Saturday, June 8, 2024

पुर्वी भारत में रेल के प्रारंभिक दिन

अब बंद हो चुके और अपने ज़माने की सुप्रसिद्ध ट्रेन तूफ़ान एक्स्प्रेस पर मेरा ब्लॉग

भारत में रेल चलाने के लिए अंग्रेजों को जल्दी क्यों थी ?

मैंने सोचा था तूफ़ान एक्सप्रेस के इतिहास के बाद अब बंद हो चुकी प्रतिष्ठित अवध - तिरहुत मेल ट्रेन के विषय में लिखूंगा पर सोचा पहले पूर्वी भारत में रेलवे के शुरुआती दिनों के बारे में लिख लू तो क्रोनोलॉजी बनी रहेगी।
ब्रिटेन में पहली रेलगाड़ी १८२५ में स्टॉक्टन और डार्लिंगटन के बीच चली थी और सिर्फ २८ साल बाद भारत में १८५३ में बोरीबंदर से थाना के बीच। ऐसे भारत में पहली ट्रैन का ख़िताब सही मायने में रेड हिल रेलवे को जाता है जो १८३७ में चली थी रेड हिल्स से चितान्द्रीपेट के लिए। रेड हिल रेलवे को मद्रास के रोड बनाने के लिए पत्थर लाने के लिए उपयोग में लाया गया था।

अब सवाल यह उठता है की अंग्रेजों को भारत में रेल चलाने की जल्दी क्यों थी ? जल्दी थी व्यापर के लिए। रानीगंज और आसपास के खदानों से कोयला का परिचालन हो या चीन से आने वाले चाय का या फिर बिहार और बंगाल में बहुतायत से होने वाले अफीम का । ब्रिटिश ईस्ट इंडिया कंपनी ने भारतीय प्रांत बंगाल (बिहार सहित) में अफ़ीम की खेती पर एकाधिकार स्थापित किया था,उगाने से लेकर बेचने पर ब्रिटिश सरकार की मोनोपली। जहाँ उन्होंने सस्ते और प्रचुर मात्रा में अफ़ीम उगाने की एक विधि विकसित की। संयुक्त राज्य अमेरिका सहित अन्य पश्चिमी देश भी व्यापार में शामिल हो गए, जो तुर्की के साथ-साथ भारतीय अफ़ीम का व्यापार करते थ। जबकि अफीम का भारत में व्यापर गैरकानूनी बना दिया गया था और विदेश से व्यापर में कोई अप्पत्ति नहीं थी । चीन से चाय आती थी जिसके लिए चांदी और सोने के सिक्के लगते थे। यह चाय भी बॉम्बे से बाहर के देशो में भेजे जाते । अब उन जहाजों के चीन खाली नहीं भेजा जाता पर उनसे अफीम चीन भेजी जाती । 1839 तक चीन के चाय की कीमत चांदी सोने के वजाय अफीम से ही अदा होने लगी।

टैगोर परिवार और रेलवे

टैगोर परिवार का रेलवे से भी घनिष्ठ संबंध है क्योंकि रवीन्द्रनाथ के दादा प्रिंस द्वारकानाथ टैगोर, एक उद्योगपति थे , जो रानीगंज के पास कई कोलियरियों के मालिक थे, 1843 में इंग्लैंड में रेलवे को देखकर इतने प्रभावित हुए कि उन्होंने अपने घर तक एक रेलवे लाइन बनाना चाहा। कोयला खदानें उन्होंने मुख्य रूप से रानीगंज और राजमहल कोयला क्षेत्रों से और कृषि और खनिज उत्पादों की आवाजाही के लिए ग्रेट वेस्टर्न बंगाल रेलवे कंपनी नामक एक कंपनी की स्थापना की। उन्होंने गंगा नदी के समानान्तर रेल लाइन बनाने की योजना बनाई तांकि नदी से होने वाले कोयला का परिचालन ट्रैन से हो सके। इस बीच, आर मैकडोनाल्ड स्टीफेंसन ने पहले ही इंग्लैंड में स्थापित ईस्ट इंडिया रेलवे कंपनी के लिए शेयर जारी कर दिए थे। ईस्ट इंडिया कंपनी को लाइन के निर्माण की अनुमति देने के लिए इंग्लैंड में द्वारकानाथ के प्रयास तब विफल हो गए जब उनकी योजना को ईस्ट इंडिया कंपनी के निदेशकों की अदालत ने खारिज कर दिया क्योंकि वे देशी (Native ) कंपनी या प्रबंधन को रेल जैसा प्रमुख उद्योग में स्थान नहीं देना चाहती थी।

ईस्ट इंडियन रेलवे कंपनी, जिसका गठन 1 जून 1845 को हुआ था, ने 1846 में कलकत्ता से मिर्ज़ापुर के रास्ते दिल्ली तक एक रेलवे लाइन के लिए अपना सर्वेक्षण पूरा किया। कलकत्ता से इसका रुट वही था जैसा श्री टैगोर के कंपनी ने प्लान कर रखा था। कंपनी शुरू में सरकारी गारंटी से इनकार करने पर निष्क्रिय हो गई, जो 1849 में दी गई थी। इसके बाद, कलकत्ता और राजमहल के बीच एक "प्रायोगिक" लाइन के निर्माण और संचालन के लिए ईस्ट इंडियन रेलवे कंपनी और ईस्ट इंडिया कंपनी के बीच एक समझौते पर हस्ताक्षर किए गए, जिसे बाद में मिर्ज़ापुर के माध्यम से दिल्ली तक बढ़ाया जाएगा। निर्माण 1851 में शुरू हुआ।


हावड़ा और हुगली के बीच १९५४ में चलने वाली पहली ट्रेन , ईस्ट इंडियन रेलवे का logo

खाना जंक्शन-राजमहल खंड अक्टूबर 1859 में पूरा हुआ, रास्ते में अजय नदी को पार किया गया। पहली ट्रेन 4 जुलाई 1860 को हावड़ा से खाना होते हुए राजमहल तक चली। जमालपुर मुंगेर शाखा सहित, खाना जंक्शन से जमालपुर होते हुए किऊल तक लाइन फरवरी 1862 में तैयार हो गयी थी। तब इसे हावड़ा दिल्ली मेन लाइन कहा गया। पर जब सीतारामपुर झाझा किउल होकर एक लाइन तैयार हो गयी तो उसे पहले कॉर्ड लाइन फिर लोकप्रियता के कारण हावड़ा - दिल्ली मेन लाइन कहा गया और खाना - राजमहल - जमालपुर - किउल लाइन को साहिबगंज (इसी लाइन में एक स्टेशन ) लूप का नाम दिया गया। बाद में जब इससे भी एक छोटी दूरी की लाइन GAYA होकर बन गई तो उसे हावड़ा - दिल्ली ग्रैंड कॉर्ड लाइन नाम दिया गया।

साहिबगंज लूप , मेन लाइन और ग्रैंड कॉर्ड लाइन

खैर साहिबगंज होकर तब की मेन लाइन की बात पर लौटते है। राजमहल से, निर्माण तेजी से आगे बढ़ा, गंगा के किनारे पश्चिम की ओर बढ़ते हुए, 1861 में भागलपुर, फरवरी 1862 में मुंगेर, और दिसंबर 1862 में वाराणसी (गंगा के पार) और फिर यमुना के तट पर नैनी तक पहुँच गया। इस कार्य में जमालपुर में ईआईआर (ईस्ट इंडियान रेलवे ) की पहली सुरंग और आरा में सोन नदी पर पहला बड़ा पुल शामिल था।

बाद में अवध क्षेत्र में अवध रोहिलखण्ड रेलवे और तिरहुत क्षेत्र में तिरहुत रेलवे की स्थापना हुई जो कालांतर में उत्तर रेलवे और उत्तर पूर्व रेलवे कहलाई। इनकी कहानी फिर कभी।

No comments:

Post a Comment