कि आपका भाई आपसे सदा के लिय यह बिछड़ जाय । आप अपने भाई से कहे कि वे मेरे भाई को जीवन दान दे, नही तो मैं सारी उम्र उनकी छाती पर सुपारी और बजरी तोड़ती रहूँगी। यमुना ने कहा - पुत्री मैं तुझे वचन देती हूँ, तेरा भाई तुझसे कभी अलग नहीं होगा । तू यमको मुक्त कर दे । शाम होते ही तेरे भाई का योग टर गया है।

नर्मदा की दृढता उसका विश्वास लगनशीलता देख देवी यमुना बहुत प्रसन्न हुई। उन्होने कहा - पुत्री नर्मदा तुम्हारा भातृ प्रेम, भाई के प्रति तुम्हारा उत्सर्ग देख मै तुमपर बहुत प्रसन्न हुँ, मांगो मैं तुम्हारी इच्छा पूरी करुंगी।

हे देवी अगर आप मुझे वरदान देना चाहती है तो यही वरदान दीजिए कि किसी बहन का भाई न अल्पायु हो और न आजके दिन उसे काल स्पर्श कर सके । नर्मदा ने वडी विनम्रता से प्रार्थना की । “हे पुत्री नर्मदा तुम्हारे भातृ प्रेम की गंगा तुम्हारे ह्दय मे अनवरत रुप से युगो-युगो तक प्रवाहित होती रहे । जब तक यह धरती, चन्द्र और सुर्य का अस्तित्व तब तक तुम स्नेह की भागीरथ बन निरन्तर सबको प्रेमका सन्देश देती रहो। तुम्हारे जल में प्रवेश कर जो बहन अपने भाई को बजरी खिलायेगी उसे कभी भाई का वियोग सहन करना नही पडे़गा।

तबसे आजतक चिरकुँवारी नर्मदा नदी रुप में इस धरती पर अपनी अबाध, अविरल, धीर-गम्भीर गति से अपने गंतव्य की ओर बढ़ती रही है ।

बस दादी की कहानी यहीं समाप्त हो गयी । दादी ने पूछा कुछ और पूछना हैं या सब समझ गई । हमने समझने की मुद्रा में सर हिला दिया , और भाइयों को बजरी खिलाने दौड़ पड़ी ।

Sunday, October 24, 2021

शरद पूर्णिमा त्योहार के बारे में रोचक तथ्य


नव रात्रि और विजयदशमी के पांच दिनों बाद आती हैं अश्विन मास की पूर्णिमा । हिंदू मान्यताओं में अनुसार अश्विन मास का बहुत महत्व है। इस पूर्णिमा को शरद पूर्णिमा, अमृत पूर्णिमा, कुमार पूर्णिमा और कोजागरी पूर्णिमा के नाम से देश के भिन्न भागों में मनाया जाता हैं । इस साल २८ अक्टूबर को मनाई जा रही है जबकि २०२१ में 20अक्टूबर के दिन शरद पूर्णिमा मनाई गई । ये पूर्णिमा तिथि धनदायक मानी जाती है, ये भी माना जाता है कि इस दिन आसमान से अमृत की बारिश होती है और मां लक्ष्मी की कृपा मिलती है. धार्मिक मान्यताओं के अनुसार इसी दिन से सर्दियों की शुरुआत होती है. इस दिन चंद्रमा की पूजा होती है. पूर्णिमा की रात चंद्रमा की दूधिया रोशनी धरती को नहलाती है और इसी दूधिया रोशनी के बीच पूर्णिमा का पर्व मनाया जाता है।

शरद पूर्णिमा और खीर

शरद पूर्णिमा की रात को खीर बनाकर चांदी के बर्तन में खुले आसमान में रखने की मान्यता है। आजकल कई वैज्ञानिक कारण देते हैं लोग । लेकिन मान्यता है की इस रात चाँद अमृत की वर्षा करती हैं । इस दिन का धार्मिक महत्व भी काफी ज्यादा है. ऐसा माना जाता है कि शरद पूर्णिमा के दिन ही मां लक्ष्मी की उत्पत्ति समुद्र मंथन से हुई थी. इस धनदायक माना जाता है कि इस दिन मां लक्ष्मी पृथ्वी पर विचरण करने आती हैं. जो लोग इस दिन रात में मां लक्ष्मी का आह्वान करते हैं उन पर मां की विशेष कृपा रहती है।
खीर को रात भर रख कर खाने की परम्परा पर चाहे जो भी तर्क दिया जाये, मेरा मानना है की खीर और रसिया (गन्ने के रस में पकाया चावल) बासी होने पर और स्वादिष्ट हो जाता हैं और यदि रात भर छोड़ने का कोई धार्मिक कारण न दिया जाये बच्चों से सुबह होने तक धीरज बनाये रखने की उम्मीद नहीं कर सकते हैं । एक बात और खीर मेरी पोती को बहुत पसंद हैं और इसबार शरद पूर्णिमा पर हमने उसे बहुत मिस किया ।



ऐसे की जाती है पूजा

शरद पूर्णिमा को चंद्रमा की पूजा करने का विधान भी है, जिसमें उन्हें पूजा के अन्त में अर्ध्य भी दिया जाता है। भोग भी भगवान को इसी मध्य रात्रि में लगाया जाता है. इसे परिवार के बीच में बांटकर खाया जाता है। सुबह स्नान-ध्यान-पूजा पाठ करने के बाद इसे प्रसाद के रूप में बांटा जाता है। लक्ष्मी जी के भाई चंद्रमा इस रात पूजा-पाठ करने वालों को शीघ्रता से फल देते हैं। कुछ लोग उपवास भी रखते हैं । इस दिन की पूजा में कुलदेवी या कुलदेवता के साथ श्रीगणेश और चंद्रदेव की पूजा बहुत जरूरी मानी जाती है।


भारत में विभिन्न स्थानों में शरद पूर्णिमा

भारत में शरद पूर्णिमा विभिन्न स्थानों में अलग तरीके से मनाया जाता हैं ।यह दशहरे के बाद पांचवें दिन पड़ता है। देवी लक्ष्मी देश के कुछ हिस्सों में उत्सव की अध्यक्षता करती हैं, जबकि कुछ अन्य हिस्सों में भगवान कृष्ण की पूजा की जाती है। लक्ष्मी धन और समृद्धि की देवी हैं, और कृष्ण शाश्वत प्रेम के प्रतीक हैं।


बंगाल
बंगाल में यह लक्खी पूजा के रूप में घर घर में मनाया जाता हैं , ऐसे मेरे घर में दिवाली के रात ही लक्ष्मी गणेश की पूजा की जाती हैं और बोकारो/ रांची में निवास होने के पश्चात मैं लक्खी पूजा से वाक़िफ़ हुआ था बंगाली श्रद्धा से देवी लक्ष्मी को मां लक्खी कहते हैं। जब बंगालियों को दुर्गा पूजा के दौरान बुराई पर दैवीय जीत के कारण शांति का आशीर्वाद मिल जाता है, तो वे पूर्णिमा की रात को समृद्धि का आशीर्वाद पाने के लिए देवी लक्ष्मी की पूजा की तैयारी में व्यस्त हो जाते हैं। प्रवेश द्वार से लेकर इंटीरियर तक फर्श को अल्पना से सजाने की रस्म हर घर में निभाई जाती है। बंगाल में अधिकांश घरों में कमल पर बैठी देवी की मूर्ति को फूल, घर की बनी मिठाई भक्ति के साथ अर्पित करके माँ लोकखी की पूजा की जाती है। घर की बनी मिठाइयों में नारकेल नाडु माँ लोकखी को विशेष भोग लगाया जाता है। यह उत्सव की मिठाई नारियल की गिरी को बारीक पीसकर, चीनी, दूध, घी और सूखे मेवों के साथ मिलाकर बनाई जाती है। पूर्णिमा की शाम को बंगाली घरों की रसोई में विशेष खिचड़ी पकाया जाता है । रांची में हर साल लक्खी पूजा का प्रसाद हमारे पड़ोसियों के आ ही जाते है । कोई न कोई बंगाली हमेशा हमारे पडोसी रहे हैं यहाँ ।


तिरहुत या उत्तर बिहार

इस पूर्णिमा की रात जिसे पूरे देश में शरद पूर्णिमा के रूप में जाना जाता है, तिरहुत में कोजागोरी पूर्णिमा या कोजागरा पर्व कहलाती है। यह पर्व नवविवाहितों के लिए विशेष महत्व रखता है, क्योंकि परिवार के लोग उनके सुखद दांपत्य जीवन की मंगलकामना के लिए मनाते हैं। पारिवारिक एवं सामाजिक जीवन के लिए मानसिक रूप से संकल्पबद्धता के लिए मनाए जाने वाले इस पर्व में पान व मखान या मखाना का विशेष महत्व है। वर पक्ष के परिजन गांव-समाज में उस दिन विशेष रूप से पान-मखान बांटते हैं। पान की लालिमा खुशहाली व मनोरम स्वरूप का प्रतीक है, जबकि मखान संकल्प व श्रम से कठोर मखाने के बीज से छनन, तपन व प्रहार के बाद मिलने वाला स्वच्छ व पौष्टिक मखाना सफल एवं फलप्रद दांपत्य जीवन के प्रति आश्वस्त करता है। पर्व में लक्ष्मी पूजन के साथ दांपत्य जीवन में संतान की कामना के लिए भी प्रार्थना की जाती है। इसमें वधू पक्ष से अन्न, फल एवं मिठाई को सुसज्जित डाला में भेजा जाता है, जिसे वर पक्ष के लोग अरिपन या अर्पण करते हैं। पूजा के दौरान वर ससुराल से आए कुर्ता-धोती पहनकर बैठता है, जबकि महिलाएं गीत गाते हुए सुखद व सफल दांपत्य जीवन की कामना करती हैं। रात भर लोग जग कर पचीसी भी खेलते हैं और जिसमे चांदी के पासे का उपयोग होता हैं ।


देवर संग खेलब पचीसी हे (कोजगरा गीत) मैथिली ठाकुर यहाँ क्लिक करें
ओडिशा या उड़ीसा राज्य

पुची खेला और चंदा चकता (केले छेना और लिए से बना)

भारत में, ओडिशा या उड़ीसा राज्य शरद पूर्णिमा को दो अलग-अलग तरीकों से मनाता है। कुछ समुदाय इस अवसर पर सूर्य और चंद्रमा की पूजा करते हैं, जबकि कुछ अन्य समुदायों में इस पवित्र दिन पर देवी लक्ष्मी की पूजा की जाती है। ओडिशा में, शरद पूर्णिमा को भारत के हिंदू पौराणिक कथाओं में युद्ध के देवता कार्तिकेय के सम्मान में कुमार पूर्णिमा के रूप में भी जाना जाता है। भगवान शिव के पुत्र कार्तिकेय को सबसे सुंदर देवता माना जाता हैं । लड़कियां सुंदर पति पाने की आशा में उनकी पूजा करती हैं (वास्तव में सूर्य और चंद्र की पूजा होती हैं )। रस्में सुबह बहुत जल्दी शुरू हो जाती हैं जब लड़कियां नए कपड़े पहनती हैं और उगते सूरज को तुलसी के पौधे के पास सात बार 'अंजुली' से 'लिया' (एक प्रकार का अनाज) चढ़ाती हैं। सात अन्य वस्तुएं, जिनमें नारियल, केला, सेब, खीरा, सुपारी, झींगा (धारीदार लौकी), गन्ना और फूल शामिल हैं। वे नाचते हैं और एक विशेष खेल खेलते हैं, पुची खेला - बैठ कर नाचने वाला खेल । ओडिशा के लोग शरद पूर्णिमा को लक्ष्मी के जन्मदिन के रूप में भी मनाते हैं। वे पूरी रात जागते रहने के लिए पासा और कुछ अन्य खेल खेलते हैं।


उत्तर भारत में

उत्तर भारत में, शरद पूर्णिमा को रास पूर्णिमा के नाम से जाना जाता है। हिंदू पौराणिक कथाओं में, भगवान कृष्ण के जीवन से रास पूर्णिमा की एक कहानी है। कहानी के अनुसार, यह माना जाता है कि पृथ्वी पर अपने मानव अवतार के दौरान, भगवान कृष्ण वृंदावन में अपनी गोपियों के साथ रास (एक पारंपरिक लोक नृत्य) खेलते थे। शरद पूर्णिमा की रात थी जब उन्होंने यमुना नदी के तट पर अपनी प्यारी राधा और गोपियों के साथ महा रास खेला था। उत्तर भारत के विभिन्न हिस्सों में, युवा लड़के और लड़कियां उत्सव की शाम को रास लीला करते हैं।

Friday, October 8, 2021

इत खोई यानि इटखोरी , झारखण्ड राज्य ( #यात्रा)

"सफर का अनुराग" अरे भाई WANDERLUST से ग्रसित लोगों के लिए कोरोना काल बहुत भारी रहा हैं । और मैं और सफर में मेरे कुछ साथी भी इस रोग से थोड़ा बहुत पीड़ित रहे हैं । पहले लहर के बाद लगा अब कहीं कहीं घूमा जा सकता हैं । और मैं दिल्ली से रांची करीब डेढ़ साल बाद आ भी गया । मेरे बाद आया मेरे पुत्र का परिवार और बच्चों को घर के अंदर बंद कर रखना मुश्किल हो गया तब हम लोग साहस कर और हैंड SANITIZER मास्क से लैस होकर पतरातू वैली घूम आये पर उसकी चर्चा बाद में करेंगे । इस ब्लॉग में मैं कोरोना के दूसरे लहर के थमने के बाद कुछ दिन पहले की गयी हमारी इटखोरी यात्रा के बारे में ही कुछ लिखूंगा।

२०१८ में मेरी दो छोटी बहने और बहनोई रांची आये हुए थे और हमने इटखोरी जाने का प्रोग्राम बना लिया था । सभी इंतजाम हो गया था तभी ऐन वक्त पर मेरे एक बहनोई साहब की तबियत ख़राब हो गयी और हमने गाड़ी वापस भेज कर उनके इलाज की व्यवस्था में लग गए थे । इस बार मेरी सबसे छोटी बहन बहनोई रांची आये तो मेरी बहन ने देवड़ी मंदिर के सोलह भुजी दुर्गा जी के दर्शन के लिए जाने की इच्छा जाहिर की । मैं और पत्नी जी वह एक दो बार जा चुके थे इसलिए मैंने ३ साल पहले छूट गए इटखोरी मंदिर जाने का सुझाव दे डाला और यह सर्व सम्मति से तुरंत पास हो गया । मैंने ऑनलाइन कोरोना काल में लागू किए गए स्लिप कटाने में सर खपाने लगा जब स्लिप नहीं कटा पाया तो वेबसाइट पर दिए फ़ोन नंबर पर कांटेक्ट करने लगा। पता चला अब स्लिप कटाने की जरूरत नहीं है और अगले दिन तड़के सुबह हम सभी तैयारी के साथ निकल पड़े ।

असल में इटखोरी भद्रकाली मंदिर झारखण्ड के ४ प्रसिद्द तीर्थ १. बाबा बैद्यनाथ धाम देवघर २. बाबा बासुकी नाथ - दुमका, ३ रजरप्पा- रामगढ और ४. भद्रकाली - चतरा में से एक हैं । कोरोना काल में ऑनलाइन स्लिप कटा कर की जाने की व्वयस्था इन चारों में मंदिर में की गयी थी ।



इकठ्ठा की गयी जानकारी

इटखोरी रांची से १५० किलोमीटर दूर इटखोरी चतरा जिले का एक ऐतिहासिक पर्यटन स्थल होने के साथ-साथ प्रसिद्ध बौद्ध केंद्र भी है, जो अपने प्राचीन मंदिरों और पुरातात्विक स्थलों के लिए जाना जाता है। 200 ईसा पूर्व और 9वीं शताब्दी के बीच के बुद्ध, जैन और सनातन धर्म से जुड़े विभिन्न अवशेष यहां पाए गए हैं। पवित्र महाने एवं बक्सा नदी के संगम पर अवस्थित हैं इटखोरी का भद्रकाली मंदिर । मंदिर के पास महाने नदी एक यू शेप में है । कहा जाता हैं की कपिलवस्तु के राजकुमार सिद्धार्थ घर संसार त्याग कर सबसे पहले यही आये थे । उनकी छोटी माँ (मौसी) उन्हें मानाने यहीं आयी पर सिद्धार्थ वापस जाने को तैय्यार नहीं हुए तब उन्होंने कहा इत खोई यानि "I lost him here " । कालांतर में इत खोई इटखोरी हो गयी जो इस स्थल का वर्तमान नाम हैं । यह भी कहा जाता है की गया में बुद्धत्व प्राप्त करने से पहले यह अंतिम जगह थी जहाँ बुद्ध ने वास किया । महान गुप्त और पाल सम्राटों ने ४ थी से 9 वीं शताब्दी के दौरान कई छवियों और मूर्तियों का निर्माण यहाँ करवाया जो कारीगरी ललित कलाओं में कौशल की अत्यधिक विकसित विरासत का संकेत देती है। बगल के मंदिर में शिव-लिंग की सतह पर १००८ 'लिंगम' उकेरे गए हैं। एक दूसरी संरंचना में १००४ बोधिसत्वों और ४ प्रमुख बुद्धों की छवियां एक 'स्तूप' के प्रत्येक तरफ गढ़ी गई हैं। इटखोरी में महेंद्र पाल के एक शिलालेख से संकेत मिलता है कि प्रतिहार शासक भी 9 वीं शताब्दी के उत्तरार्थ के दौरान यहाँ आया था। गुप्त और पाल वंश का संक्षिप्त इतिहास मैने नीचे दे रखा है।

कैसे पहुंचे ?

इटखोरी पहुंचना बहुत ही आसान हैं । रोड मुख्य मदिर तक जाती हैं । हज़ारीबाग़ से सिर्फ ५० किलो मीटर हैं यह जगह रांची पटना हाईवे पर पड़ने वाले पद्मा से बांये तरफ मुड़ते हैं एक तरफ़ा रास्ता हैं जिसमें एक पेट्रोल पंप भी मिलता हैं । यदि आप गया, कोडरमा के तरफ से आ रहे हैं तो G.T. रोड पर पड़ने वाले चौपारण हो कर यहाँ आया जा सकता हैं । गया यहाँ से करीब ८० किलोमीटर दूर हैं जो सबसे नज़दीक का एयरपोर्ट हैं । सबसे नज़दीक का स्टेशन ८८ किलोमीटर दूर कटकमसांडी हैं जो शायद ज्यादा सुविधाजनक न हों ।



भद्रकाली मंदिर
हमारी यात्रा

हम लोग कार से रांची से इटखोरी गए , रांची से रामगढ-हज़ारीबाग- पद्मा मोड़ होते हुए तीन साढ़े तीन घंटे में हम मदिर पहुंच गए । मंदिर गेट से १०० मीटर दूर ही गाड़ी पार्क किया। पार्किंग की जगह देने वाला एक पूजा का सामान बेचने वाला दुकानदार ही था और हमे देवी के चुनरी के साथ २६० रु की एक एक टोकरी पड़ी पर कोई पार्किंग चार्ज नहीं देना पड़ा । हम अपने चप्पल खोल कर मदिर गए तो पाया मंदिर के अंदर फोटोग्राफी कैमरा से हो या मोबाइल से मना था । मंदिर परिसर में थोड़ी बहुत फोटो हमने मोबाइल से फिर भी खींचा । मुख्य मंदिर तो नया है पर उसमे स्थापित मूर्ति बहुत पुरानी हैं । मूर्ति पाल वंश के काल की है यानि आंठवी शताब्दी की हैं यह मूर्ति । काले पत्थरों से बनी यह मुर्ति अत्यंत सुन्दर हैं । भीड़ नहीं थी इससे पंडित जी ने बड़े अच्छे से पूजा करवा दिया और हमे देवी की मूर्ति का पैर भी छूने दिया । मैंने पढ़ रक्खा था मूर्ति के नीचे ब्राह्मी लिपि में कुछ लिखा हुआ हैं पर लाख खोजने पर मैंने कुछ लिखा हुआ नहीं पाया फुलों से ढंका जो था। भद्रकाली मां काली का शांत स्वरूप है। इस रूप में मां काली शांत हैं और वर देती हैं। पंडित जी ने बताया यह माता का वैष्णवी रूप हैं और माता की मूर्ति के पास विष्णु भगवान की मूर्ति भी है । पंडित जी ने बताया कि माता कुमारी रूप में है।
भद्रकाली का मंत्र हैं ।

ॐ जयंती मंगला काली भद्रकाली कपालिनी
दुर्गा क्षमा शिवा धात्री स्वाहा स्वधा नमोऽस्तु‍ते।

मुख्य भद्रकाली मंदिर की पूजा के बाद हम शनि मंदिर, पंच मुखी हनुमान मंदिर और शिव मंदिर में पूजा करने गए । शिव लिंग करीब ४ फ़ीट ऊँचा है और उस पर १००८ शिव लिंग उकेरे हुए हैं । राँची वापस जाते समय पद्मा के पास एक बहुत अच्छी चाय पी थी और लौटते समय पद्मा गेट (रामगढ राजा के महल का गेट जो अब पुलिस ट्रेनिंग केन्द्र है)  के पास चाय पी और जब पता चला बहुत अच्छा कम चीनी वाला पेड़ा मिलता हैं तो खरीद भी लाया ।



सहस्र शिव लिंग और सहस्र बोधिसत्व (स्तूप)
परिसर से बाहर स्थित राम जानकी मंदिर और बुद्ध स्तूप

मंदिर परिसर के बाहर एक राम जानकी विश्वकर्मा मंदिर है जो किसी फलाहारी बाबा द्वारा बनाया गया था । पंडित हमें वहां बुला कर ले गया तो अच्छा ही लगा । हमें पता था छोटा ही सही यहाँ एक बुद्धिस्ट स्तूप भी हैं । पता चला वह मंदिर प्रांगण से बाहर था । हम रास्ता पूछते गए तो पाया वह नज़दीक ही है एक बड़े शिव लिंग जैसा स्तूप था। एक पडित जी भी वहाँ थे और उन्होंने बताया यह कोटेश्वर महादेव हैं । और हमने पूजा अर्चना भी की । उस स्तूप में ४ बड़े बुद्ध (बोधिसत्व) की मूर्ति उकेरा हुआ था और १००४ छोटे बुद्ध भी उकेरे हुए थे।


म्यूजियम में रखे १० वे तीर्थंकर श्री शीतलनाथ के पैरों के निशान और जैन मंदिर अभी जैसा है
जैन तीर्थ
पढ़ रखा था यहाँ एक काले पत्थर पर दसवें जैन तीर्थंकर शीतलनाथ के पैरों के निशान हैं । पता चला एक जैन मंदिर बनने वाला भी हैं । पंडित ने एक घर को दिखा कर जैन तीर्थ बताया । झाड़ियों के बीच पगडंडिया बनी थी। और हम थे नंगे पैर । हम टोह लेने भी गए नहीं पर शायद वहीं पर तीर्थंकर के पैरों के निशान थे । बाद में इंटरनेट से पता चला भगवान शीतलनाथ के पैरों के निशान वाले पत्थर म्यूजियम में रखे हुए है । हम नजदीक बहने वाली महाने नदी तक भी गए जो बरसात में पानी से लबालब था ।



महाने / बक्सा नदी और हाल में ही निर्मित बुद्ध की प्रतिमा
गुप्त साम्राज्य- सक्षिप्त इतिहास

श्री गुप्त ने गुप्त साम्राज्य की स्थापना की तीसरी शताब्दी में की थी । और प्रारम्भ में गुप्त वंश का शासन आज के पूर्वी उत्तरप्रदेश से लेकर बंगाल के कुछ हिस्सों तक था और राजधानी था मगध । श्रीगुप्त के पौत्र चंद्रगुप्त प्रथम (३१९-३३५ ई) ने इसका विस्तार किया और धीरे धीरे करीब करीब पूरा भारत उनके अधीन हो गया । कालांतर में उनकी राजधानी उज्जैन में स्थापित हुयी । गुप्त काल भारत का स्वर्णिम काल था और चहुमुखी विकास का काल भी । समुद्रगुप्त को इतिहासकार उनके सैनिक अभियानों के लिए भारत का नेपोलियन भी कहते है। समुद्रगुप्त का साम्राज्य उत्तर में कश्मीर से लेकर दक्षिण में तमिलनाडु और पश्चिम में पंजाब से पूर्व में बंगाल तक फैला हुआ था। समुद्रगुप्त न केवल एक विजेता था बल्कि एक संगीतकार, कवि, विद्वान और साहित्य का संरक्षक भी थे। उनके पास "कविराज" की उपाधि थी। इन विजयों के बाद, समुद्रगुप्त ने अपनी जीत के उपलक्ष्य में "अश्वमेध यज्ञ" किया। उन्होंने "अश्वमेध पराक्रम" की उपाधि ली। उसने सोने के सिक्के जारी किए जिन पर घोड़े की आकृति बनी हुई थी। नवरत्न रखने की प्रथा शायद गुप्त वंश ने ही शुरू की । विद्वान, कलाविद, खगोल शास्त्री उनके नवरत्न थे जिनका नाम हैं अमरसिंह, धन्वंतरि, घाटखरौर, कालिदास, क्षपानक, शंकु, वराहमिहिर, वरुचि, और वेताल- भट्ट।




समुद्रगुप्त द्वारा अश्वमेध यज्ञ के बाद किया जारी किया सोने सिक्के जिन पर घोड़े की आकृति बनी है
पाल साम्राज्य-सक्षिप्त इतिहास

पाल साम्राज्य मध्यकाल में उत्तर भारत का सबसे शक्तिशाली और महत्वपूर्ण साम्राज्य माना जाता है, जो कि 750-1174 इसवी तक चला। "पाल राजवंश" ने भारत के पूर्वी भाग में एक विशाल साम्राज्य बनाया। पाल वंश के राजा अपना राज्य को आज के बिहार उत्तर प्रदेश में बढाने लगे बाद में पाल वंश के लोग पाल समाज के नाम सें जाने लगें | इस राज्य में वास्तु कला को बहुत बढ़ावी मिला। पाल राजाओ के काल मे बौद्ध धर्म को बहुत बढावा मिला। पाल राजा हिन्दू थे परन्तु वे बौध्द धर्म को भी मानने वाले थे । पाल राजाओं ने बौद्ध धर्म के उत्थान के लिए बहुत से कार्य किये जो कि इतिहास में अंकित है। पाल राजाओं ने हिन्दू धर्म को आगे बढ़ने के लिए शिव मंदिरों का निर्माण कराया और शिक्षा के लिए विश्वविद्यालयों का निर्माण कराया । नालंदा और विक्रमशिला का निर्माण पाल राजाओं ने ही करवाई । हर्षवर्धन काल के बाद समस्त उत्तरी भारत में राजनीतिक, सामाजिक एवं आर्थिक गहरा संकट उत्पनन्न हो गया । इसी समय गोपाल ने बंगाल में एक स्वतन्त्र राज्य घोषित किया। जनता द्वारा गोपाल को सिंहासन पर आसीन किया । वह योग्य और कुशल शासक था, जिसने ७५० ई. से ७७० ई. तक शासन किया। इस दौरान उसने औदंतपुरी (आज के बिहार शरीफ) में एक मठ तथा विश्‍वविद्यालय (नालंदा) का निर्माण करवाया।



पाल राज्य के बुद्ध और बोधिसत्त्व

सब मिला कर हमारा ट्रिप बहुत मजेदार रहा । देखें आगे कहाँ जाते हैं ।

Sunday, October 3, 2021

बैठे ठाले -२


मेरे एक पाठक ने पूछा हैं "कहाँ गायब है ?" लोग miss करते हैं जान कर अच्छा लगा । अभी दो दिन पहले हमारा प्रिय स्वर्णिम आवाज़ अमीन सायानी साहेब सदा के लिए चुप हो गए । उनकी अंदाज़ में कहूँ तो "बहनो और भाइयों" मैंने इंजीनियरिंग पर एक किताब लिखना शुरू किया और मैंने अब जाना कि कितना मुश्किल काम है ये । मैंने बेसिक से हर बात जानने कि कोशिश करता हूँ और मैं तो स्कूल लेवल का मैथमेटिक्स एकदम भूल ही गया हूँ । बच्चों कि पुरानी किताबें लेकर पढ़ रहा हूँ । एक दो किताबे अमेज़न पर आर्डर भी कर दिया हैं । उसमे से एक आ भी गयी है और मैं समझने की कोशिश कर रहा हूँ । जो बाते छात्र जीवन में आसान लगती थी वह अब कठिन लगती हैं । कुछ नए नए सवाल भी उठने लगे है । खैर इन सबों के बीच मैं कुछ पुराने गीत और कविताएं दुहराना चाहते हूँ । सबसे पहले एक हास्य कविता लिख रहा हूँ जो स्कूल के दिनों में पढ़ी थी । किसकी लिखी हैं । पर मज़ा ज़रूर आएगा ।

जुड़ा परिवर्तन
पुरुषों के मन का परिवर्तन
नारी के तन का परिवर्तन
गली गली में घूम रहा हैं
यह खोया खोया परिवर्तन ।
कहाँ गई वो?
कहाँ गई वो ?
पड़ी पीठ पर लहराती बलखाती चोटी
कवियों के रुई से दिल में
आग लगाने वाली चोटी
साढ़े पांच फुटी युवती के पीछे
छह फुट वाली चोटी
दईया दईया
ए कलयुग के श्याम कन्हैया
तूने कैसा जादू मारा
रीढ़ बनी कश्मीर चीर कर
चोटी एक हुआ बंटवारा
एक पीठ पर दो दो नागिन
लेती ज़हर भरी अंगराई
दोनों के है डंक एक से
एक सरीखी चाल
बहन दोनों माँ जाई ।
परिवर्तन जूड़ा परिवर्तन
दोनों चोटी गायब
पीठ हैं एकदम खाली
बालों में गणतंत्र समाया
जनता मिल कर एक हुई अब सर के पीछे
जूड़ा कहलाया
जूड़े के दस भेद भेद के भेद अनेकों ।
दलबंदी हो गयी दशा अब सिर की देखो ।
चील घोसला बैया का घर ।
मक्खी छत्ता रूसी छप्पड़ ।
अंक आठ का डबल आठ का
हुक्का टाइप मुक्का टाइप
फ्रेंच रोल अर्थात परस्पर गुथ्थम गुथ्था
सर के पीछे उग आया हो जैसे कुकरमत्ता
पोनीटेल अर्थात पूंछ टट्टू की
युवती के मन भाई
फिर फैशन की आंधी आई
घूंघर वाले बाल हो गए छोटे छोटे
ऐसी बड़ी एकता आई
नहीं बता सकता हैं कोई
शीश देख कर कौन मर्द हैं कौन लुगाई
परिवर्तन अद्भुत परिवर्तन
पश्चिम की कैंची ने
पूरब के बालों का कर डाला कर्तन
कटा बन नई सभ्यता का ये नक्शा पास हो गया
चली पश्चिमी हवा देश में सर का सत्यानाश हो गया
बालों का यह हाल देख बूढ़े कवि रोये
अब न घिरेगी गालों पे लट
कमल नयन को भौरे कैसे छू पाएंगे
काले बांसों के झुरमुट में
खंजन कहाँ खेल पाएंगे
घटा कहाँ घुमड़ेगी
बिजली चमकेगी बालों के बल में
कहाँ छुपेगा चाँद डेढ़ इंची बादल में

अब इसके उलट एक और कविता या नज़्म पेश करता हूँ जो फैज़ अहमद फैज़ ने लिखी है ।
"ये गलियों के आवारा बदनाम कुत्ते
के सौपा गया जिनको ज़ौके गदाई
जहां भर का फटकार सरमाया इनका
जहां भर कि दुत्कार इनकी कमाई
न राहत हैं शब को न चैन सबेरे
गलाज़त में घर नालियों में बसेरे

ये हर एक कि ठोंकरे खाने वाले
ये फांकों से उकता के मर जाने वाले
ये चाहें तो दुनिया को ज़न्नत बना दे
ये चाहें तो आकाओं के हड्डिया तक चबा ले
कोई इनको अहसास ज़िल्लत दिला दे
कोई इनकी सोई हुई दुम हिला दे

ये‌ कविता वामपंथियों कि आवाज़ बनी । क्रिएटिविटी का ऐसा महत्त्व हैं कि राजकपूर कि आवारा रूस में और आमिर खान कि "दंगल" चीन में बहुत पसंद कि गयी ।

Bollywood Trivia

आज एक गाना सुन रहा था "तुझे क्या सुनाऊँ मैं दिलरुबा, तेरे सामने मेरा हाल है। तेरी इक निगाह की बात है मेरी ज़िंदगी का सवाल है।... मेरे दिल जिगर में समा भी जा, रहे क्यों नज़र का भी फ़ासला । के तेरे बग़ैर ओ जान-ए-जांमुझे ज़िंदगी भी मुहाल है ।" नूतन के साथ एक ऐसे हीरो देखा जिसे शायद पहले कभी न देखा था । गूगल किया तो पता चला यह फिल्म १९५८ की थी " आखिरी दांव " और हीरो का नाम था शेखर । गीत अच्छा था तो लिरिक्स दे रहा हूँ ।

तुझे क्या सुनाऊँ मैं दिलरुबा
तेरे सामने मेरा हाल है
तेरी इक निगाह की बात है
मेरी ज़िंदगी का सवाल है

मेरी हर ख़ुशी तेरे दम से है
मेरी ज़िंदगी तेरे ग़म से है
तेरे दर्द से रहे बेख़बर
मेरे दिल की कब ये मज़ाल है

तेरे हुस्न पर है मेरी नज़र
मुझे सुबह शाम की क्या ख़बर
मेरी शाम है तेरी जुस्तजू
मेरी सुबह तेरा ख़याल है

मेरे दिल जिगर में समा भी जा
रहे क्यों नज़र का भी फ़ासला
के तेरे बग़ैर ओ जान-ए-जां
मुझे ज़िंदगी भी मुहाल है

शेखर जी के बारे में दो शब्द

शेखर 50 's के हिंदी फिल्म अभिनेता थे । शेखर - नलिनी जयवंतआंखें (1950) में शेखर को नलिनी जयवंत के साथ पेश किया गया था। उनके नाम की अन्य फिल्मों में आस (1953), हमदर्द (1953), नया घर (1953), आखिरी दाव (१९५८), बैंक प्रबंधक (1959) आदि शामिल हैं।

एक अभिनेता के रूप में शेखर का करियर अचानक छोटा हो गया, क्योंकि उन्होंने फिल्म निर्माता बनने का फैसला किया। उन्होंने छोटे बाबू (1957, आखिरी दाव (1958) और बैंक मैनेजर (1959) का निर्माण किया।

बाद में, उन्होंने फणी मजूमदार के साथ निर्देशक और एन. दत्ता के साथ संगीत निर्देशक के रूप में एक फिल्म 'प्यास' शुरू की। बीना राय को उनके अपोजिट हीरोइन के तौर पर साइन किया गया था। इस फिल्म के लिए वित्त की व्यवस्था करने के लिए, उन्होंने सी ग्रेड फिल्मों को स्वीकार किया, जैसे दिल्ली का दादा शेख मुख्तार और हम मतवाले नौजवान, दोनों 1962 फिल्में। शेखर ने बड़ी मुश्किल से फिल्म को पूरा किया। फिल्म अंततः 1968 में एक नए शीर्षक 'अपना घर अपनी कहानी' के साथ रिलीज हुई। जैसा कि अनुमान था, फिल्म ने दर्शकों को आकर्षित नहीं किया। आर्थिक रूप से बर्बाद, शेखर कनाडा चले गए और बहुत समय पहले वहीं समाप्त हो गए।

बैठे ठाले में आज बस इतना ही ।