Wednesday, August 30, 2023

बिहार और झारखण्ड के कुछ स्थानीय धर्म स्थान - भाग -२

इस भाग में बिहार

२०१८ हमारे भटक वासना (wander lust) के लिए बहुत अच्छा साल था। फरवरी में हज़ारीबाग़ -रजरप्पा , मार्च में अंगराबारी, पटना और उत्तर पूर्व इंडिया , मई में काठमांडू - चंद्रगिरि , जुलाई में मधुबनी - मंगरौनी - उच्चैठ , सेप्टेंबर में शिरडी - सप्तश्रृंगी , अक्टूबर में जमुई , लछुआर , नेतुला भवानी, दिसंबर में उदयपुर-कुम्भलगढ़ , चित्तौरगढ़। इस पोस्ट में इन जगहों में से उन धार्मिक जगहों के बारे में लिख रहा हूँ जो स्थानीय लोगों में लोकप्रिय और प्रसिद्द है पर बाहर वालों को कम ही पता हैं । जैसे अमरेश्वर धाम (अंगराबारी) - खूंटी , रजरप्पा- रामगढ , नेतुला भवानी- कुमार गावं -जमुई और मंगरौनी-कपिलेश्वर- उच्चैठ- मधुबनी ।

प्रथम भाग में झारखंड के कुछ स्थानीय प्रसिद्ध धर्म स्थान के बारे में लिखा था। इस बार बिहार के Locally revered धर्म स्थलों के बारे में बताऊंगा। सबसे पहले मैं बताना चाहूंगा नेतुला भवानी मंदिर के बारे में।

नेतुला भवानी मन्दिर को उतनी प्रसिद्धि प्राप्त नहीं है जितनी अन्य शक्ति पीठो को प्राप्त है पर स्थानीय लोगों के बीच इनका काफी महत्त्व हैं और यहाँ काफी प्रसिद्ध भी है। कहते हैं जिनकी आंखें खराब है देवी के कृपा से उनकी आंखों में भी रोशनी आ जाती है। हम इस मंदिर में पूजा अर्चना २०१८ में की थी। यह मंदिर जमुई से २५ कि०मि० की दूरी पर है जमुई नवादा मार्ग पर । हम दुर्गा पूजा में गए थे  भीड़ भाड़ स्वभाविक था। वैसे तो मां नेतुला मंदिर का इतिहास काफी पुराना है। इस मंदिर का 26 सौ साल पुराना इतिहास का रिकार्ड है। 6 सौ ई.पू. में भगवान महावीर, जिनका जन्म स्थान भी नजदीक के लछुआर ग्राम में है, गृह त्याग कर जब ज्ञान प्राप्त करने निकले थे, तब उन्होंने प्रथम दिन कुमार गांव में ही नेतुला मां की मंदिर परिसर स्थित वटवृक्ष के नीचे रात्रि विश्राम किया था और इसी स्थान पर अपना वस्त्र त्याग कर दिया था। इसका उल्लेख जैन धर्म के प्रसिद्ध ग्रंथ कल्पसूत्र में वर्णित है। नेतुला मां को चन्द्रघंटा का भी रूप बताया गया है। मन्यता है देवी सती की पीठ यही  गिरी थी। मन्दिर भव्य है पर पुन:निर्मित लगती है जबकि मुर्तियाँ पुरातन है।



नेतुला मंदिर कुमार, जमुई

मंगरौनी, मधुबनी
हमलोग २०१८ में ही यहां भी गए थे। हमारा starting point था मधुबनी शहर। सबसे पहले हम मंगरौनी गए। यह हमारे ससुराल परिवार का गुरु स्थान है। यहां पहले भी आ चुके थे। यह एक तांत्रिक स्थान है और एकादश शिवलिंग के लिए प्रसिद्ध हैं। यहां कांचीपीठ के शंकराचार्य जयेन्द्र सरस्वती, जगरनाथ पीठाधीश्वर शंकराचार्य निश्चलानंद सरस्वती भी पहुंच चुके हैं।

भुवनेश्वरी मंदिर, मंगरौनी

कपिलेश्वर महादेव हमारा अगला stop था। यह मधुबनी से ९ कि०मी० की दूरी पर स्थित महादेव का एक प्रसिद्ध मंदिर है। दरभंगा जयनगर मार्ग में रहिका के पास स्थित यह मंदिर मिथिला के बैद्यनाथ धाम की तरह प्रसिद्ध है। कहते है कि राजा जनक रोज जल अर्पण करने रोज यहां आते थे। कपिल मुनि द्वारा स्थापित इस शिवलिंग की बहुत मान्यता है।
इस मंदिर से जुडी एक बहुत पुरानी कहानी है जो बहुत से लोगों को मालूम भी नहीं होगी। हजारो साल पहले यहां पर एक ऋषि रहा करते थे। वो ऋषि भगवान शिव के बहुत बड़े भक्त थे। उस ऋषि का नाम कर्दम ऋषि था। वह ऋषि भगवान शिव की कड़ी तपस्या करते थे और ध्यान किया करते थे लेकिन उसके लिया उन्हें जल नहीं मिल रहा था। तभी वहां पर चमत्कार हुआ, वरुण देव प्रकट हुए और उन्होंने ख़ुद एक तालाब निर्माण किया। वो तालाब आज भी वहा मौजूद है।


कपीलेश्वर मंदिर, मधुबनी

हमारा अगला पड़ाव था बेनीपट्टी के पास स्थित ऊच्चैठ भगवती मंदिर। एक बड़े क्षेत्र में यह मंदिर स्थित है। अनेकों देव देवियों की झांकी मंदिर से सजा है मंदिर कैंपस। थोड़ी विशेष भीड़ भी थी।

ऊच्चैठ भगवती मंदिर

इस मंदिर का ऐतिहासिक महत्व है, यहीं महान कवि कालिदास को माता काली ने वरदान दिया था और मूर्ख कालिदास मां का आशीर्वाद पाकर ही महान कवि के रूप में विख्यात हुए।
प्राचीन मान्यता है कि इसके पूर्व दिशा में एक संस्कृत पाठशाला थी और मंदिर तथा पाठशाला के बीच एक विशाल नदी थी। महामूर्ख कालिदास अपनी विदुषी पत्नी विद्दोतमा से तिरस्कृत होकर माँ भगवती के शरण में उच्चैठ आ गए थे और उस विद्यालय के आवासीय छात्रों के लिए खाना बनाने का कार्य करने लगे।
एक बार भयंकर बाढ़ आई और नदी का बहाव इतना ज्यादा था की मंदिर में संध्या दीप जलाने का कार्य जो कि छात्र किया करते थे , वो सब जाने में असमर्थ हो गए , कालिदास को महामूर्ख जान उसे आदेश दिया गया कि आज शाम वो दीप जला कर आये और साथ ही मंदिर की कोई निशानी लगा कर आये ताकि ये तथ्य हो सके कि वो मंदिर में पंहुचा था।
इतना सुनना था कि कालिदास झट से नदी में कूद पड़े और किसी तरह तैरते-डूबते मंदिर पहुंच कर दीपक जलाया और पूजा अर्चना की। अब मंदिर का कुछ निशान लगाने की बारी थी ताकि यह सिद्ध किया जा सके कि उन्होंने दीप जलाया। कालिदास को कुछ नहीं दिखा तो उन्होंने जले दीप के कालिख को ही हाथ पर लगा लिया। निशान की तौर पर भगवती के शुभ्र मुखमंडल पर कालिख पोत दी।
तभी माता प्रकट हुई और बोली रे मूर्ख कालिदास तुम्हे इतने बड़े मंदिर में कोई और जगह नहीं मिली और इस बाढ़ और घनघोर बारिश में जीवन जोखिम में डाल कर तुम दीप जलाने आ गए हो।
ये मूर्खता हो या भक्ति लेकिन मैं तुम्हे एक वरदान देना चाहती हूँ। कालिदास ने अपनी आपबीती सुनाई कि कैसे उनकी मूर्खता के कारण पत्नी ने तिरस्कृत कर भगा दिया। इतना सुनकर देवी ने वरदान किया कि आज सारी रात तुम जो भी पुस्तक स्पर्श करोगे तुम्हे कंठस्थ हो जाएगा। कलीदास ने सभी छात्रों की पुस्तकों को उस रात छू डाला और सभी उन्हें कंठस्थ हो गया। कालांतर में मुर्ख कालीदास एक महाकवि की तरह उभरे और कई महाकाव्य की रचना की।
अगली कहानी अगले भाग में। आप खुश रहे, स्वस्थ्य रहे।

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