आज एक गाना सुन रहा था
"तुझे क्या सुनाऊँ मैं दिलरुबा,
तेरे सामने मेरा हाल है।
तेरी इक निगाह की बात है
मेरी ज़िंदगी का सवाल है।
मेरे दिल जिगर में समा भी जा,
रहे क्यों नज़र का भी फ़ासला ।
के तेरे बग़ैर ओ जान-ए-जां
मुझे ज़िंदगी भी मुहाल है ।"
इस गाने में नूतन के साथ एक ऐसे हीरो दिखे जिन्हें शायद पहले कभी न देखा था । गूगल किया तो पता चला ये गाना १९५८ की फिल्म " आखिरी दांव " का था और हीरो का नाम था शेखर । कई अन्य पुरानी गीतों की तरह ये गीत भी काफी अच्छा था । मजरूह सुल्तानपुरी (जिनकी कल २४ मई को ही पुण्यतिथि थी) के गीत को संगीतबद्ध किया था सुरो के जादुगर मदन मोहन ने। गुगल से डाऊनलोड किया लिरिक्स दे रहा हूँ ।
तुझे क्या सुनाऊँ मैं दिलरुबा
तेरे सामने मेरा हाल है
तेरी इक निगाह की बात है
मेरी ज़िंदगी का सवाल है
मेरी हर ख़ुशी तेरे दम से है
मेरी ज़िंदगी तेरे ग़म से है
तेरे दर्द से रहे बेख़बर
मेरे दिल की कब ये मज़ाल है
तेरे हुस्न पर है मेरी नज़र
मुझे सुबह शाम की क्या ख़बर
मेरी शाम है तेरी जुस्तजू
मेरी सुबह तेरा ख़याल है
मेरे दिल जिगर में समा भी जा
रहे क्यों नज़र का भी फ़ासला
के तेरे बग़ैर ओ जान-ए-जां
मुझे ज़िंदगी भी मुहाल है।
शेखर जी के बारे में दो शब्द
शेखर 50 's के हिंदी फिल्म अभिनेता थे । (1950) में शेखर को नलिनी जयवंत के साथ पेश किया गया था। उनकी अन्य फिल्मों थी आस (1953), हमदर्द (1953), नया घर (1953), आखिरी दाव (१९५८), बैंक प्रबंधक (1959) आदि शामिल हैं।
एक अभिनेता के रूप में शेखर का करियर अचानक छोटा हो गया, क्योंकि उन्होंने फिल्म निर्माता बनने का फैसला किया। उन्होंने छोटे बाबू (1957, आखिरी दाव (1958) और बैंक मैनेजर (1959) का निर्माण किया।
बाद में, उन्होंने फणी मजूमदार के साथ निर्देशक और एन. दत्ता के साथ संगीत निर्देशक के रूप में एक फिल्म 'प्यास' शुरू की। बीना राय को उनके अपोजिट हीरोइन के तौर पर साइन किया गया था। इस फिल्म के लिए वित्त की व्यवस्था करने के लिए, उन्होंने सी ग्रेड फिल्मों को स्वीकार किया, जैसे दिल्ली का दादा शेख मुख्तार और हम मतवाले नौजवान, दोनों 1962 फिल्में। शेखर ने बड़ी मुश्किल से फिल्म को पूरा किया। फिल्म अंततः 1968 में एक नए शीर्षक 'अपना घर अपनी कहानी' के साथ रिलीज हुई। जैसा कि अनुमान था, फिल्म ने दर्शकों को आकर्षित नहीं किया। आर्थिक रूप से बर्बाद, शेखर कनाडा चले गए और बहुत समय पहले वहीं उनकी मृत्यु हो गई।
बैठे ठाले में आज बस इतना ही ।
अमिताभ सिन्हा, रांची
Saturday, May 25, 2024
बैठे ठाले-4 तुझे क्या सुनाऊं मैं दिलरूबा
Sunday, May 12, 2024
संस्मरण- जलपरी - लेखिका मेरी दीदी श्रीमती कुसुमलता सिन्हा
भूमिका
इस कहानी या संस्मरण की लेखिका है मेरी चचेरी बहन कुसुमलता। यदि और विस्तार में बताऊँ तो मेरे दादा जी और उनके दादा जी सहोदर भाई थे। मेरे चाचा स्वर्गीय उमेश चंद्र प्रसाद बिहार के एक सबसे पुराने जिला शहर (One of the oldest District Town ) मुंगेर के लल्लू पोखर मोहल्ले में रहते थे। हम लोगों का एक दूसरे के यह आना जाना लगा रहता था। कभी लगता ही नहीं था की वे सब हमारी चचेरे भाई बहन है। सबसे बड़ी प्रेमा दीदी के शादी में मैं एक बच्चा था और उस बार के मुंगेर ट्रिप पर मैंने एक ब्लॉग पोस्ट भी किया है। लिंक यहाँ दे रहा हूँ। बचपन मै भी भागा था इस संस्मरण में जिन बड़ी माँ का जिक्र है वे हमारे स्व केदारनाथ चाचा जी की पत्नी थी और निःसंतान होने के कारण मुंगेर में ही रहती थी। इसी तरह निःसंतान दादा जी स्व श्री हरिहर प्रसाद की पत्नी संझली दादी हमलोगों के साथ जमुई में रहती थी। उस दौर में कोई बेसहारा नहीं होता था। बताता चलूं मुंगेर बिहार में गंगा के दक्षिण में बसा एक मुफस्सिल शहर है जो नवाब मीर कासिम के किले और योग नगरी, रेल वर्कशॉप, सिगरेट और बंदूक कारखाने वाले युगल शहर जमालपुर के लिए प्रसिद्ध है। अब आगे दीदी के शब्द।
लाल दरवाजा, मुंगेर
बचपन और उसकी कुछ यादें
हमारा घर मुंगेर में गंगा जी के किनारे है। मैं, मेरी दोनों बड़ी बहने और बड़की मैया/ बड़ी मां( बड़ी चाची) नियमत: वैशाख और जेठ के महीने में (गर्मी के दिनों में) गंगा स्नान करने जाते थे।
हम लोग बहुत उत्सुकता से गर्मी के मौसम का इंतजार करते थे। गर्मी का दिन,छुट्टियां और एकदम साफ गंगा, ऐसे में कौन बच्चा अपने को रोक पाता। हमने खेल-खेल में ही तैरना बिना किसी instructor और lifeguard के सीख लिया। तैराकी की सारी करतब सीखने कोशिश करते थे (तट के नजदीक)।
उस समय घड़ी हुआ करती थी, मगर बड़ी मां के पास अपने time pins थे जैसे पौ-फटने के पहले, दिन चढ़ने के बाद, अस्ताचल सूरज, गोधूलि बेला और वह उनके हिसाब से चलती थी। उन्हें घड़ी देखने की ज्यादा जरूरत नहीं पड़ती थी। ज्यादातर समय उनका समय का अंदाजा बिल्कुल सही होता था।
उन्होंने एक दिन सुबह-सुबह हमें अपने समय के अंदाजे से उठा दिया। हम सब गंगा जी जाने के नाम से, बिना ना-नुकर किए तुरंत तैयार हो गए। 100 में से एक दिन जब बड़ी मां का नेचुरल क्लॉक फेल हुआ होगा, यह वही दिन था। हम सभी गंगा जी के तट पर पहुंच गए ,मगर एकदम अंधेरा था। सूरज की किरण का कोई नामोनिशान नहीं था ।
उस जमाने में जब इतने घर नहीं थे,तब खुले में जैसे नदी तट पर चांद की रोशनी से भी थोड़ा ज्यादा ही उजाला हुआ करता था और उस उजाले में हमने नदी तट पर एक जलपरी जैसी आकृति देखी,वह अपना निचला हिस्सा मछली/पूछ वाला हिला रही थी । जलपरी की कहानियां हम सुना करते थे और हमारा कोमल मन उस पर विश्वास भी करता था। खैर हम सब ने उस "जलपरी को देखा और हमारी हालत ऐसी की मानो काटो तो खून नहीं।
उल्टे पांव चारों दौड़कर वापस घर आ गए।हमने तुरंत निर्णय लिया कि इस बात का जिक्र किसी और से नहीं करेंगे, डर था हमारा गंगा जाने का मजेदार दौर खतरे में न पड़ जाए ।उस दिन काफी देर के बाद सूर्योदय हुआ। लगता है हम लोग एक या दो बजे ही गंगा जी चले गए थे।
आज हमारे बीच बड़ी मां, मां-बाबूजी और बड़ी दीदी नहीं है तब मैं इस घटना से पर्दा हटा रही हूं। सोचती हूं हो सकता है उस दिन हमने गंगा में पाया जाने वाला घड़ियाल या सिर्फ उस इलाका में पाई जाने वाली डॉल्फिन देखी हो या कौन जाने शायद सच की जलपरी ही देखी हो ।
इस घटना को याद करने के के साथ बहुत सारी बचपन की मीठी-मीठी यादें सजीव हो गई है। और कौन जाने कभी उन यादों पर भी कुछ लिख डालूं।
कुसुमलता सिन्हा, पटना
Thursday, May 2, 2024
इस बार (२०२४ ) का काठमांडू प्रवास - भाग १
दिल्ली हवाई अड्डा T3 के बाहर का दृश्य, दिल्ली हवाई अड्डे के अंदर के दृश्य
भूमिका
क्यूंकि मैंने काठमांडू पर कई ब्लॉग समय समय पर लिखे है, इसलिए प्रश्न उठता है फिर एक और क्यों ? और इसलिए इस ब्लॉग के लिए एक भूमिका की जरूरत पड़ गई। मेरी इस बार की काठमांडू यात्रा टिकट के तारीख के कारण कुछ ज्यादा ही eventful थी। अब महीने भर का काठमांडू प्रवास भी सिर्फ तीन चार बार ही हुआ है। मेरे फेसबुक के एक ग्रुप सदस्य ने अपने कमेंट में महीने भर के प्रवास के अनुभव को टुकड़े टुकड़े में ही सही ग्रुप में पोस्ट करने की सलाह दी। ऐसे तो मैंने पहले ही उस ग्रुप में ऐसे कई पोस्ट डाल रखे थे पर एक पूरा ब्लॉग लिखने से मैं अपने को रोक नहीं पा रहा। इसी बहाने मुझे भी एक खूबसूरत यात्रा को फिर से जीने का अवसर मिलेगा और भविष्य में याद आने पर फिर से ब्लॉग पढ़ भी सकते है। जब भी हम दिल्ली आते है काठमांडू (जो मेरा ससुराल है) जाने का प्रोग्राम बनने ही लगता है । इस बार भी प्रोग्राम था और फिर मेरे साले साहब के भारत के किसी लॉ विश्वविद्यालय के समारोह में आने का प्रोग्राम बन गया। हमने उनके साथ ही जाने के ख्याल से उनके वापस जाने के दिन का और उसी फ्लाइट का टिकट ले लिया।
तारीखों का घाल मेल
मैंने टिकट खरीदने वक़्त सीट नहीं चुना, सोचा साथ बैठ कर वेब चेक इन कर लेंगे। फिर जाने का दिन आया। मैंने लाख कोशिश की पर वेब चेक इन हो नहीं रहा था। हर बार ४८ घंटे पहले ही वेब चेक इन कर सकते है का नोटिफिकेशन आ जा रहा था। मैंने इसे वेब पेज कि गड़बड़ी मान लिया। खैर हम एयरपोर्ट जा पहुंचे। टिकट को गेट पर दिखते हुए विस्तरा एयर के काउंटर पर। कॉउंटरवाला भी परेशान कि टिकट उसके कंप्यूटर पर दिख क्यों नहीं रहा है। उसने टिकट को चेक करने दूसरे काउंटर पर भेजा तब पता चला कि जो टिकट मैंने बुक किया था उसमे डेट तो ठीक था पर महीना मार्च की जगह पर अप्रैल का था। खैर एयरलाइन ने एक्स्ट्रा पैसे लेकर उसी फ्लाइट में जगह दे दी। फिर भी सभी सीट एक साथ नहीं मिली। मैं, गेट सिक्योरिटी वाला और कॉउंटरवाला सभी सिर्फ डेट देख रहे थे महीना किसीने नहीं देखा। हम कुछ देर GMR वाले के सौजन्य से उनके लाउन्ज में रूके और चाय बिस्कुट खा कर सेक्युरिटी चेक के लिए चल पड़े। कुछ खरीदारी ड्यूटी फ्री में कर हम फ्लाइट में बैठ गए। फ्लाइट समय पर थी और समय पर ही पहुँची। काठमांडू के इमिग्रेशन में होने वाले साधारण होच पॉच के बाद बहार निकले पर ड्यूटी फ्री में ख़रीदा एक सामान निकलते समय वाले एक्स्ट्रा चेकिंग में कही छूट गया। यह वाली चेकिंग जिसे गोल्ड चेकिंग कहते है आपको किसी और अंतर्राष्ट्रीय हवाई अड्डे पर नहीं मिलेगी।
हवाई जहाज से बाहर का दृश्य, काठमांडू हवाई अड्डा
अब आते है वापसी के यात्रा पर। ससुराल जगह अजीब है वहां आप अपनी मर्जी से जाते हो पर वापसी ससुराल वालों के मर्जी से ही हो पाती है खास कर मेरे जैसे रिटायर्ड लोगों को जिनक पास छुट्टी / नौकरी का कोई बहाना न हो। पोखरा और आस पास घूमने का प्रोग्राम पहले से ही था। अब मैंने शर्त रख दी थी कि उन्हीं जगहों पर जाऊँगा जहा गाड़ी चली जाये और मुझे पहाड़ी रास्तों पर पैदल चलना न पड़े। उम्र का तकाजा ठहरा। इन चक्करों में वापसी की तरीखनिश्चित नहीं हो पाई और मै वापसी का टिकट पहले से खरीद कर रख नहीं पाया। धीरे धीरे काठमांडू दिल्ली का टिकट करीब Rs २२०००/ हो गया। जब करीब महीने भर बाद जाने का प्रोग्राम बना तब किसी और रूट से जाने का सोचने लगे। अंत में तय हुआ भद्रपुर (नेपाल के ककरभिठठा के पास ) नेपाली एयरलाइन से जाये और फिर टैक्सी से 40 km दूर बागडोगरा (भारत) तक जाये और फिर बागडोगरा दिल्ली फ्लाइट से।
पुर्वी हिमालय हवाई जहाज से, भद्रपुर हवाई अड्डा
करीब आधे दाम में हो जाती ये यात्रा यदि वो न हुआ होता जो हुआ। सबसे पहले दार्जीलिंग जिले में २६ अप्रैल को मतदान के मद्देनज़र मैंने २५ अप्रैल का टिकट लिया। तब किसी के कहने पर भारतीय न्यूज़ चेक करने लगा तब पता चला नेपाल - भारत बॉर्डर २३ अप्रैल से ही बंद था। मैंने टिकट को २७ अप्रैल तक आगे बढ़ा दिया एक्स्ट्रा पैसे दे कर। एक बार फिर मै वेब चेक इन नहीं कर पा रहा था। और एक बार फिर इसे मै वेब पेज की गड़बड़ी मान रहा था। २६ के रात में नींद से जग गया और अचानक ख्याल आया कहीं फिर तो तारीख वाली वही गड़बड़ी तो नहीं हो गई। टिकट को मोबाइल में खोल कर देखा तो सचमुच २७ अप्रैल के वजाय २७ मई की टिकट ले रखी थी। अब पैनिक में आ गया मैं रात में ही टिकट तो २७ अप्रैल के लिए प्री पोन कर लिया पर पैसे कट गए पर टिकट नहीं आया। रात भर मै एयरलाइन के सभी सोशल मीडिया प्लेटफार्म और ईमेल पर कंप्लेंट डाल दिए। रात में ठीक से सो भी नहीं पाया। एयरलाइन वाले का एक जवाब आया की यह पैसे ४-५ दिन में ऑटोमेटिकली वापस हो जायेगा (अभी तक तो नहीं आया ) आप फिर से टिकट ले ले। मैंने वैसा ही किया और इसके बाद यह रुट चेंज सस्ता न रहा पर मैंने काठमांडू आनेजाने का एक ADDITIONAL रुट का अनुभव ले लिय। दार्जीलिंग , सिक्किम के साथ कोई नेपाल भ्रमण करना चाहे तो यह एक बहुत उपयोगी रुट है।
भद्रपुर से बागडोगरा के बीच एक चाय बगान, बागडोगरा एयर पोर्ट
काठमांडू कैसे जाएं
पहले मेरे काठमांडू यात्रा का रूट ज्यादातर रक्सौल (ट्रेन से) और बॉर्डर पार कर बीरगंज-सिमरा से काठमांडू (बस/कार / हवाई जहाज) हो कर ही होता था। पर जब से मेरे दोनों बच्चे दिल्ली (NCR) में रहने लगे है दिल्ली-काठमांडू की हवाई यात्रा ही की है। एक बार गोरखपुर सनौली हो कर भी गया हूं कार से जब गोरखपुर में कार्यरत मेरे साढ़ू भाई और साली भी साथ गए थे। अब एक और लोकप्रिय रूट जयनगर से जनकपुर (ट्रेन) और जनकपुर से काठमांडू (कार/बस/ हवाई जहाज) से हो गया है।
ख्याति प्राप्त सर्जन और साहसी महिला से मुलाकात
काठमांडू पहुंचते ही हम सभी लोग एक पार्टी में गए जो मेरे रिश्तेदार के यहां थी उनके 3 शिशु नातियों के लिए थी पर साथ दक्षिण भारत के एक प्रसिद्ध और्थो और प्लास्टिक सर्जन जो मेडिकल कालेज में मेरे बड़े साले के क्लास मेट थे,को भी बुला रखा था । मै नेपाली समझ बोल लेता हूं और फिर भी मैं पार्टी में बोर हो रहा था तो इस दक्षिण भारतीय परिवार का हाल समझा जा सकता है। अब नेपाली राजनीति में कोई भारतीय कितना दिलचस्पी ले सकता है। जब नेपाली खाना परोसा गया तब डाक्टर परिवार के बच्चे परेशान हो गए। मेहमानों में मेरे हमउम्र कजन साले की एक साली जी आई हुई थी। बातों में पता चला उन्हें साहसिक खेल, साहसिक यात्रा पसंद है। अपने अनुभव को साझा भी कर रही थी। मैनें उनकी उम्र का अंदाज लगाया अपने से 5 वर्ष कम लगाया। जब मैंने अपने को वहां उपस्थित लोगों में दूसरा सबसे उम्रदराज बताया तब उन्होंने अपनी उम्र मुझसे पांच साल ज्यादा बता कर आश्चर्य चकित कर दिया। मैं उनकी FITNESS की तारीफ किए बिना नहीं रह सका।
दक्षिण काली मंदिर , फारपिंग
दक्षिण काली
काठमांडू में कई जगह घूमने का प्लान था। पर मेरे छोटे साले साहब कुछ एलर्जी के शिकार हो गए इसलिए पोखरा या कही दूर जाने की योजना नहीं बन पाई। हमारी पहली घुमक्कड़ी शहर से 20 KM दूर फारपींग गांव के पास स्थित दक्षिण काली के दर्शन से हुए।
हम जानते है कि काली क्रोध में सर्वनाश करने पर तुली थी सब शिव उनके रास्ते में लेट गए और उन पर पांव पड़ते ही काली न हीं सिर्फ रुक गई उनकी जीभ भी निकल आई। ज्यादातर मंदिरों में काली जी का दाहिना पैर शिव जी के उपर दिखाया जाता है पर दक्षिण काली में उनका बायां पैर शिव के उपर दिखाया गया है। यहां दशैं (दशहरा) में पशु बलि के साथ पूजा किया जाता हआ। पत्नी जी ने बताया परिवार के वार्षिक पिकनिक के लिए ये जगह पहली पसंद हुआ करती थी। प्राकृतिक सौंदर्य अब तक विद्यमान है और पिकनिक अब भी मनोरंजक होगा।
ऐसा माना जाता है कि देवी काली 14वीं शताब्दी में नेपाल पर शासन करने वाले राजा प्रताप मल्ल के सपने में प्रकट हुई थीं। माना जाता है कि देवी ने राजा को एक मंदिर बनाने का आदेश दिया था जो उन्हें समर्पित होगा।
दक्षिण काली मंदिर का भी वही धार्मिक महत्व है जो नेपाल में पशुपतिनाथ मंदिर और मनकामना मंदिर का है। मंदिर में पर्यटकों का आकर्षण अधिक है क्योंकि यह नेपाल में फर्पिंग ग्राम के पास स्थित एक लोकप्रिय लंबी पैदल यात्रा का गंतव्य है। दक्षिणकाली, काली का सबसे लोकप्रिय रूप है। वह दयालु माता है, जो अपने भक्तों और बच्चों को दुर्भाग्य से बचाती है। दक्षिण काली के रास्ते से ही दिख जाता है चोभार गोर्ज। माना जाता है काठमांडू घाटी पानी से एक कप की तरह भरी थे। मंजू श्री से पहाड़ो को काट कर पानी को बागमती नदी के रूप में बहा दिया और काठमांडू रहने बसने लायक हो गई।
ब्लॉग लंबा हो गया अतः रोचकता बनाए रखने के लिए अन्य जगह जहां गए ब्लॉग के अगले कई भागों में लिखूंगा। ब्लॉग अंत तक पढ़ने के लिए धन्यवाद।